17.7.09

बेटी - लक्ष्मीस्वरूपा....

पिताजी की चिट्ठी आई थी,माँ की तबियत कुछ खराब है,तुमसे मिलने की जिद ठाने हुए है,हो सके तो दो दिन के लिए आकर मिल जाओ...चार दिन बाद से थर्ड ईयर के पेपर शुरू होने वाले थे...मैं ऊहापोह में था कि क्या करूँ...लेकिन माँ का मोह सब पर भारी पड़ा और मैं स्टेशन की तरफ निकल पड़ा...सोचा ,जल्दी से जाकर पहली ही ट्रेन पकड़ लूँ और मिलकर कल रात तक वापस आ जाऊं...स्टेशन की तरफ तेज कदमो से बढा चला जा रहा था, दस फर्लांग की ही दूरी बची होगी कि ट्रेन खुल गयी...बदहवास सा मैं दौड़ पड़ा...पर भीड़ में घिरा मैं आगे बढ़ने में असमर्थ रहा और मेरे सामने से सीटी बजाती हुई ट्रेन निकल गयी....


दिमाग सीटियों के शोर से भर गया.....बार बार लगातार किसी न किसी प्लेटफार्म पर सीटियों का जैसे सिलसिला सा चल निकला....उस कनफोडू शोर से बचकर भागने के लिए मैं तेजी से स्टेशन से बाहर की ओर भागा... कि अचानक किसी के सामन से मेरा पैर टकराया और गिरते हुए मैं सीढियों से नीचे चला गया ........


तभी अचानक आँख खुली....अपने चारों तरफ आँखें फाड़ फाड़ कर देखने लगा...सारे दृश्य गायब हो चुके थे.....मैं स्टेशन पर नहीं अपने कमरे में था और अपने बिस्तर से नीचे गिरा हुआ था....लेकिन सीटियों का शोर अब भी वैसा ही था...तभी तंद्रा कुछ भंग हुई और आभास हुआ कि यह शोर सीटियों का नहीं बल्कि लगातार बजते कॉल बेल का था ... दीवार पर लटके घडी पर नजर डाली तो देखा रात के सवा दो बज रहे हैं....


आशंकित सा आगे बढ़ बत्ती जलाते हुए मैंने दरवाजा खोला....एक औरत और मर्द आकर पैरों से लिपट गए....हतप्रभ सा होते हुए मैं पीछे हटने लगा...बड़ी मुश्किल से किसी तरह मैंने उनसे अपने पैर छुडाये....वे खड़े हुए तो पहचाना, गली के अगले छोर पर रहने वाले अम्मा और झुमरू हैं....दोनों घिघिया रहे थे....डाक्टर बाबू रधिया को बचा लो,नहीं तो वह मर जायेगी.


पता चला दो दिनों से उसे जचगी का दर्द उठा हुआ था,पर दाई जचगी करवा नहीं पा रही थी और अब हारकर उसने राधा को अंग्रेजी डाक्टर को दिखने की बात कही थी....मैंने उन्हें बहुत समझाने की कोशिश की कि मैं इसमें कुछ नहीं कर पाउँगा ,वे लोग राधा को लेकर तुंरत अस्पताल के लिए निकल जाएँ...पर उन्होंने ऐसी जिद ठान रखी थी कि आखिर झुककर मुझे वहां जाना ही पड़ा....


जाकर देखा तो सचमुच राधा की स्थिति बहुत खराब थी...बच्चे की धड़कन सुनने की कोशिश की तो वह भी बिलकुल क्षीण हो रही थी....मैंने उनसे अपनी लाचारी बताई और कहा कि अब ज़ल्द से जल्द अस्पताल ले जाकर ओपरेशन करवाए बगैर उन्हें बचाने का कोई उपाय नहीं...


उन लोगों की स्थिति देख मेरा दिल पसीज गया और फिर मैंने अपने एक सीनियर के बड़े भाई के नर्सिंग होम में बात कर किसी तरह केस लेने को उन्हें मनवाया...मेरी निगरानी में दो ओटो रिक्शाओं में बैठकर वह काफिला मेरे संग नर्सिंग होम पहुंचा....


प्रारंभिक जांच के बाद कहा गया की अभी दस मिनट के अन्दर अगर ओपरेशन न किया गया तो जच्चा बच्चा दोनों में से किसी का भी बचना नामुमकिन था...और ओप्रेशन के लिए तुंरत ही पच्चीस हजार रुपये जमा करना था.....


मैं पेशोपेश में पड़ गया....मेरे पास पचीस हजार क्या ढाई सौ रुपये भी न थे और इतनी बड़ी रकम इनके पास होने की कोई सम्भावना मुझे नहीं दिख रही थी...मेरे माथे की शिकन को देख अम्मा ने मानो सब ताड़ लिया....कहने लगी, पैसे की कोई चिंता नहीं बाबू, मैं तीस हज़ार रुपये साथ लेकर आई हूँ ...और जरूरत पड़ी तो भी दिक्कत नहीं सब इंतजाम हो जायेगा,बस आप माई बाप लोग मेरी बच्ची को बचा लीजिये......


सीनियर डाक्टर से रिक्वेस्ट कर मैं भी आपरेशन थियेटर में गया....दो दिनों तक दाई ने जो युक्तियाँ लगायी थी,इससे केस बड़ा ही कॉम्प्लीकेटेड हो गया था...बच्ची के गले में नाड़ इस कदर फंसी हुई थी कि वह बच्ची का दम घोंट रही थी....लग रहा था जैसे गर्भ में ही उसे फांसी की सजा मिल गयी थी..बड़ी मुश्किल से बेजान पड़ी उस बच्ची में जान लायी गयी.....


सबकुछ कुशल मंगल देख मैंने रहत की साँस ली.....डॉक्टर जबतक स्टिचिंग तथा सफाई में लगे हुए थे,मैंने सोचा बाहर जाकर इनके अपनों को यह खबर दे आऊँ....जैसे ही बाहर निकला सबने आकर मुझे घेर लिया...मैं थोडी दुविधा में था,कि बेचारों का इतना पैसा लग भी गया और तीसरे संतान के रूप में फिर से लडकी होने की खबर इन्हें मायूसी ही देगी.......मैंने धीमे से कहा.....चिंता की कोई बात नहीं,सब कुशल मंगल है,राधा को लडकी हुई है.......


मैं अचंभित रह गया.......सब लोग खुशी से झूम उठे थे,एक दुसरे के गले लग रहे थे....अम्मा की आँखों में खुशी के आँसू झड़ी बने हुए थे.....खुशी से कांपती हाथों से मेरा हाथ पकड़ बोली.. ...बचवा तुम्हारे मुंह में घी शक्कर.......हमारे घर तो लछमी आई हैं....तुम हमारे लिए भगवान् हो....सदा सुखी रहो बेटा...खूब बड़े डाक्टर बनो....


सब निपटते निपटते सुबह हो गयी थी....घर पहुंचकर हाथ मुंह धो, मैं कॉलेज होस्टल की ओर निकल पड़ा...वहां अपने सहपाठी अशोक के साथ अगले पेपर की तैयारी और विषय चर्चा करते करते समय का ध्यान ही न रहा.....जब पेट में भूख के मडोड़े पड़ने लगे तो समय का ध्यान आया...रात के दस बज चुके थे...वहीँ पर खाना खा मैं करीब साढ़े ग्यारह बजे अपने घर पहुंचा....


दरवाजे के बाहर अम्मा बैठी थी..पढाई के चक्कर में यह बात दिमाग से निकल ही चुकी थी...मुझे लगा कहीं कुछ और असुविधा तो नहीं हो गयी,जो अम्मा इतनी रात गए दरवाजे के बाहर बैठी है...

मैंने चिंतित होकर पूछा ...क्या अम्मा फिर से कोई परेशानी हो गयी क्या...उसे हमेशा इसी नाम से पुकारा जाते सुना था, सो यही संबोधन दिया.


अम्मा बोली....अरे नहीं बचवा ,कोई परेशानी नहीं...तुम तनिक किवाडी तो खोलो, फिर बताती हूँ...थोडा तो मैं झिझका ,पर फिर भी उस आवाज में जो आग्रह, अपनापन और हर्ष था ,मैं कुछ कह न सका...


दरवाजा खोलते ही वह अन्दर आई और उसने मेरे हाथ पकड़ एक घडी मेरे हाथों में पहना दी और मिठाई का एक डब्बा मेरे मेज पर रख दिया.....मैं अचकचा गया....यह क्या है अम्मा?????


अम्मा बोली, बचवा हम गरीब का यह भेंट तो तुम्हे स्वीकारना ही पड़ेगा,नहीं तो हमें किसी कल भी चैन नहीं पड़ेगा...अगर तुम न होते तो हमारी रधिया निश्चित ही मर जाती और उसके साथ वह लछमी भी मर जाती....अब हम लोगों को कोई डाक्टर बैद अपने यहाँ घुसने थोड़े ही न देता....तो बोलो तुम भगवान् हुए की नहीं....


मैं संकोच में गडा जा रहा था....मैंने कहा...अरे नहीं अम्मा डाक्टर के लिए सब मरीज मरीज ही होता है....उसे भेद करना नहीं सिखाया जाता....यह तो हम सब का फर्ज है,इसके लिए इतना महंगा तोहफा मैं नहीं ले सकता....तुम लोग ऐसे ही जिस नर्क में रह रहे हो,मैं चाहकर भी कुछ नहीं कर पा रहा हूँ...इसपर यह तो मैं नहीं ही ले सकता...मुझे तो खेद इस बात का है कि मैं आर्थिक रूप से तुमलोगों की कोई मदद न कर पाया.....


हम दोनों ही भावुक हो गए थे...हालाँकि इस घटना से पहले हम दोनों में कभी कोई बात नहीं हुई थी,जब कभी कोई बीमार पड़ता तो झुमरू मेरे पास आकर दवाई लिखवा जाता था,इसके आगे हमारा कोई परिचय न था, पर नितांत अपरिचित होते हुए भी जैसे हम एक दूसरे की भावनाओ और स्थिति से पूर्णतः भिज्ञ थे...वे लोग जानते थे कि किस मजबूरी में मैं इस गंदी बस्ती में रह रहा हूँ और मैं भी जनता था कि वे लोग कैसी जिन्दगी जी रहे हैं....


मैंने अपने जीवन का लक्ष्य ही यह बना लिया था कि पढाई ख़तम कर जब मैं डॉक्टर बन जाऊंगा तो इन जैसे उपेक्षित लोगों की सेवा को सर्वोच्च प्राथमिकता दूंगा.... पता नहीं कैसे बिना बताये ही मेरी यह भावना उन तक पहुँच गयी थी....मेरे लिए उनके मन में क्या था ,यह मैं उनकी आँखों में सहज ही दूर से आते जाते पढ़ पाता था...


उस क्षण भावुकता में मेरी बुद्धि ऐसे सठिया गयी थी कि बिना कुछ सोचे समझे मैं पूछ बैठा.....

लेकिन अम्मा, तुंरत के तुंरत इतने रुपये का इंतजाम तुमने कैसे कर लिया,मैं तो घबरा ही गया था कि पैसों का इंतजाम कैसे होगा.........


अम्मा ने कहा...बेटा जब ऊपर वाला जीवन देता है तो उसे चलाने के रस्ते भी दे देता है....अब देखो न,एक रधिया ही तो है जिसे भगवान् ने इतनी खूबसूरती दी है कि दो बच्चे बियाने के बाद भी सबसे ज्यादा कमाई वही करती है..एक तरफ सातों लड़कियों की कमाई है और दुसरे तरफ अकेले रधिया की कमाई है....उसने बच्चे भी ऐसे खूबसूरत दिए हैं ,जिनसे हमारा घराना रौशन है.


हमारे घर की कमाऊ पूत तो वही है....उसे ऐसे कैसे मर जाने देते...और ये पैसे भी तो उसी के भाग के हैं,जो उसके इलाज में लगे....चार दिन पहले ही उसकी बड़ी लडकी निशा की नथ उतराई में पच्चीस हजार रुपये मिले थे,जो इस उल्टे समय में काम आ गए....


मेरे दिमाग की नसें फटी जा रही थीं, मेरी आँखों के सामने उन बच्चियों का चेहरा घूम गया,जिन्हें आते जाते गली में खेलते हुए देखा करता था....मेरे मुंह से अनायास ही निकल गया.........लेकिन अम्मा वो तो अभी इतनी छोटी सी मासूम बच्ची है....


अम्मा बोली....बच्ची काहे की बाबूजी,बारह बसंत देख लिए हैं उसने....

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9.7.09

अमरत्व की लालसा ------>>>>

जीवन में सबकुछ सामान्य हो, फिर भी संक्षिप्त जीवन की अभिलाषा रखने वाले मनुष्य संसार में दुर्लभ ही रहे हैं. इतिहास साक्षी है ,अमरत्व पाने के लिए व्यक्ति ने न जाने कितने संधान किये ,इस हेतु क्या क्या न किया....... मृत्यु भयप्रद तथा अमरत्व की अभिलाषा चिरंतन रही है...विरले ही इसके अपवाद हुआ करते हैं..


आधुनिक विज्ञान भी इस ओर अपना पूर्ण सामर्थ्य लगाये हुए है तथा पूर्णतः आशावान है कि इस प्रयास में वह अवश्य ही सफलीभूत होगा.... हमारे भारतीय दंड विधान में तो नहीं परन्तु विश्व के कई संविधानों में आजीवन कारावास के प्रावधान में अक्षम्य,घोर निंदनीय अपराध में कारा वास की अवधि दो सौ ,पांच सौ या इससे भी अधिक वर्षों की होती है.क्योंकि उनका विश्वास है कि विज्ञान जब जीवन काल को वृहत्तर करने या अमरत्व के साधन प्राप्त कर लेगा तो २० ,२५,५० वर्षों को ही सम्पूर्ण जीवन काल मानना अर्थहीन हो जायेगा और ऐसे में ऐसे अपराधियों को जिनका स्वछन्द समाज में विचरना घातक,समाज के लिए अहितकर है,उन के आजीवन कारावास का प्रावधान निरुद्देश्य हो जायेगा...


परन्तु विचारणीय यह है कि क्या हमें अमरत्व चाहिए ? और यदि चाहिए भी तो क्या हम इस अमरत्व का सदुपयोग कर पाएंगे ? कहते हैं अश्वत्थामा को द्रोणाचार्य ने अपने तपोबल से अमरत्व का वरदान दिया था.दुर्योधन के प्रत्येक कुकृत्यों का सहभागी होने के साथ साथ पांडवों के संतानों का वध करने तक भगवान् कृष्ण ने उसे जीवनदान दिए रखा परन्तु जब उसने उत्तरा के गर्भ पर आघात किया तब कृष्ण ने उसके शरीर को नष्ट कर दिया परन्तु उसके मन,आत्मा तथा चेतना के अमरत्व को यथावत रहने दिया...माना जाता है की आज भी अश्वत्थामा की विह्वल आत्मा भटक रही है और युग युगांतर पर्यंत भटकती रहेगी. सहज ही अनुमानित किया जा सकता है कि यदि यह सत्य है तो अश्वत्थामा की क्या दशा होगी....


किंवदंती है की समुद्र मंथन काल में समुद्र से अमृत घट प्राप्य हुआ था.जिस मंथन में ब्रह्माण्ड की समस्त शक्तियां (देवता तथा असुर) लगी थीं,तिसपर भी अमृत की उतनी ही मात्रा प्राप्त हुई थी कि यह उभय समूहों में वितरित नहीं हो सकती थी. तो आज भी यदि संसार की साधनसम्पन्न समस्त वैज्ञानिक शक्तियां संयुक्त प्रयास कर अमरत्व के साधान को पा भी लेती है तो निश्चित ही यह समस्त संसार के समस्तआम जनों के लिए तो सर्वसुलभ न ही हो पायेगी .यह दुर्लभ साधन निसंदेह इतनी मूल्यवान होगी की इसे प्राप्त कर पाना सहज न होगा .मान लें की हम में से कुछ लोगों को अमरत्व का वह दुर्लभ साधन मिल भी जाता है,तो हम क्या करेंगे ?


हम जिस जीवन से आज बंधे हुए हैं, उसके मोह के निमित्त क्या हैं ? हमारा इस जीवन से मोह का कारण साधारणतया शरीर, धन संपदा,पद प्रतिष्ठा,परिवार संबन्धी इत्यादि ही तो हुआ करते हैं.ऐसे में हममे से कुछ को यदि अमरत्व का साधन मिल भी जाय तो क्या हम उसे स्वीकार करेंगे ?


सुख का कारण धन संपदा या कोई स्थान विशेष नहीं हुआ करते,बल्कि स्थान विशेष में अपने अपनों से जुड़े सुखद क्षणों की स्मृतियाँ हुआ करती हैं. धन सुखद तब लगता है जब उसका उपभोग हम अपने अपनों के साथ मिलकर करते हैं....मान लेते हैं कि यह शरीर, धन वैभव तथा स्थान अपने पास अक्षुण रहे परन्तु जिनके साथ हमने इन सब के सुख का उपभोग किया उनका साथ ही न रहे...तो भी क्या हम अमरत्व को वरदान मान पाएंगे.....उन अपनों के बिना जिनका होना ही हमें पूर्णता प्रदान करता है ,हमारे जीजिविषा को पोषित करता है, जीवन सुख का उपभोग कर पाएंगे?


जीवन में किसी स्थान का महत्त्व स्थान विशेष के कारण नहीं बल्कि स्थान विशेष पर कालखंड में घटित घटना विशेष के कारण होती है.किसी स्थान से यदि दुखद स्मृतियाँ जुड़ीं हों तो अपने प्रिय के संग वहां जाकर उस स्थान विशेष के दुखद अनुभूतियों को धूमिल करने का प्रयास अवश्य करना चाहिए ,परन्तु किसी स्थान विशेष से यदि मधुरतम, सुखद स्मृतियाँ बंधी हों तो वहां दुबारा कभी नहीं जाना चाहिए,नहीं तो कालखंड विशेष में सुरक्षित सुखद स्मृतियों को आघात पहुँचता है,क्योंकि तबतक समय और परिस्थितियां पूर्ववत नहीं रहतीं.......यह कहीं पढ़ा था और अनुभव के धरातल पर इसे पूर्ण सत्य पाया.


ऐसे में इस नश्वर संसार में अधिक रहकर क्या करना जहाँ प्रतिपल सबकुछ छीजता ही जा रहा है,चाहे वह काया हो या अपने से जुड़ा कुछ भी .मनुष्य अपनों के बीच अपनों के कारण ही जीता और सुखी रहता है,ऐसे अमरत्व का क्या करना जो अकेले भोगना हो...संवेदनशील मनुष्य संभवतः यही चाहेगा.और यदि कोई कठोर ह्रदय व्यक्ति ऐसा जीवन पा भी ले तो क्या वह सचमुच सुखोपभोग कर पायेगा या दुनिया को कुछ दे पायेगा......ययाति ने तो सुख की लालसा में अपने पुत्रों के भाग के जीवन का भी उपभोग किया था,पर क्या वह सचमुच सुखी हो पाया था...


जीवन को सुखी उसकी दीर्घता नहीं बल्कि उसके सकारात्मक सोच और कार्य ही बना पाते हैं,यह हमें सदैव स्मरण रखना होगा।


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