22.6.11

पूर्णाहुति ...

तो क्या हुआ यदि पांचवीं में तीन साल फेल होने के बाद, फिर कभी फिरकर उसने विद्यालय का मुंह नहीं देखा था. व्यक्ति और परिस्थतियों को नियंत्रित करने की उसकी जो क्षमता थी,वह कोई शिक्षण संस्थान किसी को नहीं सिखाता... दुनियादारी के गुर किताबें सिखा भी कहाँ पाती हैं , बल्कि किताबों में जो होते हैं, उन निति सिद्धांतों पर आँख कान दिए सरपट चले आदमी, तो अपना बेडा ही गर्क न करा ले..

अपनी जन्मदायिनी अथाह लगाव था उसे. अन्धानुगामिनी थी वह उसकी. यहाँ तक कि उसके पिता अपनी पत्नी के जिन दुर्गुणों से त्रस्त और क्षुब्ध रहते थे, वे समस्त गुण उसे खासे जीवनोपयोगी लगते थे..पिता का क्षोभ उसे असह्य था..और फिर एक दिन जब विवेकहीना माता ने नितांत महत्वहीन बात पर क्रोधावेग में अपने शरीर को अग्नि में विसर्जित कर दिया , इस दुर्घटना का पूर्ण दोषी भी उसने अपने जनक को ही ठहराया. फांसी के फंदे तक उन्हें पहुंचा छोड़ने को वह प्रतिबद्ध हो उठी..वो तो नाते रिश्तेदारों ने मिलकर किसी प्रकार स्थिति को सम्हाला और माता के साथ साथ पिता से भी वंचित होने से उन चारों बहनों को बचाया था..

तात्कालिक क्षोभ का ज्वार जब उसका उतरा तो बारह वर्षीय उस बाला ने पूरे सूझ बूझ के साथ अपने घाटे भले का भली प्रकार अंकन किया और इस दुर्घटना में भी अपने लिए सुनहरा अवसर ही पाया..सुविधानुसार जीवन भर वह इसे भुनाती रही..उसने कभी भी अपने पिता को विस्मृत नहीं करने दिया कि वह एक पत्नी हन्ता पापी है..स्वयं को पीड़ित व्यथित और पिता को हीन ठहरा उसने अपने लिए हर किसी का ध्यान और अपार महत्त्व अर्जित किया..जब जो वह चाहती घर में सब उसीके अनुसार होता..

चलता तो यह जीवन भर रहता ,पर उसके मार्ग में पहाड़ सी अवरोधक बनी उसकी विमाता..अपने भर उसने पूरा प्रयत्न किया कि पिता के जीवन में सुख की क्षीण ऊष्मा न पहुंचे , परन्तु सम्पूर्ण यत्न कर भी इस विवाह को वह रोक न पायी..हालाँकि पिता भी सहज भाव से इस विवाह हेतु प्रस्तुत न हुए थे, पर परिवार समाज वालों का दवाब और चार चार नन्ही बच्चियों के लालन पालन और भविष्य की चिंता ने उनके लिए दूसरा कोई मार्ग नहीं छोड़ा था..

अपने पिता के द्वितीय विवाह को उसने अपने पराजय और चुनौती रूप में स्वीकारा था. इस पीड़ा को सदा उसने ह्रदय में जगाये रखा और प्रतिशोधस्वरूप जीवन भर अपने पिता को न तो अपनी दूसरी पत्नी के गुणों को देखने परखने का अवसर दिया और न ही उन्हें इस अपराध बोध से मुक्त होने दिया कि विमाता ला, उन्होंने अपनी पुत्रियों पर कितना बड़ा अत्याचार किया है..अपने चतुर युक्तियों से घटनाओं को संचालित करती शांति प्रेम सद्भाव को कभी उसने अपने घर की चौखट लांघ अन्दर आने न दिया..मानसिक संताप और अशांति तले अहर्निश कुचले जाते पिता को असमय ही कालकलवित होते देख भी उसका ह्रदय न पसीजा था..

तीनो बहनों को भी वह इस प्रकार नियंत्रित करती थी कि जब कभी भी उनका मन अपनी विमाता के ममत्व पर पिघलने को होता था, पल में उस आवेग को अपने समझाइश की झाडू से बुहार वह उनके मन के घृणा के पौध को लहलहा देती थी.. चारों के मन से वितृष्णा निकालने के उपक्रम में विमाता ने क्या न किया. इनका घर बसाने को उन्होंने अपने देह के गहने चुन चुन कर हटा दिए, आधे से अधिक खेत बारी निपटा दिए ,पर फिर भी वह इनके मन में अपने लिए छोटा सा एक कोना नहीं निकाल पाई...

और एक दिन जैसे ही उसे पता चला कि जिस देश में वह रह रही है,वहां के संविधान ने उसे यह अधिकार दिया है कि वह पिता की संपत्ति के टुकड़े कर अपना हिस्सा उगाह सकती है, अपनी बहनों को समझा बुझा फुसला कर वह मायके लेती गयी और अब तक की बची खुची संपत्ति के पांच भाग करा, अपने हिस्से के घर घरारी और खेत बारी बेच, अपने उस सौतेले भाई को उस स्थिति में पहुंचा दिया जिसमे कि वह अपने जनम को कोसता.. परिवार नातेदार और गाँव घर वाले सब उसके खिलाफ एकजुट होकर लड़े थे यह लड़ाई, पर विजय उसे ही मिली ,क्योंकि देश का कानून उसके साथ था.

दुहरी जीत हुई थी उसकी .एक तरफ जहाँ उसने अपने बाल बच्चों के सुखद भविष्य हेतु इतना सारा धन संचित कर लिया था ,वहीँ लगे हाथों विमाता को भी वह आघात दिया था जिससे उबर कर अपने प्राण बचा पाना उसके लिए संभव न था.. जिस विमाता को उसने जीवन भर समस्त समस्याओं का जड़ माना, बिना कोई अस्त्र शस्त्र चलाये उसके प्राण लेने में वह सफल हो गई थी.वर्षों संघर्ष के उपरांत उसके अवसान से उसके प्रतिशोध को पूर्णाहुति मिली थी..

पर कलपते हुए अंतिम हिचकी के साथ विमाता भी ईश्वर से एक विनती कर गयी थी-

"हे ईश्वर !!! इन बच्चियों का घर, बाल बच्चों और धन धान्य से सदा पूर्ण रखना और कभी न कभी इन्ही के द्वारा न्याय अवश्य करना .."



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1.6.11

प्रेम पत्र....

अपार उर्जा उत्साह उस्तुकता आशाओं आकांक्षाओं और स्वर्णिम भविष्य के संजोये स्वपनों से भरा किशोर वय जब पहली बार उस देहरी को लांघता है जिसके बाद उसकी वयस्कता को सामाजिक मान्यता मिलती है,उसे समझदार और समर्थ माना जाने लगता है,बात बात पर बच्चा ठहराने के स्थान पर अचानक हर कोई उसे, अब तुम बच्चे हो क्या ?? कहने लगते हैं, तो वह नव तरुण हर उस विषय को जान लेने को उत्कंठित हो उठता है, जिसतक आजतक उसकी पहुँच नहीं थी...यह रोमांचक देहरी होती है महाविद्यालय की देहरी..

बुद्धि चाहे जितनी विकसित हुई हो तब तक, पर एक तो बचपने के तमगे से मुक्ति की छटपटाहट और दूसरे बारम्बार अपने लिए बच्चे नहीं रह जाने की उद्घोषणा उस वय को स्वयं को परिपक्व युवा साबित करने को प्रतिबद्ध कर देती है. और फिर इस क्रम में जो प्रथम प्रयास होता है,वह होता है प्रेम व्रेम, स्त्री पुरुष सम्बन्ध आदि उन विषयों का अधिकाधिक ज्ञान प्राप्ति का प्रयास जो आज तक नितांत वर्ज्य प्रतिबंधित घोषित कर रखा गया था इनके लिए... पर विडंबना देखिये, उक्त तथाकथित बड़े से बड़ा और समझदार होने की अपेक्षा तो सब करते हैं, पर उसके आस पास के सभी बड़े इस चेष्टा में अपनी समस्त उर्जा झोंके रहते हैं कि इस गोपनीय विषय तक उनके बच्चों की पहुँच किसी भांति न हो पाए . यह अनभिज्ञता उनके गृहस्थ जीवन तक इसी प्रकार बनी रहे, इसके लिए उससे हर बड़े ,हर प्रयत्न और प्रबंध किये रहते हैं...

समय के साथ जैसे जैसे समाज में खुलापन आता गया है, टी वी सिनेमा इंटरनेट आदि माध्यमों ने इस प्रकार से सबकुछ सबके लिए सुलभ कराया है, कि जो और जितना ज्ञान हमारे ज़माने के बच्चों को बीस बाइस या पच्चीस में प्राप्त होता था, बारह ग्यारह दस नौ करते अब तो सात आठ वर्ष के बच्चों को सहज ही उतना प्राप्त हो जाता है..आज मनोरंजन के ये असंख्य साधन बच्चों को जल्द से जल्द वयस्क बन जाने और अपनी वयस्कता सिद्ध करने को प्रतिपल उत्प्रेरित प्रतिबद्ध करते रहते हैं..

खैर, बात हमारे ज़माने की..एकल परिवार के बच्चे हम सिनेमा और कुछेक कथा कहानी उपन्यासों को छोड़ प्रणय सम्बन्ध और प्रेम पत्र ,रोमांटिसिज्म प्रत्यक्षतः देख सीख जान पाने के अवसर कहीं पाते न थे. घर में जबतक रहे, जिम्मेदारियों के समय " इतने बड़े हो गए, इतना भी नहीं बुझाता " और इन वयस्क विषयों के समय निरे बच्चे ठहरा दिए जाते थे..सिनेमा काफी छानबीन के बाद दिखाया जाता था,जिसमे ऐसे वैसे किसी दृश्य की कोई संभावना नहीं बचती थी और विवाह से ढेढ़ साल पहले जब घर में टी वी आया भी तो दूरदर्शन पर दिखाए जा रहे किसी सिनेमा में जैसे ही किसी ऐसे वैसे दृश्य की संभावना बनती , हमें पानी लाने या किसी अन्य काम के बहाने वहां से भगा दिया जाता था..जानने को उत्सुक हमारा मन, बस कसमसाकर रह जाता था..

उधर जब बी ए में छात्रावास गए भी तो वह तिहाड़ जेल को भी फेल करने वाला था..बड़े बड़े पेड़ों से घिरे जंगलों के विशाल आहाते में एक चौथाई में छात्रावास था और बाकी में कॉलेज. चारों ओर की बाउंड्री बीस पच्चीस फीट ऊँची, जिसपर कांच कीले लगी हुईं. छात्रावास और कॉलेज कम्पाउंड के बीच ऊंचा कंटीले झाड़ों वाला दुर्गम दीवार और कॉलेज कैम्पस में खुलने वाला एक बड़ा सा गेट जो कॉलेज आवर ख़त्म होते ही बंद हो जाता था..ग्रिल पर जब शाम को हम लटकते तो लगता कि किसी जघन्य अपराध की सजा काटने आये हम जेल में बंद अपराधी हैं..जबतक हमसे दो सीनियर बैच परीक्षा दे वहां से निकले नहीं और हम सिनियरत्व को प्राप्त न हुए यह जेल वाली फिलिंग कुछ कम होती बरकरार ही रही..लेकिन हाँ,यह था कि समय के साथ जैसे जैसे सहपाठियों संग आत्मीयता बढ़ती गई, ढहती औपचारिकता की दीवार के बीच से इस विषय पर भी खुलकर बातें होने लगीं और अधकचरी ही सही,पर ठीक ठाक ज्ञानवर्धन हुआ हमारा...

अब संस्कार का बंधन कहिये या अपने सम्मान के प्रति अतिशय जागरूकता, कि विषय ज्ञानवर्धन की अभिलाषा के अतिरिक्त व्यवहारिक रूप में यह सब आजमा कर देखने की उत्सुकता हमारे ग्रुप में किसी को नहीं थी..बल्कि पढ़ाई लिखाई को थोडा सा साइड कर मेरी अगुआई में हमारा एक छोटा सा ग्रुप तो इस अभियान में अधिक रहता था कि हमारे सहपाठियों से लेकर जूनियर मोस्ट बैचों तक में इस तरह के किसी लफड़े में फंस किसी ने कुछ ऐसा तो न किया जिससे हमारे छात्रावास तथा उन विद्यार्थियों के अभिभावकों का नाम खराब होने की सम्भावना बनती हो ..आज के बजरंग दल, शिव सैनिक या इसी तरह के संस्कृति रक्षक संगठन वेलेंटाइन डे पर प्रेमियों के खिलाफ जैसे अभियान चलाते हैं, उससे कुछ ही कमतर हमारे हुआ करते थे..यही कारण था कि छात्रावास प्रबंधन के हम मुंहलगे और प्रिय थे.

तो एक दिन इसी मुंहलगेपन का फायदा उठाते हुए हमने कमरा शिफ्ट करती,करवाती परेशान हाल अपनी छात्रावास संरक्षिका से पेशकश की कि हम उनकी मदद कर के ही रहेंगे..बाकी कर्मचारी इस काम में लगे हुए थे, हमारी कोई आवश्यकता इसमें थी नहीं, पर फिर भी हम जी जान से लग गयीं कि यह अवसर हमें मिले और अंततः मैं और मेरी रूम मेट सविता ने उन्हें इसके लिए मना ही लिया... असल में हमारे छात्रावास से जाने और आने वाले दोनों ही डाक (चिट्ठियां) पहले छात्रावास की मुख्य तथा उप संरक्षिका द्वारा पढ़ी जातीं थीं, उसके बाद ही पोस्ट होती थी या छात्रों में वितरित होती थी. यहाँ से जाने वाले डाक में तो कोई बात नहीं थी..कौन जानबूझकर ऐसी सामग्रियां उनके पढने को मुहैया करवाता,पर आने वाले डाकों पर इन कारगुजारियों में लिप्त लड़कियां पूर्ण नियंत्रण नहीं रख पातीं थीं..छात्रावास का पता इतना सरल था कि यदि कोई विद्यार्थी का नाम और पढ़ाई का वर्ष जान लेता तो आँख मूंदकर चिट्ठी भेज सकता था..और जो ऐसी चिट्ठी आ जाती,तो जो सीन बनता था..बस क्या कहा जाय..यूँ सीन बनकर भी ये चिट्ठियां कभी उन्हें मिलती न थी जिसके लिए होती थी,बल्कि ये सब प्रबंधिका के गिरफ्त में ऑन रिकोर्ड रहती थीं...

इस सहायता बनाम खोजी अभियान में जुटे  छोटे मोटे सामान इधर से उधर पहुँचाने के क्रम में हमने वह भण्डार खोज ही लिया..शाल के अन्दर छुपा जितना हम वहां से उड़ा सकते थे, उड़ा लाये. और फिर तो क्या था, प्रेम पत्रों का वह भण्डार कई महीनों तक हमारे मनोरंजन का अन्यतम साधन बना रहा था.प्रत्यक्ष रूप में मैंने पहली बार प्रेम पत्र पढ़े.वो भी इतने सारे एक से बढ़कर एक..

एक पत्र का कुछ हिस्सा तो आज भी ध्यान में है...


" मेरी प्यारी स्वीट स्वीट कमला,

(इसके बाद लाल स्याही से एक बड़ा सा दिल बना हुआ था,जिसमे जबरदस्त ढंग से तीर घुसा हुआ था..खून के छींटे इधर उधर बिखरे पड़े थे और हर बूँद में कमला कमला लिखा हुआ था)
ढेर सारा किस "यहाँ ".."यहाँ".. "यहाँ"..." यहाँ "....
(उफ़ !!! अब क्या बताएं कि कहाँ कहाँ )
......

तुम क्यों मुझसे इतना गुस्सा हो..दो बार से आ रही हो, न मिलती हो, न बात करती ही,ऐसे ही चली जाती हो..अपने दूकान में बैठा दिन रात मैं तुम्हारे घर की तरफ टकटकी लगाये रहता हूँ कि अब तुम कुछ इशारा करोगी,अब करोगी..पर तुमने इधर देखना भी छोड़ दिया है..क्या हुआ हमारे प्यार के कसमे वादे को? तुम इतनी निष्ठुर कैसे हो गयी कमला..?

( काफी लंबा चौड़ा पत्र था.. अभी पूरा तो याद नहीं, पर कुछ लाजवाब लाइने जो आज भी नहीं झरीं हैं दिमाग से वे हैं -)


देखो तुम इतना तेज सायकिल मत चलाया करो..पिछला बार जब इतना फास्ट सायकिल चलाते मेरे दूकान के सामने से निकली ,घबराहट में दो किलो वाला बटखरा मेरे हाथ से छूट गया और सीधे बगल में बैठे पिताजी के पैर पर गिरा..पैर थुराया सो थुराया..तुम्हे पता है सबके सामने मेरी कितनी कुटाई हुई..सब गाहक हंस रहा था..मेरा बहुत बुरा बेइजत्ती हो गया...लेकिन कोई गम नहीं ...जानेमन तुम्हारे लिए मैं कुछ भी सह सकता हूँ...


और तुम आम गाछ पर इतना ऊपर काहे चढ़ जाती हो....उसदिन तुम इतना ऊंचा चढ़ गयी थी, तुम्हारी चिंता में डूबे मैंने गाहक के दस के नोट को सौ का समझकर सौदा और अस्सी रुपये दे दिया ..वह हरामी भी माल पैसा लेकर तुरंत चम्पत हो गया..लेकिन तुम सोच नहीं सकती पिताजी ने मेरा क्या किया...प्लीज तुम ऐसा मत किया करो..

बसंत अच्छा लड़का नहीं है.कई लड़कियों के साथ उसका सेटिंग है...तुम्हारे बारे में भी वह गन्दा गन्दा बात करता है, तुम मिलो तो तुमको सब बात बताएँगे...तुमको पहले भी तो मैं बताया हूँ फिर भी तुम उससे मिलती हो,हंस हंस के बात करती हो..क्यों करती हो तुम ऐसा...वह तुम्हे पैसा दे सकता है,बहुत है उसके पास..पर प्यार मैं तुम्हे दूंगा..
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यह कमला कौन थी और उसकी निष्ठुरता का कारण क्या था,यह जानने की उत्सुकता हमारी वर्षों बरकरार रही...

* * *
देह दशा में हमसे बस बीस ही थी श्यामा ( हमारा किया नामकरण ) ,पर उसकी शारीरिक क्षमता हमसे चौगुनी थी..जब कभी हम बाज़ार जाते और सामान का वजन ऐसा हो जाता कि लगता अब इज्जत का विचार त्याग उसे सर पर उठा ही लेना पड़ेगा, श्यामा संकट मोचन महाबलशाली हनुमान बन हमारा सारा भार और संकट हर लेती..या फिर जब महीने दो महीने में कभी छात्रावास का पम्प खराब हो जाने की वजह से पहले माले तक के हमारे बाथरूम में समय पर पानी न पहुँच पाता और कम्पाउंड के चापाकल से पानी भर बाथरूम तक पानी ले जाने की नौबत बनती ,जहाँ मैं और सविता मिल एक बाल्टी पानी में से आधा छलकाते और पंद्रह बार रखते उठाते कूँख कांखकर आधे घंटे में पानी ऊपर ले जाते थे,श्यामा हमारे जम्बोजेट बाल्टियों में पूरा पानी भर दोनों हाथों में दो बाल्टी थाम, एक सांस में ऊपर पहुंचा देती थी.चाहे शारीरिक बल का काम हो या उन्घाये दोपहर में क्लास अटेंड कर हमारे फेक अटेंडेंस बना हमारे लिए भी सब नोट कर ले आने की बात , सरल सीधी हमारी वह प्यारी सहेली हमेशा मुस्कुराते हुए प्रस्तुत रहती थी..असीमित अहसान थे उसके हमपर..हम हमेशा सोचा करते कि कोई तो मौका मिले जो उसके अहसानों का कुछ अंश हम उतार पायें...

ईश्वर की कृपा कि अंततः एक दिन हमें मौका मिल ही गया..कुछ ही महीने रह गए थे फायनल को, फिर भी दोपहर की क्लास बंक कर हम होस्टल में सो रहे थे और सदा कि भांति श्यामा पिछली बैंच पर बैठ हमारा अटेंडेस देने और नोट्स लाने को जा चुकी थी..गहरी नींद में पहुंचे अभी कुछ ही देर हुआ था कि हमें जोर जोर से झकझोरा गया..घबरा कर अचकचाए क्या हुआ क्या हुआ कह धड़कते दिल से हम उठ बैठे..देखा श्यामा पसीने से तर बतर उखड़ी साँसों से बैठी हुई है.. पानी वानी पीकर जब वह थोड़ी सामान्य हुई तो पता चला कि आज बस भगवान् ने खड़ा होकर उसकी और हमारे पूरे ग्रुप की इज्जत बचाई है..

हुआ यूँ कि जब वह क्लास करने जा रही थी, गेट से निकली ही थी कि छात्रावास की डाक लेकर आ रहा डाकिया पता नहीं कैसे उससे कुछ दूरी पर गिर गया और उसका झोला पलट गया..श्यामा उसकी मदद करने गयी और बिखरी हुई चिट्ठियां बटोर ही रही थी कि उसकी नजर एक सबसे अलग ,सबसे सुन्दर लिफ़ाफ़े पर पडी जिसपर कि उसीका नाम लिखा हुआ था..डाकिये को किसी तरह चकमा दे उसने अपना वह पत्र पार किया था और जो बाद में खोला तो देखा उसके नाम प्रेम पत्र था.

उसकी बात सुन पल भर को थरथरा तो हम भी गए..पर फिर उसे ढ़ाढस बंधा हमने इसकी तफ्शीस शुरू की..पता चला कि यह युवक श्यामा से कुछ महीने पहले किसी रिश्तेदार की शादी में मिला था और उससे इतना अधिक प्रभावित हुआ था कि उसने श्यामा के घर विवाह का प्रस्ताव भेजा था..श्यामा के समाज में रिश्ते लड़कीवाले नहीं लड़केवाले मांगने आते थे और जैसे नखरे हमारे समाज में लड़केवालों के हुआ करते हैं,वैसे इनके यहाँ लड़कीवालों के हुआ करते थे.. चूँकि इनके समाज में उन दिनों पढी लिखी लड़कियों की बहुलता थी नहीं, तो श्यामा जैसी लड़कियों का भारी डिमांड था. थे तो वे एक ही बिरादरी के और लड़का काफी पढ़ा लिखा और अच्छे ओहदे पर था, पर शायद कुछ पारिवारिक कारण रहे होंगे जो श्यामा के परिवार को यह रिश्ता स्वीकार्य नहीं था..

खैर, हम तो हिस्ट्री ज्योग्राफी जान जुट गए प्रेम पत्र पढने में..लेकिन जो पढना शुरू किया तो दिमाग खराब हो गया..छः सात लाइन पढ़ते पढ़ते खीझ उठे हम..

" ई साला शेक्सपीयर का औलाद, कैसा हार्ड हार्ड अंगरेजी लिखा है रे...चल रे, सबितिया जरा डिक्सनरी निकाल,ऐसे नहीं बुझाएगा सब ..." और डिक्सनरी में अर्थ ढूंढ ढूंढ कर पत्र को पढ़ा गया..एक से एक फ्रेज और कोटेशन से भरा लाजवाब साहित्यिक प्रेम पत्र था... पत्र समाप्त हुआ तबतक हम तीनो जबरदस्त ढंग से युवक के सोच और व्यक्तित्व से प्रभावित हो चुके थे..

गंभीर विमर्श के बाद  हमने श्यामा को सुझाव दिया कि पढ़े लिखे सेटल्ड सुलझे हुए विचारों वाले ऐसे लड़के और रिश्ते को ऐसे ही नहीं नकार देना चाहिए...न ही जल्दीबाजी में हां करना चाहिए न ही न.. कुछ दिन चिट्ठियों का सिलसिला चला, उसके सोच विचार के परतों को उघाड़ कर देख लेना चाहिए और तब निर्णय लेना चाहिए.ठीक लगे तो माँ बाप को समझाने का प्रयास करना चाहिए.और जो वे न माने तो प्रेम विवाह यूँ भी उनके समाज में सामान्य बात है.. नौबत आई तो यहाँ तक बढा जा सकता है..

तो निर्णय हुआ कि इस पत्र का जवाब दिया ही जाय..लेकिन समस्या थी, कि जैसा पत्र आया था,उसके स्तर का जवाब, जिससे श्यामा की भी धाक जम जाए, लिखे तो लिखे कौन..श्यामा तो साफ़ थी, क्या अंगरेजी और क्या साहित्यिक रूमानियत.. सविता की अंगरेजी अच्छी थी, तो हम पिल पड़े उसपर ...खीझ पड़ी वह-
" अबे, अंगरेजी आने से क्या होता है, लिखूं क्या, हिस्ट्री पोलिटिकल साइंस " ...

बात तो थी...सब पहलुओं पर विचार कर यह ठहरा कि साहित्यिक स्तर का प्रेम पत्र अगर कोई लिख सकता है तो वह मैं ही हूँ..पर मेरी शर्त थी कि मैं लिखूंगी तो हिन्दी में लिखूंगी..तो बात ठहरी पत्र हिन्दी में मैं लिखूंगी, सविता उसका इंग्लिश ट्रांसलेशन करेगी और फिर श्यामा उसे अपने अक्षर में फायनल पेपर पर उतारेगी.. इसके बाद अभियान चला लेटर पैड मंगवाने का , क्योंकि अनुमानित किया गया था कि जिस पेपर और लिफ़ाफ़े में पत्र आया है एक कम से कम बीस पच्चीस रुपये का तो होगा ही होगा ,तो जवाब में कम से कम दस का तो जाना ही चाहिए..

और जीवन में पहली बार (आगे भी कुछ और) मैंने जो प्रेम पत्र लिखा, अपनी उस सहेली के लिए लिखा, जबकि उस समय तक मेरा कट्टर विश्वास था कि मुझे कभी किसी से प्रेम हो ही नहीं सकता,यदि मेरा वश चले तो जीवन भर किसी पुरुष को अपने जीवन और भावक्षेत्र में फटकने न दूं, क्योंकि पुरुष, पिता भाई चाचा मामा इत्यादि इत्यादि रिश्तों में रहते ही ठीक रहते हैं, स्त्री का सम्मान करते हैं,एक बार पति बने नहीं कि स्त्री स्वाभिमान को रौंदकर ही अपना होना सार्थक संतोषप्रद मानते हैं...

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(स्मृति कोष से- )
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