31.8.09

मुद्रा चिकित्सा (भाग -२)

भाग - १ पढ़ने के लिए यहाँ क्लिक कीजिये.

अतिविनाम्रतापूर्वक मैं स्पष्ट कर देना चाहती हूँ कि मैं कोई योग विशेषज्ञ नहीं और न ही मुद्रा चिकित्सा में मैंने कोई विशेषज्ञता प्राप्त की है..ईश्वर की असीम अनुकम्पा से बाल्यावस्था से ही अपने परिवेश तथा अन्यान्य श्रोतों से शरीर तथा मन को सात्विकता से जोड़कर जीवन में सच्चे सुख प्राप्ति के साधनों के विषय में जानने का महत सुअवसर मिला..

मेरे पिताजी योग से जुड़े थे और उनके पास योग की अनेक पुस्तकें थीं. उन्हें क्रियायें / मुद्राएँ करते देखा करती तथा उन पुस्तकों को भी यदा कदा उल्टा-पुल्टा करती थी..परवर्ती वर्षों में अध्यात्म के साथ साथ "रेकी ", "आर्ट ऑफ़ लिविंग" इत्यादि के प्रशिक्षण क्रम में भी मुद्रा चिकित्सा के विषय में बहुत कुछ जानने-सुनने तथा सीखने का सुअवसर मिला...

इसके विस्मयकारी सकारात्मक प्रभाव को प्रत्यक्ष ही अपने जीवन में मैंने अनुभव किया है..और आज इसे उत्सुक परन्तु अनभिज्ञ लोगों के कल्याणार्थ प्रेषित कर रही हूँ. मनुष्य अपने जीवन में प्रत्येक उपक्रम सुख प्राप्ति हेतु ही तो करता है,पर चूँकि उसकी समस्त चेष्टाएँ सदा ही सकारात्मक दिशा में नहीं रहतीं, फलस्वरूप सुख के स्थान पर दुःख उसके हाथ आता है.

इस विधा पर सचित्र विस्तृत विवरण किसी भी मुद्रा चिकित्सा या योग मुद्रा की पुस्तक में जिज्ञासु सहज ही पा सकते हैं...

हमें तो प्रशिक्षण क्रम में यही निर्देशित किया गया था कि किसी भी मुद्रा को अपरिहार्य लाभ हेतु न्यूनतम चालीस मिनट करना चाहिए,परन्तु मैंने अनुभूत किया है कि कभी कभार व्यस्तता वश यह समय सीमा यदि संकुचित भी हो जाती है तो अल्पकाल में भी लाभ मिलता ही है.समयाभाव के बहाने इसे पूर्णतः टालना उचित नहीं रहता..

2. अपान मुद्रा :- अंगूठे से दूसरी अंगुली (मध्यमा) तथा तीसरी अंगुली (अनामिका) के पोरों को मोड़कर अंगूठे के पोर से स्पर्श करने से जो मुद्रा बनती है,उसे अपान मुद्रा कहते हैं..

लाभ - यदि मल मूत्र निष्कासन में समस्या आ रही हो,पसीना नहीं आ रहा हो,तो इस मुद्रा के चालीस मिनट के प्रयोग से इस अवधि के मध्य ही शरीर से प्रदूषित विजातीय द्रव्य निष्काषित हो जाते हैं.देखा गया है कि जब औषधि तक का प्रयोग निष्फल रहता है, इस मुद्रा का प्रयोग त्वरित लाभ देता है..

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3. शून्य मुद्रा :- अंगूठे से दूसरी अंगुली (मध्यमा,सबसे लम्बी वाली अंगुली) को मोड़कर अंगूठे के मूल भाग (जड़ में) स्पर्श करें और अंगूठे को मोड़कर मध्यमा के ऊपर से ऐसे दबायें कि मध्यमा उंगली का निरंतर स्पर्श अंगूठे के मूल भाग से बना रहे..बाकी की तीनो अँगुलियों को अपनी सीध में रखें.इस तरह से जो मुद्रा बनती है उसे शून्य मुद्रा कहते हैं..

लाभ - इस मुद्रा के निरंतर अभ्यास से कान बहना, बहरापन, कान में दर्द इत्यादि कान के विभिन्न रोगों से मुक्ति संभव है.यदि कान में दर्द उठे और इस मुद्रा को प्रयुक्त किया जाय तो पांच सात मिनट के मध्य ही लाभ अनुभूत होने लगता है.इसके निरंतर अभ्यास से कान के पुराने रोग भी पूर्णतः ठीक हो जाते हैं..

इसकी अनुपूरक मुद्रा आकाश मुद्रा है.इस मुद्रा के साथ साथ यदि आकाश मुद्रा का प्रयोग भी किया जाय तो व्यापक लाभ मिलता है.



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4. सूर्य मुद्रा :- अंगूठे से तीसरी अंगुली अनामिका (रिंग फिंगर) को मोड़कर उसके ऊपरी नाखून वाले भाग को अंगूठे के जड़ (गद्देदार भाग) पर दवाब(हल्का) डालें और अंगूठा मोड़कर अनामिका पर निरंतर दवाब(हल्का) बनाये रखें तथा शेष अँगुलियों को अपने सीध में सीधा रखें.....इस तरह जिस मुद्रा का निर्माण होगा उसे सूर्य मुद्रा कहते हैं...

लाभ - यह मुद्रा शारीरिक स्थूलता (मोटापा) घटाने में अत्यंत सहायक होता है...जो लोग मोटापे से परेशान हैं,इस मुद्रा का प्रयोग कर फलित होते देख सकते हैं..

( अनामिका को महत्त्व लगभग सभी धर्म सम्प्रदाय में दिया गया है.इसे बड़ा ही शुभ और मंगलकारी माना गया है.हिन्दुओं में पूजा पाठ उत्सव आदि पर मस्तक पर जो तिलक लगाया जाता है,वह इसलिए कि ललाट में जिस स्थान पर तिलक लगाया जाता है योग के अनुसार मस्तक के उस भाग में द्विदल कमल होता है और अनामिका द्वारा उस स्थान के स्पर्श से मस्तिष्क की अदृश्य शक्ति जागृत हो जाती हैं,व्यक्तित्व तेजोमय हो जाता है)




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5. वायु मुद्रा :- अंगूठे के बाद वाली पहली अंगुली - तर्जनी को मोड़कर उसके नाखभाग का दवाब (हल्का) अंगूठे के मूल भाग (जड़) में किया जाय और अंगूठे से तर्जनी पर दवाब बनाया जाय ,शेष तीनो अँगुलियों को अपने सीध में सीधा रखा जाय...इससे जो मुद्रा बनती है,उसे वायु मुद्रा कहते हैं.

लाभ - वायु संबन्धी समस्त रोग यथा - गठिया,जोडों का दर्द, वात, पक्षाघात, हाथ पैर या शरीर में कम्पन , लकवा, हिस्टीरिया, वायु शूल, गैस, इत्यादि अनेक असाध्य रोग इस मुद्रा से ठीक हो जाते हैं. इस मुद्रा के साथ कभी कभी प्राण मुद्रा भी करते रहना चाहिए...




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6. प्राण मुद्रा :- अंगूठे से तीसरी अनामिका तथा चौथी कनिष्ठिका अँगुलियों के पोरों को एकसाथ अंगूठे के पोर के साथ मिलाकर शेष दोनों अँगुलियों को अपने सीध में खडा रखने से जो मुद्रा बनती है उसे प्राण मुद्रा कहते हैं..

लाभ - ह्रदय रोग में रामबाण तथा नेत्रज्योति बढाने में यह मुद्रा परम सहायक है.साथ ही यह प्राण शक्ति बढ़ाने वाला भी होता है.प्राण शक्ति प्रबल होने पर मनुष्य के लिए किसी भी प्रतिकूल परिस्थितियों में धैर्यवान रहना अत्यंत सहज हो जाता है.वस्तुतः दृढ प्राण शक्ति ही जीवन को सुखद बनाती है..

इस मुद्रा की विशेषता यह है कि इसके लिए अवधि की कोई बाध्यता नहीं..इसे कुछ मिनट भी किया जा सकता है.



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7. पृथ्वी मुद्रा :- अंगूठे से तीसरी अंगुली - अनामिका (रिंग फिंगर) के पोर को अंगूठे के पोर के साथ स्पर्श करने पर पृथ्वी मुद्रा बनती है.शेष तीनो अंगुलियाँ अपनी सीध में खड़ी होनी चाहिए..

लाभ - जैसे पृथ्वी सदैव पोषण करती है,इस मुद्रा से भी शरीर का पोषण होता है.शारीरिक दुर्बलता दूर कर स्फूर्ति और ताजगी देने वाला, बल वृद्धिकारक यह मुद्रा अति उपयोगी है.जो व्यक्ति अपने क्षीण काया (दुबलेपन) से चिंतित व्यथित हैं,वे यदि इस मुद्रा का निरंतर अभ्यास करें तो निश्चित ही कष्ट से मुक्ति पा सकते हैं. यह मुद्रा रोगमुक्त ही नहीं बल्कि तनाव मुक्त भी करती है..यह व्यक्ति में सहिष्णुता का विकाश करती है.


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8. वरुण मुद्रा :- कनिष्ठिका (सबसे छोटी अंगुली) तथा अंगूठे के पोर को मिलाकर शेष अँगुलियों को यदि अपनी सीध में राखी जाय तो वरुण मुद्रा बनती है..

लाभ - यह मुद्रा रक्त संचार संतुलित करने,चर्मरोग से मुक्ति दिलाने, रक्त की न्यूनता (एनीमिया) दूर करने में परम सहायक है.वरुण मुद्रा के नियमित अभ्यास से शरीर में जल तत्व की कमी से होने वाले अनेक विकार समाप्त हो जाते हैं.वस्तुतः जल की कमी से ही शरीर में रक्त विकार होते हैं.यह मुद्रा त्वचा को स्निग्ध तथा सुन्दर बनता है.

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9. अंगुष्ठ मुद्रा :- बाएँ हाथ का अंगूठा सीधा खडा कर दाहिने हाथ से बाएं हाथ कि अँगुलियों में परस्पर फँसाते हुए दोनों पंजों को ऐसे जोडें कि दाहिना अंगूठा बाएं अंगूठे को बहार से आवृत्त कर ले ,इस प्रकार जो मुद्रा बनेगी उसे अंगुष्ठ मुद्रा कहेंगे.

लाभ - अंगूठे में अग्नि तत्व होता है.इस मुद्रा के अभ्यास से शरीर में उष्मता बढ़ने लगती है.शरीर में जमा कफ तत्व सूखकर नष्ट हो जाता है.सर्दी जुकाम,खांसी इत्यादि रोगों में यह बड़ा लाभदायी होता है.कभी यदि शीत प्रकोप में आ जाएँ और शरीर में ठण्ड से कंपकंपाहट होने लगे तो इस मुद्रा का प्रयोग त्वरित लाभ देता है.




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मेरे अनुज, (शिवकुमार मिश्र) ने आलेख आलेख के प्रथम भाग का शीर्षक पढ़ कहा था कि उसने सोचा वर्तमान चिकित्सा में मुद्रा की आवश्यकता पर मैंने कोई व्यंग्य लिखा है...

व्यंगात्मक तो नहीं विवेचनात्मक प्रयास अवश्य है मेरा इस आलेख के माध्यम से कि चिकित्सा में मुद्रा की अपरिहार्यता को हम अपने इन मुद्राओं द्वारा नगण्य ठहरा सकते हैं.जब इतनी शक्ति हमारे अपने ही इन अँगुलियों में है,तो क्यों न इन मुद्राओं के प्रयोग द्वारा उस मुद्रा (पैसे) की बचत कर लें...

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26.8.09

मुद्रा चिकित्सा (भाग -१)

प्राणी जगत में समस्त प्राणियों में सर्वाधिक सामर्थ्यवान प्राणी मनुष्य ही है,यह सर्वविदित है..परन्तु अपने सम्पूर्ण जीवन काल में अपने सामर्थ्य के दशांश का भी सदुपयोग विरले ही कोई मनुष्य कर पाता है,यह दुर्भाग्यपूर्ण है....एक शरीर के साथ ही अपार सामर्थ्य का वह अकूत भण्डार भी व्यर्थ ही अनुपयुक्त रह नष्ट हो जाता है.


जैसा कि हम जानते सुनते आये हैं, कि मानव शरीर -क्षिति जल पावक गगन समीरा(पृथ्वी,जल,अग्नि,आकाश तथा वायु) पंचतत्व से निर्मित है..साधारनतया आहार विहार का असंतुलन इन पंचतत्वों के संतुलन को विखण्डित करता है और फलस्वरूप मनुष्य शरीर भांति भांति के रोगों से ग्रसित हो जाता है...रोग का प्रभाव बढ़ने पर हम चिकित्सकों के पास जाते हैं और वर्तमान में एलोपैथीय चिकित्सा में अभीतक किसी भी व्याधि के लिए ऐसी कोई भी औषधि उपलब्ध नहीं है,जिसका सेवन पूर्णतः निर्दोष हो. कई औषधियों में तो स्पष्ट निर्देशित होते हैं कि अमुक औषधि अमुक रोग का निवारण तो करेगी परन्तु इसके सेवन से कुछ अन्य अमुक अमुक रोग(साइड इफेक्ट) हो सकते हैं...जबकि हमारे अपने शरीर में ही रोग प्रतिरोधन की वह अपरिमित क्षमता है जिसे यदि हम प्रयोग में लायें तो बिना चिकित्सक के पास गए, या किसी भी प्रकार के औषधि के सेवन के ही अनेक रोगों से मुक्ति पा सकते हैं....


यूँ तो नियमित व्यायाम तथा संतुलित आहार विहार सहज स्वाभाविक रूप से काया को निरोगी रखने में समर्थ हैं , पर वर्तमान के द्रुतगामी व्यस्ततम समय में कुछ तो आलस्यवश और कुछ व्यस्तता वश नियमित योग सबके द्वारा संभव नहीं हो पाता.. परन्तु योग में कुछ ऐसे साधन हैं जिनमे न ही अधिक श्रम की आवश्यकता है और न ही अतिरिक्त समय की. इसे " मुद्रा चिकित्सा " कहते हैं...विभिन्न हस्तमुद्राओं से अनेक व्याधियों से मुक्ति संभव है...


हमारे हाथ की पाँचों अंगुलियाँ वस्तुतः पंचतत्वों का प्रतिनिधित्व करती हैं.यथा-

१.अंगूठा= अग्नि,
२.तर्जनी (अंगूठे के बाद वाली पहली अंगुली ) = वायु,
३.मध्यमा (अंगूठे से दूसरी अंगुली) = आकाश,
४.अनामिका (अंगूठे से तीसरी अंगुली) = पृथ्वी,
५. कनिष्ठिका ( अंगूठे से चौथी अंतिम सबसे छोटी अंगुली ) = जल ..


शरीर में पंचतत्व इस प्रकार से है...शरीर में जो ठोस है,वह पृथ्वी तत्व ,जो तरल या द्रव्य है वह जल तत्व,जो ऊष्मा है वह अग्नि तत्व,जो प्रवाहित होता है वह वायु तत्व और समस्त क्षिद्र आकाश तत्व है.


अँगुलियों को एक दुसरे से स्पर्श करते हुए स्थिति विशेष में इनकी जो आकृति बनती है,उसे मुद्रा कहते हैं...मुद्रा चिकित्सा में विभिन्न मुद्राओं द्वारा असाध्यतम रोगों से भी मुक्ति संभव है...वस्तुतः भिन्न तत्वों का प्रतिनिधित्व करती हाथ की इन अँगुलियों से विद्युत प्रवाह निकलते हैं.अँगुलियों से निकलने वाले विद्युत प्रवाहों के परस्पर संपर्क से शरीर के चक्र तथा सुसुप्त शक्तियां जागृत हो शरीर के स्वाभाविक रोग प्रतिरोधक क्षमता को आश्चर्यजनक रूप से उदीप्त तथा परिपुष्ट करती है. पंचतत्वों का संतुलन सहज स्वाभाविक रूप से शरीर को रोगमुक्त करती है.रोगविशेष के लिए निर्देशित मुद्राओं को तबतक करते रहना चाहिए जबतक कि उक्त रोग से मुक्ति न मिल जाए...रोगमुक्त होने पर उस मुद्रा का प्रयोग नहीं करना चाहिए. मुद्राओं से केवल काया ही निरोगी नहीं होती, बल्कि आत्मोत्थान भी होता है. क्योंकि मुद्राएँ शूक्ष्म शारीरिक स्तर पर कार्य करती है.



मुद्राओं का समय न्यूनतम चालीस मिनट का होता है.अधिक लाभ हेतु यह समयसीमा यथासंभव बढा लेनी चाहिए..यूँ तो सर्वोत्तम है कि सुबह स्नानादि से निवृत होकर पद्मासन या सुखासन में बैठ आठ दस गहरी साँसें लेकर और रीढ़ की हड्डी को पूरी तरह सीधी रख इन मुद्राओं को किया जाय...परन्तु सदा यदि यह संभव न हो तो चलते फिरते उठते बैठते या लेटे हुए किसी भी अवस्था में इसे किया जा सकता है, इससे लाभ में कोई विशेष व्यवधान नहीं पड़ता...मुद्रा में लिप्त अँगुलियों के अतिरिक्त अन्य अँगुलियों को सहज रूप से सीधा रखना चाहिए.एक हाथ से यदि मुद्रा की जाती है तो उस हाथ के उल्टे दिशा में अर्थात बाएँ से किया जाय तो दायें भाग में और दायें से किया जाय तो बाएँ भाग में लाभ होता है.परन्तु लाभ होता है, यह निश्चित है.


ज्ञान मुद्रा -
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अंगूठे और तर्जनी(पहली उंगली) के पोरों को आपस में (बिना जोर लगाये सहज रूप में) जोड़ने पर ज्ञान मुद्रा बनती है.


लाभ :-


इस मुद्रा के नित्य अभ्यास से स्मरण शक्ति का अभूतपूर्व विकाश होता है.मष्तिष्क की दुर्बलता समाप्त हो जाती है.साधना में मन लगता है.ध्यान एकाग्रचित होता है.इस मुद्रा के साथ यदि मंत्र का जाप किया जाय तो वह सिद्ध होता है. किसी भी धर्म/पंथ के अनुयायी क्यों न हों ,उपासना काल में यदि इस मुद्रा को करें और अपने इष्ट में ध्यान एकाग्रचित्त करें तो, मन में बीज रूप में स्थित प्रेम की अन्तःसलिला का अजश्र श्रोत स्वतः प्रस्फुटित हो प्रवाहित होने लगता है और परमानन्द की प्राप्ति होती है.इसी मुद्रा के साथ तो ऋषियों मनीषियों तपस्वियों ने परम ज्ञान को प्राप्त किया था॥

पागलपन,अनेक प्रकार के मनोरोग,
चिडचिडापन,क्रोध,चंचलता,लम्पटता,अस्थिरता,चिंता,भय,घबराहट,व्याकुलता,अनिद्रा रोग, डिप्रेशन जैसे अनेक मन मस्तिष्क सम्बन्धी व्याधियां इसके नियमित अभ्यास से निश्चित ही समाप्त हो जाती हैं.मानसिक क्षमता बढ़ने वाला तथा सतोगुण का विकास करने वाला यह अचूक साधन है. विद्यार्थियों ,बुद्धिजीवियों से लेकर प्रत्येक आयुवर्ग के स्त्री पुरुषों को अपने आत्मिक मानसिक विकास के लिए मुद्राओं का प्रयोग अवश्य ही करना चाहिए...


क्रमशः :-

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13.8.09

क्षय हो .....

भारतीय संस्कृति की महान संरक्षिका एवं संवाहिका, प्रातः स्मरणीया परम आदरणीया सुश्री राखी सावंत जी का अति रोमांचक प्रेरणादायी औत्सुक्यप्रद स्वयंवर, जनक नंदिनी मैया सीता, द्रुपद दुहिता द्रौपदी तथा ऐसे ही अन्यान्य असंख्य स्वयंवरों को लघुता देता, नवीन मानदंड स्थापित करता हुआ, सबकी आँखों को चुन्धियाता अंततः सफलतापूर्वक संपन्न हुआ. आशा है, इसकी आशातीत सफलता से अति उत्साहित हुए दृश्य जगत के दिग्दर्शक निकट भविष्य में इनसे भी उत्कृष्ट , महत्तम प्रतिमान स्थापित करने हेतु इस कोटि के प्रस्तुतियों की झड़ी लगा देंगे,जिनसे भारतीय जनमानस अपने गौरवशाली अतीत के दिग्दर्शन करने के साथ साथ भविष्य के लिए इनसे महत प्रेरणा प्राप्त कर अपने जीवन को कृतार्थ करेंगे...

सत्यम शिवम् सुन्दरम को सिद्ध पुनरप्रतिष्ठित करता, सत्यानुयाई महान राजा हरिश्चंद्र के वंशजों का साक्षात्कार अभी चल ही रहा है.यह और बात है कि निरीह राजा जी को सत्य की रक्षा क्रम में सर्वस्व गवाना पड़ा था. परन्तु उसी दुर्घटना से सचेत हो उनके अनुयायियों ने सत्य उद्घाटन क्रम में " अर्थार्जन " को ही सर्वोपरि मानते हुए इसे सर्वोच्च प्राथमिकता दी है. यूँ भी अर्थ के सम्मुख इस कलिकाल में सब अर्थहीन है. जैसे ही ये सत्यवादी " उष्ण पीठिका " (हॉट सीट) पर विराजित होते हैं, वीभत्स सत्य उद्घाटन/ उत्सर्जन को अपना परम कर्तब्य मान लेते हैं . बधाई हो !!! अब सत्यध्वज निश्चिंत निर्बाध हो, उतंग फहराएगा.....इसमें कोई शंशय नहीं......

इन सब के साथ संवेदनाओं से उभ चुभ महान कथानकों वाले धारावाहिक भारतीय जनमानस के ह्रदय को द्रवित करती धाराप्रवाह प्रवाहमान है..इनमे से अधिकाँश द्वारा परम्पराओं संबंधों के नित नवीन कीर्तिमान उपस्थित किये जा रहे हैं. ये भारतीय समाज को प्रगति के पथ पर पाँव पैदल नहीं अपितु द्रुतगामी वायुयान यात्रा करा रहें हैं.....इतना ही नहीं नए उत्पादों के लुभावने विज्ञापन ,जिनमे से अधिकाँश अपने अति सीमित पलों के प्रसारण क्रम में भी एक पूरे तीन घंटे के " ए" श्रेणी ( वयस्क श्रेणी) के चलचित्र का रोमांच देते हुए हमारे ज्ञान कोष को अभूत पूर्व समृद्धि दे रहे हैं.. .हमारी प्रजावत्सल सरकार की अपार अनुकम्पा से चौबीसों घंटे तीन सौ पैंसठ दिन के लिए वभिन्न चैनलों पर अनवरत बालक वृद्ध नर नारी उभयचारी ,सबके लिए सबकुछ सहजसुलभ हैं.....

और तो और, अति कर्मठ समाचार वाचक, आठों याम, नगर नगर,डगर डगर ,पानी की धार में, बरखा की फुहार में, आंधी में रेत में, रेल में खेल में ,गली गली कूचे कूचे, स्नानघर से लेकर शयनकक्ष तक, धरती अम्बर पाताल, डोल डोल, टटोल टटोल कर हमें एकदम गरमागरम खट्टे मीठे करारे सनसनीदार समाचार (??) दे निहाल किये रहते हैं...

डेढ़ दो दशक से भी कम समय में सूचना और संचार क्रांति ने हमें कहाँ से कहाँ पहुंचा दिया...देखा, इसे कहते हैं प्रगति की पराकाष्ठा... हमारा देश कितना प्रगति कर गया है,नहीं ???

क्या कहा, आपको इसमें से अधिकांश नहीं सुहाता, तो लो भाई, इसमें कुलबुलाने और भड़कने वाली कौन सी बात है, रिमोट है न आपके पास ?? बस पुट से बटन दबाइए,चुट से चैनल बदल गया.......इतने सारे चैनल हैं...कोई बाध्यता थोड़े न है कि न पसंद आये तो भी देखते रहो.......चालक, संचालक,दिग्दर्शक ,प्रबुद्ध वर्ग सबकी यही सीख और सुझाव है आम दर्शकों के लिए.....

चलिए हमने मान लिया.... हम जैसे पुरातनपंथी,प्रगति के विरोधी लोग वर्तमान में प्रसारित अधिकाँश कार्यक्रमों से क्षुब्ध होकर रिमोट तो क्या टी वी तक का उपयोग नहीं करेंगे या फिर यदि करेंगे भी तो पूर्ण सजग रह अपने हाथों विवेक रुपी रिमोट का सतत प्रयोग करेंगे ......पर समस्या है कि देश की कितनी प्रतिशत आबादी विवेक रूपी रिमोट को सजग हो व्यवहृत कर पायेगी और आत्मरक्षा में सफल हो पायेगी ??

आज टेलीविजन तथा असंख्य चैनलों की पहुँच समाज के उस हिस्से तक है जो दिहाडी कमाता है..और उनके लिए दारू ताडी के बाद यही एकमात्र मनोरंजन का सबसे सुगम और सस्ता साधन है.निम्न ,माध्यम वर्ग से लेकर हिंदी देखने सुनने वाले उच्च आय वर्ग तक ने अपना परम मित्र इन्हें ही बना लिया है . इन दृश्य मध्यमो से अहर्निश मनोमस्तिष्क तक जो कुछ पहुँच रहा है,वहां अनजाने जो छप रहा है, वह पूरे समाज को कहाँ लिए जा रहा है,क्या यह विचारणीय नहीं ???

कैसी विडंबना है कि चार पांच या इससे अधिक सदस्यों वाला एक निम्न/ मध्यमवर्गीय परिवार डेढ़ दो सौ रुपये में चार दिन का राशन भले नहीं खरीद सकता पर इतने रुपयों में महीने भर के लिए आँखों को चुन्धियाता चमचमाता वैभवशाली मनोरंजन अवश्य खरीद सकता है,जिसके आगे अपने परिवार को बैठा वह सुनहरे सपने दिखा सकता है,तंगहाली के क्षोभ को बहला सकता है ..

मुझे बहुधा ही उन राजकुमारों की कथा का स्मरण हो आता है,जिनको पठन पाठन से घोर वितृष्णा थी और फिर उनके गुरु ने रोचक कथाओं में उलझा खेल खेल में उनकी सम्पूर्ण शिक्षा सफलतापूर्वक संपन्न कराई थी.कोई भी बात या सन्देश जितनी सफलतापूर्वक कथानकों के माध्यम से व्यक्ति के ह्रदय में आरोपित की जा सकती है,उतनी किसी भी अन्य माध्यम से नहीं. उसमे भी कथानकों का दृश्य रूप तो कभी निष्फल हो ही नहीं सकता..यह तो रामबाण सा कार्य करता है...

कहा जाता है, आसपास जो घट रहा है, उसीको तो टी वी, सिनेमा या विज्ञापन में दिखाया जाता है.......क्या सचमुच ?? चलिए मान लेते हैं कि यह कथन सत्य है...तो भी ऐसे सत्य का क्या करना जो व्यक्ति की संवेदनाओं को पुष्ट नहीं बल्कि नष्ट करे,उसे सुन्न करे ....क्या हम नहीं जानते कि विभत्सता की पुनरावृत्ति व्यक्ति की विषय विशेष के प्रति उदासीनता को ही प्रखर करती है...

विभत्सता,व्यभिचार, अश्लीलता, अनैतिक सबंध, अनाचार, धन वैभव का भव्य फूहड़ प्रदर्शन, षडयंत्र इत्यादि के अहर्निश बौछारों के बीच सफलतापूर्वक स्वयं को अप्रभावित या निर्लिप्त रख पाना कितनो के लिए संभव है ???? यह जो एक प्रकार का नियमित विषपान प्रतिदिन नियत मात्रा में इन दृश्य माध्यमों द्वारा आम भारतीय जनमानस के मष्तिष्क को कराया जा रहा है, देसी विदेसी चैनल के दिग्दर्शकों द्वारा हमारे देश पर एक सुनियोजित सांस्कृतिक आक्रमण नहीं है?

बहुत पहले की तो बात नहीं,यही कोई एक डेढ़ दशक पूर्व की बात है...किसी स्त्री को यदि "सेक्सी" कह दिया जाता, तो तलवारें खिंच जाती थीं...आज यह महिलाओं को उपाधि, गर्व की बात लगती है. धन्यवाद कह वे प्रफ्फुलित हो लिया करती हैं...विचारों में यह इतना व्यापक परिवर्तन यूँ ही तो नहीं हो गया... क्या प्रगति का मार्ग नग्नता और नैतिक पतन के मार्ग से ही निकलता है??? क्या नैतिक मूल्यों की सचमुच कोई प्रासंगिकता नहीं बची ???

करीब पांच छः वर्ष पहले की बात है,एक दिन मेरा बेटा बिसुरने लगा,कि माँ आप भगवान् जी से हमेशा मुझे सद्बुद्दि देने और मुझे अच्छा आदमी बनाने की प्रार्थना करती हैं ,यह बहुत गलत बात है ...आप उन्हें यह क्यों नहीं कहतीं कि मेरा बेटा खूब बड़ा आदमी बने, खूब पैसा और नाम कमाए......उसका मानना था कि अच्छा आदमी हमेशा दुखी , लाचार और अभावग्रस्त रहता है और एक अच्छा आदमी कभी बड़ा आदमी नहीं बन सकता...

बड़े आदमी की उसकी परिभाषा यह थी कि बड़ा आदमी वह होता है,जिसके पास बहुत सारा पैसा हो,जो हवाई सफ़र कर सकता हो,बल्कि उसके अपने कई हवाई जहाज हो,मंहगी गाडियां हो,महल जैसा घर हो, ढेर सारे नौकर चाकर हों, ऐशो आराम का सारा सामान हो,पूरी दुनिया में नाम और पहचान हो.........और यह सब सच्चा और अच्छा आदमी बनकर तो पाया नहीं जा सकता न.

यह केवल एक बालमन की बात नहीं थी, बल्कि यह तो एक आम धारणा बन गयी है आज की. सफलता का मतलब तो बस यही रह गया है न....और उस लक्ष्य को पाने के लिए ये ही रास्ते रह गए हैं...

-> कुछ भी दांव पर लगाकर अभिनेता अभिनेत्री बन जाओ...

-> सही गलत को भूल कर किसी भी तरह कुछ भी करके टाटा बिडला अम्बानी मित्तल जैसा बनो ....

-> सारे पेंच आजमा राजनीति में घुस जाओ ....

-> दाउद शकील या गवली का अनुकरण कर भाईगिरी के धंधे में नाम पैसा और पद प्रतिष्ठा भी कमाओ ....

-> और कुछ नहीं कर सकते तो " बाबा " बन जाओ ....

" रिच एंड फेमस " बनना, बस यही है जीवन का लक्ष्य....नैतिक मूल्य की बात इसके सामने प्रलाप और व्यंग्य बन कर रह गया है.......

कहते हैं कि जब जनमानस दिग्भ्रमित हो,पतनोन्मुख हो तो राजा उन्हें दिशा देता है,जब राजा दिग्भ्रमित कर्तब्य विमुख हो जाता है तो राज्य के ज्ञानी विचारक (मंत्री/अधिकारी) उनका मार्गदर्शन करते हैं,परन्तु जब ज्ञानी विचारक ही दिग्भ्रमित और पतित हो जायं तो उस राज्य को ईश्वर भी नहीं बचा सकते...

सत्ता तथा शक्ति यदि सत्पुरुष के हाथ हो तो और तो और ऋतुएं भी धर्मपरायण उस शासक की चेरी हो अपने धर्मानुसार अनुगमन करती हैं ( क्योंकि तब शासक अपनी प्रजा की ही नहीं अपने धरती/प्रकृति तथा पशु पक्षी आदि समस्त प्राणि मात्र की रक्षा करना अपना परम धर्म बना लेता है और तदनुसार ये सभी भी स्वधर्म में तत्पर होतें हैं).परन्तु यदि यही सत्ता और शक्ति दुराचारी के हाथों लग जाय तो सभ्यता संस्कृति के भ्रष्ट और नष्ट होने में अधिक समय नहीं लगता...

किसी समय सेंसर नाम का कुछ हुआ करता था, जिसका काम यह देखना था कि मनोरंजन के विभिन्न दृश्य मध्यमो द्वारा समाज के सम्मुख अहितकर कुछ तो नहीं रखा जा रहा है........संभवतः अब वह आस्तित्व में नहीं है या फिर है भी तो इन सत्ताधीशों ने उसे बाज़ार के हाथों ऊंची बोली लगा बेच दी है...

क्या केवल प्रत्यक्ष सैन्य आक्रमणों से देश की रक्षा करना ही प्रशासक का कर्तब्य होता है?? सामाजिक, सांस्कृतिक एवं नैतिक मूल्यों की रक्षा करना प्रशासनन का कर्तब्य नहीं होता? आज मिडिया ने जो स्थिति बना रखी है,ऐसा तो नहीं कि प्रशासन इससे पूर्ण रूपेण अनभिज्ञ हैं....और यदि ये अनभिज्ञ हैं, तो ऐसे चक्षुविहीन प्रशासकों को क्या राज्य करने का अधिकार होना चाहिए ?? क्या समय नहीं आ गया,हमारा कर्तब्य नहीं बनता, कि ऐसे ध्रितराष्ट्र को जो अपनी छत्रछाया में पाप को संरक्षण दे रहा हो, जो शासन में सर्वथा अयोग्य हो, को सत्ताहीन कर हम अपने राष्ट्र की रक्षा करें ....

रोटी नहीं दे सकती, शिक्षा नहीं दे सकती, सुरक्षा नहीं दे सकती, संस्कार और संस्कृति का संरक्षण नहीं कर सकती,फिर भी क्या हम इनकी " जय हो " ही कहेंगे ?? माना कि ऐसा सोचने वाले हम संख्या में अतिअल्प हैं तो क्या हुआ,चलिए प्रण करें और अपने पूर्ण सामर्थ्य के साथ इस ओर प्रस्तुत हों कि ऐसे प्रशासक का " क्षय हो " ....

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