27.1.11

महानायक !!!

(भाग -२)

श्रुति और स्मृति में संरक्षित हिन्दू धर्म ग्रंथों के उपलब्ध लिखित अंशों को सुनियोजित ढंग से प्रक्षेपांशों द्वारा विवादित बना छोड़ने और हिन्दुओं को दिग्भ्रमित करने में अन्य धर्मावलम्बियों ने शताब्दियों में अपार श्रम और साधन व्यय किया है. आस्था जिस आधार पर स्थिर और संपुष्ट होती है, उसको खंडित किये बिना समूह को दुर्बल और पराजित करना संभव भी तो नहीं... और देखा जाए तो एक सीमा तक यह प्रयास सफल भी रहा है.. अन्य धर्मावलम्बियों की तो छोड़ ही दें हिन्दुओं में भी ऐसे लोगों की कमी नहीं जो कृष्ण को नचैया विलासी ठहरा उसका मखौल उड़ाते हैं और जो कृष्ण में आस्था रखने वाले हैं भी वे स्वयं को भक्त मान तो लेते हैं पर निश्चित और निश्चिन्त हो दृढ़ता पूर्वक इन आक्षेपों का तर्कपूर्ण खंडन नहीं कर पाते. कृष्ण को भगवान् ठहरा पूजा भजन भक्ति भाव में रमे वे अपने आराध्य के दोषों पर दृष्टिपात करना या सुनना घोर पाप ठहरा उसपर चर्चा किये बिना ही निकल जाते हैं.

काव्य कोई समाचार या इतिहास निरूपण नहीं होता,जिसमे ज्यों का त्यों घटनाओं को अंकित कर दिया जाय. काव्य में रस साधना प्रतिस्थापना के लिए अतिरंजना स्वाभाविक है,परन्तु सकारात्मक या नकारात्मक मत और आस्था स्थिर करते समय तर्कपूर्ण और निरपेक्ष ढंग से तथ्यों को देख परख लिया जाय तो भ्रम और शंशय का स्थान न बचेगा.. कृष्ण के सम्पूर्ण जीवन वृत्तांतों और कृतित्वों पर एक लघु आलेख में चर्चा तो संभव नहीं,यहाँ हम उन आक्षेपों पर संक्षेप में विचार करेंगे जो बहुधा ही उनके चरित्र पर लगाये जाते हैं..

बहुप्रचलित प्रसंग है कि गोपियाँ जब यमुना जी में स्नान करती थीं तो कान्हा उनके वस्त्र लेकर निकट कदम्ब के पेड़ पर चढ़ जाते थे और निर्वसना गोपियों को जल से बाहर आ वस्त्र लेने को बाध्य करते थे.. एक बार एक कृष्ण भक्त साधु से मैंने इस विषय में पूछा, तो उनका तर्क था कि कृष्ण गोपियों को देह भाव से ऊपर उठा माया से बचाना चाहते थे..तर्क मेरे गले नहीं उतर पाया..लगा कहीं न कहीं मानते वे भी हैं कि यह कृत्य उचित नहीं और अपने आराध्य को बचाने के लिए वे माया का तर्क गढ़ रहे हैं..अंततः बात तो वहीँ ठहरी है कि कृष्ण की अभिरुचि गोपियों को निर्वस्त्र देखने में थी.

तनिक विचारा जाए, गोपियाँ यमुना जी में जहाँ स्नान करतीं थीं , वह एक सार्वजानिक स्थान था. भले परंपरा में आज भी यह है कि नदी तालाब के जिस घाट पर स्त्रियाँ स्नान करती हैं, वहां पुरुष नहीं जाते ..परन्तु एक सार्वजानिक स्थान पर स्त्री समूह का निर्वस्त्र जल में स्नान करना, न तब उचित था, न आज उचित है... कृष्ण भी सदैव इसके लिए गोपियों को बरजा करते थे और जब उन्होंने इनकी न सुनी तो उन्होंने उन्हें दण्डित करने का यह उपक्रम किया और विलास संधान में उत्सुक सहृदयों द्वारा प्रसंग को कहाँ से कहाँ पहुंचा दिया गया. एक महत कल्याणकारी उद्देश्य को विलास सिद्ध कर छोड़ दिया गया..

यही भ्रम कृष्ण के बहुपत्नीत्व को लेकर भी है..राजनितिक, औद्योगिक घरानों में प्रयास आज भी होते हैं कि विवाह द्वारा प्रतिष्ठा तथा प्रभाव विस्तार हो..प्राचीन काल में तो अधिकाँश विवाह ही राज्य/ प्रभुत्व विस्तार या जय पराजय उपरान्त संधि आदि राजनितिक कारणों से हुआ करते थे. कृष्ण के विवाह भी इसके अपवाद नहीं.एक रुक्मिणी भर से इनका विवाह प्रेम सम्बन्ध के कारण था, बाकी सत्यभामा और जाम्बवंती से इनका विवाह विशुद्ध राजनितिक कारणों से था..रही बात सोलह हजार रानियों की, तो आज के विलासी पुरुष जो बात बात में कृष्ण की सोलह हजार पत्नियों का उदहारण देते हैं,क्या कृष्ण का अनुकरण कर सकते हैं ??

भौमासुर वध के उपरान्त जब उसके द्वारा अपहृत सोलह हजार स्त्रियों को कृष्ण ने मुक्त कराया, तो उनमे से कोई इस स्थिति में नहीं थी कि वापस अपने पिता या पति के पास जातीं और उनके द्वारा स्वीकार ली जातीं..देखें न, आज भी समाज अपहृताओं को नहीं स्वीकारता ,सम्मान देना तो दूर की बात है,तो उस समय की परिस्थितियां क्या रही होंगी....अब ऐसे में आत्महत्या के अतिरिक्त इन स्त्रियों के पास और क्या मार्ग बचा था..कृष्ण ने इनकी स्थिति को देखते हुए सामूहिक रूप से इनसे विवाह कर इन्हें सम्मान से जीने का अधिकार दिया. इनके भरण पोषण का महत उत्तरदायित्व लिया और यह स्थापित किया कि अपहृत या बलत्कृत स्त्रियाँ दोषमुक्त होती हैं,समाज को सहर्ष इन्हें अपनाना चाहिए,सम्मान देना चाहिए...बहु विवाह या बहु प्रेयसी के इच्छुक कितने पुरुष आज ऐसा साहस कर सकते हैं ??? चाहे राधा हों, गोपियाँ हों, या यशोदा, कुंती, द्रौपदी, उत्तरा आदि असंख्य स्त्रियाँ ,स्त्रियों को जो मान सम्मान कृष्ण ने दिया, पुरुष समाज के लिए सतत अनुकरणीय है... जिसे लोग विलासी ठहराते हैं,उसके पदचिन्हों पर पुरुष समाज चल पड़े तो समाज में स्त्रियों के अनादर और उपेक्षा की कोई स्थिति ही नहीं बचेगी .

सबसे महत्वपूर्ण बात, राधा कृष्ण तथा गोपी कृष्ण के रसमय लीलाओं की श्रृंगार रचना में पन्ने रंगने वाले यह नहीं स्मरण रख पाते कि तेरह वर्ष की अवस्था तक ही कृष्ण गोकुल में रहे थे, मथुरा गमन और कंश के विनाश के उपरान्त वे गुरु संदीपन के पास शिक्षा ग्रहण को गुरुकुल चले गए थे और जो वहां से लौटे तो उत्तरदायित्वों ने ऐसे घेरा कि जीवन पर्यंत कभी फिरकर गोकुल नहीं जा पाए . तो तेरह वर्ष की अवस्था तक में कोई बालक ( किशोर कह लें) कितने रास रच सकता है?? हाँ, सत्य है कि कृष्ण गोपियों के प्राण थे,पर यह तो स्वाभाविक ही था.. वर्षों से दमित समूह जिसे पाकर अपने को समर्थ पाने लगता है,उसपर अपने प्राण न्योछावर क्योंकर न करेगा..उनका वह नायक समस्त दुर्जेय शक्तियों को पल में ध्वस्त कर उनकी रक्षा करता है और फिर भी उनके बीच का होकर उनके जैसा रह उनसे अथाह प्रेम करने वाला है, तो कौन सा ह्रदय ऐसा होगा जो अपने इस दुलारे पर न्योछावर न होगा .. और केवल गोपियाँ ही क्यों गोप भी अपने इस नायक पर प्राणोत्सर्ग को तत्पर रहते थे..कंस के पराभव में यही गोप तो कृष्ण की शक्ति बने थे..अब प्रेमाख्यान रचयिताओं को कृष्ण के अनुयायियों भक्तों के प्रेमाख्यान क्यों न रुचे ,यह तो विचारणीय है.

एक बालक जिसके जन्म के पूर्व ही उसकी मृत्यु सुनिश्चित कर दी गई हो, जीवन भर हँसते मुस्कुराते संघर्षरत धर्म स्थापना में रत रहा..रोकर रिरियाकर उसने दिन नहीं काटे, बल्कि उपलब्ध साधनों संसाधनों का ही उपयोग कर समूह को संगठित नियोजित किया और एक से बढ़कर एक दुर्जेय बाधाओं को ध्वस्त करता हुआ एक दिन यदि विश्व राजनीति की ऐसी धुरी बन गया कि सबकुछ उसी के इर्द गिर्द घूमने लगा, कैसी विलक्षण प्रतिभा का धनी रहा होगा वह.. इस तेजस्वी बालक ने एक दमित भयभीत समूह को गीत संगीत का सहारा दे, कला से जोड़ मानसिक परिपुष्टता दी. गौ की सेवा कर दूध दही के सेवन से शरीर से हृष्ट पुष्ट कर अन्याय का प्रतिकार करने को प्रेरित किया..प्रकृति जिससे हम सदा लेते ही लेते रहते हैं,उनका आदर करना संरक्षण करना सिखाया .माँ माटी और गौ से ही जीवन है और इसकी सेवा से ही सर्वसिद्धि मिल सकती है,बालक ने प्रतिस्थापित किया..

न्याय अन्याय के मध्य अंतर समझाने को उसने व्यापक जनचेतना जगाई और लोगों को समझाया कि राजा यदि पालक होता है तो रक्षक भी होता है और जो रक्षक यह न स्मरण रख पाए कि उसकी प्रजा भूखी बीमार और त्रस्त है,उसे कर लेने का भी अधिकार नहीं है.अपने सखा समूह संग माखन मलाई लूट लेना खा लेना और चोरी छुपे दही मक्खन छाछ लेकर मथुरा पहुँचाने जाती गोपियों की मटकी फोड़ देना ,विद्रोह और सीख का ही तो अंग था..

अपने जन की रक्षा क्रम में  न उसे रणछोर कहलाने में लज्जा आई न षड्यंत्रकारियों के षड्यंत्रों का प्रति उत्तर छल से देने में... कृष्ण के सम्पूर्ण जीवन और कृत्यों में श्रृंगार संधान के स्थान पर यदि उनकी समूह संगठन कला, राज्य प्रबंधन कला और उनके जीवन दृष्टिकोण को विवेचित किया जाय और उनके द्वारा स्थापित मूल्यों को अंगीकार किया जाय तो मनुष्यमात्र अपना उद्धार कर सकता है. इस महानायक के जन्म से लेकर प्रयाण पर्यंत जो भी चमत्कारिक किंवदंतियाँ प्रचलित हैं, तर्क की कसौटी पर कसकर देखें कुछ भी अतिशयोक्ति न लगेगी..

वर्तमान परिपेक्ष्य में आहत व्यथित मन एक ऐसे ही विद्वान् जननायक, महानायक की आकांक्षा करता है..लगता है एक ऐसा ही व्यक्तित्व हमारे मध्य अवतरित हो जो धूमिल पड़ती धर्म और मनुष्यता की परिभाषा को पुनर्स्थापित करे. भ्रष्टाचार का पर्याय बन चुकी राजनीति को निर्मल शुद्ध करे,इसे लोकहितकारी बनाये.नैतिक मूल्यों को जन जन के मन में बसा दे और मनुष्य को सच्चे अर्थों में मनुष्य बनने को उत्प्रेरित करे..

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(कृष्ण जीवन से सम्बंधित जितनी पुस्तकें आजतक मैंने पढ़ीं हैं,उनमे आचार्य रामचंद्र शुक्ल और श्री नरेन्द्र कोहली जी की प्रतिस्थापनाओं ने मुझे सर्वाधिक प्रभावित किया है.मन इनके प्रति बड़ा आभारनत है..विषय के जिज्ञासुओं को इनकी कृतियाँ बड़ा आनंदित करेंगी,पढ़कर देखें )
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21.1.11

महानायक !!!



किसी भी कालखंड में काल विशेष के प्रसिद्द चर्चित व्यक्तित्वों के चरित्र और कृतित्व के विषय में लोक में जो कुछ भी प्रचारित रहता है, क्या वह वही होता है जो वास्तव में वह हैं या थे?? शायद नहीं न !!! क्योंकि व्यक्ति विशेष के विषय में लिखित रूप में जो कुछ भी संगृहित होता है,वस्तुतः वह लेखक /प्रचारक या लिखवाने प्रचारित करवाने वाले के हिसाब से होता है..लेखक अपने रूचि और संस्कार के अनुरूप व्यक्ति विशेष का चरित्र एवं कृतित्व गढ़ उसे लोक तक पहुंचता है. कभी कभी तो यह सत्य वास्तविकता से कोसों दूर हुआ करती है. कालांतर में व्यक्ति विशेष के विषय में जो विचार धारा सर्वाधिक प्रचार पाती है, वही मत स्थिर करने का आधार भी बनती है..

आज मिडिया सिने अभिनेता अमिताभ बच्चन जी का नाम " सदी के महानायक " लगाये बिना नहीं लेती..अमिताभ जी परिपक्व अभिनेता और प्रभावशाली व्यक्तित्व के स्वामी हैं,सुसंस्कृत शालीन सज्जन प्राणी हैं.. मेरे मन में उनके लिए बड़ा आदर भाव है,परन्तु उनके लिए इस उपाधि का प्रयोग मुझे अखर जाता है. हिन्दी भाषा जानने, शब्दों के अर्थ और महत्त्व समझने वालों की तो छोडिये, भारतीय सिनेमा के दर्शक /प्रशंशक भी क्या ह्रदय पर हाथ धर निरपेक्ष निष्पक्ष भाव से कह पाएंगे कि भारतीय सिनेमा के पिछले सौ वर्षों (सदी) में अमिताभ बच्चन जी सा धुरंधर अभिनेता हिन्दी सिनेमाँ में और कोई हुआ ही नहीं है ??? और जहाँ तक बात रही महानायकत्व की तो 'महानायक' शब्द का प्रयोग "महान अभिनेता" के अर्थ में होना चाहिए या "महान नेतृत्वकर्ता " के रूप में, यह हिन्दी भाषा के ज्ञाता विचार कर निर्धारित सकते हैं. वर्तमान का सत्य यही है कि यह उपाधि इतना प्रचारित कर दिया गया है कि इसपर प्रश्चिन्ह लगाने का कोई सोच भी नहीं पाता..यह प्रचार अतिरंजना ऐसे ही विस्तृत हुआ तो बहुत बड़ी बात नहीं कि आज से कुछ दशक या शतक वर्ष उपरान्त इनके चरित्र के साथ कुछ चमत्कारिक किंवदंतियाँ भी जुड़ जाएँ.. इन्हें महान अवतार ठहरा मंदिरों में प्रतिस्थापित करने लगा जाए और फूल फल अगरबत्ती से इनकी पूजा अर्चना आरम्भ हो जाए... अपने चारों ओर ऐसे दृष्टान्तों की कोई कमी नहीं.

एक और दृष्टान्त... आज खूब चर्चा में हैं डॉक्टर विनायक सेन..कुछ लोग इन्हें महान ठहराने में एड़ी चोटी साधे हुए हैं, तो कुछ आतंकवादियों का सहयोगी ठहरा अहर्निश निंदा में व्यस्त हैं..एक ही साथ,एक ही समय में , दो एक दम विपरीत विचारधाराएँ प्रचारित हैं. आमजन दिग्भ्रमित हैं कि इस व्यक्तित्व की वास्तविकता आखिर है क्या. अच्छा, बुरा क्या मानें इन्हें??.. आज जब व्यक्ति हमारे बीच उपस्थित है, तब तो वास्तविकता तक हमारी पहुँच नहीं, मान लिया आज से कुछ सौ वर्ष बाद इनपर चर्चा हुई या इनके विषय में मत स्थिर करना होगा, तो हम किस आधार पर करेंगे ??? संभवतः इसका आधार आज की बहुप्रचरित धारा ही होगी...नहीं ?? चलिए, वर्तमान की बात हो या दो ढाई सौ वर्ष पीछे की बात,किसी प्रसंग की सत्यता तक कोई अनुसंधानकर्ता पहुँच भी जाए ,पर बात जब हजारों या लाखों वर्ष पहले की हो तब ?? सत्यान्वेषण इतना ही सरल होगा क्या ???

विश्व में प्रचलित धर्म सम्प्रदायों में चाहे वह इस्लाम हो,इसाई हो या अन्यान्य कोई भी धर्म सम्प्रदाय, किसीमे भी अपने धर्म संस्थापकों, प्रवर्तकों , नायकों ,पूज्य श्रेष्ठ व्यक्तियों के चरित्र को लेकर अनास्था या मत विभिन्नता उतनी नहीं जितनी कि हिन्दुओं में है. यूँ भी एक परंपरा सी बनी हुई है कि हिन्दुओं के पौराणिक पात्रों तथा प्रसंगों को मिथ या कल्पना ठहरा नकार दिया जाए.. इधर कुछेक संस्थाओं , विद्वानों ने इनकी सत्यता जांचने का बीड़ा उठाया तो है, पर देखा जाय कि उनके प्रयोजन कितने निष्पक्ष हैं.. मुझे विश्वास है कि इस दिशा में यदि गंभीर और निष्पक्ष प्रयास किये जायं तो समय सिद्ध करेगा कि ये पौराणिक पात्र विशुद्ध इतिहास के अंग हैं, मिथ या कपोल कल्पना नहीं..

बात जब पौराणिक पात्रों युगपुरुषों, महानायकों की होती है,तो मर्यादापुरुसोत्तम राम और महानायक कृष्ण का नाम ध्यान में सबसे पहले आता है.. पर इनके विषय में लिखित संरक्षित साहित्य का अध्ययन करने पर हम पाते हैं कि युग के इतिहास का रुख मोड़ देने वाले इन दो महापुरुषों में से राम के चरित्र के साथ कलमकारों ने जितना न्याय किया उतना कृष्ण के चरित्र के साथ नहीं किया. तुलसीदास जैसे सहृदय कवि ने जिस प्रकार राम कथा तथा उनके चरित्र को विस्तार दे इसे जन जन के ह्रदय में प्रतिष्ठित कर जनमानस के लिए पूज्य और अनुकरणीय बनाया, ऐसा सौभाग्य कृष्ण चरित्र को प्राप्त न हुआ..वैसे तुलसीदास ही क्या राम का चरित्र जिन हाथों गया और विवेचित हुआ अधिकाँश ने उसके साथ न्याय किया,परन्तु विडंबना रही कि कृषण के जीवन और चरित्र को प्रत्येक कलमकारों ने अपने रुचिनुसार खण्डों में ले खंडविशेष को ही विस्तार दिया.

कोई कृष्ण के बाल रूप पर मुग्ध हो, वात्सल्य रस में लेखनी डुबो बालसुलभ चेष्टाओं को चित्रांकित करने में लगा रहा तो कोई श्रृंगार में निमग्न उसे पराकाष्ठा देने में एडी चोटी एक करता रह गया..किसीने उन्हें अलौकिक,चमत्कारिक परमेश्वर ठहराया तो किसीको कृष्ण धूर्त चतुर कूटनीतिज्ञ और राजनीतिज्ञ भर लगे. समग्र रूप में इस विराट व्यक्तित्व के सम्पूर्ण जीवन और कर्म की विवेचना करने में भक्तिकाल से लेकर रीतिकाल तक के किसी भी मूर्धन्य कवि ने अभिरुचि न दिखाई ..कृष्ण के लोक रंजक रूप पर तो खूब पन्ने रंगे गए पर उनके लोकरक्षक रूप को लोक के लिए अनुकरणीय रूप में समुचित ढंग से कोई नहीं रख पाया...

रीतिकालीन साहित्यकारों में तो श्रृंगार के प्रति आसक्ति ऐसी थी कि राज्याश्रित कवियों ने कृष्ण को लम्पट कामी और लुच्चा ही बनाकर छोड़ दिया.एक साधारण मनुष्य तक की गरिमा न छोडी उनमे.. यूँ भी श्रुति और स्मृति में संरक्षित हिन्दू धर्म ग्रंथों के उपलब्ध लिखित अंशों को सुनियोजित ढंग से प्रक्षेपांशों द्वारा विवादित बना छोड़ने और हिन्दुओं को दिग्भ्रमित करने में अन्य धर्मावलम्बियों ने शताब्दियों में अपार श्रम और साधन व्यय किया है. आस्था जिस आधार पर स्थिर और परिपुष्ट होती है,उसको खंडित किये बिना समूह को दुर्बल और पराजित करना सरल भी तो नहीं....


क्रमशः :-
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