tag:blogger.com,1999:blog-36301235090173738462024-03-13T11:44:22.638+05:30संवेदना संसाररंजनाhttp://www.blogger.com/profile/01215091193936901460noreply@blogger.comBlogger134125tag:blogger.com,1999:blog-3630123509017373846.post-40989669207667659282023-10-07T05:07:00.002+05:302023-10-07T05:07:25.969+05:30पितृ पक्षहेलोवीन महापर्व जो कि पश्चिम वाले कब्र में पड़े कयामत के दिन फैसले के बाद मुक्ति पाने की आस में व्याकुल विचलित अशरीरी आसपास उत्पात मचाते पूर्वजों को कम्पनी देने के लिए(साथ ही उनके जैसा बन उनके भय से मुक्त होने के प्रयास हित रचते हैं) धूमधाम से कोंहड़ा काटते मनाते हैं,,,वह पर्व उतनी ही श्रद्धा से उन्हीं के स्टाइल में शिक्षित प्रगतिशील भारतीय सेकुलड़ भी विगत कुछ वर्षों से बड़े हर्षोल्लास से मनाने लगे हैं,,,अपने उन सेकुलड़ बन्धुओं से मेरा निवेदन है कि 29 सेप्टेंबर से ही आरम्भ हुआ 15 दिनों का जो श्राद्धपक्ष अपने यहाँ चल रहा है, उसके विषय में पता कर अपने पूर्वजों को श्रद्धा सहित प्रणाम और हो सके तो दक्षिणमुखी होकर कम से कम एक लोटा जल अवश्य अर्पित कर दें।ध्यान रखें कि आपने पूर्वज कब्रों में नहीं पड़े हैं बल्कि अग्नि में भस्म होकर पुनः पंचतत्वों में विलीन हो गए हैं।अतः आप जब भी उन्हें मन से नमन करेंगे,जलादि अर्पित करेंगे,उन्हें वे अवश्य ग्रहण करेंगे।
आधुनिक विज्ञान ने भी कहा है न कि डीएनए(अनुवांशिकी) एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी में जाती रहती है।हम बन्दर से आदमी नहीं बने हैं,,जैसा कि वैज्ञानिकों की स्थापना थी(और पता नहीं कैसे आज भी बन्दर बन्दरे बने बचे हुए हैं हजारों साल से इस इंतजार में कि उनका भी मनुष्य बनने का नम्बर आएगा),,लेकिन अपने मनुष्यता के लच्छन सहेजे नहीं रख पाए तो कुछ ही पीढ़ी में मनुष्य शरीर के साथ ही बन्दर अवश्य बन जायेंगे।
और मनुष्यता यह कहती है कि सम्पूर्ण प्रकृति,पंचतत्व, हमारे पूर्वज जिनसे भी हमनें जीवन पाया है, हमारा गर्भनाल (गर्भ में सबसे पहले यही बनता है और सबसे कोमल यह अंश पूरे शरीर के अग्नि में भस्म होने के उपरांत भी नहीं जलता,बचा रह जाता है जिसे चुनकर गङ्गा जी में बाद में प्रवाहित किया जाता है) जिससे हम एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी से जुड़े होते हैं, अपने उन पूर्वजों का सम्मान करें।
कहते हैं, पितृपक्ष के ये पन्द्रह दिन भगवान ने केवल पितरों के पूजनार्थ आरक्षित कर दिया है।इस समय पितृलोक से धरती तक मार्ग खुल जाता है जिससे पितर आकर अपनी अगली पीढ़ी से मिल सकें,उनके द्वारा श्रद्धा पाकर सन्तुष्ट और बली हो पाएँ।
एक प्रश्न मन में आ सकता है कि जब शरीर नष्ट हो गया, आत्मा ने नवजीवन पा लिया, फिर पितर कहाँ और कैसे बच गए?
तो इसका समाधान यह है कि इस सृष्टि में सबकुछ ऊर्जा(एनर्जी) है।सजीव निर्जीव क्रिया(मानसिक शारीरिक) सबकुछ,,,और ऊर्जा का क्षय नहीं होता।अभी यदि यह मैं सोच रही हूँ,लिख रही हूँ, तो यह मेरा नहीं।ये समस्त सूचनाएँ इसी ब्रह्माण्ड में असंख्यों द्वारा सोची कही गयी संरक्षित उर्जास्वरूप में अवस्थित है।मैं इसे व्यक्त कर दूँगी, यह पुनः ब्रह्माण्ड में ऐसे ही अवस्थित रहेगा और पुनः किसी के मस्तिष्क द्वारा रिसीव किया जाएगा,प्रकट किया जाएगा।
तो व्यक्ति जब नष्ट होता है, उसका स्थूल शरीर अग्नि में भस्म होकर पुनः पंचतत्वों में विलीन हो जाता है,, शुद्ध आत्मा दूसरा शरीर प्राप्त करती है,किन्तु उसके द्वारा निष्पादित कर्म,उसकी स्मृतियाँ उर्जास्वरूप में इसी ब्रह्माण्ड में संरक्षित रहती हैं।इसलिए आवश्यक है कि हम उस रूप में अवस्थित अपने पूर्वजों के सम्मुख नतमस्तक हों।
मैं भावुक हो जाती हूँ जब स्मरण में आता है कि किन झंझावातों दुःसह कष्टों को झेलकर हमारे वे पूर्वज सनातनी रह गए थे जिनके कारण आज हम सगर्व सनातनी हैं,,नहीं तो पूरे सँसार में कभी रहने वाला सनातन पन्थिकों के विध्वंसी नीति के सम्मुख नतमस्तक होकर उन पथों की ओर उन्मुख हुआ और आज सिमटा हुआ समूह अपना अस्तित्व बचाये रखने को संघर्षरत है,हर कोई उससे लील कर मिटा देना चाहता है क्योंकि यह धर्म मनुष्य को मदान्ध उद्दण्ड स्वार्थी भोगी असुर बनने की कोई संभावना नहीं देता।
खैर, मैं बात कर रही थी पितृपक्ष पर अपने कर्तव्यों की।
इसी सिलसिले में एक और विषय पर चर्चा करना अत्यन्त अपरिहार्य है।
जैसे गङ्गा जी जब गोमुख से निकलती हैं, उनका रंग रूप उनके जल की पवित्रता और जब वे गंगासागर में सागर से मिलती हैं उनके जल की स्थिति,,एक सी नहीं होती(विश्वास कीजिये, गङ्गा सागर में उस जल का रूपरंग देख मैं वहाँ स्नान तो क्या उस जल के स्पर्श की भी हिम्मत नहीं जुटा पा रही थी,वह इस प्रकार प्रदूषित थी)...
इसी प्रकार हमारे ऋषि महर्षियों पूर्वजों ने जो कर्मकाण्ड अनुष्ठान आयोजनों की स्थापनाएँ कीं, उसमें अनेक अशुद्धियाँ विकृतियाँ आडम्बर कालान्तर में समाहित हो गए,, किन्तु इसका यह अर्थ नहीं है कि उनका सम्पूर्ण त्याग कर दिया जाय।हमें विवेकपूर्वक चावल में पड़े कंकड़ों को चुनकर हटाना होगा और तब खीर बनानी होगी।कर्मकाण्डों के मूल में निहित सर्वोपयोगी कल्याणकारी भाव जब हम देखेंगे तो गर्व से भर उठेंगे कि कितने दूरदर्शी विद्वान और वैज्ञानिक थे इनकी स्थापना करने वाले।
यदि हमें उन्हें नकारना त्यागना है,उन्हें अवैज्ञानिक मानना है तो अनुसंधान पूर्वक यह सिद्ध करें कि ये अयोग्य हैं,अन्यथा पूर्वजों पर आस्था रखते कर्मकाण्ड कुलरीति नीति निभाएँ।उर्जास्वरूप में हमारे कर्म अन्ततः हमें और जिनके निमित्त हम वह कर रहे हैं,सुख दायक कल्याणकारक होगा ही होगा,विश्वास करें।
एक बात और-
जिन परिजनों के साथ हमनें सम्पूर्ण जीवन जिया है, मृत्यु के उपरांत ऐसी हड़बड़ी क्यों कि सनातनी वैदिक पारम्परिक तरीके से नहीं बल्कि आर्यसमाजी 3 दिवसीय निपटान कर देना??कृपया ऐसा कदापि न करें।मृत्योपरांत 13 दिन तक जितने नेमधर्म कर्मकाण्ड सम्पादित होते हैं,वह जो केशदान होता है,नख कटवाए जाते हैं,घर कपड़े की सफाई होती है, भोजन का नियम, भोज का नियम होता है,,सबके पीछे वृहत्त वैज्ञानिक सामाजिक कल्याणकारी कारण है।आडम्बर मत कीजिये,किन्तु सात्त्विक ढंग से वे कर्मकाण्ड अवश्य निष्पादित कीजिये।वैसे भी कुलरीतियाँ लिखित रूप में नहीं होतीं,आप उन्हें व्यवहार में लाकर ही अगली पीढ़ी तक पहुँचा सकते हैं।हमारा आपका कर्तब्य है कि अगली पीढ़ियों तक संस्कृति पहुँचाएँ।
रंजना सिंहरंजनाhttp://www.blogger.com/profile/01215091193936901460noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-3630123509017373846.post-26971947959105689032022-07-20T23:53:00.001+05:302022-07-20T23:53:26.065+05:30रूपांतरणअपनी प्रचण्ड विध्वंसक अजेय विशाल सेना को तेजी से नष्ट होता देख क्षुब्ध महिसासुर ने भयानक महिष का रूप धारण कर देवी सेना को रौंदना आरम्भ किया।बड़े बड़े पर्वतों को अपने सिंहों पर उठाकर वह उनपर फेंकने लगा।अपने पूँछ के आघात से, थुथुन की मार से,खुरों के प्रहार से,उग्र निःश्वास वायु के वेग से वह द्रुतगति से देवी सेना को क्षति पहुँचाते देवी का वध करने उनके निकट पहुँच गया।समस्त संसार को सन्तप्त देख तब देवी ने प्रचण्ड क्रोध करते उस महिष को अपने पाश से बाँध लिया। स्वयं को बन्धा हुआ अक्षम असमर्थ पाकर उस महिष ने त्वरित वह रूप त्याग दिया.....
इसके बाद से जबतक उस महासुर का वध नहीं हुआ,,कभी गज,कभी सिंह,कभी मनुष्य तो कभी पुनः महिष रूप में आ आकर वह भीषण संघर्ष और विध्वंस पसारता रहा।
जैसे ही कोई भोगधर्मी बनता है,सात्त्विक गुणों (दया,करुणा,क्षमा,संवेदनशीलता,परोपकार आदि) से रिक्त होता चला जाता है और भोग में धँसता दानवत्व और पिशाचत्व को प्राप्त होता है भले शरीर से वह देव या मनुष्य ही क्यों न हो।फिर प्रत्येक सात्त्विक व्यक्ति वस्तु यम नियम साधन सिद्धांत से उसे अथाह घृणा होती जाती है और वह उन्हें नष्ट कर देने को प्रतिपल व्यग्र रहता है।यहाँ तक कि उसका जीवन ध्येय ही शुभ को नष्ट कर अशुभ स्थापित करना हो जाता है।
दानव/पिशच कोई व्यक्ति नहीं,अपितु प्रवृत्ति है जो आदिकाल से ही सृष्टि में अवस्थित है।जिस त्रिगुणात्मक गुणों,सत रज तम से सृष्टि की रचना हुई,उसमें से स्रष्टा भी यह व्यवस्था न कर पाए कि केवल सत या सत रज रहे और तम न रहे।किन्तु हाँ, यह व्यवस्था उन्होंने अवश्य कर दी कि तीन लोक बना दिये जिसमें स्वर्ग में सतोगुणी अर्थात देवता वास करें,,जिनके हाथों सृष्टि संचालन की व्यवस्था रहे।
मनुष्य लोक में ऋषि महर्षि रूप में सतोगुणी व रजो सतोगुणी मनुष्य रह सकें जो अपने सदाचरण और धार्मिक आध्यात्मिक गुणों प्रवृत्तियों द्वारा प्रकृति सृष्टि की सुव्यवस्था में योगदान करते यज्ञादि द्वारा देवताओं को भी शक्ति प्रदान करें।
और तीसरे, रज तम या घनघोर तम धारण करने वाले असुरों दानवों को पाताल लोक का वास मिला जहाँ वे असीमित भोग में लिप्त रह सकते थे।
तीनों लोकों की मर्यादा बाँध दी गयी कि कोई किसी अन्य लोक को अपने अधीन करने की कुचेष्टा नहीं करेगा।जिसने भी,जब कभी इस सीमा का,मर्यादा का अतिक्रमण किया, उसे दण्डित करते यह उदाहरण अवश्य स्थापित किया गया कि अगला कोई महत्वाकांक्षी अपने अहंकार में आकर ऐसी कुचेष्टा न करे।अन्यथा इसका परिणाम केवल उसे नहीं,उसके सम्पूर्ण समूह समाज को भोगना पड़ेगा।
इन तीनों में से देवताओं और मनुष्यों ने कभी अपने प्रभुत्व प्रभाव को अनावश्यक रूप से विस्तृत कर अन्यों को पराजित प्रताड़ित व पराधीन करने का लोभ नहीं किया,किन्तु भोगधर्मी असुरों को सदा ही सबकुछ अपने अधीन करने, अन्य सभी के धार्मिक मान्यताओं आस्थाओं को मिटा देने,सबका अधिपति रहने का हठ रहा।
आदिकाल से असुरों का उत्पात,उनके द्वारा अन्यों का विध्वंस और देवशक्तियों द्वारा समय समय पर उनका विध्वंस,उनकी शक्तियों को सीमित किया जाना,,,तब से अबतक अनवरत है और संभवतः सृष्टि के अन्त तक यह क्रम अबाधित ही रहेगा।
पिछले कुछ हजार वर्षों का ही इतिहास देख लें,,,दुष्ट शक्तियों का विस्तार,उनके द्वारा विध्वंस, सात्त्विक शक्तियों का संगठित होकर उनका सामना करना और विध्वंसक शक्तियों का कमजोर पड़ने पर शिथिल होकर कुछ समय के लिए सिमट कर रहना.....कब यह क्रम टूटा है?
कभी जिन्हें हम अलाने फलाने दैत्य,असुर,राक्षस नाम से जानते थे,उनके अत्याचार की लोमहर्षक कथाएँ पढ़ते सुनते सिहरते थे, आज वैसे ही अत्याचारी दैत्यों, उनके संगठन,उनके विध्वंसक धर्म और कर्म...एकदम से पूर्ववर्ती ढर्रे पर आज भी नहीं हैं क्या?बल्कि समय के साथ वे कुछ और उग्र व्यापक क्रूर हुए हैं।
अलकायदा आइसिस अलाना फलाना ढिमकाना.... आप एक नाम मिटा भी दें, ठीक महिषासुर की तरह वह अगले ही पल दूसरे हिंसक रूप में प्रकट होकर पहले से भी अधिक व्यापक विध्वंस मचाएगा।संक्रमित सोच से ग्रसित एक समूह को मिटाकर आप विध्वंसक प्रवृत्ति को नहीं मिटा सकते।इसके लिए आपको रक्तबीज का संहार करना होगा।उस बीज को समाप्त करना होगा,जिससे ऐसे जहरीले फल की उतपत्ति होती है और वह भी दिन दूनी रात चौगुनी।
शक्ति प्रहार द्वारा ही इनकी शक्ति को कुण्ठित किया जा सकता है।जबतक इन्हें अपने सम्पूर्ण नाश का भय हो,ये सिमटे रह सकते हैं।
जब सात्त्विक लोग,जिनकी मानवीय धर्म में गहरी आस्था है धर्मस्थापना हेतु प्रतिबद्ध हो संगठित होते हैं,वही सामूहिक शक्ति "दुर्गा" कहलाती है और तभी वह प्रचण्ड प्रहार महिषासुरों,शुम्भ निशुम्भ रक्तबीजों से मानवता का रक्षण हो पाता है।
ॐरंजनाhttp://www.blogger.com/profile/01215091193936901460noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-3630123509017373846.post-36737803316329857672021-08-01T21:17:00.003+05:302021-08-01T21:21:38.072+05:30महाभारत की सती नारियाँगान्धारी, कुन्ती, द्रौपदी तीनों ही महान, पूज्य,ऐतिहासिक स्त्रियाँ जो श्राप और वरदान दोनों ही देने की क्षमता रखती थीं, महान कैसे बनीं और जीवन में विफल कहाँ हुईं,, स्मरण करने पर ध्यान में आता है कि जिस ओर इनका तप था,उसकी सिद्धि तो इन्हें मिली,किन्तु जो पक्ष इनके ध्यान/तप से छूटे रह गए वे निर्बल रहते इनके दुःख के कारण बने।
गान्धारी- अपने चक्षुहीन पति के मनोभावों को समझने के लिए, जीवनभर का चक्षुहीनता स्वीकारना,दृष्टि का त्याग करना कोई साधारण बात नहीं थी, किन्तु इस कठोर पातिव्रत्य को देवी गान्धारी ने सहर्ष स्वीकारा।धृतराष्ट्र तथा कुरु वंश की आकांक्षा का मान रखते उन्होंने सौ प्रतापी पुत्रों का उपहार दिया और इस तप से ऐसी शक्ति पायी कि उनके कृष्ण को निरवंशी होने श्राप भी उतना ही प्रभावी रहा जितना अपने पुत्र दुर्योधन के शरीर को वज्र बनाने का वरदान। किन्तु अपरिमित शक्तिमती तपस्वी सक्षम यह माता अपने सौ पुत्रों को सन्मार्गी न बना पायी,, क्यों?
क्योंकि सती गान्धारी ने अपने जीवन का धर्म "पति की चक्षुहीनता का अनुसरण" तथा "पति की सौ पुत्रों की कामना" तक ही सीमित समझ लिया था। चक्षुत्याग कर उत्तम पतिव्रता तो बना जा सकता है, किन्तु सफल माता बनना सम्भव नहीं।यदि गान्धारी जन्मजात चक्षुहीन होती तो बात और थी,किन्तु युवावस्था तक चक्षुओं की अभ्यस्त बुद्धि अनुभव के वे सूत्र नहीं पकड़ पाती जो जन्मान्ध पकड़ लेता है।
एक पुत्र को सन्मार्ग पर चलाने के लिए तो माता को सौ नेत्र खोलकर रखने होते हैं, फिर सौ पुत्रों की भीड़....कम से कम दो खुली आँखें भी यदि प्रतिपल अंकुश को उपस्थित नहीं,,,तो क्या होगा?
और फलतः वही हुआ।पत्नी रूप में विजयी गान्धारी माता रूप में जीते जी सौ पुत्रों के शव वाली माता बनी।कृष्ण को श्राप देने का जो अतिरिक्त पाप उन्होंने लिया,सो लिया ही,,जीवन के उत्तरार्द्ध में अन्तिम पलों तक अविराम उनकी सेवा में रत रहकर कुन्ती ने उनको कभी इस अपराधबोध से मुक्त नहीं होने दिया कि उनदोनों पतिपत्नी तथा उनके पुत्रों ने पाण्डवों, कुन्ती के साथ कितने अन्याय किये।सो पतिव्रता रूप में सिद्ध प्रसिद्ध पूज्य होते भी एक माता,महारानी और जेठानी रूप में गान्धारी विफल ही रहीं।
कुन्ती- यह तो सबको ज्ञात है कि कुन्ती कुन्तिभोज की दत्तक पुत्री थी।सम्भवतः यही कारण हो कि कुन्ती में यदि सर्वाधिक उद्दात्त कोई भाव था तो वह वात्सल्य या कहें मातृत्व भाव ही था।अत्यन्त क्रोधी रूप में जगत्प्रसिद्ध ऋषि दुर्वासा की भी उन्होंने ऐसे मातृत्व भाव से सेवा की कि उन्होंने किशोरी कुन्ती को श्रेष्ठ सन्तान प्राप्ति हेतु मनोवांछित देवताओं के आवाहन और उनसे सन्तान प्राप्ति का सिद्ध मन्त्र प्रदान किया।उतावलेपन में उस मन्त्र का प्रयोग और कर्ण की प्राप्ति की कथा भी सबको ज्ञात ही है।
तो पाण्डव की पत्नी बनने से पूर्व कुन्ती माता बन चुकी थीं।अर्थात उनके व्यक्तित्व में सर्वाधिक प्रबल भाव था,तो वह मातृत्व भाव ही था।
इसी भाव के कारण पाण्डु द्वारा सन्तान देने में असमर्थ रहने के बाद भी कुन्ती के सन्तान सुख में कोई बाधा न आयी।
तीन स्वयं के और दो माद्री के संतान की वास्तविक माता जीवनभर कुन्ती ही रहीं।माद्री भी मूल रूप से केवल पत्नी भाव में रही,तो पति के साथ ही उन्होंने अपना भी देह त्याग कर दिया।क्योंकि वे आश्वस्त थीं कि कुन्ती सभी पुत्रों को एक आँख से देखेंगी।
और कुन्ती,,,, ज्येष्ठ पत्नी होते हुए भी उन्होंने पति के साथ स्वर्ग गमन नहीं किया,अपितु केवल माता बनकर दायित्व निर्वाह को रह गयीं और द्रौपदी से पाँचों भाइयों के विवाहोपरांत उन्हें अपनी पुत्रवधू को सौंपकर ही उनसे विलग हुईं।
यह उनका तप था कि एक से बढ़कर एक विषम परिस्थितियाँ आयीं पर न ही उनकी पाँचों सन्तानों के धर्म का क्षय हुआ,न ही जीवन का।यहाँ तक कि उनके पुत्र और पुत्रवधु स्वेच्छा से चलकर स्वर्ग की ओर गए,उससे पूर्व तक यम उन्हें छूने नहीं आये।
इसलिए माता रूप में यदि किसी को विजयी कहा जा सकता है तो वे देवी कुन्ती ही हैं।
द्रौपदी- कहते हैं, देवी द्रौपदी का जन्म सामान्य रूप से नहीं अपितु यज्ञकुंड की धधकती अग्नि से हुआ था, इसी कारण उन्हें याज्ञसेनी भी कहा जाता है।हो सकता है यह किंवदन्ती हो।किन्तु इसे तो नकारा नहीं जा सकता कि द्रौपदी को जो जीवन मिला वह किसी धधकती अग्नि से कम नहीं था जिसमें जीवन भर, प्रतिपल वह जलती रही।किन्तु उनके तप की अग्नि में ही अंततः अधर्म जलकर भष्म हुआ।
पाँच पति साथ होते भी उस सती नारी,एक चक्रवर्ती सम्राट की साम्राज्ञी ने सबसे असहनीय अपमान पाया।एक सामान्य ब्याहता स्त्री जो सुख पाती है,वह भी इस नारी को सम्पूर्ण रूप में प्राप्त न हुआ।विवाह पूर्व तक पाँचों पाण्डवों को एक सूत्र में बाँधकर रखने का जो उत्तरदायित्व कुन्ती ने निभाया, उससे बड़ा दायित्व द्रौपदी को पत्नी बनकर निभाना पड़ा।माता बनकर अपने सभी सन्तानों को समान रूप से स्नेह देना जितना ही सरल स्वाभाविक है,एकाधिक पुरुषों की पत्नी बनकर यह निभाना उतना ही दुष्कर।किन्तु याज्ञसेनी ने यह दुर्लभ चुनौती जीती।
लाँछनाओं अपमान के साथ जैसे ही दाम्पत्य जीवन आरम्भ हुआ बँटवारे के नाम पर पतियों के साथ एक तरह से राज्यनिकाला मिला,जहाँ खांडवप्रस्थ में बंजर धरती से आरम्भ करके इन्द्रप्रस्थ स्थापना एवं राजसूय यज्ञ तक की कठिन यात्रा द्रौपदी ने सफलतापूर्वक समपन्न किया।
सुख के दिन आरम्भ होते कि द्यूत सभा रच दी गयी जहाँ सम्पूर्ण निर्लज्जता से प्रदर्शित हुआ कि अधर्म का विस्तार कहाँ तक हो चुका है, प्रबुद्ध समर्थ लोगों तक की चेतना कैसे भ्रमित हो गयी है।
और कुरुसभा में उस घनघोर अपमान के बाद उस राजरानी ने धरा को अधर्मियों से रहित कर धर्म का ज्ञान तथा स्थापना का जो संकल्प लिया, हजारों वर्षों के लिए स्त्रियाँ सबला निष्कंटक हुईं।
देवांश पाँचों पाण्डव तो वस्तुतः कृष्ण और कृष्णा(द्रौपदी) के पंचास्त्र थे जिनके बल पर अधर्म नाश और धर्म स्थापना का महत कार्य होना था।
विवाह से पूर्व से ही कृष्ण और द्रौपदी, इन दोनों को ज्ञात था कि सँसार में पसर चुके अधर्म के निस्तार क्रम में क्या क्या गतिविधियाँ होनी है,इस यज्ञाग्नि में उन्हें किस प्रकार अपने व्यक्तिगत सुखों और सगों की आहुतियाँ पग पग पर देनी है।
और इन्होंने वह दिया,,तभी सृष्टि ने धर्मस्थापना का अपना ध्येय पाया।
इन दोनों ने ही अपने आँखों के सामने अपने कुल का नाश देखा,पर अडिग अविचल स्थिर रहे।
ॐ
रंजनाhttp://www.blogger.com/profile/01215091193936901460noreply@blogger.com5tag:blogger.com,1999:blog-3630123509017373846.post-55117958580991484782021-06-19T15:16:00.000+05:302021-06-19T15:16:03.200+05:30बेटी का सुख पुत्री जैसे जैसे किशोरावस्था को पार कर रही होती है, अभिभावकों के मन में उसके विवाह और सुखद भविष्य के स्वप्न स्पन्दित होने लगते हैं। युवावस्था के बढ़ते पड़ाव के साथ साथ यह चिंता और व्याकुलता में परिवर्तित होता चला जाता है।जबतक विवाह न हो जाय, सोते जागते इसके अतिरिक्त ध्यान में कुछ और आता ही नहीं।
किन्तु कभी आपने विचार किया है कि जिस पुत्री के सुखद भविष्य के लिए आपने इतने स्वप्न देखे, इतने प्रयास किये,,,,पुत्री को शिक्षित किया,आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर बनने की योग्यता भी दे दी, अपने सामर्थ्य से कई गुना आगे बढ़कर उसके विवाह में व्यय किया......
आपने स्वयं ही उसका घर परिवार सुख शान्ति,, सब कुछ बिखेर दिया।
कैसे???
वो ऐसे कि आपने अपनी पुत्री को शिक्षित तो किया,पर उसकी तैयारी ऐसी न करायी कि वह अपने ससुराल में सामंजस्य बिठा पाए।वह सबको अपना सके और अपने सेवा, अपनत्व, मृदुल स्वभाव और सदाचरण से लोगों को बाध्य कर दे कि लोग उसे अपनाए बिना न रह पाएँ।आपने उसे अधिकार और केवल अधिकार का भान रखना तो सिखा दिया, पर "कर्तब्य प्रथम" और यही सर्वोपरि,, यह न समझा सके।
बेटी को विदा करने के साथ ही पग पग पर अपने हस्तक्षेप से ऐसी व्यवस्था कर दी कि पुत्री के लिए अपने माता पिता भाई बहन तो पहले से भी अधिक अपने हो गए, पर पति के माता पिता भाई बहन बोझ और त्यज्य होकर गए।
बेचारे दामाद ने बड़ी कोशिश की कि वह अपने माता पिता भाई बहन को भी अपनी पत्नी और उसके मायके वालों के लिए स्वीकार्यता दिलवा पाए,परन्तु नित क्लेश के कारण उसके सम्मुख केवल दो ही मार्ग बचे,,या तो वह अपना दाम्पत्य जीवन बचाये या अपने अभिभावकों सहोदरों का साथ बचाये।
अपने पुत्र/भाई को पिसते हुए देखकर, उसके घर को टूटने से बचाने के लिए अन्ततः लड़के के परिजन ही वृद्धावस्था में एकाकीपन स्वीकार कर पुत्र को स्वतन्त्र कर देते हैं।आजकल के शिक्षित और आर्थिक रूप से समर्थ समझदार अभिभावक पुत्र का विवाह करने के साथ ही उसकी गृहस्थी अलग बसा देते हैं(यदि एक ही शहर में रह रहे हों तो अन्यथा तो दो अलग अलग जगह रहने पर दोनों दोनों के लिए अतिथि बनकर रह जाते हैं।दुर्भाग्य प्रबल हुआ तो टोटल सम्बन्ध विच्छेद)।
अब आइये,,अगली पीढ़ी पर।परिजनों से दूर रह रहे ऐसे एकल परिवार में जहाँ पुत्री ने कभी नहीं देखा कि माता दादा दादी, चाचा चाची,बुआ फूफा या चचेरे फुफेरे भाई बहन से कोई मतलब रख रहे, उनके लिए उसके मन में सम्मान या कोई स्थान है।ऐसे में जब वह ब्याहकर ससुराल जाएगी तो क्योंकर उस पराए घरवालों को अपनाएगी? और जब वह किसीको अपनाएगी नहीं तो भला किस प्रकार वह सबके मन में अपने लिए स्थान,अपने जीवन में सुख और शांति पाएगी?
यदि बच्ची भोजन पकाना, घर की साफ सफाई आदि को अत्यन्त तुच्छ(नौकर वाले काम) समझती है,जबकि माता का यह प्राथमिक कर्तब्य है कि पुत्र हो या पुत्री,बचपन से ही उसकी तैयारी ऐसी कराएँ कि अपने शरीर, अपने वस्त्र,अपने स्थान को साफ सुथरा रखना,अपने लिए स्वच्छ सादा पौष्टिक भोजन पका सकने में वय के 19वें वर्ष तक पहुँचते पहुँचते वे दक्ष हो जाँय।ऐसे बच्चे जहाँ भी रहेंगे व्यवस्थित और सुखी रहेंगे।बच्चे में यदि एडॉप्टबिलिटी(व्यक्तियों परिस्थितियों को स्वीकारने और उनके साथ सामंजस्य स्थापित करने की क्षमता)नहीं,तो इसमें पूरा दोष माता पिता का है,निश्चित मानिए।
आज की शिक्षा सुसंस्कृत करने के लिए नहीं,बस आर्थिक सक्षमता के लिए होती है(नून तेल जुटान विद्या)।इसलिए यह दायित्व माता पिता और परिवार का होता है कि बच्चे को जीवन के लिए तैयार करें।जब आप संयुक्त परिवार में रहते हैं,निश्चित रूप से परिवार के सभी सदस्य भिन्न सोच विचार के होंगे और बहुधा उनको हैण्डिल करना,शांति सौहार्द्र बनाये रखना,एक बड़ी चुनौती होती है।किन्तु यदि आप और आपके बच्चे बचपन से ही सबको मैनेज करने में सफल होते हैं,,तो निश्चित मानिए कि वे अपने कार्मिक जीवन में भी अवश्य सफल होंगे। नौकरी में हों या व्यवसाय में साथ वाले सभी प्रतिस्पर्धी ही होते हैं,प्रत्येक परिस्थिति एक चुनौती ही होती है।
आज से 20-25 वर्ष पूर्व तक किशोरवय की अन्तिम सीढ़ी तक पहुँचते पहुँचते लड़कियों का ब्याह हो जाता था।ऐसी लड़कियों के लिए नए घर की रीत,खानपान, सदस्यों के अनुरूप ढ़लने का सामर्थ्य वर्तमान की तुलना में बहुत अधिक होता था।आज 28 से 35 तक की लड़कियाँ अपने हिसाब से जीने की अभ्यस्त हो चुकी होती हैं।उनमें एडॉप्टबिलिटी इतनी कम हो चुकी होती है कि यदि बचपन से ही मानसिक तैयारी कराकर न रखी जाय तो विवाहोपरांत उसका जीवन तो दुरूह होता ही है,जहाँ वह जाती है,उनके सुख चैन भी कपूर के धुएँ के समान कुछ ही दिनों में उड़ जाते हैं।
बढ़ते हुए विवाह विच्छेद की घटनाएँ,, युवाओं में लीव-इन की स्वीकार्यता, हमारे सामाजिक भविष्य को उस ओर लिए जा रहे हैं,जहाँ व्यक्ति के पास भौतिक सुख साधन का अम्बार होते हुए भी व्यकि दुःख अवसाद में घिरा,टूट हारा एकाकी होगा।क्योंकि वास्तविक "सुख और शान्ति" तो व्यक्ति के जीवन में तभी आ सकता है जब उसके पास परिजनों का स्नेह हो,परिवार में एक दूसरे के लिए आदर आत्मीयता हो,सुख दुःख में कभी वह स्वयं को अकेला नहीं पाये और भौतिक समृद्धि को ही जीवन ध्येय व सुख न माने।
ॐरंजनाhttp://www.blogger.com/profile/01215091193936901460noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-3630123509017373846.post-5972011084283715832020-09-10T20:28:00.002+05:302020-09-10T20:28:24.142+05:30ममत्व के निहितार्थ- जिउतिया पर<p> असंख्यों नरबलियों के उपरान्त जब महाभारत का युद्ध सम्पन्न हुआ तो कलपती बिलखती स्त्रियों के बीच कुछ ही ऐसी स्त्रियाँ बची थीं, जिनके पति या सन्तान में से कोई बचे थे।इन्हीं में से एक द्रौपदी भी थीं,दैव कृपा से जिनके पति और पाँचों पुत्र बच गए थे।किन्तु यह सन्तोष शीघ्र ही धराशायी हो गया जब अश्वत्थामा ने छल से द्रौपदी पुत्रों को पाण्डव समझकर सोते में मार दिया।</p><div dir="auto">अपना वंश, राज्य का उत्तराधिकारी खोकर समस्त प्रजा ही नहीं द्रौपदी भी सन्ताप से विक्षिप्त सी हो गयी।किसी में भी जीवित रहने की कामना नहीं बची थी।तब ऋषि समाज ने आकर विलाप करती स्त्रियों के उस समूह को आकर टूटने से बचाने का संकल्प लिया।ज्ञान चर्चा से जब उनका मन कुछ सम्हला तो द्रौपदी ने विह्वल कातर भाव से ऋषियों से प्रश्न किया कि यह असह्य दुःख उन्हें ही क्यों सहना पड़ा और आगे भी क्या माताओं को अपने जीवनकाल में ही अपनी संतानों की मृत्यु और वैधव्य का नर्क इसी तरह भोगते रहना होगा?</div><div dir="auto"><br /></div><div dir="auto">ऋषिकुल ने तब उन्हें समझाते हुए वे कथाएँ कहीं,जिनमें से कुछ का उल्लेख आज भी जीवित्पुत्रिका व्रत पुस्तिका में उल्लिखित है।</div><div dir="auto">ऋषियों ने उन्हें बताया कि केवल वे ही नहीं हैं जिन्हें सन्तान का यह वियोग सहना पड़ा है, जो स्वयं जगतजननी हैं,उन्हें भी सन्तान पाने और उन्हें दीर्घायु रखने के लिए न केवल असह्य कष्ट भोगने पड़े,तप करना पड़ा,अपितु अनेक यत्न भी करने पड़े हैं।</div><div dir="auto">माँ आदिशक्ति के नौ रूपों में जो पाँचवा रूप- "स्कंदमाता"(स्कन्द-कार्तिकेय) का है, उसे पाने की पूरी कथा ही एक असाधारण तप और त्याग की कथा है।</div><div dir="auto"><br /></div><div dir="auto">रति के श्राप से देवी पार्वती कभी स्वाभाविक रूप से गर्भ धारण नहीं कर सकती थीं।इसके लिए उन्होंने गहन तप कर वह स्थितियाँ बनायीं जिससे अपने शरीर से बाहर ही वे भ्रूण का सृजन और पोषण कर सकें।किन्तु ऐन अवसर पर जब वह गर्भ पूर्ण और परिपक्व होने को था, तारकासुर उसे नष्ट करने पहुँच गया और उसकी रक्षा क्रम में अग्निदेव और माता गङ्गा के अथक प्रयास के उपरांत भी वह अक्षुण्ण न रह सका।गिरकर उसके छः खण्ड हो गए जो कृतिकाओं को प्राप्त हुए।</div><div dir="auto">कल्पना कीजिये कि अपने सन्तान को प्राप्त करने की उस अन्तिम बेला में जब ममत्व पिघलकर दूध बनकर स्तनों में उतर आता है, उस घड़ी यदि उस माँ से उसका संतान छिन जाए, तो उसकी क्या मनोदशा होगी।</div><div dir="auto">अपहृत सन्तान को ढूँढती हुई जब माता पार्वती कृतिकाओं के पास पहुँचीं तो कहते हैं छः भाग में बंटे हुए बालकों को पकड़कर इतनी जोर से अपने वक्ष में समेटा कि वे पुनः छः से एक हो गए।किन्तु तबतक कृतिकाओं का ममत्व भी उस बालक से ऐसे बन्ध गया था कि उससे विछोह की स्थिति में वे प्राणोत्सर्ग को तत्पर हो उठीं। </div><div dir="auto">और तब महादेव ने मध्यस्तता कर माता को इसके लिए प्रस्तुत कर दिया कि बारह वर्ष तक वह बालक कृतिकाओं की ममता को पोषण देता कृतिकालोक में ही वास करेगा और उसके उपरान्त स्वेच्छा से कृतिकाएँ बालक को माता पार्वती को सौंप देंगी।</div><div dir="auto"><br /></div><div dir="auto">स्त्री तो छोड़िए, किसी भी नवप्रसूता जीव जन्तु के पास उसके शिशु को स्पर्श करने का प्रयास करके देखिए,अपना सम्पूर्ण बल लगाकर वह आक्रमण को प्रस्तुत हो जाएगी, फिर स्वेच्छा से उस संतान का दूसरे को दान...<br /></div><div dir="auto">वस्तुतः यह तभी सम्भव है, जब ममत्व की परिसीमा इतनी विस्तृत हो, जिसमें व्यक्ति स्वयं को खो दे और सबको उसमें समेट ले।ममत्व के इस स्वरूप की प्रतिस्थापना हेतु ही इन पूरे घटनाक्रम की सर्जना हुई।ममता केवल अपने जाए सन्तान में ही सिमटकर रह जाए, तो यह ममत्व का सबसे संकुचित और छिछला रूप है।</div><div dir="auto"><br /></div><div dir="auto">आगे इसी क्रम में ऋषि इस ममत्व की भावना का उद्दात्त रूप और मानव मात्र में इसकी उपस्थिति दिखाने के लिए एक और घटना का उल्लेख करते हैं जब सतयुग में नागवंश और गरुड़वंश में नित्यप्रति के संघर्ष के उपरांत एक व्यवस्था बनी थी कि गरुड़ यदि नागों का अनियंत्रित आखेट न करे तो स्वतः उसके आहार हेतु एक नाग प्रतिदिन उसके सम्मुख उपस्थित हो जाया करेगा।व्यवस्था से अनियंत्रित संहार तो रुक गया, किन्तु नागलोक का प्रतिदिन का किसी न किसी के घर का करुण क्रन्दन निर्बाध चलता ही रह।</div><div dir="auto">एक दिन संयोगवश राजा जीमूतवाहन जो नागों की उन बस्ती से गुजरते अपने ससुराल जा रहे थे,उन्होंने एक नागमाता का विह्वल क्रन्दन सुना जिनका पुत्र शंखचूड़ आज गरुड़ का ग्रास बनने वाला था।</div><div dir="auto">कहा जाता है कि एक प्रसूता ही दूसरे स्त्री के मन की ममता जान सकती है, किन्तु यह मिथ्या भ्रम है।ममत्व का लिंग से कोई लेनादेना नहीं।यह भाव तो किसी में भी हो सकती है और नहीं तो नवप्रसूता में भी नहीं।</div><div dir="auto">राजा जीमूतवाहन ने उस माँ की विह्वलता को उससे भी अधिक तीव्रता से अनुभूत किया और उस आखेट के स्थान पर स्वयं को गरुड़ के सम्मुख आहार रूप में उपस्थित कर दिया।</div><div dir="auto">इधर गरुड़ ने जब देखा कि मृत्यु के भय और घायल होने की पीड़ा से व्याकुल होकर जहाँ बाकी सारे भागते फिरते थे, यह मनुष्य न केवल निश्छल होकर अडिग खड़ा है अपितु पूर्ण प्रयास में है कि मुझे कहीं भोजन क्रम में किसी तरह का व्यवधान न हो।गरुड़ का अहम इस विराट करुणा के आगे बहकर नष्ट हो गया और उसने दिव्य औषधियों द्वारा राजा को जीवनदान देते पूर्णतः स्वस्थ कर दिया।और जगत में ऐसे स्थापित हुआ कि करुणा,ममता से महान कोई भावना नहीं है।</div><div dir="auto"><br /></div><div dir="auto">आगे इस कथा में एक कथा चिल्हो सियारो की भी है कि अपने व्रत,अर्थात धर्म में अडिग रहने पर उसका फल संतान को अवश्य प्राप्त होता है और यदि उसका पालन न किया गया तो यदि सन्तान हो भी तो उसमें उत्तम संस्कार नहीं जाएँगे और उसका होना न होना बराबर ही होगा।अतः महत्वपूर्ण केवल संतान को जन्म देना ही नहीं अपितु उसे राजा जीमूतवाहन की भाँति सुसंस्कारी बनाना भी माता का ही कर्तब्य है।जीमूतवाहन जैसी उदार सोच पहले यदि माताएँ स्वयं में धारण करें,तो उत्तम संस्कारी सन्तान शरीर से जीवित रहें न रहें, उनके नाम और अस्तित्व तो अमर रहेंगे ही,जैसे किशोरावस्था भी पार न कर पाए अभिमन्यु का रहा।</div><div dir="auto"><br /></div><div dir="auto">जिउतिया पर भाई गिरिजेश राव की 2009 में लिखी यह पोस्ट पढ़िए।मैं तो हर वर्ष व्रत पुस्तिका के इतर इसे अवश्य पढ़ती हूँ।</div><div dir="auto"><br /></div><a data-saferedirecturl="https://www.google.com/url?q=https://girijeshrao.blogspot.com/2011/09/blog-post_20.html?m%3D1&source=gmail&ust=1599835129844000&usg=AFQjCNFhWXuIN35iB768SGmv3140rpiH_Q" href="https://girijeshrao.blogspot.com/2011/09/blog-post_20.html?m=1" rel="noreferrer noreferrer" target="_blank">https://girijeshrao.blogspot.<wbr></wbr>com/2011/09/blog-post_20.html?<wbr></wbr>m=1</a><div dir="auto"><br style="font-family: sans-serif; font-size: large;" /></div>रंजनाhttp://www.blogger.com/profile/01215091193936901460noreply@blogger.com2tag:blogger.com,1999:blog-3630123509017373846.post-87485867012516776212020-07-17T15:20:00.002+05:302020-07-17T15:20:50.709+05:30धर्म की जय कैसे हो<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
उन्हें तो छोड़ ही दीजिये जिन्हें वामी प्रभाव में आकर सनातन उपहास करते प्रगतिशील बनना है,सनातन को हेय सिद्ध करना है,,,<br />
उन आस्थावान हिन्दुओं ने भी धर्म को कम हानि नहीं पहुँचाई है जिन्होंने कर्मकाण्डों में से मूल और बाद में जुड़े आडम्बरों में भेद करना नहीं सीखा,प्रतीकों अभ्यासों के वैज्ञानिक मर्म को नहीं समझा जाना और पौराणिक पात्रों के महान चरित्रों को अपने जीवन आचरण में उतारने के स्थान पर उन्हें ऊँचे चबूतरे पर बैठाकर केवल फल पुष्प धूप बत्ती का अधिकारी बना कर मूर्तियों में सीमित कर दिया।अपने आराध्य के जीवन संघर्षों को सामान्य न रहने देकर उनके साथ इतने अस्वाभाविक अलौकिक चमत्कार जोड़ दिए कि भक्तों का ध्यान उनके संघर्ष और सफलतापूर्वक उनपर विजय पर नहीं अपितु चमत्कारों पर केन्द्रित होकर सिमट गया और दुःख में उनके आचरण से प्रेरित होकर धैर्य और सामर्थ्य की आकांक्षा रखने/माँगने के स्थान पर व्यक्ति और अधिक निर्बल कातर होकर उनसे मुक्ति की प्रार्थना करने लगा।चमत्कार कर पल में ईश्वर वह दुःख हर लें, अपार सुख साधन दे दें,इसके आग्रह में धूप दीप नैवेद्य लेकर मूर्तियों के सम्मुख डट गया।<br />
तुलसीदास जी तक ने जब भी प्रभु श्रीराम को वन में पत्नी वियोग में रोते हुए दिखाया उसे सहज स्वाभाविक न रहने देकर "लीला" कह दिया।<br />
राम या कृष्ण ने अपने सम्पूर्ण जीवन काल में जो संघर्ष किये और यह स्थापित किया कि संघर्षों को सुअवसर कैसे बनाया जाता है,वे कौन से गुण हैं जिन्हें साधकर व्यक्ति अनन्त काल तक के लिए विजयी,अमर और पूज्य हो सकता है,,इतने सुस्पष्टता से उन्होंने रूपरेखा सी खींच दी कि यदि मनुष्य जीवन के प्रत्येक परिस्थिति में उनका स्मरण रखे और स्वयं के भीतर भी उन गुणों का विकास करे, तो जीवन में दुःख कातरता हताशा का रंचमात्र भी स्थान बचेगा क्या? या फिर धन पद सत्ता साधन आदि पाकर जो मद में बौराये फिरते हैं और धार्मिक स्थलों, कार्यों में बड़े बड़े दान देकर यह मान लेते हैं कि अपने हिस्से का पुण्य कार्य उन्होंने निबटा लिया अब अपने सांसारिक सामर्थ्य का उपयोग कर अपने लाभ हेतु वे किसी का भी कुछ बिगाड़ सकते हैं,,ऐसी अवस्था बनेगी क्या?<br />
<br />
कई ऐसे लोग जिनका दिनभर का अधिकांश समय पूजा पाठ में बीतता है किन्तु मन से अशान्त,सांसारिक मोह माया और दुःख से ग्रसित हताश निराश हैं, जब उनसे उनके आराध्यों के जीवन चरित सुनाकर उनसे प्रेरित होने की बात की है, वे कह उठते हैं,वे तो भगवान थे,यह सब उनकी लीलाएँ थीं।अर्थात वे मन से नहीं मानते कि वास्तव में उनके संघर्ष वास्तविक थे, मानवीय संवेदनाओं और सुख दुःख की अनुभूतियाँ उनकी भी वैसी ही थीं,जैसी हमारी है।<br />
अतिमानवीयकरण का ही यह दुष्प्रभाव है कि हमने अपने आराध्यों को अपने जीवन से काट दिया है, उन्हें मूर्तियों और पूजाघरों में सीमित कर दिया है।<br />
<br />
जिस कर्म और कर्मफल से हमारे आराध्यों ने स्वयं को मुक्त नहीं रखा,उस कर्मफल के चुटकी में नाश को हम ईश्वर के सम्मुख बैठ कर याचनारत रहते हैं,यह नहीं सोचते कि हमारे हिस्से का वह फल जो कदापि लुप्त नहीं हो सकता,भोगेगा कौन?क्योंकि कर्मफल तो नष्ट हो नहीं सकता।वह तो समय के कपाल पर अमिट हो अंकित हो जाता है।संसार में फैले अधर्म को समेटने और धर्म स्थापना क्रम में कृष्ण ने महान संहार रचा, महान शक्तिशाली एक पूरे वंश का तो समूल संहार हो गया।सही गलत को अलग कर दें,इसे केवल एक कर्म मानकर चलें।तो इस कर्म का फल श्रीकृष्ण ने गांधारी के यदुवंश के सम्पूर्ण नाश के श्राप रूप में सादर स्वीकार किया।उन्होंने तो जगत का उद्धार किया था।इतना बड़ा पुण्यकर्म। किन्तु इस क्रम में जो कर्म हुआ, उसके फल से उन्होंने स्वयं को मुक्त न रखा।<br />
राम कृष्ण दुर्गा काली शंकर हनुमान, जिन्हें भी हम पूजते हैं या तपस्या कर वरदान में पाए असमनान्य सामर्थ्यवान वे अत्याचारी असुर राक्षस जिनसे घृणा करते हैं, किसी का भी जीवन उठाकर देख लीजिए जो उन्होंने एक ही सत्य स्थापित न किया हो कि कर्मफल अकाट्य है।<br />
अतः दम्भी अत्याचारियों के कर्मों से सीख लेते और अपने आराध्यों के चरितों से प्रेरणा ऊर्जा लेते हुए यदि हम प्राप्त जीवनावधि को ईश्वर प्रदत्त सामर्थ्य सीमाओं में सुखी सफल और सार्थक करने को सचेष्ट हों, तभी उन अवतारों महानायकों का अवतरण और उद्देश्य परिपूर्ण होगा, हमारा समाज स्वस्थ धर्मपरायण और सुखी होगा और सनातन की जय होगी।<br />
<br />
ॐ...</div>
रंजनाhttp://www.blogger.com/profile/01215091193936901460noreply@blogger.com1tag:blogger.com,1999:blog-3630123509017373846.post-11785194982358535062020-04-26T02:44:00.002+05:302020-04-26T02:44:34.830+05:30सीता का परित्याग या सीता का त्याग<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
सीता परित्याग या सीता का त्याग<br />
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वल्कल वस्त्र धारण कर जब राम लक्ष्मण और सीता वन को चले और केवट की नाँव चढ़ गङ्गा पार उतरे, तो संभवतः पहली बार राम का मन कचोटा कि केवट ने नदी तो पार करा दी,पर उसे उतराई देने भर भी उनमें सामर्थ्य नहीं। जिस राजपुत्र के हाथ आजतक केवल देने के लिए ही उठे हों,वह सेवा का न्यायोचित दाम भी न चुका पाए, उसके मन की दशा वही स्वाभिमानी मनुष्य जान सकता है, जिसने मातृ पितृ और गुरु के स्वाभाविक कर्तव्य तक को स्वाभाविक नहीं,अपितु ऋण की तरह ही लिया हो,जिसका सतांश चुकाने में वह अपना जीवन लगा दे।<br />
<br />
और राम की उस मनोदशा को भाँपकर पतिव्रता सीता ने अगले ही क्षण अपने जीवन की वह अनमोल निधि,जिसे अयोध्या से निकलते समय समस्त राजसी वस्त्राभूषण त्यागने के क्रम में भी वह न त्याग पायीं थीं- पति श्रीराम द्वारा दी गयी कोहबर के रात की वह प्रथम भेंट "स्वर्णमुद्रिका", एक ही क्षण में उतारकर पति के हाथों रख दिया,ताकि वे पारिश्रमिक रूप में वह मुद्रिका देकर सँकोच से उबर सकें।ऐसी थी उस दम्पति की एक दूसरे के मन में पैठ और एक दूसरे के सुख सम्मान हेतु सर्वस्व न्योछावर कर देने की प्रतिबद्धता।<br />
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राम और सीता सा प्रेमी इस सँसार में और कौन होगा?राम ने सीता के लिए नङ्गे पाँव समुद्र लाँघकर रावण जैसे सामर्थ्यवान से भी टकरा जाने में सँकोच न किया तो सीता ने पति का साथ देने को न केवल राजभोग छोड़ा अपितु राम को अपनाते उनके सभी सम्बन्धों,परिस्थितियों को ऐसे अंगीकार किया कि वह सबकुछ उन दोनों का हो गया।<br />
नहीं तो सोचिये कोई भी स्त्री अपनी उस सास को कभी सम्मान दे सकती है जिसके कारण उसका पति वन वन भटक रहा हो,सत्ताच्युत हो चुका हो। लेकिन सीता ने वन में भरत के साथ आये परिवार को सम्मुख पाते ही सबसे पहले जाकर पूरी श्रद्धा से न केवल माता कैकयी की वन्दना की,अपितु पूरे प्रवास में सबसे अधिक सेवा उनकी ही की।राम को कभी भी कुछ भी बोलना बताना नहीं पड़ा सीता को कि उनके कौन कितने प्रिय हैं और उनका सम्मान स्थान सीताजी को कैसे देना है।<br />
वस्तुतः राम के मन में सीता और सीता के मन में राम कितने बसे हैं,यह सँसार में कोई जान ही नहीं सकता,क्योंकि किसी भी प्रेमी/दम्पति का प्रेम उस स्तर तक नहीं पहुँचा है कि उस उत्कर्ष और उस असीमता को थाह सके।<br />
<br />
जब भी मेरे सम्मुख यह तथ्य इस प्रकार आता है कि "राजाराम ने अपनी प्राणप्रिया जीवनाधार परमसती सीता का परित्याग कर दिया,,,और वह भी तब जब वह गर्भवती थीं और उन्हें पति का सानिध्य सर्वाधिक चाहिए था"<br />
इसको ऐसे ही कभी भी नहीं स्वीकार पाती मैं। चाहे कोई लाख पौराणिक साक्ष्य दे दे, चाहे महर्षि वाल्मीकि या तुलसीदासजी में अगाध श्रद्धा हो मेरी।<br />
<br />
मेरी चेतना कहती है, कहीं कोई कड़ी, कोई बिन्दु छूटी हुई है इस पूरे प्रसंग में, जिसे वे महर्षि भी या तो जान न पाए या अनजाने में सामने रखना भूल गए।क्योंकि किसी भी व्यक्ति के जीवन का कोई एक टुकड़ा अन्य सभी टुकड़ों से कटा हुआ, असंगत या तो तब हो सकता है जबकि वह व्यक्ति कुछ समय के लिए विवेकहीन विक्षिप्त हो चुका हो, या कैकयी के समान ही उक्त कालखण्ड विशेष में वह मन्थरा जैसी बुद्धिवाला हो चुका हो।अन्यथा अपने स्वाभाविक आचरण के सर्वथा विपरीत कुछ कैसे कर सकता है?<br />
<br />
जिस राम ने गौ, ब्राह्मण (सत्यनिष्ठ,धर्मपरायण मनुष्य) और स्त्री के उद्धार, उनके सम्मान और स्वतंत्रता हेतु ही अवतार लिया, धर्म मर्यादा स्थापित कर "मर्यादापुरुषोत्तम" बने, वे लोकोपवाद के कारण अपनी प्राणप्रिया का परित्याग कर अपनी राजगद्दी बचायेंगे?<br />
क्या मर्यादापुरुषोत्तम यह नहीं जानते थे कि एक व्यक्ति ही पुत्र,पति,पिता और राजा सबकुछ एकसाथ ही है।किसी एक को ऊपर उठाकर दूसरे को गिराने से भी वस्तुतः पतन उस व्यक्ति का ही होता है।व्यक्ति स्वयं के लिए, परिवार समाज और देश के लिए कैसा हो, यही आदर्श स्थापना तो राम का जीवन ध्येय था, फिर वे इस क्रम में एक राजा को व्यक्तिगत जीवन में अधार्मिक होने देते क्या?<br />
<br />
असल में होता यह है कि जब भी कोई कवि लेखक अपने नायक के चरित्र को उत्कृष्टता दे रहा होता है, उसपर यह मानसिक दवाब,,या कहें लगभग सनक सी होती है कि अपने नायक को वह उस स्थान पर बैठा दे जो अतुल्य हो,जहाँ तक किसी की भी पहुँच न हो,, तो ऐसे में कभी कभी अनजाने ही वह अन्य पात्र/पात्रों के साथ अन्याय कर जाता है।<br />
<br />
अब देखिए न, हमारे मन में कोई विचार आया,हमें लगा उसे लिपिबद्ध करना चाहिए और हम उसे लिखने बैठते हैं।लिख चुकने के बाद उसे स्वयं पढ़कर देखिए,क्या हम हूबहू वही लिख पाए जैसे वे मन में घुमड़े थे?अब आगे उसको किसी और को पढ़ाइये,,क्या उसने उसको वैसा ही ग्रहण किया,जैसे आपने लिखा था?? उस पाठक से कहिये कि पढ़े हुए को लिख दे।अब उसके लिखे को पढ़कर देखिए।आपके मानस में घुमड़े वे विचार और अगले दो लोगों के पास से घूमफिर कर आये उस अंश में जो अन्तर होगा,,कई बार तो यह अन्तर दिन और रात की तरह हुआ मिलेगा आपको।<br />
फिर श्रुति स्मृति परंपरा में चली आ रही कोई गाथा जो विधर्मियों के आक्रमणों, समय के झंझावातों को सहती हजारों वर्षों बाद लिपिबद्ध हुई, क्या वह बिल्कुल वही रहेगी जैसी मूल रूप में थी? <br />
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चलिए मान लिया कि गर्भवती सीता राजभवन छोड़ जँगलों में रहीं और लवकुश का जन्म भी वहीं हुआ।राजसूय यज्ञ के अश्वों को पकड़ने के बाद लवकुश ने लक्ष्मण हनुमान आदि सभी महावीरों को बन्दी बनाया। लवकुश के विषय में ज्ञात होने पर अयोध्या की प्रजा जब रामसाहित लवकुश तथा सीता को लौटा लाने का अनुनय करने मुनि आश्रम पहुँचे तो सीता ने लवकुश को तो उनको सौंप दिया पर स्वयं धरती के गर्भ में समा गयीं,उनके साथ वापस अयोध्या लौटकर नहीं गयीं।सबकुछ ऐसे ही हुआ।<br />
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परन्तु मेरा चित्त तो इस प्रसंग में इसी स्थापना में रमता है कि राजा राम और रानी सीता, कोई अलग अलग व्यक्ति नहीं थे,दो देह एक प्राण थे।राम ने सीता परित्याग नहीं किया था,अपितु सीता ने महान त्याग किया।स्वेच्छा से उन्होंने वनगमन चुना। सीता का वन में निवास राम से अधिक सीता का निर्णय था,क्योंकि अपने पति पर कोई प्रवाद सीता जैसी सती कभी नहीं सह सकती थी।फिर यहाँ तो प्रश्न उसके अपने राज्य व्यवस्था(जिसमें अव्यवस्था, स्वेच्छाचार न फैल जाय)का था।सीता स्वयं भी तो परंपराओं के उतने ही अधीन थी।इसके साथ ही सती का अपना एक स्वाभिमान भी था,जिसकी भी उन्हें रक्षा करनी थी।अपने भावी संतान को भी उन्हें वह परिवेश और लालन पालन देना था जो सर्वथा निष्कलुष हो,स्वस्थ हो।<br />
राजाराम ने जगत को यह बताया कि एक राजा रूप में कोई प्रजापालक व्यक्तिगत/पारिवारिक सुखों को कैसे त्याग सकता है,,तो सीता ने भी अपनी पुत्रवत प्रजा को धरती में समाते हुए कठोर सीख/दण्ड दिया कि माता/स्त्री पर अविश्वास करने,उसके आत्मसम्मान को ठेस पहुँचाने पर व्यक्ति और समाज को कैसी क्षति उठानी पड़ती है।सीता के प्राणोत्सर्ग के बाद जीवन के अन्तिम स्वास तक उस पीढ़ी के लोग और बाद की भी कई पीढ़ियाँ आत्मग्लानि के किस अग्नि में जलते रहे होंगे,तनिक कल्पना कीजिये।राम ने दाम्पत्य सुख का त्याग कर जो आदर्श उपस्थित किया, अपने पति, गृहस्थी और जीवन का भी परित्याग कर उस राजरानी, पुरुषोत्तम की अर्धांगिनी ने पूरे समाज के संस्कारों को कैसे सुगठित किया, तनिक विचार कीजिये इसका।<br />
और इसके पश्चात आप कभी न कह पाएँगे कि राम ने सीता का परित्याग किया,,आपके मन से स्वतः ही निकलेगा राम और सीता ने कैसा महान त्याग किया।<br />
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!! जय जय सियाराम !!<br />
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Ranjana Singh</div>
रंजनाhttp://www.blogger.com/profile/01215091193936901460noreply@blogger.com2tag:blogger.com,1999:blog-3630123509017373846.post-11118738215224677432020-03-21T00:23:00.002+05:302020-03-21T00:23:14.145+05:30निर्भया के वह नाबालिग कातिल<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
मन को बहुत समझाया कि,दुनियाँभर में कितने लोग कॅरोना से मर गए/रहे हैं,अकाल मृत्यु।मुझे इस समय इस दुःख को मन में स्थान देना चाहिये, न कि उस एक आदमी के न मारे जाने का आक्रोश और दुःख मनाना चाहिए,पर किसी भी भाँति मन मानने को प्रस्तुत नहीं।<br />
<br />
वस्तुतः मेरे लिए उसका जीवित सुरक्षित रहना,एक व्यक्ति का जीवित रहना भर नहीं है,बल्कि वह उनसभी पिशाचों का जीवित रहना है जो निश्चिन्त हैं कि घृणित और जघन्यतम अपराध कर भी वे बिना किसी दण्ड के न केवल जीवित रह सकते हैं बल्कि अपने धर्म के कारण पुरस्कृत भी होंगे।पूरी एक सड़ी हुई सेकुलड़ी व्यवस्था उसे बचा लेगी।क्योंकि वह पिशाचों के रक्षकों के लिए बहुमूल्य है,क्योंकि उनका कोर वोटर हैं।<br />
<br />
अभी कुछ लोगों को फेसबुक पर यह कहते देखा कि चलिए उन चारों के आत्मा की शान्ति के लिए प्रार्थना कीजिये कि आखिर थे तो वे हिन्दू ही।<br />
यह सुनते आत्मा सिहर गयी।कैसे कोई इन पिशाचों को हिन्दू ठहरा सकता है?असली न्याय तो तब हो जब इनको या इन जैसों को 10-10 बार मरने की पीड़ा से गुजारा जाय।<br />
निर्भया के माता पिता उस तथाकथित नाबालिग को उसके कुकृत्य के लिए कठोरतम दण्ड दिलवाने क्यों नहीं लड़ रहे, मैं नहीं जानती या जानना नहीं चाहूँगी(हो सकता है उन्हें यह विश्वास दिलाया गया हो कि यदि वे ऐसा करते हैं तो उनके पूरे परिवार को मिटा दिया जाएगा,जो कतई असम्भव नहीं)किन्तु राजनीतिक दलविशेष से लेकर न्यायालय तक ने जो परिपाटी आरम्भ की है,उस कौम विशेष का अपराध हेतु जो मनोबल बढ़ाया है,यह सीधे सीधे भारतीय स्त्रियों को यह मुखर सन्देश है कि या तो वे उन पिशाचों के हाथों सहर्ष स्वेच्छा से बलात्कार स्वीकार करें,या फिर अपने साथ आत्महत्या के उपाय सतत लेकर चलें ताकि अन्तिम समय में अपने पसन्द की मौत तो चुन सकें, जीवित रहते उन दरिन्दों के हाथों अपने शरीर के चीथड़े होते तो न देखें।<br />
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वाम या काँग्रेस ने कोई कम घृणित राजनीति नहीं की।लाखों लाख हत्या के प्रायोजक रहे वे।लेकिन वे भी खुलकर इस तरह किसी बलात्कारी की रक्षा में नहीं उतरे थे।एक बच्ची के क्षत विक्षत शरीर पर जो राजनीतिक रोटी सेंककर इन्होंने खायी थी,दिल्लीवासियों ने इन्हें माफ़ कर दिया, इन्हें पुनः राजगद्दी पकड़ाई जैसे उस क्रूर बलात्कारी को आपियों ने नगद पुरुस्कार, सिलाई मशीन, नई पहचान और वकीलों की फौज लगाकर दिलाई थी,,लेकिन जैसा कि सुना है, किये हुए सुकर्म या कुकर्म प्रकृति अवश्य ही प्रतिदान में देती है,तो हम तो यह देखना चाहेंगे कि प्रकृति न्याय करती है या नहीं?<br />
<br />
जो व्यक्ति बलात्कार कर सकता है,जननांगों को क्षत विक्षत कर सकता है,उसके लिए भी बालिग और नाबालिगता का विचार??न्याय के नाम पर इससे भी बड़ा अन्याय कुछ हो सकता है?क्या नीतिनियन्ता कभी इसपर विचार करेंगे?क्या वे यह विचार करेंगे कि जीवित रहने का जितना अधिकार इन तथाकथित नाबालिग पापियों का है,उतना ही उस बच्ची/लड़की/स्त्री का भी है?क्या हमारे अन्यायालय,संसद कभी स्वतः संज्ञान लेते बच्चियों के मन में निश्चिंतता और बलात्कारियों के मन में गहरा भय भरने के कानूनी उपाय करेंगे?</div>
रंजनाhttp://www.blogger.com/profile/01215091193936901460noreply@blogger.com2tag:blogger.com,1999:blog-3630123509017373846.post-5730621708498953902020-01-08T22:48:00.000+05:302020-01-08T22:48:03.453+05:30राक्षस<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
बड़े बड़े दाँत नाखून,विकराल मनुष्येतर जीव... फिल्मों, नाटकों या कथाओं के चित्रण ने हमारे मानस पटल पर राक्षसों दैत्यों की कुछ ऐसी ही छवि उकेरी है। इस छवि ने हमें ऐसे दिग्भ्रमित कर रखा है कि हम कभी ध्यान में नहीं रख पाते कि मानवी या दानवी दोनों स्थूल छवियाँ नहीं मनुष्य की ही मनोवृत्तियाँ हैं जो वह अपने आचरण के माध्यम से सिद्ध करता है।महर्षि पुलस्त्य के महान वंश में जन्मे उनके दोनों पौत्रों- रावण और कुबेर में से एक दैत्य बना तो दूसरे पूज्य देव हुए,,मामा कंस राक्षस तो कृष्ण महामानव हुए,,,असंख्य उदाहरण हैं ऐसे।<br />
<br />
देव दानव,,अर्थात दो परस्पर विरोधी प्रवृत्तियाँ, सृष्टि के आरम्भ से ही पृथ्वी पर रहीं हैं,आगे भी रहेंगी।जब भी दानवों की संख्या और उनका वर्चस्व पृथ्वी पर बढ़ता है, सृष्टि विनासोन्मुख हो जाती है,उसकी व्यवस्थाएँ विखण्डित होती हैं।<br />
तो सृष्टि/प्रकृति का सम्मान करने वाले, धर्मशील देव(जिनका मूल स्वभाव अहिंसा करुणा धैर्य सहनशीलता और सहानुभूति होता है), शौर्य धारण कर दानवी वृत्ति के पोषकों के नाश हेतु कृतसंकल्प होते हैं। इन्हीं में से कोई वीर राम बनता है तो कोई कृष्ण, कोई गुरुगोविंद सिंहजी तो कोई शिवाजी...लम्बी श्रृंखला है ऐसे धर्मरक्षक महानायकों की।<br />
<br />
बहुधा मेरे ध्यान में रामकथा में वर्णित वे शांतिप्रिय अहिंसक धर्मभीरु लोग और उनकी परिस्थितियाँ आ जातीं हैं जो वनों में,ग्रामों में, सादगी से जीविकोपार्जन करते, अध्ययन मनन शोध चिंतन में रत, अपने विशाल हृदय में जीवित प्राणियों तो क्या प्रकृति के कण कण के लिए करुणा और सम्मान का भाव रखते हुए जीते हैं।किन्तु ऐसे लोगों से भी घृणा करने वाले,इन्हें असह्य कष्ट और अपमान देकर आनन्द और सन्तोष पाने वाले रावण के अनुयायी रक्ष संस्कृति के पोषक हैं, जो अपर धर्मानुयायियों को कष्ट देने,उन्हें मिटाना अपना धर्म मानते हैं।ये राक्षस संगठित हो वनवासियों,ऋषि आश्रमों पर आक्रमण कर इनकी निर्मम हत्यायें करते हैं, इनकी स्त्रियों का बलात्कार करते हैं,इनकी भूमि से इन्हें वञ्चित कर इनके श्रम से अर्जित साधनों का भोग करते हैं।क्योंकि इन ऋषियों वनवासियों ने क्रूर होना,युद्ध लड़ना नहीं सीखा है,अतः मिटाये जा रहे हैं।<br />
<br />
त्रेता में महर्षि विश्वामित्र अयोध्या नरेश से उनके पुत्रों को इन्हीं समूहों के रक्षार्थ माँगकर दंडकारण्य लाये थे। किन्तु उनका उद्देश्य केवल इनके द्वारा राक्षसों का नाश करवाना भर नहीं था,अपितु उन्होंने राम से यह वचन भी लिया था कि वे एकबार पुनः आएँगे और दण्डकारण्य से लेकर सुदूर सागर पार दक्षिण तक की भूमि को भोग की इस रक्ष संस्कृति से मुक्त करवाएँगे।जो व्यक्ति या समूह मानवीय मूल्यों सम्वेदनाओं का वहन न कर व्यवस्थाएँ नष्ट भ्रष्ट करे, उसको नष्ट करने की चैतन्यता जबतक समाज के सबसे निर्बल और उपेक्षित समूह नहीं पायेगा,सृष्टि और धर्म का रक्षण असम्भव है।<br />
और राम ने बारह वर्षों के जनजागरण में कोल भील तो क्या,वानर रीछ तक को ऐसी चैतन्यता दे दी कि पत्थर थप्पड़ के आसरे ही सागर लाँघ वे रावण की शस्त्र सुसज्जित सेना से अड़ भिड़ और जीत भी आए।आज जब उन स्थानों पर दृष्टिपात करती हूँ जहाँ की परिस्थितियाँ ठीक वैसी ही हैं जैसी उन दंडकारण्यवासी असहाय वनवासियों की थी, तो लगता है हे ईश्वर इन निरीहों को कौन आएगा बचाने।<br />
वर्तमान भारत सरकार ने सहृदयता दिखाते इन निरीहों के रक्षण हेतु CAA के माध्यम से एक उपाय बनाया...और देखिए राक्षस कैसे व्याकुल हो उठे।अपने ही हाथों सज्जनता, सहृदयता और बुद्धिजीविता का अपना मुखौटा नोच वे सड़कों पर अपनी सेना के साथ उतर आए हैं।<br />
<br />
तब जो योग से विरोध रखने वाले और स्त्री को मात्र भोग की वस्तु मानने वाले बहुरूपिये महिषासुर तथा शुम्भ निःशुभ थे, भोग की संस्कृति के पोषक रावण मारीच ताड़का और शूर्पणखा थे,,, वही आज वामी तथा क़ुर-आनवादी नहीं हैं क्या??<br />
रावण कंस आदि ने जन्म चाहे जिस वंश में लिया हो,,पर ये ब्राह्मण क्षत्रिय न थे केवल और केवल राक्षस थे।वैसे ही चाहे आज के ये सेकुलड़ (जिन्होंने भले हिन्दू नाम धारण कर रखा हो) तथा ल्लाहवादी, ये राक्षस नहीं हैं क्या?? ये भी तो रावण महिषासुर आदि की ही भाँति अपनी सोच और आस्था से इतर किसी को सहन नहीं कर सकते, इनका ध्येय और धर्म ही सनातन तथा अन्य उन समस्त विचारों संस्कृतियों को, जिनमें इनकी आस्था नहीं,उन्हें क्रूरतम विधि से मिटा देना है??<br />
हाँ,, एक छोटा सा अन्तर है वामियों तथा ल्लाहवादियों में।वामियों के वस्त्र सुघड़ सुसज्जित और अस्त्र घातक तथा गुप्त होते हैं। बुद्धिजीविता के चमचमाते मुखौटे तले ये अपनी कुत्सित विध्वंसक सोच तथा योजनाओं को बड़ी ही कुशलता पूर्वक छुपा लेते हैं और बौद्धिक आतंक फैला भगवान बने उनसब को जिन्हें ये उनके धर्म से च्युत नहीं कर पाते, हीनभावना से ग्रस्त रखते हैं।अपनी सेकुलड़ी बीन पर मन भर नचाते हुए कभी सर्वसाधारण को चैतन्य नहीं होने देते।<br />
और ल्लाहवादी समूह- इनके राक्षसत्व के पोषक पालक भी वामी ही होते हैं, प्रकट रूप में हाथों में नंगी तलवारें लिए धार्मिक उन्माद में काफिरों को क्रूरतापूर्वक रौंदते कुचलते अपने संख्या बल को बढ़ाते अपनी विजययात्रा अबाधित रखते हैं।<br />
कहीं असहिष्णुता का कोई आक्षेप न लग जाये, इस भय से थरथर काँपता हिन्दू समाज आँख उठाकर नहीं देख पाता कि कैसे विश्व मानचित्र पर से मिटता सिमटता वह उस भूभाग में भी अपना अस्तित्व नहीं बचा पाया जो कहने को भारत का अभिन्न अंग(कश्मीर)था या निरंतर आज भी भारतीय मानचित्र पर से मिटता कई क्षेत्रों में अल्पसंख्यक बन चुका है।वास्तविकता की धरातल पर आकर कभी हिन्दू समाज आँकने को प्रस्तुत नहीं कि आखिर वर्तमान भारत में भारत बचा कितना है??<br />
<br />
बन्धुओं,, किसी एक भोर को अपने कानों को खोलिये और अगली भोर तक के बीच अज़ान नाम से उनके आह्वान और उद्घोषणाओं (उनका वह सर्वशक्तिमान ही एकमात्र परम सत्य है।सम्पूर्ण धरा पर केवल उसकी सत्ता में आस्था रखने वाले ही होने चाहिए,इस पर ईमान रखने की शर्त काफिरों को मिटाना है) को सुनिए, अपने चारों तरफ देखिए कि कितने पाकिस्तान अफगानिस्तान या बांग्लादेश आपके चारों ओर उगे बसे हुए हैं।<br />
<br />
सदियों तक डिनायल मोड में पड़ा विश्व आज इनके पागलपन और कहर से कराह रहा है।बसे बसाये समृद्ध नगर उजड़ चुके हैं,,पर कोई बड़ा उपाय किसी के हाथ नहीं।<br />
<br />
किसी को मिटाना, हमारे DNA में भी नहीं।और कोई रावण कंस की तरह एक दो चार हो तो उससे निपटा भी जाय,,यहाँ तो आसमानी किताब के विषाक्त हर्फ़ों में नहाया एक एक विस्फोटक विषाणु है।<br />
तो, निवेदन केवल यह कि सतर्क रहें,संगठित रहें और अस्तित्व रक्षण को सनद्ध हों।सत्ताओं पर यह दवाब बनाएँ कि इनके विस्फोटक संख्या विस्तार पर वह नकेल कसने की व्यवस्था करे।इन्हें मानवीय संस्कारों में दीक्षित नहीं किया जा सकता,,पर जबतक ये संख्या में अल्प हैं, अपनी दानवी वृत्ति को छिपाये विध्वंस को अकुलाए नहीं रहेंगे।अतः रंच मात्र भी इनका तुष्टिकरण नहीं,अपितु इनपर दृढ़ अनुशासन रखिये।<br />
--<br />
Ranjana Singh</div>
रंजनाhttp://www.blogger.com/profile/01215091193936901460noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-3630123509017373846.post-59792127450387016742019-11-07T23:24:00.002+05:302019-11-07T23:24:50.452+05:30प्रेतयोनि<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
भूख प्यास निद्रा मैथुन आदि का अनुभव और उपभोग शरीरिक है या मानसिक??<br />
गम्भीरता से विचारेंगे तो पाएँगे कि 25 से 30% ही यह शारीरिक है, 70-75% यह विशुद्ध मानसिक है।ऐसा न होता तो हर्ष या अवसाद में कई कई दिनों तक भूख प्यास निद्रा का ध्यान भी न आना न होता, माता पुत्री या भगिनी के साथ शारीरिक संबंध की कल्पना भी पाप न लगता।<br />
<br />
और हम कौन हैं, शरीर या आत्मा??<br />
जबतक शरीर में आत्मा अवस्थित हो,हम हैं।जैसे ही आत्मा ने शरीर त्यागा किया, हम हम नहीं बचते, हमारी पहचान एक शब्द "शव" में परिणत हो जाता है जिसे हमारे अपने ही प्रियजन शीघ्रातिशीघ्र नष्ट कर देने को तत्पर हो जाते हैं।<br />
<br />
किन्तु जिस शरीर में रमे और इसे ही अपना अस्तित्व समझते आये हम,, मृत्यु पाते ही क्या सहज स्वीकार लेते हैं कि अब "हम" नहीं रहे??<br />
नहीं,,कदापि नहीं।<br />
आत्मज्ञानी सिद्ध जन इसी हेतु जीवन भर ईश्वर से याचना करते हैं कि मृत्यु रूपी इस सत्य को वे/जीव सहज ही और तुरन्त स्वीकार लें।देह के मोह से वे मुक्त हो पाएँ।क्योंकि देह छूटने के बाद आत्मकोश में सञ्चित अभ्यास(भूख प्यास निद्रा मैथुन) अपरिमित कष्ट देने लगता है।वे आवश्यकताएँ पूर्ववत ही नहीं अपितु अधिक उग्र रूप में अनुभूत होने लगते हैं परन्तु इनकी पूर्ति का वह माध्यम -"देह" पास नहीं होता।देह का मोह,परिजनों का मोह,उसके द्वारा जीवन में सञ्चित धन और साधनों का मोह, पद प्रतिष्ठा का मोह, जीव को अत्यन्त व्याकुल कर देता है।सूक्ष्म शरीर जो भौतिक शरीर के आधीन रह सीमित गतिमान था, अशरीरी हो अपरिमित गति पाता है और भटकते हुए अपने प्रिय आधारों से लिपटकर करुण विलाप करता है।<br />
<br />
सनातन धर्म में इसी कारण मृत्यु उपरान्त शरीर के अग्निस्नान की व्यवस्था की गयी ताकि जब वह शूक्ष्म शरीर अपने ही परिजनों द्वारा शरीर को नष्ट करते हुए देखे, पुनः शरीर प्राप्त करने की कोई संभावना उसे न दिखे। अगले 12-13 दिन की जितनी भी धार्मिक क्रियाएँ हिन्दू धर्म में सम्पादित होती हैं,हर एक क्रिया वैज्ञानिक भी है और जीव को मुक्त होने हेतु प्रेरित करने वाली भी।क्रियाओं के अन्तिम दिन जब श्राद्ध भोज(श्रद्धा निवेदन) होता है जिसमें उक्त व्यक्ति के समस्त परिजन तथा समाज दिवंगत को श्रद्धांजलि देते एक तरह से उद्घोषित करता है कि उन्होंने दिवंगत का जाना स्वीकार लिया है,अब वह जीव भी इस जीवन से मुक्त हो अपने गंतव्य को प्रस्थान करे, तो अधिकांश जीव यह स्वीकार कर लेते हैं कि उनकी जीवन यात्रा पूर्ण हुई। किन्तु इसी में कुछ जीव जो इसके लिए प्रस्तुत नहीं होते व्याकुल हुए इसी प्रेत योनि में भटकते रहते हैं।<br />
<br />
जैसे मनुष्य या अन्य जीव योनि का अस्तित्व और संसार है, ठीक ऐसे ही प्रेत योनि का भी अस्तित्व है और मनुष्यों के समान ही इनकी विभिन्न प्रजातियाँ/प्रकार होते हैं।एक भरा पूरा संसार इस योनि का भी है।<br />
अपनी मृत्यु को न स्वीकारने वाले,आकस्मिक निधन,आत्महत्या आदि को प्राप्त करने वाले अधिकाँश जीव इस योनि में सामान्य से अधिक काल तक रहने को अभिशप्त होते हैं।हालाँकि सनातन धर्म में अकाल मृत्यु को प्राप्त लोगों के लिए सामान्य के अतिरिक्त भी विशिष्ट पूजा/क्रियाओं की व्यवस्था है।लेकिन कोई जीव कितने समय तक इस नर्क योनि(प्रेतयोनि) में रहेगा,यह पूरी तरह उस जीव की स्वयं की मनःस्थिति पर ही निर्भर करती है।ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, सन्यास और वानप्रस्थ आश्रम की व्यवस्था इसी कारण तो हमारे यहाँ की गई थी ताकि एक जीव जो संसार में आया है,समस्त सांसारिक अनुभवों से गुजरता समृद्ध और सन्तुष्ट होता अंततः मृत्यु को सहजता पूर्वक स्वीकार कर पाए।<br />
<br />
खौलते कड़ाहे में भुनना, विष्ठा में लोटना, अन्धकूप में भटकना,काँटों पर लोटना आदि आदि जिन नारकीय यन्त्रणाओं का वर्णन किया जाता है, वस्तुतः ये प्रतितियाँ हैं जो मोह में फँसा जीव/प्रेत भोगता है।<br />
<br />
जीवनभर सतपथ पर चलता मनुष्य जो सहजभाव से मृत्योपरांत मुक्त हो चुका होता है और कहीं अन्यत्र किसी नूतन शरीर में जीवन जी रहा होता है, उसका भी एक क्षीणकोश(रक्त/DNA रूप में) अपने वंशजों द्वारा तर्पण प्राप्त कर उन्हें आशीर्वाद देने को ब्रह्माण्ड में अवस्थित रहता है।जब कोई जीवित व्यक्ति अच्छे कर्म करता है तो कहा जाता है पितृलोक में अवस्थित उसके पितर संतुष्ट हो अपने आशीर्वाद का बल उसे देते हैं,,अकाट्य सत्य है यह।<br />
<br />
बहुत पहले कहीं पढ़ा था कि भले पश्चिमी देश भारत को अंधविश्वासी कूपमंडूक और असभ्य ठहराए, लेकिन उनका अपना समाज इन जंजीरों में अत्यधिक जकड़ा हुआ है।मृत शरीर को नष्ट करने हेतु अग्नि आदि की अनुपलब्धता के कुछ भौगोलिक कारण भले रहे हों, पर कब्रों में उन्हें रख देने की विधि के पीछे मुख्य कारण यही है कि उन्हें विश्वास है कि कयामत के दिन उनके ईश्वर आएँगे और प्रत्येक मृत मनुष्य के कर्मों का हिसाब कर उनका न्याय करेंगे।तबतक जीव शांतिपूर्वक कब्र में पड़ा रहे, किसी को परेशान न करे, इसीलिए RIP( रेस्ट इन पीस) की कामना करते हैं।और सत्य बात यह है कि प्रेत प्रकोप इनके यहाँ सनातनियों की तुलना में बहुत अधिक है।<br />
अभी कुछ ही दिनों पहले (30 अक्टूबर को) बड़े ही धूमधाम से पश्चिम वालों के साथ साथ एलीट भारतीयों ने भी "हैलोवीन" पर्व/पार्टी मनाया।चूँकि उनके यहाँ व्यवस्थाएँ ऐसी हैं कि प्रेत योनि(सनातन धर्म में यह काल 10-11 दिन का ही माना गया है) में कौन कितने दिन रहेगा, इसका ठिकाना नहीं, तो इसके लिए स्वीकार्यता बढ़ाने के साधन उन्होंने खोज लिए हैं।स्वयं भूत प्रेत पिशाच चुड़ैल आदि बनकर भूतों को कम्पनी देना और स्वयं को इस स्थिति के लिए सज्ज करना,यह उनकी मजबूरी है।लेकिन उस धर्म के अनुयायियों द्वारा इसका अनुकरण जिसमें जीवन की तैयारी समस्त कर्तव्य सम्पादित करते मुक्त मन से मोक्ष की ओर जाना है, प्रेत योनि की स्वीकार्यता और इसे मनोरंजन का साधन बनाना, घोर दुर्भाग्यपूर्ण ही तो है।आज तो वैलेंटाइन पर्व के तरह इस पर्व में भी बाज़ार ने असीम सम्भावनाएँ देख ली हैं और इसका अपरिमित विस्तार को कमर कस चुकी है।खैर, जिसका जो अभीष्ट होगा,उसकी उसी ओर कर्म होंगे और वही उसका प्राप्य होगा,निश्चित ही है।<br />
अतः ईश्वर के दिये एक एक साँस का हम सदुपयोग करें,स्वयं का कर्तब्य और दायित्व समझें,आत्मविकास करें तो हमारी सकारात्मकता निश्चय ही हमारे आसपास सात्विकता प्रसारित कर हमें आत्मसंतोष देगी,हमें अपना जीवन सार्थक लगेगा और जीवित रहते हम प्रसन्नतापूर्वक मृत्यु को अंगीकार करने को प्रस्तुत रहेंगे।जीतेजी और मरकर भी भकटने से बचें,यही तो जीवन की सिद्धि है।<br />
<br />
Ranjana Singh</div>
रंजनाhttp://www.blogger.com/profile/01215091193936901460noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-3630123509017373846.post-2784973303947380922019-10-23T15:13:00.000+05:302019-10-23T15:13:08.407+05:30दीपोत्सव<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<div dir="auto" style="font-family: sans-serif; font-size: large;">
पर्यावरण बचाने को पटाखों से और स्वास्थ्य बचाने को भारतीय मिठाइयों से परहेज़ हेतु व्यापक और प्रभावी अभियान स्कूलों से लेकर टीवी विज्ञापनों पर अविराम चल रहा है।बाज़ार यह समझाने में लगभग सफल हो गया है कि दीपोत्सव का अर्थ नए नए कपड़े,सोने गहने की खरीदारी और मिठाई के स्थान पर चॉकलेट खाना खिलाना है।</div>
<div dir="auto" style="font-family: sans-serif; font-size: large;">
होली दिवाली जैसे पर्व कितने पर्यावरण अहितकारी, अवैज्ञानिक, दाकियानूसी त्योहार/परंपराएं हैं, यह सिद्ध करने में यूँ भी तथाकथित प्रगतिवादी वर्षों से अपने प्राण झोंके हुए हैं।</div>
<div dir="auto" style="font-family: sans-serif; font-size: large;">
ऐसे में बेचारे सामान्य जन जिन्हें पर्व परम्पराएँ भी खींचती हैं और वामी प्रगतिशीलता भी, कनफ्यूज कनफ्यूज हैं।उन्हें साफ दिख रहा कि मिठाइयों में धड़ल्ले से मिलावट हो रही है, पटाखों से ध्वनि प्रदूषण और रंगबिरंगे फुलझड़ियों से वायु प्रदूषण ऐसे हो रहा है कि पर्व के हफ्ते भर बाद तक वायुमण्डल धुएँ से आच्छादित रहता है,साँस लेना दूभर लगता है।</div>
<div dir="auto" style="font-family: sans-serif; font-size: large;">
<br /></div>
<div dir="auto" style="font-family: sans-serif; font-size: large;">
बस यही समय है कि दो घड़ी को बैठकर खुद भी समझें कि हमें क्या और कैसे करना चाहिए और अपने बच्चों को भी यह समझायें-</div>
<div dir="auto" style="font-family: sans-serif; font-size: large;">
</div>
<div dir="auto" style="font-family: sans-serif; font-size: large;">
वर्षा ऋतु में जमे पानी के गड्ढे जितने कीट पतंगे मच्छड़ आदि की बहुतायत के कारण बनते हैं,घर के भीतर भी जो गन्दगी फंगस आदि जमा होते हैं, सफाई के द्वारा पहले उनके उत्पादन स्थल को नष्ट करने के लिए ही दिवाली पूर्व व्यापक सफाई की परंपरा "नहीं तो लक्षमी घर में नहीं आएँगी", कहते पुरातन काल से चली आयी है।</div>
<div dir="auto" style="font-family: sans-serif; font-size: large;">
तो घर के बड़ों का प्राथमिक कर्तब्य बनता है कि बच्चों को साथ लेकर घर के अन्दर बाहर गली मुहल्लों तक में सफाई करें।यह दीप से दीप जलाने जैसी बात होगी।एक परिवार को इस तरह से सफाई करते और इस क्रम में साथ सहयोग का आनंद लेते लोग देखेंगे तो एक से दो,दो से चार प्रभावित होते चले जाएँगे।</div>
<div dir="auto" style="font-family: sans-serif; font-size: large;">
<br /></div>
<div dir="auto" style="font-family: sans-serif; font-size: large;">
चंद्रविहीन अमावस की काली रात में अधिकाधिक मिट्टी के दीये ही क्यों जलाए जाने चाहिए,बच्चों को यह समझाएँ और उनसे दीये जलवाएँ।जब वे प्रत्यक्ष कीट पतंगों मच्छडों को नष्ट होते देखेंगे तो जीवन भर के लिए इसको अपना लेंगे।</div>
<div dir="auto" style="font-family: sans-serif; font-size: large;">
<br /></div>
<div dir="auto" style="font-family: sans-serif; font-size: large;">
यह दिन और रात मानसिक अंधकार को दूर कर सात्विकता और हर्ष द्वारा मन को उत्तम विचारों से प्रकाशित करने का दिन है, प्रभु राम को हृदय में विराजित कर इसे अयोध्या(जो कभी किसी के द्वारा जीता न जा सके, नकारात्मकता जिसपर कभी भी आधिपत्य न जमा सके) बनाने का दिन है।</div>
<div dir="auto" style="font-family: sans-serif; font-size: large;">
और इस हेतु समझिए कि जबतक हम पर्यावरण की, गौ की, मानव मूल्यों की और सम्बन्धों की गरिमा नहीं रखेंगे, उनके संरक्षण हेतु तत्पर नहीं होंगे कभी सच्चे अर्थों में दीपोत्सव नहीं मना पाएँगे।</div>
<div dir="auto" style="font-family: sans-serif; font-size: large;">
हमने गौ का बहिष्कार और तिरस्कार कर इसे सेकुलडिता के अन्तर्गत वध्य(फ्रीडम ऑफ फ़ूड या च्वाइस फ़ॉर फ़ूड) स्वीकार लिया, गायों को कसाईखाने और कुत्तों को ससम्मान घर के अन्दर लाकर पूज्य बना दिया,,तो अब मिठाई के लिए छेना खोया की जगह केमिकल कचड़े ही तो मिलेंगे।लेकिन इसके बाद भी उपाय और विकल्प "चॉकलेट" तो कतई नहीं है।हमारे घर की अन्नपूर्णाएँ इतनी सिद्ध हैं कि बिना खोये छेने के भी 50 तरह के मिष्टान्न बना सकती हैं।उनसे अनुरोध है कि थोड़ी सी मेहनत करें और बच्चों को साथ लेकर घर पर ही कुछ मिष्टान्न बना लें।विश्वास करें, जो आह्लाद मिलेगा,वह अपूर्व होगा।इसके साथ ही बच्चे भी यह सब बनाना सीखेंगे।</div>
<div dir="auto" style="font-family: sans-serif; font-size: large;">
<br /></div>
<div dir="auto" style="font-family: sans-serif; font-size: large;">
ध्यान रखें, अमावस्या की यह रात्रि सिद्धिदात्री होती है।काल/समय अपने कालिका रूप में पृथ्वी पर अपने साधकों को वर देने को विचरती रहती हैं। इसमें आप जो सिद्ध करेंगे, वह सिद्ध होगा।सात्विकता सिद्ध करेंगे तो वह सधेगा,यदि शराब जुआ पार्टीज आदि(नकारात्मकता) सिद्ध करेंगे तो हृदय का असुर सिद्ध होगा जो एक पल को भी सकारात्मकता की रश्मियों को हृदयतल तक पहुँचने न देगा।सबकुछ होते हुए भी आप शान्ति सन्तोष और सुख का अनुभव नहीं कर पाएँगे।</div>
<div dir="auto" style="font-family: sans-serif; font-size: large;">
<br /></div>
<div dir="auto" style="font-family: sans-serif; font-size: large;">
इस तरह, दीपमालिका से सजी पावन और सुन्दर दीपावली मनाइए।</div>
<div dir="auto" style="font-family: sans-serif; font-size: large;">
और हाँ, दान हमारे सनातन की अनिवार्य प्रक्रिया है, इसके बिना पर्व पूर्ण नहीं होता।</div>
<div dir="auto" style="font-family: sans-serif; font-size: large;">
सो, वंचितों को अवश्य कुछ न कुछ दीजिये ताकि उनके हृदय के प्रसन्नता का प्रकाश आपके जीवन को प्रकाशित कर दे।</div>
<div dir="auto" style="font-family: sans-serif; font-size: large;">
<br /></div>
<div dir="auto" style="font-family: sans-serif; font-size: large;">
"आप सभी को शुभ दीपोत्सव की अग्रिम शुभकामनाएँ....जय श्रीराम"</div>
</div>
रंजनाhttp://www.blogger.com/profile/01215091193936901460noreply@blogger.com6tag:blogger.com,1999:blog-3630123509017373846.post-39050700976454625072019-06-03T21:39:00.001+05:302022-06-02T14:57:54.494+05:30सावित्री कथा, वैज्ञानिकता के परिप्रेक्ष्य में
इस व्रत का नाम "वट सावित्री व्रत" है,जिसमें कथा केन्द्र में पतिपरायणा सती नारी सावित्री हैं,जो यमराज से न केवल पति के प्राण वापस ले आती हैं अपितु अपने मातृ और स्वसुर कुल के लिए भी यमराज से वरदान प्राप्त कर सबको सुखी समृद्ध और अभावहीन कर देती हैं।
सम्बन्धों और सम्बन्धियों के प्रति निष्ठा, समर्पण, सेवा भाव आदि मानवीय भावों को थोड़ी देर के लिए बगल में रख देते हैं और वहाँ जाते हैं जहाँ वन में लकड़ियाँ काट रहे सत्यवान क्लान्त होकर विश्राम की इच्छा प्रकट करते हैं और सावित्री उन्हें वटवृक्ष के नीचे विश्राम का आग्रह करतीं हैं।
सत्यवान प्रगाढ़ निद्रा में लीन होते हैं और यमराज उनके प्राण लेकर अपने लोक को गमन करते हैं।पतिव्रता सावित्री यमराज का अनुसरण करते उनके पीछे चलने लगती हैं।
स्थूल रूप से यह सम्भव नहीं लगता।लेकिन जिनकी इस विषय में रुचि है,यदि उन्होंने थोड़ा भी अध्ययन किया है या जो सिद्ध पुरुष हैं और अपने अनुभवों से यह शक्ति पाया है, वे जानते हैं कि व्यक्ति का स्थूल शरीर केवल एक आवरण है जो पूर्णतः शूक्ष्म शरीर द्वारा संचालित होता है और उस शूक्ष्म शरीर के साथ व्यक्ति कहीं भी गमन कर सकता है।
अब चूँकि सावित्री को ज्ञात था कि(जिसे ज्योतिष शास्त्र का ठीक ठाक ज्ञान हो,जीवन की घटनाएँ आयु मृत्यु आदि की गणना वह आज भी कर सकता है) अमुक दिन सत्यवान की आयु शेष हो रही है तो उसने अपना पूरा ध्यान वहीं केन्द्रित कर रखा था। मानवीय दुर्बलताओं,विकारों से एक सामान्य मनुष्य भी यदि स्वयं को बचा लेता है तो उसमें सात्विक ऐसी शक्तियाँ विकसित हो जाती हैं जिसके बल पर उसका कहा सत्य होता है,उसके आशीर्वाद और श्राप सिद्ध होते हैं और अपने शूक्ष्म शरीर के साथ वह न केवल कहीं आ जा सकता है अपितु परकाया प्रवेश भी कर सकता है( ये बातें केवल पढ़ी सुनी नहीं कह रही, बहुत कुछ स्वानुभूति के आधार पर, इस तरह के कई लोगों के अनुभूति के आधार पर कह रही हूँ)।
हमारे एक मित्र हैं, जिन्होंने वैज्ञानिक ढंग से यह सिद्ध कर दिया है कि जिसे हम प्राण कहते हैं,उसका भी एक वजन होता है,उसके गमन का एक मार्ग होता है,अँगूठे सी आकृति वाला धुँधला पर उज्ज्वल वह प्रकाशमान होता है जिसे सामान्य दृष्टि/आँखों से नहीं देखा जा सकता।हाई रेज्युल्यूशन सॉफ्स्टिकेटेड ऐसे कैमरे बनाये जा चुके हैं जिसके द्वारा व्यक्ति के ऑरा/प्रभाकिरण तथा प्राण के उस प्रकाश को देखा जा सकता है।ऑरा हीलिंग के लिए तो ऐसे कैमरों के प्रयोग आरम्भ भी हो चुका है।
तो जब यमराज सत्यवान के प्राण लेकर चले तो ध्यान में लीन सावित्री अपने शूक्ष्म शरीर के साथ उनका अनुगमन करने लगी और उसकी प्रतिबद्धता ने जाते हुए उस प्राण का,गमन बाधित किया जो शरीर से निकलने के बाद उससे मुक्त हो अपने गंतव्य की ओर जा रहा था,जहाँ उसे मोहमुक्त होकर एकाकी ही जाना था। उस प्राण/चेतना को ही हम थोड़ी देर के लिए यम मान लेते हैं।
हममें जो भी शक्ति होती है,स्थूल कार्यों के लिए शारीरिक बल चाहे प्रत्यक्ष रूप में उपयुक्त होती हो,पर इसके पीछे भी असली शक्ति प्राण/चेतना की ही होती है।शरीर में रहते यह शक्ति भले सीमाओं में बन्धा हो,पर शरीर मुक्त होने पर अपनी सात्विकता के अनुपात में अपरिमित सबल सामर्थ्यवान हो जाती है।
तो, अपने मार्ग में बाधा पाने पर मुक्त होने के लिए वह सावित्री से पीछा छुड़ाने के लिए उसको वे सारे वरदान देता चला गया जो सावित्री का अभीष्ट था। परन्तु इस क्रम में यह भी हुआ कि सावित्री का कुल के प्रति निष्ठा और समर्पण भाव देख वह प्राण मुग्ध होता बन्धता भी चला गया और अंततः अपनी प्रिया की संतान प्राप्ति के कोमल भाव के प्रति समर्पित होता हुआ,उसका इच्छित उसे देने को मुक्त होने के स्थान पर पुनः अपने शरीर में वापस आने को प्रस्तुत हो गया।
अब जैसा कि हम सभी जानते हैं, वटवृक्ष को अक्षयवट इसलिए कहा जाता है कि इसका कभी क्षय नहीं होता।आज भी धरती पर हजारों हजारों वर्ष से अमर कई वटवृक्ष हैं जिनकी ईश्वर रूप में ही पूजा होती है।वटवृक्ष और पीपल, ये चौबीस घण्टे ऑक्सीजन ही देते हैं,यह तो आधुनिक विज्ञान ने भी कह दिया है। यही कारण है कि पक्षी और सरीसृप प्राथमिकता से इसी पर अपना बसेरा बनाते हैं।
सावित्री ने इस वृक्ष के नीचे सत्यवान को इसलिए रखा ताकि वह एक तरह से ऑक्सीजन से आवृत्त उस वेंटिलेटर के सानिध्य में तबतक रहें जबतक प्राण पुनः स्थापित हो शरीर को सुचारु रूप से चलाने की अवस्था में न पहुँच जाय।
अब पूरी कथा को एक सूत्र में पिरोकर देखिये।अब भी क्या आपको यह किवदंती, काल्पनिक कथा,असम्भव या हास्यास्पद लगती है?
वटसावित्री पूजन के दिन ऐसे वृक्ष को प्राथमिकता दी जाती है जिसमें बड़गद और पीपल एक साथ हों या फिर पास पास।वृक्ष के चारों तरफ रक्षा सूत्र लपेटती विवाहिताएँ पतिव्रता देवी सावित्री के महान कर्मों का स्मरण करते जहाँ अपने लिए अखण्ड सौभाग्य का वरदान माँगती हैं वहीं अपने धर्म कर्म निष्ठा और प्रेम के प्रति प्रतिबद्धता भी दुहराती हैं।जहाँ एक जीवनदायी वृक्ष के संरक्षण का यह उद्योग है, वहीं स्वच्छ ऊर्जा ग्रहण कर अधिक सामर्थ्यशाली बनने का उपकरण भी।
विवेक जो जागृत रखते जब हम विज्ञान को साथ लेकर चलेंगे, तभी अपने लिए कल्याणकारी मार्ग निकाल पाएँगे।आधुनिक विज्ञान जो कि पूर्णतः स्थूल साक्ष्यों को ही स्वीकार करता है, जो प्रतिपल नया कुछ सीख जान रहा है,उसकी स्थूल सीमाओं में उस ज्ञान को बाँधना जो शूक्ष्म शरीर द्वारा जाना भोगा गया हो, स्वयं को ही छोटा करना नहीं होगा??
अस्तु, मेरा आग्रह है कि व्रत करें न करें, एकबार शान्त मन इस वृक्ष के नीचे आँखें बन्द करके आत्मलीन होकर बैठिए और फिर बताइये कैसी अनुभूति हुई।यदि आनन्द और ऊर्जा मिले तो चिन्तन को उस आनन्द के मूल की ओर ले जाइए। पौराणिक कथा की प्रासंगिकता और वैधता स्वयं आपका मन आपको बताएगा।
रंजनाhttp://www.blogger.com/profile/01215091193936901460noreply@blogger.com6tag:blogger.com,1999:blog-3630123509017373846.post-25643030390796640542018-04-27T15:28:00.000+05:302018-04-27T15:28:54.981+05:30एकलव्य कथा<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
कक्षा 9-10 के अहिन्दीभाषी बच्चों को हिन्दी पढ़ाते समय श्रुतिलेख लिखवा रही थी और इसी क्रम में शब्द "एकलव्य" लिखवाया। उत्सुकतावश मैनें उनसे पूछ लिया कि क्या वे एकलव्य के विषय में जानते हैं? उन्होंने कथा के विषय में जो बताया,मैं सन्न रह गयी।<br />
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<span style="font-family: sans-serif; font-size: medium;">उनके अनुसार एकलव्य बड़ा ही कुशाग्रबुद्धि बालक था, लेकिन क्योंकि वह छोटी जाति का था इसलिए उसे ब्राह्मण द्रोणाचार्य ने शिक्षा नहीं दी और जब उसने गुरु द्वारा राजपुत्रों को दी जा रही शिक्षा को छुप छुप कर देखते सबकुछ सीख लिया और गुरु प्रतिमा के सम्मुख निरन्तर अभ्यास द्वारा ऐसी पारंगतता पा ली कि उसकी बराबरी करने वाला कौरवों पाण्डवों में कोई भी नहीं था तो, यह पता चलने पर गुरु द्रोणाचार्य ने छलपूर्वक गुरुदक्षिणा में उससे उसके दाहिने हाथ का अँगूठा माँग लिया ताकि वह कभी भी अपनी प्रतिभा दक्षता का उपयोग नहीं कर पाए और सँसार भर में द्रोणाचार्य के राजपुत्र शिष्य ही सर्वश्रेष्ठ रहें।</span><div dir="auto" style="font-family: sans-serif; font-size: large;">
<br /></div>
<div dir="auto" style="font-family: sans-serif; font-size: large;">
बच्चों के कोमल मस्तिष्क पर कथा(विष)जिस रूप में अङ्कित हुई, काश कि शिक्षक यह देख समझ पाते। कथा के इस स्वरूप के अनुसार -</div>
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<div dir="auto" style="font-family: sans-serif; font-size: large;">
* हिन्दुओं में भेदभाव परक जाति व्यवस्था महाभारत काल में भी ऐसी थी कि तथाकथित छोटी जाति में जन्में लोगों को शिक्षा तक से वन्चित रखा जाता था।और यदि कोई प्रतिभावान शिक्षा तक पहुँच भी जाता था तो ऊँची जाति के लोग उनसे छलपूर्वक वह छीन लेते थे।</div>
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<br /></div>
<div dir="auto" style="font-family: sans-serif; font-size: large;">
* गुरुदक्षिणा(फीस) देने में असमर्थ क्षात्रों के प्रति गुरु इतने कठोर/क्रूर होते थे कि उनको अक्षम बनाने में तनिक भी संकोच नहीं करते थे।</div>
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<div dir="auto" style="font-family: sans-serif; font-size: large;">
*गुरु लोभी होते थे और आर्थिक रूप से समर्थों को ही शुल्क की एवज में शिक्षा देते थे।</div>
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*क्षत्रिय तथा ब्राह्मण क्रूर स्वार्थी, दलितों के शोषक होते थे।</div>
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<div dir="auto" style="font-family: sans-serif; font-size: large;">
इस प्रभाव को निरस्त निष्प्रभावी करना अत्यंत आवश्यक था। सो मैनें बच्चों से कुछ काउण्टर क्वेश्चन पूछे।</div>
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<br /></div>
<div dir="auto" style="font-family: sans-serif; font-size: large;">
प्र.- हिन्दूधर्म के मुख्य ग्रन्थ कौन कौन हैं?</div>
<div dir="auto" style="font-family: sans-serif; font-size: large;">
उ.- महाभारत, गीता, रामायण।</div>
<div dir="auto" style="font-family: sans-serif; font-size: large;">
प्र.- महाभारत गीता किसने लिखी थी?</div>
<div dir="auto" style="font-family: sans-serif; font-size: large;">
उ.- वेदव्यास ने..</div>
<div dir="auto" style="font-family: sans-serif; font-size: large;">
प्र.- वेदव्यास की जाति क्या थी?</div>
<div dir="auto" style="font-family: sans-serif; font-size: large;">
उ.- शूद्र(मछुआरिन माता)</div>
<div dir="auto" style="font-family: sans-serif; font-size: large;">
प्र.- रामायण किसने लिखी थी?</div>
<div dir="auto" style="font-family: sans-serif; font-size: large;">
उ.- वाल्मीकि।</div>
<div dir="auto" style="font-family: sans-serif; font-size: large;">
प्र.- इनकी क्या जाति थी?</div>
<div dir="auto" style="font-family: sans-serif; font-size: large;">
उ.- शूद्र।</div>
<div dir="auto" style="font-family: sans-serif; font-size: large;">
प्र.- भारत के कुछ ऋषियों संतो महापुरुषों के नाम बताओ जिनके प्रति लोगों में अपार श्रद्धा है?</div>
<div dir="auto" style="font-family: sans-serif; font-size: large;">
उ.- रहीम,कबीर, रैदास,तुलसीदास, सूरदास,मीराबाई,पिछले कुछ सौ वर्षों के और विश्वामित्र, वाल्मीकि, शबरी आदि जैसे असंख्यों सन्त विद्वान पराक्रमी योद्धा जो जन्मे चाहे जिस भी जाति में परन्तु अपना जो कर्म उन्होंने चुना, संसार उसी रूप में उन्हें पूजता है।</div>
<div dir="auto" style="font-family: sans-serif; font-size: large;">
<br /></div>
<div dir="auto" style="font-family: sans-serif; font-size: large;">
ब्राह्मण द्रोणाचार्य सा पराक्रमी योद्धा, शस्त्रज्ञाता उनके समय में बहुत ही गिने चुने थे जबकि जाति से वे ब्राह्मण थे और जाति अनुसार उन्हें केवल शास्त्रज्ञाता होना चाहिए था।इसी तरह विश्वामित्र क्षत्रिय थे,किन्तु उन्होंने ब्राह्मणत्व स्वीकार लिया था। शूद्र वेदव्यास और वाल्मीकि महर्षि बने।</div>
<div dir="auto" style="font-family: sans-serif; font-size: large;">
<br /></div>
<div dir="auto" style="font-family: sans-serif; font-size: large;">
तो, अव्वल तो उस समय कर्म के आधार पर जो वर्ण व्यवस्था थी,वह जन्म आधारित बिल्कुल न थी। बाद में जब जाति व्यवस्था जन्मगत हुई भी तो उसका आधार यह था कि जो जिस जाति में जन्मता है,उसमें अपने परिवारगत पेशे से सम्बन्धित दक्षता सहज ही आ जाती थी, सो लोगों को यह फायदेमंद लगा और लोगों ने इस व्यवस्था को सहर्ष अपनाया।लेकिन जन्मगत जाति व्यवस्था में भी ऊँचनीच छोटे बड़े का कोई स्थान न था क्योंकि सामाजिक ताने बाने में हर व्यक्ति(जाति) उतना ही महत्वपूर्ण था और किसी के बिना किसीका काम नहीं चल सकता था।</div>
<div dir="auto" style="font-family: sans-serif; font-size: large;">
<br /></div>
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अब जहाँ तक बात रही द्रोणाचार्य और एकलव्य के प्रसंग की,,तो पहले तो द्रोणाचार्य प्रतिज्ञाबद्ध थे केवल कुरुकुल के ही बच्चों को शिक्षा देने के लिए, इसलिए वे किसी और को शिक्षा नहीं दे सकते थे।</div>
<div dir="auto" style="font-family: sans-serif; font-size: large;">
दूसरे, उस समय गुरुओं का दायित्व बहुत बड़ा होता था। किसी भी कुपात्र(जो उस शिक्षा का सार्थक सात्विक उपयोग न करे) को वे शिक्षा नहीं देते थे। यदि किसी ने उनकी शिक्षा का दुरुपयोग किया तो इसकी जिम्मेदारी स्वयं लेते गुरु स्वयं को दारुण दण्ड देते थे।</div>
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द्रोणाचार्य इसके जीते जागते प्रत्यक्ष प्रमाण हैं कि जब उनके शिष्यों(कौरवों) ने उनकी शिक्षा का उपयोग विध्वंसक गतिविधियों में किया तो उन्होंने धर्म के पक्ष में खड़े अपने प्रिय शिष्य अर्जुन के हाथों अपनी मृत्यु को स्वीकारा।इससे बड़ा दण्ड स्वयं को गुरु और क्या दे सकता है कि अपने ही शिष्य के हाथों अपना वध करवाये।</div>
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एकलव्य कुशाग्रबुद्धि था,अपार क्षमतावान था, किन्तु गुरु को यह अंदेशा था कि उसकी क्षमता का उपयोग कोई भी विध्वंसक कर सकता है। इसलिए उन्होंने गुरुदक्षिणा में उसके दाहिने हाथ का अँगूठा माँगा। दाहिने हाथ का यह अँगूठा फिजिकली काट कर नहीं माँगा या एकलव्य ने दिया,, बल्कि उस अँगूठे के प्रयोग की वर्जना का व्रत/शपथ द्रोणाचार्य ने एकलव्य से लिवाया। कथा बच्चों को सरलता से समझ में आ जाय इसलिए कहीं कहीं चित्र वैसा बना दिया जाता है जिसमें चित्रित होता है कि एकलव्य अपना अँगूठा काट कर गुरु को भेंट कर रहे,,या फिर कथा में इस तरह से वर्णन आता है।एकलव्य के इस महान गुरुदक्षिणा के बदले गुरु ने भी एकलव्य को ऐसी अमोघ शक्ति/वरदान दिया कि एकलव्य अपनी जाति में ही नहीं,सँसार भर में सदा के लिए पूजित सम्माननीय और आदर्श व्यक्ति हुआ।आज भी यदि किसी शिष्य की बात होती है तो एकलव्य को सर्वश्रेष्ठ शिष्य की पदवी प्राप्त होती है जो गुरु के वरदान और शिष्य के उत्तम चरित्र के कारण ही सम्भव हुआ। </div>
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हम जब बच्चों को शिक्षा दे रहे होते हैं तो केवल शब्द या वाक्य ज्ञान नहीं करा रहे होते,बल्कि उनका चरित्र गढ़ रहे होते हैं। ऐसे में हमारा नैतिक दायित्व होता है कि बहुत सोच समझ कर विषय तथा प्रसंगों को उनके सम्मुख रखें। इस क्रम में यदि कुछ नेगेटिव बातों के नैरेटिव हमें बदलने भी पड़ें, तो कोई दिक्कत नहीं। 16-17 के बाद बच्चों में ज्यों ज्यों परिपक्वता आती जाय, चीजें उनके सामने ज्यों की त्यों रखी जाँय, तो कोई दिक्कत नहीं।</div>
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वस्तुतः बचपन में नींव में रखी गयी सकारात्मकता की शक्ति ही वयस्क होने पर संसार की नकारात्मकता को झेलने में काम आती है।सात्विक बातों से ही सच्चरित्रता निर्मित होती है और दृढ़ चरित्र के सहारे ही व्यक्ति जीवन में सात्विक सुख और सन्तोष तक पहुँच सकता है। </div>
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रंजनाhttp://www.blogger.com/profile/01215091193936901460noreply@blogger.com13tag:blogger.com,1999:blog-3630123509017373846.post-10354056826406160112017-12-25T22:04:00.000+05:302017-12-26T00:44:59.906+05:30मेरी क्रिसमस<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
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"मेरी क्रिसमस"</div>
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प्रिय ईसाई भाई बंधुओं, आपको आपके परम् पूज्य यीशु मसीह जी के जन्मदिन पर सपरिवार बहुत बहुत बधाइयाँ और मंगलकामनाएँ।खूब हर्ष उत्साह से मनाएँ यह पुण्य पर्व।</div>
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लेकिन आपको पता है, जितने उल्लास और श्रद्धा से आप यह पर्व मनाते हैं,उससे अधिक उत्साह से हम सेकुलर हिन्दू यह सेलिब्रेट करते हैं। जन्माष्टमी,रामनवमी,हनुमान जयंती, शिवरात्रि आदि आदि पर्वों पर आप अपने सहधर्मानुयायियों को कभी यह हैप्पी हैप्पी विशिंग देते हैं? नहीं न? लेकिन हम हिन्दू 4 दिन पहले से ही एक दूसरे को विशिंग आदान प्रदान के साथ साथ यह सेलेब्रेशन शुरू कर देते हैं।</div>
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तुलसी पीपल में दिये जलाने वालों पर हँसने, मखौल उड़ाने वाले हम, अपने घरों में प्लास्टिक की क्रिसमस ट्री सजा सुख समृद्धि के लिए उसके सामने दण्डवत हो जाते हैं।हमारा मानना है कि आपने कह दिया है तो वह सन्देह से परे है, लाल कोट सफेद दाढ़ी वाले संता अंधविश्वास नहीं,,वे होते ही हैं जो बच्चों के लिए गिफ्ट लेकर आते हैं।</div>
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एक ओर जहाँ गाँव देहात या शहरी बस्तियों वाले साधनहीन लोग आज के दिन पिकनिक मनाने अवश्य ही जाते हैं,क्योंकि इस दिन के पिकनिक का पुण्यलाभ मकर संक्रान्ति पर शुभमुहूर्त में गंगा स्नान से भी अधिक पुण्यफलदायी माना जाता है। वहीं दूसरी ओर पढ़े लिखे साधनसम्पन्न हम बुद्धिजीवी सेकुलर हिन्दू आज के दिन धूम धड़ाके वाला क्रिसमस पार्टी मनाते हैं।</div>
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अतिसंक्षिप्त लाल कपड़ों में आज की कँपकँपाती ठण्डी को हम वीरांगनाएँ हँसते मुस्कुराते रेड वाइन के साथ आत्मसात कर जाती हैं।असल में हमनें दुर्योधन की दुर्दशा देखी थी, कि उसने माता गान्धारी के कहे की अवहेलना कर पूर्ण वस्त्रहीन अवस्था में उनके सम्मुख उपस्थित नहीं हुआ और केले के पत्ते से ढँका उसके शरीर का वह हिस्सा कमजोर दुर्बल रह गया था और कालान्तर में उसी दुर्बल हिस्से पर आघात लगने से वह मृत्यु को प्राप्त हुआ था।उसी से शिक्षा लेते हम हॉट बेब्स शरीर को वज्रता प्रदान करने के उद्देश्य से शीत वायु को अधिकाधिक मात्रा में अपने शरीर का एक्सपोजर देती हैं।</div>
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असल में क्या है न किसी जमाने में "माँ,माटी,मानुष" (मातृभाषा, संस्कृति और परिवार समाज) के विश्वास आस्था से आम हिन्दू जरूरत से ज्यादा ही आवृत्त रहता था,,अपने ही व्रत उपवास त्योहारों को महान मानता था और फलस्वरूप पिछड़ता ही चला गया (हालाँकि अब एक राजनीतिक दल ने इसे अपना चुनाव चिन्ह बना लिया है और सफलता के नित नए झण्डे गाड़ रही)।</div>
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इतना पिछड़ा इतना पिछड़ा कि दुनियाँ के दयालु परोपकारी कई अन्य देशों और धर्मावलंबियों को भारत पर शासन करने आना पड़ा ताकि वे यहाँ के लोगों को उनके अन्धकूप से बाहर निकाल उन्हें प्रगतिशील बना सकें।</div>
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पहले महान पराक्रमी दयालु मुस्लिम राजवंश और फिर आँग्ल राजवंश, सैकड़ों वर्षों तक प्राणपण से भिड़े रहे, फूहड़ गंवार भारतीयों को प्रगतिशील बनाने में।लेकिन वे हार गए।</div>
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तब जाकर देश का सौभाग्य जगा और भारत भूमि से महान चचा उगे। उन्होंने बीड़ा उठाया कि देश को कूपमंडुकता मुक्त कर के ही धरती से उठेंगे। दूरद्रष्टा युगप्रवर्तक परमपूज्य चचाजी ने देश पर "सेकुलरिता" रूपी वह जादू की छड़ी घुमाई कि सदियों से सुप्त पड़ी हिन्दुओं की चेतना फुरफुराकर जग गयी और उसे समझ में आया कि अपनी पुरातन अधोगामी संस्कृति को त्याग कर अँग्रेजी भाषा,पर्व त्योहार,खान पान पूर्ण रूप से अपनाकर ही प्रगतिहीनता के अभिशाप से मुक्ति पाया जा सकता है, एडवांश बना जा सकता है।</div>
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सो हम सेकुलर हिन्दू पूरे प्राणपण से उस सेकुलरी छड़ी को थामे आपके बराबर उड़ने में लगे हुए हैं।</div>
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अब आप साधिकार नहीं कह सकते "मेरी क्रिसमस", क्योंकि यह केवल आपकी ही नहीं "मेरी भी" उतनी ही है - "मेरी क्रिसमस" !!!</div>
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रंजनाhttp://www.blogger.com/profile/01215091193936901460noreply@blogger.com1tag:blogger.com,1999:blog-3630123509017373846.post-32043966054631462122017-08-28T14:38:00.002+05:302017-08-28T14:38:15.231+05:30आरक्षण<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
बड़े आराम से यह कहा जा सकता है कि लालू मुलायम मायावती से लेकर जातिवादी राजनीति करते अपनी व्यक्तिगत दुकान चलाने वाले आरक्षण पैरोकारों से लेकर नवोदित "हार्दिक पटेल" जैसे लोगों तक की रैलियों में जो विशाल भीड़ उमड़ती है,वह भाड़े की होती है...<br />
लेकिन मुझे लगता है यह सत्य से मुँह मोड़ना होगा।<br />
देशतोड़कों द्वारा लाख पैसे फूँके जाएँ, मिडिया कवरेज दे,,फिर भी उस हुजूम में सारे सेट किये ही लोग होते हैं,यह नहीं कह सकते हम।जेनुइन लोग होते हैं इसमें यह मानना होगा..और जब हम यह मानेंगे,तभी उन मूल कारणों तक भी पहुँच पाएँगे और समाधान की दिशा में बढ़ पाएँगे।<br />
<br />
स्कूल कॉलेज में बच्चों का एडमिशन करवाना हो,रेलवे टिकट कटवाना हो,मंदिर में भगवान का दर्शन करना हो या जीवन के किसी भी क्षेत्र में,जहाँ भारी भीड़ हो और अवसर कम हो,यह निश्चितता न हो कि अवसर मिलेगा हमें, क्यू में स्वेच्छा और निश्चिंतता से खड़ा होना चाहते हैं क्या हम?कभी भी,कहीं भी, सही गलत कुछ भी करते, अगर शार्ट कट मिल रहा हो,हममें से कितने हैं ज अपना लोग संवरण कर पाते हैं?121 करोड़ की आबादी में 8-10 हजार लोग बमुश्किल निकल पाएँगे जो अगर उसके अगल बगल के सभी लोग सुविधा/ सिस्टम का बेजा इस्तेमाल भी कर रहे हों तो अपना ईमान पकड़ कर रखते हैं और मुफ़्त मिल रही अन्हक सुविधा को भीख और आत्मसम्मान पर ठेस समझते हैं?<br />
<br />
तो कुल मिलाकर बात यह हुई कि पिछले दशकों में सत्तासीनों ने देश का जो चारित्रिक संस्कारण किया है,मुफ्तखोरत्व,निकम्मेपन और बेशर्मी को उस स्तर पर पहुँचा दिया है जिससे कुछ वर्षों में समझा बुझा कर तो नहीं हटाया जा सकता,,तो इसके लिए सुप्रीम कोर्ट को ही आगे बढ़ स्वतः संज्ञान लेते एक बड़ा वाला झाड़ू चलाते सारे ही आरक्षणों को इस आधार पर रद्द करे कि -<br />
*इससे समूहों के बीच वैमनस्यता फैलती है<br />
*प्रतिभावान का हक़ मारा जाता है और अयोग्य लोग अंततः देश की प्रगति में बाधक होते हैं<br />
* कुछ ही परिवारों के पुश्त दर पुश्त आरक्षण मलाई का भक्षण करते फूलते फलते हैं और जो पिछड़े हैं,पिछड़ते ही चले जाते हैं।<br />
अतः यह प्रत्येक दृष्टि से देश की एकता अखंडता,प्रत्येक नागरिकों के लिए सामान अधिकार के समदृष्टिमूलक मूल सिद्धांत के विरुद्ध और प्रगति का बाधक है..और इसका अंत आवश्यक है।<br />
इसके स्थान पर बिना किसी भेदभाव के देश के बड़े छोटे अमीर गरीब सभी नागरिकों के लिए शिक्षा की एक व्यवस्था(सरकारी स्कूलों में सभी सरकारी मुलाजिमों को अपने बच्चों को पढ़वाने की जैसी व्यवस्था अभी इलाहाबाद हाई कोर्ट ने की)हो,प्रतिभा/योग्यता ही एकमात्र आधार आगे बढ़ने का हो।आर्थिक रूप से वंचित वर्ग की उन कठिनाइयों को दूर किया जाय जो उन्हें भोजन संधान में लिप्त रखते शिक्षा से दूर रखते हैं।</div>
रंजनाhttp://www.blogger.com/profile/01215091193936901460noreply@blogger.com5tag:blogger.com,1999:blog-3630123509017373846.post-52659361848556103132017-07-14T17:45:00.000+05:302017-07-14T21:24:28.440+05:30जागो ग्राहक जागो<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
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<br /></div>
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<span style="font-family: sans-serif;"><span style="font-size: 26.6027px;">साधु", शब्द सुनते ही हमारे मानस पटल पर औचक जो चित्र उभरता है,वह कटोरा लिए दरवाजे पर खड़े गेरुआधारी भिखारी का या फिर आँखें मूँदे बैठे माला जपते व्यक्ति का होता है।</span></span><br />
<span style="font-family: sans-serif;"><span style="font-size: 26.6027px;">वैसे तो कुछ 'तथाकथित' लघु गुरु साधुओं के कु-कृत्यों ने और बाकी बची कसर सेकुलर बुद्धिजीवियों के दुष्प्रचारों ने पूरी करते पिछले दशकों में साधुओं की वह छवि बना डाली है, कि इनके झोले में डालने को जनसाधारण के पास संशय घृणा और तिरस्कार रूपी भाव भिक्षा के अतिरिक्त शायद ही कुछ अच्छा बचा है।</span></span><br />
<span style="font-family: sans-serif;"><span style="font-size: 26.6027px;"><br /></span></span>
<span style="font-family: sans-serif;"><span style="font-size: 26.6027px;">ऐसे में किसी गेरुआधारी बाबा को घी तेल सौंदर्य प्रसाधनों से लेकर दैनिक उपयोग की अन्यान्य वस्तुओं के उत्पादक/विक्रेता रूप में कोई कैसे बर्दाश्त कर ले? सो, अपने देश में एक बड़ी संख्या उन लोगों की है,जो पतञ्जलि के प्रॉडक्ट्स केवल इसलिए नहीं खरीदते या बाबाजी से घृणा इसलिए करते हैं कि एक गेरुआधारी साधु भीख माँगना और धूनी रमाना छोड़ सामान क्यों बेच रहा, वह ऐसा कैसे कर सकता है? </span></span><br />
<span style="font-family: sans-serif;"><span style="font-size: 26.6027px;">निष्कर्ष - वह ढोंगी है!!!</span></span><br />
<span style="font-family: sans-serif;"><span style="font-size: 26.6027px;"><br /></span></span>
<span style="font-family: sans-serif;"><span style="font-size: 26.6027px;">मेड इन चाइना,जापान,अमेरिका,रशिया,, और तो और पाकिस्तान भी,,के उत्पाद आप सहर्ष खरीदेंगे,पर बाबा वाला नहीं, क्योंकि -</span></span><br />
<span style="font-family: sans-serif;"><span style="font-size: 26.6027px;">" बाबा गन्दे होते हैं, या फिर बाबा ऐसे नहीं होते हैं"(बचपन से दिमाग में बैठायी गयी बात)।इससे क्या कि सतयुग त्रेता आदि में कोई भी वैज्ञानिक/अविष्कारक गेरुआधारी तपस्वी "साधक/साधु" ही होता था, अस्त्र निर्माण से लेकर इतिहास भूगोल ज्योतिष साहित्य भवन निर्माण विशेषज्ञ और कामयोग तक के सिद्धांतों के प्रतिपादक और इनसे सम्बद्ध उत्पादों के उत्पादन भी इन्हीं की देखरेख में होते थे।</span></span><br />
<span style="font-family: sans-serif;"><span style="font-size: 26.6027px;">इनके सम्मुख राजसत्ता नतमस्तक रहती थी,जनसाधारण की तो बात ही क्या।</span></span><br />
<span style="font-family: sans-serif;"><span style="font-size: 26.6027px;">पर सही है, यह वह काल नहीं,,,कल-युग है।जिसमें हम प्रोग्रेसिव हैं और हमारी प्रोग्रेसिवनेस तथा सेकुलरिज्म हमें साधुओं को सम्मान देने से ख़ारिज होती है।</span></span><br />
<span style="font-family: sans-serif;"><span style="font-size: 26.6027px;"><br /></span></span>
<span style="font-family: sans-serif;"><span style="font-size: 26.6027px;">अरे भैया, आप एक उपभोक्ता हैं।आपका प्रथम कर्तब्य अपनी जेब को और फिर उत्पाद की गुणवत्ता को देखना तौलना है। हाँ, कोई दूसरा देश जो भारत को हानि पहुँचा रहा हो,राष्ट्रसेवा के तहत उस देश के वस्तुओं का बहिष्कार कर सकते हैं, जैसे कभी भारत भर में मैनचेस्टर के कपड़ों की होली जला कर की गई थी या अभी हाल ही में लोगों ने अमेज़न की बैंड बजायी थी।</span></span><br />
<span style="font-family: sans-serif;"><span style="font-size: 26.6027px;"><br /></span></span>
<span style="font-family: sans-serif;"><span style="font-size: 26.6027px;">बाबा बोली से हल्के हैं,व्यक्तित्व में भी वह बात नहीं कि स्मरण ही नतमस्तक कर दे,,यह मेरी भी व्यक्तिगत राय है।लेकिन यह तो आपको मानना ही पड़ेगा कि स्वदेशी आंदोलन या योग के प्रचार प्रसार में,इनके प्रति जनस्वीकार्यता बढ़ाने में, बाबा ने जो भूमिका निभायी है, वह अपने आप में अभूतपूर्व है।वरना तो ये दोनों ही सदियों से भारत में रहे हैं। स्वतंत्रता आन्दोलन में तो लड़ाई का एक प्रमुख हथियार ही स्वदेशी आन्दोलन रहा था। लेकिन उसके बाद से तो लगातार लोगों का वह ब्रेनवाश हुआ कि अंग्रेज,अँग्रेजी और उनके सामान ही श्रेष्ठ और विश्वसनीय होते हैं,यह स्थापित हो गया। चाहे वे अपने कुत्तों वाला साबुन आपके स्वास्थ्य के लिए सर्वोत्तम बताते आपको पकड़ा दें या अपने देश का भूसा भूसी हेल्थ ड्रिंक कहते आपको पिला दें या फिर टॉयलेट क्लीनर को शॉफ्ट कोल्ड ड्रिंक कहते उसको आपका प्रिय पेय बना दें, आप पूरी श्रद्धा विश्वास से उसे ग्रहण कर लेंगे।</span></span><br />
<span style="font-family: sans-serif;"><span style="font-size: 26.6027px;"><br /></span></span>
<span style="font-family: sans-serif;"><span style="font-size: 26.6027px;">विकसित देश की श्रेणी में आने को अकुलाए हे भारतवासियों,,कृपया पूर्वाग्रहों से मुक्त होइए।</span></span><br />
<span style="font-family: sans-serif;"><span style="font-size: 26.6027px;">"जागो,ग्राहक जागो" </span></span><br />
<span style="font-family: sans-serif;"><span style="font-size: 26.6027px;">...</span></span></div>
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<div class="mail-message-footer spacer collapsible" style="font-family: sans-serif; font-size: 13.696px; height: 0px;">
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रंजनाhttp://www.blogger.com/profile/01215091193936901460noreply@blogger.com8tag:blogger.com,1999:blog-3630123509017373846.post-50704373719173058032016-12-10T19:16:00.000+05:302016-12-10T19:16:19.842+05:30गीता<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
प्रचलन में कर्मकाण्ड को ही धर्म मानने कहने की परंपरा है,पर इससे बड़ा दिगभ्रमण और कुछ नहीं।<br />
पूजा पाठ,जप तप,दान पुण्य,तीर्थयात्राएँ आदि आदि सात्विकता से जोड़ने वाले साधन अवश्य हैं,पर यही धर्म नहीं।<br />
<br />
मन मस्तिष्क और व्यवहार में धारणीय वे सद्विचार व्यवहार और नियम, जो व्यक्ति परिवार समाज और प्रकृति सहित सम्पूर्ण संसार में सुख का संचार कर सके,वह धर्म है.. एक शब्द में इसी को "मानवता" कहते हैं. और इसी मानवता को,करणीय अकरणीय के भेद को सुपष्ट करती है "गीता"..<br />
गीता "धर्मग्रन्थ" नहीं अपितु यह एक महान "कर्मग्रन्थ " है।अपने आत्मस्वरूप को पहचाने बिना मनुष्य न तो अपने धर्म को पहचान सकता है ,न अपने सामर्थ्य को और न ही सार्थकता से कर्म प्रतिपादित कर सकता है। <br />
दुर्भाग्य यह कि इसको हिंदुत्व से जोड़,सेकुलरिता के विरुद्ध ठहराते,इसके विरोध में उतरे छुद्र लोगों के लिए हम यह कामना भी नहीं कर सकते कि इस बात को समझ पाने का उनमें सामर्थ्य आये। क्योंकि इतिहास साक्षी है कि महाज्ञानी कृष्ण को अपने बीच सहज उपलब्ध पाते भी धर्महीन अहंकारी कौरवों ने कृष्ण को नहीं अपितु युद्ध हेतु कृष्ण की चतुरंगिणी सेना को ही चुना था.पर विवेकवान धर्ममर्मज्ञ सदाचारी पाण्डवों ने जीवन के लिए धर्म की उपयोगिता महत्ता जानते निहत्थे योगीराज कृष्ण को।<br />
<br />
हमने कबीर को सराहा, रहीम को सराहा, नानक ईसा और मुहम्मद को भी सराहा। आज भी दरगाहों पर मत्था नवाने,सूफी संगीत पर आँसूं बहाते झूमने चल निकलते हैं हम,,,यह रामायण और गीता का ही बल और सम्बल है,जिसने हमारे हृदय को गुणग्राहकता दी,चैतन्यता और विराटता दी, हर अच्छी चीज को ग्रहण करने की सहज स्वाभाविक प्रवृत्ति दी।<br />
<br />
कर्मग्रंथ गीता,मानवमात्र के लिए मोक्षदायक(सही गलत में भेद कर,सही को साध पाने की क्षमता ही मोक्ष है)है। यदि सृष्टि को अभी आगे बहुत लम्बे सुचारू चलना होगा तो,उसके भाग्य में गीता आएगी। सेकुलर भारत यदि इसे अस्वीकारता भी है,तो विश्व के अन्य भूभागों पर इसे स्थान और महत्त्व मिलेगा,इसमें मुझे कोई शंसय नहीं।</div>
रंजनाhttp://www.blogger.com/profile/01215091193936901460noreply@blogger.com4tag:blogger.com,1999:blog-3630123509017373846.post-11869239878482116722016-02-22T12:11:00.005+05:302016-02-22T12:11:48.302+05:30बेशर्म आन्दोलन <div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<div dir="ltr" style="color: #222222; font-family: arial, sans-serif; font-size: small;">
<br /></div>
<div dir="ltr" style="color: #222222; font-family: arial, sans-serif; font-size: small;">
<br /></div>
<div dir="ltr" style="color: #222222; font-family: arial, sans-serif; font-size: small;">
हताश निराश आक्रोशित स्वर में वो कराह से उठे,बोले - देखो न,आरक्षण आंदोलन के नाम पर निकले हैं ये और दुकान मॉल लूट रहे हैं।<br /></div>
<div dir="ltr" style="color: #222222; font-family: arial, sans-serif; font-size: small;">
तो भैये,,ये क्यों नहीं समझते कि तथाकथित यह "आरक्षण" भी तो "लूट" ही है।जाति के नाम पर अवसर की लूट।प्रतिभा ले कर लोग बैठे रहें और जाति लेकर आप उनका हक़ लूट ले जाओ।</div>
<div dir="ltr" style="color: #222222; font-family: arial, sans-serif; font-size: small;">
<br /></div>
<div dir="ltr" style="color: #222222; font-family: arial, sans-serif; font-size: small;">
<br /></div>
<div dir="ltr" style="color: #222222; font-family: arial, sans-serif; font-size: small;">
अंग्रेज लाट जब अपने होनहार नौनिहालों को अपने राज का केयरटेकर बना अपने मुलुक को निकल रहे थे,,, चचाजान ने पूछा - मालिक मी लॉर्ड, पिलीज से वो सूत्र तो देते जाओ,जिससे हमारी ही पुश्तें इस कुर्सी की अधिकारिणी रहे अनंत काल तक जबतक कि भारत का भ भर भी बचा रहे।<br />तो मी लार्ड मुस्कियाए औ प्यार से गाल पर पुचकारते रंगीले चचा को कहिन - धू बुड़बक,देखे नहीं,अभिये न तुमको एग्जाम्पल देखाया है रे। धरम कार्ड खेलते एक शॉट में देश तोड़ दिया और तुमको तश्तरी में सजाके कुर्सी धरायी है,,तो तुम भी बस यही फार्मूला धरे रहो।<br />पंडीजी बोले- लेकिन माई बाप,अभिये न धरम पर भाग किये,फिरसे वही करेंगे तो फोड़ नहीं डालेगें हमको सब मिल के।</div>
<div dir="ltr" style="color: #222222; font-family: arial, sans-serif; font-size: small;">
तो ऊ कहिन, फिन से- धू बुड़बक,,धरम कार्ड नहीं है तो क्या हुआ,जात कार्ड है न,,खेलो बिंदास खेलो।ऊप्पर उप्पर से कहो,हम दबे कुचलों को मुख्यधारा में लाना चाहते हैं,देश से जाति व्यवस्था को समूल मिटाना चाहते हैं,लोग साधु साधु कह उठेंगे।<br />और जाति के साथ रिजर्भेसन अटैच कर दो।ससुर,सताब्दियाँ बीत जाएँगी,चिंदी चिंदी टुकड़े टुकड़े में बँट जायेगी भीड़ और फिर ऐश से शासन करियो।</div>
<div dir="ltr" style="color: #222222; font-family: arial, sans-serif; font-size: small;">
<br /></div>
<div dir="ltr" style="color: #222222; font-family: arial, sans-serif; font-size: small;">
<br /></div>
<div dir="ltr" style="color: #222222; font-family: arial, sans-serif; font-size: small;">
सवा सौ करोड़ का देश,जिसमें कोई जाति ऐसी नहीं जिसकी सदस्य संख्या लाख से कम हो...और आंदोलन के लिए चाहिए क्या,कुछ हजार जांबाज़.. जो रेल सड़क रोकने,गाड़ियाँ जलाने, दुकान मकान लूटने में एक्सपर्ट हों,,फिर हो गया आंदोलन।लीजिये,जाट आरक्षण,पटेल आरक्षण,अलाना आरक्षण,फलाना आरक्षण।</div>
<div dir="ltr" style="color: #222222; font-family: arial, sans-serif; font-size: small;">
<br /></div>
<div dir="ltr" style="color: #222222; font-family: arial, sans-serif; font-size: small;">
<br />जिनकी राजनीतिक दुकान ही आरक्षण की रोटी सेंक चलती है,वे आपके साथ होंगे और बाकी जो अपनी दूकान साफ़ फ्रेश माल से चलाना चाहते भी हैं,वे भी रिस्क नहीं लेना चाहेंगे,सो झक मारकर देंगे ही आरक्षण।</div>
<div dir="ltr" style="color: #222222; font-family: arial, sans-serif; font-size: small;">
<br />और बुद्धिजीवी(मिडिया,पत्रकार)? उनकी भी पार्टी लाइन है भाई।वे क्यों और कैसे कहें आपको -"भाइयों सावधान,ये राजनीतिक दल आपको आपस में ही लड़वा रहे हैं,,भाइयों ये आपको रीढ़विहीन बनाना चाहते हैं,,भाइयों उठो और नकार दो इन सबको यह कहते कि हम अपने पुरुषार्थ से लेंगे अपना हक़, भारत में हम सिर्फ भारतीय हैं,हमारी जाति भारतीयता है,हम में से जो साधनहीन हैं उन्हें बस साधन दो,अच्छे स्कूल,कॉलेज,शिक्षक,,इन तक पहुँचने के लिए सड़क,पाठ्य सामग्री,कदाचार रहित परीक्षाएँ.. बस,बाकी हम कर लेंगे।"</div>
<div dir="ltr" style="color: #222222; font-family: arial, sans-serif; font-size: small;">
<br /></div>
<div dir="ltr" style="color: #222222; font-family: arial, sans-serif; font-size: small;">
पर अफ़सोस,अफ़सोस,अफ़सोस...ऐसा कोई नहीं कहेगा,ऐसे कोई नहीं सोचेगा...क्योंकि एक मुख्य चीज "स्वाभिमान और कर्तब्यबोध" मर चुका है हमारा।मुफ्तखोरत्व नैतिक चरित्र बन चुका है हमारा।</div>
<div dir="ltr" style="color: #222222; font-family: arial, sans-serif; font-size: small;">
<br /></div>
<div dir="ltr" style="color: #222222; font-family: arial, sans-serif; font-size: small;">
अरे हम तो उस देश के वासी हैं,जहाँ नदियाँ नाले,बनादी हैं।</div>
</div>
रंजनाhttp://www.blogger.com/profile/01215091193936901460noreply@blogger.com9tag:blogger.com,1999:blog-3630123509017373846.post-90894113036227333562015-12-05T16:04:00.002+05:302015-12-05T16:04:50.825+05:30नशामुक्त बिहार <div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<div dir="ltr" style="color: #222222; font-family: arial, sans-serif; font-size: small;">
दूर तक फैले हरे भरे खेत,आम लीची कटहल के बगीचे,तुलसी चौरा के चारों ओर फैला गोबर लिपा बड़ा सा आँगन, अनाज भरे माटी की कोठियाँ बखारी, बथाने पर गाय बैल छौने और उनके बड़े बड़े नाद, बड़ा सा खलिहान, अनाज दौनी करते बैल, पुआलों के ढेर, जलवान और गोइठे के लिए अलग से बना घर, जिसमें केवल जलावन ही नहीं, साँपों का भी बसेरा,आँगन के बाहर सब्जियों की बाड़ी, जिसमें से लायी गयी ताज़ी सब्जियों के छौंके का सुगन्ध,घर में भरे तीन चार पीढ़ियों के इतने सारे सदस्य,ऊपर वाली पीढ़ी के सामने खड़े नजरें झुकाये निचली पीढ़ी अकारण भी गालियाँ सुन लें, पर न तो उफ़ करें न जवाब सफाई दें।<br />...यह था हमारा गाँव। केवल सुख सुख सुख। </div>
<div dir="ltr" style="color: #222222; font-family: arial, sans-serif; font-size: small;">
<br /></div>
<div dir="ltr" style="color: #222222; font-family: arial, sans-serif; font-size: small;">
लेकिन फिर न जाने क्या हुआ, किसकी नजर लगी, आँगन के छोटे छोटे टुकड़े ही न हुए,तुलसी चौबारे तक बँट गए,गाय बैलों के बथान उजड़ गए, खलिहान बगीचे टुकड़े टुकड़े हो गए या फिर मिट गए,दालानों पर शाम की बैठके और ठहाके उजड़ गए,केस मुक़दमे कोर्ट कचहरी से बचा कोई घर न रहा.शाम ढलने से पहले ही गले में गमछा और मुँह में गुटका चुभलाते 14 से 64 साल के पुरुषों के कदम चौक पर स्थित दारू अड्डे की तरफ मुड़ गये। शरीफ लोग अँधेरा घिरने से पहले घरों में कैद होने लगे कि न जाने कब हुड़दंगी आकर बेबात मारपीट मचा दें या कब कोई गैंग आकर अपहरण रंगदारी का खेल खेलने लगे। और फिर आधी रात ढ़ले सन्नाटे गुलजार होने लगे पिटती औरतों के करुण चित्कार से,लेकिन किसकी हिम्मत कि जाकर उन्हें छुड़ा बचा ले। </div>
<div dir="ltr" style="color: #222222; font-family: arial, sans-serif; font-size: small;">
<br /></div>
<div dir="ltr" style="color: #222222; font-family: arial, sans-serif; font-size: small;">
जीने की जद्दोजहद में जुटे अशिक्षित अल्पशिक्षित लोगों ने तो मजदूरी के लिए दुसरे राज्यों की राह ली और जो उच्च शिक्षित थे,पहले ही से राज्य से बाहर नौकरियों में निकले हुए थे,पर दोनों के ही आँखों में एक दिन फिर कर अपनी उस मिटटी में बसने और मिटने की चाह बनी रही।<br />लेकिन जब वो लौटे तो अवाक हतप्रभ।उनके घर खेत अपनों ही के द्वारा या फिर दबंगो द्वारा हथियाये जा चुके थे।उनकी स्थिति दुर्योधन के सामने अपने जायज हक़ के लिए याचक बने खड़े पाण्डवों सी।और हाथ में उपाय कि या तो युद्ध लड़ो या दबंगों द्वारा हड़पे संपत्ति के रद्दी के भाव लेकर वापस लौट जाओ।थाना कचहरी जाकर क्या होता,वर्दीवाले काले कोट वाले डाकू लूट लेते।</div>
<div dir="ltr" style="color: #222222; font-family: arial, sans-serif; font-size: small;">
<br /></div>
<div dir="ltr" style="color: #222222; font-family: arial, sans-serif; font-size: small;">
अपूर्व सुखद लगा यह सुनना कि शराब रुपी जो दीमक वर्षों से राज्य को चाट रही है,अब राज्य उससे मुक्त हो जाएगा।<br />लोकहितकारी सजग सरकार इतनी बड़ी आय को प्रदेशहित में न्योछावर कर दे रही है।<br />लेकिन वर्षों से ऑफिसयली गुटका भी तो प्रतिबन्धित है राज्य में सौ में से केवल कोई बीस पच्चीस मुँह तो दिखा दीजिये जो गुटकारहित हो।क्या हुआ इसमें?</div>
<div dir="ltr" style="color: #222222; font-family: arial, sans-serif; font-size: small;">
<br />5 का गुटका 25 में मिलने लगा और 20 रूपये की बन्दर बाँट गुटका बनाने,बेचने और पकड़ने वाले के बीच हो गया।</div>
<div dir="ltr" style="color: #222222; font-family: arial, sans-serif; font-size: small;">
क्या यही हाल इस शराब बन्दी का भी नहीं होगा? क्या सरकार के पास वो मशीनरी है कि दो नम्बरी शराब से लेकर कफ शिरप, नींद की दवाएँ या ऐसे ही अन्य दवाइयों को नशे के रूप में लेने से रोक सकें या फिर यह एक नये उद्योग की आधारशिला रखी जा रही है,अपहरण उद्योग की तरह?<br />सुलगते सवाल हैं ये। </div>
</div>
रंजनाhttp://www.blogger.com/profile/01215091193936901460noreply@blogger.com2tag:blogger.com,1999:blog-3630123509017373846.post-56206402945395569862015-08-04T15:57:00.000+05:302015-08-05T15:50:06.032+05:30शिव शक्ति <div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<br />
<div style="-webkit-text-stroke-width: 0px; background-color: white; color: #141823; font-family: helvetica, arial, sans-serif; font-size: 12px; font-style: normal; font-variant: normal; font-weight: normal; letter-spacing: normal; line-height: 16.0799999237061px; orphans: auto; text-align: left; text-indent: 0px; text-transform: none; white-space: normal; widows: 1; word-spacing: 0px;">
<form action="https://www.facebook.com/ajax/ufi/modify.php" class="live_791549770942373_316526391751760 commentable_item collapsible_comments" data-ft="{"tn":"]"}" data-live="{"seq":"791549770942373_791867740910576"}" id="u_0_u" method="post" rel="async" style="margin: 0px; padding: 0px;">
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</div>
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</div>
<br />
<div class="_1dwg" style="-webkit-text-stroke-width: 0px; background-color: white; color: #141823; font-family: helvetica, arial, sans-serif; font-size: 12px; font-style: normal; font-variant: normal; font-weight: normal; letter-spacing: normal; line-height: 16.0799999237061px; orphans: auto; padding: 12px 12px 0px; text-align: left; text-indent: 0px; text-transform: none; white-space: normal; widows: 1; word-spacing: 0px;">
<div class="_5pbx userContent" data-ft="{"tn":"K"}" style="font-size: 14px; font-weight: normal; line-height: 1.38; overflow: hidden;">
<div style="margin: 6px 0px;">
शक्ति/ऊर्जा/पवार, जो ब्रह्माण्ड के एक एक अणु में अवस्थित है......<br />और अणु? जीवित वह कण, जिसमें स्पंदन है,चैतन्यता है,आत्मा है.…<br />और यह आत्मा ?? यही तो शिव है.. शक्ति (अरघा) के आधार पर टिका अण्डाकार पिण्ड।<br />जैसे ही शिव (आत्मा) शक्ति (शरीर) से विलग हुआ नहीं कि वह "शव"।<br />पंचतत्वों से बना देह पुनः पंचतत्व में विलीन।<br />श्रावण मास में शिवशंकर के जलाभिषेक के विषय में यह मान्यता है कि इसी मास में शिव ने समुद्र मंथन से निकले कालकूट विष को, जिसे देव दानव सबने ग्रहण करने से मना कर दिया, उसे पी लिया और उससे जो असह्य दाह उन्हें व्यापा, उसी कष्ट को क्षीण करने हेतु शिव पर जलाभिषेक की परम्परा भक्तों ने आरम्भ की जो आज भी निर्बाध है.</div>
<div style="margin: 6px 0px;">
लेकिन सावन,सोमवारी,शिवलिंग, जलार्पण एक कथा और एक क्रिया भर है क्या?<br />पत्थर पर जल ढार दिया,फल, फूल,भांग धतूरा उस निरंकारी निष्कामी निर्गुण निर्लिप्त पर चढ़ा दिया और हो गयी पूजा पूरी,,,संपन्न ? या फिर ये क्रियाएँ प्रतीक हैं, हमें कुछ कहती भी हैं?</div>
<div style="margin: 6px 0px;">
हमारे जीवित रहते भगवती/शक्ति त्रिगुणों(सत रज और तम) के साथ सदा ही तो अवस्थित हैं हममें ,, और त्रिपुरारी(ये भी तीनों गुणों के धारक) शिव आत्मा,चेतना और विवेक रूप में अवस्थित हैं हममें। शक्ति के जिस रूप (सात्विक राजसिक और तामसिक)को हम साधते हैं,उसका आधिपत्य होता है हमारे मन मस्तिष्क चेतना और संस्कार व्यवहार पर,,,, और चाहे जिस गुण के भी अधीन हो हमारा व्यक्तित्व, निर्बाध जीवन पर्यन्त हमपर घुमड़ते कठिन परिस्थितियाँ,चुनौतियाँ, दुःख,अपमान अपयश,दुःख देने वाले रिश्ते नाते, आत्मीय सम्बन्ध……यही तो हैं वे विष, जिसका पान हमें शिव की भांति करना पड़ता है।विष के दाह से मुक्ति हेतु त्रिपुरारी के विग्रह पर जिस प्रकार जल (जिसके बिना जीवन संभव नहीं) ढारते हैं, वैसे ही तो जीवन के विष से मुक्ति/शांति के लिए सात्विक सकारात्मक सोच रूपी जान्हवी (शुद्ध पवित्र शीतल गंगा जल) को अपने मन मस्तिष्क पर ढारना होगा।अपने अंतस के शिव और शक्ति,उदारता और विराटता को जगाना होगा, जो अधिकांशतः तम (अन्धकार) से आच्छादित रहता है,, क्योंकि हम, सत(प्रकाश) का विकाश वहाँ और उतना तक नहीं करते जिससे तम हार जाए, सहज शंकर सा गरल पान कर भी हम अमर, करुण और सद्चिदानन्द रहें।</div>
<div style="margin: 6px 0px;">
सनातन धर्म में आध्यात्मिक कथाएँ,पूजा पद्धतियाँ,प्रस्तर प्रतीक गहन गूढ़ार्थ छिपाए हुए हैं. एक कोड की तरह. इन्हे डिकोड कर समझना और अपनाना होगा, तभी इस अमूल्य जीवन का सार, सच्चा सुख पाने का हमारा लक्ष्य सिद्ध और पूर्ण होगा।</div>
<div style="margin: 6px 0px;">
स्वास्थ्य की दृष्टि से वर्षा ऋतु हेतु धर्म में जो व्यवस्थाएँ हैं, चलिए कुछ चर्चा उसपर भी कर ली जाए।</div>
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हमारा शरीर और विशेषकर जठराग्नि(पाचनतंत्र), का सूर्य से सबसे प्रभावी और सीधा सम्बन्ध होता है.जैसे एक सूर्य आकाश में है, ऐसे ही एक सूर्य हमारे जठर(पेट) में भी अवस्थित है। जब आकाशीय सूर्य वर्षा ऋतु में मेघों से आच्छादित रहते मन्द रहता है तो जठर सूर्य भी मंद हो जाता है.इस ऋतू में मन्दाग्नि(भूख न लगना ), अपच,भोजन से अरुचि, यह शायद ही कोई हो जिसने अनुभूत न किया हो.परन्तु भोजन प्रेमी/ जीभ व्यसनी यदि जीभ तुष्टि हेतु तेल मसालेदार भोजन जबरन उदर में डाल देते हैं, तो यह उनका सप्रेम निमंत्रण है कई कष्टकारी व्याधियों को. इसलिए अपने यहाँ धर्म में व्यवस्था की गयी है कि इस ऋतु में माँसाहार,प्याज लहसुन आदि से परहेज किया जाय। सोमवार को फलाहार या पूरे सावान एकसंझा(दिन भर में एक बार अन्न ग्रहण) व्रत भी कई लोग करते हैं।</div>
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दूसरी बात,भूख देह की प्राथमिक आवश्यकता है,यदि इसपर किसी ने नियंत्रण कर लिया, जीभ को अपने वश में कर लिया,तो उसका मानसिक बल बढ़ना तय ही तय है. और यही मानसिक बल तो है जिसके सहारे व्यक्ति कुछ भी कर पाता है।<br />और देखिये हमारे मनीषियों को,,,कितना सोच समझकर यम नियम निर्धारित किये थे उन्होंने। जैसा कि हम जानते ही हैं, वर्षा ऋतु में सब्जियों की कमी हो जाती है, अन्न भण्डारण और उसका संरक्षण भी कितनी बड़ी चुनौती होती है, तो ऐसे में यदि लोग भोज्य पदार्थों का उपयोग कम करें तो बहुत बड़ी संख्या में उन लोगों की समस्या का समाधान हो सकता है जो चीजें मँहगी हो जाने के कारण भूखे या अधपेटे रहने को विवश होते हैं। यदि कुछ लाख/करोड़ लोग भी कुछ दिनों के लिए एक शाम का भोजन छोड़ देते हैं तो समाज राष्ट्र सहित अपने शारीरिक स्वास्थ्य की भी कैसी सेवा करेंगे वे,नहीं क्या?</div>
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हाँ, एक भ्रम और दूर कर लें,कई लोग इस तरह जोड़ते हैं कि रात को दस बजे खाया था और अब सुबह के आठ नौ या दस बज गए ,,,,मतलब दस बारह घण्टे पेट में अन्न न गया, हाय, बेचारा पेट हाहाकार कर रहा है, घोर अन्याय हो गया उसके साथ, तो "ब्रेक फास्ट",यानि इतने लम्बे अंतराल के उपवास का बदला फास्ट को तोड़ते हुए पूरी तरह ठूंस ठूंस कर खा कर कर ली जाए। दोपहर में कुछ हल्का फुल्का खा लिया जाएगा और शाम के नाश्ते के बाद सोने से पहले भर दम ठांस लिया जाएगा ताकि बेचारा पेट इतने लम्बे उपवास को झेल सके।<br />हा हा हा हा हा ……भाई यह 100% भ्रम है। जब सूर्य का प्रकाश न हो, तो शरीर को भोजन नहीं चाहिए। जैसे पेड़ पौधे जीव जंतु पक्षी (निशाचरों को छोड़कर) सूर्य की रौशनी में ही आहार और उसी से ऊर्जा लेते हैं, वही नियम मानव के लिए भी है. जब आकाश में बाल सूर्य हों (सुबह) तो हल्का भोजन,जब सूर्य प्रखर हों (दोपहर) तो पूरा भोजन और फिर शाम में (हो सके तो सूर्यास्त के तुरंत बाद) हल्का भोजन लें। जब कभी उपवास करें तो उससे एक दिन पहले तेल घी रहित सुपाच्य एकदम हल्का भोजन और उपवास समाप्ति पर भी वैसा ही हल्का सुपाच्य भोजन। उपवास के दौरान अधिक से अधिक जलसेवन, ताकि टॉक्सिन शरीर से निकल जाए।</div>
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और पञ्चाक्षर(ॐ नमः शिवाय) या महामृत्युञ्जय का जितना अधिक हो सके सस्वर या मानसिक जाप करें।गहन शोधोपरान्त ये मन्त्र बनाए गए हैं, जिनका जाप हमारे अंतस में सुप्त पड़ी शक्तियों को जागृत कर हमें बली बनाते हैं।</div>
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कर्पूर गौरं करुणावतारं संसारसारं भुजगेन्द्र हारं,<br />सदा वसन्तं हृदयारविन्दे भवं भवानि सहितं नमामि !!!</div>
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रंजनाhttp://www.blogger.com/profile/01215091193936901460noreply@blogger.com7tag:blogger.com,1999:blog-3630123509017373846.post-24013305100283415992015-06-23T00:48:00.001+05:302015-08-05T15:50:06.026+05:30चैतन्य वह अचेतन संसार........<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<div dir="ltr" style="background-color: white; color: #222222; font-family: arial, sans-serif; font-size: 12.8000001907349px;">
सम्पूर्ण भौतिक संसार (यूनिवर्स) भौतिकी के नियम से बंधा हुआ है।यहाँ कोई भी कण एक दुसरे से स्वतंत्र नहीं।कोई भी क्रिया प्रतिक्रिया विहीन नहीं,कोई भी सूचना परिघटना और मनः स्थितियाँ गुप्त नहीं, सबकुछ प्रकट, संरक्षित,अनंत काल तक अक्षय और सर्वसुलभ(जो भी इसे जानना पाना चाहे उसके लिए सुलभ) रहता है, इसी व्योम में, ऊर्जा कणों(इलेक्ट्रॉनिक पार्टिकल) में रूपांतरित होकर।</div>
<div dir="ltr" style="background-color: white; color: #222222; font-family: arial, sans-serif; font-size: 12.8000001907349px;">
<br /></div>
<div dir="ltr" style="background-color: white; color: #222222; font-family: arial, sans-serif; font-size: 12.8000001907349px;">
जैसे प्रसारण केन्द्रों द्वारा निर्गत/प्रसारित दृश्य श्रव्य तरङ्ग वातावरण में सर्वत्र व्याप्त रहते हैं और जब कोई रिसीवर उन फ्रीक्वेंसियों से जुड़ता है, तो वे तरंग रेडियो टीवी इंटरनेट द्वारा हमारे सम्मुख प्रकट उपस्थित हो जाते हैं,ठीक ऐसे ही मस्तिष्क/चेतना रूपी रिसीवर भी काम करता है। यदि हम चाहें तो अपने मस्तिष्क को चैतन्य और जागृत कर व्योम में संरक्षित भूत भविष्य के परिघटनाओं तथा ज्ञान को भी पूरी स्पष्टता से सफलता पूर्वक प्राप्त कर सकते हैं, जो चाहे हजारों लाखों साल पहले क्यों न घट चुके हों या घटने वाले हों.ठीक वैसे ही जैसे युद्ध भूमि से सुदूर बैठे संजय ने अपनी चेतना को दूर भेज वहाँ का पूरा लेखा जोखा धृतराष्ट्र तक पहुँचा दिया था..ठीक ऐसे ही जैसे <span style="font-size: 12.8000001907349px;">कई विद्वान लेखकों कवियों को पढ़ हम आश्चर्यचकित हो जाते हैं कि,वर्षों सदियों पहले घटित या भविष्य में सम्भावित इन परिस्थितियों परिघटनाओं को इतनी सटीकता और सुस्पष्टता से इन्होनें कैसे देख जान वर्णित कर दिया। देखा जाए तो यह विशिष्ठ सामर्थ्य केवल उनमें ही नहीं, बल्कि हम सबमें है,यह अलग बात कि उन असीमित आलौकिक शक्तियों को हम साधते नहीं हैं और हममें निहित रहते भी निष्क्रिय रह वे शक्तियाँ हमारे शरीर के साथ ही नष्ट हो जाती हैं। </span></div>
<div dir="ltr" style="background-color: white; color: #222222; font-family: arial, sans-serif; font-size: 12.8000001907349px;">
<span style="font-size: 12.8000001907349px;"><br /></span></div>
<div dir="ltr" style="background-color: white; color: #222222; font-family: arial, sans-serif; font-size: 12.8000001907349px;">
यह अनुभव तो सबका ही रहा है कि अपने प्रियजनों, जिनसे हम मानसिक रूप से गहरे जुड़े होते हैं,उनके सुख दुःख संकट का आभास कोसों दूर रहते भी कितनी स्पष्टता से हमें हो जाता है।बस दिक्कत है कि अपनी उस शक्ति पर विश्वास और उसका विकाश हम नहीं करते, कई बार तो उसे शक्ति ही नहीं मानते,बस स्थूल पंचेन्द्रिय प्रमाणों पर ही अपने विश्वास का खम्भा टिकाये रखते हैं।</div>
<div dir="ltr" style="background-color: white; color: #222222; font-family: arial, sans-serif; font-size: 12.8000001907349px;">
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<div dir="ltr" style="background-color: white; color: #222222; font-family: arial, sans-serif; font-size: 12.8000001907349px;">
ऐंद्रिक शक्तियों की सीमा अत्यंत सीमित है,जबकि चेतना की शक्ति अपार विकसित।किसी को देखा सुना न हो,उसके विषय में कुछ भी ज्ञात न हो,फिर भी उसका नाम सुनते ही उसके प्रति श्रद्धा प्रेम वात्सल्य या घृणा जैसे भाव मन में क्यों उत्पन्न होते हैं?<br />
वस्तुतः यह इसी चेतना के कारण होता है.चेतना उसके व्यक्तित्व/प्रभाक्षेत्र/ऑरा को पकड़ मस्तिष्क को सूचना दे देती है,कि अमुक ऐसा है,पर अधिकांशतः उसकी न सुन हम स्थूल प्रमाणों की खोज करने लगते हैं। हाँ, यह बात अलग है कि यदि मन कलुषित हो, उसमें उक्त के प्रति पूर्वनिश्चित पूर्वाग्रह हो, तो चेतना की यह अनुभूति क्षमता भी कुन्द रहती है.जैसे गड़बड़ाया हुआ एन्टीना ठीक से सिग्नल नहीं पकड़ पाता।मन मस्तिष्क को निर्दोष निष्कलुष और सकारात्मक रख ही अपनी प्रज्ञा को जागृत और सशक्त रखा जा सकता है। </div>
<div dir="ltr" style="background-color: white; color: #222222; font-family: arial, sans-serif; font-size: 12.8000001907349px;">
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<div dir="ltr" style="background-color: white; color: #222222; font-family: arial, sans-serif; font-size: 12.8000001907349px;">
आज शब्दों पर हमने अपनी निर्भरता आवशयकता से अधिक बढ़ा ली है।मन में द्वेष पाला व्यक्ति भी यदि मीठी बोली बोलता है तो चेतना द्वारा दिए जा रहे सूचना कि सामने वाला छल कर रहा है,को हम अनसुना कर देते हैं। स्थूल प्रमाणों (आँखों देखी, कानों सुनी) पर अपनी आश्रयता अधिक बढ़ाने के कारण शूक्ष्म अनुभूति क्षमता अविकसित रह जाती है और उसपर कभी यदि चेतना की सुनने की चाही और वह सही सिद्ध न हुआ तो उससे विद्रोह छेड़ उसे और भी कमजोर करने में लग जाते हैं। </div>
<div dir="ltr" style="background-color: white; color: #222222; font-family: arial, sans-serif; font-size: 12.8000001907349px;">
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<div dir="ltr" style="background-color: white; color: #222222; font-family: arial, sans-serif; font-size: 12.8000001907349px;">
एक वृहत विज्ञान है यह,जिसे "ऑरा साइन्स" कहते हैं।जैसे भगवान् के फोटो में उनके मुखमण्डल के चारों ओर एक प्रकाश वृत रेखांकित किया जाता है,वैसा ही प्रभा क्षेत्र प्रत्येक मनुष्य के चारों और उसे आवृत्त किये होता है।यह प्रभाक्षेत्र निर्मित होता है व्यक्ति विशेष के शारीरिक मानसिक अवस्था,उसकी वृत्ति प्रवृत्ति,सोच समझ चिंतन स्वभाव संवेदना संवेग स्वभावगत सकारात्मकता नकारात्मकता की मात्रा द्वारा। जिसका प्रभाव जितना अधिक उसी अनुसार निर्मित होता है उसका प्रभामण्डल भी। डाकू रहते अंगुलिमाल का जो प्रभामण्डल रहा, सत्पथ पर आते ही कर्म और वृत्तिनुसार उसके प्रभामण्डल में भी वैसा ही परिवर्तन हुआ.डाकू अंगुलिमाल का प्रभामण्डल भयोत्पादी था, जबकि साधक का स्मरण सुख शान्तिकारी हो गया। </div>
<div dir="ltr" style="background-color: white; color: #222222; font-family: arial, sans-serif; font-size: 12.8000001907349px;">
<br /></div>
<div dir="ltr" style="background-color: white; color: #222222; font-family: arial, sans-serif; font-size: 12.8000001907349px;">
वैसे अपने कर्म आचरण से जो जितना सकारात्मक होता है, उसका प्रभामण्डल भी उतना ही बली प्रभावशाली होता है। प्रत्यक्ष और निकट से ही नहीं,हजारों<span style="font-size: 12.8000001907349px;"> लाखों कोस दूर भी बैठे भी संवेदनात्मक रूप से स्मरण करते कोई भी किसी से जो सम्बद्ध (कनेक्ट) होता है, वस्तुतः दोनों के प्रभा क्षेत्र का प्रभाव होता है यह। आजकल तो इस विद्या का उपयोग विश्व भर में "डिस्टेंस रेकी", "ऑरा हीलिंग" नाम से शारीरिक मानसिक उपचार हेतु किया जा रहा है और इसके सकारात्मक प्रभावों परिणामों (सक्सेस रेट) को देखते इसपर आस्था और इसकी प्रमाणिकता भी दिनोदिन बढ़ती ही जा रही है। </span></div>
<div dir="ltr" style="background-color: white; color: #222222; font-family: arial, sans-serif; font-size: 12.8000001907349px;">
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हमने अनुभव किया तो है कि, किसी साधु संत पीर पैग़म्बर देवी देवता भगवान्,चाहे वे हमारे बीच हों या न हों,किसी संकट में जब हम उनका स्मरण करते है,कष्ट हरने की उनसे याचना करते हैं,तो एक अभूतपूर्व शान्ति ऊर्जा और निश्चिंतता का अनुभव करने लगते हैं।असल में यह मन का भ्रम नहीं,बल्कि वास्तव में घटित होने वाला सत्य/प्रभाव है।ठीक रेडियो टीवी की तरह जैसे ही हम उस ऊर्जा स्रोत से जुड़ते हैं,ऊर्जा रिसीव कर ऊर्जान्वित हो उठते हैं।</div>
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<div dir="ltr" style="background-color: white; color: #222222; font-family: arial, sans-serif; font-size: 12.8000001907349px;">
सात्विक खान पान,रहन सहन,स्वाध्याय और सतसाधना द्वारा हम अपने अंतस की इस आलौकिक ऊर्जा को जगा सचमुच ही उस अवस्था को पा सकते हैं,जैसा पुराणों में वर्णित आख्यानों में ऋषि मुनि संत साधकों अवतारों को पाते सुना है। मिथ नहीं सत्य है यह।</div>
<div dir="ltr" style="background-color: white; color: #222222; font-family: arial, sans-serif; font-size: 12.8000001907349px;">
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रंजनाhttp://www.blogger.com/profile/01215091193936901460noreply@blogger.com15tag:blogger.com,1999:blog-3630123509017373846.post-69226268052892772922015-03-23T23:46:00.000+05:302015-08-05T15:50:18.691+05:30मन्त्र शक्ति <div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<div style="background-color: white; color: #141823; font-family: Helvetica, Arial, 'lucida grande', tahoma, verdana, arial, sans-serif; font-size: 14px; line-height: 19.3199996948242px; margin-bottom: 6px;">
चौरासी लाख योनियों में सर्वश्रेष्ठ मनुष्य योनि इसलिए है क्योंकि इसी योनि में प्राणी अपने सामर्थ्य का सर्वाधिक और सर्वोत्तम उपयोग कर सकता है।इतिहास साक्षी है इसका कि साधारण देह धारियों ने अपनी बुद्धि से कितने और कैसे कैसे असाधारण कृत्य कर डालें हैं।<br />लेकिन सत्य यह भी है कि बहुसंख्यक लोग ऐसे ही हैं, जो पूरे जीवन में प्रकृति प्रदत्त क्षमताओं का साधारण और सामान्य उपयोग भी नहीं कर पाते। और शरीर के साथ ही उनकी क्षमताएँ भी माटी में मिल जाती है।<br />सही गलत का ज्ञान रखते हुए भी गलत करते,दुर्व्यसनों में फंसे अधिकांश लोग यह कहते मिल जाएँगे कि क्या करें मोह है कि छूटता नहीं,मन है कि मानता नहीं..<br />असल में हारे हुए ये वही लोग हैं जिनमें दृढ निश्चय नहीं,जिन्होंने कभी धिक्कारते या दुत्कारते स्वयं को गलत से बरजा नहीं है,अपने आत्मबल को बढ़ाने के यत्न नहीं किये हैं।</div>
<div style="background-color: white; color: #141823; font-family: Helvetica, Arial, 'lucida grande', tahoma, verdana, arial, sans-serif; font-size: 14px; line-height: 19.3199996948242px; margin-bottom: 6px; margin-top: 6px;">
तो ऐसे में यदि हम चाहें तो अपने आत्मबल को जागृत और सम्पुष्ट करने हेतु सिद्ध मन्त्रों का सहारा ले सकते हैं।<br />मन्त्र जाप(मानसिक या सश्वर) वस्तुतः हमारे मन मस्तिष्क में तंत्रियों को झंकृत करते उनमें वह प्रवाह उत्पन्न करता है जो नकारात्मक भावों/शक्तियों से उबरने में हमारी मदद करता है।फलस्वरूप जहाँ हममें सही गलत में भेद करने की क्षमता बढ़ती है,वहीँ नकारात्मकता से उबरते अपनी क्षमताओं के सार्थक सदुपयोग में भी हम समर्थ होते हैं।उदहारण के लिए हम यह देख सकते हैं कि यदि धमनियों कहीं ब्लॉकेज हो जाए या मस्तिष्क तंत्रिकाओं में कहीं कोई अवरोध आ जाए तो हृदय(हार्ट) तथा मस्तिष्क व्यवस्थित रूप से काम करना बंद कर देते हैं,परन्तु इन अवरोधों/ब्लॉकेज को यदि चिकित्सा द्वारा हटा दिया जाता है तो निरोगी स्वस्थ अंग पुनः अच्छे ढंग से काम करने लगते हैं. </div>
<div style="background-color: white; color: #141823; font-family: Helvetica, Arial, 'lucida grande', tahoma, verdana, arial, sans-serif; font-size: 14px; line-height: 19.3199996948242px; margin-bottom: 6px; margin-top: 6px;">
तो चलिए हम जपें -<br />"ॐ ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डाय विच्चै"<br />जिसका अर्थ है - "हे चित्स्वरूपिणी महासरस्वती,हे सद्रूपिणी महालक्ष्मी,हे आनंदरूपिणी महाकाली,,ब्रह्मविद्या (आत्मज्ञान) पानेके लिए हम सब समय तुम्हारा ध्यान करते हैं.हे महाकाली-महालक्ष्मी-महासरस्वती-<wbr></wbr>स्वरूपिणी चण्डिके तुम्हें नमस्कार है।अविद्यारूपी रज्जुकी दृढ़ ग्रंथि को खोलकर मुझे मुक्त करो।"<br />इस छोटे से मन्त्र से सत् रज और तम् तीनों शक्तियाँ सधती हैं।इन तीनों का उत्तम संतुलन ही जीवन को उर्ध्वगामी बनाता है।</div>
<div style="background-color: white; color: #141823; display: inline; font-family: Helvetica, Arial, 'lucida grande', tahoma, verdana, arial, sans-serif; font-size: 14px; line-height: 19.3199996948242px; margin-top: 6px;">
अपने अंतः में अवस्थित दुर्गुणों रूपी दानवों तथा जीवन में भाग्य एवं कर्मवश मिलने वाले दुर्दिनों का सामना हम अपने आत्मबल द्वारा ही तो कर सकते हैं न,सो इसे जगाये और बनाये रखना तो जरुरी है।</div>
</div>
रंजनाhttp://www.blogger.com/profile/01215091193936901460noreply@blogger.com5tag:blogger.com,1999:blog-3630123509017373846.post-11539666562668780502015-02-09T16:38:00.003+05:302015-08-05T15:51:03.597+05:30एकाकीपन <div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<div dir="ltr" style="color: #222222; font-family: arial, sans-serif; font-size: small;">
<br /></div>
<div dir="ltr" style="color: #222222; font-family: arial, sans-serif; font-size: small;">
<div style="background-color: white; color: #141823; font-family: Helvetica, Arial, 'lucida grande', tahoma, verdana, arial, sans-serif; font-size: 14px; line-height: 19.3199996948242px; margin-bottom: 6px; margin-top: 6px;">
<div style="line-height: 19.3199996948242px; margin-bottom: 6px; margin-top: 6px;">
सन्नाटों का कोलाहल,<br />
नित चित को कर देता चंचल।</div>
<div class="text_exposed_show" style="display: inline; line-height: 19.3199996948242px;">
<div style="margin-bottom: 6px;">
एकांत है चिंतन का साथी,<br />
भावों के पाँख उगा जाती ।</div>
<div style="margin-bottom: 6px; margin-top: 6px;">
शशि की शीतल कोमल किरणें<br />
उर डूब उजास पाता जिसमें।</div>
<div style="margin-bottom: 6px; margin-top: 6px;">
उस पल में कविता है किलके,<br />
रस शब्द ओढ़ चल बह निकले।</div>
<div style="margin-bottom: 6px; margin-top: 6px;">
माना आँखों से सब दीखता,<br />
दृग मूंदे ही पर जग दीखता।</div>
<div style="margin-bottom: 6px; margin-top: 6px;">
नीरवता के कुछ पल खोजो,<br />
दुनियाँ के संग संग मन बूझो।</div>
<div style="margin-bottom: 6px; margin-top: 6px;">
अन्तरचिंतन बिन सृजन कहाँ,<br />
गहरे उतरो मिले मोती वहाँ। </div>
</div>
</div>
</div>
</div>
रंजनाhttp://www.blogger.com/profile/01215091193936901460noreply@blogger.com7tag:blogger.com,1999:blog-3630123509017373846.post-16601758674793744332014-07-22T16:52:00.000+05:302014-07-22T16:52:36.910+05:30लेट्स सेलिब्रेट "डेज" <div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
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होली दिवाली शिवरात्रि जन्माष्टमी क्रिसमस गांधी जयन्ती से लेकर ईद बकरीद रमज़ान इफ्तार तक और मदर फादर इन्वायरमेंट वेलेण्टाइन डे से लेकर टमाटर और गे डे तक के दुनियाँ भर के सारे के सारे स्पेशल डे,"मना" डालने में हम भारतीय घनघोर विश्वास करते हैं। स्वभाव से ही उत्सव उत्साह प्रिय हम, मौका मिला नहीं कि कुछ न कुछ "मनाने" तुरत फुरत निकल पड़ते हैं। कभी किसी सीजन अपने यहाँ डेज की कमी बेसी हो गयी तो या तो अपने देश का या किसी भी दूसरे देश का मारपीट/खून ख़राबा डे भी उतने ही उत्साह से मना डालते हैं।<br />
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अब जैसे कल 21 जुलाई की ही बात ले लीजिये। पूरे शहर का चक्का जाम कर बीच सड़क लाखों लोगों संग यहाँ भी एक डे मना डाला गया। सुना पिछले इक्कीस वर्षों से "शहीद दिवस" के नाम पर यह चक्का जाम दिवस बड़े ही हर्षोल्लासपूर्वक भव्य रूप से मनाया जाता है। 21 वर्ष पहले,जब काँग्रेस तीन मूल वाला नहीं, सिंगल मूल वाला हुआ करता था और हमारी दीदीजी उसकी उभरती हुई नेत्री हुआ करतीं थीं, सत्ता धारी ने राइटर्स मार्च के दौरान उभरते हुए को सलटा डालने अपना जलवा दिखाते, 13 जनों को बुझा दिया।भले 500 वर्षों के इतिहास में देखें तो लाखों करोड़ों लोग शहीद हुए हैं, लेकिन इससे क्या,यह तेरह और ऐड होना, बहुत बहुत गैरवाजिब,बहुत बहुत बुरा हुआ।अकारण,देश प्रदेश हित में जान गँवाएँ ऐसे लोगों का सम्मान और ऐसे काण्डों के जिम्मेदारों को दण्ड मिलना मिलना मिलना ही चाहिए। खैर समय बलवान होता ही है तानाशाहों का क्षय निश्चित है,, सो काण्डवालों का भी क्षय हो गया और अन्ततः सत्य की जीत तर्ज पर, भूत की दमित शक्ति भविष्य के लिए सशक्त होती वर्तमान की सरताज़ हो ही गयीं।एक अबला ने दुनियाँ को दिखा दिया कि दुनियाँ शक्ति के ठेंगे पर। <br />
पर यह जो कहते हैं, शहीदों की शहादत कभी जाया नहीं होती,प्रैक्टिकली सिद्धान्त च सत्य यह कि, शहीदों के शहादत को जो सलीके से "मनाना" जानता हो, इतिहास में अमर और असली विजेता वही होता है। वो एक क्या तो था,कुछ शेर टाईप - "शहीदों के फलाने फलाने पर लगेंगे हर बरस मेले--------- " पता नहीं,कुछ भला सा ही था, अभी ठीक से याद नहीं पड़ रहा। जो भी हो,कहने का तात्पर्य यह कि शहीदों के कब्र पर शहीदों के तीसरे चौथे पांचवें पुश्त तक मेले बराबर से सजा करेंगे, रैली रैला मंच सजावट सब चकाचक रहेगा,बस अगली पीढ़ियाँ संतोष को वह डेट नहीं "पा और मना" पाएँगी जब उन हतभागे शहीदों के गुनाहगारों का "सज़ा डे" (छोड़िये,ज्यादा हो गया, बस केस का "डिसीजन डे") था। </div>
रंजनाhttp://www.blogger.com/profile/01215091193936901460noreply@blogger.com3tag:blogger.com,1999:blog-3630123509017373846.post-77650600308305095612014-02-14T15:50:00.001+05:302014-02-14T15:51:21.977+05:30प्रेमोत्सव वाया छिनरोत्सव <div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<span style="background-color: white; color: #37404e; font-family: 'lucida grande', tahoma, verdana, arial, sans-serif; font-size: 13px; line-height: 18px;">ज्योतिष शाश्त्र के अनुसार चन्द्रमा मन का कारक है, मन को नियंत्रित करता है,इसलिए जब यह आकाश में अदृश्य रहे या अपने पूर्ण रूप में विदयमान हो, दोनों ही अवस्था में मन पर विशेष प्रभाव डालता है.मनुष्य सहित बाकी जीव जंतु इस प्रभाव को कितना अनुभूत और अभिव्यक्त कर पाते हैं ,पता नहीं,परन्तु सागर को देखिये, वह कोई पर्दा नहीं रखता,उद्दात्त रूप में अपने आवेगों को अभिव्यक्त कर देता ह</span><span class="text_exposed_show" style="background-color: white; color: #37404e; display: inline; font-family: 'lucida grande', tahoma, verdana, arial, sans-serif; font-size: 13px; line-height: 18px;">ै.विछोह में विषादपूर्ण चीत्कार और संयोग में हर्षपूर्ण उछाह,परन्तु एक बात है,समस्त संसार को डुबो लेने की क्षमता रखने वाला वह उदधि और उसकी लहरें चाहे जितना तड़प लें,उत्साह उत्सव में चाहे जितनी दीर्घ उछाल ले लें, परन्तु अपनी सीमाओं का कभी अतिक्रमण नहीं करते ।<br /><br />माघी पूर्णिमा है आज.वसंत का मधुरतम दिन, चमकते चाँद संग सबसे चमकीली सुन्दर रात। पतझड़ ने पेड़ों को भले उसठ कर दिया है, पर इसकी भरपाई धरती पर बिछे फूलों के पौधों ने कुछ यूं कर दिया है कि ऊपर नजर ही नहीं जा रही है। अरे ये नज़रों को छोड़ें तब तो कोई कुछ और देखे। अब स्वाभाविक है जब बासंती पवन मन में उछाह भर रहा हो, धरती पर बिछे फूल मन में उतर आये हों तो मन में प्रणय/ श्रृंगार/ काम और रति क्यों न उतरें।प्राचीन भारतीय परम्परा में वसंतोत्सव की व्यवस्था थी। बड़े ही हर्षोल्लास से वसंत की आगवानी और सम्मान किया जाता था। धर्म अर्थ के बाद काम की प्रतिस्थापना जीवन का आवश्यक सोपान था क्योंकि इसके बाद ही व्यक्ति मोक्ष तक पहुँच सकता था।धर्म अर्थ काम मोक्ष चारों सोपानों की सामान महत्ता, न कोई कम ,न कोई ज्यादा और तब सम्पूर्णता पाता यह जीवन, यह सृष्टि।<br /><br />खैर, समय बदला है, धर्म अब जीवन धर्म, मानवता नहीं बल्कि सेकुलरिज्म की बेड़ियों में जकड़ी भौंचक इधर उधर देख रही है कि मैं क्या हूँ,कहाँ हूँ.. अर्थ जीविकोपार्जन नही जीवनधर्म बन गया,बाज़ार के चंगुल में फँस वसन्तोत्सव भाया कामोत्सव छिनरोत्सव में तब्दील हो गया और "मोक्ष",यह चाहिए किसे?<br />चार खूँटों (धर्म अर्थ काम मोक्ष) पर टिका जीवन दो खूँटों (अर्थ और काम) पर अटका संतुष्टि और संतुलन पाने को बेहाल है. कहाँ से मिले, कैसे मिले?<br />और उसमे भी कामदेव की लंगोट धर उसपर लटका, सब कुछ पा लेने को बौराया, उन्मुक्त भोगाकाश उड़ रहा किशोर युवा वर्ग जब जीवन का सर्वोच्च सुख और संतोष पाने को निकलता है तो उसके आगे नैतिकता धर्म धराशायी हो जाता है.पुचकार से मान गया/गयी तो ठीक वर्ना बलात्कार के बल पर प्रेमोत्सव/ भोगोत्सव मना लेंगे, उसका अवसर न मिला तो तेज़ाब से जला देंगे.अब भाई पुरुसार्थ के बल पर सुख संतोष पाने निकले हैं तो पाये बिना छोड़ेंगे थोडेही।<br /><br />महानगरों और नगरों में जहाँ बहुतेरे विकल्प (अड़ोस पड़ोस, दुसरे मोहल्ले आदि) उपलब्ध है, वहाँ की विभीषिका फिर भी थोड़ी कम है, लेकिन गाँवों में जहाँ अधिक विकल्प नहीं, चचेरे ममेरे फुफेरे भाई बहन,चाचा भतीजी, मामा भाँजी,जीजा साली, शिक्षक छात्रा "न उम्र की सीमा हो, न जन्म का हो बंधन, जब प्रेम करे कोई ,तो देखे केवल मन " के मूल मंत्र के साथ भेलेन्टाइन फरियाने निकल पड़ते हैं. नैतिकता जाती है तेल लेने और व्यभिचार आचार में कोई फर्क नहीं बचता। संचार क्रांति (टीवी) की पीठ पर सवार हो बाज़ार ने भोगवाद को लोगों की रगों में ऐसे घोल दिया है कि शिराओं में बह रहे छिनरत्व को पृथक कर उसमे सात्विकता, नैतिकता बहा पाना कैसे सम्भव होगा ,पता नहीं।</span><br />
<span class="text_exposed_show" style="background-color: white; color: #37404e; display: inline; font-family: 'lucida grande', tahoma, verdana, arial, sans-serif; font-size: 13px; line-height: 18px;"><br /></span>
<span class="text_exposed_show" style="background-color: white; color: #37404e; display: inline; font-family: 'lucida grande', tahoma, verdana, arial, sans-serif; font-size: 13px; line-height: 18px;">............................</span></div>
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