7.8.08

युवाओं में विवाह के प्रति बढ़ती अनास्था

धर्म में मनुष्य को जिन चार आश्रमों में रहने का प्रावधान बताया गया है ,उसमे जीवन के लिए विवाह को अति आवश्यक माना गया है.समाज को सुगठित और सुव्यवस्थित रहने के लिए तथा इसके द्वारा धर्म अर्थ काम का उपभोग अपने सहचर के साथ कर अंत में मोक्ष प्राप्ति का मार्ग भी इसी के माध्यम से गुजरकर ही माना गया है.क्योंकि जबतक व्यक्ति के तन मन और धन की बुभुक्षा शांत नही हो जाती निष्काम नही हो पाता और न ही धर्म कर्म में प्रवृत्त हो संसारिकता से विरत रह भगवत भक्ति में रत कर पाता है स्वयं को..

जबतक समाज सुगठित नही हुआ था,नियम निर्धारित न हुए थे,जर,जमीन,जोरू ही हिंसा द्वेष और मार काट के कारण हुआ करते थे.क्योंकि मन तो तब भी था,प्रेम तब भी हुआ करते थे और व्यक्ति इन तीनो से तब भी बंधा होता था मनुष्य . हाँ,व्यवस्था नही थी,जो कोई सीमा निर्धारित करती और लोगों को कर्तब्य बंधन में बांधती ,सो सबकुछ अस्त व्यस्त अराजक स्थिति में था ..

कालांतर में कई व्यवस्थाएं आयीं.कुछ सही भी कुछ ग़लत भी.पर एक बात जो शाश्वत थी और रहेगी कि विवाह जीवन और समाज के लिए सभ्यता के साथ ही आवश्यक थे और सभ्यता के अंत तक इसकी अपरिहार्यता निर्विवाद रहेगी,भले स्वरुप कितना भी बदले.

गृहस्थ आश्रम में अपने सहचर या सहचरी के साथ तन मन धन और धर्म इन चारों के उपभोग के साथ साथ पति पत्नी के लिए कुछ अधिकारों और कर्तब्यों की भी अवधारणा की गई है.परन्तु आज जैसे जैसे व्यक्ति(स्त्री पुरूष दोनों) वैयक्तिकता की दौड़ और होड़ में फंसे अपने अहम् को सर्वोपरि रख कर्तब्य से अधिक अपने अधिकारों के प्रति सजग रहने लगे हैं,प्रेम को भी लेन देन की तराजू में तौलने लगे हैं और तन मन धन और धर्म अब एक साथ नही, व्यक्तिगत रूप में व्यक्तिगत इच्छा के अनुरूप इसे जीवन में स्थान देने और मानने में लगें हैं तो विवाह रूपी इस संस्था पर से लोगों का विशवास टूटना दरकना लाजिमी है.

पहले पुरूष के लिए...............

आज की काफी हद तक स्वेक्षचारी जीवन शैली ने पुरूष के लिए संभावनाओं के अपरिमित द्वार खोल दिए हैं.सब नही, पर बहुत से युवा युवावस्था की दहलीज पर कदम रखते तक में तन मन के सुख का एक गृहस्थ की भांति उपभोग कर चुके होते हैं.धन कमाना उनका परम ध्येय होता है और धर्म की चिंता करना समय व्यर्थ करना लगता है.अपने हर आज को बखूबी कैसे एन्जॉय करना है इसके हर नुस्खे आजमाने तो तत्पर रहते हैं और सुगमता से इन्हे सब उपलब्ध भी रहता है.महानगरों में तो इसकी असीम संभावनाएं हैं,जो सरलता से जब चाहे उपलब्ध है..बल्कि ऐसी सेवाएं उपलब्ध कराने वाली एजेंसियां भी उपलब्ध हैं जो ''मित्र बनाओ'' से लेकर अकेलेपन को दूर कराने और हर प्रकार की सुविधाएँ उपलब्ध कराने के लिए २४ घंटे की सेवा खुलेआम इश्तेहार देकर प्रदान करते हैं.जब विवाह को तन के सुख के साथ बांधकर माना जाने लगे और जिंदगी की हर सुविधा और सुख टू मिनट मैगी या रेडी टू ईट स्टाइल में मिल रहा हो तो कौन फ़िर विवाह के बंधन में बाँध कर्तब्यों की बेडी में जकड़ना चाहेगा ख़ुद को. कर्तब्य निष्पादन में भी सुख है,कोई आपका नितांत अपना हर सुख दुःख में बिना किसी सेवा शुल्क के आपके लिए हर पल उपलब्ध है,जिसके साथ कर्तब्य निभाने में किसी को सुखी करने,खुशी देने में भी सुख है,और यह बोझ बंधन कतई नही है,जो पुरूष इसमे आस्था रखते हैं,वे तो सहज विवाह को मान्यता और सम्मान दे देते हैं पर इस से विमुख पुरूष जब प्रौढावस्था में होश में आता है और इसे मानने को प्रस्तुत होता है तबतक बहुत देर हो चुकी होती है और ये अपना बहुत कुछ खो चुके होते हैं.लाख पश्चिम का अनुकरण कर लें युवावस्था में, पर उम्र ढलने के बाद एक न एक दिन मानना ही पड़ता है कि हमारी भारतीय संस्कृति में जो भी प्रावधान हैं,अंततः सच्चा सुख उसी रास्ते चल मिल सकता है.

अब स्त्रियों की बात.........

कमोबेश जो मानसिकता पुरुषों की है पुरुषों की बराबरी में उतरी आज की तथाकथित माडर्न नारियां भी उसी बीमारी में स्वयं को स्वेक्षा से जकडे लिए जा रही हैं.आर्थिक आत्मनिर्भरता को स्त्रियों ने पति के विकल्प के रूप में मानना आरम्भ कर दिया है और घर गृहस्थी के कर्तब्य निष्पादन को मानसिक गुलामी मान, धन को ही पति परिवार सबका विकल्प मानना आरम्भ कर दिया है..धनाढ्य महिलाओं के लिए भी वो सारी सुविधाएँ उपलब्ध हैं जो एक पुरूष को तथाकथित सुख के लिए प्राप्य होते हैं.हालाँकि यह स्थिति पुरुषों में जितनी मात्रा में है उतनी स्त्रियों में नही आ पाई है.पर जब राह पर चल निकली हों तो चिंताजनक तो अवश्य ही है.

स्वेक्षाचारिता, वैयक्तिकता,भौतिकवादिता और कुछ हद तक पाश्चात्य संस्कृति के अन्धानुकरण ने आज के युवाओं चाहे स्त्री हो या पुरूष ,के मन में विवाह के प्रति वितृष्णा भरना शुरू कर दिया है.अब विवाह को बोझ और बंधन मानने की प्रवृत्ति बहुत तेजी से बढ़ने लगी है.वर्तमान के भौतिक युग में आज का युवा भौतिक वस्तुओं की खरीद फरोख्त की तरह विवाह को भी नफा नुक्सान की तराजू पर तौलकर देखने लगा है और सिर्फ़ आज में जीने वाला युवा पहले मोल तोल कर ठोंक बजा कर देख लेना चाहता है कि किस चीज के लिए क्या कीमत चुका रहा है.किसी समय विवाह नाम की इस संस्था को जो सामाजिक मान्यता तथा साम्मानित स्थान समाज को सुव्यवस्थित सुगठित रखने के लिए समाज द्वारा दिया गया था,अब वह बहुत तेजी से तिरस्कृत होने लगा है.

समस्या के मूल में जाएँ तो सबसे बड़ा कारण वैयक्तिकता ही है.व्यक्ति इतना अधिक आत्मकेंद्रित होता जा रहा है संवेदनाएं इस तरह सुप्त होती जा रही हैं कि अपने से बहार निकल और आगे बढ़ व्यवहार में दूसरों के दुःख सुख के प्रति बहुत अधिक उदासीन होने लगा है.कितने लोग(स्त्री या पुरूष)हैं जो देश दुनिया समाज के दुःख सुख को अपने व्यक्तिगत सुख दुःख से अधिक महत्व दे पाते हैं?स्वयं को छोड़ हर व्यक्ति दूसरा हो गया है,चाहे वह पति पत्नी बच्चे माता पिता ही क्यों न हों.और यही वैयक्तिकता जब हमें दूसरों के प्रति निर्मम और असंवेदनशील बनाती हैं तब किसी भी संस्था,चाहे वह विवाह का ही क्यों न हो मूल्यहीन होना,अपनी महत्ता खोना स्वाभाविक ही है. आज जो लोग विवाह से बचना भागना चाहते हैं,उसके मूल में कहीं न कहीं वे ही कष्ट फोकस में होते हैं जो इस संस्था में बंधने के बाद स्वार्थवश और अहम् के टकराव की अवस्था में लोगों को भोगना पड़ता है.दो व्यक्तियों में एक यदि कर्तब्य पथ पर चलने वाला हो भी पर दूसरा यदि अधिकार को पकड़े दूसरे को प्रताडित करता रहे, तो भी सम्बन्ध का सुचारू रूप से चल पाना कठिन हो जाता है.अब जब तक स्त्रियाँ आर्थिक परतंत्रता की बेडियों में जकड़ी हुई थीं,तबतक तो रोते पीटते कष्ट सहते जीवन निकाल ही लेती थीं और विवाह नाम की इस संस्था की लाज बच जाती थी.पर जैसे जैसे स्त्रियाँ इस से निकलती जा रही हैं,विवाह के प्रति इस तरह अनास्था तथा विवाह का टूटना तेजी से बढ़ता जा रहा है.


सम्बन्ध विच्छेद या विवाह से वितृष्णा दोनों ही स्थिति,चिंताजनक है तथा किसी भी स्थिति में न तो यह कष्टों से बचने का उपाय है या समस्या का समाधान ही है.बात बस इतनी है कि यदि हम अपने इस ''मैं'' से ऊपर उठ जैसे ही ''हम'' में विशवास करने लगेंगे दांपत्य की गरिमा और मधुरता को भी पा लेंगे और तब ही जान पाएंगे कि सच्चा सुख कर्तब्य से बचने में नही बल्कि उसके निष्पादन में ही है.विवाह केवल आर्थिक सुरक्षा और संबल के ही लिए नही बल्कि मानसिक सुख और संबल के लिए भी आवश्यक है.दम्पति जब परस्पर एक दूसरे के लिए प्रेम,निष्ठा,सम्मान और समर्पण की भावना रखे ,अपने कर्तब्य तथा सहगामी के अधिकारों के प्रति सजग रहे तो सिर्फ़ अपने लिए ही स्वर्गिक सुख नही अर्जित करेगा बल्कि अपनी आगामी पीढी के सामने भी सुसंस्कारों का आदर्श प्रस्तुत करेगा और अगली पीढी अपनी पिछली पीढी के सुख को देख विवाह बंधन को दुःख का बंधन नही बल्कि सुख का द्वार समझ पवित्र बंधन में बंधने को न केवल तत्पर होंगे,बल्कि पूरे मन से इसका सम्मान भी करेंगे.............

20 comments:

रंजू भाटिया said...

विचार करने वाला लेख लिखा है आपने ..आज या मानसिकता लड़कियों में बनती जा रही है की शादी एक बंधन है और इस से बचना है ..आपकी लिखी यह पंक्तियाँ आज की युवा पीढी समझने लग जाए तो अच्छा है समाज के लिए

यदि हम अपने इस ''मैं'' से ऊपर उठ जैसे ही ''हम'' में विशवास करने लगेंगे दांपत्य की गरिमा और मधुरता को भी पा लेंगे और तब ही जान पाएंगे कि सच्चा सुख कर्तब्य से बचने में नही बल्कि उसके निष्पादन में ही है.विवाह केवल आर्थिक सुरक्षा और संबल के ही लिए नही बल्कि मानसिक सुख और संबल के लिए भी आवश्यक है.

मैं और अहम् जहाँ है वहां कोई भी रिश्ता पनपना बहुत मुश्किल होता है ..जब हम बन जाता है तो वह रिश्ता मीठा है मधुर है ..

डॉ .अनुराग said...

सच पूछे तो हमारे वेद ओर पुराने परम्परायो में ही इतना कुछ निहित है की यदि उसे तोड़ मोड़ कर पेश न किया जाए तो आजकल लोग जिन बातो को सीखने के लिए स्वामियों ओर किताबो में ढूंढते है ,हमारी सभ्यता में पहले से मौजूद है....एक स्वस्थ खुशाल परिवार एक बेहतर समाज की नींव है.....ओर विवाह एक पवित्र बंधन...जिसमे मौजूदा युवा पीड़ी कम से कम अपने लिए तो जिम्मेदारी महसूस कर रही है ...शायद परिवार के प्रति उसकी निष्ठा भी बढ़ जाये .

cartoonist ABHISHEK said...

सटीक....

Udan Tashtari said...

एक विचारणीय उम्दा आलेख. अच्छा चिन्तन.

Shiv said...

बहुत सुंदर लेख है. एक महत्वपूर्ण मुद्दे पर बहुत सहजता से लिखा गया अद्भुत लेख है.

समयचक्र said...

सुंदर आलेख.

समयचक्र said...
This comment has been removed by the author.
अबरार अहमद said...

सोचने वाली बात है।

pallavi trivedi said...

achchi tarah se pesh kiya aapne is mudde ko...achcha lekh.

राज भाटिय़ा said...

आप का लेख आंखे खोलने वाला हे, अगर हम अब भी ना चेते तो... हालत ओर भी खारब होगे, डा० अनुराग जी की बात से सहमत हु.
सुन्दर लेख के लिये धन्यवाद

लावण्यम्` ~ अन्तर्मन्` said...

गँभीर विषय पर विचारणीय लेख के लिये आपका शुक्रिया -
२१ वीँ सदी मेँ ये प्रश्न सामने आया है उसे सही दिशा की आवश्यकता भी है ही विचार मँथन भी अति आवश्यक है
- लावण्या

Kumar Padmanabh said...

यह टिप्पणी विषय से हँट कर दे रहा हूँ. "कतेक रास बात" मैथिली ब्लोग पर आपकी दी गई टिप्पणी का मै स्वागत करता हूँ. मै आशा करता हूँ कि आप मैथिली भाषा को इन्टरनेट पर प्रचार प्रसार करने के लिए हम लोगोँ को प्रोत्साहित करती रहेँगी. समय मिलने पर www.vidyapati.org का भ्रमण करेँ अच्छा अनुभूति मिलेगा.

Kumar Padmanabh said...

ओह मै बताना भूल ही गया. मेरे उपनाम से आप चकमा ना खा जाएँ इसीलिए बताना जरूरी है कि मेरा नाम -डा० पद्मनाभ मिश्र है....

inshan said...

Ranjanaji aap ki soch badi gahri hai aur vishye ka chunav bhi.
Main ek tippni karna chahunga ki aaj ki yuva pidhi ki pravirti ke liye sayed pichli pidhi bhi utni hin jimewar hai.Vanprasth ashram ke dwar pe khade log extra marital affaier ko aautur her moud nukad pe milyenge. ye pidhi Nihsabd ke amitabh main apne chariter ke pratibimb ko dekh pulon nahin samatye.
Agli pidhi ko chhup chhupa ke kartye dekha gaya hai ushye yuva pidhi khule aam kar rahi hai.

ms said...

रंजनाजी भाई आप के विचार, सोच की प्रखरता के बारे में काया कहूँ- निह्सब्द हूँ . चलिए निह्सब्द पे एक और बात याद आ गई- हमारी पीढी इस फ़िल्म को देखने के बाद वहवाह करती पाए गई.इसमे उन्ह्ये उनकी दमीत इच्छाओं को सायेद रूप मिल गया था. भला हम बोयें गे नीम तो आम की कामना कैशे कर सकते हैं.

बालकिशन said...

"समस्या के मूल में जाएँ तो सबसे बड़ा कारण वैयक्तिकता ही है"
इसके अलावा भी बहुत से कारण है. परिवर्तन की जो बयार चल रही है ये सब कुछ उड़ा कर ले जाने वाली प्रतीत होती है. ये स्थिति दिनोदिन और भी बदतर होती जायेगी. कुछ इस कदर कि शायद लोगों को फ़िर इस विषय पर बात करना भी गवारा न हो.
बहुत ही विचारोत्तेजक लेख.

admin said...

विवाह के जितने प्लस प्वाइंट हैं, उससे ज्यादा माइनस प्वाइंट हैं। और हर व्यक्ति के वश की बात नहीं होती है अनचाही चीजों को बर्दाश्त करना। इसके लिए कारण वो तमाम तरह के गिना सकता है। यही कारण है कि इसके खिलाफ बहने वाली हवा दिन ब दिन तेज होती जा रही है।

Jitendra Dave said...

sateek, saargarbhit aur sam-saamyik lekh. likhti rahe. shubhkaamnaayen.

padma rai said...

अच्छा विषय चुना है आपने ! बधाई.

Anonymous said...

ये बहुत ही सम-सामयिक विषय है मैडम. ये शादी को ले के आज के युवा वर्ग में जबरदस्त संदेह है. शायद हमारे देश में ये जो विवाह का पूरा कांसेप्ट है - जिसमें जात पात, धर्म , सामाजिक स्तर इत्यादी के बिना जांच परख हुए शादी होना अति असंभव है. अगर कहीं आपने कर ली, तो बस समझिये कि हो गया आपका हैपी बर्थडे.

हमारे देश में अभी भी माँ - बाप ही अपने बच्चों के जीवन - साथी को खोजते हैं. जरूरी भी है. क्योंकि शायद अभी हम सब बच्चे पूरी तरह से अपने लिए क्या अच्छा है और क्या बुरा उसका फैसला नहीं कर सकते हैं. अब अपने सीमित ज्ञान कि वजह से हमको सिर्फ़ कोका कोला और पेप्सी ही दिखाई देता है. पश्चिमी देशों ने शायद और इस इन्टरनेट युग ने सब कुछ एकदम बदल दिया है.

शुक्रिया - इतना अच्छा लिखने के लिए. मैंने अपने ब्लॉग में इस पोस्ट का लिंक दिया है.
http://panchayatnama.blogspot.com/2008/09/blog-post_26.html