मातृ रूप में शक्ति पूजन, भारतीय संस्कृति का अभिन्न अंग रहा है और अनादि काल से अनवरत चली आ रही यह परम्परा में निहित है. हिंदू पुराणों आख्यानों की मानें तो केवल ब्रह्माण्ड की ही उत्पत्ति ही नही बल्कि ब्रह्मा, विष्णु, महेश तथा अन्य सभी देवी देवताओं की उत्पत्ति भी आदिशक्ति माँ दुर्गा ने ही की है.वे ही श्रृष्टि का आधार हैं.प्रकृति से लेकर चर अचर तक शक्ति रूप में जो कुछ भी श्रृष्टि में निहित उपस्थित है, वह माता का ही रूप है. इस महा शक्ति मातृशक्ति की साधना आराधना देवों तथा मानवो ने ही नही दानवों ने भी की है और जब भी कभी जिस किसी दानव ने शक्ति के मद में चूर हो मनुष्यों , देवों या प्रकृति का दमन किया है,भक्तों की आर्त पुकार पर माता ने उस दुष्ट का नाश कर भक्तों को उससे त्राण दिलाया है. श्रृष्टि के प्रत्येक कण में यह आदिशक्ति व्याप्त हैं.
बहुधा क्षत्रियों की कुलदेवी यही आदि शक्ति माँ दुर्गा ही हुआ करती हैं और इनके आशीष के बिना शक्ति प्रयोग तथा विजय की कल्पना भी नही की जा सकती.पुरातन काल में परंपरागत रूप में माँ शक्ति की पूजा अधिकांशतः घरों में ही की जाती थी.पर कालांतर में इसे उत्साव और त्यौहार के रूप में वर्ष में दो बार बसंत ऋतु तथा शरद ऋतु में नवरात्र में देवी की आराधना के साथ हर्षोल्लास से मनाया जाता है.
दुर्गा शप्तसी में में जो कथा वर्णित है,उसके अनुसार महिषासुर,चंड मुंड,शुम्भ निशुम्भ इत्यादि महादैत्यों ने जब देवताओं तथा मानव जाति को परास्त कर उन्हें त्राण दे त्रस्त कर दिया तो देवों ऋषियों के आर्त पुकार पर आदि शक्ति माता दुर्गा ने अपने विभूतियों के साथ इन असुरों का संहार किया और धर्म की प्रतिस्थापना की.सप्त्शी के अनुसार देवी की विभूतियों(उनके ही अन्य रूपों) तथा अन्य सभी देवताओं के शक्ति रूपों की तो चर्चा है परन्तु परम्परा और व्यवहार में पूजन काल में देवी के विग्रहों के साथ गणेश तथा विश्वकर्मा की जो पूजा की जाती है,इस से सम्बंधित मैंने आज तक जो कुछ भी पढ़ा जाना है, उसमे कहीं नही पाया और यह मेरे लिए बाल्यकाल से ही उत्सुकता का विषय रहा.दुर्गा पूजा में देवी दुर्गा की प्रतिमा के साथ साथ लक्ष्मी ,सरस्वती, विश्वकर्मा तथा गणेश इन सबके विग्रहों के भी स्थापना और आराधना होती है.सबने देखा होगा.परन्तु नवरात्र में जिस दुर्गा सप्त्शी के पाठ के बिना नवरात्र आराधना अपूर्ण मानी जाती है,उसमे कहीं भी गणेश और विश्वकर्मा के विग्रहों की चर्चा नही है.
परम्परा में यूँ ही तो नही कुछ आ जाता, सो इसके पीछे भी कोई तथ्य रहस्य अवश्य होगा ,यह मन कहता था पर कईयों से पूछने पर भी इस जिज्ञासा का समुचित समाधान मुझे आज तक नही मिला है.मेरा निवेदन सभी प्रबुद्ध जनों से है कि जो कोई भी मेरे इस जिज्ञासा को शांत करने में मेरी सहायता करेंगे ,मैं उनकी सदा आभारी रहूंगी.
कुछ वर्ष पहले अपने मन के इसी जिज्ञासा के साथ जब माता के सम्मुख बैठी हुई थी तो अचानक मन में एक बात कौंधी,यह सत्य के कितने निकट है नही जानती पर मुझे लगा कि ये विग्रह समूह कितनी बड़ी बात की ओर इंगित कर रहे हैं.एक ध्रुव सत्य जो सदा के लिए प्रासंगिक तथा विचारणीय है.किसी भी नवनिर्माण या विध्वंस के लिए ये इतने ही अवयव तो चाहिए.
माँ दुर्गा शक्ति की प्रतीक हैं, जो किसी भी कार्य के लिए सबसे पहली आवश्यकता है.
सरस्वती विद्या की प्रतीक हैं,शक्ति बिना विद्या/ज्ञान के कभी सफलता नही पा सकती.
लक्ष्मी धन की प्रतीक हैं,शक्ति और विद्या हों भी तो बिना धन के न तो सृष्टि / रचना / नवनिर्माण का कार्य हो सकता है न ही विध्वंश / युद्ध का.
गणेश बुद्दि,युक्ति और विवेक के स्वामी(प्रतीक) हैं.उपरोक्त तीनो चीजे हों भी और उसे विवेकपूर्ण ढंग से युक्तियुक्त प्रयुक्त न किया जाए तो सब व्यर्थ हो जाता है.
और विश्वकर्मा तकनीक और निर्माण के देवता माने जाते हैं. विध्वंश के लिए भी तकनीक चाहिए और भ्रष्ट व्यवस्था के विध्वन्सोपरांत नवनिर्माण के लिए भी बिना तकनीक और निर्माण की आवश्यकता है नही तो इसके बिना सम्पूर्ण प्रयास व्यर्थ और अर्थहीन हो जाता है.
सो कुल मिलकर मातृशक्ति को सर्वशक्तिसंपन्न होते हुए भी विजय तभी मिलती है जब अपने साथ वे इन शक्तियों को लेकर चलती हैं.सत्य ही है इन पंच्शक्तियों के बिना जर्जर व्यवस्था का विनाश और नवसृजन कर विजयश्री प्राप्त कर पाना असंभव है.सर्व शक्ति मान होते हुए भी विजयी वही हो सकता है जो विद्या ,विवेक ,धन और तकनीक के साथ विभूषित हो..
नवरात्र का वह पावन अवसर निकट ही है सो कुछ बात कर ली जाए वर्तमान समय में इस उत्सव को जिस प्रकार से मनाया जाता है उसके विषय में........
कुछ लोग माता के प्रति पेम और निष्ठा को ह्रदय में धारण किए, बिना कर्मकांड में लिप्त हुए मानसिक पूजन में विश्वास करते हैं तो कुछ लोग इसे बेहद सादगी पूर्ण ढंग से घर में ही कलश स्थापित कर इन नवो दिनों में कठोर साधना उपासना तथा व्रत उपवास के साथ संपन्न करते हैं.कुछ कलश स्थापना न भी करें तो यम् नियम पालन करते हुए विग्रहों के पूजा स्थल पर या मंदिरों में जाकर अर्चना करते हैं,परन्तु एक बहुत बड़ा समुदाय ऐसा है जिसके लिए यह एक ऐसा अवसर है जिसमे रात रात भर पंडालों में घूम घूम कर '' ऐश " करने का सर्वोत्तम सुयोग है.आस्था निष्ठा से इस वर्ग का दूर दूर तक कोई सरोकार नही रहता.दर्शनार्थियों को ताड़ना और छेड़ छाड़,इनके लिए आलौकिक आनंद प्रदायक होता है. .
सही है कि परम्परा में उत्सवों का प्रावधान धार्मिक भावनाओं के उद्दीपन के साथ साथ सामूहिक भावना को जाग्रत करने के लिए किया गया था.पर आज ये धार्मिक उत्साव जो रूप ले चुके हैं,उसमे धर्म तो लुप्त होता जा रहा है,हाँ फूहड़ ढंग से मनाया जाने वाला उत्सव बच गया है.जो दिनों दिन और बदतर होता जा रहा है.आस्था का स्थान आडम्बर ने ले लिया है.चाहे वह कडोडों रुपये मंहगे पंडालों के निर्माण के लिए हों या डांडिया और रास के रूप में आयोजित बड़े बड़े प्रायोजित कार्यक्रमों के माध्यम से हो.अब तो महानगरों में पेप्सी कोला जैसी कम्पनियाँ भी इन डांडिया कार्यक्रमों का आयोजन करवाने लगी हैं जहाँ भरी भरकम फीस देकर लोग सज धज कर डिस्को डांडिया करने पहुँचते हैं.आस्था और धर्म वहां गौण रहता है,उद्देश्य मात्र मनोरंजन भर रहता है...
पूजा पंडालों में भी चहुँ ओर पैसा ही चमकता है.एक प्रकार से होड़ सी रहती है इन पूजा मंडलियों के बीच.अधिकांशतः इन मंडलियों के कर्ता धर्ता संरक्षक समाज के तथाकथित भाई लोग ही हुआ करते हैं जिनके बीच यह शक्ति प्रदर्शन तथा वर्चस्व स्थापित करने का मामला होता है.वर्चस्व की इस लडाई में गोली बन्दूक चलना आम बात है.पूजा के नाम पर जमकर वसूली होती है और इस वसूली से एकत्रित धन का जो सदुपयोग होता है उसके बखान की आवश्यकता नही.सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है.पूजा पंडालों में मानक भव्यता और ताम-झाम भर होती है.
बड़ा ही अफ़सोस होता है,जितना धन पूजा के नाम पर इस तरह बहाया जाता है,जहाँ एक ओर निर्धन दाने दाने को मुहताज है , बिना इलाज के असमय दुनिया से विदा हो रहे हैं,कई मेधावी बालक हैं जो पैसे के अभाव में पढ़ नही पाते.जहाँ सड़कें टूटी हुई है या और भी न जाने कितने ही असंख्य समस्याएं हैं,जिसने जीवन को विषम बना दिया है.क्या इनसे निपटने की जिम्मेदारी सिर्फ़ सरकार की बनती है.सरकार और व्यवस्था को गलियां दे दे देने से समाज की जिम्मेदारी समाप्त हो जाती है? चार दिनों के लिए बनाये जा रहे भव्य से भव्यतम पंडालों के लिए जो धन पानी के लिए बहाया जाता है उसका उपयोग उसी माता के नाम पर सार्थक कार्यों में भी तो किया जा सकता है.यदि एक कोष बनाकर उन अभावग्रस्त लोगों की मदद करें, फैली हुई अव्यवस्था के लिए कुछ कदम उठायें तो क्या यह भगवान् के प्रति भक्ति से कमतर होगी?
स्थिति तो यह है कि पूजा के ये अवसर जिस प्रकार से शहर में अव्यवस्था फैलाते हैं, कि उन चार पाँच दिनों के स्थिति की स्मृति ही भयातुर कर देती है.जगह जगह सड़क जाम,शोर शराबा,शरारती तत्वों की हुल्लड़बाजी ,सारे काम काज ठप्प इतनी बेचैन करती है कि उत्सवों का आगमन उत्साहित नही आतंकित ओर क्षुब्ध कर देती है..
आस्था मन और आत्मा में बसने वाली,धर्म आचार और व्यवहार में समाहित होने वाली तथा उत्सव सामाजिक सौहाद्र बढ़ाने वाले अवयव हैं।कोई आवश्यक नही कि व्रत उपवास या अन्य धार्मिक अनुष्ठानों में लिप्त होकर ही आस्तिकता का निष्पादन किया जाय या उसे प्रगाढ़ किया जा सकता है। आस्था और धर्म व्यक्ति के आत्मोन्नति के साथ साथ समाज को उन्नत और सुदृढ़ करने के लिए है।धर्म के नाम पर आडम्बर और धन का अपव्यय सर्वथा अनुचित है और यदि इसे अधर्म कहा जाए तो कोई अतिशियोक्ति न होगी॥
माता सबको सद्बुद्धि तथा मानव धर्म के मर्म को समझ पाने का विवेक दें यही उनसे प्रार्थना है..
" सर्व मंगल मांगल्ये शिवे सर्वार्थ साधिके,शरण्ये त्रयम्बिके गौरी नारायणी नमोस्तुते "
बहुधा क्षत्रियों की कुलदेवी यही आदि शक्ति माँ दुर्गा ही हुआ करती हैं और इनके आशीष के बिना शक्ति प्रयोग तथा विजय की कल्पना भी नही की जा सकती.पुरातन काल में परंपरागत रूप में माँ शक्ति की पूजा अधिकांशतः घरों में ही की जाती थी.पर कालांतर में इसे उत्साव और त्यौहार के रूप में वर्ष में दो बार बसंत ऋतु तथा शरद ऋतु में नवरात्र में देवी की आराधना के साथ हर्षोल्लास से मनाया जाता है.
दुर्गा शप्तसी में में जो कथा वर्णित है,उसके अनुसार महिषासुर,चंड मुंड,शुम्भ निशुम्भ इत्यादि महादैत्यों ने जब देवताओं तथा मानव जाति को परास्त कर उन्हें त्राण दे त्रस्त कर दिया तो देवों ऋषियों के आर्त पुकार पर आदि शक्ति माता दुर्गा ने अपने विभूतियों के साथ इन असुरों का संहार किया और धर्म की प्रतिस्थापना की.सप्त्शी के अनुसार देवी की विभूतियों(उनके ही अन्य रूपों) तथा अन्य सभी देवताओं के शक्ति रूपों की तो चर्चा है परन्तु परम्परा और व्यवहार में पूजन काल में देवी के विग्रहों के साथ गणेश तथा विश्वकर्मा की जो पूजा की जाती है,इस से सम्बंधित मैंने आज तक जो कुछ भी पढ़ा जाना है, उसमे कहीं नही पाया और यह मेरे लिए बाल्यकाल से ही उत्सुकता का विषय रहा.दुर्गा पूजा में देवी दुर्गा की प्रतिमा के साथ साथ लक्ष्मी ,सरस्वती, विश्वकर्मा तथा गणेश इन सबके विग्रहों के भी स्थापना और आराधना होती है.सबने देखा होगा.परन्तु नवरात्र में जिस दुर्गा सप्त्शी के पाठ के बिना नवरात्र आराधना अपूर्ण मानी जाती है,उसमे कहीं भी गणेश और विश्वकर्मा के विग्रहों की चर्चा नही है.
परम्परा में यूँ ही तो नही कुछ आ जाता, सो इसके पीछे भी कोई तथ्य रहस्य अवश्य होगा ,यह मन कहता था पर कईयों से पूछने पर भी इस जिज्ञासा का समुचित समाधान मुझे आज तक नही मिला है.मेरा निवेदन सभी प्रबुद्ध जनों से है कि जो कोई भी मेरे इस जिज्ञासा को शांत करने में मेरी सहायता करेंगे ,मैं उनकी सदा आभारी रहूंगी.
कुछ वर्ष पहले अपने मन के इसी जिज्ञासा के साथ जब माता के सम्मुख बैठी हुई थी तो अचानक मन में एक बात कौंधी,यह सत्य के कितने निकट है नही जानती पर मुझे लगा कि ये विग्रह समूह कितनी बड़ी बात की ओर इंगित कर रहे हैं.एक ध्रुव सत्य जो सदा के लिए प्रासंगिक तथा विचारणीय है.किसी भी नवनिर्माण या विध्वंस के लिए ये इतने ही अवयव तो चाहिए.
माँ दुर्गा शक्ति की प्रतीक हैं, जो किसी भी कार्य के लिए सबसे पहली आवश्यकता है.
सरस्वती विद्या की प्रतीक हैं,शक्ति बिना विद्या/ज्ञान के कभी सफलता नही पा सकती.
लक्ष्मी धन की प्रतीक हैं,शक्ति और विद्या हों भी तो बिना धन के न तो सृष्टि / रचना / नवनिर्माण का कार्य हो सकता है न ही विध्वंश / युद्ध का.
गणेश बुद्दि,युक्ति और विवेक के स्वामी(प्रतीक) हैं.उपरोक्त तीनो चीजे हों भी और उसे विवेकपूर्ण ढंग से युक्तियुक्त प्रयुक्त न किया जाए तो सब व्यर्थ हो जाता है.
और विश्वकर्मा तकनीक और निर्माण के देवता माने जाते हैं. विध्वंश के लिए भी तकनीक चाहिए और भ्रष्ट व्यवस्था के विध्वन्सोपरांत नवनिर्माण के लिए भी बिना तकनीक और निर्माण की आवश्यकता है नही तो इसके बिना सम्पूर्ण प्रयास व्यर्थ और अर्थहीन हो जाता है.
सो कुल मिलकर मातृशक्ति को सर्वशक्तिसंपन्न होते हुए भी विजय तभी मिलती है जब अपने साथ वे इन शक्तियों को लेकर चलती हैं.सत्य ही है इन पंच्शक्तियों के बिना जर्जर व्यवस्था का विनाश और नवसृजन कर विजयश्री प्राप्त कर पाना असंभव है.सर्व शक्ति मान होते हुए भी विजयी वही हो सकता है जो विद्या ,विवेक ,धन और तकनीक के साथ विभूषित हो..
नवरात्र का वह पावन अवसर निकट ही है सो कुछ बात कर ली जाए वर्तमान समय में इस उत्सव को जिस प्रकार से मनाया जाता है उसके विषय में........
कुछ लोग माता के प्रति पेम और निष्ठा को ह्रदय में धारण किए, बिना कर्मकांड में लिप्त हुए मानसिक पूजन में विश्वास करते हैं तो कुछ लोग इसे बेहद सादगी पूर्ण ढंग से घर में ही कलश स्थापित कर इन नवो दिनों में कठोर साधना उपासना तथा व्रत उपवास के साथ संपन्न करते हैं.कुछ कलश स्थापना न भी करें तो यम् नियम पालन करते हुए विग्रहों के पूजा स्थल पर या मंदिरों में जाकर अर्चना करते हैं,परन्तु एक बहुत बड़ा समुदाय ऐसा है जिसके लिए यह एक ऐसा अवसर है जिसमे रात रात भर पंडालों में घूम घूम कर '' ऐश " करने का सर्वोत्तम सुयोग है.आस्था निष्ठा से इस वर्ग का दूर दूर तक कोई सरोकार नही रहता.दर्शनार्थियों को ताड़ना और छेड़ छाड़,इनके लिए आलौकिक आनंद प्रदायक होता है. .
सही है कि परम्परा में उत्सवों का प्रावधान धार्मिक भावनाओं के उद्दीपन के साथ साथ सामूहिक भावना को जाग्रत करने के लिए किया गया था.पर आज ये धार्मिक उत्साव जो रूप ले चुके हैं,उसमे धर्म तो लुप्त होता जा रहा है,हाँ फूहड़ ढंग से मनाया जाने वाला उत्सव बच गया है.जो दिनों दिन और बदतर होता जा रहा है.आस्था का स्थान आडम्बर ने ले लिया है.चाहे वह कडोडों रुपये मंहगे पंडालों के निर्माण के लिए हों या डांडिया और रास के रूप में आयोजित बड़े बड़े प्रायोजित कार्यक्रमों के माध्यम से हो.अब तो महानगरों में पेप्सी कोला जैसी कम्पनियाँ भी इन डांडिया कार्यक्रमों का आयोजन करवाने लगी हैं जहाँ भरी भरकम फीस देकर लोग सज धज कर डिस्को डांडिया करने पहुँचते हैं.आस्था और धर्म वहां गौण रहता है,उद्देश्य मात्र मनोरंजन भर रहता है...
पूजा पंडालों में भी चहुँ ओर पैसा ही चमकता है.एक प्रकार से होड़ सी रहती है इन पूजा मंडलियों के बीच.अधिकांशतः इन मंडलियों के कर्ता धर्ता संरक्षक समाज के तथाकथित भाई लोग ही हुआ करते हैं जिनके बीच यह शक्ति प्रदर्शन तथा वर्चस्व स्थापित करने का मामला होता है.वर्चस्व की इस लडाई में गोली बन्दूक चलना आम बात है.पूजा के नाम पर जमकर वसूली होती है और इस वसूली से एकत्रित धन का जो सदुपयोग होता है उसके बखान की आवश्यकता नही.सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है.पूजा पंडालों में मानक भव्यता और ताम-झाम भर होती है.
बड़ा ही अफ़सोस होता है,जितना धन पूजा के नाम पर इस तरह बहाया जाता है,जहाँ एक ओर निर्धन दाने दाने को मुहताज है , बिना इलाज के असमय दुनिया से विदा हो रहे हैं,कई मेधावी बालक हैं जो पैसे के अभाव में पढ़ नही पाते.जहाँ सड़कें टूटी हुई है या और भी न जाने कितने ही असंख्य समस्याएं हैं,जिसने जीवन को विषम बना दिया है.क्या इनसे निपटने की जिम्मेदारी सिर्फ़ सरकार की बनती है.सरकार और व्यवस्था को गलियां दे दे देने से समाज की जिम्मेदारी समाप्त हो जाती है? चार दिनों के लिए बनाये जा रहे भव्य से भव्यतम पंडालों के लिए जो धन पानी के लिए बहाया जाता है उसका उपयोग उसी माता के नाम पर सार्थक कार्यों में भी तो किया जा सकता है.यदि एक कोष बनाकर उन अभावग्रस्त लोगों की मदद करें, फैली हुई अव्यवस्था के लिए कुछ कदम उठायें तो क्या यह भगवान् के प्रति भक्ति से कमतर होगी?
स्थिति तो यह है कि पूजा के ये अवसर जिस प्रकार से शहर में अव्यवस्था फैलाते हैं, कि उन चार पाँच दिनों के स्थिति की स्मृति ही भयातुर कर देती है.जगह जगह सड़क जाम,शोर शराबा,शरारती तत्वों की हुल्लड़बाजी ,सारे काम काज ठप्प इतनी बेचैन करती है कि उत्सवों का आगमन उत्साहित नही आतंकित ओर क्षुब्ध कर देती है..
आस्था मन और आत्मा में बसने वाली,धर्म आचार और व्यवहार में समाहित होने वाली तथा उत्सव सामाजिक सौहाद्र बढ़ाने वाले अवयव हैं।कोई आवश्यक नही कि व्रत उपवास या अन्य धार्मिक अनुष्ठानों में लिप्त होकर ही आस्तिकता का निष्पादन किया जाय या उसे प्रगाढ़ किया जा सकता है। आस्था और धर्म व्यक्ति के आत्मोन्नति के साथ साथ समाज को उन्नत और सुदृढ़ करने के लिए है।धर्म के नाम पर आडम्बर और धन का अपव्यय सर्वथा अनुचित है और यदि इसे अधर्म कहा जाए तो कोई अतिशियोक्ति न होगी॥
माता सबको सद्बुद्धि तथा मानव धर्म के मर्म को समझ पाने का विवेक दें यही उनसे प्रार्थना है..
" सर्व मंगल मांगल्ये शिवे सर्वार्थ साधिके,शरण्ये त्रयम्बिके गौरी नारायणी नमोस्तुते "
21 comments:
आपका लेखा बहुत ही उत्तम है...
भक्ति और शक्ति नोनो ही नजर आते हैं...
bahut sundar post. abhaar
सही लिखा है आपने रंजना ...पूजा के नाम पर जो कुछ होता है .अच्छा सार्थक लेख
man ko shanti dene vali post.....
उत्तम लेख । उत्तम विचार । ऐसी सोंच समाज के सम्मुख लाने के लिए धन्यवाद।
बहुत शानदार पोस्ट.
धन की माया दिखाकर भक्ति प्राप्त करना अब सामजिक कार्य माना जा रहा है. हमारे राज्य और बहुत से और भी जगह दुर्गा पूजा अब एक उद्योग बन चुका है. सोचने की ज़रूरत है कि इस तरह का आडम्बर कितना ज़रूरी है.
मातृ शक्ति पर मुझे विलक्षण पुस्तक लगती है श्री अरविन्द की द मदर। माता के अनेक वपु हैं - माहेश्वरी, महालक्ष्मी, महाकाली, महासरस्वती...
यह मान्त्रिक शक्ति से लोडेड है छोटी सी पुस्तक।
आपका लेख पढ़ कर इस पुस्तक का एक बार पुन: पारायण करने का मन हो आया है!
धन्यवाद लेख के लिये।
"कोई आवश्यक नही कि व्रत उपवास या अन्य धार्मिक अनुष्ठानों में लिप्त होकर ही आस्तिकता का निष्पादन किया जाय या उसे प्रगाढ़ किया जा सकता है। आस्था और धर्म व्यक्ति के आत्मोन्नति के साथ साथ समाज को उन्नत और सुदृढ़ करने के लिए है। धर्म के नाम पर आडम्बर और धन का अपव्यय सर्वथा अनुचित है"
धन्यवाद. बहुत सामयिक लेख है. बाहुबल और धनबल का तांडव तो हर तरफ़ दिखाई देता ही है.
जहाँ तक मैं समझा हूँ, गणेश जी का आवाहन तो विघ्न-विनायक या विघ्नेश्वर होने की वजह से हर कार्य के पहले किया जाता है - जैसे मुसलमान लोग बिस्मिल्लाह करते हैं भारत में शुभारम्भ को "श्रीगणेश करना" भी कहा जाता है. देवी पूजा भी इसका अपवाद नहीं है. विश्वकर्मा की पूजा शस्त्र-पूजा का ही एक अंग हो सकती है क्योंकि क्षत्रिय न सिर्फ़ तलवार के धनी थे, वह तलवारें बनाते भी थे और धातुकर्म (metallurgy) विश्वकर्मा का ही विभाग है.
ज्ञातव्य है कि पश्चिमी दंतकथाओं की अजेय राजा सोलोमन की तलवार भी भारत में बनी हुई ही मानी जाती है.
बहुत सुन्दर पोस्ट, रंजना -सहेजने योग्य!!
माता सबको सद्बुद्धि तथा मानव धर्म के मर्म को समझ पाने का विवेक दें यही उनसे प्रार्थना है..
जय माता दी
प्रेरणादायक लेख। बहुत अच्छी जानकारी के लिये धन्यवाद।
उत्तम रचना...
साधुवाद.....
श्रेष्ठ कार्य किये हैं.
आप ने ब्लॉग ke maarfat जो बीडा उठाया है,निश्चित ही सराहनीय है.
कभी समय मिले तो हमारे भी दिन-रात आकर देख लें:
http://shahroz-ka-rachna-sansaar.blogspot.com/
http://hamzabaan.blogspot.com/
http://saajha-sarokaar.blogspot.com/
एक सामान्य आदमी के मन में उठनेवाले सामान्य प्रश्नों को सहजता से प्रस्तुत करता आपका आलेख अच्छा लगा। एक ओर धार्मिक आध्यात्मिक पक्ष हैं तो दूसरी ओर सामाजिक सरोकार भी। मैं समझता हूँ कि किसी भी धर्म की शुरूआत सामाजिक सरोकार को ध्यान में रखकर ही हुई होगी। कालान्तर में उसमें अनेक प्रकार के कर्मकांड जुडते चले गए जो अंततः कई प्रकार के बुराईयों का कारण बना और धीरे धीरे धर्म समाज की मूल भावनाओं को निरूपित करने में असफल होता गया।
रहा सवाल गणेश जी, विश्वकर्मा जी आदि देवताओं के विग्रह का। धार्मिक ग्रंथों के अनुसार गणेशजी को सर्वप्रथम पूजा जाने का रिवाज है। यदि दुर्गा शप्तशती के द्वितीय अध्याय के ९वें श्लोक से ३०वें श्लोक तक का अध्ययन करें तो दुर्गाजी की उत्पत्ति, उनको सारे देवताओं द्वारा अस्त्र शस्त्र दिये जाने की उसमें चर्चा है। विश्वकर्मा जी ने दुर्गा जी को फरसा प्रदान किया, ऐसा कहा गया है। इसके अतिरिक्त यदि दुर्गा शप्तशती के अन्त में दिये गए प्रधानिक रहस्य, विकृत रहस्य और मूर्ति रहस्य को पढा जाय तो बात और स्पष्ट हो जायेगी।
वैसे भी हमारे सनातन धर्म का मूल ही है अनेकता में एकता। संभवतः इसी लिए किसी भी आयोजन में सारे देवताओं का समावैश किया गया है।
सादर
श्यामल सुमन
09955373288
मुश्किलों से भागने की अपनी फितरत है नहीं।
कोशिशें गर दिल से हो तो जल उठेगी खुद शमां।।
www.manoramsuman.blogspot.com
अच्छी जानकारी...सार्थक प्रस्तुति.
सुझाव....
शब्दों की टंकण संबंधी शुद्धता पर
अवश्य ध्यान दीजिये....जैसे श्रृष्टि के
स्थान पर सृष्टि होना चाहिए.
इससे आपकी प्रस्तुति अधिक प्रांजल
व प्रभावशाली बनेगी.इसी प्रकार कुछ
और शब्द संशोधन की अपेक्षा रखते हैं.
================================
मंगल भावनाओं सहित
डॉ.चन्द्रकुमार जैन
ranjanaji
bhartiya sanskriti aur dharm key bare nmain bhaut achchi jankari di hai.
पहली बार शायद आप के बांलग पर आया, बहुत अच्छा लगा, आप का लेख बिलकुल मेरे विचारो से मिलता हे, मे भी इन सब पाखंडो के विरुध हू, लेकिन भगवान को मानता हु,भगवान की मुर्तियो की भी पुजा करता हु, फ़ोटो को भी पुजता हू लेकिन अलग भाव से...टिपण्णी यही खत्म करता हे, बस आप का लेख बहुत ही पंसद आया
धन्यवाद
रंजना जी आपका लेख पढ़ा और मैं आपकी बातों से पूरी तरह सहमत हूँ। कावँड़ के दिनो में दिल्ली में होने वाले कुछ इसी तरह के प्रपचों की तरफ मैने भी अपनी एक पोस्ट में ध्यान दिलाया था। लगता है इन धार्मिक आयोजनों के पिछे के समाजिक सरोकारों को हम भुला चुके है और केवल लकीर के फकीर बने हुये हैं।
ranjna ji, aaj ke yug me aadhyatmic jyoti punj ko dept rakhne ke liye meri aur se shduwad.
कुल मिलकर मातृशक्ति को सर्वशक्तिसंपन्न होते हुए भी विजय तभी मिलती है जब अपने साथ वे इन शक्तियों को लेकर चलती हैं.
बहुत प्यारा निष्कर्ष दिया है आपने। इस प्यारी सी पोस्ट के लिए बधाई।
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