7.10.23
पितृ पक्ष
हेलोवीन महापर्व जो कि पश्चिम वाले कब्र में पड़े कयामत के दिन फैसले के बाद मुक्ति पाने की आस में व्याकुल विचलित अशरीरी आसपास उत्पात मचाते पूर्वजों को कम्पनी देने के लिए(साथ ही उनके जैसा बन उनके भय से मुक्त होने के प्रयास हित रचते हैं) धूमधाम से कोंहड़ा काटते मनाते हैं,,,वह पर्व उतनी ही श्रद्धा से उन्हीं के स्टाइल में शिक्षित प्रगतिशील भारतीय सेकुलड़ भी विगत कुछ वर्षों से बड़े हर्षोल्लास से मनाने लगे हैं,,,अपने उन सेकुलड़ बन्धुओं से मेरा निवेदन है कि 29 सेप्टेंबर से ही आरम्भ हुआ 15 दिनों का जो श्राद्धपक्ष अपने यहाँ चल रहा है, उसके विषय में पता कर अपने पूर्वजों को श्रद्धा सहित प्रणाम और हो सके तो दक्षिणमुखी होकर कम से कम एक लोटा जल अवश्य अर्पित कर दें।ध्यान रखें कि आपने पूर्वज कब्रों में नहीं पड़े हैं बल्कि अग्नि में भस्म होकर पुनः पंचतत्वों में विलीन हो गए हैं।अतः आप जब भी उन्हें मन से नमन करेंगे,जलादि अर्पित करेंगे,उन्हें वे अवश्य ग्रहण करेंगे।
आधुनिक विज्ञान ने भी कहा है न कि डीएनए(अनुवांशिकी) एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी में जाती रहती है।हम बन्दर से आदमी नहीं बने हैं,,जैसा कि वैज्ञानिकों की स्थापना थी(और पता नहीं कैसे आज भी बन्दर बन्दरे बने बचे हुए हैं हजारों साल से इस इंतजार में कि उनका भी मनुष्य बनने का नम्बर आएगा),,लेकिन अपने मनुष्यता के लच्छन सहेजे नहीं रख पाए तो कुछ ही पीढ़ी में मनुष्य शरीर के साथ ही बन्दर अवश्य बन जायेंगे।
और मनुष्यता यह कहती है कि सम्पूर्ण प्रकृति,पंचतत्व, हमारे पूर्वज जिनसे भी हमनें जीवन पाया है, हमारा गर्भनाल (गर्भ में सबसे पहले यही बनता है और सबसे कोमल यह अंश पूरे शरीर के अग्नि में भस्म होने के उपरांत भी नहीं जलता,बचा रह जाता है जिसे चुनकर गङ्गा जी में बाद में प्रवाहित किया जाता है) जिससे हम एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी से जुड़े होते हैं, अपने उन पूर्वजों का सम्मान करें।
कहते हैं, पितृपक्ष के ये पन्द्रह दिन भगवान ने केवल पितरों के पूजनार्थ आरक्षित कर दिया है।इस समय पितृलोक से धरती तक मार्ग खुल जाता है जिससे पितर आकर अपनी अगली पीढ़ी से मिल सकें,उनके द्वारा श्रद्धा पाकर सन्तुष्ट और बली हो पाएँ।
एक प्रश्न मन में आ सकता है कि जब शरीर नष्ट हो गया, आत्मा ने नवजीवन पा लिया, फिर पितर कहाँ और कैसे बच गए?
तो इसका समाधान यह है कि इस सृष्टि में सबकुछ ऊर्जा(एनर्जी) है।सजीव निर्जीव क्रिया(मानसिक शारीरिक) सबकुछ,,,और ऊर्जा का क्षय नहीं होता।अभी यदि यह मैं सोच रही हूँ,लिख रही हूँ, तो यह मेरा नहीं।ये समस्त सूचनाएँ इसी ब्रह्माण्ड में असंख्यों द्वारा सोची कही गयी संरक्षित उर्जास्वरूप में अवस्थित है।मैं इसे व्यक्त कर दूँगी, यह पुनः ब्रह्माण्ड में ऐसे ही अवस्थित रहेगा और पुनः किसी के मस्तिष्क द्वारा रिसीव किया जाएगा,प्रकट किया जाएगा।
तो व्यक्ति जब नष्ट होता है, उसका स्थूल शरीर अग्नि में भस्म होकर पुनः पंचतत्वों में विलीन हो जाता है,, शुद्ध आत्मा दूसरा शरीर प्राप्त करती है,किन्तु उसके द्वारा निष्पादित कर्म,उसकी स्मृतियाँ उर्जास्वरूप में इसी ब्रह्माण्ड में संरक्षित रहती हैं।इसलिए आवश्यक है कि हम उस रूप में अवस्थित अपने पूर्वजों के सम्मुख नतमस्तक हों।
मैं भावुक हो जाती हूँ जब स्मरण में आता है कि किन झंझावातों दुःसह कष्टों को झेलकर हमारे वे पूर्वज सनातनी रह गए थे जिनके कारण आज हम सगर्व सनातनी हैं,,नहीं तो पूरे सँसार में कभी रहने वाला सनातन पन्थिकों के विध्वंसी नीति के सम्मुख नतमस्तक होकर उन पथों की ओर उन्मुख हुआ और आज सिमटा हुआ समूह अपना अस्तित्व बचाये रखने को संघर्षरत है,हर कोई उससे लील कर मिटा देना चाहता है क्योंकि यह धर्म मनुष्य को मदान्ध उद्दण्ड स्वार्थी भोगी असुर बनने की कोई संभावना नहीं देता।
खैर, मैं बात कर रही थी पितृपक्ष पर अपने कर्तव्यों की।
इसी सिलसिले में एक और विषय पर चर्चा करना अत्यन्त अपरिहार्य है।
जैसे गङ्गा जी जब गोमुख से निकलती हैं, उनका रंग रूप उनके जल की पवित्रता और जब वे गंगासागर में सागर से मिलती हैं उनके जल की स्थिति,,एक सी नहीं होती(विश्वास कीजिये, गङ्गा सागर में उस जल का रूपरंग देख मैं वहाँ स्नान तो क्या उस जल के स्पर्श की भी हिम्मत नहीं जुटा पा रही थी,वह इस प्रकार प्रदूषित थी)...
इसी प्रकार हमारे ऋषि महर्षियों पूर्वजों ने जो कर्मकाण्ड अनुष्ठान आयोजनों की स्थापनाएँ कीं, उसमें अनेक अशुद्धियाँ विकृतियाँ आडम्बर कालान्तर में समाहित हो गए,, किन्तु इसका यह अर्थ नहीं है कि उनका सम्पूर्ण त्याग कर दिया जाय।हमें विवेकपूर्वक चावल में पड़े कंकड़ों को चुनकर हटाना होगा और तब खीर बनानी होगी।कर्मकाण्डों के मूल में निहित सर्वोपयोगी कल्याणकारी भाव जब हम देखेंगे तो गर्व से भर उठेंगे कि कितने दूरदर्शी विद्वान और वैज्ञानिक थे इनकी स्थापना करने वाले।
यदि हमें उन्हें नकारना त्यागना है,उन्हें अवैज्ञानिक मानना है तो अनुसंधान पूर्वक यह सिद्ध करें कि ये अयोग्य हैं,अन्यथा पूर्वजों पर आस्था रखते कर्मकाण्ड कुलरीति नीति निभाएँ।उर्जास्वरूप में हमारे कर्म अन्ततः हमें और जिनके निमित्त हम वह कर रहे हैं,सुख दायक कल्याणकारक होगा ही होगा,विश्वास करें।
एक बात और-
जिन परिजनों के साथ हमनें सम्पूर्ण जीवन जिया है, मृत्यु के उपरांत ऐसी हड़बड़ी क्यों कि सनातनी वैदिक पारम्परिक तरीके से नहीं बल्कि आर्यसमाजी 3 दिवसीय निपटान कर देना??कृपया ऐसा कदापि न करें।मृत्योपरांत 13 दिन तक जितने नेमधर्म कर्मकाण्ड सम्पादित होते हैं,वह जो केशदान होता है,नख कटवाए जाते हैं,घर कपड़े की सफाई होती है, भोजन का नियम, भोज का नियम होता है,,सबके पीछे वृहत्त वैज्ञानिक सामाजिक कल्याणकारी कारण है।आडम्बर मत कीजिये,किन्तु सात्त्विक ढंग से वे कर्मकाण्ड अवश्य निष्पादित कीजिये।वैसे भी कुलरीतियाँ लिखित रूप में नहीं होतीं,आप उन्हें व्यवहार में लाकर ही अगली पीढ़ी तक पहुँचा सकते हैं।हमारा आपका कर्तब्य है कि अगली पीढ़ियों तक संस्कृति पहुँचाएँ।
रंजना सिंह
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