10.12.16

गीता

प्रचलन में कर्मकाण्ड को ही धर्म मानने कहने की परंपरा है,पर इससे बड़ा दिगभ्रमण और कुछ नहीं।
पूजा पाठ,जप तप,दान पुण्य,तीर्थयात्राएँ आदि आदि सात्विकता से जोड़ने वाले साधन अवश्य हैं,पर यही धर्म नहीं।

मन मस्तिष्क और व्यवहार में धारणीय वे सद्विचार व्यवहार और नियम, जो व्यक्ति परिवार समाज और प्रकृति सहित सम्पूर्ण संसार में सुख का संचार कर सके,वह धर्म है.. एक शब्द में इसी को "मानवता" कहते हैं. और इसी मानवता को,करणीय अकरणीय के भेद को सुपष्ट करती है "गीता"..
गीता "धर्मग्रन्थ" नहीं अपितु यह एक महान "कर्मग्रन्थ " है।अपने आत्मस्वरूप को पहचाने बिना मनुष्य न तो अपने धर्म को पहचान सकता है ,न अपने सामर्थ्य को और न ही सार्थकता से कर्म प्रतिपादित कर सकता है।  
दुर्भाग्य यह कि इसको हिंदुत्व से जोड़,सेकुलरिता के विरुद्ध ठहराते,इसके विरोध में उतरे छुद्र लोगों के लिए हम यह कामना भी नहीं कर सकते कि इस बात को समझ पाने का उनमें सामर्थ्य आये। क्योंकि इतिहास साक्षी है कि महाज्ञानी कृष्ण को अपने बीच सहज उपलब्ध पाते भी धर्महीन अहंकारी कौरवों ने कृष्ण को नहीं अपितु युद्ध हेतु कृष्ण की चतुरंगिणी सेना को ही चुना था.पर विवेकवान धर्ममर्मज्ञ सदाचारी पाण्डवों ने जीवन के लिए धर्म की उपयोगिता महत्ता जानते निहत्थे योगीराज कृष्ण को।

हमने कबीर को सराहा, रहीम को सराहा, नानक ईसा और मुहम्मद को भी सराहा। आज भी दरगाहों पर मत्था नवाने,सूफी संगीत पर आँसूं बहाते झूमने चल निकलते हैं हम,,,यह रामायण और गीता का ही बल और सम्बल है,जिसने हमारे हृदय को गुणग्राहकता दी,चैतन्यता और विराटता दी, हर अच्छी चीज को ग्रहण करने की सहज स्वाभाविक प्रवृत्ति दी।
 
कर्मग्रंथ गीता,मानवमात्र के लिए मोक्षदायक(सही गलत में भेद कर,सही को साध पाने की क्षमता ही मोक्ष है)है। यदि सृष्टि को अभी आगे बहुत लम्बे सुचारू चलना होगा तो,उसके भाग्य में गीता आएगी। सेकुलर भारत यदि इसे अस्वीकारता भी है,तो विश्व के अन्य भूभागों पर इसे स्थान और महत्त्व मिलेगा,इसमें मुझे कोई शंसय नहीं।

22.2.16

बेशर्म आन्दोलन



हताश निराश आक्रोशित स्वर में वो कराह से उठे,बोले - देखो न,आरक्षण आंदोलन के नाम पर निकले हैं ये और दुकान मॉल लूट रहे हैं।
तो भैये,,ये क्यों नहीं समझते कि तथाकथित यह "आरक्षण" भी तो "लूट" ही है।जाति के नाम पर अवसर की लूट।प्रतिभा ले कर लोग बैठे रहें और जाति लेकर आप उनका हक़ लूट ले जाओ।


अंग्रेज लाट जब अपने होनहार नौनिहालों को अपने राज का केयरटेकर बना अपने मुलुक को निकल रहे थे,,, चचाजान ने पूछा - मालिक मी लॉर्ड, पिलीज से वो सूत्र तो देते जाओ,जिससे हमारी ही पुश्तें इस कुर्सी की अधिकारिणी रहे अनंत काल तक जबतक कि भारत का भ भर भी बचा रहे।
तो मी लार्ड मुस्कियाए औ प्यार से गाल पर पुचकारते रंगीले चचा को कहिन - धू बुड़बक,देखे नहीं,अभिये न तुमको एग्जाम्पल देखाया है रे। धरम कार्ड खेलते एक शॉट में देश तोड़ दिया और तुमको तश्तरी में सजाके कुर्सी धरायी है,,तो तुम भी बस यही फार्मूला धरे रहो।
पंडीजी बोले- लेकिन माई बाप,अभिये न धरम पर भाग किये,फिरसे वही करेंगे तो फोड़ नहीं डालेगें हमको सब मिल के।
तो ऊ कहिन, फिन से- धू बुड़बक,,धरम कार्ड नहीं है तो क्या हुआ,जात कार्ड है न,,खेलो बिंदास खेलो।ऊप्पर उप्पर से कहो,हम दबे कुचलों को मुख्यधारा में लाना चाहते हैं,देश से जाति व्यवस्था को समूल मिटाना चाहते हैं,लोग साधु साधु कह उठेंगे।
और जाति के साथ रिजर्भेसन अटैच कर दो।ससुर,सताब्दियाँ बीत जाएँगी,चिंदी चिंदी टुकड़े टुकड़े में बँट जायेगी भीड़ और फिर ऐश से शासन करियो।


सवा सौ करोड़ का देश,जिसमें कोई जाति ऐसी नहीं जिसकी सदस्य संख्या लाख से कम हो...और आंदोलन के लिए चाहिए क्या,कुछ हजार जांबाज़.. जो रेल सड़क रोकने,गाड़ियाँ जलाने, दुकान मकान लूटने में एक्सपर्ट हों,,फिर हो गया आंदोलन।लीजिये,जाट आरक्षण,पटेल आरक्षण,अलाना आरक्षण,फलाना आरक्षण।


जिनकी राजनीतिक दुकान ही आरक्षण की रोटी सेंक चलती है,वे आपके साथ होंगे और बाकी जो अपनी दूकान साफ़ फ्रेश माल से चलाना चाहते भी हैं,वे भी रिस्क नहीं लेना चाहेंगे,सो झक मारकर देंगे ही आरक्षण।

और बुद्धिजीवी(मिडिया,पत्रकार)? उनकी भी पार्टी लाइन है भाई।वे क्यों और कैसे कहें आपको -"भाइयों सावधान,ये राजनीतिक दल आपको आपस में ही लड़वा रहे हैं,,भाइयों ये आपको रीढ़विहीन बनाना चाहते हैं,,भाइयों उठो और नकार दो इन सबको यह कहते कि हम अपने पुरुषार्थ से लेंगे अपना हक़, भारत में हम सिर्फ भारतीय हैं,हमारी जाति भारतीयता है,हम में से जो साधनहीन हैं उन्हें बस साधन दो,अच्छे स्कूल,कॉलेज,शिक्षक,,इन तक पहुँचने के लिए सड़क,पाठ्य सामग्री,कदाचार रहित परीक्षाएँ.. बस,बाकी हम कर लेंगे।"

पर अफ़सोस,अफ़सोस,अफ़सोस...ऐसा कोई नहीं कहेगा,ऐसे कोई नहीं सोचेगा...क्योंकि एक मुख्य चीज "स्वाभिमान और कर्तब्यबोध" मर चुका है हमारा।मुफ्तखोरत्व नैतिक चरित्र बन चुका है हमारा।

अरे हम तो उस देश के वासी हैं,जहाँ नदियाँ नाले,बनादी हैं।