27.8.08

“ माँ आप मेरी आयडल थीं.”

“माँ आप मेरी आयडल थीं,पर जिस दिन मैंने आपको ऑफिस में झूठ बोलते देखा सुना("आप ऑफिस में मौजूद थीं पर जब आपके लिए फ़ोन आया तो आपने स्टाफ को कह दिया कि कह दो मैं ऑफिस में नही हूँ") ,माँ मुझे इतना बड़ा धक्का लगा कि बता नही सकता.आपने हमेशा हमलोगों को सच बोलने और अच्छा इंसान बनने,सच्चाई इमानदारी के रस्ते पर चलने की सीख दी.इस से पहले आपको कभी इस तरह झूठ बोलते सुना भी नही था और यही वजह था कि आपकी कही हर बात हमें सही लगती थी,लेकिन जब आपको ही झूठ में लिप्त होते देखा तो इतना बड़ा झटका लगा, समझ नही आया कि अबतक जो आपको देखता आ रहा था आपका वह रूप सही था या उस समय जो देखा वह सही था....मुझे लगा जब आप झूठ बोल सकती हैं तो सच्चाई की कीमत क्या है.मैं बहुत रोया था माँ.आपकी जो छवि मेरे मन में थी वह जैसे टूटने लगी थी.इसलिए उसके बाद से जब भी आप बड़ी बड़ी बातें करती हैं तो वो मुझे झूठी और छलावा लगती हैं.लगता है आपने दो चेहरे लगा रखे हैं एक दूसरों के सामने और एक हमारे सामने."

यह बात मेरे 13 वर्षीया पुत्र ने जिस दिन मुझे कहा,बहुत दिनों तक तो एक सन्न की अवस्था में रही और आज भी ये वाक्य मेरे अन्तःकरण को झकझोर कर ऐसे क्षुब्ध अवस्था में पहुँचा देते हैं कि मन एकदम अशांत हो जाता है.उस दिन कुछ भी न कह पाई थी,अपने बच्चे को.न ही अपनी सफाई में और न ही उसे सांत्वना में और न ही यह समझ में आया कि अपने को क्या सज़ा दूँ...

मुझे याद आया ,ऐसा ही कुछ मेरे साथ भी बचपन में घटित हुआ था,जब मैं करीब ७-८ वर्ष की थी.माता पिता या पुस्तक सत्य के मार्ग पर चलने को प्रतिपल प्रेरित करते थे.पर व्यावहारिक रूप में अपने अभिभावकों को जब छोटी छोटी बातों के लिए दूसरो से झूठ बोलते सुनती थी तो बड़ी भ्रामक स्थिति हो जाया करती थी और अक्सर ही अपने इन अभिभावकों या शिक्षकों से वितृष्णा सी होने लगती थी.एक बार ऐसा हुआ कि मेरे पिताजी के एक मित्र ने पिताजी से फोटोग्राफी के लिए कैमरा माँगा.पिताजी ने मुझे निर्देश दिया कि उक्त अंकल के आने पर उन्हें वह कैमरा दे दूँ,पर रोल न दूँ.जब वो सज्जन (पिताजी के अनुपस्थिति में)आए और मैंने उन्हें कैमरा दे दिया तो उन्होंने मुझसे पुचकारकर पुछा कि रोल है क्या? मैंने हामी भर दी.उन्होंने झट मुझसे उसकी मांग कर डाली और मैंने सरलता से उन्हें कह दिया कि पिताजी ने देने को मना किया है.पर वो भी पूरे ढीठ थे. उन्होंने मुझसे कहा कि पिताजी ने ही उन्हें वो दे देने को कहा है.मुझे लगा ये झूठ थोड़े न कह रहे होंगे,सो मैंने उन्हें वह लाकर दे दिया.और मजे की बात यह हुई कि पिताजी को उन्होंने जाकर यह कह दिया कि मैंने उन्हें जबरदस्ती दौडा कर वह रोल दिया है और कहा है कि पिताजी ने रोल लेने को कहा है.जब पिताजी घर आए और माताजी को सारी कहानी सुनाकर मुझे जबरदस्त झाड़ के साथ साथ कनैठी दी तो मेरी अजीब सी स्थिति हो रही थी.जितना दुःख मुझे डांट सुनने और कान मडोडे जाने का नही हुआ उस से सौ गुना अधिक इस बात का हुआ कि सारे के सारे झूठे और प्रपंची हैं.मुझे इस बात में कोई शंशय नही था कि झूठ बोलना ग़लत और अधर्म है.

समय के साथ साथ ये भाव गहरे ही बैठते गए और मन ही मन यह प्रण दृढ़ करती गई कि व्यावहारिकता और दुनियादारी के नाम पर जो बहुत सारे ग़लत को लोग करते चले जाते हैं और कहते हैं कि क्या करें इसके बिना काम थोड़े ही न चल सकता है,इस धारा के विरुद्ध चलकर इसे एक चुनौती के तरह निभाउंगी.कभी हारूंगी थकुंगी नही ,कभी इस सत्य पथ से विचलित नही होउंगी. अपने पूरे विद्यार्थी जीवन में अपने सिद्धांतों आदर्शों नैतिकता को पालित पोषित कर जीवित रखा और आंखों में बड़े बड़े सपने बुनती बसाती रही, विलक्षण कार्य और सकारात्मक परिवर्तन के.पर पता भी नही चल पाया व्यावहारिक जीवन पथ पर चलते हुए अधिकाँश प्रण कहाँ चुक गए. आज कमोबेश वही स्थिति है,जिसमे कभी अपने अभिभावकों को देखा था और जिस से कभी इतनी वितृष्णा रहा करती थी.इसे क्या कहूँ....आत्मा की आवाज को नकारना या अपनी कायरता या फ़िर अपनी कातरता ? क्यों इतने विवश हैं हम ?एक आदर्श व्यक्तित्व,माँ,नागरिक बने रहने के संकल्प की कसौटी पर स्वयं को परख पाने भर की हिम्मत भी कहाँ बची है?आज कितनी सारी बातों के लिए कितने आराम से हम यूँ ही माफ़ कर दिया करते हैं अपने आप को, यह कहते हुए कि क्या करते और कोई रास्ता भी तो नही बचा है. अपने सुविधानुसार जब चाहे तब सही ग़लत के बीच की विभाजन रेखा को परिभाषित कर लिया करते हैं हम और जब कभी आत्मा कि चीत्कार उठी भी तो उसे ठोक कर फुसलाकर सुलाने के उपक्रम करने लगते हैं. लेकिन समस्या यह है कि अपने बच्चों या वो सारे लोग जो हमें अपना अनुकरणीय मानते हैं, जिनकी श्रद्धा और विश्वास की दीवार की नींव हमपर टिकी होती है,अपना जो करते हैं वो तो करते ही हैं,उन्हें दिग्भ्रमित करने के पाप के भागी भी हमही बनते हैं.जो बच्चा धरती पर आता है,एक साफ़ सुथरे स्लेट की तरह उसका मन मस्तिष्क होता है पर उसपर हमारे कथन से अधिक हमारे कार्य व्यवहार अंकित होते हैं.सदैव से प्रत्येक माता पिता अपने संतान को विलक्षण गुण संपन्न देखना पाना चाहते हैं .परन्तु इसके लिए अपेक्षित कार्यकलाप और व्यवहार को सुगठित और नियंत्रित नही रख पाते. जिस बालक और बालिका को अपने घर में अपना प्रेरक माता पिता के रूप में नही मिल पाता उसका सहज ही दिग्भ्रमित होना स्वाभाविक है.

मुझमे हिम्मत नही कि मैं अपने बच्चे से पूछ पाऊं कि उसकी मेरे बारे में क्या राय है.पर ईश्वर से प्रार्थना है कि उसे एक आयडल ऐसा मिले जो उसके सत्य पथ पर चलने को सदैव प्रेरित करता रहे अपने जीवन मार्ग पर दृढ़ता से 'सही' के साथ चले और उसके समस्त सदगुण सुरक्षित रहें. ऐसा नही है की मेरा बेटा मुझसे प्रेम नही करता,पर मुझे असह्य कष्ट है कि मैं एक अच्छी माँ और अपने बच्चे कि पथप्रदर्शिका न बन पाई. यदि एक भी अभिभावक मेरे इस प्रसंग से सचेत हो सके तो लगेगा थोड़ा सा प्रयाश्चित मैंने कर लिया.

13 comments:

aarsee said...

कुछ लिखने से पहले माफी माँग रहा हूँ।

यह एक गंभीर विषय है और इस पर प्रतिक्रिया देने के लिये उतना ही चिंतन और अनुभव की आवश्यकता है।आप हर पहलू में मुझसे बड़ी है इसलिये कुछ लिखते हुये अजीब भी लग रहा है।पर मैंने भी जमशेदपुर में कॉपेरेटिव कॉलेज के दिन गुजारे है,इस कारण थोड़ा संयत हो पाया हूँ।

मुझे लगता है कि मनुष्य की सामाजिक,सांस्कृतिक,पारिवारिक.... सबका आश्रय धर्म के पहलू में है।समाजशास्त्र की माने तो वो भी ID,ego,superego की बात करता है।इड आदमी की मौलिक पहचान है,वो कभी बुरा नहीं होता।पर बाकी दोनों तत्व समाज,परिवार,काल से प्रभावित होते हैं।और इस कारण मूल रुप में बदलाव से तनाव की स्थिति आती है।पर यह बिंदु व्यावहारिक तौर पर कुछ काम नहीं करता कि इसे जानकर हम अपनी ज़िंदगी में बहुत कुछ फ़ायदा ले सकें।

दूसरा, जो मैंने पहले भी कहा कि धर्म की बात है।आजकल हम धर्म को इक ritual या sentiments की तरह लेते हैं।हमारा व्यक्तिगत अथवा सामाजिक जीवन आसपड़ोस से प्रभावित होता है,जो तुरत ही बदल जाता है।हो सकता है इस कारण भी तनाव होता हो कि हम fashion में पीछे रह गये और हमे इससे कदमताल करना है।इस दौड़ में हमारी अपनी पहचान खोने लगती है,हम समझौते करने लगते हैं।

धर्म ना ही भावुकता है नाही कुछ नियम को पूरा करने का प्रावधान।यह ना ही कोरी नैतिकता है।इसक अपन अलग रस है,ज़िंदगी कैसे गुजारी जाये-एक संदेश है।किसे कितनी प्राथमिकता दी जाये यह काफी तार्किक तौर पर स्पष्ट है।नैतिकता तो इसके साथ ही चली आते है।केवल कोरी नैतिकता कि ......हम इसे ऐस करेंगे,यह सत्य है... आदि बिना धर्म के सहारे ज्यादा देर तक टिकी नहीं रह सकती।और धर्म के साथ यह बिलकुल आसान हो जाती है।हाँ,साहस की आवश्यकता तो होती ही है।

एक आत्मा के रुप में सारे सदगुण हमारे पास होते हैं।पर हम अपनी लालसाओं में समझौते करने लगते हैं।और इसे सही ठहराने के पीछे हमारा तर्क या तो अगल-बगल की दुनिया से प्रभावित होता है या फिर नैतिकता के रुप में एक कोरी ज़िद।

और अंत में,
हम केवल अपनेआप को बदल सकते हैं।दूसरे हमसे प्रभावित हो सकते हैं पर यह हमारी ज़िद नहीं होनी चहिये।मैं इसलिये आपसे कह रहा हूँ कि आपकी रचना पढ़ने के बाद लगा कि आपसे मैं इस तरह की बातें लिख सकता हूँ।
बाकी आपपर।

मुझे खुद लग रहा है कि मैं कुछ ज्यादा लिख गया।हाँ,इच्छा तो है ही और लिखने कि पर....

पुन: क्षमाप्रार्थी।

सागर नाहर said...

ऐसा सिर्फ आपके साथ नहीं होता। मैं भी बच्चों को यही सिखाता हूँ कि हमे झूठ नहीं बोलना चाहिये.. ये नहीं करना चाहिये वो नहीं करना चाहिये आदि आदि..
पर वास्तविकता हम सब जानते हैं हमें दैनिक जीवन में कहीं ना कहीं झूठ बोलना पड़ ही जाता है, ऐसे में मुझे यही संकोच बना रहता है, डर लगा रहता है कि बच्चे अगर इस झूठ को पकड़ लेंगे तो उनके मन पर क्या बीतेगी ?
आपने बहुत सही विषय उठाया पर समाधान नहीं मिल सका।

डॉ .अनुराग said...

आपने जिस विषय को उठाया है गंभीर है....ओर अमूमन हर माँ बाप को इससे गुजरना पड़ता है ...हालांकि अभी मेरा बेटा छोटा है ...पर मैंने देखा है आजकल बच्चे सच झूठ को अडजस्ट करना जल्दी सीख जाते है.....याद करिए हम आप भी धीरे धीरे सीख गए थे ...

कुश said...

अच्छाई में बुराई कुछ इस कदर घुल गयी है.. की अब कितना भी छान लिया जाए कोई फ़ायदा नही.. हम भी सब समझ गये थे.. वो भी सब समझ जाएँगे.. पता नही कभी कुछ बदलेगा भी या नही..

PREETI BARTHWAL said...

यह विषय जो आप ने उठाया है हर घर की कहानी है। कोई मां-बाप अपने बच्चों को झूठ बोलने की सीख कभी नही देगा। लेकिन दैनिक जीवन में कई बार ऐसी परस्थितियां आ जाती हैं कि आपको किसी न किसी कारण से झूठ बोलना पङ जाता है। मेरा बेटा छोटा है और जब उसे टी.वी. पर कार्टूनचैनल न दिखाना हो या बंद करना हो, तो उसे कह देती हूं कि उसका पसन्दीदा प्रोग्राम खत्म हो गया है और जब वह किसी भी तरह खुलवा लेता है तो यही कहता है मम्मी आप झूठ बोल रही थी। पर मुझे नही लगता कि मैने कुछ गलत किया। उसे मैं समझा देती हूं कि मेने ऐसा क्यूं किया और बङी ही समझधारी से इस बात को समझ लेता है मान जाता है टी.वी. बंद कर देता है।

Udan Tashtari said...

विचारणीय मसला है. बहुत अच्छी पोस्ट-सोचने को मजबूर करती!

श्रीकांत पाराशर said...

ek katu satya hai magar yahi ghar ghar ki kahani hai.ekoi ek hajar jhute logon ke beech ek harishchandra ho bhi to uska jeena haram ho jata hai. iska matlab yah katai nahi ki main jhoot ki vakalat kar raha hun parantu yah bhi sahi hai ki jinhonne samay ke vipreet chalne ki koshish ki unhen bahut kuch khona padata hai.

pallavi trivedi said...

mujhe lagta hai ki hame jeevan mein chhote chhote jhooth to bolne hi padte hain! lekin koshish ye karni chaahiye ki jab tak bachche chhote hain unke samnejhooth bolne se bachen! jab wo thode bade ho jayenge to samajhne lagenge ki inke peechhe koi buri neeyat nahi hai! wo khud ba khud samajhne lagenge....

रंजू भाटिया said...

झूठ का संसार हम लोग ख़ुद ही बुनते हैं .और फ़िर इस में फंसते चले जाते हैं .छोटे मोटे झूठ यह सोच के बोलते हैं की इस से किसी का नुक्सान नही होगा पर बाद में कब वह हमारी आदत में शुमार हो जाते हैं पता ही नहीं चलता और यही आदत हम पीढी दर पीढी को देते जाते हैं ..

Shiv said...

हम जिस समय में जी रहे हैं, उसमें झूठ बोलना एक आम बात हो गई है. ऐसा नहीं है कि इंसान चाहकर झूठ बोलता है. कोई नहीं चाहता कि वो झूठ बोले. समस्या वहां से से शुरू होती है, जब हम अपने आस-पास के वातावरण को अपने हिसाब से ढालने की कोशिश करते हैं. किसी भी ऐसे प्रयास के कारण ढेर सारे हो सकते हैं. लेकिन ऐसा है.

मेरे विचार से ये तब शुरू होता है जब हम अपने आस-पास के लोगों को और वातावरण को ख़ुद से मजबूत मानने लगते हैं. अब चूंकि वातावरण को तुंरत बदलना आसान नहीं है इसलिए एक छद्म प्रयास के रूप में झूठ का सहारा लिया जाता है.

झूठ बोलने की शुरुआत ही वहां से होगी जहाँ हम ख़ुद के वास्तविक अस्तित्व को नकारना शुरू कर देते हैं.

travel30 said...

bahut hi gambhir evam satya baat uthayi aapne.... lekin kya aaj ke yug mein kevals ach bol kar raha ja sakta hai?


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मेरी पहली कविता...... अधूरा प्रयास

कामोद Kaamod said...

गम्भीर बिषय पर सही बात ...
झूटा यह संसार है
झूटे सारे लोग ..

आलोक कुमार said...

बच्चों के चरित्र-निर्माण पर अभिभावक का सबसे जयादा असर पड़ता है ...आपका पोस्ट बहुत ही संवेदनशील और सशक्त है मगर थोड़ी लम्बी है !!