23.12.08

कर्मफल

बहुधा ही सहज रूप में एक प्रश्न मन में आया करता है.....कि जब परमात्मा इस सम्पूर्ण श्रृष्टि में कण कण में व्याप्त है, उसके कृपा के बिना पत्ता भी नही हिलता तो फ़िर इसी जगत में इतना कुछ विभत्स/अनाचार/ग़लत कैसे घटित हो रहा है ? नास्तिकों की छोडें ,बहुधा घोर आस्तिकों के मन को भी यह सोच ऊहापोह और शंशय में डाल व्यथित और विचलित किया करता है.


आस्था मानती है कि ईश्वर तो प्रेम और करुणा के स्वरुप हैं,उस करूणानिधि के अखंड साम्राज्य में विभत्सता का स्थान कैसे हो सकता है.........परन्तु फ़िर भी हम देखते आ रहे हैं कि युगों से संसार दुष्ट शक्तियों द्वारा आक्रांत रहा है.ऐसे में सहज ही मन पूछ बैठता है कि जब सम्पूर्ण जगत ही उनसे संचालित है और जब उसके सहमति के बिना एक पत्ता भी नही हिलता ,तो फ़िर क्या इस ग़लत घटित होने में भी उनकी सहमति है??? यदि इस ग़लत पर उनका नियंत्रण नही तो फ़िर वे कैसे सर्वसमर्थ हैं ?


..पर जब भी सच्चे ह्रदय से उस परमपिता से कोई जिज्ञासा की जाती है,वह सहज ही किसी न किसी मध्यम से हमारे उन जिज्ञासाओं का समाधान दे दिया करते हैं..तनिक गहनता से अनुभूत करेंके तो बड़ा ही स्पष्ट अनुभूत होगा कि ईश्वर प्रतिपल किसी न किसी माद्यम से हमसे बात करते रहते हैं और जब भी मन व्यग्र हो शंकाओं का निवारण चाहता हो तो तो उनके समाधान भी भेज दिया करते हैं.वही परम पिता जीवन में सुख के रूप में आनादोप्भोग के अवसर देते हैं तो दुख के रूप में अनमोल शिक्षा प्रदान किया करते हैं....


......... श्रृष्टि के आरम्भ में ईश्वर ने जलचर ,नभचर,स्थलचर, कोटि कोटि भिन्न भिन्न प्रजातियों की रचना की.परन्तु इतना कुछ बना चुकने के बाद भी उन्हें संतोष न हुआ और तब उन्होंने अपरिमित सामर्थ्य संपन्न जीव 'मनुष्य' की सर्जना की. अन्य जीवों की भांति समस्त अंग प्रत्यंग देने के साथ साथ बुद्धि रूप में मनुष्य को सामर्थ्य की वह पूंजी सौंपी जिससे मनुष्य केवल आहार विहार और संतानोत्पत्ति ही नही वरन उस ईश्वर की श्रृष्टि में बहुत कुछ फेर बदल सकने का सामर्थ्य भी रखता था.अपने इस रचना पर वे स्वयं ही इतने अभिभूत और मुग्ध हुए कि उसके ह्रदय में अपना निवास बनाने का निश्चय किया और वहां विवेक रूप में अवस्थित हो गए.अपरिमित सामर्थ्य और विवेकरूपी अपना अंश समाहित कर उस महत कृति मनुष्य को पृथ्वी पर उनमुक्त भाव से कर्म करने और उनके रचे समस्त प्रकृति के आनंदोप्भोग के लिए छोड़ दिया.


हमारे सामने समस्त उद्धरण हैं...जिस मनुष्य ने आत्मा/विवेक/ईश्वर को अनुभूत करते हुए सन्मार्ग पर चल सत्कर्म किए,वे देवतुल्य पूज्य हुए और जिस मनुष्य ने अपने अंतरात्मा की आवाज को अनसुना कर कुमार्ग पर अपनी गति रखी वह उतनी ही दुर्गति को प्राप्त हुआ.सामर्थ्य और विवेक देने के बाद ईश्वर प्रत्यक्ष रूप में कर्म करने के क्रम में किसी का हाथ पकड़कर रोकने नही आते.यह तो व्यक्ति विशेष पर निर्भर करता है कि ईश्वर ने विवेकरूप में जब उसे कुमार्ग गमन पर चेताया तो उसने अपने आत्मा की आवाज सुनी या नही. वैसे जो समग्र रूप में अपने कर्मो को उस परमपिता को समर्पित कर सच्चे ह्रदय से उससे सन्मार्ग पर चलने की शक्ति की याचना करता है,ईश्वर सचमुच किसी न किसी माध्यम से हाथ पकड़कर उसे ग़लत करने से रोकने चले आते हैं,इसके उदाहरणों की कमी नही है.व्यावहारिक रूप में हम भी इसे आजमा कर देख सकते हैं..


बहुत से लोग ईश्वर की प्रमाणिकता पर ही प्रश्न उठा बैठते हैं.तो यही कहा जा सकता है कि अनुभूतियों को केवल अनुभूत ही किया जा सकता है प्रकट रूप में उसे प्रमाणित या ठोस अवयव रूप में दृष्टिगत कराना कठिन है.हम देख सकते हैं कि कोसों दूर रहकर भी यदि हम अपने प्रियजनों के सुख दुःख, मनोभावों को बिना किसी सूचना के भी अनुभूत कर लेते हैं तो निश्चय ही एक कोई ऐसी परम शक्ति है ,जो प्रकट रूप में न भी दिखे तो भी इतने प्रखर रूप में अनुभूत होता है कि उसकी उपस्थिति अस्वीकृत नही की जा सकती.


अब बात रही कि कई बार यह देखा जाता है कि कोई अत्याचारी,व्यभिचारी,कुमार्गगामी भी बड़ा ही सुखी है और चाहे जितने भी पाप कर्म करे उन्मुक्त विचरण करता है और धन के बल पर दण्डित होने से बचा रहता है.ऐसे अवसरों पर पीडित होने पर बड़े बड़े आस्तिकों की आस्था डोल जाती है और ईश्वर के न्याय पर ही संदेह करने लगता है.परन्तु भौतिकी का यह सिद्धांत है कि ......... " हर क्रिया के बराबर और विपरीत प्रतिक्रिया होती है....." यह शाश्वत और अकाट्य सत्य है . इस श्रृष्टि में कोई भी क्रिया निष्क्रिय या नष्ट नही होती.हम चलते बोलते खाते पीते यहाँ तक कि सोचते हुए जो कुछ भी क्रिया कर्म संपादित करते हैं, वह अदृश्य तरंग रूप में इस ब्रह्माण्ड में सुरक्षित रहता है और उस क्रिया की प्रतिक्रिया होती ही है.


जैसे ही मनुष्य जन्म लेता है उसके कर्मो का एक व्यक्तिगत खाता खुल जाता है और उसके द्वारा प्रतिपादित प्रत्येक कर्म का लेखा जोखा जमा होने लगता है.हमारे शाश्त्रों में इसकी बड़ी सुंदर व्याख्या की गई है.कर्मफल को '' प्रारब्ध, संचित और क्रियमाण " इन तीन श्रेणियों में विभक्त किया गया है.कर्म प्रतिपादन का माध्यम भले यह शरीर हो ,परन्तु समस्त कर्म संचालित मन और चेतना द्वारा ही होते हैं,जो कि कभी नष्ट नही होती ,केवल माध्यम (शरीर) ही निश्चित अवधि के बाद नष्ट होती है. तो इस चेतना/आत्मा को कई जन्मो तक संचित सुकर्म अथवा दुष्कर्म का फल भोगना पड़ता है.हमारे द्वारा मन वचन और कर्म द्वारा सुकर्म या दुष्कर्म जो प्रतिपादित होते हैं,वह हमारे लिए संचित हो जाता है और इसी के परिणामस्वरूप कोई पापी भी अपने संचित पुण्य भाग को भोगता हुआ पापकर्मों में लिप्त रहते हुए भी निष्कंटक विचरता है और कोई पुनीत कार्य कर भी कष्टों को भोगता है.परन्तु दोनों ही स्थितियां स्थायी नही हैं. जैसे ही कुकर्म अथवा सुकर्म के संचित फलों का भण्डार चुक जाता है,परिस्थितियां बदल जाती हैं.कर्मानुसार फलभोग निश्चित है,चाहे इसके लिए कई जन्म क्यों न लेना पड़े..


अतः यह कहना कि वह सर्वसमर्थ ईश्वर पापाचार अनाचार क्यों नही रोकता, मूढ़ता है। ईश्वर के दिए सामर्थ्य का यदि कोई दुरूपयोग करे और दोष ईश्वर को दे,यह कहाँ तक न्यायसंगत है.यह सब तो अपने हाथ ही है, इस सामर्थ्य का सदुपयोग कर मानव भी ईश्वर तुल्य पूज्य हो जाता है और इसी का दुरूपयोग कर महान विध्वंसक भी होता है. परन्तु किसी भी अवस्था में पूज्य धर्म के मार्ग पर चलने वाला ही होता है ,भले अल्पकाल के लिए दुराचारी अपने विध्वंशक शक्ति के बल पर लोगों को भयभीत कर दे.

17.12.08

चिंता नही, इरेजर है न.......

इस डिजिटल युग में ईरेजर . ...विज्ञान प्रदत्त मनुष्य को एक ऐसी सुविधा है जिसने मानव जीवन को अपार सुगमता दी है. स्याही से लिखी जाती थी और गलती/अशुद्धि होने पर लिखे कागज और मूड, दोनों का कचड़ा हो जाता था .पहले तो पेन्सिल से लिखे को मिटाने की सुविधा हुई और अब?


अब तो कागज पेंसिल सब बाय बाय.सीधे इलेक्ट्रानिक मिडिया में लिखो और वहां तो भई मिटाने की छोड़ो आपकी गलतियों को रेखांकित कर सही शब्द और वाक्य विन्यास के लिए भी पूर्ण प्रावधान उपलब्ध हैं.अब गलतियों से डरने या घबराने की कोई आवश्यकता नही.सुख में कहीं कोई अवरोध नही आ सकता.चाहे लिखते समय हो या गीत संगीत द्वारा मनोरंजन के समय.


पहले एक आधार था रेडियो....रेडियो जो बजा दे, सुनते रहिये ,पसंद आया तो ठीक नही तो कान या रेडियो मूँद कर प्राण बचाइए.लेकिन अब तो भई हमारे पास तरह तरह के छोटे से बड़े आकार में एक से बढ़कर एक इलेक्ट्रानिक उपकरण उपलब्ध हैं जिसमे एक साथ अपने पसंदीदा हजारों गीत एकत्रित कर रख सकते हैं. जब जिससे मन भर जाय और अप्रिय लगने लगे, झट ईरेज कीजिये.फोटो खींचना हो,कुछ गड़बड़ हो गई,पसंद की फोटो न खिंची,कोई दिक्कत नही.......ईरेज कीजिये.सब डिजिटल है भाई.
अब मनोरंजन हो या रोजमर्रा की सुविधाएँ,प्रत्येक क्षेत्र में जब 'ईरेजात्मक' सुविधा उपलब्ध है. ऐसे में चिकित्सा क्षेत्र क्यों पीछे रहे?


ई-रेजरों की इसी श्रृंखला में चिकित्सा जगत में क्रांति कारी उपलब्धि यह नवीन औषधि है "आई-पिल "। गलती हो गई, कोई बात नही.बहत्तर घंटें हैं आपके पास,अपनी गलती को ईरेज करने के लिए. सरकार ने इसे बिना किसी चिकित्सक के अनुज्ञा ( प्रिस्क्रिप्सन) के सभी औषधालयों में ग्राहकों को उपलब्ध कराने का आदेश दिया है.

वैसे तो यदि यह औषधि कारगर हुई तो भ्रूण हत्या रोकने के क्रम में यह एक अत्यन्त सार्थक सराहनीय वरदान सा होगा और इस परिपेक्ष्य में इसकी मुक्त कंठ से प्रशंशा होनी चाहिए.पर देखा जाए तो आज जितने गर्भपात होते हैं,उसमे से कितने गर्भपात दम्पतियों के बीच हुए तथाकथित गलती का परिणाम होते हैं?


आंकडों पर दृष्टिपात करें तो स्वैक्षिक गर्भपात में चालीस प्रतिशत कन्या भ्रूण की हत्या होती है और पचपन प्रतिशत गर्भपात अनैतिक शारीरिक सम्बन्ध से हुए गर्भधारण का परिणाम है।मुश्किल से पाँच प्रतिशत या उससे भी कम ही गर्भपात विवाहिता के अनैक्षिक गर्भधारण का परिणाम होती है॥यह आई-पिल बनाम ईरेजर पूर्ण संज्ञान में अच्छी खासी मात्रा में व्यय कर भ्रूण परिक्षनोपरांत कन्या भ्रूण हत्या में तो कतई अवरोधक या कारगर न होगा. ,हाँ अवांछित गर्भधारण और भ्रूण हत्या पर अवश्य कुछ रोक लगा सकता है.

समस्या इसके सदुपयोग में नही इसके दुरूपयोग में है. आज हमारा किशोर और युवा वर्ग नैतिक मूल्यों को धता बताते हुए जिज्ञासा और आनंदोप्भोग के लिए जिस तरह आँख मूंदकर भागा जा रहा है, यह उनके द्वारा सर्वाधिक उपयोग में लाया जाएगा और भ्रूण हत्या भले रुक जाय पर नैतिक पतन किस पराकाष्ठा पर पहुंचेगा ,पता नही......


समाज को सीमाओं में निबद्ध रखने में भय की भी महत्वपूर्ण भूमिका होती है.अभी कुछ दिनों पहले एक ख़बर टी वी में सुना कि पाँचवीं छठी वर्ग की क्षत्राएँ गर्भपात के लिए चिकित्सकों के पास जाने लगी हैं..ऐसा नही कि यह सिर्फ़ सुना भर ,अपने आस पास यह सब देखा भी है.


किशोर वय जो कि एक आंधी की तरह बहना चाहते हैं,नैतिकता की बातें उनके लिए प्रहसन है,किसी अवरोध को स्वीकारना उन के लिए उनके अधिकारों का हनन ही नही अभिभावकों का उनपर अत्याचार है... उनके बहकते कदम को रोकने के लिए इस भय का होना अत्यन्त आवश्यक है. एक समय था जब भय,शील, धर्म, मर्यादा, आत्मसम्मान इत्यादि इत्यादि बेडियाँ थीं,जिसमे बंधकर मन को बांधकर रखा जाता था.समय के साथ शील धर्म मर्यादा नैतिक मूल्य की बातें तो दरकिनार होती गयीं ,बस एक भय बचा था,कि अंततः सुखोपभोग की कीमत लडकी को ही तो चुकानी पड़ती है.


लोकोपवाद तथा सबकुछ भुगतना लडकी को ही पड़ता है ,यह भय उत्सुकता और आकांक्षा पर भारी पड़ता था और कुछ हद तक अवरोधक का काम करता था।भले यह आई-पिल भ्रूण हत्या रोकने में समर्थ होगा पर यह स्वच्छंद शारीरिक सम्बन्ध को और बढ़ाने में सहायक भी होगा.... अब तो यह दुस्साहसी निडर पीढ़ी, इस उपाय के सहारे निःसंकोच जिज्ञासा समाधान और आनादोप्भोग के लिए निकल पड़ेंगे.

पहले एड्स पश्चिम के उन्मुक्त समाज का रोग माना जाता था।पर आज भारत में भी समस्या दिन प्रतिदिन भयावह होती जा रही है.यह रोग उस उन्मुक्त यौनाचार का ही प्रतिफल है, यह तथ्य किसी से छुपा तो नही. वर्तमान में जितनी गंभीर समस्या अजन्मे शिशु की अमानवीय हत्या है उतना ही स्वछन्द यौनाचार भी है,जो बड़ी तेजी से पूरे संस्कृति और समाज को पतनोन्मुख किए जा रहा है॥


पश्चिम में जहाँ पूर्ण यौन स्वछंदता है,अधिकांशतः अल्पवयस्क बच्चे कच्ची उम्र में ही अनैतिक यौनाचार और नशीली दवाओं के सेवन में निमग्न हो जाते हैं और उनमे विवाह परिवार जैसी व्यवस्थाओं के प्रति अनास्था का भाव आ जाता है,जिससे समाज में एक तरह से उच्छ्रिन्खला और विघटन व्याप्त हो जाता है।आज जितनी मात्रा में मनोरोगी पश्चिमी सभ्यता या उसके अनुकरण करने वाले किसी भी देश में रह रहे उस के अनुयायियों में पाया जाता है वह संतुलित जीवन जीने वालों में नही.जैसे मिठाई पसंद करने वाला यदि अत्यधिक मात्रा में प्रतिदिन केवल मिष्टान्न का सेवन करने लगे तो स्वस्थ्य का तो जो होगा सो होगा,एक अवधि के बाद उसे मिठाई से वितृष्णा हो जायेगी. वैसा ही इसके साथ भी है.


इस पिल के द्वारा गर्भस्थ शिशु की हत्या रोकने का प्रयास तो हो चुका है पता नही पीढी को व्यभिचार से विमुख करने के लिए कोई उपाय मिलेगा या नही?

8.12.08

हे प्रभु वर दो !

हे करुणाकर करुणा कर दो,

उर सबके सद्बुद्धि भर दो.

हिंसा द्वेष विध्वंश मिटाकर,

जीवन सबका सुखमय कर दो.



भार हो रहा जीवन जीना,

आताताई ने सुख छीना.

हे त्रिनेत्र अब नेत्र खोल दो,

धरा न चाहे शोणित पीना.



तुमने यह संसार बनाया,

सब सुख से है इसे सजाया.

विष को अपने कंठ में रख कर,

श्रृष्टि पर अमृत बरसाया.



असुर कित्नु कुछ शेष रह गए,

मनुज देह धर कपट कर रहे.

भांति भांति संहार रचाकर ,

मानवता को त्रस्त कर रहे.



विध्वंसक की बुद्धि हर लो,

भस्मासुर को अब न वर दो.

फ़िर से मोहिनी रूप रचाकर,

दुष्ट दम्भी को भस्म ही कर दो.



अधर्म पाप का ग्रहण हटाओ,

सदाचारियों को प्रभु तारो.

सत्य धर्म को विजय दिलाकर,

अनाचार सामूल मिटा दो.

5.12.08

एक पत्र भारतीय प्रधान मंत्री के नाम............

क्रोध,क्षोभ,घृणा,आक्रोश और अवसाद इत्यादि ने मनोभूमि को ऐसे आच्छादित कर दिया कि उसने समस्त शब्दों को ही कुंठित कर दिया.लगातार मस्तिष्क में ये वाक्य कौंध कौंध कर हथौडे मारते हैं कि आठ व्यक्तियों ने मिलकर कैसे पूरे देश को झकझोर डाला.कितना सरल है सौ करोड़ आबादी वाले देश को एक झटके में पूरी तरह हिला देना......जब सबकुछ इतना आसान है तो फ़िर लंबे चौडे विनाशक युद्धों की आवश्यकता ही क्या है.बस दो,चार,आठ दस लोग लाव लश्कर के साथ टहलते हुए आयेंगे और खूनी खेल खेलकर चले जायेंगे.अबकी तो मारे गए, अगली बार किसी वरिष्ठ मंत्री के नाते रिश्ते वालों को बंधक बनायेंगे और भारत सरकार उन्हें अपने सरकारी विमान से सकुशल उनके इच्छित देश की सुरक्षित सीमाओं में पहुँचा आयेंगे.


इतने वर्षों से झेलते हुए यूँ तो जननेता संग जनता ऐसी आतंकवादी घटनाओ की आदी सी हो चुकी है,पर इसबार यह घटना जिस ढंग से हुई,जनताओं के लिए भले यह आम सी बात रह गई पर आम जनता के सब्र का प्याला जरूर छलक गया है.इस त्रासदी के बीच ये दो बातें बड़ी ही सुखद रही कि एक तो आम जनता बिना प्रायोजित और किसी राजनेता के अगुआई के ही सडकों पर उतर आई और दूसरे इस घटना ने जाति पांति धर्म भाषा की दीवार को द्वस्त करते हुए प्रत्येक भारतीय के मन को व्यथित आक्रोशित और आंदोलित किया.यह कोई छोटी उपलब्धि नही.जिस विध्वंसक प्रयोजन का आधार ही हिंदू मुस्लिम में साम्प्रदायिकता को भड़काकर सांप्रदायिक सौहाद्र को ध्वस्त करना हो ,वहां यदि इसके उलट दोनों समुदाय वैर भाव भुलाकर इसकी भर्त्सना करे और विरोध को एकजुट हो जाए तो इसमे निश्चित रूप से भारत की जीत है. इसके पूर्व की अन्य घटनाओं ने भले यह स्थिति न आने दी हो ,पर इस घटना ने तो यह कमाल कर ही दिया.आतंकवादियों को कम से कम अब समझ जाना चाहिए कि भारत जैसे देश में जहाँ हिंदू मुस्लिम संस्कृतियाँ इस तरह से घुली मिली हैं,इतना सहज नही है इन्हे पूरी तरह से अलग करना या देश को अस्थिर करना.


इन दिनों पूरे देश में ईमेल तथा एस एम् एस द्वारा जो एक दूसरे को संदेश भेजे जा रहे हैं,वे अत्यन्त प्रभावी और शुभ हैं.जहाँ आम जनता पर आक्षेप लगाया जाता था कि जनता आत्मकेंद्रित है,अपने कर्तब्यों अधिकारों के प्रति बिल्कुल भी सजग नही,उन्हें देश से नही सिर्फ़ अपने नफे नुक्सान से मतलब है,वहां इस तरह देश तथा अपने कर्तब्यों अधिकारों के प्रति सजगता देखकर अपार हर्ष होता है.चाहे कोई कुछ भी कहे पर मैं मानती हूँ कि आज भी आमजनों में देशभक्ति का जज्बा उन जांबाजों से कम नही जो आजादी के जंग में दुश्मनों के सामने अपने सीने खोलकर निकल चले थे.जनता सो नही रही है बस अन्दर अन्दर सब सुलग रहे हैं,अब देशवासियों का धैर्य उस सीमा पर पहुँच गया है जहाँ एक छोटी सी भी घटना उसे भ्रष्ट राजनेताओं और विध्वंसक शक्तियों के ख़िलाफ़ अस्त्र उठाने को मजबूर कर सकती है.


आज एक ईमेल मुझे भी प्राप्त हुआ इसे अपने समस्त संपर्कों में प्रसारित करने के अनुरोध के साथ.उसको पढ़ ऐसा लगा कि सचमुच यह अपने ही मन की बात हो........आप भी पढ़ें.........

READ TILL END………….


A PERFECT LETTER TO PM.
LETTER TO PRIMEMINISTER
Dear Mr. Prime minister ,
I am a typical mouse from Mumbai. In the local train compartment which has capacity of 100 persons, I travel with 500 more mouse. Mouse at least squeak but we don't even do that.
Today I heard your speech. In which you said 'NO BODY WOULD BE SPARED'. I would like to remind you that fourteen years has passed since serial bomb blast in Mumbai took place. Dawood was the main conspirator. Till today he is not caught. All our bolywood actors, our builders, our Gutka king meets him but your Government can not catch him. Reason is simple; all your ministers are hand in glove with him. If any attempt is made to catch him everybody will be exposed. Your statement 'NOBODY WOULD BE SPARED' is nothing but a cruel joke on this unfortunate people of India.
Enough is enough. As such after seeing terrorist attack carried out by about a dozen young boys I realize that if same thing continues days are not away when terrorist will attack by air, destroy our nuclear reactor and there will be one more Hiroshima.
We the people are left with only one mantra. Womb to Bomb to Tomb. You promised Mumbaikar Shanghai what you have given us is Jalianwala Baug.
Today only your home minister resigned. What took you so long to kick out this joker? Only reason was that he was loyal to Gandhi family. Loyalty to Gandhi family is more important than blood of innocent people, isn't it?
I am born and bought up in Mumbai for last fifty eight years. Believe me corruption in Maharashtra is worse than that in Bihar. Look at all the politician, Sharad Pawar, Chagan Bhujbal, Narayan Rane, Bal Thackray , Gopinath Munde, Raj Thackray, Vilasrao Deshmukh all are rolling in money. Vilasrao Deshmukh is one of the worst Chief minister I have seen. His only business is to increase the FSI every other day, make money and send it to Delhi so Congress can fight next election. Now the clown has found new way and will increase FSI for fisherman so they can build concrete house right on sea shore. Next time terrorist can comfortably live in those house , enjoy the beauty of sea and then attack the Mumbai at their will.
Recently I had to purchase house in Mumbai. I met about two dozen builders. Everybody wanted about 30% in black. A common person like me knows this and with all your intelligent agency & CBI you and your finance minister are not aware of it. Where all the black money goes? To the underworld isn't it? Our politicians take help of these goondas to vacate people by force. I myself was victim of it. If you have time please come to me, I will tell you everything.
If this has been land of fools, idiots then I would not have ever cared to write you this letter. Just see the tragedy, on one side we are reaching moon, people are so intelligent and on other side you politician has converted nectar into deadly poison. I am everything Hindu, Muslim, Christian, Schedule caste, OBC, Muslim OBC, Christian Schedule caste, Creamy Schedule caste only what I am not is INDIAN. You politician have raped every part of mother India by your policy of divide and rule.
Take example of former president Abdul Kalam. Such a intelligent person, such a fine human being. You politician didn't even spare him. Your party along with opposition joined the hands, because politician feels they are supreme and there is no place for good person.
Dear Mr Prime minister you are one of the most intelligent person, most learned person. Just wake up, be a real SARDAR. First and foremost expose all selfish politician. Ask Swiss bank to give name of all Indian account holder. Give reins of CBI to independent agency. Let them find wolf among us. There will be political upheaval but that will better than dance of death which we are witnessing every day. Just give us ambient where we can work honestly and without fear. Let there be rule of law. Everything else will be taken care of.
Choice is yours Mr. Prime Minister. Do you want to be lead by one person or you want to lead the nation of 100 Crore people?

12.11.08

छैला बाबू

यूँ तो भगवान् जी ने दुनिया बना कर जो झमेला मोल ले लिया है, उसके पचड़े सल्टाते हुए उन्हें दम मारने की फुर्सत नही मिलती। पर अर्धांगिनी उनकी भी है,अपने गृह को कलह मुक्त रखने हेतु कभी कभार उन्हें भी होलीडे पर जाना ही पड़ता है.उस समय मनुजों की इस धरा को मनुजों के हवाले कर (दुनिया में सारे बड़े बड़े मार काट ऐसे ही समयो में हुआ करते हैं) अर्धांगिनी संग अन्य रमणीय ग्रह भ्रमण पर चले जाया करते हैं. ऐसा नही है कि उन्हें इसमे आनद नही आता या रिलेक्स रहना उन्हें नही भाता . वे तो बस इस चक्कर में कि कहीं उनकी अनुपस्थिति में उनके बनाये ये मनुष्यरूपी प्राणी उनकी इस श्रमसाध्य श्रृष्टि को सिरे से उलट पुलट कर न रख दें, इस चक्कर में इसके पहरे में बैठे इसीमे फंसे खपते रह जाते हैं.लेकिन जब भी वे इस अवकाश से रिलेक्स होकर आते हैं तो फ़िर जो कुछ भी रच जाते हैं ,वो अद्भुत हुआ करते हैं॥


ऐसे ही अवकासोपरांत अतिप्रसन्न मस्तीभरे मूड में उन्होंने एक मनुष्य बनाया. ऐसे मनोयोग से रूप रंग सूरत सीरत गढा कि उनके रूप की आभा से घर में बिजली गुम हो जाने पर उनके चंद्रमुखी प्रभा से लोग ट्यूब लाइट की रौशनी सा प्रकाश पा लेते थे..उनकी सुन्दरता अनिद्य सुंदरी अप्सराओं के सुन्दरता को भी लज्जित करती थी.चेहरा इतना चिकना कि नजर डालो तो फिसल फिसल जाए.उन्हें टिकाये जमाये रखना मुश्किल.सीरत और विनम्रता ऐसी कि मन मुग्ध कर लें.कुशाग्रबुद्दी ऐसी कि पढ़ा सुना एक पल में कंठस्थ कर लेते..कुछ चिरकुट टाइप शिक्षक इनकी उत्तर पुस्तिका में गलतियाँ खोजने में जी जान लगा देते थे पर कभी कामयाब न हो पाए थे.


नगर भर में स्थिति यह थी कि, जैसे श्री राम जब जनकपुर गए थे और तरुणियों को प्रेमी सम ,माताओं को पुत्र सम ,योद्धाओं को काल सम और ज्ञानियों को विद्वान् सम लगे थे.वैसे ही लालबाग नगर के ये छैला बाबू नगरभर के नयनतारे थे. हर माता पिता इनके से पुत्र के लिए लालायित रहते थे और इन सम न होने के कारण मुहल्ले भर के लड़के अपने माँ बाप से पिटा करते थे. लड़कों के दृष्टि में ये शत्रुसम थे.पर मजे की बात यह कि कोई खुलकर इन्हे अपना शत्रु नही मानता था, क्योंकि क्लास भर के सहपाठियों का होम वर्क कर उन्हें मास्टर साहब के कोपभाजन बनने से यही तो बचाते थे.सो सबके सब इनके अहसान तले आपादमस्तक निमग्न थे. तीसरी कक्षा के विद्यार्थी थे तभी से लडकियां इनपर दिल लुटाने लगीं थीं,इनके लिए आहें भरा करती थीं.इनके एक स्नेह दृष्टि के लिए उत्कंठित और विकल रहतीं थीं.


यह तो बात हुई बालपन की . जैसा कि अपेक्षित था,युवावस्था को प्राप्त होते होते अपने प्रतिभा के बल पर देश के शीर्षस्थ लब्धप्रतिष्ठित अभियांत्रिकी संस्थान में सहज ही प्रवेश पा गए और अपने प्रतिभा और योगदान से प्रतिष्ठान को गौरवान्वित किया. माने कि, पूरे संस्थान में "पुरुसोत्तम"(पुरुषों में उत्तम ) टाइप थे और जैसा कि स्वाभाविक था इनके व्यक्तित्व कृतित्व से सम्मोहित प्रत्येक बाला इस छैल छबीले की प्रेयसी बनने को लालायित रहती थी. ये एक बार इंगित कर दें तो, ह्रदय तो क्या प्राणोत्सर्ग को प्रस्तुत थी. बालपन में पड़ा नाम " छैला " पूर्ण रूपेण सार्थक रहा था.पर बेचारे छैला बाबू के ह्रदय की संकट को कौन समझता.कोमल चित्त के स्वामी किसी को भी निराश किए बिना सबपर बराबरी से अपनी कृपादृष्टि बनाये रखना चाहते थे.पर थे तो मनुष्य ही न....... एकसाथ इतनो के बीच सामंजस्य बनाये रखना सरल होता है क्या ???सो नितांत संकटासन्न ,व्यथित रहते थे...अपने भर पूरी मेहनत करते कि सबको यह लगे कि ये सिर्फ़ और सिर्फ़ उनके ही हैं, पर पोल पट्टी यदा कदा खुल ही जाती थी . परिणाम स्वरुप संस्थान से निकलते निकलते इनका चरित्र इस तरह विवादित हो चुका था कि इनकी कई भग्न हृदया प्रेमिकाओं को सहारा दिए इनके सहपाठीगन उन सुंदरियों के स्वामी बने उन्हें अपनी जीवनसंगिनी बना संग लिए चल दिए और असंख्य चाहने वालियों के होते हुए भी इन्हे एक प्रियतमा न मिली.


खैर ,दुखी होने की बात नही.जब ये कर्मक्षेत्र में एक लब्ध प्रतिष्ठित संस्थान में प्रयुक्त हो नए नगर को आए,तो पुनः नगरभर के नयनतारे हो गए. अब भला एक ऐसे संस्थान से जहाँ जाकर अभियांत्रिकी सीखने से अधिक महत्वपूर्ण धूम्र पान,सुरापान इत्यादि इत्यादि सीखने और इसे जीवन का अभिन्न अंग बनाने की पुनीत परम्परा निर्वहन का व्रत लिया जाता हो वहां से कोई बाकी चीजें तो छोड़ दीजिये , चाय ,पान खाए बिना निकल आए तो वह समाज में किस स्थान को प्राप्त करेगा ,सहज ही कोई भी परिकल्पित कर सकता है..... इनके रूप गुण की गाथाएं जैसे ही नगर में फैली ,नगर भर की ललनाये जो अपने पतिरूप में ऐसे ही व्यक्तित्व की परिकल्पना किए हुए थीं , इनके सपने सजाने लगीं और बलात अवसर खोज इनके चन्हुओर मंडराने लगीं. छैला बाबू की विपन्नता पुनः दूर हुईं. आत्मगौरव की परिपुष्टता ने उनके रूप को और निखार दिया.फ़िर तो आए दिन उन्हें रमणियों के मातापिता के घर से सुस्वादु भोजन के लिए नेह निमंत्रण आने लगे. प्रत्येक रमणी के अभिभावकों की अभिलाषा थी कि उनकी पुत्री छैला बाबू द्वारा पसंद कर उनकी प्रियतमा बनने का सौभाग्य प्राप्त करे और उन्हें ये दिव्यपुरुष जमाता रूप में गौरवान्वित करें...


और चलिए एक सुंदरी सुकन्या नगरभर के बालाओं को पछाड़कर विजयिनी हुई और परम सौभाग्य को प्राप्त कर छैला जी की अर्धांगिनी बन गई. छैला बाबू ने नगर भर की रमणियों के ह्रदय पर नैराश्य का तुषारापात करते हुए ,बड़ी ही निर्ममता से उन्हें खंडित कर स्वप्नसुंदरी को अपना अंकशायिनी बनाकर गौरवान्वित किया..वर्षभर में ही स्वप्न सुंदरी ने छैला बाबू को पितृत्व पद पर विराजित कर अपने कर्तब्य का निर्वहन किया और दिन ब दिन गृहस्थी में निमग्न हो अपने रूप यौवन के रख रखाव से विमुख होती गई.


छैला बाबू विवाहोपरांत ही स्वयं को ठगा हुआ अनुभूत करने लगे थे जो कि समय के साथ साथ अपने विवाह के निश्चय पर गहरे क्षोभ में डूबते गए।अब पूर्व की भांति ललनाये उन्हें अपने जीवन साथी रूप में पाने को लालायित हो उनके आस पास नही मंडराती थी,सो उनका यह असंतोष स्वाभाविक था. उनके वर्षों की आदत थी ,जबतक बालाएं उनके आगे अपने को कालीन सा बिछातीं न थी,उनका अहम् परिपुष्ट न होता था.


खैर अधिक दिनों तक उन्हें कष्ट में न रहना पड़ा।इस कलयुग में अधिकांशतः बालाओं के लिए यह अधिक महत्वपूर्ण होने लगा है कि, पुरूष उच्चपदासीन अतुल धन संपदा और वैभव का स्वामी है या नही और उस पर भी यदि इन योग्यताओं के साथ साथ पुरूष रूपवान (हैंडसम) हो तो उसका विवाहित होना कोई मायने नही रखता.सो परम रूपवान,अतुलित धन वैभवसंपन्न छैला बाबू के नेहनिमंत्रण को कौन अस्वीकारता......इनके प्रयास से शीघ्र ही नेह्बंध में आबद्ध होने को उत्सुक बालाओं की कमी न रही और फ़िर तो छैला बाबू रास रंग में आकंठ निमग्न हो गए.......


पर कहते हैं न " खैर खून खांसी खुशी,वैर प्रीत मधुपान,रहिमन दाबे न दबे,जानत सकल जहान " , सो इनके प्रेम प्रसंगों की सुगंध भी छुपी न रह सकी और इनका स्वप्न आनन(स्वीट होम) रणक्षेत्र बन गया. जब स्वप्नसुंदरी का धैर्य चुक गया और लाख चेतावनियों के बाद भी छैला बाबू ने अपनी राह न छोड़ी तो स्वप्नसुंदरी ने ही इनकी राह छोड़ दी.अँधा क्या चाहे दो आँखें.... छैला बाबू को यही तो चाहिए था.बस फटाफट उन्होंने उल्टे फेरे(तलाक) लिया और उन्मुक्त भाव से रमणियों संग रमण करने लगे.परन्तु कई वर्षो के दरम्यान कुछ जिनको इनसे सच्चा प्रेम हुआ,वो इनके जीवनसंगिनी की कसौटी पर खरी नही उतरी और उनके संग विहारोपरांत इन्होने उनसे किनारा कर लिया और कुछ जिनसे इन्हे सच्चा प्रेम हुआ था उन्होंने इन्हे अपनी कसौटी पर खरा नही पाया, सो इन्हे आजमा वे किसी और के प्रति गंभीर हो उनके संग अपनी गृहस्थी बसा ली. स्थिति वही ढ़ाक के तीन पात वाली रही.छैला को सच्ची लैला न मिली............


एक बार तो दिल टूटने तथा मित्रों द्वारा ताना प्राप्त कर ये तैश में आ गए और इन्हे लगा कि अब तो गंभीर हो गृहस्थी बसा सिद्ध कर ही देंगे कि ये भी सफल दांपत्य निभा सकते हैं.बस यहीं गड़बड़ हो गई,जल्दबाजी में दो बार तलाकशुदा से ब्याह रचा बैठे और अनुभवी उस महिला ने जब इनका हर प्रकार से दोहन आरम्भ किया तो घर बार संपत्ति देश सब छोड़ छाड़ कर भाग खड़े हुए.


वर्तमान में छैला बाबू एक ऐसे देश में रह रहे हैं, जहाँ पूर्ण वैधानिक स्वछंदता है. एकसाथ जितना जी चाहे स्त्रियों से प्रेम, विवाह, तलाक का खेल खेलो या जी ऊब जाए तो पुरूष से ही विवाह कर डालो....वैसे तो छैला बाबू का मानना है कि व्यक्ति ह्रदय से युवा हो तो वृद्धावस्था तक युवा रह सकता है, पर इधर कुछ वर्षों से उन्हें आभास हो रहा है कि समय किसी के भी यौवन को रौंदे बिना नही छोड़ती. इसलिए अन्न त्याग कर फलाहार पर अपने अक्षत यौवन के प्रति सतत सजग सचेष्ट रह उसे सम्हाले हुए हैं और अपने लिए पूर्ण दोषमुक्त, मनोनुकूल, रूपमती प्रियतमा की तलाश में हैं............

5.11.08

अनुग्रह

दाता के अनुग्रह जो देखूं,
तो सुध बुध ही बिसराती हूँ.
कृतज्ञ विभोर, अवरुद्ध कंठ,
हो चकित थकित रह जाती हूँ.


हे परम पिता, हे परमेश्वर ,
तूने दे दे झोली भर दी.
पर क्षुद्र ह्रदय इस लोभी ने,
तेरे करुणा की क़द्र न की.


तुझसे संचालित अखिल श्रृष्टि ,
कण कण में करुणा व्याप्त तेरी.
पर अंतस में तुझे भाने बिना,
हम भटक रहे काबा कासी .


तूने हमको क्या क्या न दिया,
पर मन ने न संतोष किया,
लोलुपता हर पल पली रही,
कोसा तुमको और रोष किया.

दुःख गुनने में ही समय गया,
सुख आँचल में चुप मौन पड़ा.
दुर्भाग्य कहूँ या मूढ़मति,
सुख साथ था, मन दिग्भ्रमित रहा.


कैसे सम्मुख अब आयें हम ,
कैसे ये नयन मिलाएँ हम .
कैसे आभार जताएं हम ,
निःशब्द मौन रह जाएँ हम.


हम पर इतना जब वारा है,
हम कृतघ्नों को ज्यों तारा है.
अब एक कृपा प्रभु और करो,
मन के कलुष दुर्बुद्धि हरो.


सद्धर्म प्रेम पथ अडिग चलें ,
उर में संतोषरूपी निधि धरें .
तेरे अनुदान इस जीवन को ,
पुण्य सलिला सा निर्मल करें.......

24.10.08

दो रंग

1. नयन नीर


इन दो नन्ही सी अंखियों में,
कई समन्दर भरे हुए हैं.

बरसों से बरसे ये नयना,
पर घट रीते नही हुए हैं.

नीर, नयन का सखा अनोखा,
क्षण को भी न विलग रहे हैं .

अपना रिश्ता सहज निभाते
हर सुख दुख में तरल हुए हैं.

हर धड़कन में हुए समाहित,
सांस सांस में घुले हुए हैं.

हास तो अपना है एक सपना,
रुदन से समय सजे रहे हैं.

यही नीर निर्झरनी बन कर
शीतल मन को किए हुए हैं.

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2। हर्षित मन...


मन जब आशा हर्ष भरा हो,
जी चाहे मैं साज बजाऊँ.

नख शिख पूर्ण अलंकृत करके,
रच सोलह श्रृंगार सजाऊँ.

सावन हो या जेठ दुपहरी,
झूम के नाचूं झूम के गाऊं.

इन्द्र धनुष के रंग चुराकर,
एक मनोहर चित्र बनाऊं.

पथिक राह में कोई भी हो,
सबको अपने ह्रदय लगाऊँ.

वॄक्ष, फूल हौं, पशु पक्षी हों,
सबपर अपना स्नेह लुटाऊँ.

घूम घूम कर दसों दिशा में,
दया प्रेम का अलख जगाऊँ.

जो जग से दुख सारे हर ले,
उस पर जीवन पूर्ण लुटाऊँ.

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20.10.08

स्थूलकाय गजानन का शूक्षम्काय वाहन....

यह सर्व विदित है कि, हिंदू धर्म में किसी भी पूजा के परायण में सर्वप्रथम गणेश की ही पूजा का विधान है.वस्तुतः गणेश बुद्धि विवेक के स्वामी माने जाते हैं.उन्हें गणनायक कहा जाता है.गण का तात्पर्य मनुष्य से भी है और देव से भी.अर्थात जो जनों/देवताओं में श्रेष्ठ हो वही गणनायक/जननायक है.फलस्वरूप बुद्धि विवेक के अधिनायक,देवों के अधिनायक की वंदना के उपरांत ही अन्य किसी भी देवी देवता की पूजा होती है.सफलता पूर्वक आयोजन के अनुष्ठान हेतु,उसने निर्विघ्न समापन हेतु विघ्नहर्ता का अनुष्ठान अनिवार्य है.


सहज ही हम देखते हैं कि जिस देवता के साथ उनके कर्म प्रवृत्ति अनुसार जो अवधारणा जुड़ी होती है,उस देव विशेष के मूर्त रूप की परिकल्पना भी उसी रूप में होती है.जैसे माँ काली को विकराल रूप में दिखाया जाता है,तो नीलकंठ भगवान शंकर को नागाहर भष्म विभूषित रूप में. इसी तरह चूँकि मानव जीवन में बुद्धि विवेक को सबसे महत्वपूर्ण स्थान दिया गया है , सो इसके प्रतीक रूप में गजानन को भारी भरकम रूप में दिखाया जाता है.यूँ गणेश को लम्बोदर (बड़े पेट वाला) भी कहा जाता है,जिसका तात्पर्य है,बड़ी से बड़ी बात को पचाने वाला गंभीर विवेकवान तथा धैर्यशाली पुरूष.धीर गंभीर विवेकवान पुरूष ही नायक और पूज्य होता है..


अब बात यह है कि इतने भारी भरकम देवता का वाहन इतना छोटा सा मूषक क्यों माना गया है ? बात कुछ अटपटी सी लगती है.वस्तुतः वेद पुराण,आख्यान इत्यादि में जो भी कुछ लिखा दर्शाया गया है,उसके स्थूल रूप में बहुत ही गूढ़ तथ्य छिपे हुए हैं,तीक्ष्ण बुद्धि और शोध द्वारा ही रहस्य प्रकट किया जा सकता है.देवताओं के जो वाहन बताये गएँ हैं,वस्तुतः वे उनके गुण स्वरुप ही प्रतीक रूप में प्रयुक्त हुए हैं.जैसे गाय सत्व गुण की प्रतीक हैं और सिंह आदि रजोगुण के वैसे ही चूहा तर्क का प्रतीक माना जाता है.अहर्निश कांट छांट करना,अच्छी बुरी हर चीज को कुतर जाना - यह मूषक का स्वभाव है.असल में मनुष्य के मस्तिष्क में सदा स्वतंत्र विचारने वाला तर्क एकदम इसी तरह कार्य करता है.जहाँ बुद्धि होगी वहां जिज्ञासा होगी ही और जिज्ञासा तर्क की जन्मदात्री है.परन्तु तर्क पर भारी भरकम बुद्धि और विवेक की उपस्थिति तथा उसका अंकुश न हो तो यह जीवन के लिए कल्याणकारी नही होता. इसलिए तर्करूपी मूषक पर भारी भरकम बुद्धि विवेक के स्वामी विराजमान रहते हैं.


दीर्घ और लघु काया का यह सम्पूर्ण समन्वय बड़ा ही महत संदेश देता है और हमें दिखाता सिखाता है कि जीवन में बुद्धि तर्क और विवेक की मात्रा इसी अनुपात में होनी चाहिए. यही संतुलन जब अव्यवस्थित होता है तो संस्कार,संस्कृति का विनाश कर अपने साथ साथ समुदाय का जीवन भी दुखदायी बना देता है.


हमारी कामना है कि श्री गणेश सबके ह्रदय में विराजें और सबका जीवन सुखमय हो.


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चलते चलते एक बात और कहना चाहूंगी कि दीपावली पर जिस गणेश और लक्ष्मी की आराधना होती है,उसे सच्चे अर्थ में लोग ग्रहण करें.लक्ष्मी श्री विष्णु की अर्धांगिनी हैं पर उनकी पूजा सदा गणेश के साथ इसलिए होती है कि लक्ष्मी वहां कभी वास नही करतीं जहाँ गणेश न हों.धन वहीँ अपना स्थायी निवास बनाती है जहाँ बुद्धि विवेक के साथ सन्मार्ग पर चल इसका अर्जन हो, भोग विलास में न व्यय कर अपने सद्कर्म तथा परहित निमित्त व्यय हो.सदयुक्ति से धनोपार्जन तथा सद्प्रयोजन में व्यय ही मनाव धर्म है. " शुभ" के साथ ही सदा "लाभ" होता है.एक से बढ़कर एक धनी मानी,राजा राजवाडे हुए और जिस किसी ने भी इसे समुचित श्रद्धा सम्मान न दिया वह नष्ट हो गया.

कभी कभी देखने में लगता है कि अमुक तो इतना पापी है फ़िर भी दोनों हाथों धन बटोरे जा रहा है.परन्तु तनिक निकट जाकर उनके जीवन में देखेंगे तो पाएंगे कि ऐसे लोगों का जीवन कितना अधिक अशांत है. अन्हक का धन जैसे ही चौखट लांघती है अपने साथ कुसंस्कार और दुर्बुद्धि लेकर आती है और हजारों करोड़ भी वह व्यक्ति क्यों न जमा कर ले उसके कुमार्गगामी पीढी उसे शीघ्र ही नष्ट कर देती है.


सच्ची दीपावली वही होगी जब हम न तो वातावरण को ध्वनि तथा दूषित धूम्र द्वारा प्रदूषित करें और न ही जुआ शराब में उडाएं.जितना धन हमें इसमे व्यय करना है उसका आधा भी यदि उन व्यक्तियों में बाँट दें, जिसने कई दिनी से पेटभर अन्न नही खाया हो,जिसके तन पर आने वाली सर्दी से बचने के लिए वस्त्र न हों,तो माता लक्ष्मी और विघ्नहर्ता उसके घर में ,उसके ह्रदय में सदा निवास करेंगे,इसमे कोई संदेह नही. लक्ष्मी धन के रूप में यदि न भी बरसें तो संतोष और शान्ति रूप में जरूर बरसेंगी.और विघ्नहर्ता किसी भी कष्ट के क्षणों में किसी न किसी रूप में आकर हाथ पकड़ उबार जायेंगे.


सबको दीपावली की अनंत शुभकामनाये.............

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16.10.08

भोला पन है या मति विभ्रम

प्रिय अपना नेहबंध जब तोडे,

स्नेहिल उर अवसाद से भरे.

सरिता मध्य गहन धार में,

पतवार तोड़ कर नाव डुबोये.

भग्न ह्रदय आघात को सहकर,

कैसे कोई फ़िर आस संजोये।

पथराये नयनो में उर में,

कैसे पुनः कोई स्वप्न सजाये .

जाने कि अपनापन बस भ्रम है,

मन फ़िर क्यों न तृष्णा त्यागे.

मति की गति भी बड़ी निराली,

क्षण में बीता सब बिसराए.

अपना उसको माने फ़िर से,

नेह जता जो नयन बहाए.

रंच मात्र शंशय न रखे ,

चाहे भले कोई स्वांग रचाए.

बिसराकर आघात औ पीड़ा,

हिय में भरकर कंठ लगाये.

विश्वास रचा कुछ ऐसे मन में ,

अब कौन भला चित को समझाए.

हास रुदन के फेर में पड़कर,

चहुदिन अपनी गति कराये.

भोला पन है या मति विभ्रम,

अब कौन इसे यह भेद बताये.
.................................................

14.10.08

दीपक सा जीवन..........

जबतक दुनिया का ज्ञान न था,

निज परिधि,सामर्थ्य का भान न था.

उस अबोध मन ने देखे जो ,

कितने जीवंत थे वे सपने .

आशा और विश्वाश से सने.

शंशय नही तनिक था मन में,

कि घोर तिमिर में चाँद बनूंगी,

अग जग पर शीतलता बरसा,

संतप्त ह्रदय के कष्ट हरुंगी.

दिन मे सूरज बनकर मैं तो,

शक्ति का प्रतिमान बनूगी.

किंतु ,

अब जब सब जान लिया है,

परिधि भी पहचान लिया है.

फ़िर भी देखो शेष बच गया,

आशा एक अवशेष बच गया.

भले चाँद मैं ना बन पायी,

ना ही मैं सूरज बन पायी.

पर दाता इतना तू कर दे,

शक्ति सामर्थ्य इतना बस भर दे.

एक दीपक सा हो यह जीवन ,

सच्चाई की बाती जिसमे,

करुना कर्म प्रेम का इंधन.

कलुष कालिमा आंधी या तम,

या हो दुःख का घोर प्रलय घन,

कभी भी ना हो यह लौ मद्धम.

तेरे बल से सदा बली हो ,

प्रतिपल जलता रहे प्राण मन ,

अन्धकार को सदा विफल कर ,

आलोकित करे घर और आँगन ..

4.10.08

बुल्कीवाली (भाग - २)

देखते देखते साढ़े चार महीना निकल गया. बुल्कीवाली ने काम में कोई ढिलाई नही की थी, पर हर दिन के साथ उसकी बेचैनी भी बढ़ती जा रही थी. मन प्रान तो उसका वहीँ अटका पड़ा था न..मालिक जब आए थे तो उन्होंने सब कुसल छेम ही बताया था पर कल बड़का की चिठ्ठी आई कि पारी (भैंस की बच्ची) ने न जाने क्या खा लिया था कि उसका पेट फूल गया और दस्त करते करते वह मर गई.इससे भैंसी बगद गई है,ठीक से दूध नही देती.उसका घर द्वार सब बिलट (बरबाद) रहा है उसके बिना,जल्दी वापस आ जाए..जार जार रोई बुल्कीवाली.पर इससे क्या होता.अनुराधा के जाकर गोड़ छान लिया.गिड़गिडाकर अरज किया कि अब तो सब ठीक ठाक निपट गया है,उसे गाँव भेज दिया जाए.पहले भी कई बार इस प्रस्ताव को ठुकरा चुकी अनुराधा ने जब देखा कि अब कोई उपाय नही इसे रोकने का तो फ़िर एक दूसरा दांव फेंका. छोटका को अब तक बच्चों ने हिन्दी में अ आ से ज्ञ तक और ऐ बी सी डी ज़ेड, तक सिखा दिया था.उसे पढने में इतना मन लगता था कि एक बार बता देने पर ही झट से सीख लेता था.तो अनुराधा ने इसी का चारा फेंका और समझाने लगी कि यहाँ रहकर उसका बेटा किस तरह आदमी बन रहा है. गाँव जाकर फ़िर से रार मुसहर जैसा रहेगा.यहाँ रह पढ़ लिख लेगा तो जिंदगी बन जायेगी..बच्चों से भी तो इतना घुल मिल गया है कि बच्चे उसके बिना अब कैसे रह पाएंगे.सो यदि बुलकीवाली जाना चाहती है तो जाए, पर छोटका को यहीं छोड़ जाए.उसने जो उसके लिए एक सगी माँ से भी बढ़कर करतब किया है तो उसका इतना तो फर्ज बनता ही है कि वह भी उसके बेटे को आदमी बनाने में उसकी मदद करे.

छोटका के सुनहरे भविष्य का इतना सुंदर नक्सा अनुराधा ने खींचकर बुल्कीवाली को दिखाया कि उसे भी लगने लगा सचमुच यहाँ रहने में छोटका का कितना बड़ा हित है.पर ममता और कर्तब्य में जंग छिड़ गई. ममता इतने छोटे बच्चे को अपने से अलग करने को प्रस्तुत नही थी तो कर्तब्य कहता था कि बच्चे के भविष्य से बढ़कर और कुछ भी नही.लेकिन जब छोटका भी बम्बई में ही रहने को मचल उठा तो हारकर बुल्कीवाली ने भारी मन से उसे यहाँ छोड़ने का फ़ैसला कर लिया.अनुराधा ने यह वचन दिया कि छः महीने के भीतर ही वह छोटका को लेकर गाँव आएगी और उसकी खैर ख़बर बराबर भेजती रहेगी .

जोश में छोटका ने यहाँ रहने की हाँ तो कर दी थी पर, माई के जाने के बाद से हर बात पर उसकी रोवाई छूटने लगी..आज तक कभी अपनी माई के बिना वह रहा न था.बिना माई की छाती में चिपटे उसे नींद ही नही आती थी.उसपर भी जब यहाँ बच्चों को अपनी माँ से चिपटे देखता तो उसका करेजा फटने लगता था..दो तीन दिन तक तो रोने धोने पर अनुराधा ने उसे पुचकारा ,पर बाद में यह डांट और फ़िर मार में तब्दील हो गया.


यूँ तो बुल्कीवाली के वापस जाने के पहले ही एक बाई काम पर रख ली गई थी जो सुबह सात से शाम सात बजे तक डेढ़ हजार की पगार पर रहने को राजी हुई थी.पर कहाँ बुल्कीवाली का काम और कहाँ उसका काम.कहीं कोई तुलना ही न थी. एक गोद की बच्ची, दो छोटे स्कूल जाने वाले बच्चे और समय पर दफ्तर जाने वाले पति, इन सब की जिम्मेदारियों ने अनुराधा का हाल बेहाल कर रखा था.उसपर से सप्ताह दस दिन में बिना बताये बाई का नागा मारना , इन सब ने अनुराधा का जो हाल किया सो किया , छोटका का बुरा हाल जरूर कर दिया था. बाइयों के नखरों से ऊब कर अनुराधा ने चार महीने बाद बाई रखना ही बंद कर दिया और उस छोटे से बालक पर जिम्मेवारियों का पहाड़ लाद दिया .सुबह अंधेरे जो धकिया कर उसे उठा दिया जाता सो रात के एक डेढ़ बजे तक खटते खटते उसका कचूमर निकल जाता. तिसपर हड़बड़ी में अगर कुछ गड़बड़ हो जाता, काम पूरा न होता या कुछ टूट फूट जाता तो उसके लिए एक से बढ़कर एक कठोर दंड विधान थे.जितना काम उस छोटे से बालक पर लादा गया था, बम्बई की दो बाई भी मिलकर नही निपटा सकती थी.पर इस बात का विचार कौन रखता. ईश्वर भी शायद जानबूझकर गरीब के बच्चों में वह शारीरिक और मानसिक क्षमता भरते हैं कि वह बित्ते भर का भी हो तो अमीर के सुख सुविधाओं में पल रहे बच्चे से हजार गुना अधिक जीवट होता है, तभी तो इतना सहकर भी जीता रहता है.


थके हारे महेस बाबू जैसे ही दफ्तर से आते कि अनुराधा छोटका के तथाकथित निकम्मेपन और गलतियों की कहानियो का पिटारा लेकर बैठ जाती और अक्सर ही यह होता कि लगे हाथ छोटका की तगडी धुनाई हो जाती। घर के हर सदस्य के लिए अपनी किसी भी तनाव का भडास निकलने के लिए चौबीस घंटे के लिए यह बालक उबलब्ध था. घर में हो रही हर गडबडी का जिम्मेवार वही ठहराया जाता था. सजा देकर उसे सुधारने के लिए नित नए दंड विधान बनते थे, जिसमे मार पीट के अलावे खाना पीना बंद करना से लेकर चिलचिलाती धूप में नंगे बदन नंगे पाँव खड़ा करना , देह पर गरम या बर्फ का पानी डाल देना इत्यादि इत्यादि भांति भांति के दंड निर्धारित किए जाते थे. पढ़ना लिखा, टी वी देखना या अन्य मनोरंजन तो सपना हो गया था .गाँव में तो कम से कम इतना था कि पिटने पर माई के आँचल में या भाई के गोदी में उसको जगह मिल जाती थी,यहाँ ममता नाम का कुछ भी नही बचा था. सूखकर हड्डियों का ढांचा भर रह गया था वह. पर तीन बच्चों की माता अनुराधा के मन में वह बालक रंचमात्र ममत्व नही उपजा पाता था. इन सबके बीच उसके मन की स्थिति का वर्णन शब्दों में कर पाना असंभव है.

इधर चौबीसों घंटे में से शायद ही कोई पहर होता जब छोटका की आँखें सूखी होती और उधर बुल्कीवाली का करेजा दरकता रहता. बेटे की खोज ख़बर जानने का मालिक के अलावे और कोई साधन नही था.. छः महीने में आने की बात को दो बरस हो गया था. जब मालिक मलिकाइन से पूछती तो वो अगले महीने अनुराधा बिटिया के आने की बात कहते . उसका बेटा वहां कितने ठाठ से रह रहा है, इसके किस्से सुनाते.. इधर तो ज्यादा पूछताछ करने पर अक्सर ही गालियों की सौगात भी मिलने लगी थी उसे. पर इस से वह अपने बेटे के बारे में पूछना थोड़े ही न छोड़ देती. बीतते दिनों के साथ उसका मन चिंता और आशंका की गहरी खाई में धंसता जा रहा था. .


एक बार अधीर होकर मालिक मलिकाइन के सामने जिद लगाकर बैठ गई कि उसे अनुराधा बिटिया का बम्बई का पता दे दें ,वह बड़का के साथ पूछते पाछते वहां चली जायेगी और एक नजर अपने लाल को देख आएगी. जब उन्होंने देखा यह टस से मस नही हो रही तो हजार रुपये और जल्दी आने की तसल्ली देकर यह कहकर उसे निपटा दिया इतने बड़े सहर में वह भुला जायेगी,जिनगी भर भटकती रहेगी तो भी उसके घर नही पहुँच पायेगी.और इसबार एकदम पक्का है अगले महीने बीस तरीक को अनुराधा का सपरिवार मय छोटका, यहाँ आना तय है. टिकट तक कट चुका है.कल ही तार से इस बात की ख़बर आई है. इस तरह एक बार फ़िर उन्होंने उसे टाल दिया. .


यह सब हुए बीस बाईस दिन भी नही हुआ था कि एक दिन अधरतिया में किसी ने केवाड़ी(दरवाजा) का जिंजिर खटखटाया....केवाड़ी खोला तो एकदम से भौंचक्क रह गई.सामने छोटका था,जो दरवाजा खुलते ही माँ से लिपटकर फूटकर रोने लगा.उसकी आवाज के दर्द ने बुल्कीवाली का करेजा फाड़ दिया. बेटे के बिना कुछ कहे बताये ही एक पल में उसने बेटे की पूरी पीड़ा गाथा सुन गुन ली. बुल्कीवाली बाबू रे बाबू कह दहाडें मारकर विलाप करने लगी.शोरगुल सुन बडका भी उठकर आ गया था और हतप्रभ सा सबकुछ समझने की कोशिश करने लगा.जल्दी से ढिबरी बार लाया.तभी उस आदमी ने बड़का को घर के अन्दर घसीटते हुए ताकीद की कि जल्दी से अपनी माई और छोटका को चुप कराओ नही तो अनर्थ हो जाएगा.किसीके कानोकान ख़बर हो गई तो हम सबलोग जान से जायेंगे....छोटका हमरे साथ बम्बई से भागकर आया है. बड़का सारा माजरा समझ गया और माँ के मुंह पर हाथ रखकर मुंह दबाये छोटका को भी चुप रहने की हिदायत देता हुआ उन्दोनो को घर में अन्दर खींच जल्दी से जिंजिर लगा लिया. बड़का को बड़ी मेहनत करनी पड़ी माई और छोटका को चुप कराने में. थोड़ा चेत हुआ तो बुल्कीवाली ने देखा बड़का उस आदमी के साथ बैठा बतिया रहा है.अभीतक बुल्कीवाली को होश नही था कि वह ध्यान करे कि छोटका के साथ दूसरा आदमी कौन है.ध्यान से देखा तो पहचान गई,वह मुसहरटोली का रामरतन था,जो पाँच बरस पहले बम्बई चला गया था और वहीँ रिक्सा चलाता था. और बखत होता तो मुसहर को घर में देख घर अपवित्तर होने का ध्यान आता,पर आज उसे वह मुसहर साक्षात भगवान् नजर आ रहा था. उसके पैरों पर वह गिर गई. रामरतन एकदम घबरा गया.....हड़बड़ाकर खड़ा हो गया....अरे भौजी ई का कर रही हो कहकर पीछे हट गया. रामरतन भी भावुक हो गया,बोला....अरे भौजी जैसे यह तुमरा बेटवा वैसे ही हमरा भी है न......उ त कहो कि संजोग से एक दिन बाजार में हमरा ई भेट गया और जब एकर दुःख हम देखा तो हमरा कलेजा दरक गया.हम बीच बीच में एकरा से भेंट करते रहते थे और जब लगा कि बचवा मर जाएगा तो हम चुप्पेचाप एकरा लेकर इहाँ भाग आए....अब धीरज धरो, मुदा मालिक को पता चले ई से पहले जल्दी से एकरा इहाँ से कहीं बाहर भेज दो.हम भी निकलते हैं,नही तो मालिक के पता लग जाएगा तो हमरा खाल खिंचवा देंगे. भावना का उद्वेग कुछ शांत हुआ तो आतंक का अन्धकार माथा सुन्न करने लगा. हाथ पाँव फूलने लगा .सूझ नही रहा था कि क्या किया जाए.


रामरतन ने ही रास्ता सुझाया कि बड़का छोटका को लेकर कहीं किसी दूर के रिश्तेदार के यहाँ रख आए साल छः महीने के लिए....बड़का ख़ुद भी कुछ दिनों के लिए गाँव से बाहर रहे और यहाँ छोटका के बम्बई से भाग जाने की बात खुले भी तो बुल्कीवाली उन्ही लोगों पर चढ़ बैठे कि उनके जिम्मे पर जब उसने बेटे को छोड़ा था तो अब वे ही उसका बच्चा लाकर उसे वापस दें.समय बीत जाएगा,सब शांत हो जाएगा तो फ़िर छोटका को यहाँ बुलाकर कह दिया जाएगा कि रास्ता भटक कर कहीं चला गया था और अब इतने दिन बाद भटकते हुए वापस गाँव पहुँचा है.अब इतने दिन तक तो अनुराधा बिटिया बिना किसी नौकर के रहेंगी नही अपना कुछ इंतजाम का ही लेगी तो फ़िर छोटका को फ़िर से जाने का बावेला नही रहेगा.ई सारा बखेडा इसलिए है कि बम्बई में सस्ता घरेलू नौकर मिलना बड़ा ही मुश्किल होता है सो एक बार कोई अगर इनलोगों के चक्कर में फंस गया तो उसकी जान नही छोड़ते हैं.
रामरतन उस समय उनके लिए भगवान् बनकर आया था.उसकी सलाह के मुताबिक तुंरत अमल हुआ.वैसे बुल्कीवाली का बस चलता तो छोटका को अपने कलेजे में ही छुपाकर रख लेती.पर समय की नजाकत वो जानती थी और बेटे को एक बार फ़िर अपने से दूर भेजने में ही भलाई थी. उस समय बुल्कीवाली के मन में जितनी व्यथा थी उतना ही रोष भी था.जिस मालिक की रक्षा में उसके पति ने अपनी जान गंवाई,उसका घर उजाड़ गया,आजतक ऐसा कोई समय नही आया था जबकि वह तन मन से मालिक की सेवा में जान लगाने से पीछे ती थी और उन्ही लोगों ने उसके साथ इतना बड़ा छल किया,उसके फूल से बच्चे की जान लेने में कोई कसर न छोड़ी....बस चलता तो जिसने उसके बच्चे की यह हालत की , आज फ़िर से गंडासा ले उन सबका वही हाल करती जो उसने उस डाकू का किया था.पर आज वह विवश थी.वह जानती थी कल जिसके लिए उसने हथियार उठाया था उनकी शक्ती भी उसके साथ थी पर आज तो वही शक्ति उसके सामने खड़ी थी.


घटना के आठवें दिन बम्बई से छोटका के फरारी की ख़बर के साथ अनुराधा और महेश बाबू सपरिवार पहुँच गए.छोटका की फरारी की ख़बर देने नही बल्कि दूसरे नौकर का इंतजाम करने. फरारी की बात अनुराधा के लिए भले केवल क्षोभ का विषय था ,पर चौधरी साहब सपरिवार जरूर चिंतित हुए कि बुल्कीवाली का सामना वो कैसे करेंगे.उसे क्या जवाब देंगे.दो दिन तक सब चुप चाप रहा.बुल्कीवाली को अनुराधा के आने की ख़बर नही दी गई.तीसरे दिन सबने यह निर्णय लिया कि बुल्कीवाली को ख़बर कर ही दी जाए. चौधरी साहब ने भीमा को बुल्कीवाली को बुला लाने भेजा.पर भीमा ने आकर बताया कि परसों से ही बुलकी वाली घर में नही है उसकी गोतनी ने बताया कि अनुराधा बिटिया के आने की ख़बर उसे पता है.जब बिटिया दरवाजे पर उतर रही थी तो उसने देखा था और जाकर बुल्कीवाली को बताया था इस बारे में, पर बुलकी वाली उसके बाद घर बंद करके बिना किसी को कुछ कहे पाता नही कहाँ चली गई..


अब तक जो चौधरी साहब के मन पर जवाबदेही का बोझ था ,वहां संदेह ने आकर कब्जा जमा लिया.यह तो सहज बात न थी. बेटे के लिए जो अबतक रोज आकर जान खाती थी,वह अनुराधा के आने की सुनकर भी बेटे के लिए पूछने न आए बल्कि बिना मिले गाँव से बाहर चली जाए,इसमे जरूर दाल में कुछ काला था. बात चली नही कि माहौल ही बदल गया.तुरत फुरत लोगों को पता लगाने के काम पर लगा दिया गया.अगले ही दिन बात निकल कर आई कि किसी ने दस दिन पहले भोरहरवे बड़का छोटका दोनों को एक साथ बस में बैठे देखा था.उस दिन के बाद से बड़का भी गाँव वापस नही आया है.बात खुलनी थी कि सभा लग गई घर में. कोई कुछ कहता कोई कुछ. सर्व सम्मति से यही राय निकली कि, हो न हो छोटका को बम्बई से भगाने में तीनो माँ बेटा का मिली भगत है.राय करके ही सब किया गया है. जिस बुल्कीवाली का रोम रोम मालिक के दिए से संचालित है,उसी बुल्कीवाली ने मालिक के साथ कितनी बड़ी दगाबाजी की है.जिनती मुंह उतनी बातें...चौधरी साहब की क्रोधाग्नि को भड़काने से कोई पीछे नही रहना चाहता था. शुभचिंतकों में कम्पीटीसन लगा था.अनुराधा अलग रोये जा रही थी कि जिस लड़के को उसने अपने बच्चे से भी बढ़कर रखा वह कितना बड़ा हरामखोर निकला,उसके सर इतना बड़ा कलंक लगाकर भाग निकला.अब भला कोई विस्वास करेगा कि उसे वहां कोई दुःख नही था.रार और साँप को कितना भी दूध पिलाओ, वह पोसियाँ नही मानता..यह चौधरी साहब के मान रुतबा को सीधे चुनौती थी,उनका खून खौल रहा था..उन्होंने अपने लोगों को आदेश दिया कि फौरन तीनो को खोजकर अगर पाताल में भी छुपे हैं तो निकालकर लाया जाए


खोज बीन शुरू हुई तो सबसे पहले बड़का पकड़ाया भठ्ठा पर से.बड़का को रासा से बांधकर जीप पर लाद कर ले जाया गया..इधर लोग निकले और उधर बड़का के एक संगी ने जाकर बुल्कीवाली को यह ख़बर पहुंचाई. बुल्कीवाली का तो परान ही सूख गया. अपने जीते जी मालिक के कोप का परहार अकेले अपने उस कोखजाये को कैसे सहने देती. पति पहले ही जान से हाथ धो बैठा था..एक फूल सा बेटा ऐसे ही जुलुम सहकर मरने मरने को था और अब अपने इस निरदोस बेटे को कैसे आग में झोंक देने दे अपना जान..सो जैसे थी वैसे ही बदहवास भागी गाँव की ओर..


बेसुध सी जब मालिक के खलिहान में पहुँची तो एक छन को उसकी साँस ही रुक गई. खलिहान के बीच में धूल धूसरित उसका बेटा खूनमखून बेहोस पड़ा था. . एक पल को तो बुलकी वाली के माथा पर वैसी ही काली मैया सवार हुई जैसी पति को गोली खाकर तड़पते देख हुई थी...उसे लगा अभी इसी बखत गंडासे से उन सब कसाइयों को खूनमखून कर दे जिसने उसके बेटे का यह हाल किया था.पर हाय रे किस्मत... उस दिन तो एक डाकू था मुदा आज तो पूरा गाँव ही डाकू कसाई बनकर इनको घेरे खड़ा था..बेटे से लिपट कर दहाडें मार विलाप करने लगी. उसके रुदन ने चौधरी साहब के गुस्से को और भड़का दिया.एक तो चोरी ,ऊपर से सीनाजोरी. गालियों की बौछाड़ के साथ ताबड़तोड़ उसपर लात और बेंत से प्रहार करना शुरू कर दिया.कुछ लोग निरघिन गालियों के साथ चौधरी साहब के हौसला अफजाई में लगे थे तो कुछ इस कृत से दुखी भी थे..पर उनको रोकने की औकात किसमे थी.पीड़ा से बिलबिलाते हुए बुलकी वाली ने भी एक दो गलियां दे दी.फ़िर क्या था लात घूसों के साथ झोंटा पकड़कर ऐसे घसीटा गया कि उसके देह पर एक भी वस्त्र नही बचा.भीड़ में से किसीको न लज्जा आई न हिम्मत हुई कि उसके उघड़े देह को ढांक दे. इधर बड़का को जो चेत हुआ और उसने यह हाल देखा तो जिसने अपने पिटते समय बिना जुबान खोले चुपचाप सारा मार खा लिया था,चिंघाडे मारते हुए मालिक के पैरों को छान कर गिड़गिडाने लगा.....माँ भाई को बक्सने की कीमत पर कसम खाते हुए वचन दिया कि इन दोनों को बक्स दिया जाए, वह चला जाएगा छोटका के बदले बम्बई और मालिक का हर हुकुम मानेगा..


अनुराधा और उसके पति जो इस पूरे क्रम में रणविजय बाबू के क्रोधाग्नि के मुख्य संवाहक और पोषक रहे थे,ने जैसे ही यह प्रस्ताव सुना,उनकी तो बांछें खिल गई. मामला तो बहुत ही फायदे का रहा था. कहाँ वह मरियल छोटा सा छोटका और कहाँ यह हृष्ट पुष्ट किशोर .एक पल में सारा हिसाब लगा लिया कि अपने पुष्ट शरीर के साथ एक साथ ड्राइवर ,रसोइया , माली और न जाने कितने ही तरह का काम यह कर सकता है..बस फ़िर क्या था, तुंरत ही वहां का परिदृश्य बदल गया. अनुराधा दोनों पति पत्नी, माँ बेटे की रक्षा को आगे बढे. .महेश बाबू ने ससुर का हाथ पकड़ अलग किया और अनुराधा बुल्कीवाली को सम्हालने में लग गई..इन दोनों को बचाव में लगे देख वो लोग जो अन्दर ही अन्दर बुल्कीवाली की दुर्दशा से अपार आहत थे, सहायता को आगे बढे..


मार पीट के इस क्रम में बुल्कीवाली की वह बुलकी, जो कि जिस दिन से उसके नाक में चढी थी कभी उतरी न थी और सोने के नाम पर उसका एकमात्र गहना थी,वह भी कहीं गिरकर हेरा गया था.पर क्या यह एक बुलकी भर था ? यह जेवर नही उसका अहम्,उसकी पहचान थी,जो आज धूल में गुम हो चुकी थी... आज वह उस दिन से भी जादा आहत थी,बिखर गई थी, जिस दिन पहरुआ मरा था...............



( कथा के दीर्घ कलेवर और दुखांत के लिए पाठकों से क्षमाप्रार्थी हूँ. यदि यह मात्र कल्पित कथा होती,तो यह कथा ही न होने देती.)

3.10.08

बुल्कीवाली ( भाग १. )

बुल्कीवाली ,यह उसका वह नाम नही था जो उसे जन्म के बाद माँ बाप से मिला था,पर अपना असली नाम उसे ख़ुद भी कहाँ याद था ।छुटपन में ही माँ ने नाक कान छिदवाने के साथ साथ दोनों नाक के बीच भी बुलकी (नाक के दोनों छेद के बीच पहनी जाने वाली नथ) पहनने के लिए छेद करवाकर सोने की एक बुलकी पहना दी थी. ससुराल आने के बाद भी यही बुलकी उसकी पहचान बनी और लोग उसे बुल्कीवाली के ही नाम से पहचानने और पुकारने लगे थे .जहाँ गाँव में बड़े घर की बहुएं भी फलां गाँव वाली,फलाने की माँ या फलाने की कनिया(पत्नी) के नाम से जानी और पुकारी जातीं थीं, वहां बुल्कीवाली का बुलकी से ही सही अपनी एक विशिष्ठ नाम और पहचान थी यह कोई छोटी बात न थी...इतना ही नही पूरे गाँव में और ख़ास करके चौधरी रणवीर सिंह के यहाँ उसकी ख़ास इज्जत थी.जो कुछ उसने किया था,वह कितने लोग करने की हिम्मत रखते हैं भला.उसका पति पहरुआ मालिक का खासमखास था.भले जात का ग्वाला था पर बहादुर इतना था कि मालिक ने उसे अपना खासमखास बना लिया था जो एक अंगरक्षक की तरह मालिक के सोने भर के समय के अलावा हरवक्त मालिक के साथ बना रहता था.

मालिक के बेटी के ब्याह के दस दिन पहले एक दुर्घटना घट गई। शाम के वक्त डाकुओं ने हमला बोल दिया. उस वक्त बूढों और मालिक को छोड़ घर के सभी मर्द शहर खरीदारी को गए हुए थे.यूँ घर के दरवाजे तो अन्दर से बंद कर लिए गए थे पर उनका मुखिया घर के पिछवाडे से घर की छत पर चढ़ने में कामयाब हो गया था॥मालिक भी बन्दूक लिए छत पर पहुँच गए थे,पर उनकी गोली हवा में रह गई और डाकू की गोली मालिक के पैर में लगी.मालिक तड़पकर जमीनपर गिरे और डाकू ने ताबड़तोड़ फायरिंग शुरू कर दी.लेकिन मालिक की ढाल बनकर पहरुआ ने सारी गोलियां अपने देह पर खा ली.घर के सारे लोग जहाँ चीख पुकार और रोने धोने में लगे थे,बुलकी वाली चुपके से कुट्टीकट्टा गंडासा लेकर छत पर चली गई और पीछे से पूरा जोर लगाकर डाकू के सर पर ऐसा गंडासा मारा कि एक ही वार में डाकू धरासायी हो गया.बुल्कीवाली के इस करतब ने पूरा माहौल ही बदल दिया और फ़िर तो किसी ने मालिक की बन्दूक उठायी , किसी ने ईंटा पत्थर तो किसी ने लाठी भाला और सबलोग मिलकर डाकुओं पर ऐसे बरसे कि आठ डाकुओं में से दो जान से गए और बाकी घायल होकर भागने के उपक्रम में थे कि गांववालों ने चारों ओर से उन्हें घेरकर पकड़ लिया और सारे डाकू पुलिस के हवाले कर दिए गए. पहरुआ जान से गया था पर दोनों पति पत्नी नायक हो गए थे.पहरुआ ने मालिक के लिए प्राण उत्सर्ग किया और बुल्कीवाली ने मालिक की जान बचाते हुए अपने पति के मौत का भी बदला ले लिया था.पहरुआ का अन्तिम संस्कार मालिक ने एक शहीद की तरह ही पूरे शान से कराया था और बुलकी वाली को दो कट्ठा जमीन,एक भैंस तथा हजार रुपया नकद दिया था.

जिस समय की यह घटना थी,बुल्कीवाली का बड़ा बेटा बड़का आठ बरस का और छोटा बेटा छोटका दुधमुहाँ गोदी में था।परिवार में अपना कहनेवाला और कोई नही था.गोतिया लोग पहरुआ के जिंदगी में ही अलग हो गए थे.पर बुल्कीवाली भी कम हिमती न थी.पाँच छः साल के भीतर मालिक के दिए दो कट्ठे और अपने पास पहले से दो कट्ठे जमीन को ही उस कमासुत(मेहनती) औरत ने सोना बना लिया था और एक जून खाने लायक मडुआ मकई का बंदोबस्त कर ही लेती थी. स्वाभिमानी बुल्कीवाली ने अपने किसी जरूरत के लिए बेर कुबेर में मालिक को छोड़ कभी किसीके आगे हाथ नही पसारा था॥मालिक की दी हुई एक भैंस से आज तीन भैंस और हो गई थी उसके पास.एक भैंस का दूध मालिक के यहाँ सलामी में देने के बाद भी उसके पास इतना बच जाता था कि अपने बच्चों के लिए पाव भर दूध और छाछ मट्ठा बचा ही लेती थी और बाकी के दूध बेच उपरौला खर्चा का इंतजाम कर लेती थी.

दुपहरिया में बुल्कीवाली आँगन में गोइठा (गोबर के उपले) थाप रही थी तभी भीमा मालिक की ख़बर लेकर आया कि उन्होंने उसे फौरन बुलाया है।पास की बाल्टी में हाथ धोकर साड़ी से हाथ पोछते हुए बुल्कीवाली मालिक के घर की ओर तेज कदमो से चल दी.पीछे पीछे आठ बरस का छोटका जो हरदम अपनी माँ से चिपका सा रहता था और उस वक्त भी माँ का साथ देता हुआ गोबर गींज गींज कर छोटे छोटे गोइठे थापने में लीन था,माँ के पीछे हो लिया.समय समय की बात है,बुल्कीवाली भले आज भी अपने को विशिष्ठ माने हुए है,पर बाकी लोग उसकी करनी को लगभग भूल से गए हैं.हाँ दो बातें जो वे नही भूले हैं वो ये कि ,उन्होंने कितना कुछ बुल्कीवाली को दिया था और दूसरी ये कि बुल्कीवाली सी कमासुत उनकी तमाम आसामियों में एक भी आसामी(जिन्हें जमींदार अपनी जमीन पर झोंपडा डाल रहने की इजाजत देते हैं) नही. उन्होंने बुल्कीवाली को जो धन मान दिया था,उसके बदले उसपर अपना विशेष हक समझते हैं . इसलिए आज भी जब कभी बेगार का काम करने वालों की जरूरत पड़ती है तो सबसे पहले कमासुत( मेहनतकश) बुल्कीवाली को ही याद किया जाता है.ऐसा नही है कि बुल्कीवाली यह सब समझती नही, पर रणविजय मालिक आज भी जो इज्जत उसे देते हैं,उसके आगे वह इन बातों को नही लगाती. यह क्या कम फक्र की बात है कि पूरे गाँव में रारिन(छोटी जाति वाली) होते हुए भी वही एक ऐसी औरत है,जो सीधे सीधे मालिक के कमरे तक जाकर मुंह उठाकर मालिक से बात कर पाने की अधिकारिणी है.

मालिक के पास पहुंचकर दूर से ही धरती छूकर प्रणाम कर बुल्कीवाली खड़ी हो गई।रणविजय बाबू कुछ चिंतित से अपने विचारों में लीन थे,सो उनका ध्यान इस ओर नही गया.भीमा ने इंगित करते हुए मालिक को आगाह किया कि मालिक बुल्कीवाली आ गई है॥रणविजय बाबू ने औपचारिक हाल चाल पूछा और फ़िर गंभीर मुद्रा में भूमिका बांधते हुए उस से कहा कि .... " तनिक परेशानी में हैं,तुम्हारी जरूरत है.अनुराधा बिटिया को तीसरा संतान होने वाला है,तबियत ठीक नही रहती सो उसने ख़बर भेजाया है कि बुल्कीवाली अगर दो तीन महीना भी आ कर घर सम्हाल दे तो जिनगी भर गुन गाएगी. "

बुल्कीवाली अजीब पसोपेस में फंस गई.....अब क्या कहे........आजतक उसने इस घर के किसी भी काम के लिए ना नही कहा था।और उसमे भी जब मालिक ख़ुद कह रहे हों तब तो इनकार का सवाल ही नही उठता था.पर आज जो स्थिति है उसमे वह एकदम से किन्कर्तबविमूढ़ हो गई. हाँ करे भी तो कैसे...अब अनुराधा बिटिया कोई भीरू (नजदीक) तो रहती नही कि जाकर उनका भी काम कर दें और समय निकाल अपना भी सब सम्हाल ले.कहते हैं रेलगाडी से जाओ तो भी बम्बई जाने में चार दिन लग जाते हैं.एक बार जाने का मतलब है, पूरा घेरा जाना॥ ..हकलाती रिरियाती मालिक से बोली..."मालिक ई त बड़ा ही खुसी का बात है कि अनुराधा बिटिया की गोद हरी हो रही है,मुआ हम का करें,एकदम ससरफांस में फंसे हुए हैं,अभी दस दिन पाहिले एगो भैंस बियाई है और दूसरी भी बीस पच्चीस दिन में बियाने वाली है,खेत में तरकारी लगा हुआ है.इसी बार लगाये और बढ़िया लग गया.उसका देख रेख जतन तनिक जादा ही करना पड़ रहा है. कुछ काम था, सो बड़का को भी भठ्ठा (ईंट भठ्ठा) मालिक अपना घर बुला लिए हैं महीना भर के लिए. वह आ भी जाए तो इतना सब अकेले नही देख सम्हाल सकता.उसके बियाह के लिए बरतुहार भी आने लगे हैं,उस से तो बड़का बात नही करेगा, और सबसे बढ़कर यह छोटका छौंडा (लड़का) भी हमें छोड़ एक पल को नही रहता.इसको किसके आसरे छोड़ कर कहीं बहार निकलें....अब आप ही मालिक हैं,सोचकर जैसा आदेस करेंगे, हम करेंगे."

कहने को तो कह गई इतना कुछ पर भय से उसका पूरा देह हरहरा रहा था और अपनी बेबसी भी करेजा छीले जा रही थी॥चौधरी साहब के लिए भी पहली बार था कि बुल्कीवाली ने उनकी बात काटी थी।यूँ भी एक औरत और वो भी रारिन उनकी बात काटे,यह बहुत भारी बात थी.आस पास खड़े लोग भी दंग रह गए थे.मालिक बुरी तरह लहर उठे.पर न जाने कैसे उन्होंने धैर्य धर लिया .....पर चेहरा एकदम कठोर हो गया और कड़कती आवाज में उन्होंने फ़ैसला सुना दिया....उन्होंने कहा...."हम तुमसे तुम्हारा राय नही मांगे हैं, अनुराधा बिटिया को जरूरत है और तुझे वहां जाना है बस....बड़का को बुला कर सब जिम्मा कर दे ,उसको कोई जरूरत होगी तो हम यहाँ देख लेंगे.....हाँ,छोटका को तू अपने साथ ले जा सकती है.....ज्यादा बकथोथर(मुंह लगना) न कर ,तैयारी कर ले, चार दिन बाद भीमा तुझे लेकर निकल जाएगा.सब कुसल मंगल हो जाए तो लौट आना,कोई नही रोकेगा तुझे..जचगी नजदीक होगी तो मैं और मलिकाइन भी वहां आयेंगे."

अब कुछ कहने सुनने को कहाँ कुछ बचा था।मचल रहे आंसुओं को घोंटते हुए मालिक को प्रणाम कर चुपचाप घर की ओर चल दी.ज़माने में अमीर का दुःख अमीर का सुख सब बड़ा होता है,गरीब का कुछ भी अपना नही.जब अपना जीवन ही अपना नही तो फ़िर और क्या कहे.हर साँस पर मालिक का कब्जा है.किस के क्या कहे.कौन समझेगा कि दरिद्र है तो क्या हुआ, छोटी ही सही पर,उसकी भी तो अपनी गृहस्थी है.उसके खेत उसकी पूंजी जायदाद है॥इसबार कमर कसकर उसने पास के खेत में तरकारी लगायी..खाद ,पटवन और देख रेख में पौधे लहलहा उठे. फूल बतिया ( छोटे फल) से लद गए थे.उसे उम्मीद थी कि इसबार वह इतना कमा लेगी कि अपनी जार जार चूती फूस की छत को बदलवाते हुए अपनी पुतोहु (बहू) के किए एक कच्ची कोठरी और जरूर बना लेगी. नही तो सास पुतोहू बेटा सब एके कोठरी में सोयें ,यह थोड़े न अच्छा लगता है.किस्मत ने साथ दिया तो इतना कमा लेगी कि दो रोटी के लिए बड़का को घर से दूर भठ्ठा पर जाकर न मरना खपना पड़े.पर इस गरीब के सपनो की कौन फिकर करे..पर सबसे बड़ी दुःख की बात ये कि ये भैंसें उसकी अपनी सगी बेटी से भी बढ़कर हैं,हमेशा से.अपनी कोठरी की छत भले चूती रहे पर भैंसों का छप्पर चूने की हालत में कभी न पहुँचने देती थी वो. .वे जानवर नही उसका अपना परिवार थे.सारे बच्चे उसके हाथ ही जन्मे थे और उसके हाथ का स्पर्श पा वे भैंसे अपना जनने का दुःख भी भूल जाती थीं.आज उनको टूअर (बेसहारा)छोड़कर जाने की सोच उसका कलेजा फटा जा रहा था..उनका सुख दुःख छोटका बड़का के सुख दुःख से छोटा नही था उसके लिए.

बम्बई पहुंचकर अपनी आदत के मुताबिक बुल्कीवाली जुट गई अपने काम में।काम करने में तो भूत वह हमेशा से रही थी॥गाँव में ही जब तीन जनों का काम वह अकेले कर लेती थी तो फ़िर यह शहर का काम उसके लिए कुछ भी नही था.यूँ तो अनुराधा के पति महेश बाबू ऊँचे पद पर ऊँची तनखाह पाने वाले बड़े भारी अफसर थे, पर उस महानगर में मंहगाई और घरेलु नौकरों के अभाव के साथ साथ उनका जो रेट और उनके नखरे थे,बड़े बड़े अफसरों की अफसरी इसमे निकल जाती थी.किसीकी औकात नही थी कि गाँवों की तरह नौकरों की फौज रख सके. अनुराधा इस सब से हरदम ही क्षुब्ध रहती थी.एक साथ मेहनती ,इमानदार और सस्ता नौकर पाना यहाँ असंभव था.यहाँ तो घंटे और गिनती के हिसाब से कामवालियों का रेट था.एक एक दाइयां पाँच पाँच , छः छः घरों में काम करती थी और अगर दिन रात चौबीस घंटे के लिए काम पर रखना हो तो चार पाँच घरों का पैसा एकसाथ जोड़कर चुकाना पड़ता था.तिसपर भी पीछे लगे रहो तो काम करें नही तो फांकी मार दें. लेकिन बेगार में आई बुल्कीवाली ने अनुराधा को ऐसे निश्चिंत कर दिया था कि इस महानगर में भी अनुराधा महारानी बन गई थी.मुंह खोलने से पहले हर काम हो जाता और किसको किस समय क्या चाहिए इसके लिए दुबारा उसे बताना चरियाना नही पड़ता था.अनुराधा तो बिस्तर से उतरना ही भूलने लगी.चूल्हा चौका ,सफाई, बर्तन से लेकर बच्चों की देखभाल और अनुराधा तथा बच्चों का तेलकुर(मालिश),सब ऐसे निपट जाता कि लगता किसी जिन्न ने आकर सबकुछ निपटा दिया हो.

शुभ शुभ करके ,अनुराधा बेटी की जचगी हो गई।इस बार घर में लछमी आई थीं. परिवार पूरा हो गया था.दो बेटे पर से एक बेटी॥छठ्ठी का खूब बड़ा आयोजन हुआ.गाँव से मालिक लोग भी आए थे.बुल्कीवाली को एक जोड़ा नया झक झक सफ़ेद साड़ी मिला और छोटका को भी नया बुसट पैंट. वैसे यहाँ आते ही छोटका और बुल्कीवाली दोनों को अनुराधा ने अपने तथा बच्चों के उतरन (पुराने कपड़े) से मालामाल कर दिया था.

बुल्कीवाली का मन ध्यान भले अपने बेटे और गाँव में छोड़ आए गृहस्थी में अटका रहता था,पर छोटका का मन यहाँ खूब रम गया था। गाँव में जहाँ हर तरह का अभाव था,बड़े जात वालों के छोटे या बड़े सभी बच्चे उसे बिना बात मारना और राड़ (छोटी जाति वाला) कहकर गरियाना अपना जन्मसिद्ध अधिकार मानते थे तथा उसका रोना अपने मनोरंजन का साधन मानते थे,कभी अपने साथ खेलने नही देते थे,वहीँ यहाँ दोनों बच्चे स्कूल और पढ़ाई के बाद उसीके साथ तो खेलते थे.फ़िर जब वो घर पर न हों तो माँ के कहे कुछ टहल टिकोरा निपटा वह सारा समय उस अनोखे रेडियो को देखता रहता था,जिसमे गाने नाचने वाले साक्षात् दिखते भी थे.मालिक ने ठीक ही कहा था,यहाँ आकर उसका गदहा जनम छूट गया था.....वह हमेशा सोचा करता कि गाँव जाकर सबसे बताएगा कि यहाँ उसने क्या क्या देखा ,सब एक दम भौंचक रह जायेंगे.साफ़ सुथरा चम् चम् चमकता घर ,दिन भर भक भक जलता बिजली बत्ती,बस एक बार टीपा नही कि फट से लाईट जल जाए, पंखा चल जाए.पानी निकालने के लिए कुँआ या चापाकल की कोई कसरत नही,बस टोंटी घुमाई नही कि धार वाला पानी झमाझम गिरने लगे॥जो खाना बड़े बड़े भोज में कभी कभार मिलता था वह यहाँ रोज खाने को मिले.कितने सुंदर सुंदर खिलौने थे,सुंदर सुंदर चित्रों वाला किताब था.दोनों बच्चों ने उसे चित्रों वाली किताब देकर कहानियाँ भी बताई थीं.कितना आनंद था यहाँ. दोनों बच्चे भी छोटका का साथ पाकर बहुत ही खुश थे. उन्हें घर में ही साथी के साथ एक ऐसा टहलू मिल गया था,जिसे जब जो आदेश दो, खुशी खुशी फौरन पूरा कर देता था,चाहे खेलते समय या अपने किसी काम के लिए...

(शेष अगले अंक में...)

24.9.08

व्रत उपवास

किसी भी धर्म में, परम्परा में निहित कर्मकांडों में कालक्रमानुसार भले बहुत से ऐसे नियम विधान जुड़ गए जो पूर्णरूपेण उसी विधि के साथ ग्राह्य अथवा अनुकरनीय न हों, पर उसकी पड़ताल उसके सूक्षम और व्यापक उद्देश्यों की धरातल पर करेंगे तो पाएंगे कि उसमे कितना गहन अर्थ छुपा पड़ा है। धार्मिक आस्था को दृढ़ करने के साथ साथ आचरण को व्यवस्थित करते हुए मानव संबंधों को प्रगाढ़ कर सभ्यता संस्कृति के पोषण संरक्षण की कैसी अद्भुद क्षमता इसमे निहित है.लंबे समय से चले आ रहे इन कर्मकांडों को वाहियात और बकवास कह नकारे जाने के पूर्व इनके पीछे छिपे तथ्यों और उद्देश्यों की पड़ताल अत्यन्त आवश्यक है.

व्रत उपवासों का आध्यात्मिक ही नही कल्याणकारी शारीरिक,मानसिक और सामाजिक पहलू भी है।समग्र रूप में व्रत अपने आप से किया हुआ एक संकल्प है, जिसकी पूर्णता आत्मबल बढ़ाने में परम सहायक होता है और उपवास सांकेतिक रूप में इन्द्रियों के नियामक का साधन है। शरीर की सबसे मौलिक आवश्यकता 'भूख' पर नियंत्रण पाने का प्रयास ,हठ साधना द्वारा मौलिक आवश्यकता पर विजय प्राप्त कर आत्मबल की संपुष्टि है.मनुष्य इन्द्रियों को जितना अधिक वश में रखने में क्षमतावान होगा उसका आत्मबल,क्षमता उतनी ही उन्नत होगी और विवेक जागृत होगा.सकारात्मक शक्ति ही मनुष्य को सकारात्मक कार्य के लिए भी उत्प्रेरित करती है. लेकिन इसका यह अर्थ नही कि सिर्फ़ भोजन भर त्याग देना व्रत या उपवास कहलायेगा और यह उतना ही सिद्धिदायी होगा.उपवास वस्तुतः मन, कर्म, वचन तथा व्यवहार में शुचिता लाने का व्रत/संकल्प लेते हुए अटलता से उस पर कायम रहते हुए सत्य पथ पर चलने के प्रयास का नाम है. भोजन भर छोड़ देना और अवधि समाप्ति तक मन ध्यान भोजन पर केंद्रित रखते हुए व्यंजनों के ध्यान में झुंझलाहट के साथ समय निकलना,व्रत उपवास नही है. ईश्वर ने मानव शरीर को जिन पचेंद्रियों से विभूषित किया है,जिनकी सहायता से हम सुख प्राप्त करते हैं,सुख प्रदान करने वाले ये इन्द्रियां यदि मनुष्य के विवेक की सीमा में न रहें तो बहुधा अत्यधिक सुख की अभिलाषा व्यक्ति को अनुचित कार्य करने को उकसाती ही नही कभी कभी विवश भी कर देती है और मनुष्य का अधोपतन हो जाता है.इसलिए इन व्रत उपवासों का प्रावधान सभी धर्मो में एक तरह से इन्द्रियों के नियमन के निमित्त किया गया है. किसी भी देवी देवता चाहे उसे अल्लाह कहें,जीसस क्राइष्ट या राम कृष्ण शंकर दुर्गा हनुमान या इसी तरह के अन्य देवी देवता(हिंदू धर्म में देवी देवताओं की जो संख्या तैंतीस कडोड़ मानी गई है,वह भी अपने आप में अद्भुद इसलिए है कि इस ब्रह्माण्ड में ऐसा कुछ भी नही जिसे श्रद्धा का पात्र नही माना गया है,चाहे वह चल हो या अचल.और उसके प्रतिनिधि विशेष के रूप में उसे देव या देवी के रूप में पूजनीय माना गया है ), सबसे पहले तो धार्मिक दृष्टि से यदि देखें तो,जिस किसी देवी देवता के नाम पर यह व्रत अनुष्ठान किया जाता है,मनुष्य जब इसका परायण करता है तो सहज ही उस से जुड़ जाता है और ध्यान में जब इष्ट हों,उसके प्रति प्रेम श्रद्धा और निष्ठा हो, तो सहज ही उसके स्मृति से जुड़कर मन उस इष्ट विशेष के गुणों से अभिभूत हो उसका अनुकरण करने को प्रेरित होता है.ईश्वर जो सकारात्मकता का पुंज है,सद्गुणों का भण्डार है,व्यक्ति जितना उसकी भक्ति में डूबता है उतना अधिक सद्गुणों से विभूषित होता है.यूँ भी तो हम देखते हैं न कि जिस किसी मनुष्य से मानसिक रूप से हम जितने गहरे जुड़े होते हैं अनजाने ही उस व्यक्तिविशेष के कई गुण हममे ऐसे आ मिलते हैं कि लंबे समय तक के प्रगाढ़ मानसिक सम्बन्ध दो व्यक्तियों के बीच सोच विचार और आचरण में आश्चर्यजनक साम्यता ला व्यक्तित्व को एक दूसरे का प्रतिबिम्ब सा बना देता है.यही कारण है कि अपने मन में ईश्वर की प्रीति धारण कर मन कर्म वचन से सदाचार पर चलने वाले मनुष्य भी देवतुल्य पूज्य हो जाते हैं.इसका एक पहलू यह भी है कि चूँकि प्रत्येक व्यक्ति में इतनी मात्रा में करनीय अकरणीय में विभेद कर अनुशाषित जीवन जीने की विवेक क्षमता तो होती नही है,सो यदि कर्मकांडों से जोड़कर उसे ईश्वर के प्रति आस्था रखने को विवश कर दिया जाता है तो व्रत विशेष के कालखंड में अनिष्ट के भय से ही सही जुड़कर कुछ पल को उस सर्वशक्तिमान से जुड़ता तो है और उस उपास्य विशेष से जुड़ना और उसके सद्गुणों की स्मृति भी व्यक्ति को सन्मार्ग के अनुसरण को प्रेरित करती है.

मानव समुदाय को परस्पर सुदृढ़ बंधन में आबद्ध रखने में धर्म सबसे महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है और धर्म से मनुष्य को जोड़े रखने में धार्मिक अनुष्ठान और कर्मकांड पोषक की भूमिका निभाते हैं।क्योंकि समुदाय विशेष जब एक साथ किसी कालखंड विशेष में किसी अनुष्ठान को संपन्न करते हैं तो स्वाभाविक हो उनमे भाईचारे की भावना का संचार होता है.उदहारण के लिए हम देख सकते हैं, रमजान के महीने में एक साथ विश्व के सभी मुस्लिम धर्मानुयायी महीने भर का व्रत रख सूर्योदय से सूर्यास्त तक उपवास रखते हैं.निश्चित रूप से यह पूरे समुदाय को एकजुटता के सूत्र में आबद्ध करने में प्रभावकारी भूमिका निभाता है.

शारीरिक रूप से देखें तो भी उपवास का शरीर पर बड़ा ही महत्वपूर्ण सकारात्मक प्रभाव पड़ता है। प्रतिदिन जो हम आहार ग्रहण करते हैं लाख चाहकर भी वे पूर्णरूपेण पोषक संतुलित और ऋतु अनुकूल नही होते.असंतुलित आहार शरीर में रक्त,वायु या पित्त दोष उत्पन्न करते हैं तथा लगातार भोजन के पाचन क्रिया में संलग्न तंत्र शिथिलता को प्राप्त होने लगते हैं.ऐसे में सप्ताह,पखवाडे या मास में एक बार नियमित रूप से यदि फलाहार ,निराहार,एकसंझा या बिना नमक के भोजन किया जाए तो पाचन तंत्र बहुत हद तक व्यवस्थित हो जाता है.किंतु उपर्युक्त किसी भी उपवास में जल के पर्याप्त सेवन से शरीर में संचित दूषित अवयव ( टाक्सिन) शरीर से निकल जाता है. कुछ लोग भोजन को दैनिक आवश्यकता मानते हैं और उपवास करना अपने शरीर को कष्ट पहुँचाना मानते हैं.लेकिन यह निःसंदेह एक भ्रम से अधिक कुछ भी नही.उपवास शरीर के हानिकारक अवयवों से शुद्धिकरण का सर्वथा कारगर उपाय है.

हम कहते हैं,विश्व ने,विज्ञान ने बहुत तरक्की कर ली है और मनुष्य का जीवन स्तर चमत्कारी रूप से उन्नत हुआ है।तथ्य को नाकारा नही जा सकता,परन्तु विश्व स्तर पर तरक्की लाख उचाईयां पा चुका हो अन्नाभाव में मरने वालों की संख्या में कमी करने की दिशा में बहुत कम कर पाया है.आज भी जनसँख्या वृद्धि का जो दर है, अन्न उत्पादन के दर की तुलना में वह कई गुना अधिक है,जो दिनोदिन मांग और पूर्ती के संतुलन को ध्वस्त करती जा रही है.पेट्रोल डीजल की बढ़ती दरों को महंगाई का प्रमुख कारण मानने वाले बहुत जल्दी ही यह मानना शुरू करेंगे कि जनसँख्या वृद्धि के सामने अन्न की कमी का दिनोदिन बढ़ता असंतुलन,इस संकट का बहुत बड़ा कारण है. भारत तथा इस जैसे बहुत से देशों में आज खेती करना निम्न दर्जे का काम माना जाता है और न तो पढ़े लिखे लोग कृषि कार्य में दिलचस्पी रखते हैं और न ही कृषि कार्य को बेहतर रोजगार का विकल्प मानते हैं.कृषि कार्य में जो लोग संलग्न हैं अधिकाँश संसाधनहीन ही हैं तथा कृषिकार्य उनका शौक नही मजबूरी है.बहुत तेज गति से पारंपरिक कृषकों का अन्य वैकल्पिक रोजगार क्षेत्र में पलायन हो रहा है.आज यह स्थिति तो आ ही गई न, कि विश्व भर में पेयजल समस्या बहुत बड़े रूप में उपस्थित हो गया है और "पानी बचाओ" मुहिम आन्दोलन का रूप लेता जा रहा है.हाल की ही बात है न दस रुपये किलो दूध पीने वाला समाज शुद्ध पेय जल के लिए न्यूनतम दस रुपये लीटर पानी खरीद कर पी रहा है. कारखाने उद्योग तो खूब लग रहे हैं.रोजगार के साधनों में निरंतर वृद्धि हो रही है,परन्तु खाने के लिए तो अन्न ही चाहिए.बहुत कुछ करना सर्वसाधारण के वश में नही पर इतना तो किया ही जा सकता है कि हम अपनी खुराक को उतनी ही रखें जितने की आवश्यकता इस शरीर को सुचारू रूप से स्वस्थ रखने के लिए है.धर्म के लिए न सही,सम्पूर्ण मानव समुदाय के हित के लिए और साथ ही अपने शरीर के लिए भी हितकारी नियमित निराहार का संकल्प लें तो किसी न किसी रूप में अन्न संकट से जूझने की दिशा में अपना योगदान दे सकते हैं.लोहे और कंक्रीट के फलते फैलते जंगल और सिकुड़ते कृषि भूमि के बीच मनुष्य मात्र का यह नैतिक कर्तब्य बनता है. धर्म में निहित कर्मकांड और व्रत उपवास के प्रावधान का यह महत सर्वमंगलकारी सामाजिक पहलू है,जिसकी उपयोगिता किसी भी काल में सन्दर्भहीन नही होगा.

धर्म व्यक्ति के ह्रदय के सबसे निकट होता है और धर्म के नाम पर आचरण की शुचिता का कार्य सर्वाधिक प्रभावकारी ढंग से कराया जा सकता है.धर्म के साथ इसलिए अनिष्ट के भय को जोड़ा गया कि यदि इसे स्वेच्छा पर नैतिक दायित्व रूप में छोड़ दिया जाता तो बहुत कम लोग ही इसका अनुसरण करते. धर्म से मजबूती से जोड़े रखने के महत उद्देश्य से ही कर्मकांडों की व्यवस्था की गई. कर्मकांड एक ओर जहाँ उत्सव रूप में व्यक्ति के मनोरंजन का सुगम साधन हैं वहीँ समाज को एकजुट रखने में सहायक भी.धार्मिक सामाजिक और शारीरिक रूप से मानव समुदाय के लाभ हेतु ही मनीषियों ने व्रत उपवास का प्रावधान कर रखा है..अतः इन प्रावधानों का अनुसरण कर हम निःसंदेह सुखी होंगे...

11.9.08

शक्ति पूजा


मातृ रूप में शक्ति पूजन, भारतीय संस्कृति का अभिन्न अंग रहा है और अनादि काल से अनवरत चली आ रही यह परम्परा में निहित है. हिंदू पुराणों आख्यानों की मानें तो केवल ब्रह्माण्ड की ही उत्पत्ति ही नही बल्कि ब्रह्मा, विष्णु, महेश तथा अन्य सभी देवी देवताओं की उत्पत्ति भी आदिशक्ति माँ दुर्गा ने ही की है.वे ही श्रृष्टि का आधार हैं.प्रकृति से लेकर चर अचर तक शक्ति रूप में जो कुछ भी श्रृष्टि में निहित उपस्थित है, वह माता का ही रूप है. इस महा शक्ति मातृशक्ति की साधना आराधना देवों तथा मानवो ने ही नही दानवों ने भी की है और जब भी कभी जिस किसी दानव ने शक्ति के मद में चूर हो मनुष्यों , देवों या प्रकृति का दमन किया है,भक्तों की आर्त पुकार पर माता ने उस दुष्ट का नाश कर भक्तों को उससे त्राण दिलाया है. श्रृष्टि के प्रत्येक कण में यह आदिशक्ति व्याप्त हैं.

बहुधा क्षत्रियों की कुलदेवी यही आदि शक्ति माँ दुर्गा ही हुआ करती हैं और इनके आशीष के बिना शक्ति प्रयोग तथा विजय की कल्पना भी नही की जा सकती.पुरातन काल में परंपरागत रूप में माँ शक्ति की पूजा अधिकांशतः घरों में ही की जाती थी.पर कालांतर में इसे उत्साव और त्यौहार के रूप में वर्ष में दो बार बसंत ऋतु तथा शरद ऋतु में नवरात्र में देवी की आराधना के साथ हर्षोल्लास से मनाया जाता है.

दुर्गा शप्तसी में में जो कथा वर्णित है,उसके अनुसार महिषासुर,चंड मुंड,शुम्भ निशुम्भ इत्यादि महादैत्यों ने जब देवताओं तथा मानव जाति को परास्त कर उन्हें त्राण दे त्रस्त कर दिया तो देवों ऋषियों के आर्त पुकार पर आदि शक्ति माता दुर्गा ने अपने विभूतियों के साथ इन असुरों का संहार किया और धर्म की प्रतिस्थापना की.सप्त्शी के अनुसार देवी की विभूतियों(उनके ही अन्य रूपों) तथा अन्य सभी देवताओं के शक्ति रूपों की तो चर्चा है परन्तु परम्परा और व्यवहार में पूजन काल में देवी के विग्रहों के साथ गणेश तथा विश्वकर्मा की जो पूजा की जाती है,इस से सम्बंधित मैंने आज तक जो कुछ भी पढ़ा जाना है, उसमे कहीं नही पाया और यह मेरे लिए बाल्यकाल से ही उत्सुकता का विषय रहा.दुर्गा पूजा में देवी दुर्गा की प्रतिमा के साथ साथ लक्ष्मी ,सरस्वती, विश्वकर्मा तथा गणेश इन सबके विग्रहों के भी स्थापना और आराधना होती है.सबने देखा होगा.परन्तु नवरात्र में जिस दुर्गा सप्त्शी के पाठ के बिना नवरात्र आराधना अपूर्ण मानी जाती है,उसमे कहीं भी गणेश और विश्वकर्मा के विग्रहों की चर्चा नही है.

परम्परा में यूँ ही तो नही कुछ आ जाता, सो इसके पीछे भी कोई तथ्य रहस्य अवश्य होगा ,यह मन कहता था पर कईयों से पूछने पर भी इस जिज्ञासा का समुचित समाधान मुझे आज तक नही मिला है.मेरा निवेदन सभी प्रबुद्ध जनों से है कि जो कोई भी मेरे इस जिज्ञासा को शांत करने में मेरी सहायता करेंगे ,मैं उनकी सदा आभारी रहूंगी.

कुछ वर्ष पहले अपने मन के इसी जिज्ञासा के साथ जब माता के सम्मुख बैठी हुई थी तो अचानक मन में एक बात कौंधी,यह सत्य के कितने निकट है नही जानती पर मुझे लगा कि ये विग्रह समूह कितनी बड़ी बात की ओर इंगित कर रहे हैं.एक ध्रुव सत्य जो सदा के लिए प्रासंगिक तथा विचारणीय है.किसी भी नवनिर्माण या विध्वंस के लिए ये इतने ही अवयव तो चाहिए.

माँ दुर्गा शक्ति की प्रतीक हैं, जो किसी भी कार्य के लिए सबसे पहली आवश्यकता है.

सरस्वती विद्या की प्रतीक हैं,शक्ति बिना विद्या/ज्ञान के कभी सफलता नही पा सकती.

लक्ष्मी धन की प्रतीक हैं,शक्ति और विद्या हों भी तो बिना धन के न तो सृष्टि / रचना / नवनिर्माण का कार्य हो सकता है न ही विध्वंश / युद्ध का.

गणेश बुद्दि,युक्ति और विवेक के स्वामी(प्रतीक) हैं.उपरोक्त तीनो चीजे हों भी और उसे विवेकपूर्ण ढंग से युक्तियुक्त प्रयुक्त न किया जाए तो सब व्यर्थ हो जाता है.

और विश्वकर्मा तकनीक और निर्माण के देवता माने जाते हैं. विध्वंश के लिए भी तकनीक चाहिए और भ्रष्ट व्यवस्था के विध्वन्सोपरांत नवनिर्माण के लिए भी बिना तकनीक और निर्माण की आवश्यकता है नही तो इसके बिना सम्पूर्ण प्रयास व्यर्थ और अर्थहीन हो जाता है.

सो कुल मिलकर मातृशक्ति को सर्वशक्तिसंपन्न होते हुए भी विजय तभी मिलती है जब अपने साथ वे इन शक्तियों को लेकर चलती हैं.सत्य ही है इन पंच्शक्तियों के बिना जर्जर व्यवस्था का विनाश और नवसृजन कर विजयश्री प्राप्त कर पाना असंभव है.सर्व शक्ति मान होते हुए भी विजयी वही हो सकता है जो विद्या ,विवेक ,धन और तकनीक के साथ विभूषित हो..

नवरात्र का वह पावन अवसर निकट ही है सो कुछ बात कर ली जाए वर्तमान समय में इस उत्सव को जिस प्रकार से मनाया जाता है उसके विषय में........

कुछ लोग माता के प्रति पेम और निष्ठा को ह्रदय में धारण किए, बिना कर्मकांड में लिप्त हुए मानसिक पूजन में विश्वास करते हैं तो कुछ लोग इसे बेहद सादगी पूर्ण ढंग से घर में ही कलश स्थापित कर इन नवो दिनों में कठोर साधना उपासना तथा व्रत उपवास के साथ संपन्न करते हैं.कुछ कलश स्थापना न भी करें तो यम् नियम पालन करते हुए विग्रहों के पूजा स्थल पर या मंदिरों में जाकर अर्चना करते हैं,परन्तु एक बहुत बड़ा समुदाय ऐसा है जिसके लिए यह एक ऐसा अवसर है जिसमे रात रात भर पंडालों में घूम घूम कर '' ऐश " करने का सर्वोत्तम सुयोग है.आस्था निष्ठा से इस वर्ग का दूर दूर तक कोई सरोकार नही रहता.दर्शनार्थियों को ताड़ना और छेड़ छाड़,इनके लिए आलौकिक आनंद प्रदायक होता है. .

सही है कि परम्परा में उत्सवों का प्रावधान धार्मिक भावनाओं के उद्दीपन के साथ साथ सामूहिक भावना को जाग्रत करने के लिए किया गया था.पर आज ये धार्मिक उत्साव जो रूप ले चुके हैं,उसमे धर्म तो लुप्त होता जा रहा है,हाँ फूहड़ ढंग से मनाया जाने वाला उत्सव बच गया है.जो दिनों दिन और बदतर होता जा रहा है.आस्था का स्थान आडम्बर ने ले लिया है.चाहे वह कडोडों रुपये मंहगे पंडालों के निर्माण के लिए हों या डांडिया और रास के रूप में आयोजित बड़े बड़े प्रायोजित कार्यक्रमों के माध्यम से हो.अब तो महानगरों में पेप्सी कोला जैसी कम्पनियाँ भी इन डांडिया कार्यक्रमों का आयोजन करवाने लगी हैं जहाँ भरी भरकम फीस देकर लोग सज धज कर डिस्को डांडिया करने पहुँचते हैं.आस्था और धर्म वहां गौण रहता है,उद्देश्य मात्र मनोरंजन भर रहता है...

पूजा पंडालों में भी चहुँ ओर पैसा ही चमकता है.एक प्रकार से होड़ सी रहती है इन पूजा मंडलियों के बीच.अधिकांशतः इन मंडलियों के कर्ता धर्ता संरक्षक समाज के तथाकथित भाई लोग ही हुआ करते हैं जिनके बीच यह शक्ति प्रदर्शन तथा वर्चस्व स्थापित करने का मामला होता है.वर्चस्व की इस लडाई में गोली बन्दूक चलना आम बात है.पूजा के नाम पर जमकर वसूली होती है और इस वसूली से एकत्रित धन का जो सदुपयोग होता है उसके बखान की आवश्यकता नही.सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है.पूजा पंडालों में मानक भव्यता और ताम-झाम भर होती है.

बड़ा ही अफ़सोस होता है,जितना धन पूजा के नाम पर इस तरह बहाया जाता है,जहाँ एक ओर निर्धन दाने दाने को मुहताज है , बिना इलाज के असमय दुनिया से विदा हो रहे हैं,कई मेधावी बालक हैं जो पैसे के अभाव में पढ़ नही पाते.जहाँ सड़कें टूटी हुई है या और भी न जाने कितने ही असंख्य समस्याएं हैं,जिसने जीवन को विषम बना दिया है.क्या इनसे निपटने की जिम्मेदारी सिर्फ़ सरकार की बनती है.सरकार और व्यवस्था को गलियां दे दे देने से समाज की जिम्मेदारी समाप्त हो जाती है? चार दिनों के लिए बनाये जा रहे भव्य से भव्यतम पंडालों के लिए जो धन पानी के लिए बहाया जाता है उसका उपयोग उसी माता के नाम पर सार्थक कार्यों में भी तो किया जा सकता है.यदि एक कोष बनाकर उन अभावग्रस्त लोगों की मदद करें, फैली हुई अव्यवस्था के लिए कुछ कदम उठायें तो क्या यह भगवान् के प्रति भक्ति से कमतर होगी?

स्थिति तो यह है कि पूजा के ये अवसर जिस प्रकार से शहर में अव्यवस्था फैलाते हैं, कि उन चार पाँच दिनों के स्थिति की स्मृति ही भयातुर कर देती है.जगह जगह सड़क जाम,शोर शराबा,शरारती तत्वों की हुल्लड़बाजी ,सारे काम काज ठप्प इतनी बेचैन करती है कि उत्सवों का आगमन उत्साहित नही आतंकित ओर क्षुब्ध कर देती है..

आस्था मन और आत्मा में बसने वाली,धर्म आचार और व्यवहार में समाहित होने वाली तथा उत्सव सामाजिक सौहाद्र बढ़ाने वाले अवयव हैं।कोई आवश्यक नही कि व्रत उपवास या अन्य धार्मिक अनुष्ठानों में लिप्त होकर ही आस्तिकता का निष्पादन किया जाय या उसे प्रगाढ़ किया जा सकता है। आस्था और धर्म व्यक्ति के आत्मोन्नति के साथ साथ समाज को उन्नत और सुदृढ़ करने के लिए है।धर्म के नाम पर आडम्बर और धन का अपव्यय सर्वथा अनुचित है और यदि इसे अधर्म कहा जाए तो कोई अतिशियोक्ति न होगी॥

माता सबको सद्बुद्धि तथा मानव धर्म के मर्म को समझ पाने का विवेक दें यही उनसे प्रार्थना है..

" सर्व मंगल मांगल्ये शिवे सर्वार्थ साधिके,शरण्ये त्रयम्बिके गौरी नारायणी नमोस्तुते "

29.8.08

व्यंगकार शिव कुमार मिश्रा का एक और रूप.कृपया अवश्य देखें.

ब्लोगिंग की दुनिया में " शिव कुमार मिश्रा " एक परिचित ही नही प्रसिद्द नाम है और ये किसी परिचय के मुहताज नही.सो इनके परिचय में बहुत कुछ कहना बेमानी है.अपनी तीखी व्यंग्य शैली से गंभीर मुद्दों को सदा ही पाठक के मन मस्तिष्क पर अंकित करने में सफल रहे हैं.हंसा हंसा कर ऐसे चिकोटी काटते हैं कि आँखें भर आती हैं..मुझे उम्मीद है कि इसी तरह लिखते रहे तो कुछ ही समय में शीर्ष के व्यंगकारों में अपना स्थायी स्थान बना लेंगे.अभी कुछ समय पहले कुश जी की " कॉफी चर्चा " तथा "बाकलम ख़ुद " के माद्यम से उनके विषय में बहुत कुछ जानने को मिला पर शिव ने अपनी व्यंगकार की जो छवि बना रखी है,उस से बहार निकलने में बहुत बुरी तरह झिझकने लगे हैं. जबकि मैं लगभग ४-५ महीनो से इस प्रयास में लगी हुई हूँ कि अपने अन्य गंभीर लेखन को भी वे प्रकाशित (ब्लॉग पोस्ट में)किया करें. उनके गंभीर लेखन के पाठक बहुत ही कम लोग हैं और उसमे से एक खुशकिस्मत मैं भी हूँ.दूसरों की शैली में जब वे इतनी अच्छी कवितायें लिख लेते हैं तो अपनी स्वयं की शैली में कैसा लिख पाते होंगे इसका सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है.पर जब भी उन्हें इन सामग्रियों के प्रकाशन हेतु कहती हूँ तो उनका कहना होता है कि यदि यह सब पोस्ट करूँगा तो लोग हंसने लगेंगे और कहेंगे कि शिव की तबियत तो ख़राब नही हो गई.अब मेरे कहने से तो सुन नही रहे ,सो मेरा सभी माननीय ब्लागरों से अनुरोध है कि शिव से इस हेतु आग्रह करें.कल मुझे उन्होंने अपनी एक पाँच मिंटी कविता एस एम् एस से भेजी थी,बिना उसकी अनुमति के मैं वह यहाँ प्रकाशित कर रही हूँ.आप गुनीजन ही देखकर बताएं कि मेरा उस से यह अनुरोध ग़लत है या सही ?


तंज हैं विचारों में,
हाथ के इशारों में,
तंज मुंह की बोली में,
तंज हर ठिठोली में....

तंज है अदाओं में,
तंज आपदाओं में,
तंज दिखे सपनो में,
तंज सारे अपनों में....

तंज पूरी दुनिया में,
तंज नन्ही मुनिया में,
तंज झलके भाषा में,
नज़र भरी आशा में....

तंज सब आवाजों में,
तंज है परवाजों में,
तंज पर ही रीते हैं,
तंज लिए जीते हैं....

तंज है उड़ानों में,
तंज आसमानों में,
तंज भरा रंगों में,
थिरक रहे अंगों में....

तंज बहुत तंग करे,
जीवन से रंग हरे,
तंज छोड़ कभी-कभी,
हम उसको दंग करें....

एक दुआ दिल से है,
तंज हमें छोड़ जाए,
जो बिखरे दिखते हैं,
प्यार उन्हें जोड़ जाए.....


यदि आपको यह अच्छा लेगे तो मेरा आग्रह है कि शिवजी को अवश्य प्रोत्साहित करें.

27.8.08

“ माँ आप मेरी आयडल थीं.”

“माँ आप मेरी आयडल थीं,पर जिस दिन मैंने आपको ऑफिस में झूठ बोलते देखा सुना("आप ऑफिस में मौजूद थीं पर जब आपके लिए फ़ोन आया तो आपने स्टाफ को कह दिया कि कह दो मैं ऑफिस में नही हूँ") ,माँ मुझे इतना बड़ा धक्का लगा कि बता नही सकता.आपने हमेशा हमलोगों को सच बोलने और अच्छा इंसान बनने,सच्चाई इमानदारी के रस्ते पर चलने की सीख दी.इस से पहले आपको कभी इस तरह झूठ बोलते सुना भी नही था और यही वजह था कि आपकी कही हर बात हमें सही लगती थी,लेकिन जब आपको ही झूठ में लिप्त होते देखा तो इतना बड़ा झटका लगा, समझ नही आया कि अबतक जो आपको देखता आ रहा था आपका वह रूप सही था या उस समय जो देखा वह सही था....मुझे लगा जब आप झूठ बोल सकती हैं तो सच्चाई की कीमत क्या है.मैं बहुत रोया था माँ.आपकी जो छवि मेरे मन में थी वह जैसे टूटने लगी थी.इसलिए उसके बाद से जब भी आप बड़ी बड़ी बातें करती हैं तो वो मुझे झूठी और छलावा लगती हैं.लगता है आपने दो चेहरे लगा रखे हैं एक दूसरों के सामने और एक हमारे सामने."

यह बात मेरे 13 वर्षीया पुत्र ने जिस दिन मुझे कहा,बहुत दिनों तक तो एक सन्न की अवस्था में रही और आज भी ये वाक्य मेरे अन्तःकरण को झकझोर कर ऐसे क्षुब्ध अवस्था में पहुँचा देते हैं कि मन एकदम अशांत हो जाता है.उस दिन कुछ भी न कह पाई थी,अपने बच्चे को.न ही अपनी सफाई में और न ही उसे सांत्वना में और न ही यह समझ में आया कि अपने को क्या सज़ा दूँ...

मुझे याद आया ,ऐसा ही कुछ मेरे साथ भी बचपन में घटित हुआ था,जब मैं करीब ७-८ वर्ष की थी.माता पिता या पुस्तक सत्य के मार्ग पर चलने को प्रतिपल प्रेरित करते थे.पर व्यावहारिक रूप में अपने अभिभावकों को जब छोटी छोटी बातों के लिए दूसरो से झूठ बोलते सुनती थी तो बड़ी भ्रामक स्थिति हो जाया करती थी और अक्सर ही अपने इन अभिभावकों या शिक्षकों से वितृष्णा सी होने लगती थी.एक बार ऐसा हुआ कि मेरे पिताजी के एक मित्र ने पिताजी से फोटोग्राफी के लिए कैमरा माँगा.पिताजी ने मुझे निर्देश दिया कि उक्त अंकल के आने पर उन्हें वह कैमरा दे दूँ,पर रोल न दूँ.जब वो सज्जन (पिताजी के अनुपस्थिति में)आए और मैंने उन्हें कैमरा दे दिया तो उन्होंने मुझसे पुचकारकर पुछा कि रोल है क्या? मैंने हामी भर दी.उन्होंने झट मुझसे उसकी मांग कर डाली और मैंने सरलता से उन्हें कह दिया कि पिताजी ने देने को मना किया है.पर वो भी पूरे ढीठ थे. उन्होंने मुझसे कहा कि पिताजी ने ही उन्हें वो दे देने को कहा है.मुझे लगा ये झूठ थोड़े न कह रहे होंगे,सो मैंने उन्हें वह लाकर दे दिया.और मजे की बात यह हुई कि पिताजी को उन्होंने जाकर यह कह दिया कि मैंने उन्हें जबरदस्ती दौडा कर वह रोल दिया है और कहा है कि पिताजी ने रोल लेने को कहा है.जब पिताजी घर आए और माताजी को सारी कहानी सुनाकर मुझे जबरदस्त झाड़ के साथ साथ कनैठी दी तो मेरी अजीब सी स्थिति हो रही थी.जितना दुःख मुझे डांट सुनने और कान मडोडे जाने का नही हुआ उस से सौ गुना अधिक इस बात का हुआ कि सारे के सारे झूठे और प्रपंची हैं.मुझे इस बात में कोई शंशय नही था कि झूठ बोलना ग़लत और अधर्म है.

समय के साथ साथ ये भाव गहरे ही बैठते गए और मन ही मन यह प्रण दृढ़ करती गई कि व्यावहारिकता और दुनियादारी के नाम पर जो बहुत सारे ग़लत को लोग करते चले जाते हैं और कहते हैं कि क्या करें इसके बिना काम थोड़े ही न चल सकता है,इस धारा के विरुद्ध चलकर इसे एक चुनौती के तरह निभाउंगी.कभी हारूंगी थकुंगी नही ,कभी इस सत्य पथ से विचलित नही होउंगी. अपने पूरे विद्यार्थी जीवन में अपने सिद्धांतों आदर्शों नैतिकता को पालित पोषित कर जीवित रखा और आंखों में बड़े बड़े सपने बुनती बसाती रही, विलक्षण कार्य और सकारात्मक परिवर्तन के.पर पता भी नही चल पाया व्यावहारिक जीवन पथ पर चलते हुए अधिकाँश प्रण कहाँ चुक गए. आज कमोबेश वही स्थिति है,जिसमे कभी अपने अभिभावकों को देखा था और जिस से कभी इतनी वितृष्णा रहा करती थी.इसे क्या कहूँ....आत्मा की आवाज को नकारना या अपनी कायरता या फ़िर अपनी कातरता ? क्यों इतने विवश हैं हम ?एक आदर्श व्यक्तित्व,माँ,नागरिक बने रहने के संकल्प की कसौटी पर स्वयं को परख पाने भर की हिम्मत भी कहाँ बची है?आज कितनी सारी बातों के लिए कितने आराम से हम यूँ ही माफ़ कर दिया करते हैं अपने आप को, यह कहते हुए कि क्या करते और कोई रास्ता भी तो नही बचा है. अपने सुविधानुसार जब चाहे तब सही ग़लत के बीच की विभाजन रेखा को परिभाषित कर लिया करते हैं हम और जब कभी आत्मा कि चीत्कार उठी भी तो उसे ठोक कर फुसलाकर सुलाने के उपक्रम करने लगते हैं. लेकिन समस्या यह है कि अपने बच्चों या वो सारे लोग जो हमें अपना अनुकरणीय मानते हैं, जिनकी श्रद्धा और विश्वास की दीवार की नींव हमपर टिकी होती है,अपना जो करते हैं वो तो करते ही हैं,उन्हें दिग्भ्रमित करने के पाप के भागी भी हमही बनते हैं.जो बच्चा धरती पर आता है,एक साफ़ सुथरे स्लेट की तरह उसका मन मस्तिष्क होता है पर उसपर हमारे कथन से अधिक हमारे कार्य व्यवहार अंकित होते हैं.सदैव से प्रत्येक माता पिता अपने संतान को विलक्षण गुण संपन्न देखना पाना चाहते हैं .परन्तु इसके लिए अपेक्षित कार्यकलाप और व्यवहार को सुगठित और नियंत्रित नही रख पाते. जिस बालक और बालिका को अपने घर में अपना प्रेरक माता पिता के रूप में नही मिल पाता उसका सहज ही दिग्भ्रमित होना स्वाभाविक है.

मुझमे हिम्मत नही कि मैं अपने बच्चे से पूछ पाऊं कि उसकी मेरे बारे में क्या राय है.पर ईश्वर से प्रार्थना है कि उसे एक आयडल ऐसा मिले जो उसके सत्य पथ पर चलने को सदैव प्रेरित करता रहे अपने जीवन मार्ग पर दृढ़ता से 'सही' के साथ चले और उसके समस्त सदगुण सुरक्षित रहें. ऐसा नही है की मेरा बेटा मुझसे प्रेम नही करता,पर मुझे असह्य कष्ट है कि मैं एक अच्छी माँ और अपने बच्चे कि पथप्रदर्शिका न बन पाई. यदि एक भी अभिभावक मेरे इस प्रसंग से सचेत हो सके तो लगेगा थोड़ा सा प्रयाश्चित मैंने कर लिया.

22.8.08

भ्रम

दर्पण के सम्मुख जो आई,
अपनी ही छवि से भरमाई.

मतिभ्रम ने जो जाल बिछाया,
जान न पाई मैं वह माया.

अपर मान उसे संगी माना,
दुःख सुख का सहगामी जाना.

मुग्ध हुई मैं उसको पाकर,
आपा खोया नेह जोड़ कर.

छवि ने भी तो साथ निभाया,
साथ हंसा वह साथ ही रोया.

मन ने जब जो भाव रचाया,
दर्पण ने भी वही दिखाया.

जान न पायी इस छल को मैं,
हास मेरे थे रुदन में थी मैं.

छवि को चाहा गले लगालूं,
नेह बंध को और बढ़ा लूँ.

दौडी जो शीशे से टकराई ,
छिन्न हो गई तंद्रा सारी.

पोर पोर में शीशे चुभ गए,
घायल अन्तःस्थल को कर गए.

चुभते शीशे मन पर जम गए,
पीड़ा प्रतिपल स्थायी कर गए.

मोह का बंधन टूट तो गया,
उर में पर वह रुदन भर गया.

दर्पण को अब क्योंकर कोसूं,
दोष मेरा, क्या उसमे खोजूं.

निज भ्रम ने ही मुझको लूटा,
नेह का बंधन निकला झूठा.

नेह मरीचिका बड़ी प्रबल है,
अपनी ही छवि करती छल है..........

12.8.08

लेखन : एक प्रभावी उपचार

सर्वविदित है कि पठन- पाठन,मनन-चिंतन व्यक्ति को बौद्धिक स्तर पर समृद्ध बनाता है.पुस्तकें या ज्ञान चाहे धर्म अर्थ से सम्बंधित हो या किसी भी विषय विशेष से सम्बंधित,व्यक्ति को जहाँ एक ओर आनंदानुभूति कराते हैं, वहीँ ज्ञानवर्धन भी करते हैं. यूँ खेल कूद,बागवानी,भ्रमण,कला के विभिन्न मध्यम से जुड़ना, इत्यादि भी व्यक्ति के आनंद का श्रोत बन उसे संतोष और मानसिक शान्ति प्रदान करने,विषाद मुक्त रखने में बहुत प्रभावी होते हैं, पर इसमे ज्ञानवर्धन का तत्त्व उतनी मात्रा में नही होता जो पठन पाठन में होता है.

आनंद के इन अजश्र श्रोतों से जुड़ा एक संतुष्ट और परसन्नमना व्यक्ति अपने आस पास अपने से जुड़े लोगों में भी निरंतर उत्साह उर्जा और प्रसन्नता ही संचारित करता है,पर समय की बात है,मनुष्य का कोमल मन कितना भी धैर्य क्यों न पकड़े रहे, कभी न कभी ऐसे दुर्घटनाओं तथा प्रसंगों से गुजरता ही है जहाँ विषाद से घिरे बिना नही रह पाता और मानसिक कष्ट के क्षणों में वे सारे अवयव जो सामान्य अवस्था में आनन्द के श्रोत हुआ करते थे व्यक्ति के लिए अपने मायने खो चुके होते हैं या फ़िर यदि मन बहलाव के लिए जबरन अपने को खींच कर उनसे जुड़ शान्ति पाने का प्रयास किया भी जाए तो यह मन को पूरी तरह बाँध नही पाता.यदि इनमे लिप्त कर भी लिया जाए किसी तरह अपने आप को तो अधिकांशतः यह एक दैहिक क्रिया बनकर रह जाती है.कष्टों से गुजर रहा व्यक्ति यदि दीर्घ काल तक उस मानसिक अवसाद की स्थिति में रहता है तो पीड़ा घनी भूत हो मानसिक विकृति,पागलपन या आत्महत्या तक ले जाती है.मानसिक कष्ट की यह अवस्था व्यक्तिगत कष्ट के कारण या संवेदनशील मनुष्यों द्वारा अन्य के कष्ट के कारण भी हो सकती है.पर सामान्यतया जब दुख या सुख के अतिरेक को या भावनाओं के अतिरेक को अभिव्यक्ति नही मिलती तो मन मस्तिष्क पर आच्छादित मनोभाव घनीभूत हो कष्ट का कारण बन जाते हैं.

कहते हैं न कि दुःख बांटने पर सौ गुना घटते और सुख बांटने पर सौ गुना बढ़ते हैं.यह वस्तुतः मनोभावों को अभिव्यक्ति मिल जाने के कारण ही होता है.यूँ तो रोना भी स्वस्थ्य के लिए बड़ा ही उपयोगी माना गया है,क्योंकि रो लेने पर कुछ समय के लिए लगभग वैसी ही स्थिति होती है जैसे घनीभूत हो चुके बादलों के बरस जाने पर आसमान साफ़ हो जाता है.पर रोना मन को हल्का करने का कोई स्थायी उपाय नही है.कई कष्ट ऐसे होते हैं,जिनका न तो कोई समाधान होता है या जिन्हें व्यक्ति सहज ही सबके सामने अभिव्यक्त कर मन हल्का कर सकता है.सिर्फ़ कष्ट ही नही कई बार ऐसे विचार चिंतन भी मन मंथन का कारण बन जाते हैं और लंबे समय तक यदि इन्हे अभिव्यक्ति न मिले तो मन को बोझिल कर देते हैं.अब अभिव्यक्ति के लिए व्यक्ति रूप में मनोनुरूप पात्र का मिलना भी एक समस्या है.बहुत कम लोगों को यह सौभाग्य मिलता है कि मित्र रूप में उसके जीवन में कोई ऐसा उपलब्ध हो जो उसकी बातों भावनाओ को पूर्ण रूपेण समझे और जब वह चाहे व्यक्ति के आवश्यकतानुरूप समय से उपलब्ध भी हो.

ऐसे समय में लेखन अभिव्यक्ति का वह माध्यम है जिसमे निश्चित रूप से व्यक्ति को समाधान न सही पर शान्ति अवश्य ही मिल जाती है.गद्य ,पद्य,लेख ,संस्मरण,डायरी इत्यादि किसी भी विधा में संवेदनाओं को अभिव्यक्त कर व्यक्ति दुखों को घटा और सुख संतोष पा सकता है.आवश्यक नही कि ये सब प्रकाशन हेतु ही हो या जब तक किसी लेखन शैली या विधा में पारंगतता न हो लेखन कार्य न किया जाए.वस्तुतः जब व्यक्ति लेखन कार्य में संलग्न होता है,विषय वस्तु में इस प्रकार निमग्न हो उसमे स्थित हो एकाग्रचित्त जाता है और भाव में डूबने के साथ साथ शब्द चयन तथा वाक्य विन्यास के प्रति सजग हो इस तरह पूरे कार्य में तल्लीन हो जाता है कि यह अवस्था " ध्यान"(मेडिटेशन) की अवस्था होती है.देखा जाए तो किसी मंत्र का जाप या इष्ट का ध्यान,पूजा पाठ जो मन को एकाग्रचित्त कर ध्यान की अवस्था द्वारा चित्त वृत्ति को सुदृढ़ स्वस्थ करने की प्रक्रिया मानी जाती है, कई बार मन स्थिर रख पाने में उतनी कारगर नही होती पर लेखन चूँकि समग्र रूप से एक प्रयास है व्यक्ति को एक केन्द्र में अवस्थित रखने में सहायक होता है, तो यह ध्यान के बाकी अन्य उपायों की तुलना में अधिक कारगर ठहरता है..और यह तो सर्व विदित है की ध्यान किस प्रकार मानसिक स्वस्थ्य प्रदान करने में सहायक है.

इतना ही नही,लेखन के विभिन्न माध्यमो से कथ्य में काल्पनिक रंगों का समावेश कर मन मस्तिष्क को आघात पहुँचा रही उन स्मृति दंशो से जिन्हें कि प्रकट कर पाना कठिन होता है किन्ही अपरिहार्य कारणों से,नए कलेवर में ढाल व्यक्ति सहजता से प्रकट कर उनसे मुक्ति पा सकता है.

कई लोग डायरी को अपना आत्मीय और मित्र बना,उसके साथ अपने अनुभूतियों और घटनाओं को बाँट लेते हैं.मन भी हल्का हो जाता है और इसके साथ ही जब चाहें तब उन संगृहीत पन्नो में जाकर बीत चुके घटनाओं और मनोभावों की गलियों में विचर आनंदानुभूति कर आते हैं.कुछ लोगों में यह वृत्ति होती है कि जहाँ कहीं कोई अच्छी पंक्ति उधृत देखी,झट उसे संगृहीत कर रख लिया.देखते देखते कुछ समय में विचारों का एक विशाल संग्रह बन जाता है और जब चाहे व्यक्ति उनके बीच ऐसे घूम फ़िर आ सकता है जैसे भूले बिसरे किसी मित्र से मिल आए हों.

मनोचिकित्सकों द्वारा भी लेखन को कारगर उपाय रूप में चिकित्सा हेतु अपनाया जाता है.रोगी को हिप्नोटायिज कर अर्ध चेतना की अवस्था में ले जाकर मन में गहरे गुंथे पड़े पीडादायक क्षणों से गुजारकर रोग के तह तक पहुँचने का प्रयास किया जाता है.इसके साथ ही रोगी द्वारा लेखन कार्य भी कराया जाता है और रोगी को अपने सभी प्रकार के मनोभावों को लिख कर अभिव्यक्त करने को प्रोत्साहित किया जाता है.इससे एक साथ दोनों कार्य हो जाते हैं,एक तो अनजाने ही रोगी लेखन क्रम में ध्यानावस्था को पाकर मानसिक स्वास्थलाभ करता है,और दूसरे चिकित्सक को भी रोग के जड़ तक पहुँच उसके अनुरूप चिकित्सा विधि तय करने में सहूलियत मिलती है.

जो लेखन कला में प्रवीण हैं,उनके लिए निरंतर लेखन अति आवश्यक है।क्योंकि लेखन कार्य में संलिप्तता लगभग वैसा ही कार्य करती है जैसे जमे हुए पानी को यदि बहाव दे दिया जाए तो पानी सड़ता ख़राब नही होता है.निरंतन चिंतन और अभिव्यक्ति विचारों को सदैव नूतनता प्रदान कर व्यक्ति को समृद्धि बनाती है.इसके साथ ही यह वह संतोष और उर्जा देती है जो जिजीविषा को पालित पोषित रखते हुए व्यक्ति को सदैव रचनात्मकता प्रदान करती है,जिसके सहारे वह अपना ही नही कईयों का भला कर सकता है॥ कहते हैं न कि जो काम तलवार नही कर सकती वह कलम कर सकती है........

7.8.08

युवाओं में विवाह के प्रति बढ़ती अनास्था

धर्म में मनुष्य को जिन चार आश्रमों में रहने का प्रावधान बताया गया है ,उसमे जीवन के लिए विवाह को अति आवश्यक माना गया है.समाज को सुगठित और सुव्यवस्थित रहने के लिए तथा इसके द्वारा धर्म अर्थ काम का उपभोग अपने सहचर के साथ कर अंत में मोक्ष प्राप्ति का मार्ग भी इसी के माध्यम से गुजरकर ही माना गया है.क्योंकि जबतक व्यक्ति के तन मन और धन की बुभुक्षा शांत नही हो जाती निष्काम नही हो पाता और न ही धर्म कर्म में प्रवृत्त हो संसारिकता से विरत रह भगवत भक्ति में रत कर पाता है स्वयं को..

जबतक समाज सुगठित नही हुआ था,नियम निर्धारित न हुए थे,जर,जमीन,जोरू ही हिंसा द्वेष और मार काट के कारण हुआ करते थे.क्योंकि मन तो तब भी था,प्रेम तब भी हुआ करते थे और व्यक्ति इन तीनो से तब भी बंधा होता था मनुष्य . हाँ,व्यवस्था नही थी,जो कोई सीमा निर्धारित करती और लोगों को कर्तब्य बंधन में बांधती ,सो सबकुछ अस्त व्यस्त अराजक स्थिति में था ..

कालांतर में कई व्यवस्थाएं आयीं.कुछ सही भी कुछ ग़लत भी.पर एक बात जो शाश्वत थी और रहेगी कि विवाह जीवन और समाज के लिए सभ्यता के साथ ही आवश्यक थे और सभ्यता के अंत तक इसकी अपरिहार्यता निर्विवाद रहेगी,भले स्वरुप कितना भी बदले.

गृहस्थ आश्रम में अपने सहचर या सहचरी के साथ तन मन धन और धर्म इन चारों के उपभोग के साथ साथ पति पत्नी के लिए कुछ अधिकारों और कर्तब्यों की भी अवधारणा की गई है.परन्तु आज जैसे जैसे व्यक्ति(स्त्री पुरूष दोनों) वैयक्तिकता की दौड़ और होड़ में फंसे अपने अहम् को सर्वोपरि रख कर्तब्य से अधिक अपने अधिकारों के प्रति सजग रहने लगे हैं,प्रेम को भी लेन देन की तराजू में तौलने लगे हैं और तन मन धन और धर्म अब एक साथ नही, व्यक्तिगत रूप में व्यक्तिगत इच्छा के अनुरूप इसे जीवन में स्थान देने और मानने में लगें हैं तो विवाह रूपी इस संस्था पर से लोगों का विशवास टूटना दरकना लाजिमी है.

पहले पुरूष के लिए...............

आज की काफी हद तक स्वेक्षचारी जीवन शैली ने पुरूष के लिए संभावनाओं के अपरिमित द्वार खोल दिए हैं.सब नही, पर बहुत से युवा युवावस्था की दहलीज पर कदम रखते तक में तन मन के सुख का एक गृहस्थ की भांति उपभोग कर चुके होते हैं.धन कमाना उनका परम ध्येय होता है और धर्म की चिंता करना समय व्यर्थ करना लगता है.अपने हर आज को बखूबी कैसे एन्जॉय करना है इसके हर नुस्खे आजमाने तो तत्पर रहते हैं और सुगमता से इन्हे सब उपलब्ध भी रहता है.महानगरों में तो इसकी असीम संभावनाएं हैं,जो सरलता से जब चाहे उपलब्ध है..बल्कि ऐसी सेवाएं उपलब्ध कराने वाली एजेंसियां भी उपलब्ध हैं जो ''मित्र बनाओ'' से लेकर अकेलेपन को दूर कराने और हर प्रकार की सुविधाएँ उपलब्ध कराने के लिए २४ घंटे की सेवा खुलेआम इश्तेहार देकर प्रदान करते हैं.जब विवाह को तन के सुख के साथ बांधकर माना जाने लगे और जिंदगी की हर सुविधा और सुख टू मिनट मैगी या रेडी टू ईट स्टाइल में मिल रहा हो तो कौन फ़िर विवाह के बंधन में बाँध कर्तब्यों की बेडी में जकड़ना चाहेगा ख़ुद को. कर्तब्य निष्पादन में भी सुख है,कोई आपका नितांत अपना हर सुख दुःख में बिना किसी सेवा शुल्क के आपके लिए हर पल उपलब्ध है,जिसके साथ कर्तब्य निभाने में किसी को सुखी करने,खुशी देने में भी सुख है,और यह बोझ बंधन कतई नही है,जो पुरूष इसमे आस्था रखते हैं,वे तो सहज विवाह को मान्यता और सम्मान दे देते हैं पर इस से विमुख पुरूष जब प्रौढावस्था में होश में आता है और इसे मानने को प्रस्तुत होता है तबतक बहुत देर हो चुकी होती है और ये अपना बहुत कुछ खो चुके होते हैं.लाख पश्चिम का अनुकरण कर लें युवावस्था में, पर उम्र ढलने के बाद एक न एक दिन मानना ही पड़ता है कि हमारी भारतीय संस्कृति में जो भी प्रावधान हैं,अंततः सच्चा सुख उसी रास्ते चल मिल सकता है.

अब स्त्रियों की बात.........

कमोबेश जो मानसिकता पुरुषों की है पुरुषों की बराबरी में उतरी आज की तथाकथित माडर्न नारियां भी उसी बीमारी में स्वयं को स्वेक्षा से जकडे लिए जा रही हैं.आर्थिक आत्मनिर्भरता को स्त्रियों ने पति के विकल्प के रूप में मानना आरम्भ कर दिया है और घर गृहस्थी के कर्तब्य निष्पादन को मानसिक गुलामी मान, धन को ही पति परिवार सबका विकल्प मानना आरम्भ कर दिया है..धनाढ्य महिलाओं के लिए भी वो सारी सुविधाएँ उपलब्ध हैं जो एक पुरूष को तथाकथित सुख के लिए प्राप्य होते हैं.हालाँकि यह स्थिति पुरुषों में जितनी मात्रा में है उतनी स्त्रियों में नही आ पाई है.पर जब राह पर चल निकली हों तो चिंताजनक तो अवश्य ही है.

स्वेक्षाचारिता, वैयक्तिकता,भौतिकवादिता और कुछ हद तक पाश्चात्य संस्कृति के अन्धानुकरण ने आज के युवाओं चाहे स्त्री हो या पुरूष ,के मन में विवाह के प्रति वितृष्णा भरना शुरू कर दिया है.अब विवाह को बोझ और बंधन मानने की प्रवृत्ति बहुत तेजी से बढ़ने लगी है.वर्तमान के भौतिक युग में आज का युवा भौतिक वस्तुओं की खरीद फरोख्त की तरह विवाह को भी नफा नुक्सान की तराजू पर तौलकर देखने लगा है और सिर्फ़ आज में जीने वाला युवा पहले मोल तोल कर ठोंक बजा कर देख लेना चाहता है कि किस चीज के लिए क्या कीमत चुका रहा है.किसी समय विवाह नाम की इस संस्था को जो सामाजिक मान्यता तथा साम्मानित स्थान समाज को सुव्यवस्थित सुगठित रखने के लिए समाज द्वारा दिया गया था,अब वह बहुत तेजी से तिरस्कृत होने लगा है.

समस्या के मूल में जाएँ तो सबसे बड़ा कारण वैयक्तिकता ही है.व्यक्ति इतना अधिक आत्मकेंद्रित होता जा रहा है संवेदनाएं इस तरह सुप्त होती जा रही हैं कि अपने से बहार निकल और आगे बढ़ व्यवहार में दूसरों के दुःख सुख के प्रति बहुत अधिक उदासीन होने लगा है.कितने लोग(स्त्री या पुरूष)हैं जो देश दुनिया समाज के दुःख सुख को अपने व्यक्तिगत सुख दुःख से अधिक महत्व दे पाते हैं?स्वयं को छोड़ हर व्यक्ति दूसरा हो गया है,चाहे वह पति पत्नी बच्चे माता पिता ही क्यों न हों.और यही वैयक्तिकता जब हमें दूसरों के प्रति निर्मम और असंवेदनशील बनाती हैं तब किसी भी संस्था,चाहे वह विवाह का ही क्यों न हो मूल्यहीन होना,अपनी महत्ता खोना स्वाभाविक ही है. आज जो लोग विवाह से बचना भागना चाहते हैं,उसके मूल में कहीं न कहीं वे ही कष्ट फोकस में होते हैं जो इस संस्था में बंधने के बाद स्वार्थवश और अहम् के टकराव की अवस्था में लोगों को भोगना पड़ता है.दो व्यक्तियों में एक यदि कर्तब्य पथ पर चलने वाला हो भी पर दूसरा यदि अधिकार को पकड़े दूसरे को प्रताडित करता रहे, तो भी सम्बन्ध का सुचारू रूप से चल पाना कठिन हो जाता है.अब जब तक स्त्रियाँ आर्थिक परतंत्रता की बेडियों में जकड़ी हुई थीं,तबतक तो रोते पीटते कष्ट सहते जीवन निकाल ही लेती थीं और विवाह नाम की इस संस्था की लाज बच जाती थी.पर जैसे जैसे स्त्रियाँ इस से निकलती जा रही हैं,विवाह के प्रति इस तरह अनास्था तथा विवाह का टूटना तेजी से बढ़ता जा रहा है.


सम्बन्ध विच्छेद या विवाह से वितृष्णा दोनों ही स्थिति,चिंताजनक है तथा किसी भी स्थिति में न तो यह कष्टों से बचने का उपाय है या समस्या का समाधान ही है.बात बस इतनी है कि यदि हम अपने इस ''मैं'' से ऊपर उठ जैसे ही ''हम'' में विशवास करने लगेंगे दांपत्य की गरिमा और मधुरता को भी पा लेंगे और तब ही जान पाएंगे कि सच्चा सुख कर्तब्य से बचने में नही बल्कि उसके निष्पादन में ही है.विवाह केवल आर्थिक सुरक्षा और संबल के ही लिए नही बल्कि मानसिक सुख और संबल के लिए भी आवश्यक है.दम्पति जब परस्पर एक दूसरे के लिए प्रेम,निष्ठा,सम्मान और समर्पण की भावना रखे ,अपने कर्तब्य तथा सहगामी के अधिकारों के प्रति सजग रहे तो सिर्फ़ अपने लिए ही स्वर्गिक सुख नही अर्जित करेगा बल्कि अपनी आगामी पीढी के सामने भी सुसंस्कारों का आदर्श प्रस्तुत करेगा और अगली पीढी अपनी पिछली पीढी के सुख को देख विवाह बंधन को दुःख का बंधन नही बल्कि सुख का द्वार समझ पवित्र बंधन में बंधने को न केवल तत्पर होंगे,बल्कि पूरे मन से इसका सम्मान भी करेंगे.............

1.8.08

जो स्वप्न सिखा गया... !

अनंत काल के अनथक साधना और अन्वेशनोपरांत प्रबुद्ध ऋषियों मनीषियों से लेकर साधारण जनों तक ने सुखमय जीवन के जो सूत्र प्रतिपादित किए हैं,लाख जानने सहमत होने के बाद भी सर्वदा या विपत्ति काल में पूर्णतः वे कहाँ याद रह पाते हैं। मन बुद्धि कष्ट के क्षणों में भी स्थिर रहे,विचलित न हो यह नही हो पाता।जन्म लिया है तो एक न एक दिन मृत्यु को प्राप्त होना ही होगा और जाते समय कुछ भी साथ न जाएगा,सब जानते हैं.अपनी आंखों के सामने असमय मृत्यु को प्राप्त होते देखते हैं और जीवन की क्षणभंगुरता से परिचित भी होते हैं,पर सच माने तो व्यवहार में हम अपने लिए मृत्यु को मान,इस सत्य को आत्मसात और निरंतर स्मरण में नही रख पाते.मृत शरीर के साथ श्मशान तक भी जाते हैं तो भी यह नही मान पाते कि क्या पाता किस अगले क्षण में मेरी बारी हो.

वर्ष १९९७ की बात है.एक साधारण सी परेशानी हुई जिसे महीने भर तक बीमारी नही माना.परेशानी थी दाहिने पैर में कमर और घुटने के बीच दर्द रहने लगा,जो कि क्रमशः तीव्र से तीव्रतर ही होता गया.कभी सोचती अधिक चलने के कारण हुआ होगा कभी कमजोरी के कारण तो कभी कुछ.बस एक ऐंठन भर से ज्यादा नही माना.पर जब स्थिति में दवाइयाँ लेने के बाद भी कोई बदलाव नही आया,बल्कि दर्द के मारे रातों की नीद चैन समाप्त हो गया तथा धीरे धीरे जमीन पर पूरी तरह पैर रखना भी दूभर होने लगा तो फ़िर अस्पतालों का चक्कर शुरू हुआ जो अगले दस महीने तक चला.इन दस महीनो में एलोपैथ,होमियोपैथ,नेचुरोपैथ,झाड़ फूंक से लेकर कोई भी चिकित्सकीय पद्धति ऐसी न बची जिसे आजमाया न हो या जहाँ की ख़ाक न छानी हो. बिस्तर ही नही पकड़ाया इस पैर के दर्द ने बल्कि और भी कई सारे ऐसे ऐसे रोगों ने घेर लिया कि एक की ख़बर लो तबतक एक और सामने आकर खड़ा हो जाता था. शरीर केवल हड्डियों का ढांचा भर रह गया था और अपने हाथों एक गिलास पानी लेकर पीना भी दूभर हो गया था.ग्यारहवें महीने में जब रोग का पता चला तबतक वह काफ़ी एडवांस स्टेज में पहुँच चुका था.खैर इलाज़ आरम्भ हुआ.पर किस्मत का खेल था कि दवा की जो कोई भी कोम्बिनेसन दी जाती वह रिएक्सन कर जाता और चिकित्सकों को वह दवा बंद करनी पड़ती.घर परिवार वालों से लेकर चिकित्सकों तक को यह भरोसा न रहा था कि मैं बच पाउंगी.

उन्ही दिनों जब अस्पताल में पड़ी थी एक दिन एक स्वप्न देखा. देखा कि मैं मर चुकी हूँ और मेरे आस पास सभी रिश्ते नाते,संगी साथी मुझे घेरे रोये जा रहे हैं.मुझे लग रहा है कि इन सब लोगों को यह ग़लत फहमी कैसे हो गई कि मैं मर चुकी हूँ,जबकि मैं तो जीवित हूँ.मैं कभी अपने पति को तो कभी अपनी माँ को जा जा कर झकझोर कर कह रही हूँ कि मैं जीवित हूँ.लेकिन यह मैं भी देख रही हूँ कि मेरा शरीर जमीन पर रखा हुआ है और मैं शरीर से बाहर सबलोगों के पास अपने एक और शरीर के साथ जाकर बात कर रही हूँ जिसे कोई देख नही पा रहा.अपना पूरा जोर लगा मैं चिल्लाकर सबसे अपनी बात कह रही हूँ पर कोई उसे नही सुन पा रहा है और एक एक कर मेरे दाह संस्कार पूर्व के सारे रस्म निभाए जा रहे हैं.फ़िर मेरे शरीर को एक गाड़ी में लेकर बहुत सारे लोगों के साथ मेरे पति श्मशान की ओर लिए जा रहे हैं.मैं बिलख रही हूँ कि मैं मरी नही हूँ,मुझे अपने से अलग न करो पर किसी के कानो तक मेरी आवाज़ नही पहुँचती.जब श्मशान पहुँचती हूँ तो वहां पहले से ही और भी बहुत सारे शव रखे हुए हैं और मुझे देख सब हंस रहे हैं और खुशियाँ मना रहे हैं.इतने सारे शव बन चुके अजनबियों को देख और अपने लिए चिता सजाते देख भय और दुःख से विह्वल हो विलाप करने लगती हूँ और साथ ही बार बार जाकर पति को झकझोरती हूँ कि बाकी भले सारे मुझे मृत मान लें और मेरी आवाज़ न सुन पायें पर आप कैसे नही मुझे सुन देख महसूस कर पा रहे? पर मेरे रुदन यूँ ही अनंत में लीन हो जा रहे हैं,बिना किसी के कानो को छुए,किसी ह्रदय को प्रभावित किए.....सहसा शवगृह का स्वामी आकर उद्घोषणा करता है कि आज लकड़ी तथा बिजली न होने के कारण शवों का दाह संस्कार नही हो पायेगा,इन्हे कल तक के लिए वही छोड़ दिया जाए.सारी व्यवस्था कल तक दुरुस्त हो जायेगी और कल दाह संस्कार किया जाएगा.मेरे माता पिता,बच्चे,पति सब मुझे उन अनजान शवों के बीच जो कि मुझे नोच कर खा जाने के लिए बस मेरे परिवार जनों के वहां से हटने की प्रतीक्षा कर रहे है,खुश हो तालियाँ बजा रहे हैं,छोड़ कर घर की ओर चले जा रहे हैं और मैं भय से थरथराती,सबको पुकारती विलाप करती वहीँ पड़ी हूँ.............. और फ़िर मेरी नींद टूट गई.

स्वप्न का वह सत्य मुझे क्या अनुभूति दे गया और क्या क्या सिखा गया उसे शब्द दे पाना मेरे लिए असंभव है.मृत्यु के बाद के जीवन की बताने वाला या निश्चित रूप से इसके बारे में कुछ कह पाने वाला कोई नही है.पर यदि धर्म पुराणों की माने तो मृत्यु के बाद शरीर भले प्राण वायु से वंचित हो जाता है पर चेतना तुंरत नही मरती.जिसे हम ''मैं'' कहते हैं,वह यही चेतना तो है.संभवतः जो कुछ मैंने स्वप्न में देखा वह एक सत्य ही हो.किसी अपने के मृत्यु को बुद्धि द्वारा सत्य मानते हुए भी जब हम घटित और सत्य को सत्य मानने में तत्क्षण प्रस्तुत नही होते तो यह 'मैं' जिस शरीर में रहता है अनायास शरीर के नष्ट होने पर मृत्यु को सहजता से कैसे स्वीकार सकता है.

इस स्वप्न ने ज्ञानी मनीषियों द्वारा कहे गए वचनों को सद्यस्मृत रखने को पूर्णतः तैयार कर दिया कि.....
- मृत्यु जब चिरंतन सत्य है तो प्रतिपल इसके लिए मानसिक रूप से तैयार रखना है स्वयं को.
- जितना कुछ लेकर आए थे इस संसार में उतना ही कुछ साथ जाएगा और साथ केवल किए हुए कर्म ही जायेंगे.सो यदि संचित करना हो तो सत्कर्म कर संतोष अर्जित कर झोली भर लो.

- ईश्वर प्रदत्त इस शरीर के साथ साथ प्रतिक्षण का सदुपयोग और सम्मान करो.
- सुख या दुःख जो मिला उसे हर्ष से स्वीकार करो और धैर्य को पकड़े रहने को सतत प्रयत्नशील रहो.

प्रभु से प्रार्थना है कि प्रयाण काल में रोग ,शोक, मोह , भय, तृष्णा, असंतोष और पश्चात्ताप न सताए।बस मन में संतोष के साथ प्रभु का स्मरण हो और प्रसन्न मन से उसे कह पाऊं.....'' तुमने जो जीवन और अवसर दिया,उसमे इस छोटी बुद्धि और सामर्थ्य के सहारे जो कुछ कर सकी किया,अब यह शरीर माँ धरित्री को समर्पित है........... "