9.7.09

अमरत्व की लालसा ------>>>>

जीवन में सबकुछ सामान्य हो, फिर भी संक्षिप्त जीवन की अभिलाषा रखने वाले मनुष्य संसार में दुर्लभ ही रहे हैं. इतिहास साक्षी है ,अमरत्व पाने के लिए व्यक्ति ने न जाने कितने संधान किये ,इस हेतु क्या क्या न किया....... मृत्यु भयप्रद तथा अमरत्व की अभिलाषा चिरंतन रही है...विरले ही इसके अपवाद हुआ करते हैं..


आधुनिक विज्ञान भी इस ओर अपना पूर्ण सामर्थ्य लगाये हुए है तथा पूर्णतः आशावान है कि इस प्रयास में वह अवश्य ही सफलीभूत होगा.... हमारे भारतीय दंड विधान में तो नहीं परन्तु विश्व के कई संविधानों में आजीवन कारावास के प्रावधान में अक्षम्य,घोर निंदनीय अपराध में कारा वास की अवधि दो सौ ,पांच सौ या इससे भी अधिक वर्षों की होती है.क्योंकि उनका विश्वास है कि विज्ञान जब जीवन काल को वृहत्तर करने या अमरत्व के साधन प्राप्त कर लेगा तो २० ,२५,५० वर्षों को ही सम्पूर्ण जीवन काल मानना अर्थहीन हो जायेगा और ऐसे में ऐसे अपराधियों को जिनका स्वछन्द समाज में विचरना घातक,समाज के लिए अहितकर है,उन के आजीवन कारावास का प्रावधान निरुद्देश्य हो जायेगा...


परन्तु विचारणीय यह है कि क्या हमें अमरत्व चाहिए ? और यदि चाहिए भी तो क्या हम इस अमरत्व का सदुपयोग कर पाएंगे ? कहते हैं अश्वत्थामा को द्रोणाचार्य ने अपने तपोबल से अमरत्व का वरदान दिया था.दुर्योधन के प्रत्येक कुकृत्यों का सहभागी होने के साथ साथ पांडवों के संतानों का वध करने तक भगवान् कृष्ण ने उसे जीवनदान दिए रखा परन्तु जब उसने उत्तरा के गर्भ पर आघात किया तब कृष्ण ने उसके शरीर को नष्ट कर दिया परन्तु उसके मन,आत्मा तथा चेतना के अमरत्व को यथावत रहने दिया...माना जाता है की आज भी अश्वत्थामा की विह्वल आत्मा भटक रही है और युग युगांतर पर्यंत भटकती रहेगी. सहज ही अनुमानित किया जा सकता है कि यदि यह सत्य है तो अश्वत्थामा की क्या दशा होगी....


किंवदंती है की समुद्र मंथन काल में समुद्र से अमृत घट प्राप्य हुआ था.जिस मंथन में ब्रह्माण्ड की समस्त शक्तियां (देवता तथा असुर) लगी थीं,तिसपर भी अमृत की उतनी ही मात्रा प्राप्त हुई थी कि यह उभय समूहों में वितरित नहीं हो सकती थी. तो आज भी यदि संसार की साधनसम्पन्न समस्त वैज्ञानिक शक्तियां संयुक्त प्रयास कर अमरत्व के साधान को पा भी लेती है तो निश्चित ही यह समस्त संसार के समस्तआम जनों के लिए तो सर्वसुलभ न ही हो पायेगी .यह दुर्लभ साधन निसंदेह इतनी मूल्यवान होगी की इसे प्राप्त कर पाना सहज न होगा .मान लें की हम में से कुछ लोगों को अमरत्व का वह दुर्लभ साधन मिल भी जाता है,तो हम क्या करेंगे ?


हम जिस जीवन से आज बंधे हुए हैं, उसके मोह के निमित्त क्या हैं ? हमारा इस जीवन से मोह का कारण साधारणतया शरीर, धन संपदा,पद प्रतिष्ठा,परिवार संबन्धी इत्यादि ही तो हुआ करते हैं.ऐसे में हममे से कुछ को यदि अमरत्व का साधन मिल भी जाय तो क्या हम उसे स्वीकार करेंगे ?


सुख का कारण धन संपदा या कोई स्थान विशेष नहीं हुआ करते,बल्कि स्थान विशेष में अपने अपनों से जुड़े सुखद क्षणों की स्मृतियाँ हुआ करती हैं. धन सुखद तब लगता है जब उसका उपभोग हम अपने अपनों के साथ मिलकर करते हैं....मान लेते हैं कि यह शरीर, धन वैभव तथा स्थान अपने पास अक्षुण रहे परन्तु जिनके साथ हमने इन सब के सुख का उपभोग किया उनका साथ ही न रहे...तो भी क्या हम अमरत्व को वरदान मान पाएंगे.....उन अपनों के बिना जिनका होना ही हमें पूर्णता प्रदान करता है ,हमारे जीजिविषा को पोषित करता है, जीवन सुख का उपभोग कर पाएंगे?


जीवन में किसी स्थान का महत्त्व स्थान विशेष के कारण नहीं बल्कि स्थान विशेष पर कालखंड में घटित घटना विशेष के कारण होती है.किसी स्थान से यदि दुखद स्मृतियाँ जुड़ीं हों तो अपने प्रिय के संग वहां जाकर उस स्थान विशेष के दुखद अनुभूतियों को धूमिल करने का प्रयास अवश्य करना चाहिए ,परन्तु किसी स्थान विशेष से यदि मधुरतम, सुखद स्मृतियाँ बंधी हों तो वहां दुबारा कभी नहीं जाना चाहिए,नहीं तो कालखंड विशेष में सुरक्षित सुखद स्मृतियों को आघात पहुँचता है,क्योंकि तबतक समय और परिस्थितियां पूर्ववत नहीं रहतीं.......यह कहीं पढ़ा था और अनुभव के धरातल पर इसे पूर्ण सत्य पाया.


ऐसे में इस नश्वर संसार में अधिक रहकर क्या करना जहाँ प्रतिपल सबकुछ छीजता ही जा रहा है,चाहे वह काया हो या अपने से जुड़ा कुछ भी .मनुष्य अपनों के बीच अपनों के कारण ही जीता और सुखी रहता है,ऐसे अमरत्व का क्या करना जो अकेले भोगना हो...संवेदनशील मनुष्य संभवतः यही चाहेगा.और यदि कोई कठोर ह्रदय व्यक्ति ऐसा जीवन पा भी ले तो क्या वह सचमुच सुखोपभोग कर पायेगा या दुनिया को कुछ दे पायेगा......ययाति ने तो सुख की लालसा में अपने पुत्रों के भाग के जीवन का भी उपभोग किया था,पर क्या वह सचमुच सुखी हो पाया था...


जीवन को सुखी उसकी दीर्घता नहीं बल्कि उसके सकारात्मक सोच और कार्य ही बना पाते हैं,यह हमें सदैव स्मरण रखना होगा।


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43 comments:

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' said...

जीवन को सुखी उसकी दीर्घता नहीं बल्कि उसके सकारात्मक सोच और कार्य ही बना पाते हैं,यह हमें सदैव स्मरण रखना होगा।

शिक्षाप्रद लेख के लिए बधाई।

Udan Tashtari said...

जीवन को सुखी उसकी दीर्घता नहीं बल्कि उसके सकारात्मक सोच और कार्य ही बना पाते हैं,यह हमें सदैव स्मरण रखना होगा।

-बिल्कुल सही कह रही हो. उम्दा लेखन.

अर्चना तिवारी said...

अमरत्व पाने के लिए व्यक्ति ने न जाने कितने संधान किये ....जीवन को सुखी उसकी दीर्घता नहीं बल्कि उसके सकारात्मक सोच और कार्य ही बना पाते हैं...सही कहा आपने...सुंदर एवं शिक्षाप्रद लेख

डॉ. मनोज मिश्र said...

बहुत मेहनत से बढ़िया पोस्ट लिखा है आपनें ,बधाई.

के सी said...

आपके सहज शब्दों से असीम उर्जा प्रस्फुटित होती है मैं इसे पढ़ना आरंभ करता हूँ और पढ़ लेने के बाद मेरी दशा में बड़ा परिवर्तन देखा करता हूँ आप आर्श्चय करेंगी पर सच है. मैं शाश्वत और नश्वर के प्रश्नों पर यकीन कम करता हूँ फिर भी आपकी इस पोस्ट के जैसे अवसर कम ही होते हैं जब जीवन के प्रति किसी सोच को परखना जरूरी सा लगने लगता है.

गौतम राजऋषि said...

आप कितना डूब कर लिखती हो...ये तमाम विश्लेषण जैसे एकदम से सुस्पष्ट होकर मेरे मन-मस्तिष्क में बैठते चले गये।
अश्वथामा के बारे में सोच कर कई बार ये भाव उठता है कहाँ होंगे वो? देहरादून में स्थित एक गुफा को उनका जन्म-स्थल कहा जाता है, जितनी बार जाता था अचरज करता उनके अनंत विचरण पर।

किंतु आपके इस कहीं पढ़े हुये वक्तव्य पर हैरान हूँ, जब आप लिखती हो कि "परन्तु किसी स्थान विशेष से यदि मधुरतम, सुखद स्मृतियाँ बंधी हों तो वहां दुबारा कभी नहीं जाना चाहिए,नहीं तो कालखंड विशेष में सुरक्षित सुखद स्मृतियों को आघात पहुँचता है,क्योंकि तबतक समय और परिस्थितियां पूर्ववत नहीं रहतीं......"। क्या सचमुच?

अभी सहरसा में हूँ और छुट्टियां के मजे लूट रहा हूँ। वो तस्वीर पूरे परिवार वाली बड़ी मोहक लग रही है।

pran sharma said...

SARTHAK LEKH HAI.KAEE SACHCHAAEEYON
KO UJAAGAR KARTA HAI.BADHAAEE.

दिगम्बर नासवा said...

शायद इसी तथ्य को सिद्ध करने के लिए भगवान् ने भी वरदान लेने के बात मृत्यु का वरन किया.............. हालाँकि इंसान की इच्छा का कोई अंत नहीं पर जब भी वो इस बात को पा लेगा ....दुःख का सागर फूट पड़ेगा उसके अन्दर...........मुझे लगता है जब भी कभी ऐसा हो भगवन इंसान की स्मृति गुम कर दे तो शायद जीना संभव हो सके लम्बे समय तक पर शर्त ये है की शरीर जवान रहना चाहिए...............पर आपकी बात से मैं सहमत हूँ की लम्बे समय तक इस जीवन का क्या महत्त्व ........... जीवन अछा होना चाहिए, उद्देश्य होना चाहिए चाहे छोटा ही हो ..........

संगीता पुरी said...

सच है .. जीवन छोटा हो पर उद्देश्‍यपूर्ण हो !!

राज भाटिय़ा said...

धन सुखद तब लगता है जब उसका उपभोग हम अपने अपनों के साथ मिलकर करते हैं....मान लेते हैं कि यह शरीर, धन वैभव तथा स्थान अपने पास अक्षुण रहे परन्तु जिनके साथ हमने इन सब के सुख का उपभोग किया उनका साथ ही न रहे...तो भी क्या हम अमरत्व को वरदान मान पाएंगे.....उन अपनों के बिना जिनका होना ही हमें पूर्णता प्रदान करता है
वाह कितनी गहरी बात आप ने लिख दी, यह एक सत्य है, लेकिन इसी सत्य से लोग भागते है.
धन्यवाद

Manish Kumar said...

सत्य वचन !

Smart Indian said...

सत्य वचन. अश्वत्थामा का रूपक देकर यही बताने की कोशिश की गयी है कि मृत्यु तो जीवन के इस बंधन से मुक्तिकारिणी पावन माँ जैसी है. "जीवेत शरदः शतम्..." के साथ एक सार्थक जीवन जियें और जबरन एक स्वार्थी मुर्दा ढोते रहने के बजाय असीम के साथ एकाकार हो जाएँ.

जहां तक अमृत्व की बात है. किसी क्षणिक जीव के सामने ८०-१०० साल जीने वाला मानव भी कुछ-कुछ अमर ही है. आम आदमी के लिए यह पृथ्वी, यह सौर मंडल अमर है. ऐसा ही अमृत्व देवताओं का है जिनकी देवी परम्पराएं अमर हैं. व्यास अमर हैं क्योंकि अनेकों व्यासों ने सैकडों-हजारों साल के समय में धर्म-ग्रन्थ संकलित किये और हम आज भी उन्हें व्यास-पीठ से प्रवचन करते हुए देखते हैं. शंकराचार्य के जाने के १३०० साल बाद भी आज भी हम एक नहीं बल्कि चार (या पांच) शंकराचार्यों को साक्षात देख सकते हैं, यही उनका अमरत्व है. अश्वत्थामा (और उनके मामा) सहित सात चिरजीवियों के अमृत्व का रहस्य भी कुछ इसी तरह का है.

ताऊ रामपुरिया said...

आप हमेशा ही बहुत सार्थक लिखती हैं. यह पोस्ट भी आपने बहुत सुंदर लिखी है. बहुत शुभकामनाएं.

रामराम.

Anil Pusadkar said...

क्या कहूं आपने तो सोचने पर मज़बूर कर दिया।

जीवन को सुखी उसकी दीर्घता नहीं बल्कि उसके सकारात्मक सोच और कार्य ही बना पाते हैं,यह हमें सदैव स्मरण रखना होगा।आपके बताये इस मूलमंत्र को याद रखने की कोशिश करूंगा

सदा said...

बहुत सही व सटीक लिखा है आपने, बधाई ।

कंचन सिंह चौहान said...

परन्तु किसी स्थान विशेष से यदि मधुरतम, सुखद स्मृतियाँ बंधी हों तो वहां दुबारा कभी नहीं जाना चाहिए,नहीं तो कालखंड विशेष में सुरक्षित सुखद स्मृतियों को आघात पहुँचता है,क्योंकि तबतक समय और परिस्थितियां पूर्ववत नहीं रहतीं.......यह कहीं पढ़ा था और अनुभव के धरातल पर इसे पूर्ण सत्य पाया.

maine ye baat padhi to aaj hi magar mahsus bahut dino se karti hun. kuchh chije smritiyo me to jas ki tas bani hui haiN magar vaha jab vo purani cheeje talash karne jao to sab kuchh badal gaya hota hai aur jab jo talash karne pahuncho vo na mile to fir bas ansuoN ka sailab hi sath deta hai.

admin said...

चाह तो सभी को होती है, पर जब मिल जाएगा, तब उसका दर्द समझ में आएगा।
इस शानदार प्रस्तुति के लिए बधाई।
-Zakir Ali ‘Rajnish’
{ Secretary-TSALIIM & SBAI }

मथुरा कलौनी said...

बहुत विचारोत्‍तेजक लेख है। जीने और शरीर का बोझ ढ़ोने का अंतर समझ में आ जाय तो फिर जीने का मजा ही कुछ और है

Shiv said...

हर लाइन में लिखी गई बात उसके पहले लिखी गई बात से बढिया होती गई है. ऐसी-ऐसी बातें लिख दी हैं कि पढ़ते हुए गंभीर हो जाना पडा.

इसलिए टिपण्णी में कुछ हल्का लिखते हुए याद दिलाना चाहूंगा कि सत्तर के दशक के एक महान व्यक्ति श्री आनंद ने फिलिम आनंद में कहा था; "बाबू मोशाय, जीवन बड़ा होना चाहिए, लम्बा नहीं रे." (रे तो नहीं कहा था लेकिन वो अपने आप आ गया रे.)

vikram7 said...

"जीवन को सुखी उसकी दीर्घता नहीं बल्कि उसके सकारात्मक सोच और कार्य ही बना पाते हैं,यह हमें सदैव स्मरण रखना होगा’।
सही कहा आपने, सार्थक प्रेरणादाई लेख...बधाई

रंजू भाटिया said...

जितना जीयो सार्थक जीयो इसी बात को बखूबी आपने अपने लफ्जों के जादू में बाँध दिया है ..बहुत बढ़िया पोस्ट रही इस बार भी यह आपकी ...जाने के बाद आपको कोई सुखद तरीके से याद करे वही अमरता है

Pt. D.K. Sharma "Vatsa" said...

विज्ञान चाहे लाख उन्नति कर ले लेकिन इस संसार में जीवन और मृत्यु का चक्र किसी से न रुका है और न ही रूकेगा। जीवन व मृत्यु का यह क्रम , धूप-छांव और दिन-रात की भांति अनवरत जारी है और यही इस सृ्ष्टि की अटल वास्तविकता है। शरीर की अपेक्षा सिर्फ एक विचार ही हैं, जो कि विनाश चक्र की परिधी से बाहर हैं,जिनमे इतनी शक्ति है कि जीवन-मृ्त्यु के अनवरत चलते हुए इस चक्र को जीवन बिन्दु पर रोक सकते हैं। इसलिए इन्सान को शरीर की अमरता को भूलकर अपने विचारों की अमरता के बारे में सोचना चाहिए।
एक सार्थक लेख हेतु आभार...........

डॉ .अनुराग said...

अजीब बात है आज ही दोपहर रेडियो मिर्ची पे सुन रहा था वैगानिको ने कोई माइक्रोब ढूँढा है .जो उम्र के तीस साल बढ़ने में मदद कर सकता है .....बाकी स्टेम सेल से स्पर्म की तकनीक का हल्ला तो मच गया ही है.....अमरत्व ???

हरकीरत ' हीर' said...

सुख का कारण धन संपदा या कोई स्थान विशेष नहीं हुआ करते,बल्कि स्थान विशेष में अपने अपनों से जुड़े सुखद क्षणों की स्मृतियाँ हुआ करती हैं. धन सुखद तब लगता है जब उसका उपभोग हम अपने अपनों के साथ मिलकर करते हैं....मान लेते हैं कि यह शरीर, धन वैभव तथा स्थान अपने पास अक्षुण रहे परन्तु जिनके साथ हमने इन सब के सुख का उपभोग किया उनका साथ ही न रहे...तो भी क्या हम अमरत्व को वरदान मान पाएंगे.....उन अपनों के बिना जिनका होना ही हमें पूर्णता प्रदान करता है ,हमारे जीजिविषा को पोषित करता है, जीवन सुख का उपभोग कर पाएंगे?

बहुत ही उम्दा , शिक्षाप्रद , विचारणीय लेखन ....!!
अगर मनुष्य मोह माया से ऊपर उठ जाये तो सारे बन्धनों से मुक्त हो जाता है ......!

शोभना चौरे said...

ranjnaji aapke is aalekh par nishabd hu.upar jitni bhi tippni hai sbse shmat hu .
badhai aur anek shubhkamnaye.

Rakesh Singh - राकेश सिंह said...
This comment has been removed by the author.
Rakesh Singh - राकेश सिंह said...

भीष्म पितामह को भी अपनी इच्छा मृत्यु का वरदान था किन्तु वो भी इस अमरत्वा से आजिज हो गए थे | बहुत बढ़िया लिखा है |

anil said...

बहुत बढ़िया लेख लेख लिखा है आपने शानदार लेख बहुत बहुत बधाई .

M VERMA said...

"जीवन को सुखी उसकी दीर्घता नहीं बल्कि उसके सकारात्मक सोच और कार्य ही बना पाते हैं,यह हमें सदैव स्मरण रखना होगा।"
गहरी सोच

Gyan Dutt Pandey said...

अमरत्व की लालसा ययाति-त्व है। भविष्य को हरण कर भोग करने की लालसा।
मुझे तो शंकर की पंक्तियां प्रिय हैं - पुनरपि जननं, पुनरपि मरणम। इह संसारे, बहु दुस्तारे; कृपया पारे पाहि मुरारे!

राजीव थेपड़ा ( भूतनाथ ) said...

अपन को अमर होना ही नहीं था....इसीलिए.....अपन तो भूत हो गए.....ही-ही-ही-ही-ही-ही-.....बात तो आपकी अत्यंत गंभीर ही थी.....मगर अपनी समझ से जीवन के यही किया जा सकता है....ही-ही-ही-ही-ही-ही-.....!!

Sumit Pratap Singh said...

सादर ब्लॉगस्ते!
आपका संदेश अच्छा लगा।

अब सरकोजी मामा ठहरे ब्रूनी मामी की नग्न तस्वीर के दीवाने। वो क्या जाने बुर्के की महिमा। पधारें "एक पत्र बुर्के के नाम" सुमित के तडके "गद्य" पर आपकी प्रतीक्षा में है...

Prem Farukhabadi said...

जीवन को सुखी उसकी दीर्घता नहीं बल्कि उसके सकारात्मक सोच और कार्य ही बना पाते हैं,यह हमें सदैव स्मरण रखना होगा।
bahut hi sundar sarahneey vichaar
karti rahen yuhi hum sab pe upkaar

निर्मला कपिला said...

मैं तो देर से आयी हूँ तो सब कुछ सभी कह चुके मैं तो इतना जानती हूँ कि आज अदमी रोज़ रोज़ मर कर भी जी रहा है क्या इसे क्या कहें बहुत बडिया आलेख है बधाई

जितेन्द़ भगत said...

ऐसे वि‍चार मेरे मन में भी बचपन में उठा करते थे। मेरी नि‍गाह में यह एक जबरदस्‍त आशावाद है जो आत्‍महत्‍या के वि‍रूद्ध जीने के लि‍ए प्रेरि‍त करता है।
बहुत सुंदर आलेख।

Alpana Verma said...

मृत्यु से भय और लम्बी उम्र की लालसा इंसान को चलते रहने के लिए इंधन जैसा है.
वैसे एक न एक दिन अमरत्व पाने की दवा भी खोज ली जायेगी.
इस विषय पर लेख आपने अच्छा लिखा है.

रश्मि प्रभा... said...

जीवन को सुखी उसकी दीर्घता नहीं बल्कि उसके सकारात्मक सोच और कार्य ही बना पाते हैं,
bilkul sahi

BrijmohanShrivastava said...

जब धरती पर पुराने दरख्त, ठूंठ ही जगह घेरते रहेंगे तब तक नए पौधों को पनपने का मौका ही कहाँ मिल पायेगा |सही है सकारात्मक सोच और कार्य ही अमरत्व प्रदान करते हैं | "" लिखने लायक कुछ कर जाओ या पढने लायक कुछ लिख जाओ " आपके लेख इसी बात की पुष्टि करते हैं |

Akanksha Yadav said...

जीवन को सुखी उसकी दीर्घता नहीं बल्कि उसके सकारात्मक सोच और कार्य ही बना पाते हैं,यह हमें सदैव स्मरण रखना होगा।...behad sargarbhit vichar !!

Unknown said...

है ग्यात हमे़ नश्वर जीवन
है किन्तु अमरता की आशा
करती रहती मन मे़ क्रन्दन

बहुत बढिया विचार है़.

Sulabh Jaiswal "सुलभ" said...

उत्तम विचार. सदैव स्मरणीय.

- Hindi Poetry - यादों का इंद्रजाल

Neelesh K. Jain said...

Ek kahnai aisi bhi kahna
jisme sirf tum rahana
Choo lene waaley ehsaas ke saath
Aur apne gahare jazbaat ke saath

Achcha likha to achcha laga...

Likhati raho...

http://www.yoursaarathi.blogspot.com/
neelesh jain, mumbai

सुशील कुमार जोशी said...

बहुत सुंदर !
आभार रश्मीप्रभा जी को :)