24.10.08

दो रंग

1. नयन नीर


इन दो नन्ही सी अंखियों में,
कई समन्दर भरे हुए हैं.

बरसों से बरसे ये नयना,
पर घट रीते नही हुए हैं.

नीर, नयन का सखा अनोखा,
क्षण को भी न विलग रहे हैं .

अपना रिश्ता सहज निभाते
हर सुख दुख में तरल हुए हैं.

हर धड़कन में हुए समाहित,
सांस सांस में घुले हुए हैं.

हास तो अपना है एक सपना,
रुदन से समय सजे रहे हैं.

यही नीर निर्झरनी बन कर
शीतल मन को किए हुए हैं.

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2। हर्षित मन...


मन जब आशा हर्ष भरा हो,
जी चाहे मैं साज बजाऊँ.

नख शिख पूर्ण अलंकृत करके,
रच सोलह श्रृंगार सजाऊँ.

सावन हो या जेठ दुपहरी,
झूम के नाचूं झूम के गाऊं.

इन्द्र धनुष के रंग चुराकर,
एक मनोहर चित्र बनाऊं.

पथिक राह में कोई भी हो,
सबको अपने ह्रदय लगाऊँ.

वॄक्ष, फूल हौं, पशु पक्षी हों,
सबपर अपना स्नेह लुटाऊँ.

घूम घूम कर दसों दिशा में,
दया प्रेम का अलख जगाऊँ.

जो जग से दुख सारे हर ले,
उस पर जीवन पूर्ण लुटाऊँ.

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20.10.08

स्थूलकाय गजानन का शूक्षम्काय वाहन....

यह सर्व विदित है कि, हिंदू धर्म में किसी भी पूजा के परायण में सर्वप्रथम गणेश की ही पूजा का विधान है.वस्तुतः गणेश बुद्धि विवेक के स्वामी माने जाते हैं.उन्हें गणनायक कहा जाता है.गण का तात्पर्य मनुष्य से भी है और देव से भी.अर्थात जो जनों/देवताओं में श्रेष्ठ हो वही गणनायक/जननायक है.फलस्वरूप बुद्धि विवेक के अधिनायक,देवों के अधिनायक की वंदना के उपरांत ही अन्य किसी भी देवी देवता की पूजा होती है.सफलता पूर्वक आयोजन के अनुष्ठान हेतु,उसने निर्विघ्न समापन हेतु विघ्नहर्ता का अनुष्ठान अनिवार्य है.


सहज ही हम देखते हैं कि जिस देवता के साथ उनके कर्म प्रवृत्ति अनुसार जो अवधारणा जुड़ी होती है,उस देव विशेष के मूर्त रूप की परिकल्पना भी उसी रूप में होती है.जैसे माँ काली को विकराल रूप में दिखाया जाता है,तो नीलकंठ भगवान शंकर को नागाहर भष्म विभूषित रूप में. इसी तरह चूँकि मानव जीवन में बुद्धि विवेक को सबसे महत्वपूर्ण स्थान दिया गया है , सो इसके प्रतीक रूप में गजानन को भारी भरकम रूप में दिखाया जाता है.यूँ गणेश को लम्बोदर (बड़े पेट वाला) भी कहा जाता है,जिसका तात्पर्य है,बड़ी से बड़ी बात को पचाने वाला गंभीर विवेकवान तथा धैर्यशाली पुरूष.धीर गंभीर विवेकवान पुरूष ही नायक और पूज्य होता है..


अब बात यह है कि इतने भारी भरकम देवता का वाहन इतना छोटा सा मूषक क्यों माना गया है ? बात कुछ अटपटी सी लगती है.वस्तुतः वेद पुराण,आख्यान इत्यादि में जो भी कुछ लिखा दर्शाया गया है,उसके स्थूल रूप में बहुत ही गूढ़ तथ्य छिपे हुए हैं,तीक्ष्ण बुद्धि और शोध द्वारा ही रहस्य प्रकट किया जा सकता है.देवताओं के जो वाहन बताये गएँ हैं,वस्तुतः वे उनके गुण स्वरुप ही प्रतीक रूप में प्रयुक्त हुए हैं.जैसे गाय सत्व गुण की प्रतीक हैं और सिंह आदि रजोगुण के वैसे ही चूहा तर्क का प्रतीक माना जाता है.अहर्निश कांट छांट करना,अच्छी बुरी हर चीज को कुतर जाना - यह मूषक का स्वभाव है.असल में मनुष्य के मस्तिष्क में सदा स्वतंत्र विचारने वाला तर्क एकदम इसी तरह कार्य करता है.जहाँ बुद्धि होगी वहां जिज्ञासा होगी ही और जिज्ञासा तर्क की जन्मदात्री है.परन्तु तर्क पर भारी भरकम बुद्धि और विवेक की उपस्थिति तथा उसका अंकुश न हो तो यह जीवन के लिए कल्याणकारी नही होता. इसलिए तर्करूपी मूषक पर भारी भरकम बुद्धि विवेक के स्वामी विराजमान रहते हैं.


दीर्घ और लघु काया का यह सम्पूर्ण समन्वय बड़ा ही महत संदेश देता है और हमें दिखाता सिखाता है कि जीवन में बुद्धि तर्क और विवेक की मात्रा इसी अनुपात में होनी चाहिए. यही संतुलन जब अव्यवस्थित होता है तो संस्कार,संस्कृति का विनाश कर अपने साथ साथ समुदाय का जीवन भी दुखदायी बना देता है.


हमारी कामना है कि श्री गणेश सबके ह्रदय में विराजें और सबका जीवन सुखमय हो.


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चलते चलते एक बात और कहना चाहूंगी कि दीपावली पर जिस गणेश और लक्ष्मी की आराधना होती है,उसे सच्चे अर्थ में लोग ग्रहण करें.लक्ष्मी श्री विष्णु की अर्धांगिनी हैं पर उनकी पूजा सदा गणेश के साथ इसलिए होती है कि लक्ष्मी वहां कभी वास नही करतीं जहाँ गणेश न हों.धन वहीँ अपना स्थायी निवास बनाती है जहाँ बुद्धि विवेक के साथ सन्मार्ग पर चल इसका अर्जन हो, भोग विलास में न व्यय कर अपने सद्कर्म तथा परहित निमित्त व्यय हो.सदयुक्ति से धनोपार्जन तथा सद्प्रयोजन में व्यय ही मनाव धर्म है. " शुभ" के साथ ही सदा "लाभ" होता है.एक से बढ़कर एक धनी मानी,राजा राजवाडे हुए और जिस किसी ने भी इसे समुचित श्रद्धा सम्मान न दिया वह नष्ट हो गया.

कभी कभी देखने में लगता है कि अमुक तो इतना पापी है फ़िर भी दोनों हाथों धन बटोरे जा रहा है.परन्तु तनिक निकट जाकर उनके जीवन में देखेंगे तो पाएंगे कि ऐसे लोगों का जीवन कितना अधिक अशांत है. अन्हक का धन जैसे ही चौखट लांघती है अपने साथ कुसंस्कार और दुर्बुद्धि लेकर आती है और हजारों करोड़ भी वह व्यक्ति क्यों न जमा कर ले उसके कुमार्गगामी पीढी उसे शीघ्र ही नष्ट कर देती है.


सच्ची दीपावली वही होगी जब हम न तो वातावरण को ध्वनि तथा दूषित धूम्र द्वारा प्रदूषित करें और न ही जुआ शराब में उडाएं.जितना धन हमें इसमे व्यय करना है उसका आधा भी यदि उन व्यक्तियों में बाँट दें, जिसने कई दिनी से पेटभर अन्न नही खाया हो,जिसके तन पर आने वाली सर्दी से बचने के लिए वस्त्र न हों,तो माता लक्ष्मी और विघ्नहर्ता उसके घर में ,उसके ह्रदय में सदा निवास करेंगे,इसमे कोई संदेह नही. लक्ष्मी धन के रूप में यदि न भी बरसें तो संतोष और शान्ति रूप में जरूर बरसेंगी.और विघ्नहर्ता किसी भी कष्ट के क्षणों में किसी न किसी रूप में आकर हाथ पकड़ उबार जायेंगे.


सबको दीपावली की अनंत शुभकामनाये.............

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16.10.08

भोला पन है या मति विभ्रम

प्रिय अपना नेहबंध जब तोडे,

स्नेहिल उर अवसाद से भरे.

सरिता मध्य गहन धार में,

पतवार तोड़ कर नाव डुबोये.

भग्न ह्रदय आघात को सहकर,

कैसे कोई फ़िर आस संजोये।

पथराये नयनो में उर में,

कैसे पुनः कोई स्वप्न सजाये .

जाने कि अपनापन बस भ्रम है,

मन फ़िर क्यों न तृष्णा त्यागे.

मति की गति भी बड़ी निराली,

क्षण में बीता सब बिसराए.

अपना उसको माने फ़िर से,

नेह जता जो नयन बहाए.

रंच मात्र शंशय न रखे ,

चाहे भले कोई स्वांग रचाए.

बिसराकर आघात औ पीड़ा,

हिय में भरकर कंठ लगाये.

विश्वास रचा कुछ ऐसे मन में ,

अब कौन भला चित को समझाए.

हास रुदन के फेर में पड़कर,

चहुदिन अपनी गति कराये.

भोला पन है या मति विभ्रम,

अब कौन इसे यह भेद बताये.
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14.10.08

दीपक सा जीवन..........

जबतक दुनिया का ज्ञान न था,

निज परिधि,सामर्थ्य का भान न था.

उस अबोध मन ने देखे जो ,

कितने जीवंत थे वे सपने .

आशा और विश्वाश से सने.

शंशय नही तनिक था मन में,

कि घोर तिमिर में चाँद बनूंगी,

अग जग पर शीतलता बरसा,

संतप्त ह्रदय के कष्ट हरुंगी.

दिन मे सूरज बनकर मैं तो,

शक्ति का प्रतिमान बनूगी.

किंतु ,

अब जब सब जान लिया है,

परिधि भी पहचान लिया है.

फ़िर भी देखो शेष बच गया,

आशा एक अवशेष बच गया.

भले चाँद मैं ना बन पायी,

ना ही मैं सूरज बन पायी.

पर दाता इतना तू कर दे,

शक्ति सामर्थ्य इतना बस भर दे.

एक दीपक सा हो यह जीवन ,

सच्चाई की बाती जिसमे,

करुना कर्म प्रेम का इंधन.

कलुष कालिमा आंधी या तम,

या हो दुःख का घोर प्रलय घन,

कभी भी ना हो यह लौ मद्धम.

तेरे बल से सदा बली हो ,

प्रतिपल जलता रहे प्राण मन ,

अन्धकार को सदा विफल कर ,

आलोकित करे घर और आँगन ..

4.10.08

बुल्कीवाली (भाग - २)

देखते देखते साढ़े चार महीना निकल गया. बुल्कीवाली ने काम में कोई ढिलाई नही की थी, पर हर दिन के साथ उसकी बेचैनी भी बढ़ती जा रही थी. मन प्रान तो उसका वहीँ अटका पड़ा था न..मालिक जब आए थे तो उन्होंने सब कुसल छेम ही बताया था पर कल बड़का की चिठ्ठी आई कि पारी (भैंस की बच्ची) ने न जाने क्या खा लिया था कि उसका पेट फूल गया और दस्त करते करते वह मर गई.इससे भैंसी बगद गई है,ठीक से दूध नही देती.उसका घर द्वार सब बिलट (बरबाद) रहा है उसके बिना,जल्दी वापस आ जाए..जार जार रोई बुल्कीवाली.पर इससे क्या होता.अनुराधा के जाकर गोड़ छान लिया.गिड़गिडाकर अरज किया कि अब तो सब ठीक ठाक निपट गया है,उसे गाँव भेज दिया जाए.पहले भी कई बार इस प्रस्ताव को ठुकरा चुकी अनुराधा ने जब देखा कि अब कोई उपाय नही इसे रोकने का तो फ़िर एक दूसरा दांव फेंका. छोटका को अब तक बच्चों ने हिन्दी में अ आ से ज्ञ तक और ऐ बी सी डी ज़ेड, तक सिखा दिया था.उसे पढने में इतना मन लगता था कि एक बार बता देने पर ही झट से सीख लेता था.तो अनुराधा ने इसी का चारा फेंका और समझाने लगी कि यहाँ रहकर उसका बेटा किस तरह आदमी बन रहा है. गाँव जाकर फ़िर से रार मुसहर जैसा रहेगा.यहाँ रह पढ़ लिख लेगा तो जिंदगी बन जायेगी..बच्चों से भी तो इतना घुल मिल गया है कि बच्चे उसके बिना अब कैसे रह पाएंगे.सो यदि बुलकीवाली जाना चाहती है तो जाए, पर छोटका को यहीं छोड़ जाए.उसने जो उसके लिए एक सगी माँ से भी बढ़कर करतब किया है तो उसका इतना तो फर्ज बनता ही है कि वह भी उसके बेटे को आदमी बनाने में उसकी मदद करे.

छोटका के सुनहरे भविष्य का इतना सुंदर नक्सा अनुराधा ने खींचकर बुल्कीवाली को दिखाया कि उसे भी लगने लगा सचमुच यहाँ रहने में छोटका का कितना बड़ा हित है.पर ममता और कर्तब्य में जंग छिड़ गई. ममता इतने छोटे बच्चे को अपने से अलग करने को प्रस्तुत नही थी तो कर्तब्य कहता था कि बच्चे के भविष्य से बढ़कर और कुछ भी नही.लेकिन जब छोटका भी बम्बई में ही रहने को मचल उठा तो हारकर बुल्कीवाली ने भारी मन से उसे यहाँ छोड़ने का फ़ैसला कर लिया.अनुराधा ने यह वचन दिया कि छः महीने के भीतर ही वह छोटका को लेकर गाँव आएगी और उसकी खैर ख़बर बराबर भेजती रहेगी .

जोश में छोटका ने यहाँ रहने की हाँ तो कर दी थी पर, माई के जाने के बाद से हर बात पर उसकी रोवाई छूटने लगी..आज तक कभी अपनी माई के बिना वह रहा न था.बिना माई की छाती में चिपटे उसे नींद ही नही आती थी.उसपर भी जब यहाँ बच्चों को अपनी माँ से चिपटे देखता तो उसका करेजा फटने लगता था..दो तीन दिन तक तो रोने धोने पर अनुराधा ने उसे पुचकारा ,पर बाद में यह डांट और फ़िर मार में तब्दील हो गया.


यूँ तो बुल्कीवाली के वापस जाने के पहले ही एक बाई काम पर रख ली गई थी जो सुबह सात से शाम सात बजे तक डेढ़ हजार की पगार पर रहने को राजी हुई थी.पर कहाँ बुल्कीवाली का काम और कहाँ उसका काम.कहीं कोई तुलना ही न थी. एक गोद की बच्ची, दो छोटे स्कूल जाने वाले बच्चे और समय पर दफ्तर जाने वाले पति, इन सब की जिम्मेदारियों ने अनुराधा का हाल बेहाल कर रखा था.उसपर से सप्ताह दस दिन में बिना बताये बाई का नागा मारना , इन सब ने अनुराधा का जो हाल किया सो किया , छोटका का बुरा हाल जरूर कर दिया था. बाइयों के नखरों से ऊब कर अनुराधा ने चार महीने बाद बाई रखना ही बंद कर दिया और उस छोटे से बालक पर जिम्मेवारियों का पहाड़ लाद दिया .सुबह अंधेरे जो धकिया कर उसे उठा दिया जाता सो रात के एक डेढ़ बजे तक खटते खटते उसका कचूमर निकल जाता. तिसपर हड़बड़ी में अगर कुछ गड़बड़ हो जाता, काम पूरा न होता या कुछ टूट फूट जाता तो उसके लिए एक से बढ़कर एक कठोर दंड विधान थे.जितना काम उस छोटे से बालक पर लादा गया था, बम्बई की दो बाई भी मिलकर नही निपटा सकती थी.पर इस बात का विचार कौन रखता. ईश्वर भी शायद जानबूझकर गरीब के बच्चों में वह शारीरिक और मानसिक क्षमता भरते हैं कि वह बित्ते भर का भी हो तो अमीर के सुख सुविधाओं में पल रहे बच्चे से हजार गुना अधिक जीवट होता है, तभी तो इतना सहकर भी जीता रहता है.


थके हारे महेस बाबू जैसे ही दफ्तर से आते कि अनुराधा छोटका के तथाकथित निकम्मेपन और गलतियों की कहानियो का पिटारा लेकर बैठ जाती और अक्सर ही यह होता कि लगे हाथ छोटका की तगडी धुनाई हो जाती। घर के हर सदस्य के लिए अपनी किसी भी तनाव का भडास निकलने के लिए चौबीस घंटे के लिए यह बालक उबलब्ध था. घर में हो रही हर गडबडी का जिम्मेवार वही ठहराया जाता था. सजा देकर उसे सुधारने के लिए नित नए दंड विधान बनते थे, जिसमे मार पीट के अलावे खाना पीना बंद करना से लेकर चिलचिलाती धूप में नंगे बदन नंगे पाँव खड़ा करना , देह पर गरम या बर्फ का पानी डाल देना इत्यादि इत्यादि भांति भांति के दंड निर्धारित किए जाते थे. पढ़ना लिखा, टी वी देखना या अन्य मनोरंजन तो सपना हो गया था .गाँव में तो कम से कम इतना था कि पिटने पर माई के आँचल में या भाई के गोदी में उसको जगह मिल जाती थी,यहाँ ममता नाम का कुछ भी नही बचा था. सूखकर हड्डियों का ढांचा भर रह गया था वह. पर तीन बच्चों की माता अनुराधा के मन में वह बालक रंचमात्र ममत्व नही उपजा पाता था. इन सबके बीच उसके मन की स्थिति का वर्णन शब्दों में कर पाना असंभव है.

इधर चौबीसों घंटे में से शायद ही कोई पहर होता जब छोटका की आँखें सूखी होती और उधर बुल्कीवाली का करेजा दरकता रहता. बेटे की खोज ख़बर जानने का मालिक के अलावे और कोई साधन नही था.. छः महीने में आने की बात को दो बरस हो गया था. जब मालिक मलिकाइन से पूछती तो वो अगले महीने अनुराधा बिटिया के आने की बात कहते . उसका बेटा वहां कितने ठाठ से रह रहा है, इसके किस्से सुनाते.. इधर तो ज्यादा पूछताछ करने पर अक्सर ही गालियों की सौगात भी मिलने लगी थी उसे. पर इस से वह अपने बेटे के बारे में पूछना थोड़े ही न छोड़ देती. बीतते दिनों के साथ उसका मन चिंता और आशंका की गहरी खाई में धंसता जा रहा था. .


एक बार अधीर होकर मालिक मलिकाइन के सामने जिद लगाकर बैठ गई कि उसे अनुराधा बिटिया का बम्बई का पता दे दें ,वह बड़का के साथ पूछते पाछते वहां चली जायेगी और एक नजर अपने लाल को देख आएगी. जब उन्होंने देखा यह टस से मस नही हो रही तो हजार रुपये और जल्दी आने की तसल्ली देकर यह कहकर उसे निपटा दिया इतने बड़े सहर में वह भुला जायेगी,जिनगी भर भटकती रहेगी तो भी उसके घर नही पहुँच पायेगी.और इसबार एकदम पक्का है अगले महीने बीस तरीक को अनुराधा का सपरिवार मय छोटका, यहाँ आना तय है. टिकट तक कट चुका है.कल ही तार से इस बात की ख़बर आई है. इस तरह एक बार फ़िर उन्होंने उसे टाल दिया. .


यह सब हुए बीस बाईस दिन भी नही हुआ था कि एक दिन अधरतिया में किसी ने केवाड़ी(दरवाजा) का जिंजिर खटखटाया....केवाड़ी खोला तो एकदम से भौंचक्क रह गई.सामने छोटका था,जो दरवाजा खुलते ही माँ से लिपटकर फूटकर रोने लगा.उसकी आवाज के दर्द ने बुल्कीवाली का करेजा फाड़ दिया. बेटे के बिना कुछ कहे बताये ही एक पल में उसने बेटे की पूरी पीड़ा गाथा सुन गुन ली. बुल्कीवाली बाबू रे बाबू कह दहाडें मारकर विलाप करने लगी.शोरगुल सुन बडका भी उठकर आ गया था और हतप्रभ सा सबकुछ समझने की कोशिश करने लगा.जल्दी से ढिबरी बार लाया.तभी उस आदमी ने बड़का को घर के अन्दर घसीटते हुए ताकीद की कि जल्दी से अपनी माई और छोटका को चुप कराओ नही तो अनर्थ हो जाएगा.किसीके कानोकान ख़बर हो गई तो हम सबलोग जान से जायेंगे....छोटका हमरे साथ बम्बई से भागकर आया है. बड़का सारा माजरा समझ गया और माँ के मुंह पर हाथ रखकर मुंह दबाये छोटका को भी चुप रहने की हिदायत देता हुआ उन्दोनो को घर में अन्दर खींच जल्दी से जिंजिर लगा लिया. बड़का को बड़ी मेहनत करनी पड़ी माई और छोटका को चुप कराने में. थोड़ा चेत हुआ तो बुल्कीवाली ने देखा बड़का उस आदमी के साथ बैठा बतिया रहा है.अभीतक बुल्कीवाली को होश नही था कि वह ध्यान करे कि छोटका के साथ दूसरा आदमी कौन है.ध्यान से देखा तो पहचान गई,वह मुसहरटोली का रामरतन था,जो पाँच बरस पहले बम्बई चला गया था और वहीँ रिक्सा चलाता था. और बखत होता तो मुसहर को घर में देख घर अपवित्तर होने का ध्यान आता,पर आज उसे वह मुसहर साक्षात भगवान् नजर आ रहा था. उसके पैरों पर वह गिर गई. रामरतन एकदम घबरा गया.....हड़बड़ाकर खड़ा हो गया....अरे भौजी ई का कर रही हो कहकर पीछे हट गया. रामरतन भी भावुक हो गया,बोला....अरे भौजी जैसे यह तुमरा बेटवा वैसे ही हमरा भी है न......उ त कहो कि संजोग से एक दिन बाजार में हमरा ई भेट गया और जब एकर दुःख हम देखा तो हमरा कलेजा दरक गया.हम बीच बीच में एकरा से भेंट करते रहते थे और जब लगा कि बचवा मर जाएगा तो हम चुप्पेचाप एकरा लेकर इहाँ भाग आए....अब धीरज धरो, मुदा मालिक को पता चले ई से पहले जल्दी से एकरा इहाँ से कहीं बाहर भेज दो.हम भी निकलते हैं,नही तो मालिक के पता लग जाएगा तो हमरा खाल खिंचवा देंगे. भावना का उद्वेग कुछ शांत हुआ तो आतंक का अन्धकार माथा सुन्न करने लगा. हाथ पाँव फूलने लगा .सूझ नही रहा था कि क्या किया जाए.


रामरतन ने ही रास्ता सुझाया कि बड़का छोटका को लेकर कहीं किसी दूर के रिश्तेदार के यहाँ रख आए साल छः महीने के लिए....बड़का ख़ुद भी कुछ दिनों के लिए गाँव से बाहर रहे और यहाँ छोटका के बम्बई से भाग जाने की बात खुले भी तो बुल्कीवाली उन्ही लोगों पर चढ़ बैठे कि उनके जिम्मे पर जब उसने बेटे को छोड़ा था तो अब वे ही उसका बच्चा लाकर उसे वापस दें.समय बीत जाएगा,सब शांत हो जाएगा तो फ़िर छोटका को यहाँ बुलाकर कह दिया जाएगा कि रास्ता भटक कर कहीं चला गया था और अब इतने दिन बाद भटकते हुए वापस गाँव पहुँचा है.अब इतने दिन तक तो अनुराधा बिटिया बिना किसी नौकर के रहेंगी नही अपना कुछ इंतजाम का ही लेगी तो फ़िर छोटका को फ़िर से जाने का बावेला नही रहेगा.ई सारा बखेडा इसलिए है कि बम्बई में सस्ता घरेलू नौकर मिलना बड़ा ही मुश्किल होता है सो एक बार कोई अगर इनलोगों के चक्कर में फंस गया तो उसकी जान नही छोड़ते हैं.
रामरतन उस समय उनके लिए भगवान् बनकर आया था.उसकी सलाह के मुताबिक तुंरत अमल हुआ.वैसे बुल्कीवाली का बस चलता तो छोटका को अपने कलेजे में ही छुपाकर रख लेती.पर समय की नजाकत वो जानती थी और बेटे को एक बार फ़िर अपने से दूर भेजने में ही भलाई थी. उस समय बुल्कीवाली के मन में जितनी व्यथा थी उतना ही रोष भी था.जिस मालिक की रक्षा में उसके पति ने अपनी जान गंवाई,उसका घर उजाड़ गया,आजतक ऐसा कोई समय नही आया था जबकि वह तन मन से मालिक की सेवा में जान लगाने से पीछे ती थी और उन्ही लोगों ने उसके साथ इतना बड़ा छल किया,उसके फूल से बच्चे की जान लेने में कोई कसर न छोड़ी....बस चलता तो जिसने उसके बच्चे की यह हालत की , आज फ़िर से गंडासा ले उन सबका वही हाल करती जो उसने उस डाकू का किया था.पर आज वह विवश थी.वह जानती थी कल जिसके लिए उसने हथियार उठाया था उनकी शक्ती भी उसके साथ थी पर आज तो वही शक्ति उसके सामने खड़ी थी.


घटना के आठवें दिन बम्बई से छोटका के फरारी की ख़बर के साथ अनुराधा और महेश बाबू सपरिवार पहुँच गए.छोटका की फरारी की ख़बर देने नही बल्कि दूसरे नौकर का इंतजाम करने. फरारी की बात अनुराधा के लिए भले केवल क्षोभ का विषय था ,पर चौधरी साहब सपरिवार जरूर चिंतित हुए कि बुल्कीवाली का सामना वो कैसे करेंगे.उसे क्या जवाब देंगे.दो दिन तक सब चुप चाप रहा.बुल्कीवाली को अनुराधा के आने की ख़बर नही दी गई.तीसरे दिन सबने यह निर्णय लिया कि बुल्कीवाली को ख़बर कर ही दी जाए. चौधरी साहब ने भीमा को बुल्कीवाली को बुला लाने भेजा.पर भीमा ने आकर बताया कि परसों से ही बुलकी वाली घर में नही है उसकी गोतनी ने बताया कि अनुराधा बिटिया के आने की ख़बर उसे पता है.जब बिटिया दरवाजे पर उतर रही थी तो उसने देखा था और जाकर बुल्कीवाली को बताया था इस बारे में, पर बुलकी वाली उसके बाद घर बंद करके बिना किसी को कुछ कहे पाता नही कहाँ चली गई..


अब तक जो चौधरी साहब के मन पर जवाबदेही का बोझ था ,वहां संदेह ने आकर कब्जा जमा लिया.यह तो सहज बात न थी. बेटे के लिए जो अबतक रोज आकर जान खाती थी,वह अनुराधा के आने की सुनकर भी बेटे के लिए पूछने न आए बल्कि बिना मिले गाँव से बाहर चली जाए,इसमे जरूर दाल में कुछ काला था. बात चली नही कि माहौल ही बदल गया.तुरत फुरत लोगों को पता लगाने के काम पर लगा दिया गया.अगले ही दिन बात निकल कर आई कि किसी ने दस दिन पहले भोरहरवे बड़का छोटका दोनों को एक साथ बस में बैठे देखा था.उस दिन के बाद से बड़का भी गाँव वापस नही आया है.बात खुलनी थी कि सभा लग गई घर में. कोई कुछ कहता कोई कुछ. सर्व सम्मति से यही राय निकली कि, हो न हो छोटका को बम्बई से भगाने में तीनो माँ बेटा का मिली भगत है.राय करके ही सब किया गया है. जिस बुल्कीवाली का रोम रोम मालिक के दिए से संचालित है,उसी बुल्कीवाली ने मालिक के साथ कितनी बड़ी दगाबाजी की है.जिनती मुंह उतनी बातें...चौधरी साहब की क्रोधाग्नि को भड़काने से कोई पीछे नही रहना चाहता था. शुभचिंतकों में कम्पीटीसन लगा था.अनुराधा अलग रोये जा रही थी कि जिस लड़के को उसने अपने बच्चे से भी बढ़कर रखा वह कितना बड़ा हरामखोर निकला,उसके सर इतना बड़ा कलंक लगाकर भाग निकला.अब भला कोई विस्वास करेगा कि उसे वहां कोई दुःख नही था.रार और साँप को कितना भी दूध पिलाओ, वह पोसियाँ नही मानता..यह चौधरी साहब के मान रुतबा को सीधे चुनौती थी,उनका खून खौल रहा था..उन्होंने अपने लोगों को आदेश दिया कि फौरन तीनो को खोजकर अगर पाताल में भी छुपे हैं तो निकालकर लाया जाए


खोज बीन शुरू हुई तो सबसे पहले बड़का पकड़ाया भठ्ठा पर से.बड़का को रासा से बांधकर जीप पर लाद कर ले जाया गया..इधर लोग निकले और उधर बड़का के एक संगी ने जाकर बुल्कीवाली को यह ख़बर पहुंचाई. बुल्कीवाली का तो परान ही सूख गया. अपने जीते जी मालिक के कोप का परहार अकेले अपने उस कोखजाये को कैसे सहने देती. पति पहले ही जान से हाथ धो बैठा था..एक फूल सा बेटा ऐसे ही जुलुम सहकर मरने मरने को था और अब अपने इस निरदोस बेटे को कैसे आग में झोंक देने दे अपना जान..सो जैसे थी वैसे ही बदहवास भागी गाँव की ओर..


बेसुध सी जब मालिक के खलिहान में पहुँची तो एक छन को उसकी साँस ही रुक गई. खलिहान के बीच में धूल धूसरित उसका बेटा खूनमखून बेहोस पड़ा था. . एक पल को तो बुलकी वाली के माथा पर वैसी ही काली मैया सवार हुई जैसी पति को गोली खाकर तड़पते देख हुई थी...उसे लगा अभी इसी बखत गंडासे से उन सब कसाइयों को खूनमखून कर दे जिसने उसके बेटे का यह हाल किया था.पर हाय रे किस्मत... उस दिन तो एक डाकू था मुदा आज तो पूरा गाँव ही डाकू कसाई बनकर इनको घेरे खड़ा था..बेटे से लिपट कर दहाडें मार विलाप करने लगी. उसके रुदन ने चौधरी साहब के गुस्से को और भड़का दिया.एक तो चोरी ,ऊपर से सीनाजोरी. गालियों की बौछाड़ के साथ ताबड़तोड़ उसपर लात और बेंत से प्रहार करना शुरू कर दिया.कुछ लोग निरघिन गालियों के साथ चौधरी साहब के हौसला अफजाई में लगे थे तो कुछ इस कृत से दुखी भी थे..पर उनको रोकने की औकात किसमे थी.पीड़ा से बिलबिलाते हुए बुलकी वाली ने भी एक दो गलियां दे दी.फ़िर क्या था लात घूसों के साथ झोंटा पकड़कर ऐसे घसीटा गया कि उसके देह पर एक भी वस्त्र नही बचा.भीड़ में से किसीको न लज्जा आई न हिम्मत हुई कि उसके उघड़े देह को ढांक दे. इधर बड़का को जो चेत हुआ और उसने यह हाल देखा तो जिसने अपने पिटते समय बिना जुबान खोले चुपचाप सारा मार खा लिया था,चिंघाडे मारते हुए मालिक के पैरों को छान कर गिड़गिडाने लगा.....माँ भाई को बक्सने की कीमत पर कसम खाते हुए वचन दिया कि इन दोनों को बक्स दिया जाए, वह चला जाएगा छोटका के बदले बम्बई और मालिक का हर हुकुम मानेगा..


अनुराधा और उसके पति जो इस पूरे क्रम में रणविजय बाबू के क्रोधाग्नि के मुख्य संवाहक और पोषक रहे थे,ने जैसे ही यह प्रस्ताव सुना,उनकी तो बांछें खिल गई. मामला तो बहुत ही फायदे का रहा था. कहाँ वह मरियल छोटा सा छोटका और कहाँ यह हृष्ट पुष्ट किशोर .एक पल में सारा हिसाब लगा लिया कि अपने पुष्ट शरीर के साथ एक साथ ड्राइवर ,रसोइया , माली और न जाने कितने ही तरह का काम यह कर सकता है..बस फ़िर क्या था, तुंरत ही वहां का परिदृश्य बदल गया. अनुराधा दोनों पति पत्नी, माँ बेटे की रक्षा को आगे बढे. .महेश बाबू ने ससुर का हाथ पकड़ अलग किया और अनुराधा बुल्कीवाली को सम्हालने में लग गई..इन दोनों को बचाव में लगे देख वो लोग जो अन्दर ही अन्दर बुल्कीवाली की दुर्दशा से अपार आहत थे, सहायता को आगे बढे..


मार पीट के इस क्रम में बुल्कीवाली की वह बुलकी, जो कि जिस दिन से उसके नाक में चढी थी कभी उतरी न थी और सोने के नाम पर उसका एकमात्र गहना थी,वह भी कहीं गिरकर हेरा गया था.पर क्या यह एक बुलकी भर था ? यह जेवर नही उसका अहम्,उसकी पहचान थी,जो आज धूल में गुम हो चुकी थी... आज वह उस दिन से भी जादा आहत थी,बिखर गई थी, जिस दिन पहरुआ मरा था...............



( कथा के दीर्घ कलेवर और दुखांत के लिए पाठकों से क्षमाप्रार्थी हूँ. यदि यह मात्र कल्पित कथा होती,तो यह कथा ही न होने देती.)

3.10.08

बुल्कीवाली ( भाग १. )

बुल्कीवाली ,यह उसका वह नाम नही था जो उसे जन्म के बाद माँ बाप से मिला था,पर अपना असली नाम उसे ख़ुद भी कहाँ याद था ।छुटपन में ही माँ ने नाक कान छिदवाने के साथ साथ दोनों नाक के बीच भी बुलकी (नाक के दोनों छेद के बीच पहनी जाने वाली नथ) पहनने के लिए छेद करवाकर सोने की एक बुलकी पहना दी थी. ससुराल आने के बाद भी यही बुलकी उसकी पहचान बनी और लोग उसे बुल्कीवाली के ही नाम से पहचानने और पुकारने लगे थे .जहाँ गाँव में बड़े घर की बहुएं भी फलां गाँव वाली,फलाने की माँ या फलाने की कनिया(पत्नी) के नाम से जानी और पुकारी जातीं थीं, वहां बुल्कीवाली का बुलकी से ही सही अपनी एक विशिष्ठ नाम और पहचान थी यह कोई छोटी बात न थी...इतना ही नही पूरे गाँव में और ख़ास करके चौधरी रणवीर सिंह के यहाँ उसकी ख़ास इज्जत थी.जो कुछ उसने किया था,वह कितने लोग करने की हिम्मत रखते हैं भला.उसका पति पहरुआ मालिक का खासमखास था.भले जात का ग्वाला था पर बहादुर इतना था कि मालिक ने उसे अपना खासमखास बना लिया था जो एक अंगरक्षक की तरह मालिक के सोने भर के समय के अलावा हरवक्त मालिक के साथ बना रहता था.

मालिक के बेटी के ब्याह के दस दिन पहले एक दुर्घटना घट गई। शाम के वक्त डाकुओं ने हमला बोल दिया. उस वक्त बूढों और मालिक को छोड़ घर के सभी मर्द शहर खरीदारी को गए हुए थे.यूँ घर के दरवाजे तो अन्दर से बंद कर लिए गए थे पर उनका मुखिया घर के पिछवाडे से घर की छत पर चढ़ने में कामयाब हो गया था॥मालिक भी बन्दूक लिए छत पर पहुँच गए थे,पर उनकी गोली हवा में रह गई और डाकू की गोली मालिक के पैर में लगी.मालिक तड़पकर जमीनपर गिरे और डाकू ने ताबड़तोड़ फायरिंग शुरू कर दी.लेकिन मालिक की ढाल बनकर पहरुआ ने सारी गोलियां अपने देह पर खा ली.घर के सारे लोग जहाँ चीख पुकार और रोने धोने में लगे थे,बुलकी वाली चुपके से कुट्टीकट्टा गंडासा लेकर छत पर चली गई और पीछे से पूरा जोर लगाकर डाकू के सर पर ऐसा गंडासा मारा कि एक ही वार में डाकू धरासायी हो गया.बुल्कीवाली के इस करतब ने पूरा माहौल ही बदल दिया और फ़िर तो किसी ने मालिक की बन्दूक उठायी , किसी ने ईंटा पत्थर तो किसी ने लाठी भाला और सबलोग मिलकर डाकुओं पर ऐसे बरसे कि आठ डाकुओं में से दो जान से गए और बाकी घायल होकर भागने के उपक्रम में थे कि गांववालों ने चारों ओर से उन्हें घेरकर पकड़ लिया और सारे डाकू पुलिस के हवाले कर दिए गए. पहरुआ जान से गया था पर दोनों पति पत्नी नायक हो गए थे.पहरुआ ने मालिक के लिए प्राण उत्सर्ग किया और बुल्कीवाली ने मालिक की जान बचाते हुए अपने पति के मौत का भी बदला ले लिया था.पहरुआ का अन्तिम संस्कार मालिक ने एक शहीद की तरह ही पूरे शान से कराया था और बुलकी वाली को दो कट्ठा जमीन,एक भैंस तथा हजार रुपया नकद दिया था.

जिस समय की यह घटना थी,बुल्कीवाली का बड़ा बेटा बड़का आठ बरस का और छोटा बेटा छोटका दुधमुहाँ गोदी में था।परिवार में अपना कहनेवाला और कोई नही था.गोतिया लोग पहरुआ के जिंदगी में ही अलग हो गए थे.पर बुल्कीवाली भी कम हिमती न थी.पाँच छः साल के भीतर मालिक के दिए दो कट्ठे और अपने पास पहले से दो कट्ठे जमीन को ही उस कमासुत(मेहनती) औरत ने सोना बना लिया था और एक जून खाने लायक मडुआ मकई का बंदोबस्त कर ही लेती थी. स्वाभिमानी बुल्कीवाली ने अपने किसी जरूरत के लिए बेर कुबेर में मालिक को छोड़ कभी किसीके आगे हाथ नही पसारा था॥मालिक की दी हुई एक भैंस से आज तीन भैंस और हो गई थी उसके पास.एक भैंस का दूध मालिक के यहाँ सलामी में देने के बाद भी उसके पास इतना बच जाता था कि अपने बच्चों के लिए पाव भर दूध और छाछ मट्ठा बचा ही लेती थी और बाकी के दूध बेच उपरौला खर्चा का इंतजाम कर लेती थी.

दुपहरिया में बुल्कीवाली आँगन में गोइठा (गोबर के उपले) थाप रही थी तभी भीमा मालिक की ख़बर लेकर आया कि उन्होंने उसे फौरन बुलाया है।पास की बाल्टी में हाथ धोकर साड़ी से हाथ पोछते हुए बुल्कीवाली मालिक के घर की ओर तेज कदमो से चल दी.पीछे पीछे आठ बरस का छोटका जो हरदम अपनी माँ से चिपका सा रहता था और उस वक्त भी माँ का साथ देता हुआ गोबर गींज गींज कर छोटे छोटे गोइठे थापने में लीन था,माँ के पीछे हो लिया.समय समय की बात है,बुल्कीवाली भले आज भी अपने को विशिष्ठ माने हुए है,पर बाकी लोग उसकी करनी को लगभग भूल से गए हैं.हाँ दो बातें जो वे नही भूले हैं वो ये कि ,उन्होंने कितना कुछ बुल्कीवाली को दिया था और दूसरी ये कि बुल्कीवाली सी कमासुत उनकी तमाम आसामियों में एक भी आसामी(जिन्हें जमींदार अपनी जमीन पर झोंपडा डाल रहने की इजाजत देते हैं) नही. उन्होंने बुल्कीवाली को जो धन मान दिया था,उसके बदले उसपर अपना विशेष हक समझते हैं . इसलिए आज भी जब कभी बेगार का काम करने वालों की जरूरत पड़ती है तो सबसे पहले कमासुत( मेहनतकश) बुल्कीवाली को ही याद किया जाता है.ऐसा नही है कि बुल्कीवाली यह सब समझती नही, पर रणविजय मालिक आज भी जो इज्जत उसे देते हैं,उसके आगे वह इन बातों को नही लगाती. यह क्या कम फक्र की बात है कि पूरे गाँव में रारिन(छोटी जाति वाली) होते हुए भी वही एक ऐसी औरत है,जो सीधे सीधे मालिक के कमरे तक जाकर मुंह उठाकर मालिक से बात कर पाने की अधिकारिणी है.

मालिक के पास पहुंचकर दूर से ही धरती छूकर प्रणाम कर बुल्कीवाली खड़ी हो गई।रणविजय बाबू कुछ चिंतित से अपने विचारों में लीन थे,सो उनका ध्यान इस ओर नही गया.भीमा ने इंगित करते हुए मालिक को आगाह किया कि मालिक बुल्कीवाली आ गई है॥रणविजय बाबू ने औपचारिक हाल चाल पूछा और फ़िर गंभीर मुद्रा में भूमिका बांधते हुए उस से कहा कि .... " तनिक परेशानी में हैं,तुम्हारी जरूरत है.अनुराधा बिटिया को तीसरा संतान होने वाला है,तबियत ठीक नही रहती सो उसने ख़बर भेजाया है कि बुल्कीवाली अगर दो तीन महीना भी आ कर घर सम्हाल दे तो जिनगी भर गुन गाएगी. "

बुल्कीवाली अजीब पसोपेस में फंस गई.....अब क्या कहे........आजतक उसने इस घर के किसी भी काम के लिए ना नही कहा था।और उसमे भी जब मालिक ख़ुद कह रहे हों तब तो इनकार का सवाल ही नही उठता था.पर आज जो स्थिति है उसमे वह एकदम से किन्कर्तबविमूढ़ हो गई. हाँ करे भी तो कैसे...अब अनुराधा बिटिया कोई भीरू (नजदीक) तो रहती नही कि जाकर उनका भी काम कर दें और समय निकाल अपना भी सब सम्हाल ले.कहते हैं रेलगाडी से जाओ तो भी बम्बई जाने में चार दिन लग जाते हैं.एक बार जाने का मतलब है, पूरा घेरा जाना॥ ..हकलाती रिरियाती मालिक से बोली..."मालिक ई त बड़ा ही खुसी का बात है कि अनुराधा बिटिया की गोद हरी हो रही है,मुआ हम का करें,एकदम ससरफांस में फंसे हुए हैं,अभी दस दिन पाहिले एगो भैंस बियाई है और दूसरी भी बीस पच्चीस दिन में बियाने वाली है,खेत में तरकारी लगा हुआ है.इसी बार लगाये और बढ़िया लग गया.उसका देख रेख जतन तनिक जादा ही करना पड़ रहा है. कुछ काम था, सो बड़का को भी भठ्ठा (ईंट भठ्ठा) मालिक अपना घर बुला लिए हैं महीना भर के लिए. वह आ भी जाए तो इतना सब अकेले नही देख सम्हाल सकता.उसके बियाह के लिए बरतुहार भी आने लगे हैं,उस से तो बड़का बात नही करेगा, और सबसे बढ़कर यह छोटका छौंडा (लड़का) भी हमें छोड़ एक पल को नही रहता.इसको किसके आसरे छोड़ कर कहीं बहार निकलें....अब आप ही मालिक हैं,सोचकर जैसा आदेस करेंगे, हम करेंगे."

कहने को तो कह गई इतना कुछ पर भय से उसका पूरा देह हरहरा रहा था और अपनी बेबसी भी करेजा छीले जा रही थी॥चौधरी साहब के लिए भी पहली बार था कि बुल्कीवाली ने उनकी बात काटी थी।यूँ भी एक औरत और वो भी रारिन उनकी बात काटे,यह बहुत भारी बात थी.आस पास खड़े लोग भी दंग रह गए थे.मालिक बुरी तरह लहर उठे.पर न जाने कैसे उन्होंने धैर्य धर लिया .....पर चेहरा एकदम कठोर हो गया और कड़कती आवाज में उन्होंने फ़ैसला सुना दिया....उन्होंने कहा...."हम तुमसे तुम्हारा राय नही मांगे हैं, अनुराधा बिटिया को जरूरत है और तुझे वहां जाना है बस....बड़का को बुला कर सब जिम्मा कर दे ,उसको कोई जरूरत होगी तो हम यहाँ देख लेंगे.....हाँ,छोटका को तू अपने साथ ले जा सकती है.....ज्यादा बकथोथर(मुंह लगना) न कर ,तैयारी कर ले, चार दिन बाद भीमा तुझे लेकर निकल जाएगा.सब कुसल मंगल हो जाए तो लौट आना,कोई नही रोकेगा तुझे..जचगी नजदीक होगी तो मैं और मलिकाइन भी वहां आयेंगे."

अब कुछ कहने सुनने को कहाँ कुछ बचा था।मचल रहे आंसुओं को घोंटते हुए मालिक को प्रणाम कर चुपचाप घर की ओर चल दी.ज़माने में अमीर का दुःख अमीर का सुख सब बड़ा होता है,गरीब का कुछ भी अपना नही.जब अपना जीवन ही अपना नही तो फ़िर और क्या कहे.हर साँस पर मालिक का कब्जा है.किस के क्या कहे.कौन समझेगा कि दरिद्र है तो क्या हुआ, छोटी ही सही पर,उसकी भी तो अपनी गृहस्थी है.उसके खेत उसकी पूंजी जायदाद है॥इसबार कमर कसकर उसने पास के खेत में तरकारी लगायी..खाद ,पटवन और देख रेख में पौधे लहलहा उठे. फूल बतिया ( छोटे फल) से लद गए थे.उसे उम्मीद थी कि इसबार वह इतना कमा लेगी कि अपनी जार जार चूती फूस की छत को बदलवाते हुए अपनी पुतोहु (बहू) के किए एक कच्ची कोठरी और जरूर बना लेगी. नही तो सास पुतोहू बेटा सब एके कोठरी में सोयें ,यह थोड़े न अच्छा लगता है.किस्मत ने साथ दिया तो इतना कमा लेगी कि दो रोटी के लिए बड़का को घर से दूर भठ्ठा पर जाकर न मरना खपना पड़े.पर इस गरीब के सपनो की कौन फिकर करे..पर सबसे बड़ी दुःख की बात ये कि ये भैंसें उसकी अपनी सगी बेटी से भी बढ़कर हैं,हमेशा से.अपनी कोठरी की छत भले चूती रहे पर भैंसों का छप्पर चूने की हालत में कभी न पहुँचने देती थी वो. .वे जानवर नही उसका अपना परिवार थे.सारे बच्चे उसके हाथ ही जन्मे थे और उसके हाथ का स्पर्श पा वे भैंसे अपना जनने का दुःख भी भूल जाती थीं.आज उनको टूअर (बेसहारा)छोड़कर जाने की सोच उसका कलेजा फटा जा रहा था..उनका सुख दुःख छोटका बड़का के सुख दुःख से छोटा नही था उसके लिए.

बम्बई पहुंचकर अपनी आदत के मुताबिक बुल्कीवाली जुट गई अपने काम में।काम करने में तो भूत वह हमेशा से रही थी॥गाँव में ही जब तीन जनों का काम वह अकेले कर लेती थी तो फ़िर यह शहर का काम उसके लिए कुछ भी नही था.यूँ तो अनुराधा के पति महेश बाबू ऊँचे पद पर ऊँची तनखाह पाने वाले बड़े भारी अफसर थे, पर उस महानगर में मंहगाई और घरेलु नौकरों के अभाव के साथ साथ उनका जो रेट और उनके नखरे थे,बड़े बड़े अफसरों की अफसरी इसमे निकल जाती थी.किसीकी औकात नही थी कि गाँवों की तरह नौकरों की फौज रख सके. अनुराधा इस सब से हरदम ही क्षुब्ध रहती थी.एक साथ मेहनती ,इमानदार और सस्ता नौकर पाना यहाँ असंभव था.यहाँ तो घंटे और गिनती के हिसाब से कामवालियों का रेट था.एक एक दाइयां पाँच पाँच , छः छः घरों में काम करती थी और अगर दिन रात चौबीस घंटे के लिए काम पर रखना हो तो चार पाँच घरों का पैसा एकसाथ जोड़कर चुकाना पड़ता था.तिसपर भी पीछे लगे रहो तो काम करें नही तो फांकी मार दें. लेकिन बेगार में आई बुल्कीवाली ने अनुराधा को ऐसे निश्चिंत कर दिया था कि इस महानगर में भी अनुराधा महारानी बन गई थी.मुंह खोलने से पहले हर काम हो जाता और किसको किस समय क्या चाहिए इसके लिए दुबारा उसे बताना चरियाना नही पड़ता था.अनुराधा तो बिस्तर से उतरना ही भूलने लगी.चूल्हा चौका ,सफाई, बर्तन से लेकर बच्चों की देखभाल और अनुराधा तथा बच्चों का तेलकुर(मालिश),सब ऐसे निपट जाता कि लगता किसी जिन्न ने आकर सबकुछ निपटा दिया हो.

शुभ शुभ करके ,अनुराधा बेटी की जचगी हो गई।इस बार घर में लछमी आई थीं. परिवार पूरा हो गया था.दो बेटे पर से एक बेटी॥छठ्ठी का खूब बड़ा आयोजन हुआ.गाँव से मालिक लोग भी आए थे.बुल्कीवाली को एक जोड़ा नया झक झक सफ़ेद साड़ी मिला और छोटका को भी नया बुसट पैंट. वैसे यहाँ आते ही छोटका और बुल्कीवाली दोनों को अनुराधा ने अपने तथा बच्चों के उतरन (पुराने कपड़े) से मालामाल कर दिया था.

बुल्कीवाली का मन ध्यान भले अपने बेटे और गाँव में छोड़ आए गृहस्थी में अटका रहता था,पर छोटका का मन यहाँ खूब रम गया था। गाँव में जहाँ हर तरह का अभाव था,बड़े जात वालों के छोटे या बड़े सभी बच्चे उसे बिना बात मारना और राड़ (छोटी जाति वाला) कहकर गरियाना अपना जन्मसिद्ध अधिकार मानते थे तथा उसका रोना अपने मनोरंजन का साधन मानते थे,कभी अपने साथ खेलने नही देते थे,वहीँ यहाँ दोनों बच्चे स्कूल और पढ़ाई के बाद उसीके साथ तो खेलते थे.फ़िर जब वो घर पर न हों तो माँ के कहे कुछ टहल टिकोरा निपटा वह सारा समय उस अनोखे रेडियो को देखता रहता था,जिसमे गाने नाचने वाले साक्षात् दिखते भी थे.मालिक ने ठीक ही कहा था,यहाँ आकर उसका गदहा जनम छूट गया था.....वह हमेशा सोचा करता कि गाँव जाकर सबसे बताएगा कि यहाँ उसने क्या क्या देखा ,सब एक दम भौंचक रह जायेंगे.साफ़ सुथरा चम् चम् चमकता घर ,दिन भर भक भक जलता बिजली बत्ती,बस एक बार टीपा नही कि फट से लाईट जल जाए, पंखा चल जाए.पानी निकालने के लिए कुँआ या चापाकल की कोई कसरत नही,बस टोंटी घुमाई नही कि धार वाला पानी झमाझम गिरने लगे॥जो खाना बड़े बड़े भोज में कभी कभार मिलता था वह यहाँ रोज खाने को मिले.कितने सुंदर सुंदर खिलौने थे,सुंदर सुंदर चित्रों वाला किताब था.दोनों बच्चों ने उसे चित्रों वाली किताब देकर कहानियाँ भी बताई थीं.कितना आनंद था यहाँ. दोनों बच्चे भी छोटका का साथ पाकर बहुत ही खुश थे. उन्हें घर में ही साथी के साथ एक ऐसा टहलू मिल गया था,जिसे जब जो आदेश दो, खुशी खुशी फौरन पूरा कर देता था,चाहे खेलते समय या अपने किसी काम के लिए...

(शेष अगले अंक में...)