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1.6.11

प्रेम पत्र....

अपार उर्जा उत्साह उस्तुकता आशाओं आकांक्षाओं और स्वर्णिम भविष्य के संजोये स्वपनों से भरा किशोर वय जब पहली बार उस देहरी को लांघता है जिसके बाद उसकी वयस्कता को सामाजिक मान्यता मिलती है,उसे समझदार और समर्थ माना जाने लगता है,बात बात पर बच्चा ठहराने के स्थान पर अचानक हर कोई उसे, अब तुम बच्चे हो क्या ?? कहने लगते हैं, तो वह नव तरुण हर उस विषय को जान लेने को उत्कंठित हो उठता है, जिसतक आजतक उसकी पहुँच नहीं थी...यह रोमांचक देहरी होती है महाविद्यालय की देहरी..

बुद्धि चाहे जितनी विकसित हुई हो तब तक, पर एक तो बचपने के तमगे से मुक्ति की छटपटाहट और दूसरे बारम्बार अपने लिए बच्चे नहीं रह जाने की उद्घोषणा उस वय को स्वयं को परिपक्व युवा साबित करने को प्रतिबद्ध कर देती है. और फिर इस क्रम में जो प्रथम प्रयास होता है,वह होता है प्रेम व्रेम, स्त्री पुरुष सम्बन्ध आदि उन विषयों का अधिकाधिक ज्ञान प्राप्ति का प्रयास जो आज तक नितांत वर्ज्य प्रतिबंधित घोषित कर रखा गया था इनके लिए... पर विडंबना देखिये, उक्त तथाकथित बड़े से बड़ा और समझदार होने की अपेक्षा तो सब करते हैं, पर उसके आस पास के सभी बड़े इस चेष्टा में अपनी समस्त उर्जा झोंके रहते हैं कि इस गोपनीय विषय तक उनके बच्चों की पहुँच किसी भांति न हो पाए . यह अनभिज्ञता उनके गृहस्थ जीवन तक इसी प्रकार बनी रहे, इसके लिए उससे हर बड़े ,हर प्रयत्न और प्रबंध किये रहते हैं...

समय के साथ जैसे जैसे समाज में खुलापन आता गया है, टी वी सिनेमा इंटरनेट आदि माध्यमों ने इस प्रकार से सबकुछ सबके लिए सुलभ कराया है, कि जो और जितना ज्ञान हमारे ज़माने के बच्चों को बीस बाइस या पच्चीस में प्राप्त होता था, बारह ग्यारह दस नौ करते अब तो सात आठ वर्ष के बच्चों को सहज ही उतना प्राप्त हो जाता है..आज मनोरंजन के ये असंख्य साधन बच्चों को जल्द से जल्द वयस्क बन जाने और अपनी वयस्कता सिद्ध करने को प्रतिपल उत्प्रेरित प्रतिबद्ध करते रहते हैं..

खैर, बात हमारे ज़माने की..एकल परिवार के बच्चे हम सिनेमा और कुछेक कथा कहानी उपन्यासों को छोड़ प्रणय सम्बन्ध और प्रेम पत्र ,रोमांटिसिज्म प्रत्यक्षतः देख सीख जान पाने के अवसर कहीं पाते न थे. घर में जबतक रहे, जिम्मेदारियों के समय " इतने बड़े हो गए, इतना भी नहीं बुझाता " और इन वयस्क विषयों के समय निरे बच्चे ठहरा दिए जाते थे..सिनेमा काफी छानबीन के बाद दिखाया जाता था,जिसमे ऐसे वैसे किसी दृश्य की कोई संभावना नहीं बचती थी और विवाह से ढेढ़ साल पहले जब घर में टी वी आया भी तो दूरदर्शन पर दिखाए जा रहे किसी सिनेमा में जैसे ही किसी ऐसे वैसे दृश्य की संभावना बनती , हमें पानी लाने या किसी अन्य काम के बहाने वहां से भगा दिया जाता था..जानने को उत्सुक हमारा मन, बस कसमसाकर रह जाता था..

उधर जब बी ए में छात्रावास गए भी तो वह तिहाड़ जेल को भी फेल करने वाला था..बड़े बड़े पेड़ों से घिरे जंगलों के विशाल आहाते में एक चौथाई में छात्रावास था और बाकी में कॉलेज. चारों ओर की बाउंड्री बीस पच्चीस फीट ऊँची, जिसपर कांच कीले लगी हुईं. छात्रावास और कॉलेज कम्पाउंड के बीच ऊंचा कंटीले झाड़ों वाला दुर्गम दीवार और कॉलेज कैम्पस में खुलने वाला एक बड़ा सा गेट जो कॉलेज आवर ख़त्म होते ही बंद हो जाता था..ग्रिल पर जब शाम को हम लटकते तो लगता कि किसी जघन्य अपराध की सजा काटने आये हम जेल में बंद अपराधी हैं..जबतक हमसे दो सीनियर बैच परीक्षा दे वहां से निकले नहीं और हम सिनियरत्व को प्राप्त न हुए यह जेल वाली फिलिंग कुछ कम होती बरकरार ही रही..लेकिन हाँ,यह था कि समय के साथ जैसे जैसे सहपाठियों संग आत्मीयता बढ़ती गई, ढहती औपचारिकता की दीवार के बीच से इस विषय पर भी खुलकर बातें होने लगीं और अधकचरी ही सही,पर ठीक ठाक ज्ञानवर्धन हुआ हमारा...

अब संस्कार का बंधन कहिये या अपने सम्मान के प्रति अतिशय जागरूकता, कि विषय ज्ञानवर्धन की अभिलाषा के अतिरिक्त व्यवहारिक रूप में यह सब आजमा कर देखने की उत्सुकता हमारे ग्रुप में किसी को नहीं थी..बल्कि पढ़ाई लिखाई को थोडा सा साइड कर मेरी अगुआई में हमारा एक छोटा सा ग्रुप तो इस अभियान में अधिक रहता था कि हमारे सहपाठियों से लेकर जूनियर मोस्ट बैचों तक में इस तरह के किसी लफड़े में फंस किसी ने कुछ ऐसा तो न किया जिससे हमारे छात्रावास तथा उन विद्यार्थियों के अभिभावकों का नाम खराब होने की सम्भावना बनती हो ..आज के बजरंग दल, शिव सैनिक या इसी तरह के संस्कृति रक्षक संगठन वेलेंटाइन डे पर प्रेमियों के खिलाफ जैसे अभियान चलाते हैं, उससे कुछ ही कमतर हमारे हुआ करते थे..यही कारण था कि छात्रावास प्रबंधन के हम मुंहलगे और प्रिय थे.

तो एक दिन इसी मुंहलगेपन का फायदा उठाते हुए हमने कमरा शिफ्ट करती,करवाती परेशान हाल अपनी छात्रावास संरक्षिका से पेशकश की कि हम उनकी मदद कर के ही रहेंगे..बाकी कर्मचारी इस काम में लगे हुए थे, हमारी कोई आवश्यकता इसमें थी नहीं, पर फिर भी हम जी जान से लग गयीं कि यह अवसर हमें मिले और अंततः मैं और मेरी रूम मेट सविता ने उन्हें इसके लिए मना ही लिया... असल में हमारे छात्रावास से जाने और आने वाले दोनों ही डाक (चिट्ठियां) पहले छात्रावास की मुख्य तथा उप संरक्षिका द्वारा पढ़ी जातीं थीं, उसके बाद ही पोस्ट होती थी या छात्रों में वितरित होती थी. यहाँ से जाने वाले डाक में तो कोई बात नहीं थी..कौन जानबूझकर ऐसी सामग्रियां उनके पढने को मुहैया करवाता,पर आने वाले डाकों पर इन कारगुजारियों में लिप्त लड़कियां पूर्ण नियंत्रण नहीं रख पातीं थीं..छात्रावास का पता इतना सरल था कि यदि कोई विद्यार्थी का नाम और पढ़ाई का वर्ष जान लेता तो आँख मूंदकर चिट्ठी भेज सकता था..और जो ऐसी चिट्ठी आ जाती,तो जो सीन बनता था..बस क्या कहा जाय..यूँ सीन बनकर भी ये चिट्ठियां कभी उन्हें मिलती न थी जिसके लिए होती थी,बल्कि ये सब प्रबंधिका के गिरफ्त में ऑन रिकोर्ड रहती थीं...

इस सहायता बनाम खोजी अभियान में जुटे  छोटे मोटे सामान इधर से उधर पहुँचाने के क्रम में हमने वह भण्डार खोज ही लिया..शाल के अन्दर छुपा जितना हम वहां से उड़ा सकते थे, उड़ा लाये. और फिर तो क्या था, प्रेम पत्रों का वह भण्डार कई महीनों तक हमारे मनोरंजन का अन्यतम साधन बना रहा था.प्रत्यक्ष रूप में मैंने पहली बार प्रेम पत्र पढ़े.वो भी इतने सारे एक से बढ़कर एक..

एक पत्र का कुछ हिस्सा तो आज भी ध्यान में है...


" मेरी प्यारी स्वीट स्वीट कमला,

(इसके बाद लाल स्याही से एक बड़ा सा दिल बना हुआ था,जिसमे जबरदस्त ढंग से तीर घुसा हुआ था..खून के छींटे इधर उधर बिखरे पड़े थे और हर बूँद में कमला कमला लिखा हुआ था)
ढेर सारा किस "यहाँ ".."यहाँ".. "यहाँ"..." यहाँ "....
(उफ़ !!! अब क्या बताएं कि कहाँ कहाँ )
......

तुम क्यों मुझसे इतना गुस्सा हो..दो बार से आ रही हो, न मिलती हो, न बात करती ही,ऐसे ही चली जाती हो..अपने दूकान में बैठा दिन रात मैं तुम्हारे घर की तरफ टकटकी लगाये रहता हूँ कि अब तुम कुछ इशारा करोगी,अब करोगी..पर तुमने इधर देखना भी छोड़ दिया है..क्या हुआ हमारे प्यार के कसमे वादे को? तुम इतनी निष्ठुर कैसे हो गयी कमला..?

( काफी लंबा चौड़ा पत्र था.. अभी पूरा तो याद नहीं, पर कुछ लाजवाब लाइने जो आज भी नहीं झरीं हैं दिमाग से वे हैं -)


देखो तुम इतना तेज सायकिल मत चलाया करो..पिछला बार जब इतना फास्ट सायकिल चलाते मेरे दूकान के सामने से निकली ,घबराहट में दो किलो वाला बटखरा मेरे हाथ से छूट गया और सीधे बगल में बैठे पिताजी के पैर पर गिरा..पैर थुराया सो थुराया..तुम्हे पता है सबके सामने मेरी कितनी कुटाई हुई..सब गाहक हंस रहा था..मेरा बहुत बुरा बेइजत्ती हो गया...लेकिन कोई गम नहीं ...जानेमन तुम्हारे लिए मैं कुछ भी सह सकता हूँ...


और तुम आम गाछ पर इतना ऊपर काहे चढ़ जाती हो....उसदिन तुम इतना ऊंचा चढ़ गयी थी, तुम्हारी चिंता में डूबे मैंने गाहक के दस के नोट को सौ का समझकर सौदा और अस्सी रुपये दे दिया ..वह हरामी भी माल पैसा लेकर तुरंत चम्पत हो गया..लेकिन तुम सोच नहीं सकती पिताजी ने मेरा क्या किया...प्लीज तुम ऐसा मत किया करो..

बसंत अच्छा लड़का नहीं है.कई लड़कियों के साथ उसका सेटिंग है...तुम्हारे बारे में भी वह गन्दा गन्दा बात करता है, तुम मिलो तो तुमको सब बात बताएँगे...तुमको पहले भी तो मैं बताया हूँ फिर भी तुम उससे मिलती हो,हंस हंस के बात करती हो..क्यों करती हो तुम ऐसा...वह तुम्हे पैसा दे सकता है,बहुत है उसके पास..पर प्यार मैं तुम्हे दूंगा..
...... .......... ............


यह कमला कौन थी और उसकी निष्ठुरता का कारण क्या था,यह जानने की उत्सुकता हमारी वर्षों बरकरार रही...

* * *
देह दशा में हमसे बस बीस ही थी श्यामा ( हमारा किया नामकरण ) ,पर उसकी शारीरिक क्षमता हमसे चौगुनी थी..जब कभी हम बाज़ार जाते और सामान का वजन ऐसा हो जाता कि लगता अब इज्जत का विचार त्याग उसे सर पर उठा ही लेना पड़ेगा, श्यामा संकट मोचन महाबलशाली हनुमान बन हमारा सारा भार और संकट हर लेती..या फिर जब महीने दो महीने में कभी छात्रावास का पम्प खराब हो जाने की वजह से पहले माले तक के हमारे बाथरूम में समय पर पानी न पहुँच पाता और कम्पाउंड के चापाकल से पानी भर बाथरूम तक पानी ले जाने की नौबत बनती ,जहाँ मैं और सविता मिल एक बाल्टी पानी में से आधा छलकाते और पंद्रह बार रखते उठाते कूँख कांखकर आधे घंटे में पानी ऊपर ले जाते थे,श्यामा हमारे जम्बोजेट बाल्टियों में पूरा पानी भर दोनों हाथों में दो बाल्टी थाम, एक सांस में ऊपर पहुंचा देती थी.चाहे शारीरिक बल का काम हो या उन्घाये दोपहर में क्लास अटेंड कर हमारे फेक अटेंडेंस बना हमारे लिए भी सब नोट कर ले आने की बात , सरल सीधी हमारी वह प्यारी सहेली हमेशा मुस्कुराते हुए प्रस्तुत रहती थी..असीमित अहसान थे उसके हमपर..हम हमेशा सोचा करते कि कोई तो मौका मिले जो उसके अहसानों का कुछ अंश हम उतार पायें...

ईश्वर की कृपा कि अंततः एक दिन हमें मौका मिल ही गया..कुछ ही महीने रह गए थे फायनल को, फिर भी दोपहर की क्लास बंक कर हम होस्टल में सो रहे थे और सदा कि भांति श्यामा पिछली बैंच पर बैठ हमारा अटेंडेस देने और नोट्स लाने को जा चुकी थी..गहरी नींद में पहुंचे अभी कुछ ही देर हुआ था कि हमें जोर जोर से झकझोरा गया..घबरा कर अचकचाए क्या हुआ क्या हुआ कह धड़कते दिल से हम उठ बैठे..देखा श्यामा पसीने से तर बतर उखड़ी साँसों से बैठी हुई है.. पानी वानी पीकर जब वह थोड़ी सामान्य हुई तो पता चला कि आज बस भगवान् ने खड़ा होकर उसकी और हमारे पूरे ग्रुप की इज्जत बचाई है..

हुआ यूँ कि जब वह क्लास करने जा रही थी, गेट से निकली ही थी कि छात्रावास की डाक लेकर आ रहा डाकिया पता नहीं कैसे उससे कुछ दूरी पर गिर गया और उसका झोला पलट गया..श्यामा उसकी मदद करने गयी और बिखरी हुई चिट्ठियां बटोर ही रही थी कि उसकी नजर एक सबसे अलग ,सबसे सुन्दर लिफ़ाफ़े पर पडी जिसपर कि उसीका नाम लिखा हुआ था..डाकिये को किसी तरह चकमा दे उसने अपना वह पत्र पार किया था और जो बाद में खोला तो देखा उसके नाम प्रेम पत्र था.

उसकी बात सुन पल भर को थरथरा तो हम भी गए..पर फिर उसे ढ़ाढस बंधा हमने इसकी तफ्शीस शुरू की..पता चला कि यह युवक श्यामा से कुछ महीने पहले किसी रिश्तेदार की शादी में मिला था और उससे इतना अधिक प्रभावित हुआ था कि उसने श्यामा के घर विवाह का प्रस्ताव भेजा था..श्यामा के समाज में रिश्ते लड़कीवाले नहीं लड़केवाले मांगने आते थे और जैसे नखरे हमारे समाज में लड़केवालों के हुआ करते हैं,वैसे इनके यहाँ लड़कीवालों के हुआ करते थे.. चूँकि इनके समाज में उन दिनों पढी लिखी लड़कियों की बहुलता थी नहीं, तो श्यामा जैसी लड़कियों का भारी डिमांड था. थे तो वे एक ही बिरादरी के और लड़का काफी पढ़ा लिखा और अच्छे ओहदे पर था, पर शायद कुछ पारिवारिक कारण रहे होंगे जो श्यामा के परिवार को यह रिश्ता स्वीकार्य नहीं था..

खैर, हम तो हिस्ट्री ज्योग्राफी जान जुट गए प्रेम पत्र पढने में..लेकिन जो पढना शुरू किया तो दिमाग खराब हो गया..छः सात लाइन पढ़ते पढ़ते खीझ उठे हम..

" ई साला शेक्सपीयर का औलाद, कैसा हार्ड हार्ड अंगरेजी लिखा है रे...चल रे, सबितिया जरा डिक्सनरी निकाल,ऐसे नहीं बुझाएगा सब ..." और डिक्सनरी में अर्थ ढूंढ ढूंढ कर पत्र को पढ़ा गया..एक से एक फ्रेज और कोटेशन से भरा लाजवाब साहित्यिक प्रेम पत्र था... पत्र समाप्त हुआ तबतक हम तीनो जबरदस्त ढंग से युवक के सोच और व्यक्तित्व से प्रभावित हो चुके थे..

गंभीर विमर्श के बाद  हमने श्यामा को सुझाव दिया कि पढ़े लिखे सेटल्ड सुलझे हुए विचारों वाले ऐसे लड़के और रिश्ते को ऐसे ही नहीं नकार देना चाहिए...न ही जल्दीबाजी में हां करना चाहिए न ही न.. कुछ दिन चिट्ठियों का सिलसिला चला, उसके सोच विचार के परतों को उघाड़ कर देख लेना चाहिए और तब निर्णय लेना चाहिए.ठीक लगे तो माँ बाप को समझाने का प्रयास करना चाहिए.और जो वे न माने तो प्रेम विवाह यूँ भी उनके समाज में सामान्य बात है.. नौबत आई तो यहाँ तक बढा जा सकता है..

तो निर्णय हुआ कि इस पत्र का जवाब दिया ही जाय..लेकिन समस्या थी, कि जैसा पत्र आया था,उसके स्तर का जवाब, जिससे श्यामा की भी धाक जम जाए, लिखे तो लिखे कौन..श्यामा तो साफ़ थी, क्या अंगरेजी और क्या साहित्यिक रूमानियत.. सविता की अंगरेजी अच्छी थी, तो हम पिल पड़े उसपर ...खीझ पड़ी वह-
" अबे, अंगरेजी आने से क्या होता है, लिखूं क्या, हिस्ट्री पोलिटिकल साइंस " ...

बात तो थी...सब पहलुओं पर विचार कर यह ठहरा कि साहित्यिक स्तर का प्रेम पत्र अगर कोई लिख सकता है तो वह मैं ही हूँ..पर मेरी शर्त थी कि मैं लिखूंगी तो हिन्दी में लिखूंगी..तो बात ठहरी पत्र हिन्दी में मैं लिखूंगी, सविता उसका इंग्लिश ट्रांसलेशन करेगी और फिर श्यामा उसे अपने अक्षर में फायनल पेपर पर उतारेगी.. इसके बाद अभियान चला लेटर पैड मंगवाने का , क्योंकि अनुमानित किया गया था कि जिस पेपर और लिफ़ाफ़े में पत्र आया है एक कम से कम बीस पच्चीस रुपये का तो होगा ही होगा ,तो जवाब में कम से कम दस का तो जाना ही चाहिए..

और जीवन में पहली बार (आगे भी कुछ और) मैंने जो प्रेम पत्र लिखा, अपनी उस सहेली के लिए लिखा, जबकि उस समय तक मेरा कट्टर विश्वास था कि मुझे कभी किसी से प्रेम हो ही नहीं सकता,यदि मेरा वश चले तो जीवन भर किसी पुरुष को अपने जीवन और भावक्षेत्र में फटकने न दूं, क्योंकि पुरुष, पिता भाई चाचा मामा इत्यादि इत्यादि रिश्तों में रहते ही ठीक रहते हैं, स्त्री का सम्मान करते हैं,एक बार पति बने नहीं कि स्त्री स्वाभिमान को रौंदकर ही अपना होना सार्थक संतोषप्रद मानते हैं...

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(स्मृति कोष से- )
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15.2.11

प्रेम पर्व ..



प्रेम का पावन साप्ताहिकी अनुष्ठान  हर्षोल्लास के साथ अंततः संपन्न हुआ. एक दो दिन में आंकड़े आ जायेंगे कि इन सात दिनों में फूल,कार्ड तथा गिफ्ट आइटमों का कितने का कारोबार हुआ है. खैर, कल पूरे दिन मुझे मेरी नानी याद आती रही. मन कचोट कचोट जाता रहा कि आज अगर वे होतीं तो कितना मजा आता..उन्हें इस पर्व के बारे में हम बताते और उनकी प्रतिक्रिया देखते. अपना क्या कहें, प्रेम-प्यार, परिवार विस्तार सब हो कर एक दशक से अधिक बीत गया, तब जाकर पहली बार इस पुनीत पर्व का नाम सुनने का सौभाग्य मिला .. भकुआए हम, पतिदेव से पूछे , ई का होता है जी, अखबार ,टी वी सब में इ नाम का घनघोर मचा हुआ है. पहले तो घुड़कते हुए उन्होंने मेरा गड़बड़ाया उच्चारण सुधारा, फिर मेरे गँवईपन की जमकर खिल्ली उडी और तब जाकर इस पावन पर्व की महत कथा श्रवण का सुयोग  मिला.. उस दिन भी सबसे पहले ध्यान में नानी ही आई थी...मन में आया कि अविलम्ब ट्रेन पकड़ नानी के पास जाऊं और उन्हें यह सब सविस्तार बताऊँ...पर अफ़सोस कि मैंने ट्रेन पकड़ने में देर कर दी और जबतक मैं उनके पास जाती उन्होंने गोलोकधाम की ट्रेन पकड़ ली..


हमारे गाँव में नया नया सिनेमा हाल खुला. अब यह अलग बात थी कि मिट्टी की दीवार और फूंस की टट्टी से छराया वह गोहाल टाईप हाल केवल प्रोजेक्टर और परदे के कारण सिनेमा हाल कहलाने लायक था, पर हमारे लिए तो वह किसी मल्टीप्लेक्स से कम न था. क्या क्रेज था उसका.ओह... हम भाई बहन तो भाग कर दो तीन बार उधर हो आये थे ,पर बेचारी मामियों को इसका सौभाग्य न मिला था..उसपर भी जब हम आनंद रस वर्णन सरस अंदाज में उनके सम्मुख परोसते तो बेचारियाँ हाय भरकर रह जातीं थीं..खैर उनकी हाय हमारे ह्रदय तक पहुँच हमें झकझोर गई और हमने निर्णय लिया कि नानी को पटा मामियों का सौभाग्य जगाया जाय. तो बस दो दिनों तक नानी के पीछे भूत की तरह लग आखिर उन्हें इसके लिए मना ही लिया..

नानी के गार्जियनशिप में घर की सभी बहुएं, दाइयां ,नौकर और हम भाई बहन मिला करीब तीस पैंतीस लोग सिनेमा देखने गए..उस अडवेंचर और आनंद का बखान शब्दों में संभव नहीं..पर उससे भी आनंद दायक रहा कई माह तक नानी का उस फिल्म के प्रणय दृश्यों पर झुंझलाना और गरियाना. नानी को घेर हम प्रसंग छेड़ देते और फिर जो नानी उसपर अपनी टिपण्णी देती कि, ओह रे ओह...

" पियार ..पियार ..पियार ...ई का चिचियाने ,ढिंढोरा पीटने का चीज है...कोई शालीनता लिहाज,लाज होना चाहिए कि नही..." जिस अंदाज में वे कहतीं कि हँसते हँसते पेट में बल पड़ जाता...

एक बार घर के सारे पुरुष सदस्य रिश्तेदारी में शादी में चले गए थे. घर में बच गयीं मामियां, बाल बुतरू, नानी और नानाजी. जाते तो नानाजी भी ,लेकिन उनकी तबियत कुछ सुस्त थी सो वे घर पर ही रुक गए थे. इधर पुरुषों को निकले एक पहर भी नहीं बीता था कि उल्टी दस्त और बुखार से नानाजी की स्थिति गंभीर हो गई. वैद जी बुलाये गए. उन्होंने कुछ दवाइयाँ दीं जिसे कुछ कुछ देर के अंतराल पर देनी थी.. लेकिन समस्या थी कि घर में बहुओं के आने के बाद से वर्षों से ही नानाजी दरवाजे (बैठक ) पर ही रहते आये थे, जहाँ घर की स्त्रियाँ जाकर रह नहीं सकती थीं. तो मामियों ने जोर देकर नानाजी को जनानखाने में बुलवाया और खूब फुसला पनियाकर नानीजी को उनकी सेवा में लगाया. एक तरफ पति की बीमारी की चिंता और दूसरी तरफ बहुओं से लिहाज के बीच नानी का जो हाल हमने देखा था, आज भी नहीं भूल पाए हैं..

उम्र के साथ नानीजी के आँख की रौशनी तेजी से मंद पड़ती जा रही थी..नमक की जगह चीनी और दस टकिये की जगह सौ टकिये का लोचा लगातार ही बढ़ता चला जा रहा था..सब समझाते डॉक्टर को दिखाने को, पर नानी टालती जाती थी. पर एक बार जब सात मन आटे के ठेकुए में चार मन नमक डाल  आटा मेवा घी आदि की बलि चढी जिसे कुत्ते और गोरू भी सूंघकर छोड़ देते थे, तो नानी डाक्टर को दिखाने को राजी हुईं. डॉक्टर ने देखा और चश्मा बन गया...

दो दिन बाद मामा जी ने नानी से पूछा , अब तो ठीक से दिख रहा है न माँ, कोई दिक्कत नहीं न. सुस्त सी आवाज में उन्होंने कहा, हाँ बेटा ठीक ही है..मामा ने कहा,ठीक है, तो ऐसे मरियाये काहे कह रही है..तो नानी ने तुरंत बुलंद आवाज में भरोसा दिलाया कि ,सब ठीक है,बढ़िया है..लेकिन मामाजी ताड़ गए थे,उनके पीछे पड़ गए..तब उन्होंने बताया कि डॉक्टर जब आँख पर शीशा लगा रहा था, तो एक जो शीशा उसने लगाया,जैसे ही लगाया ,भक्क से सब उजियार हो गया,सब कुछ दिखने लगा..

मामा परेशान..तो क्या इस शीशा से ठीक से नहीं दिखा रहा ???

नानी - दिखा रहा है बेटा..काम चल जा रहा है..पर उ बेजोड़ था..

मामा अधिक परेशान - तो फिर ई वाला शीशा काहे ली..

नानी- ऐसे ही पैसा लगा देती ???

मामा - माने ?????

नानी- अरे, जादा दीखता तो जादा पैसा लगता न....

नानी ने कम दिखाई पड़ने वाले शीशे से काम चला अपने पति पुत्र का पैसा बचा लिया था...

आदमी तो आदमी कुत्ते बिल्ली से भी नानी प्रेम करतीं थीं. घर के सारे कुत्ते बिल्ली नानी के आगे पीछे  डोलते रहते थे..बिल्लियाँ तो उनके कर(शरीर) लग ही सोती थीं ..गाँव भर में मियाँ बीबी की लड़ाई हो या किसीके घर कोई बीमार पड़े. नानी वहां उपस्थित होतीं थीं..सारे गाँव का दुःख दर्द,पौनी पसारी(मेहमान) नानी के अपने थे..देवीं थीं वे सबके लिए..नानी नाना से लगभग पच्चीस वर्ष छोटी थीं ,लेकिन नानाजी के देहांत के बाद उनकी बरखी से पहले ही उनका साथ निभाने चट पट दुनियां से निकल गयीं. नानाजी के साथ ही जैसे उनका जीवन सोत भी सूख गया .. नानाजी गुजरे उस समय भी उन्हें अटैक आया था,पर यह तब लोग जान पाए जब नानाजी के बरखी के पहले उन्हें मेजर अटैक आया..शहर के सबसे बड़े अस्पताल में उन्हें भरती कराया गया. सबकी दुआ थी कि हफ्ते भर में वे आई सी यू से बाहर आ गयीं... केबिन में उन्हें रखा गया और डॉक्टर ने कहा कंडीशन ठीक रहा तो चार दिन बाद डिस्चार्ज कर देंगे..

जीवन भर पूरे टोले मोहल्ले घर घर को नानी ने जितना प्यार बांटा था, उन्हें देखने वालों का अस्पताल में तांता लगा हुआ था..नानी के उन्ही भक्तों में से एक अभागे ने मामा लोगों की बड़ाई कर नानी को सुखी करने के ख़याल से कह दिया..." ऐसे बेटे भगवान् सबको दें. लाखों लाख बाबू उझल दिए अपनी माँ पर, पर माथे पर शिकन नहीं लाये ,यही तो है आपकी कमाई .. और का चाहिए जीवन में..".. बस इतना काफी था उनके लिए. बेटों का पैसा पानी हो,यह वे बर्दाश्त कर सकतीं थीं ?? दो मिनट के अन्दर उन्होंने प्राण त्याग दिया...

प्रेम क्या होता है ,कैसे निभाया जाता है, मेरे कच्चे मन ने बहुत कुछ समझा गुना था उनसे ..आज सोचती हूँ तो लगता है,व्यक्तिगत सुख के प्रति आवश्यकता से अधिक सजग, हममे क्या प्रेम कर पाने की क्षमता है????

खैर, हम भी न.. का कहने निकले थे और का कहने बैठ गए..आज अखबार में पढ़ा प्रेम पर्व विरोधी, प्रेमियों को झाडी झाडी ढूंढ ढूंढ कर परेशान किये हुए हैं (ई अलग बात है कि पुलिस भी इन संस्कृति रक्षकों को दौड़ा दौड़ा के तडिया रही है)...बड़ा खराब लगा हमको..देखिये न कैसे प्रेम का दुश्मन जमाना बना हुआ है.आज ही क्या सदियों सदियों से.. जहाँ कोई प्रेमी मिला नहीं कि उसे कीड़े की तरह मसल देने को समाज मचल उठता है..बताइये , ई भी कोई बात हुआ.अरे मिलने दीजिये प्रेमी जोड़ों को, ऐसा भी क्या खार खाना. ऐसा कीजिये कि मार काट छोडिये...प्रेमियों में प्रेम पनपे और विरह उरह वाला स्थिति आये, उससे पहले उनके प्रेम को फुल फेसिलिटेट कर परवान चढ़ा दीजिये..ब्याह शादी कर दीजिये और साल भर के लिए प्रेमी जोड़े को स्वादिष्ट भोजन पानी,ओढना बिछौना, शौचालय आदि आदि सभी सुविधाओं से लैस एक खूब सुन्दर कमरे में अच्छी तरह से केवल औ केवल प्रेम कर लेने को बंद कर दीजिये..और भर भर के कमाइए पुन्न..

वैसे मुझे लगता है लैला मजनू,शीरी फरहाद ,रोमियो जूलियट या असंख्य ऐसे जोड़ों को यदि मार डालने के स्थान पर प्रेम करने की इस तरह की एकमुश्त सुविधा दी जाती तो उन्हें मारने वालों को अपने हाथ मैले न करने पड़ते.. साल भर के लिए प्रेमी एक कमरे में सब काम छोड़ केवल प्रेम करने को बाध्य रहते तो हम दावा करते हैं छः महीना के अन्दर प्रेम प्यार साफ़ आ  कत्लेआम मच जाता.. प्रेम में विछोह रहे ,तभिये तक प्रेम प्यारा लगता है...प्रेम कर लेना तो सबसे आसान है ..पर निभाना...
एक आग का दरिया है और डूब के जाना है...

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21.12.09

स्मृति कोष से...

विशेषकर उस वय तक जबतक कि संतान पलटकर अपने अभिभावक को जवाब न देने लगे,उनकी अवहेलना न करने लगे,विरले ही कोई माता पिता अपने संतान के विलक्षणता के प्रति अनाश्वस्त होते हैं ..संसार के प्रत्येक अभिभावक जितना ही अपनी संतान में विलक्षणता के लिए लालायित रहते हैं,उतना ही सबके सम्मुख उसे सिद्ध और प्रस्तुत करने को उत्सुक और तत्पर भी रहा करते हैं.



ऐसे ही अपनी संतान की योग्यता के प्रति अति आश्वस्त आत्मविश्वास से भरे पिता ने अपनी चार वर्ष की पिद्दी सी बच्ची को संगीत कला प्रदर्शन हेतु मंच पर आसीन कर दिया..घबरायी बालिका ने सामने देखा - अपार भीड़..अपने दायें बाएं पीछे देखा...वयस्क वादक वृन्दों के सिर्फ घुटने ही घुटने .....घबराये निकटस्थ वादक के पतलून पकड़ उन्हें नीचे झुक अपनी बात सुनने का आग्रह किया और रुंधे कंठ से उनके कान में फुसफुसाई - अंकल मैं कौन सा गाना गाऊं, मुझे तो कोई भी एक पूरा गाना नहीं आता ..उन्होंने बालिका को उत्साहित करते हुए कहा..इसमें घबराने का क्या है बेटा, जो आता है जितना आता है उतना ही गा दो.. बालिका ने दिमाग पर पूरा जोर लगाया ,सुबह रेडियों पर सुनी कव्वाली का स्मरण उसे हो आया जो कि उसे बहुत पसंद भी था..कंठ में गोले से अटके आंसुओं के छल्ले को घोंट लगभग तुतलाती सी आवाज में उसने गा दिया..."झूम बराबर झूम शराबी,झूब बराबर झूम..मुखड़ा तीन बार दुहरा अंतरे का एक पद सुनाने के बाद बस, आगे सब साफ़...वादक महोदय ने आगे सुनाने का इशारा किया और बालिका ने सिर हिलाकर प्रत्युत्तर दिया,बस इतना ही आता है...


यह था मंच का मेरा पहला अनुभव, जिसे मैं इसलिए नहीं विस्मृत कर पाई हूँ कि एक पूरा गीत न जान और गा पाने के अपने अक्षमता के कारण मुझे जो ग्लानि हुई थी ,वह सहज ही विष्मरणीय नहीं और मेरे माता पिता इसलिए नहीं विस्मृत कर पाए हैं कि उनकी बेटी ने चार वर्ष के अल्पवय में मंच पर निर्भीकता से कला प्रदर्शित कर उनका नाम और मान बढ़ाते हुए प्रथम पुरस्कार जीता था.यूँ मैं आज तक निर्णित न कर पाई हूँ कि मुझे वह प्रथम पुरस्कार क्यों मिला था...


* औरों ने बहुत बुरा गाया था इसलिए,

* अन्य सभी प्रतियोगियों के चौथाई अवस्था की होने कारण मैं सहानुभूति की पात्र थी इसलिए,

* मेरे पिताजी जो अच्छे गायक के रूप में प्रतिष्ठा प्राप्त सबके चहेते थे इस कारण ,

* या फिर मेरे गीत चयन ने जो सबको हंसा हंसा कर लोट पोट करा दिया था उस कारण..


साहित्य और संगीत में अभिरुचि मेरे पिताजी को विरासत रूप में कहाँ से मिली यह तो पाता नहीं, पर मुझमे यह अभिरुचि पिताजी से ही संस्कार रूप में आई, इसके प्रति मैं अस्वस्त हूँ.विज्ञान के विद्यार्थी होते हुए भी मेरे पिताजी जितना लाजवाब गीत लिखा करते थे,उतने ही सुमधुर स्वर में गाया भी करते थे. जहाँ भी वे रहे उनके बिना वहां का कोई भी सांस्कृतिक कार्यक्रम पूर्णता न पाती थी..


स्वाभाविक ही पिताजी मुझे संगीत कला में पारंगत देखना चाहते थे,परन्तु दैव योग से हम जिन स्थानों में रहा करते थे अधिकाँश स्थानों पर संगीत प्रशिक्षण की कोई व्यवस्था ही न थी..परन्तु जब मैं लगभग नौ वर्ष की थी स्थानांतरित होकर हम जिस जगह गए थे जहाँ कि हम लगभग तीन वर्ष रहे , वहां के बांगला स्कूल के एक संगीत प्रशिक्षक के विषय में जानकारी मिलते ही पिताजी ने उन्हें जा पकड़ा..वे विद्यालय तथा अपने आवास के अतिरिक्त कहीं और जाकर सिखाते नहीं थे..पर पिताजी भी मुझे मेरे घर आ प्रशिक्षण देने के लिए ऐसे हाथ धोकर उनके पीछे पड़े कि बेचारे गुरूजी को भागने का रास्ता ही नहीं दिया.. गुरूजी ने पिताजी को बहुत समझाया कि वे रविन्द्र तथा बांग्ला गीत ही सिखाते हैं, मेरे लिए हिन्दी में सब कुछ करने के लिए उन्हें बहुत कठिनाई होगी,उसपर से मेरे घर आकर समय देने का अतिरिक्त श्रम अलग था,परन्तु पिताजी कहाँ मानने वाले थे.उन्होंने उन्हें मना ही लिया..


मेरी संगीत शिक्षा आरम्भ हुई सप्ताह में तीन दिन गुरु जी आने लगे.मेरी वयस्कों की तरह एक पूरा गीत गा पाने की वह साध अब पूर्णता पाने वाली थी.पर यह क्या,गुरु जी जो सरगम पर अटके तो आगे बढ़ने का नाम ही नहीं लेते थे.सुर और संगीत से भले मुझे लाख स्नेह था,पर उन दिनों सरगम पर ही अटके रहना मुझे नितांत ही अरुचिकर लगा करता था..ऊपर से पिताजी भी अजीब थे, अपने मित्र मंडली के समक्ष सगर्व मेरे संगीत कला की विरुदावली गाने लगते और उनके वाह कहते कि मुझे उनके समक्ष अपने संगीत ज्ञान प्रदर्शन का आदेश जारी कर देते..यह दुसह्य आदेश मेरे लिए प्राण दंड से किंचित भी कमतर न हुआ करता था ..क्योंकि ऐसे समय में जब मैं सरगम दुहरा रही होती,पिताजी तो अपना सीना चौड़ा कर रहे होते पर उनके मित्र उबासी लेने लगते..गीत न जानने की टीस उस समय मुझे असह्य पीड़ा दिया करती..


जब करीब पांच मास इसी तरह सरगम गाते बीत गए तो मेरा धैर्य चुकने लगा और एक दिन आशापूर्ण अश्रुसिक्त नयनों और रुंधे कंठ से गुरूजी के सम्मुख अपना निवेदन रखा कि अब तो सरगम पूरी तरह कंटस्थ हो गाया , मुझे गीत भी सिखाएं. संभवतः गुरु जी को मुझपर दया आ गयी और उन्होंने मेरे लिए हिन्दी गीतों की कसरत शुरू की..परन्तु इसमें भी मुझे विशेष उत्साहजनक कुछ न लगा. क्योंकि राग आधारित कोई भी गीत चार पंक्तियों से अधिक के न हुआ करते थे और मेरी अभिरुचि उन दिनों लम्बे लम्बे तानो में तनिक भी न थी. खैर अब जो था सो था.हाँ,बाद के दिनों में इसकी भरपाई मैंने चुपके से अकेले में फ़िल्मी गीतों की धुनों को हारमोनियम पर उतार कर करने के यत्न के साथ किया..


गुरूजी जो भी सिखाया करते थे,सारा मुंह्जबानी ही हुआ करता था. कहीं कुछ लिखित रूप में न था. बाकी तो सब ठीक था,परन्तु उनके सिखाये गीतों में से एक गीत,जिसे मैं लगभग डेढ़ वर्ष पूरे तान के साथ दुहराती गाती रही थी, लाख दिमाग लगा भी उसका अर्थ समझ पाने के मेरे सभी यत्न विफल रहे थे..गीत की प्रथम पंक्ति थी - "अमुवा की डार को ले गाया बोले" .यूँ व्यावहारिक ज्ञान में मैं बहुत बड़ी गोबर थी,फिर भी मुझे यह प्रथम पंक्ति खटका करती कि आखिर इसका अर्थ क्या हुआ..


इधर गुरूजी मेरे संगीत के प्रथम वर्ष की परीक्षा दिलवाने की तैयारी कर ही रहे थे और उधर पुनः मेरे पिताजी के स्थानांतरण का आदेस निर्गत हुआ..तबतक गुरूजी का मुझपर अपार स्नेह हो गया था. उन्होंने असाध्य श्रम से न जाने कहाँ कहाँ संधान करा , राग आधारित गीतों की एक पुस्तक मेरे लिए मंगवाई और उस स्थान से जाने से पहले मुझे वह उपहार स्वरुप दिया जिसमे अन्य गीतों के अतिरिक्त वे समस्त गीत भी संकलित थे,जो गुरूजी ने मुझे सिखाये थे...जब मैंने पुस्तक में उपर्युक्त गीत को देखा,तो मुझे लगा कि मेरी शंका निर्मूल नहीं थी..वर्षों पूरे तान के साथ लगभग प्रतिदिन जिस "अमुवा की डार को ले गाया बोले " को मैंने न जाने कितने सौ बार दुहराया था ,वह गीत वस्तुतः -" अमुवा की डार पर कोयलिया बोले " था......


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27.10.09

क्षमादान !!!

जन्मगत हों या स्वनिर्मित, ह्रदय से गहरे जुड़े सम्बन्ध, हमें जितना मानसिक संबल और स्नेह देने में समर्थ होते हैं,जितना हमें जोड़ते हैं, कभी वे जाने अनजाने ह्रदय को तीव्रतम आघात पहुंचा कर हमें तोड़ने में भी उतने ही प्रभावी तथा सक्षम हुआ करते हैं. स्वाभाविक है कि जो ह्रदय के जितना सन्निकट होगा, प्रतिघात में भी सर्वाधिक सक्षम होगा. कई बार तो अपनों के ये प्रहार इतने तीव्र हुआ करते हैं कि उसका व्यापक प्रभाव जीवन की दशा दिशा ही बदल दिया करते हैं, सम्पूर्ण व्यक्तित्व ही कुंठाग्रस्त हो जाया करता है. जीवन भर के लिए व्यक्ति इस दंश से मुक्त नहीं हो पाता और फिर न स्वयं सुखी रह पाता है न ही अपने से जुड़े लोगों को सुख दे पाता है.

हमारी एक परिचिता हैं, वे एक नितांत ही खडूस महिला के रूप में विख्यात या कहें कुख्यात हैं.सभी उनकी प्रतिभा का लोहा मानते हैं,परन्तु उनसे घनिष्टता बढ़ाने को कोई भी उत्सुक नहीं होता..लगभग पचपन वर्ष की अविवाहिता हैं,उच्च पद पर आसीन हैं,धन की कमी नहीं..फिर भी न जाने किस अवसाद में घुलती रहती हैं. पूरा संसार ही उन्हें संत्रसक तथा अपना शत्रु लगता है. अपने अधिकार के प्रति अनावश्यक रूप सजग रह कर्तब्यों के प्रति सतत उदासीन रहती हैं.बोझिल माहौल उन्हें बड़ा रुचता है जबकि अपने आस पास किसी को हंसते चहकते देखना कष्टकर लगता है..


परिचय के उपरांत पहले पहल तो मुझे भी उनसे बड़ी चिढ होती थी,पर बाद में जब उनसे निकटता का अवसर मिला तो शनै शनै मेरे सम्मुख उनके व्यक्तित्व की परतें खुलने लगी.उनसे बढ़ती हुई घनिष्ठता के साथ मुझे आभास हुआ कि उनके व्यवहार में जितनी कठोरता और कटुता है,उतनी कठोर और कलुषित हृदया वो हैं नहीं..मैं उनके मन का वह कोना ढूँढने लगी जिसमे संवेदनाएं और बहुत से वे कटु अनुभव संरक्षित थे, जिसने उनके व्यक्तित्व और व्यवहार में यह विकृति दी थी..


अंतत मेरा स्नेह काम कर गया और ज्ञात हुआ कि अति प्रतिभाशाली इस महिला ने बाल्यावस्था से ही बड़े दुःख उठाये हैं..उनके रुढिवादी माता पिता ने छः पुत्रियों और एक पुत्र के बीच पुत्रियों की सदा ही उपेक्षा की.बाकी बहनों ने तो इसे अपनी नियति मान स्वीकार लिया,परन्तु अपने अधिकार के प्रति सजग, विद्रोही स्वभाव की इस महिला ने सदा ही इसका प्रतिवाद किया और फलस्वरूप सर्वाधिक प्रताड़ना भी इन्होने ही पायी..अपने अभिभावकों को अपनी इस उपेक्षा और अनादर के लिए इन्होने कभी क्षमा नहीं किया..इतना ही नहीं दुर्भाग्यवस बालपन में अपने परिचितों तथा रिश्ते के कुछेक पुरुषों द्वारा अवांछनीय व्यवहार ने इनके मन में पुरुषों के प्रति घोर घृणा का भाव भी भर दिया,जिसके फलस्वरूप इन्होने विवाह नहीं किया....इन्होने अपने प्रतिभा का लोहा मनवाने तथा स्वयं को स्थापित करने के लिए पारिवारिक तथा आर्थिक मोर्चे पर कठोर संघर्ष किया और दुर्लभ धन पद सबकुछ पाया,परन्तु अपने जीवन की कटु स्मृतियों की भंवर से वे कभी मुक्त न हो पायीं..


ऐसा नहीं कि इन परिस्थितियों से गुजरी हुई ये एकमात्र महिला हैं...आज भी अधिकांश भारतीय महिलाओं को न्यूनाधिक इन्ही परिस्थितियों से गुजरना होता है. पर इन्होने जैसे इसे दिल से लगाया, इनके व्यक्तित्व में नकारात्मकता ही अधिक परिपुष्ट हुआ.सफलता पाकर भी इनका मन सदा उदिग्न ही रहा..ये यदि अपने मन से कटुता रुपी इस नकारात्मकता को निकाल पातीं तो परिवार समाज के सम्मुख एक बहुत बड़ा अनुकरणीय उदाहरण उपस्थित कर सकती थीं..स्वयं पाए उपेक्षा अनादर को कइयों में स्नेह और उदारता बाँट स्वयं भी सुखी हो सकती थीं और दूसरों को भी सुखी कर सकती थीं.ये स्थापित कर सकती थीं कि एक उपेक्षिता नारी इस समाज को क्या कुछ नहीं दे सकती है..


जब तक अपने अपनों के प्रति क्षोभ को हम अपनी स्मृतियों में, मन में जीवित पालित पोषित रखेंगे वह हमारे ह्रदय को दग्ध करती ही रहेगी और यदि प्रतिकार की अग्नि ह्रदय में जल रही हो तो सुख और शांति कैसे पाया जा सकता है..


व्यक्ति अपने जीवन में समस्त उपक्रम सुख प्राप्ति के निमित्त ही तो करता है,परन्तु चूँकि साधन को ही साध्य बना लिया करता है तो सुख सुधा से ह्रदय आप्लावित नहीं हो पाता. कितनी भी बहुमूल्य भौतिक वस्तु अपने पास हो, या पद मान प्रतिष्ठा मिल जाए, यदि मन शांत न हो, मन कर्म और वचन से दूसरों को सुख न दे पायें तो मन कभी सच्चे सुख का उपभोग न कर पायेगा....

जीवन है तो उसके साथ घात प्रतिघात दुर्घटनाएं तो लगी ही रहेंगी...लेकिन इसीके के मध्य हमें उन युक्तियों को भी अपनाना पड़ेगा जो हमारे अंतस के नकारात्मक उर्जा का क्षय कर हममे सकारात्मकता को परिपुष्ट करे, ताकि हम अपने सामर्थ्य का सर्वोत्तम निष्पादित कर पायें...दुर्घटनाओं को हम भले न रोक पायें पर दुःख और कष्ट से निकलने के मार्ग पर हम अवश्य ही चल सकते हैं..और सच मानिये तो ऐसे मार्गों की कमी नहीं...


ईश्वर की अपार अनुकम्पा से मेरी स्वाभाविक ही रूचि रही है कि सोच को सकारात्मक बनाने में सहायक जो भी युक्तियाँ जानने में आयें उन्हें जानू, समझूं और इसी क्रम में एक बार जब रेकी का प्रशिक्षण ले रही थी,हमारी गुरु ने हमें एक महिला की तस्वीर दिखाई और उनके विषय में बताया कि उक्त महिला बाल्यावस्था से ही गंभीर रूप से मस्तिष्क पीडा से व्यथित थीं..इसके साथ ही बहुधा ही वे अवचेतनावास्था में अत्यंत उग्र हो किसी को जान से मारने की बात कहा करती थीं..उनके अभिभावकों ने उनका बहुत इलाज कराया पर कोई भी चिकित्सक उनके रोग का न तो कारण बता पाया और न ही उसका प्रभावी निदान हो पाया..


विवाहोपरांत उनके पति ने भी अपने भर कोई कोर कसर न छोडी उनकी चिकित्सा करवाने में, पर सदा ढ़ाक के तीन पात ही निकले..अंततः उन्होंने कहीं रेकी के विषय में सुना और इसके शरण में आये..कुछ महीनो के चिकित्सा के उपरांत ही बड़े सकारात्मक प्रभाव दृष्टिगत होने लगे. तब अतिउत्साहित हो इन्होने स्वयं भी रेकी का प्रशिक्षण लेना आरम्भ किया. आगे बढ़कर एक यौगिक क्रिया के अर्न्तगत जब इन्होने पूर्वजन्म पर्यवेक्षण कर अपने रोग के कारणों तक पहुँचने का प्रयास किया तो इन्हें ज्ञात हुआ कि कई जन्म पूर्व इनके पति ने किसी अन्य महिला के प्रेम में पड़ इनके संग विश्वासघात किया और धोखे से इनके प्राण लेने को इन्हें बहुमंजिली भवन के नीचे धकेल दिया..अप्रत्याशित इस आघात से इनका ह्रदय विह्वल हो गया और इनके मन में प्रतिशोध की प्रबल अग्नि दहक उठी..मृत्युपूर्व कुछ क्षण में ही इन्होने जो प्रण किया था कि विश्वासघाती अपने पति से वे अवश्य ही प्रतिशोध लेंगी और उसे भी मृत्यु दंड देंगी, वह उनके अवचेतन मष्तिष्क में ऐसे संरक्षित हो गया कि कई जन्मो तक विस्मृत न हो पाया..और ऊंचाई से गिरने पर सिर में चोट लगने से इन्हें जो असह्य पीडा हुई ,वह भी जन्म जन्मान्तर तक इनके साथ बनी रही....


क्रिया क्रम में गुरु ने इन्हें आदेश दिया कि जिस व्यक्ति ने इनके साथ विश्वासघात किया ,उसे ये अपने पूरे मन से क्षमादान दे स्वयं भी मुक्त हो जाएँ और उसे भी मुक्त कर दें..सहज रूप से तो इसके लिए वे तैयार न हुयीं ,पर गुरु द्वारा समझाने पर उन्होंने तदनुरूप ही किया..और आर्श्चय कि इस दिन के बाद फिर कभी उन्हें मस्तिष्क पीडा न हुई और न ही मन में कभी वह उद्वेग ही आया...आगे जाकर उक्त महिला ने रेकी में ग्रैंड मास्टर तक का प्रशिक्षण लिया और असंख्य लोगों का उपचार करते हुए अपने जीवन को समाजसेवा में पूर्णतः समर्पित कर दिया...


सुनने में यह एक कथा सी लग रही होगी,परन्तु यह कपोल कल्पित नहीं..मैंने स्वयं ही अपने जीवन में इसे सत्य होते देखा है.कुछेक दंश जो सदा ही मुझे पीडा दिया करते थे,मैंने इस क्रिया के द्वारा पीडक को क्षमादान देते हुए मन स्मृति से तिरोहित करने का प्रयास किया और उस स्मृति दंश से मुक्त हो गयी..इसके बाद से तो मैंने इसे जीवन का मूल मंत्र ही बना लिया है...अब बिना यौगिक क्रिया के ही सच्चे मन से ईश्वर को साक्षी मान कष्ट देने वाले को क्षमा दान दे दिया करती हूँ और निश्चित रूप से कटु स्मृतियों, पीडा से अत्यंत प्रभावशाली रूप से मुक्ति पा जाया करती हूँ..


मेरा मानना है कि सामने वाले को सुख और खुशी देने के लिए हमें स्वयं अपने ह्रदय को सुख शांति से परिपूर्ण रखना होगा.अब परिवार समाज से भागकर तो कहीं जाया नहीं जा सकता..तो इसके बीच रह ही हमें सुखद स्मृतियों को जो कि हमें उर्जा प्रदान करती हों,संजोना पड़ेगा और दुखद स्मृतियाँ जो हमें कमजोर करे हममे नकारात्मकता प्रगाढ़ करे,उससे बचना पड़ेगा..सकारात्मक रह ही हम अपनी क्षमताओं का अधिकाधिक सदुपयोग कर सकते हैं..


क्षमादान से वस्तुतः दूसरों का नहीं सबसे अधिक भला अपना ही होता है.जब तक दुखद स्मृतियाँ अपने अंतस में संरक्षित रहती हैं,वे हमारे सकारात्मक सोच को बाधित करती है,हमें सुखी नहीं होने देती..सच्चे सुख की अभिलाषा हो तो उन सभी साधनों को अंगीकार करना चाहिए,जो हमारी नकारात्मकता न नाश करती हो.व्यक्ति में अपरिमित प्रतिभा क्षमता होती है,जिसका यदि सकारात्मक उपयोग किया जाय तो अपने साथ साथ अपने से जुड़े असंख्य लोगों के हित हम बहुत कुछ कर सकते हैं.ऐसे जीवन का क्या लाभ यदि इसकी पूरी अवधि में हम किसी को सुख और खुशियाँ न दे पायें..


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23.6.09

यादों की खूंटी पर टंगा पजामा !!!

सहज स्वाभाविक रूप से दुनिया के प्रत्येक अभिभावक के तरह मेरे माता पिता की भी मुझसे बहुत सी अपेक्षाएं थीं, बहुत से सपने उन्होंने देख रखे थे मेरे लिए... पर समस्या यह थी कि माताजी और पिताजी दोनों के सपने विपरीत दिशाओं में फ़ैली दो ऐसी टहनियों सी थी जिनका मूल एक मुझ कमजोर से जुड़ा था पर दोनों डालों को सम्हालने के लिए मुझे अपने सामर्थ्य से बहुत अधिक विस्तार करना पड़ता...


पिताजी जहाँ मुझे गायन, वादन, नृत्य, संगीत, चित्रकला इत्यादि में प्रवीण देखने के साथ साथ डाक्टर इंजिनियर या उच्च प्राशासनिक पद पर प्रतिष्ठित देखना चाहते थे, वहीँ मेरी माताजी मुझे सिलाई बुनाई कढाई पाक कला तथा गृहकार्य में दक्ष एक अत्यंत कुशल, शुशील ,संकोची, छुई मुई गृहणी जो ससुराल जाकर उनका नाम ऊंचा करे , न कि नाक कटवाए.. के रूप में देखना चाहती थीं..

मुझे दक्ष करने के लिए पिताजी ने संगीत ,नृत्य, चित्रकारी तथा एक पढाई के शिक्षक की व्यवस्था घर पर ही कर दी थी।संगीत, चित्रकला तथा पढाई तक तो ठीक था पर नृत्य वाले गुरूजी मुझसे बड़े परेशान रहते थे...मैं इतनी संकोची और अंतर्मुखी थी कि मुझसे हाथ पैर हिलवाना किसी के लिए भी सहज न था.


दो सप्ताह के अथक परिश्रम के बाद मुझसे किसी तरह हल्का फुल्का हाथ पैर तो हिलवा लिए गुरूजी ने पर जैसे ही आँखों तथा गर्दन की मुद्राओं की बारी आई ,उनके झटके देख मेरी ऐसी हंसी छूटती कि उन्हें दुहराने के हाल में ही मैं नहीं बचती थी.. गुरूजी बेचारे माथा पीटकर रह जाते थे... यूँ भी गुरूजी की लड़कियों की तरह लचकती चाल और उनके बात करने का ढंग मेरी हंसी की बांध तोड़ दिया करते थे...जब हर प्रकार से गुरूजी अस्वस्त हो गए कि मैं किसी जनम में नृत्य नहीं सीख सकती तो उन्होंने पिताजी से अपनी व्यस्तता का बहाना बना किनारा कर लिया.... और तब जाकर मेरी जान छूटी थी....

जहाँ तक प्रश्न माताजी के अपेक्षाओं का था,माँ जितना ही अधिक मुझमे स्त्रियोचित गुण देखना चाहती थी,मुझे उससे उतनी ही वितृष्णा होती थी.पता नहीं कैसे मेरे दिमाग में यह बात घर कर गयी कि बुनाई कढाई कला नहीं बल्कि परनिंदा के माध्यम हैं...औरतें फालतू के समय में इक्कठे बैठ हाथ में सलाइयाँ ले सबके घरों के चारित्रिक फंदे बुनने उघाड़ने में लग जातीं हैं. मुझे यह बड़ा ही निकृष्ट कार्य लगता था और "औरतों के काम मैं नहीं करती" कहकर मैं भाग लिया करती थी..मेरे लक्षण देखकर माताजी दिन रात कुढा करतीं थीं..


डांट डपट या झापड़ खाकर जब कभी रोती बिसूरती मैं बुनाई के लिए बैठती भी थी, तो चार छः लाइन बुनकर मेरा धैर्य चुक जाता था. जब देखती कि इतनी देर से आँखें गोडे एक एक घर गिरा उठा रही हूँ और इतने अथक परिश्रम के बाद भी स्वेटर की लम्बाई दो उंगली भी नहीं बढ़ी तो मुझे बड़ी कोफ्त होती थी... वस्तुतः मुझे वही काम करना भाता था जो एक बैठकी में संपन्न हो जाये और तैयार परिणाम सामने हो और स्वेटर या क्रोशिये में ऐसी कोई बात तो थी नहीं..

नया कुछ सिलने की उत्सुकता बहुत होती थी पर पुराने की मरम्मती मुझे सर्वाधिक नीरस लगा करती थी.मेरी माँ मुझे कोसते गलियां देते ,ससुराल में उन्हें कौन कौन सी गालियाँ सुन्वाउंगी इसके विवरण सुनाते हुए हमारे फटे कपडों की मरम्मती किया करती, पर मेरे कानो पर किंचित भी जूं न रेंगती..

संभवतः मैं साथ आठ साल की रही होउंगी तभी से मेरे दहेज़ का सामान जोड़ा जाने लगा था..इसी क्रम में मेरे विवाह से करीब दो वर्ष पहले एक सिलाई मशीन ख़रीदी गयी. जब वह मशीन खरीदी गयी,उन दिनों मैं छात्रावास में थी और मेरी अनुपस्थिति में मेरे मझले भाई ने मशीन चलाने से लेकर उसके छोटे मोटे तकनीकी खामियों तक से निपटने की पूरी जानकारी ली.

जब मैं छुट्टियों में आई तो यह नया उपकरण मुझे अत्यंत उत्साहित कर गया. मैं अपने पर लगे निकम्मेपन के कालिख को इस महत उपकरण की सहायता से धो डालने को कटिबद्ध हो गयी. मझले भाई के आगे पीछे घूमकर बड़ी चिरौरी करके किसी तरह उससे मशीन चलाना तो सीख लिया, पर उसपर सिला क्या जाय यह बड़ा सवाल था.

मेरे सौभाग्य से उन दिनों हमारे घर आकर ठहरे साधू महराज ने मेरे छोटे भाई को विश्वास दिला दिया कि किशोर वय से ही पुरुष को लंगोट का मजबूत होना चाहिए और उन्हें आधुनिक अंडरवियर नहीं लंगोट पहनना चाहिए,इससे बल वीर्य की वृद्धि होती है.....आखिर इसी लंगोट की वजह से तो हनुमान जी इतने बलशाली हुए हैं...हनुमान जी की तरह बलशाली बनने की चाह रखने वाला मेरा भाई उनके तर्कों से इतना प्रभावित हुआ कि उसने तुंरत चड्डी को लंगोट से स्थानांतरित करने की ठान ली.

अब हम भाई बहन चल निकले लंगोट अभियान में..माताजी के बक्से से उनके एक पेटीकोट का कपडा हमने उड़ा लिया, साधू महराज के धूप में तार पर सूखते लंगोट का पर्यवेक्षण किया गया और हम इस निष्कर्ष पर पहुंचे की पतंग के ऊपर के आधे भाग को काटकर यदि उसकी लम्बी पूंछ और दो बड़ी डोरियाँ बना दी जाय ..तो बस लंगोट बन जायेगा...अब बचपन से इतने तो पतंग बना चुके हैं हम..तो यह लंगोट सिलना कौन सी बड़ी बात है.

फटाफट कपडे को काटा गया और सिलकर आधे घंटे के अन्दर खूबसूरत लंगोट तैयार कर लिया गया...मेरे जीवन की यह सबसे बड़ी सफलता थी..कई दिनों तक मैं छोटे भाई को गर्व से वह लंगोट खुद ही बांधा करती थी और भाई भी मेरी कलाकारी की दाद दिए नहीं थकता था...उसका बस चलता तो आस पड़ोस मोहल्ले को वह सगर्व मेरी उत्कृष्ट कलाकारी और इस नूतन अनोखे परिधान का दिग्दर्शन करवा आता.


मेरा उत्साह अपनी चरम पर था..हाथ हमेशा कुछ न कुछ सिलने को कुलबुलाया करते थे.....एक दिन देखा छोटा भाई माताजी के आदेश पर कपडा लिए दरजी से पजामा सिलवाने चला जा रहा है...यह मेरा सरासर अपमान था...भागकर मैं उससे कपडा छीन कर लायी..


मेरी एक सहेली ने बताया था कि जो भी कपडा सिलना हो नाप के लिए अपने पुराने कपडे को नए कपडे पर बिछाकर उसके नाप से नया कपडा काट लेना..मुझे लगा अब भला पजामा सिलने में कौन सी कलाकारी है,दो पैर ही तो बनाने हैं और नाडा डालने के लिए एक पट्टी डाल देनी है बस..


भाई कुछ डरा हुआ था कि अगर मैंने कपडा बिगाड़ दिया तो माँ से बहुत बुरी झाड़ पड़ेगी..मैंने उसे याद दिलाया कि जीवन में पहली बार बिना किसी पूर्व प्रशिक्षण के मैंने मशीन पकडा और इतना सुन्दर लंगोट सिला फिर भी वह मेरी कला पर शक करता है...वह कुछ आश्वस्त तो हुआ पर बार बार मुझे चेताता रहा कि अगर पजामा गड़बडाया तो माता क्या गत बनायेंगी.....


पूर्ण आश्वस्त और अपार उत्साहित ह्रदय से कपडा नीचे बिछा उसपर उसके पुराने पजामे को सोंटकर नाप के लिए फैला दिया मैंने. जैसे ही काटने के लिए कैंची उठाई कि भाई ने फरमाइश की......दीदी परसों वाली फिल्म में जैसे अमिताभ बच्चन ने चुस्त वाला चूडीदार पायजामा पहना था ,वैसा ही बना देगी ???...मैंने पूरे लाड से उसे पुचकारा...क्यों नहीं भाई...जरूर बना दूंगी...इसमें कौन सी बड़ी बात है.

बिछे हुए कपडे के बीच का कपडा काट कर मैंने दो पैरों की शक्ल दे दी और बड़े ही मनोयोग से उसे सिलना शुरू किया..भाई अपनी आँखों में अमिताभ बच्चन के पजामे का सपना संजोये और खुद को अमिताभ सा स्मार्ट देखने की ललक लिए पूरे समय मेरे साथ बना रहा..

लगभग चालीस मिनट लगा और दो पैरों और नाडे के साथ पायजामा तैयार हो गया.माताजी पड़ोस में गयीं हुईं थीं और हम दोनों भाई बहनों ने तय किया कि जब वो घर आयें तो भाई पजामा पहनकर उन्हें चौंकाने को तैयार रहेगा..

लेकिन यह क्या....चुस्त करने के चक्कर में पजामा बहुत ही तंग बन गया था,आधे पैर के ऊपर चढ़ ही नहीं पा रहा था... ...लेकिन हम कहाँ हार मानने वाले थे, ठूंस ठांस कर पजामे में भाई को फिट कर दिया...बेचारे भाई ने पजामा पहन तो लिया पर पता नहीं उसमे गडबडी क्या हुई थी कि वह हिल डुल या चल ही नहीं पा रहा था..


भाई ठुनकने लगा...दीदी तूने पजामा खराब कर दिया न....देख तो मैं चल नहीं पा रहा...पैर एकदम जाम हो गया...मेरी बनी बनाई इज्जत धूल में मिलने जा रही थी.....मैंने उसे उत्साहित किया ... ऐसे कैसे चला नहीं जा रहा है,तू पैर तो आगे बढा...और फिर....जैसे ही उसने पैर जबरदस्ती आगे बढाया कि ठीक बीचोबीच पजामा दो भागों में बटकर फट गया..

इस दौरान मझला भाई भी वहां आ गया था और छुटके की हालत देख हम हंसते हंसते पहले तो लोट पोट हो गए...फिर याद आया कि माँ किसी भी क्षण वापस आ जायेंगी....और हमारा जोरदार बैंड बजेगा....सो फटाफट मझले और मैंने मिलकर अपनी पूरी ताकत लगा पजामा खींच उसमे से भाई को किसी तरह निकला....खूब पुचकारकर और हलवा बनाकर खिलाने के आश्वासन के बाद दोनों भाई राजी हो गए कि वे माताजी को कुछ नहीं बताएँगे...मैंने उन्हें आश्वाशन दिया कि कोई न कोई जुगाड़ लगाकर मैं पजामा ठीक कर दूंगी....


मेरे समझ में नहीं आ रहा था कि आखिर गडबडी हुई कैसे...सिला तो मैंने ठीक ठाक ही था...चुपके से दरजी के पास वह पजामा लेकर हम भाई बहन पहुंचे...दरजी ने जब पजामा देखा तो पहले तो लोट लोट कर हंसा और फिर उसने पूछा कि यह नायाब सिलाई की किसने...मेरे मूरख भाई ने जैसे ही मेरा नाम लेने के लिए अपना मुंह खोला कि मैंने उसे इतने जोर की चींटी काटी कि उसकी चीख निकल गयी..मेरे डर से उसने नाम तो नहीं लिया पर दरजी था एक नंबर का धूर्त उसने सब समझ लिया...उसके बाद तो उसने ऐसी खिल्ली उडानी शुरू की कि मैं दांत पीसकर रह गयी...


जान बूझकर उसने कहा कि अब इसका कुछ नहीं हो सकता.. तो सारे गुस्से को पी उसके आगे रिरियाने के सिवाय दूसरा कोई विकल्प न था मेरे पास...खूब हाथ पैर जोड़े,अंकल अंकल कहा ...तो उसने कहा कि अलग से कपडे लगाकर वह पजामे को ठीक करने की कोशिश करेगा...


जब लौटकर अपने क्षात्रावास पहुँची और सिलाई जानने वाली सहेलियों से पूछा तो पता चला कि भले पजामा क्यों न हो ,उसकी कटाई विशेष प्रकार से होती है और दोनों पैरों के बीच कली लगायी जाती है..

जो भी हो... वह पजामा आज भे हमारी यादों की खूंटी पर वैसे ही लटका पड़ा है,जिसे देख हम भाई बहन आज भी उतना ही हंसा करते हैं...



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20.5.09

दृष्टिकोण ...........

कभी कहीं पढ़ी हुई ,सुनी हुई एक सामान्य प्रसंग ,एक साधारण वाक्य या घटना भी कभी कभी मर्म को स्पर्श कर मन एवं चिंतन को ऐसे आंदोलित कर दिया करती है कि सोच की दिशा बदल जीवन धारा ही बदल जाया करती है....

आज अपनी एक नितांत ही व्यक्तिगत और गोपनीय अनुभूति यह सोचकर सार्वजानिक कर रही हूँ कि क्या पता जैसे प्रसंग ने मेरे सोच को परिवर्तित कर मुझे अनिर्वचनीय सुख लाभ का सुअवसर दिया,संभव है किसी और के सोच की दिशा को भी प्रभावित करे और उसके सुख का निमित्त बने...

भीड़ भाड़ सदैव ही मुझे आतंकित भयग्रस्त किया करती रही है और इससे बचने में मैं अपना पूरा सामर्थ्य लगा दिया करती हूँ...बाकी भीड़ से तो बच भी जाती थी पर अपने धर्मभीरू माता पिता संग मंदिरों के भीड़ का सामना छुटपन से ही करना पड़ा. धार्मिक स्थलों की अपार अव्यवस्थित भीड़,गन्दगी,पंडों की लूट खसोट,चारों और फ़ैली अव्यवस्था मन में इतनी वितृष्णा भरती थी कि मेरे समझ में नहीं आता था,इन सब के मध्य लोग अपनी श्रद्धा भक्ति का निष्पादन और भक्ति भाव का संवरण कैसे कर पाते हैं.इसके साथ ही तथाकथित भक्तों का क्षद्म रूप भी मुझे बड़ा ही आहत किया करता था और एक तरह से मंदिरों, कर्मकांडों के प्रति मेरी अरुचि दृढ से दृढ़तर होती गयी...मेरे अभिभावक मुझसे बड़े ही क्षुब्ध रहा करते थे. उनकी दृष्टि में मैं घोर नास्तिक थी....

मेरे विवाह के पहले तक हमारे अभिभावक वर्ष में एक बार देवघर (वैद्यनाथ धाम) अवश्य जाते थे. वहां के विहंगम दृश्य के क्या कहने......लोटे का जल शायद ही शिवशम्भू के मस्तक तक पहुँच पाता था.....समस्त पुष्प पत्र जल इत्यादि भक्तों पर ही गिरते थे..गर्भ गृह की यह अवस्था होती थी कि अधिकांशतः भोलेनाथ ही भक्तों के चरण रज प्राप्त करते थे.. यदि कोई उनके स्पर्श का सुअवसर पा जाता तो लगता यदि भोलेनाथ धरती को इतने जकड़ कर न पकडे होते तो कबके भक्त उन्हें समूल उठा अपने जेब में रख चलते बनते...

इस धक्का मुक्की में भक्ति भाव कितना बचा रहता था पता नहीं,हर व्यक्ति दुसरे को अपने स्थान का अपहर्ता घोर शत्रु सम लगता था और वश चलता तो सामने वाले को खदेड़ कर वहां से भगा देता. इस भीड़ में चोरों,जेबकतरों और ठगों की चांदी कटती थी....

उत्तर भारत के प्रायः सभी धर्मस्थलों की कमोबेश यही स्थिति आज भी है .हाँ दक्षिण भारत के जितने भी धर्मस्थलों पर आज तक भ्रमण किया ,अपार भीड़ के बावजूद मंदिर प्रशासन तथा स्थानीय प्रशासन के हस्तक्षेप से क्रमबद्ध कतारों के कारण बहुत अधिक धक्का मुक्की की स्थिति कहीं नहीं देखी...

बचपन में तो अभिभावकों के साथ जब कभी भी इस भीड़ भाड़ में जाने की बाध्यता बनी,मेरा प्रयास होता था ,शीघ्रता से उस भीड़ से निपटकर मंदिर प्रांगन में कोई ऐसा स्थान खोजना और वहां शांति से समय गुजरना जहाँ कि पर्याप्त नीरवता हो.बाद में जब स्वयं निर्णायक बनी तब बहुधा यही प्रयास रहा कि देवस्थानों पर ऐसे समय में जाया जाय जब भीड़ की संभावना न्यूनतम हो.

वर्षो तक देवस्थानों की इस भीड़ और अव्यवस्था ने मन को बड़ा ही तिक्त और खिन्न किया ...परन्तु सुसंयोग से करीब सत्रह अठारह वर्ष पहले एक बार चैतन्य महाप्रभु की जीवनी पढ़ने का अवसर मिला. संभवतः हजारी प्रसाद द्विवेदी जी की लिखी हुई थी वह.. सम्पूर्ण कथानक इतने हृदयस्पर्शी ढंग से उल्लिखित था कि उसने मन प्राणों को बाँध लिया .....उसी कथानक में विवरण था कि जब चैतन्य महाप्रभु यात्रा क्रम में पुरी के जगन्नाथ मंदिर पहुंचे तो मुख्यद्वार पर पहुँचते ही प्रिय के सानिध्य स्मरण ने उन्हें भावविभोर कर दिया,उनके शरीर में रोमांच भर आया, नयनो से अविरल अश्रुधार प्रवाहित होने लगी, भक्ति और प्रेम के आवेग में वे मूर्छित हो गए.....

जब मैंने यह अंश पढ़ा तो न जाने इस प्रसंग ने ह्रदय के किस तंतु को झकझोरा .... मेरे मन ने मुझे बड़ा दुत्कारा ...मुझे लगा जिस पुरी मंदिर में जाने पर मुझे आजतक भीड़ अव्यवस्था,पण्डे , गन्दगी इत्यादि ही दिखे थे,उसी मंदिर में तो चैतन्य महाप्रभु को श्याम सलोने के दर्शन हुए .....यह तो मेरा ही दृष्टिदोष है जो आज तक मेरी दृष्टि इन अवयवों पर ही केन्द्रित रही थी . मेरा ध्यान जिन वस्तुओं पर था,मुझे वही दिखाई दिया...चैतन्य महाप्रभु के दृष्टि वलय में जो था, उन्हें वह दिखाई दिया...

इस विचार ने मुझे इतने गहरे प्रभावित किया कि ,इसने मेरा दृष्टिकोण ही बदल दिया...और उस दिन के बाद जब भी किसी देवस्थान पर गयी हूँ और मन ध्यान से वहां की सकारात्मक उर्जा से जुड़ने का प्रयत्न किया है,शायद ही कभी असफलता मिली है और उसके उपरांत तो कोई भी कारण ध्यान क्रम को बाधित नहीं कर पाया है..प्रेम और भक्ति रस में आकंठ निमग्न होने पर तन मन की जो स्थिति होती है,जो परमानंद प्राप्त होता है उसके सम्मुख संसार की कोई भी वस्तु कोई भी असुविधा अर्थहीन लगती है.....

जो हम अपनी इस स्थूल शरीर की सीमित सामर्थ्यवान नयनो से दृष्टिगत नहीं कर पाते , उसका आस्तित्व ही नहीं है ,ऐसी धारणा नितांत ही भ्रामक और मूर्खता पूर्ण है. जो ईश्वरीय सत्ता को अस्वीकृत करते हैं ,उनके साथ मैं बहस में नहीं पड़ना चाहती. उन्हें यदि यह सोच शांति और सुख देता है तो,यह बहुत ही अच्छी बात है,वे ऐसे ही सुखी रहें......मैं उनके उन्मुख हूँ जो ईश्वरीय सत्ता को तो मानते हैं ,परन्तु बाह्य अवयवों में फंस उस अपरिमित सुख प्राप्ति से वंचित रह जाते हैं..उन्हें एक बार इस दृष्टिकोण के प्रति सजग करना मुझे अपना कर्तब्य लगा....

धर्म में दिखावे और आडम्बर युक्त कोरे कर्मकांडों की धुर विरोधी मैं भी हूँ..कर्म कांडों की उपयोगिता और आवश्यकता मैं इतने भर के लिए मानती हूँ कि कहीं न कहीं ये मुझे वैज्ञानिक तथा भक्ति प्रेम के उद्दीपक लगते हैं. जैसे अपने किसी प्रिय श्रेष्ठ का सानिध्य हमें सुखद लगता है,उसके सम्मान और प्रेम प्रदर्शन हेतु हम भांति भांति की चेष्टाएँ करते हैं और अंततोगत्वा अपार सुख प्राप्त करते हैं,वैसे ही उस सर्वेश्वर के प्रति स्नेह प्रदर्शन सेवा सम्मान भी भक्ति उद्दीपक तथा सुख के साधन ही हैं.



धार्मिक अनुष्ठानों या कर्मकांडों को सिरे से नकारना भी पूर्णतः उचित नहीं है क्योंकि इसके रूप को विकृत मनुष्यों और पण्डे पुजारियों ने ही किया है नहीं तो इनमे निहित वैज्ञानिक दृष्टिकोण पूर्ण रूपेण जीवनोपयोगी हैं.यह सत्य है की मानवमात्र का धर्म बह्याडम्बरों की अपेक्षा ईश्वर को मन कर्म व्यवहार में धारण करना है,परन्तु जो भी उपाय ईश्वर के प्रति श्रद्धा निष्ठां भक्ति और प्रेम को सुदृढ़ करने में सहायक हों,जीवन को सकारात्मक दिशा प्रदान करता हो,मेरी दृष्टि में वह ग्रहणीय एवं वन्दनीय है.

यह पूर्ण और अकाट्य सत्य है कि ईश्वर का वास मन आत्मा में होता है,हमारी भावनाओं में होता है,सकारात्मक सोच और कर्म में होता है.परन्तु ईश्वर का वास उस पत्थर और स्थान में भी होता है जो अनंत काल से असंख्य श्रद्धालुओं के आस्था का केंद्र है.. यह निश्चित जानिए कि यदि हमारी अनुभूति क्षमता प्रखर है तो हम भी उसी प्रकार पत्थर की मूरत में श्याम को देख सकते हैं जैसे मीरा और सूर ने देखा था..रामकृष्ण ने माँ काली को देखा था....और ऐसे उदाहरणों की कोई कमी नहीं......तो क्यों न एक बार हम भी प्रयास कर देखें. उस अनिर्वचनीय सुख और आनंदलाभ का प्रयास करें....अधिक कहाँ कुछ करना है,एक दृष्टिकोण भर तो बदलना है इसके लिए.....

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27.2.09

द्वापर वहीँ ठहरा है........

जीवन में कई बार ऐसा होता है कि कोई स्थिति विशेष, प्रसंग, परिभाषाएं, शब्द, भाव वर्षों तक मन मष्तिष्क के सम्मुख उपस्थित रहते हुए भी अस्पष्ट औचित्यहीन होकर मनोभूमि पर विखण्डित से अवस्थित होते हैं और फिर किसी एक कालखंड में ऐसा कुछ घटित हो जाता है कि वे अपने दिव्य उद्दात्त रूप में नवीन अर्थ के साथ स्वयं को परिभाषित कर प्रतिष्ठित कर जाते हैं.


आस्तित्व का आविर्भाव जैसे ही धरती पर होता है, शरीर की आँखें खुलती नहीं कि जिज्ञासाओं की आँखें भी खुल जाती है. क्यों और कैसे, जैसे बोध और जिज्ञासा ही मनुष्य को अन्य प्राणियों से इतर,विशिष्ठ करते हैं और यही जिज्ञासा ज्ञान विज्ञान का भी विस्तार करता है..


मेरा प्रबल विश्वास है कि किसी भी धर्म परंपरा में निहित व्रत त्योहारों के प्रावधान में सभ्यता संस्कृति और समाज के व्यापक मंगल के कारक निहित हैं. प्रबुद्ध ऋषियों मनीषियों ने वर्षों तक कठोर साधना और वैज्ञानिक अन्वेशानोपरांत इन्हें धर्म और परंपरा में नियोजित और प्रतिष्ठित किया है.......परन्तु बाल्यावस्था से ही रंगोत्सव (होली) का जो स्वरुप देखा था और इस परंपरा में निहित जितने कारणों/आख्यानों, भावों को जान पायी थी,इसकी प्रासंगिकता और अपरिहार्यता मुझे नितांत ही अनावश्यक लगती थी.उच्श्रीन्ख्लता को धार्मिक आधार देते इस पर्व की प्रासंगिकता मुझे समझ नहीं आती थी. अपितु यदि यह कहूँ कि मानस में इसकी छाप एक निकृष्ट, वीभत्स उत्सव के रूप में थी तो कोई अतिशियोक्ति न होगी......


यह ईश्वर की ही असीम अनुकम्पा थी कि गत वर्ष रंगोत्सव के अवसर पर वृन्दावन जाना हुआ.... सुसंयोग से बांकेबिहारी जी के मंदिर के अत्यंत निकट ठहरने की व्यवस्था भी हो गयी....वहां दो दिनों में जो भी देखा, उस समय की मनोदशा की तो क्या कहूँ, अभी भी उसका स्मरण मात्र ही रोमांचित और भावुक कर देता है और भावावेश शब्दों को कुंठित अवरुद्ध कर देता है....


इतने वर्षों की जिज्ञासा ऐसे शांत होगी,कभी परिकल्पित न किया था. कहाँ तो रंगोत्सव का पर्याय ही , उच्श्रीन्ख्लता, रासायनिक रंगों का दुरूपयोग, मांसाहार ,मादक पदार्थों का सेवन और होली के नाम पर शीलता का उल्लंघन इत्यादि ही देखा था.......और जो वहां देखा तो बस आत्मविस्मृत हो देखती ही रह गयी........


पूरे क्षेत्र में कहीं भी मद्य (नशीले पदार्थ) और मांसाहार का नामोनिशान नहीं था. बच्चों से लेकर बुजुर्ग स्त्री पुरुष, स्थानीय नागरिक या आगंतुक तक सभी संकरी गलियों या सडकों से निर्भीक गुजरते हुए बिना किसी परिचय तथा भेद भाव के, बिना किसी को स्पर्श किये रंग गुलाल से सराबोर किये जा रहे थे. कुछ लोगों का समूह वाद्य यंत्रों के साथ तो कुछ ऐसे ही तालियाँ बजाते हुए, भजन गाते हुए, झूमते नाचते गलिओं से गुजर रहे थे. कौन सधवा है,कौन विधवा न रंग डालने वाले इसका भान रख रहे थे और न ही रंगे जाने वालों को कोई रंज या क्षोभ था......जिस तरह से निर्भीक हो किशोरियां ,युवतियां , महिलाएं मार्गों पर चल रहीं थीं और जितनी शिष्टता से उनपर रंग डाले जा रहे थे ,यह तो अभिभूत ही कर गया....क्योंकि इसकी परिकल्पना हम अपने क्षेत्र में कतई नहीं कर सकते.


बाँकेबिहारी जी के मंदिर का पूरा प्रांगण रंग गुलाल से सराबोर था....जहाँ कहीं भी गयी,जहाँ तक दृष्टि गयी देखा , पूरा वृन्दावन ही भक्तिमय रंगमय हो विभोर हो झूम रहा है, गा रहा है..........इन दृश्यों ने मन ऐसे बाँधा कि ...लगा द्वापर बीता कहाँ है......यह तो यहीं ठहरा है, आज भी........तन मन आत्मा ऐसे रंग गया कि, यह पावन उत्सव - रंगोत्सव, अपने पूर्ण अर्थ और दिव्य स्वरुप में मनोभूमि पर अवतरित हो गया.........


मन बड़ा कचोट जाता है और लगता है कि जिस लोक कल्याणकारी सात्विक भाव के साथ परंपरा में पर्व त्योहारों का प्रावधान हुआ था,क्या हम उन्हें उनके उसी अर्थ और स्वरुप में नहीं मना सकते........समस्या है कि हम सुख तो पाना चाहते हैं, पर यह विस्मृत कर जाते हैं कि सात्विक सुख ही असली सुख है.यही चिरस्थायी होता है और यह सुख आत्मा तक पहुंचकर क्लांत मन को विश्राम तथा सकारात्मक उर्जा प्रदान करता है.तन रंगने से अधिक आवश्यक मन को रंगना है.........चिर सुख हेतु एक बार सात्विक रंगों से रंगकर देखें इस मन को........देखें कितना आनद है इस रंग मे...........

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24.2.09

अरे, वाह !! हम तो ब्लागर हैं !!!

आज तक ब्लागिंग हमारे लिए पढने और उद्गारों को अभिव्यक्त करने का एक सुगम माध्यम भर था ,पर भाई शैलेश भारतवासी के प्रयास से बाईस फरवरी को रांची में आयोजित अभूतपूर्व इस ऐतिहासिक ब्लागर मीट में क्या सम्मिलित हुए कि जबरदस्त अनुभूति हुई, लगा हम इलेक्ट्रानिक पन्ने पर महज पढने लिखने वाले नही बल्कि बड़े ख़ास जीव हैं..अब तो हम एक अलग प्रजाति के अंतर्गत हैं,कालर ऊपर उठा कह सकते हैं........भई ,हम कोई ऐरे गैरे नही,बिलागर हैं... भले पत्रकारों और साहित्यकारों के साथ साथ बहुतायतों की नजरों में हम इन्टरनेट पर टाइम पास करने वाले तुच्छ जीव क्यों न हों......


लगभग डेढ़ महीने पहले शैलेश ने जब इस तरह के कार्यक्रम के आयोजन के विषय में बात की थी तो झारखण्ड में मुझे इसकी सफलता पर बड़ा शंशय था..परन्तु यह उसकी दृढ़ इच्छा शक्ति,लगन और परिश्रम का ही फल था कि कार्यक्रम इतनी सफलतापूर्वक संपन्न हो पाया..एक ओर जहाँ आयोजिका/व्यवस्थापिका भारतीजी के उदार ह्रदय(आयोजन के लिए जिन्होंने ह्रदय खोल मुक्त हस्त से धन व्यय किया था ) को देख हम अभिभूत हुए, वहीँ पत्रकार समुदाय का ब्लॉग के बारे में राय जानने का मौका भी मिला और सबसे बड़ी बात, इसी बहाने उन लोगों से संपर्क का सुअवसर मिला, जिन लोगों को आज तक सिर्फ़ पढ़ा था और अपनी कल्पना में उनकी छवि गढी थी. उनके साथ आमने सामने बैठकर बात चीत करना निश्चित रूप से बड़ा ही सुखद अनुभव रहा....


यह बड़े ही हर्ष और उत्साह का विषय है कि आज आमजनों को इलेक्ट्रानिक मिडिया (ब्लॉग )एक ऐसा माध्यम उपलब्ध है जिसके जिसके अंतर्गत अभिव्यक्ति कितनी सुगम और सर्वसुलभ हो गई है. अभिवयक्ति सही मायने में स्वतंत्रता पा रही है. मुझे लगता है,तालपत्रों पर से कागज पर और फ़िर इलेक्ट्रानिक संचार माध्यम पर उतरकर भी ज्ञान/साहित्य यदि ज्ञान/साहित्य है तो देर सबेर ब्लॉग के माध्यम से अभिव्यक्त सामग्री को भी टुच्चा और टाइम पास कह बहुत दिनों तक नाकारा नही जा सकेगा.हाँ, पर यह नितांत आवश्यक है कि अपना स्थान बनाने और स्थायी रहने के लिए ब्लाग पर डाली गई सामग्री स्तरीय हो. यह बड़े ही हर्ष और सौभाग्य की बात है कि तकनीक जो अभी तक अंगरेजी की ही संगी या चेरी थी, अब वहां हिन्दी भी अपना स्थान बनाने में सफल हुई है.


भाषा केवल सम्प्रेश्नो के आदान प्रदान का माध्यम भर नही होती, बल्कि उसमे एक सभ्यता की पूरी सांस्कृतिक सांस्कारिक पृष्ठभूमि,विरासत समाहित होती है. वह यदि मरती है तो,उसके साथ ही उक्त सभ्यता के कतिपय सुसंस्कार भी मृत हो जाते हैं ..विगत दशकों में हिन्दी जिस प्रकार संस्थाओं के कार्यकलाप से लेकर शिक्षण संस्थाओं तथा आम जन जीवन से तिरस्कृत बहिष्कृत हुई है, देखकर कभी कभी लगता था कि कहीं,जो गति संस्कृत भाषा ,साहित्य की हुई ,उसी गति को हिन्दी भी न प्राप्त हो जाय.पर भला हो बाजारवाद का,जिसने तथाकथित शिक्षित प्रगतिवादी तथा कुलीनों की तरह हिन्दी को अस्पृश्य नही बल्कि अपार सम्भावना के रूप में देखा ओर तकनीक में इसे भी तरजीह दिया.बेशक लोग हिन्दी में बाज़ार देखें ,हमें तो यह देखकर हर्षित होना है कि उन्नत इस तकनीक के माद्यम से हम हिन्दी प्रचार प्रसार और इसे सुदृढ़ करने में अपना योगदान दे सकते हैं. आज इस माध्यम के कारण ही प्रिंट तथा इलेक्ट्रानिक मिडिया के बंधक बने ज्ञान को अभिव्यक्त होने के लिए जो मुक्त आकाश मिला है,यह बड़ा ही महत्वपूर्ण सुअवसर है,जिसका सकारात्मक भाषा को समृद्ध और सुदृढ़ करने में परम सहायक हो सकता है और इसका सकारात्मक उपयोग हमारा परम कर्तब्य भी है..


आज ब्लाग अभिव्यक्ति को व्यक्तिगत डायरी के परिष्कृति परिवर्धित रूप में देखा जा रहा है, परन्तु यह डायरी के उस रूप में नही रह जाना चाहिए जिसमे सोने उठने खाने पीने या ऐसे ही महत्वहीन बातों को लिखा जाय और महत्वहीन बातों को जो पाठकों के लिए भी कूड़े कचड़े से अधिक न हो प्रकाशित किया जाय. इस अनुपम बहुमूल्य तकनीकी माध्यम का उपयोग यदि हम श्रीजनात्मक/रचनात्मक अभिव्यक्ति के लिए करें तो इसकी गरिमा निःसंदेह बनी रहेगी और कालांतर में गरिमामय महत्वपूर्ण स्थान पाकर ही रहेगी.केवल अपने पाठन हेतु निजी डायरी में हम चाहे जो भी लिख सकते हैं,परन्तु जब हम सामग्री को सार्वजानिक स्थल पर सर्वसुलभ कराते हैं, तो हमारा परम कर्तब्य बनता है कि वैयक्तिकता से बहुत ऊपर उठकर हम उन्ही बातों को प्रकाशित करें जिसमे सर्वजन हिताय या कम से कम अन्य को रुचने योग्य कुछ तो गंभीर भी हो. हाथ में लोहा आए तो उससे मारक हथियार भी बना सकते हैं और तारक जहाज भी.अब हमारे ही हाथ है कि हम क्या बनाना चाहेंगे.
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1.8.08

जो स्वप्न सिखा गया... !

अनंत काल के अनथक साधना और अन्वेशनोपरांत प्रबुद्ध ऋषियों मनीषियों से लेकर साधारण जनों तक ने सुखमय जीवन के जो सूत्र प्रतिपादित किए हैं,लाख जानने सहमत होने के बाद भी सर्वदा या विपत्ति काल में पूर्णतः वे कहाँ याद रह पाते हैं। मन बुद्धि कष्ट के क्षणों में भी स्थिर रहे,विचलित न हो यह नही हो पाता।जन्म लिया है तो एक न एक दिन मृत्यु को प्राप्त होना ही होगा और जाते समय कुछ भी साथ न जाएगा,सब जानते हैं.अपनी आंखों के सामने असमय मृत्यु को प्राप्त होते देखते हैं और जीवन की क्षणभंगुरता से परिचित भी होते हैं,पर सच माने तो व्यवहार में हम अपने लिए मृत्यु को मान,इस सत्य को आत्मसात और निरंतर स्मरण में नही रख पाते.मृत शरीर के साथ श्मशान तक भी जाते हैं तो भी यह नही मान पाते कि क्या पाता किस अगले क्षण में मेरी बारी हो.

वर्ष १९९७ की बात है.एक साधारण सी परेशानी हुई जिसे महीने भर तक बीमारी नही माना.परेशानी थी दाहिने पैर में कमर और घुटने के बीच दर्द रहने लगा,जो कि क्रमशः तीव्र से तीव्रतर ही होता गया.कभी सोचती अधिक चलने के कारण हुआ होगा कभी कमजोरी के कारण तो कभी कुछ.बस एक ऐंठन भर से ज्यादा नही माना.पर जब स्थिति में दवाइयाँ लेने के बाद भी कोई बदलाव नही आया,बल्कि दर्द के मारे रातों की नीद चैन समाप्त हो गया तथा धीरे धीरे जमीन पर पूरी तरह पैर रखना भी दूभर होने लगा तो फ़िर अस्पतालों का चक्कर शुरू हुआ जो अगले दस महीने तक चला.इन दस महीनो में एलोपैथ,होमियोपैथ,नेचुरोपैथ,झाड़ फूंक से लेकर कोई भी चिकित्सकीय पद्धति ऐसी न बची जिसे आजमाया न हो या जहाँ की ख़ाक न छानी हो. बिस्तर ही नही पकड़ाया इस पैर के दर्द ने बल्कि और भी कई सारे ऐसे ऐसे रोगों ने घेर लिया कि एक की ख़बर लो तबतक एक और सामने आकर खड़ा हो जाता था. शरीर केवल हड्डियों का ढांचा भर रह गया था और अपने हाथों एक गिलास पानी लेकर पीना भी दूभर हो गया था.ग्यारहवें महीने में जब रोग का पता चला तबतक वह काफ़ी एडवांस स्टेज में पहुँच चुका था.खैर इलाज़ आरम्भ हुआ.पर किस्मत का खेल था कि दवा की जो कोई भी कोम्बिनेसन दी जाती वह रिएक्सन कर जाता और चिकित्सकों को वह दवा बंद करनी पड़ती.घर परिवार वालों से लेकर चिकित्सकों तक को यह भरोसा न रहा था कि मैं बच पाउंगी.

उन्ही दिनों जब अस्पताल में पड़ी थी एक दिन एक स्वप्न देखा. देखा कि मैं मर चुकी हूँ और मेरे आस पास सभी रिश्ते नाते,संगी साथी मुझे घेरे रोये जा रहे हैं.मुझे लग रहा है कि इन सब लोगों को यह ग़लत फहमी कैसे हो गई कि मैं मर चुकी हूँ,जबकि मैं तो जीवित हूँ.मैं कभी अपने पति को तो कभी अपनी माँ को जा जा कर झकझोर कर कह रही हूँ कि मैं जीवित हूँ.लेकिन यह मैं भी देख रही हूँ कि मेरा शरीर जमीन पर रखा हुआ है और मैं शरीर से बाहर सबलोगों के पास अपने एक और शरीर के साथ जाकर बात कर रही हूँ जिसे कोई देख नही पा रहा.अपना पूरा जोर लगा मैं चिल्लाकर सबसे अपनी बात कह रही हूँ पर कोई उसे नही सुन पा रहा है और एक एक कर मेरे दाह संस्कार पूर्व के सारे रस्म निभाए जा रहे हैं.फ़िर मेरे शरीर को एक गाड़ी में लेकर बहुत सारे लोगों के साथ मेरे पति श्मशान की ओर लिए जा रहे हैं.मैं बिलख रही हूँ कि मैं मरी नही हूँ,मुझे अपने से अलग न करो पर किसी के कानो तक मेरी आवाज़ नही पहुँचती.जब श्मशान पहुँचती हूँ तो वहां पहले से ही और भी बहुत सारे शव रखे हुए हैं और मुझे देख सब हंस रहे हैं और खुशियाँ मना रहे हैं.इतने सारे शव बन चुके अजनबियों को देख और अपने लिए चिता सजाते देख भय और दुःख से विह्वल हो विलाप करने लगती हूँ और साथ ही बार बार जाकर पति को झकझोरती हूँ कि बाकी भले सारे मुझे मृत मान लें और मेरी आवाज़ न सुन पायें पर आप कैसे नही मुझे सुन देख महसूस कर पा रहे? पर मेरे रुदन यूँ ही अनंत में लीन हो जा रहे हैं,बिना किसी के कानो को छुए,किसी ह्रदय को प्रभावित किए.....सहसा शवगृह का स्वामी आकर उद्घोषणा करता है कि आज लकड़ी तथा बिजली न होने के कारण शवों का दाह संस्कार नही हो पायेगा,इन्हे कल तक के लिए वही छोड़ दिया जाए.सारी व्यवस्था कल तक दुरुस्त हो जायेगी और कल दाह संस्कार किया जाएगा.मेरे माता पिता,बच्चे,पति सब मुझे उन अनजान शवों के बीच जो कि मुझे नोच कर खा जाने के लिए बस मेरे परिवार जनों के वहां से हटने की प्रतीक्षा कर रहे है,खुश हो तालियाँ बजा रहे हैं,छोड़ कर घर की ओर चले जा रहे हैं और मैं भय से थरथराती,सबको पुकारती विलाप करती वहीँ पड़ी हूँ.............. और फ़िर मेरी नींद टूट गई.

स्वप्न का वह सत्य मुझे क्या अनुभूति दे गया और क्या क्या सिखा गया उसे शब्द दे पाना मेरे लिए असंभव है.मृत्यु के बाद के जीवन की बताने वाला या निश्चित रूप से इसके बारे में कुछ कह पाने वाला कोई नही है.पर यदि धर्म पुराणों की माने तो मृत्यु के बाद शरीर भले प्राण वायु से वंचित हो जाता है पर चेतना तुंरत नही मरती.जिसे हम ''मैं'' कहते हैं,वह यही चेतना तो है.संभवतः जो कुछ मैंने स्वप्न में देखा वह एक सत्य ही हो.किसी अपने के मृत्यु को बुद्धि द्वारा सत्य मानते हुए भी जब हम घटित और सत्य को सत्य मानने में तत्क्षण प्रस्तुत नही होते तो यह 'मैं' जिस शरीर में रहता है अनायास शरीर के नष्ट होने पर मृत्यु को सहजता से कैसे स्वीकार सकता है.

इस स्वप्न ने ज्ञानी मनीषियों द्वारा कहे गए वचनों को सद्यस्मृत रखने को पूर्णतः तैयार कर दिया कि.....
- मृत्यु जब चिरंतन सत्य है तो प्रतिपल इसके लिए मानसिक रूप से तैयार रखना है स्वयं को.
- जितना कुछ लेकर आए थे इस संसार में उतना ही कुछ साथ जाएगा और साथ केवल किए हुए कर्म ही जायेंगे.सो यदि संचित करना हो तो सत्कर्म कर संतोष अर्जित कर झोली भर लो.

- ईश्वर प्रदत्त इस शरीर के साथ साथ प्रतिक्षण का सदुपयोग और सम्मान करो.
- सुख या दुःख जो मिला उसे हर्ष से स्वीकार करो और धैर्य को पकड़े रहने को सतत प्रयत्नशील रहो.

प्रभु से प्रार्थना है कि प्रयाण काल में रोग ,शोक, मोह , भय, तृष्णा, असंतोष और पश्चात्ताप न सताए।बस मन में संतोष के साथ प्रभु का स्मरण हो और प्रसन्न मन से उसे कह पाऊं.....'' तुमने जो जीवन और अवसर दिया,उसमे इस छोटी बुद्धि और सामर्थ्य के सहारे जो कुछ कर सकी किया,अब यह शरीर माँ धरित्री को समर्पित है........... "