27.10.09

क्षमादान !!!

जन्मगत हों या स्वनिर्मित, ह्रदय से गहरे जुड़े सम्बन्ध, हमें जितना मानसिक संबल और स्नेह देने में समर्थ होते हैं,जितना हमें जोड़ते हैं, कभी वे जाने अनजाने ह्रदय को तीव्रतम आघात पहुंचा कर हमें तोड़ने में भी उतने ही प्रभावी तथा सक्षम हुआ करते हैं. स्वाभाविक है कि जो ह्रदय के जितना सन्निकट होगा, प्रतिघात में भी सर्वाधिक सक्षम होगा. कई बार तो अपनों के ये प्रहार इतने तीव्र हुआ करते हैं कि उसका व्यापक प्रभाव जीवन की दशा दिशा ही बदल दिया करते हैं, सम्पूर्ण व्यक्तित्व ही कुंठाग्रस्त हो जाया करता है. जीवन भर के लिए व्यक्ति इस दंश से मुक्त नहीं हो पाता और फिर न स्वयं सुखी रह पाता है न ही अपने से जुड़े लोगों को सुख दे पाता है.

हमारी एक परिचिता हैं, वे एक नितांत ही खडूस महिला के रूप में विख्यात या कहें कुख्यात हैं.सभी उनकी प्रतिभा का लोहा मानते हैं,परन्तु उनसे घनिष्टता बढ़ाने को कोई भी उत्सुक नहीं होता..लगभग पचपन वर्ष की अविवाहिता हैं,उच्च पद पर आसीन हैं,धन की कमी नहीं..फिर भी न जाने किस अवसाद में घुलती रहती हैं. पूरा संसार ही उन्हें संत्रसक तथा अपना शत्रु लगता है. अपने अधिकार के प्रति अनावश्यक रूप सजग रह कर्तब्यों के प्रति सतत उदासीन रहती हैं.बोझिल माहौल उन्हें बड़ा रुचता है जबकि अपने आस पास किसी को हंसते चहकते देखना कष्टकर लगता है..


परिचय के उपरांत पहले पहल तो मुझे भी उनसे बड़ी चिढ होती थी,पर बाद में जब उनसे निकटता का अवसर मिला तो शनै शनै मेरे सम्मुख उनके व्यक्तित्व की परतें खुलने लगी.उनसे बढ़ती हुई घनिष्ठता के साथ मुझे आभास हुआ कि उनके व्यवहार में जितनी कठोरता और कटुता है,उतनी कठोर और कलुषित हृदया वो हैं नहीं..मैं उनके मन का वह कोना ढूँढने लगी जिसमे संवेदनाएं और बहुत से वे कटु अनुभव संरक्षित थे, जिसने उनके व्यक्तित्व और व्यवहार में यह विकृति दी थी..


अंतत मेरा स्नेह काम कर गया और ज्ञात हुआ कि अति प्रतिभाशाली इस महिला ने बाल्यावस्था से ही बड़े दुःख उठाये हैं..उनके रुढिवादी माता पिता ने छः पुत्रियों और एक पुत्र के बीच पुत्रियों की सदा ही उपेक्षा की.बाकी बहनों ने तो इसे अपनी नियति मान स्वीकार लिया,परन्तु अपने अधिकार के प्रति सजग, विद्रोही स्वभाव की इस महिला ने सदा ही इसका प्रतिवाद किया और फलस्वरूप सर्वाधिक प्रताड़ना भी इन्होने ही पायी..अपने अभिभावकों को अपनी इस उपेक्षा और अनादर के लिए इन्होने कभी क्षमा नहीं किया..इतना ही नहीं दुर्भाग्यवस बालपन में अपने परिचितों तथा रिश्ते के कुछेक पुरुषों द्वारा अवांछनीय व्यवहार ने इनके मन में पुरुषों के प्रति घोर घृणा का भाव भी भर दिया,जिसके फलस्वरूप इन्होने विवाह नहीं किया....इन्होने अपने प्रतिभा का लोहा मनवाने तथा स्वयं को स्थापित करने के लिए पारिवारिक तथा आर्थिक मोर्चे पर कठोर संघर्ष किया और दुर्लभ धन पद सबकुछ पाया,परन्तु अपने जीवन की कटु स्मृतियों की भंवर से वे कभी मुक्त न हो पायीं..


ऐसा नहीं कि इन परिस्थितियों से गुजरी हुई ये एकमात्र महिला हैं...आज भी अधिकांश भारतीय महिलाओं को न्यूनाधिक इन्ही परिस्थितियों से गुजरना होता है. पर इन्होने जैसे इसे दिल से लगाया, इनके व्यक्तित्व में नकारात्मकता ही अधिक परिपुष्ट हुआ.सफलता पाकर भी इनका मन सदा उदिग्न ही रहा..ये यदि अपने मन से कटुता रुपी इस नकारात्मकता को निकाल पातीं तो परिवार समाज के सम्मुख एक बहुत बड़ा अनुकरणीय उदाहरण उपस्थित कर सकती थीं..स्वयं पाए उपेक्षा अनादर को कइयों में स्नेह और उदारता बाँट स्वयं भी सुखी हो सकती थीं और दूसरों को भी सुखी कर सकती थीं.ये स्थापित कर सकती थीं कि एक उपेक्षिता नारी इस समाज को क्या कुछ नहीं दे सकती है..


जब तक अपने अपनों के प्रति क्षोभ को हम अपनी स्मृतियों में, मन में जीवित पालित पोषित रखेंगे वह हमारे ह्रदय को दग्ध करती ही रहेगी और यदि प्रतिकार की अग्नि ह्रदय में जल रही हो तो सुख और शांति कैसे पाया जा सकता है..


व्यक्ति अपने जीवन में समस्त उपक्रम सुख प्राप्ति के निमित्त ही तो करता है,परन्तु चूँकि साधन को ही साध्य बना लिया करता है तो सुख सुधा से ह्रदय आप्लावित नहीं हो पाता. कितनी भी बहुमूल्य भौतिक वस्तु अपने पास हो, या पद मान प्रतिष्ठा मिल जाए, यदि मन शांत न हो, मन कर्म और वचन से दूसरों को सुख न दे पायें तो मन कभी सच्चे सुख का उपभोग न कर पायेगा....

जीवन है तो उसके साथ घात प्रतिघात दुर्घटनाएं तो लगी ही रहेंगी...लेकिन इसीके के मध्य हमें उन युक्तियों को भी अपनाना पड़ेगा जो हमारे अंतस के नकारात्मक उर्जा का क्षय कर हममे सकारात्मकता को परिपुष्ट करे, ताकि हम अपने सामर्थ्य का सर्वोत्तम निष्पादित कर पायें...दुर्घटनाओं को हम भले न रोक पायें पर दुःख और कष्ट से निकलने के मार्ग पर हम अवश्य ही चल सकते हैं..और सच मानिये तो ऐसे मार्गों की कमी नहीं...


ईश्वर की अपार अनुकम्पा से मेरी स्वाभाविक ही रूचि रही है कि सोच को सकारात्मक बनाने में सहायक जो भी युक्तियाँ जानने में आयें उन्हें जानू, समझूं और इसी क्रम में एक बार जब रेकी का प्रशिक्षण ले रही थी,हमारी गुरु ने हमें एक महिला की तस्वीर दिखाई और उनके विषय में बताया कि उक्त महिला बाल्यावस्था से ही गंभीर रूप से मस्तिष्क पीडा से व्यथित थीं..इसके साथ ही बहुधा ही वे अवचेतनावास्था में अत्यंत उग्र हो किसी को जान से मारने की बात कहा करती थीं..उनके अभिभावकों ने उनका बहुत इलाज कराया पर कोई भी चिकित्सक उनके रोग का न तो कारण बता पाया और न ही उसका प्रभावी निदान हो पाया..


विवाहोपरांत उनके पति ने भी अपने भर कोई कोर कसर न छोडी उनकी चिकित्सा करवाने में, पर सदा ढ़ाक के तीन पात ही निकले..अंततः उन्होंने कहीं रेकी के विषय में सुना और इसके शरण में आये..कुछ महीनो के चिकित्सा के उपरांत ही बड़े सकारात्मक प्रभाव दृष्टिगत होने लगे. तब अतिउत्साहित हो इन्होने स्वयं भी रेकी का प्रशिक्षण लेना आरम्भ किया. आगे बढ़कर एक यौगिक क्रिया के अर्न्तगत जब इन्होने पूर्वजन्म पर्यवेक्षण कर अपने रोग के कारणों तक पहुँचने का प्रयास किया तो इन्हें ज्ञात हुआ कि कई जन्म पूर्व इनके पति ने किसी अन्य महिला के प्रेम में पड़ इनके संग विश्वासघात किया और धोखे से इनके प्राण लेने को इन्हें बहुमंजिली भवन के नीचे धकेल दिया..अप्रत्याशित इस आघात से इनका ह्रदय विह्वल हो गया और इनके मन में प्रतिशोध की प्रबल अग्नि दहक उठी..मृत्युपूर्व कुछ क्षण में ही इन्होने जो प्रण किया था कि विश्वासघाती अपने पति से वे अवश्य ही प्रतिशोध लेंगी और उसे भी मृत्यु दंड देंगी, वह उनके अवचेतन मष्तिष्क में ऐसे संरक्षित हो गया कि कई जन्मो तक विस्मृत न हो पाया..और ऊंचाई से गिरने पर सिर में चोट लगने से इन्हें जो असह्य पीडा हुई ,वह भी जन्म जन्मान्तर तक इनके साथ बनी रही....


क्रिया क्रम में गुरु ने इन्हें आदेश दिया कि जिस व्यक्ति ने इनके साथ विश्वासघात किया ,उसे ये अपने पूरे मन से क्षमादान दे स्वयं भी मुक्त हो जाएँ और उसे भी मुक्त कर दें..सहज रूप से तो इसके लिए वे तैयार न हुयीं ,पर गुरु द्वारा समझाने पर उन्होंने तदनुरूप ही किया..और आर्श्चय कि इस दिन के बाद फिर कभी उन्हें मस्तिष्क पीडा न हुई और न ही मन में कभी वह उद्वेग ही आया...आगे जाकर उक्त महिला ने रेकी में ग्रैंड मास्टर तक का प्रशिक्षण लिया और असंख्य लोगों का उपचार करते हुए अपने जीवन को समाजसेवा में पूर्णतः समर्पित कर दिया...


सुनने में यह एक कथा सी लग रही होगी,परन्तु यह कपोल कल्पित नहीं..मैंने स्वयं ही अपने जीवन में इसे सत्य होते देखा है.कुछेक दंश जो सदा ही मुझे पीडा दिया करते थे,मैंने इस क्रिया के द्वारा पीडक को क्षमादान देते हुए मन स्मृति से तिरोहित करने का प्रयास किया और उस स्मृति दंश से मुक्त हो गयी..इसके बाद से तो मैंने इसे जीवन का मूल मंत्र ही बना लिया है...अब बिना यौगिक क्रिया के ही सच्चे मन से ईश्वर को साक्षी मान कष्ट देने वाले को क्षमा दान दे दिया करती हूँ और निश्चित रूप से कटु स्मृतियों, पीडा से अत्यंत प्रभावशाली रूप से मुक्ति पा जाया करती हूँ..


मेरा मानना है कि सामने वाले को सुख और खुशी देने के लिए हमें स्वयं अपने ह्रदय को सुख शांति से परिपूर्ण रखना होगा.अब परिवार समाज से भागकर तो कहीं जाया नहीं जा सकता..तो इसके बीच रह ही हमें सुखद स्मृतियों को जो कि हमें उर्जा प्रदान करती हों,संजोना पड़ेगा और दुखद स्मृतियाँ जो हमें कमजोर करे हममे नकारात्मकता प्रगाढ़ करे,उससे बचना पड़ेगा..सकारात्मक रह ही हम अपनी क्षमताओं का अधिकाधिक सदुपयोग कर सकते हैं..


क्षमादान से वस्तुतः दूसरों का नहीं सबसे अधिक भला अपना ही होता है.जब तक दुखद स्मृतियाँ अपने अंतस में संरक्षित रहती हैं,वे हमारे सकारात्मक सोच को बाधित करती है,हमें सुखी नहीं होने देती..सच्चे सुख की अभिलाषा हो तो उन सभी साधनों को अंगीकार करना चाहिए,जो हमारी नकारात्मकता न नाश करती हो.व्यक्ति में अपरिमित प्रतिभा क्षमता होती है,जिसका यदि सकारात्मक उपयोग किया जाय तो अपने साथ साथ अपने से जुड़े असंख्य लोगों के हित हम बहुत कुछ कर सकते हैं.ऐसे जीवन का क्या लाभ यदि इसकी पूरी अवधि में हम किसी को सुख और खुशियाँ न दे पायें..


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46 comments:

अनिल कान्त said...

इतनी अच्छी अच्छी बातें पता चली आपके इस लेख से
क्षमादान का महत्त्व भी समझ आया
शुक्रिया

M VERMA said...

सारगर्भित बातें
वाकई क्षमादान के बाद जो तोष उपजता है शायद और किसी दान के बाद नसीब न हो सके.

रंजू भाटिया said...

बहुत ही सकारत्मक पोस्ट है यह ..पर आज कल के वक़्त में इतना बड़ा दिल किसी का नहीं होता हाँ अहम् बड़ा जरुर होता है ...क्षमा से बढ़ कर कोई बात ही नहीं है इसके लिए दिल बड़ा होना चाहिए ..रेकी विधा भी यही सिखाती है ...किसी का कठोर स्वभाव अक्सर दर्द से जन्म लेता है ..

Arvind Mishra said...

बहुत उत्प्रेरक सकारात्मक दृष्टि से भरपूर -शुक्रिया !

श्रीकांत पाराशर said...

Ek achhi ruchikar post hai. aapki bhasha shaili bhi achhi hone se padhne mein anand aaya. agar aapki ruchi aise subjects mein hai to kabhi mere blog par bhi nazar dalen, shayad aapko achha lage. shreekantparashar.blogspot.com

डॉ .अनुराग said...

आपमें जीवन को एक सूक्ष्म दृष्टि से देखने की ओर उस संवेदना को आगे पोजिटिव वे में ले जाने की एक प्रतिभा है ...निसंदेह आज के लेख के आखिर में जो सार है उससे सहमत हूँ

श्यामल सुमन said...

सकारात्मक सोच की एक रुचिकर पोस्ट रंजना जी। पूरी रचना पढ़ता ही चला गया। आपने ठीक ही कहा कि मन से क्षमादान करने से जीवन बहुत सी विकृतियाँ स्वतः दूर हो जातीं हैं।

तन की सीमा से भली मन की सीमा जान।
मन को वश में कर सके वही असल इन्सान।।

सादर
श्यामल सुमन
www.manoramsuman.blogspot.com

दिगम्बर नासवा said...

कभी कभी ऐसा होता है बचपन या जीवन की किसी भी अवस्था में गुज़री हुयी बाते लम्बे समय तक सालती रहती हैं ......... और जाने अनजाने हमारे व्यक्तित्व पर गहरी छाप छोड़ जाती हैं और उन्ही के चलते हमारा व्यक्तित्व हमारा दृष्टिकोण बदल जाता है ...... आपने सही कहा है की क्षमा कर देना ही सबसे उताम सहारा है ऐसी मानसिकता से उभरने के लिए ..... जब कभी निर्मल हो कर पुरानी परतों को उतार कर देखता है तो एक नया .... कोमल.......... स्निग्ध ह्रदय मिलता है ..... आपका लेख बहुत विचारणीय है ......... अमल करने के लिए है ........ जीवन में उतारने के लिए है ........

Gyan Dutt Pandey said...

मैं भी महसूस करता हूं कि क्षमा देना क्षमा करने वाले के लिये दस गुणा लाभदायक है!
और याह पोस्ट तो आपने बहुत लाभप्रद लिखी है।
बहुत ही काम की।

चंद्रमौलेश्वर प्रसाद said...

जब तक दूसरे की व्यथा-कथा का पता नहीं चलता, उसकी मानसिकता को समझ पाना कठिन होता है और जब पता चलता है तो हृदय में क्षमा की भावना अपने-आप उत्पन्न होती है॥

ओम आर्य said...

आपकी लेख पूरी तरह से पाठक पर साकारात्मक असर डालेगी ............और सच्ची घटनाओ से ही हमारे जीवन मे पैदा हुई समस्याओ का निवारण हो सकता है .........और अंतिम कुछ पंकतियाँ पुर्णत: विचारणिय है और आपनाने योग्य भी ..........बहुत ही खुबसूरत लेख!

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' said...

बहुत सुन्दर आलेख है।
आपको बहुत-बहुत शुभकामनाएँ!

हरकीरत ' हीर' said...

क्षमादान से वस्तुतः दूसरों का नहीं सबसे अधिक भला अपना ही होता है.जब तक दुखद स्मृतियाँ अपने अंतस में संरक्षित रहती हैं,वे हमारे सकारात्मक सोच को बाधित करती है,हमें सुखी नहीं होने देती..

सारगर्भित लेख ....!!

शिवम् मिश्रा said...

बहुत सुन्दर आलेख है। बधाई।

राज भाटिय़ा said...

बहुत ही अच्छी बात बताई आप ने अपने इस लेख मै मैने अकसर देखा है, जब हमे मानसिक उलझण हो तो हमे नींद भी नही आती, ओर भूख भी नही लगती उस समय मै खुद या मेरी बीबी के संग यह हो तो उसे उस बात को एक दम भुल जाने के लिये कहता हुं, ओर बस एक आध फ़िल्म देखी उस बात का जिकर ही ना करो ... सब कुछ पहले जेसा हो जाता है,शायद इसे ही क्षमा भी कहते हो.
धन्यवाद

Mishra Pankaj said...

संवेदनशील रचना। बधाई।

Smart Indian said...

आपके निष्कर्ष से पूर्ण सहमत हूँ. क्षमा एक बहुत बड़ा सद्गुण है. क्षमाशील के ह्रदय के आनंद का अनुभव एक क्षमाशील ही कर सकता है. लेकिन साथ ही एक (अकारण) पीड़ित के लिए ऐसा कर पाना आसान नहीं है बल्कि शायद न्यायसंगत भी नहीं है. वरना सीता-हरण के लिए रामचंद्र जी रावण को क्षमा कर देते और कौरवों के दुष्कृत्यों के लिए कृष्ण जी.

Rakesh Singh - राकेश सिंह said...

मृत्युपूर्व कुछ क्षण में ही इन्होने जो प्रण किया.... बिलकुल सत्य कहा है | ग्रंथों मैं स्पस्ट रूप से लिखा है की मृत्यु क्षण की मानशिक अवस्था/सोच का अगले जन्म मैं भी विशेष प्रभाव रहता है | जड़ भारत की मृत्यु और हिरन बन कर पुनः जन्म लेने की कथा भी इसी बात की पुष्टि करती है |

एक बेहतरीन आलेख जो सार्थक भी है और प्रेरणादायी भी |

प्रणाम !

निर्मला कपिला said...

बहुत सुन्दर और सार्गर्भित पोस्ट है। बधाई आऊऋ शुभकामनायें

निर्झर'नीर said...

जन्मगत हों या स्वनिर्मित, ह्रदय से गहरे जुड़े सम्बन्ध, हमें जितना मानसिक संबल और स्नेह देने में समर्थ होते हैं,जितना हममे जोड़ते हैं,कभी कभार जाने अनजाने ह्रदय को तीव्रतम आघात पहुंचा हमें तोड़ने में भी उतने ही प्रभावी तथा सक्षम हुआ करते हैं...........
katu satya

hamesha ki tarah ..darshan bodh

aapko padhna kisi darshan shastra ko padhne se kam nahii

कंचन सिंह चौहान said...

जीवन में कई प्रकार के अनुभव मिलते हैं। कभी कोई बहुत खास आस्तीन का साँप सिद्ध हो जाता है, कभी कोई पराया जीवन का बहुत बड़ा सहारा बन जाता है। अब ये हम पर निर्भर करता है कि हम उनमें से क्या चुनते हैं। अपनी बुद्धि की दिशा किस तरफ ले जाते हैं।

और सबसे बड़ा सच ये है कि इससे जो फायदा होता है वो सिर्फ हमें होता है। हम किसी के बारे में जितनी देर बुरा सोचते हैं, उतनी देर खुद में ही अजीब सी उलझन बनी रहती है और वहीं जब किसी को खुश करने की सोचो तो उसकी हँसी की कल्पना से ही अपना मन खुश अंदर से खुश रहता है। अर्थात्

सुख दीन्हे सुख होत है, दुख दीन्हे दुख होय

बड़ी भली लगी आज की यह पोस्ट। वो गीत याद आया

जीवन ऐसी बगिया जिसमें जितने काँटे फूल हैं उतने,
दामन में खुद आ जायेंगे, जिनकी तरफ तू हाथ पसारे।

rashmi ravija said...

बहुत ही सारगर्भित आलेख...यह तो सच है.... जब तक हम क्षमा करके किसी घटना को भूल नहीं जाते....सबसे ज्यादा कष्ट खुद को ही होता है...और आगे बढ़ने के रास्ते भी बंद मिलते हैं क्यूंकि सोच सकारात्मक नहीं रह जाती.

रश्मि प्रभा... said...

har pahlu par nazar daalte hue kshama ko saargarbhit bana diya

Rajeysha said...

।। क्षमा वीरस्‍य भूषणम।।

Mumukshh Ki Rachanain said...

ऐसे जीवन का क्या लाभ यदि इसकी पूरी अवधि में हम किसी को सुख और खुशियाँ न दे पायें..

पूर्णतः सहमत.

चन्द्र मोहन गुप्त
जयपुर
www,cmgupta.blogspot.com

योगेन्द्र मौदगिल said...

रंजना जी, सटीक व सार्थक पोस्ट के लिये साधुवाद स्वीकारें.....

गौतम राजऋषि said...

विगत तीन दिनों से खुद को रोके हुए हूं आपके इस पोस्ट पर खुद को कमेंट देने से।...और जबकि आपके कुछ भी लिखे का इंतजार रहता है हमेशा। जानती तो हैं आप।

आपका लिखा हमेशा की तरह से सारगर्भित और सत्य के करीब है। सत्य के करीब? हाँ, शायद...बहुतों के लिये। किंतु हर परिस्थिति में ये सच नहीं है रंजना जी। कई बार क्षमा कर देना मानो अपने वास्तविक कर्तव्य से खुद को विमुख करना है। क्या वो उचित है? आपने उदाहरण दिये कुछ, मानता हूं। लेकिन वो बस सच का एक पहलु है, एक हिस्सा है बस। कई और पहलु भी हैं, कितने ही और हिस्से हैं इस सच के जो बहुत ज्यादा भयावह हैं...बहुत ज्यादा भयावह होते हैं, जहाँ इस "क्षमा" जैसे शब्द का कोई औचित्य नहीं रह जाता। वो बस एक किताबी लफ़्ज़ बन कर रह जाता....यकीन मानिये!

चलिये, कभी फुरसत में आपके इस पोस्ट पर कुछ और लिखने का प्रयास करूंगा।

गौतम राजऋषि said...

पुनःश्च-
ऊपर अनुराग जी ने दो उदाहरण देकर एक पक्ष तो स्पष्ट कर ही दिया है, जो मैं कहना चाहता था।

डॉ. महफूज़ अली (Dr. Mahfooz Ali) said...

aapne bahut achchi baaten batayi.... kshama ka mahatva bhi pata chala........

Arshia Ali said...

छमा करना सुनने में आसान लगता है पर करने में बहुत ही कठिन। लेकिन यदि आपने इसे सीख लिया और अपने व्यक्तित्व में उतारलिया, तो फिर जिंदगी की राहें बेहद आसान हो जाती हैं।
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स्त्री के चरित्र पर लांछन लगाती तकनीक।
चार्वाक: जिसे धर्मराज के सामने पीट-पीट कर मार डाला गया।

BrijmohanShrivastava said...

क्या किया जाये ज्यादातर सोच नकारात्मक ही होते है ,सब यह चाह्ते हैं और कहते भी है कि यह नही होना चाहिये मगर होता है ।अपना कोई कही दूसरे शहर मे हो ,या रेल से आरहा हो और कोई घट्ना सुनने मे आये तो चिन्ता हो ही जाती है ।दूसरों की क्या कहूं एक दिन आफ़िस मे लेट हो गया ,घर आया तो दरवाजे पर ये खडी रो रही थी,देखते ही खुश हो कर बोलीं अच्छा हुआ तुम आगये मेरी तो जान निकली जा रही थी ।मैने कहा मै कोई बच्चा हूं जो खो जाउंगा , बोली ऐसी बात नही है ,वो तो नल पर कुछ औरते बातें कर रही थी कि एक बेवकूफ़ किस्म का पागल सा आदमी थोडी देर पहले बस से कुचल कर मर गया ।अब तुम्ही कहो ...

सागर नाहर said...

नहीं रंजना जी इतना आसान नहीं क्षमा कर देना। कई बार मैने क्षमा कर खुद को मूर्ख साबित होते देखा है।
उफ्र जितने लोगों ने आपसे सहमति जताई है, समय आने पर; विश्वास कीजिये वे भी किसी को इतनी आसानी से क्षमा नहीं कर पायेंगे।
धन्यवाद।
॥दस्तक॥|
गीतों की महफिल|
तकनीकी दस्तक

Prem Farukhabadi said...

uchit samay par uchit faisale uchit lagte hain.chhama,daya, karuna kuchh aise shabd hain jinka apne aap mein ek mahatv hai magar inka upyog vivek dwara hona chahiye. sundar lekh ke liye badhai!!

श्याम जुनेजा said...

AAPKA YE LEKHAN.. ASUNDAR MEIN BHI SOUNDARY KI PRATETEE HONE LAGE VAH VYAKTI SOUNDARY KO PAR KAR SHIVATAV KA SADHAK HO JATA HAI JEEVAN KA SATY USSE ADHIK DOOR NAHIN HOTA ... AISE CHINTAN PAR AAPKO BADAI DENA BAHUT CHOTI BAT HOGI .. ITNA HI KAHOONGA LAKSHY VEDH KARO ...JEEVAN; SAMAJ AUR SANSAR SE KAHIN KAHIN AAGE KI CHEEZ HAI AUR ATYADHBUT ..

pran sharma said...

RANJANA JEE KE HRIDAY SE NIKLEE
HAR BAAT KE AAGE MAIN NATMASTAK
HOON.KHOOB LIKHTEE HAIN VE .MUN
AASHVAST HO JAATAA.

Manish Kumar said...

सही कहा आपने। पर किसी विश्वासघाती को क्षमा दें भी दें तो वो क्या पूर्ण क्षमा हो पाती है। भले ही हम उसका अहित ना चाहें पर जो जगह दिल में उसके लिए पहले से बनी होती है वो फिर कहाँ बन पाती है?

satish kundan said...

aapki lekh bahut kuch sikha gai...shukriya!!!!!mere blog par aapka swagat hai...

लता 'हया' said...

shukria,
tathya,satya,sacchai,acchai se bharpur art.

बाल भवन जबलपुर said...

Adabhut

Abhishek Ojha said...

क्षमा कर देना या बीती निगेटिव बातों को भूल जाना, इग्नोर करना निश्चित रूप से एक अच्छा गुण है. पर सबके बस की बात नहीं लगती !

Sulabh Jaiswal "सुलभ" said...

क्षमादान से वस्तुतः दूसरों का नहीं सबसे अधिक भला अपना ही होता है.जब तक दुखद स्मृतियाँ अपने अंतस में संरक्षित रहती हैं,वे हमारे सकारात्मक सोच को बाधित करती है,हमें सुखी नहीं होने देती..सच्चे सुख की अभिलाषा हो तो उन सभी साधनों को अंगीकार करना चाहिए,जो हमारी नकारात्मकता न नाश करती हो.व्यक्ति में अपरिमित प्रतिभा क्षमता होती है,जिसका यदि सकारात्मक उपयोग किया जाय तो अपने साथ साथ अपने से जुड़े असंख्य लोगों के हित हम बहुत कुछ कर सकते हैं.ऐसे जीवन का क्या लाभ यदि इसकी पूरी अवधि में हम किसी को सुख और खुशियाँ न दे पायें..


यही सार है.

आपकी यह पोस्ट साकारत्मक और समस्त समाज हित में है. धन्यवाद आपका!

Alpana Verma said...

इस से पूर्व 'समालोचना ' पर भी आप का लेख बहुत प्रभावशाली था.
और अब यह लेख भी सकारात्मक सोच खुद में विकसित करने पर बल दे रहा है, जो हर व्यक्ति के अपने खुद के व्यक्तित्व के विकास के लिए ज़रूरी है.
आप ने विभिन्न उदाहरण भी दिए हैं जिस से लेख में मजबूती आ गयी है.
आशा है इस लेख को पढ़कर नकारात्मक सोच रखने वाले व्यक्ति आत्मावलोकन कर खुद में बदलाव ला सकेंगे.
आभार.

ललितमोहन त्रिवेदी said...

रंजना जी ,
आपके आलेखों में संवेदना के साथ साथ एक गहन विचारात्मकता भी होती है इसलिए इन पर सहज ही टिप्पणी नहीं की जा सकती ! आपकी विद्वता और विषय पर सूक्ष्म पकड़ प्रभावित करती है ! क्षमा शब्द जितना सरल दिखता है उतना है नहीं ,इसके लिए ह्रदय की उदात्तता और अहम् का विसर्जन दौनों ही ज़रूरी हैं ! आम आदमी का अहम् बहुत बड़ा होता है औरविडम्बना यह कि वह उससे प्रेम भी करने लगता है इसलिए प्रायश्चित करने वाले को तो वह क्षमा कर भी देता है परन्तु मन की किसी गहरी कन्दरा में छुपे शत्रु को वह क्षमा नहीं कर पाता जबतक कि किसी अन्य विधि द्वारा उसकी गांठ न खोली जाय फिर चाहे वह रेकी हो ध्यान हो या हो संवेदना का कोई गहरा आघात !

अमिताभ त्रिपाठी ’ अमित’ said...

Ranjana ji,
sakaratmak soch ke moti hain aapaki is post me. Janate sab hain lekin bhule se rahate hain. Ise padh kar aaj mujhe tatkaalik laabh hua. iske liye abhaar.

Arshia Ali said...

एक कहावत याद आ रही है क्षमा बड़न को चाहिए..
वाकई क्षमा से बड़ा कोई मानवीय गुण नहीं।
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और अब दो स्क्रीन वाले लैपटॉप।
एक आसान सी पहेली-बूझ सकें तो बूझें।

شہروز said...

शुभ अभिवादन! दिनों बाद अंतरजाल पर! न जाने क्या लिख डाला आप ने! सुभान अल्लाह! खूब लेखन है आपका अंदाज़ भी निराल.खूब लिखिए. खूब पढ़िए!