19.6.21

बेटी का सुख

पुत्री जैसे जैसे किशोरावस्था को पार कर रही होती है, अभिभावकों के मन में उसके विवाह और सुखद भविष्य के स्वप्न स्पन्दित होने लगते हैं। युवावस्था के बढ़ते पड़ाव के साथ साथ यह चिंता और व्याकुलता में परिवर्तित होता चला जाता है।जबतक विवाह न हो जाय, सोते जागते इसके अतिरिक्त ध्यान में कुछ और आता ही नहीं। किन्तु कभी आपने विचार किया है कि जिस पुत्री के सुखद भविष्य के लिए आपने इतने स्वप्न देखे, इतने प्रयास किये,,,,पुत्री को शिक्षित किया,आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर बनने की योग्यता भी दे दी, अपने सामर्थ्य से कई गुना आगे बढ़कर उसके विवाह में व्यय किया...... आपने स्वयं ही उसका घर परिवार सुख शान्ति,, सब कुछ बिखेर दिया। कैसे??? वो ऐसे कि आपने अपनी पुत्री को शिक्षित तो किया,पर उसकी तैयारी ऐसी न करायी कि वह अपने ससुराल में सामंजस्य बिठा पाए।वह सबको अपना सके और अपने सेवा, अपनत्व, मृदुल स्वभाव और सदाचरण से लोगों को बाध्य कर दे कि लोग उसे अपनाए बिना न रह पाएँ।आपने उसे अधिकार और केवल अधिकार का भान रखना तो सिखा दिया, पर "कर्तब्य प्रथम" और यही सर्वोपरि,, यह न समझा सके। बेटी को विदा करने के साथ ही पग पग पर अपने हस्तक्षेप से ऐसी व्यवस्था कर दी कि पुत्री के लिए अपने माता पिता भाई बहन तो पहले से भी अधिक अपने हो गए, पर पति के माता पिता भाई बहन बोझ और त्यज्य होकर गए। बेचारे दामाद ने बड़ी कोशिश की कि वह अपने माता पिता भाई बहन को भी अपनी पत्नी और उसके मायके वालों के लिए स्वीकार्यता दिलवा पाए,परन्तु नित क्लेश के कारण उसके सम्मुख केवल दो ही मार्ग बचे,,या तो वह अपना दाम्पत्य जीवन बचाये या अपने अभिभावकों सहोदरों का साथ बचाये। अपने पुत्र/भाई को पिसते हुए देखकर, उसके घर को टूटने से बचाने के लिए अन्ततः लड़के के परिजन ही वृद्धावस्था में एकाकीपन स्वीकार कर पुत्र को स्वतन्त्र कर देते हैं।आजकल के शिक्षित और आर्थिक रूप से समर्थ समझदार अभिभावक पुत्र का विवाह करने के साथ ही उसकी गृहस्थी अलग बसा देते हैं(यदि एक ही शहर में रह रहे हों तो अन्यथा तो दो अलग अलग जगह रहने पर दोनों दोनों के लिए अतिथि बनकर रह जाते हैं।दुर्भाग्य प्रबल हुआ तो टोटल सम्बन्ध विच्छेद)। अब आइये,,अगली पीढ़ी पर।परिजनों से दूर रह रहे ऐसे एकल परिवार में जहाँ पुत्री ने कभी नहीं देखा कि माता दादा दादी, चाचा चाची,बुआ फूफा या चचेरे फुफेरे भाई बहन से कोई मतलब रख रहे, उनके लिए उसके मन में सम्मान या कोई स्थान है।ऐसे में जब वह ब्याहकर ससुराल जाएगी तो क्योंकर उस पराए घरवालों को अपनाएगी? और जब वह किसीको अपनाएगी नहीं तो भला किस प्रकार वह सबके मन में अपने लिए स्थान,अपने जीवन में सुख और शांति पाएगी? यदि बच्ची भोजन पकाना, घर की साफ सफाई आदि को अत्यन्त तुच्छ(नौकर वाले काम) समझती है,जबकि माता का यह प्राथमिक कर्तब्य है कि पुत्र हो या पुत्री,बचपन से ही उसकी तैयारी ऐसी कराएँ कि अपने शरीर, अपने वस्त्र,अपने स्थान को साफ सुथरा रखना,अपने लिए स्वच्छ सादा पौष्टिक भोजन पका सकने में वय के 19वें वर्ष तक पहुँचते पहुँचते वे दक्ष हो जाँय।ऐसे बच्चे जहाँ भी रहेंगे व्यवस्थित और सुखी रहेंगे।बच्चे में यदि एडॉप्टबिलिटी(व्यक्तियों परिस्थितियों को स्वीकारने और उनके साथ सामंजस्य स्थापित करने की क्षमता)नहीं,तो इसमें पूरा दोष माता पिता का है,निश्चित मानिए। आज की शिक्षा सुसंस्कृत करने के लिए नहीं,बस आर्थिक सक्षमता के लिए होती है(नून तेल जुटान विद्या)।इसलिए यह दायित्व माता पिता और परिवार का होता है कि बच्चे को जीवन के लिए तैयार करें।जब आप संयुक्त परिवार में रहते हैं,निश्चित रूप से परिवार के सभी सदस्य भिन्न सोच विचार के होंगे और बहुधा उनको हैण्डिल करना,शांति सौहार्द्र बनाये रखना,एक बड़ी चुनौती होती है।किन्तु यदि आप और आपके बच्चे बचपन से ही सबको मैनेज करने में सफल होते हैं,,तो निश्चित मानिए कि वे अपने कार्मिक जीवन में भी अवश्य सफल होंगे। नौकरी में हों या व्यवसाय में साथ वाले सभी प्रतिस्पर्धी ही होते हैं,प्रत्येक परिस्थिति एक चुनौती ही होती है। आज से 20-25 वर्ष पूर्व तक किशोरवय की अन्तिम सीढ़ी तक पहुँचते पहुँचते लड़कियों का ब्याह हो जाता था।ऐसी लड़कियों के लिए नए घर की रीत,खानपान, सदस्यों के अनुरूप ढ़लने का सामर्थ्य वर्तमान की तुलना में बहुत अधिक होता था।आज 28 से 35 तक की लड़कियाँ अपने हिसाब से जीने की अभ्यस्त हो चुकी होती हैं।उनमें एडॉप्टबिलिटी इतनी कम हो चुकी होती है कि यदि बचपन से ही मानसिक तैयारी कराकर न रखी जाय तो विवाहोपरांत उसका जीवन तो दुरूह होता ही है,जहाँ वह जाती है,उनके सुख चैन भी कपूर के धुएँ के समान कुछ ही दिनों में उड़ जाते हैं। बढ़ते हुए विवाह विच्छेद की घटनाएँ,, युवाओं में लीव-इन की स्वीकार्यता, हमारे सामाजिक भविष्य को उस ओर लिए जा रहे हैं,जहाँ व्यक्ति के पास भौतिक सुख साधन का अम्बार होते हुए भी व्यकि दुःख अवसाद में घिरा,टूट हारा एकाकी होगा।क्योंकि वास्तविक "सुख और शान्ति" तो व्यक्ति के जीवन में तभी आ सकता है जब उसके पास परिजनों का स्नेह हो,परिवार में एक दूसरे के लिए आदर आत्मीयता हो,सुख दुःख में कभी वह स्वयं को अकेला नहीं पाये और भौतिक समृद्धि को ही जीवन ध्येय व सुख न माने। ॐ