22.6.11

पूर्णाहुति ...

तो क्या हुआ यदि पांचवीं में तीन साल फेल होने के बाद, फिर कभी फिरकर उसने विद्यालय का मुंह नहीं देखा था. व्यक्ति और परिस्थतियों को नियंत्रित करने की उसकी जो क्षमता थी,वह कोई शिक्षण संस्थान किसी को नहीं सिखाता... दुनियादारी के गुर किताबें सिखा भी कहाँ पाती हैं , बल्कि किताबों में जो होते हैं, उन निति सिद्धांतों पर आँख कान दिए सरपट चले आदमी, तो अपना बेडा ही गर्क न करा ले..

अपनी जन्मदायिनी अथाह लगाव था उसे. अन्धानुगामिनी थी वह उसकी. यहाँ तक कि उसके पिता अपनी पत्नी के जिन दुर्गुणों से त्रस्त और क्षुब्ध रहते थे, वे समस्त गुण उसे खासे जीवनोपयोगी लगते थे..पिता का क्षोभ उसे असह्य था..और फिर एक दिन जब विवेकहीना माता ने नितांत महत्वहीन बात पर क्रोधावेग में अपने शरीर को अग्नि में विसर्जित कर दिया , इस दुर्घटना का पूर्ण दोषी भी उसने अपने जनक को ही ठहराया. फांसी के फंदे तक उन्हें पहुंचा छोड़ने को वह प्रतिबद्ध हो उठी..वो तो नाते रिश्तेदारों ने मिलकर किसी प्रकार स्थिति को सम्हाला और माता के साथ साथ पिता से भी वंचित होने से उन चारों बहनों को बचाया था..

तात्कालिक क्षोभ का ज्वार जब उसका उतरा तो बारह वर्षीय उस बाला ने पूरे सूझ बूझ के साथ अपने घाटे भले का भली प्रकार अंकन किया और इस दुर्घटना में भी अपने लिए सुनहरा अवसर ही पाया..सुविधानुसार जीवन भर वह इसे भुनाती रही..उसने कभी भी अपने पिता को विस्मृत नहीं करने दिया कि वह एक पत्नी हन्ता पापी है..स्वयं को पीड़ित व्यथित और पिता को हीन ठहरा उसने अपने लिए हर किसी का ध्यान और अपार महत्त्व अर्जित किया..जब जो वह चाहती घर में सब उसीके अनुसार होता..

चलता तो यह जीवन भर रहता ,पर उसके मार्ग में पहाड़ सी अवरोधक बनी उसकी विमाता..अपने भर उसने पूरा प्रयत्न किया कि पिता के जीवन में सुख की क्षीण ऊष्मा न पहुंचे , परन्तु सम्पूर्ण यत्न कर भी इस विवाह को वह रोक न पायी..हालाँकि पिता भी सहज भाव से इस विवाह हेतु प्रस्तुत न हुए थे, पर परिवार समाज वालों का दवाब और चार चार नन्ही बच्चियों के लालन पालन और भविष्य की चिंता ने उनके लिए दूसरा कोई मार्ग नहीं छोड़ा था..

अपने पिता के द्वितीय विवाह को उसने अपने पराजय और चुनौती रूप में स्वीकारा था. इस पीड़ा को सदा उसने ह्रदय में जगाये रखा और प्रतिशोधस्वरूप जीवन भर अपने पिता को न तो अपनी दूसरी पत्नी के गुणों को देखने परखने का अवसर दिया और न ही उन्हें इस अपराध बोध से मुक्त होने दिया कि विमाता ला, उन्होंने अपनी पुत्रियों पर कितना बड़ा अत्याचार किया है..अपने चतुर युक्तियों से घटनाओं को संचालित करती शांति प्रेम सद्भाव को कभी उसने अपने घर की चौखट लांघ अन्दर आने न दिया..मानसिक संताप और अशांति तले अहर्निश कुचले जाते पिता को असमय ही कालकलवित होते देख भी उसका ह्रदय न पसीजा था..

तीनो बहनों को भी वह इस प्रकार नियंत्रित करती थी कि जब कभी भी उनका मन अपनी विमाता के ममत्व पर पिघलने को होता था, पल में उस आवेग को अपने समझाइश की झाडू से बुहार वह उनके मन के घृणा के पौध को लहलहा देती थी.. चारों के मन से वितृष्णा निकालने के उपक्रम में विमाता ने क्या न किया. इनका घर बसाने को उन्होंने अपने देह के गहने चुन चुन कर हटा दिए, आधे से अधिक खेत बारी निपटा दिए ,पर फिर भी वह इनके मन में अपने लिए छोटा सा एक कोना नहीं निकाल पाई...

और एक दिन जैसे ही उसे पता चला कि जिस देश में वह रह रही है,वहां के संविधान ने उसे यह अधिकार दिया है कि वह पिता की संपत्ति के टुकड़े कर अपना हिस्सा उगाह सकती है, अपनी बहनों को समझा बुझा फुसला कर वह मायके लेती गयी और अब तक की बची खुची संपत्ति के पांच भाग करा, अपने हिस्से के घर घरारी और खेत बारी बेच, अपने उस सौतेले भाई को उस स्थिति में पहुंचा दिया जिसमे कि वह अपने जनम को कोसता.. परिवार नातेदार और गाँव घर वाले सब उसके खिलाफ एकजुट होकर लड़े थे यह लड़ाई, पर विजय उसे ही मिली ,क्योंकि देश का कानून उसके साथ था.

दुहरी जीत हुई थी उसकी .एक तरफ जहाँ उसने अपने बाल बच्चों के सुखद भविष्य हेतु इतना सारा धन संचित कर लिया था ,वहीँ लगे हाथों विमाता को भी वह आघात दिया था जिससे उबर कर अपने प्राण बचा पाना उसके लिए संभव न था.. जिस विमाता को उसने जीवन भर समस्त समस्याओं का जड़ माना, बिना कोई अस्त्र शस्त्र चलाये उसके प्राण लेने में वह सफल हो गई थी.वर्षों संघर्ष के उपरांत उसके अवसान से उसके प्रतिशोध को पूर्णाहुति मिली थी..

पर कलपते हुए अंतिम हिचकी के साथ विमाता भी ईश्वर से एक विनती कर गयी थी-

"हे ईश्वर !!! इन बच्चियों का घर, बाल बच्चों और धन धान्य से सदा पूर्ण रखना और कभी न कभी इन्ही के द्वारा न्याय अवश्य करना .."



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44 comments:

shikha varshney said...

गहरी संवेदनाएं लिए हुए है कहानी.

रश्मि प्रभा... said...

bahut sahi kaha vimata ne ... usne saabit kiya mata kumata n bhawti

arvind said...

maarmik...samvedanshil rachna.

रंजू भाटिया said...

मार्मिक दिल को गहरे से छु जाने वाली कहानी है यह ...दिल भावुक हो उठा

Rajendra Swarnkar : राजेन्द्र स्वर्णकार said...

आदरणीया रंजना जी

सादर अभिवादन !

प्रतिशोध की पूर्णाहुति कहानी में बाल हृदय में घर कर चुकी स्वाभाविक घृणा के जीवन भर के लिए विराट व्यापक होते जाने के भाव बख़ूबी उभारे हैं आपने …

विमाता जब अंतिम समय में कहती है - "हे ईश्वर !!! इन बच्चियों का घर, बाल बच्चों और धन धान्य से सदा पूर्ण रखना और कभी न कभी इन्ही के द्वारा न्याय अवश्य करना .." तो साधारण पाठक के नाते किसका मन नहीं भर आता ?

… लेकिन , आपकी कहानी की नायिका !
ओह ! नारी की ऐसी हृदयहीनता से साक्षात् किसी को न हों …

आपकी लेखनी सदैव प्रभावित करती है … नमन !!

हार्दिक बधाई और शुभकामनाएं !
- राजेन्द्र स्वर्णकार

BrijmohanShrivastava said...

व्यक्ति और परिस्थिति को नियंत्रित करने की क्षमता/अन्धानुगामिनी/पत्नि हंता/ पहाड सी अवरोधक/चतुर युक्ति से घटनाओं को संचालित करना/संताप और अशान्ति के तले अहर्निश कुचले जाना /मन से वितृष्णा निकालना /अवसान से प्रतिरोध को पूर्णाहुति / बहुत अच्छे शब्दों और वाक्यांशों का प्रयोग किया गया है । भावनात्मक कहानी । शीर्षक बिल्कुल उपयुक्त

प्रवीण पाण्डेय said...

अन्याय के बीज न जाने कितने अन्याय के फलों को जन्म देते हैं, बीज को यथाशीघ्र व यथासंभव कुचला जाये।

सिद्धार्थ शंकर त्रिपाठी said...

बड़ी पुत्री की जो छवि आमतौर पर मन में उभरती है उसके उलट व्यवहार किया इस नायिका ने और विमाता भी वैसी नहीं निकली जैसा सोचा जाता है। नयी जमीन तोड़ती कहानी है। अद्‍भुत।

आपके शब्दों और वाक्य विन्यास को देखकर जयशंकर प्रसाद याद आते रहे जबतक हम ‘समझाइश’ जैसे समकालीन शब्द पर नहीं पहुँच गये। बाद मे ‘घर घरारी और खेत बारी’ से तो अपने ग्राम्य परिवेश की झलक भी पा गये :)

डॉ .अनुराग said...

नहीं जानता के ये रेखा चित्र है या काल्पनिक.....पर मैंने ऐसे कई वास्तविक चरित्र देखे है

ashish said...

विमाता का सुमाता होना जहाँ प्रचलित रुढ़िवादी विसंगतियों को किनारे कर गया वही पुत्री का येन केन अपने पिता और विमाता से प्रतिशोध लेने की प्रवृति दिल को चुभ गयी . आपकी कहानी पढ़कर मेरे आँखों के सामने एक सत्य कथा का चलचित्र घूम गया एक पुत्री द्वारा अपने परिवार की खुशियों की पूर्णाहूति

डॉ. मोनिका शर्मा said...

मन में गहरे सवाल उठाती कहानी..... घृणा के बीज से घृणा के ही भाव पनपते हैं.....

चला बिहारी ब्लॉगर बनने said...

इस कहानी के सम्वेदंशील पक्ष के अलावा जो साहित्यिक पक्ष है वो इस सम्वेदना को उभारने में बहुत सहयोगी साबित हुआ है.. वो है चुस्त शब्द सामर्थ्य और उचित प्रयोग!!
रंजू बहिन! मन गदगद हो गया पढकर!!

महेन्‍द्र वर्मा said...

विमाता में भी ममता होती है।
कहानी का अंत भावुक कर देने वाला है।
शब्दों की बनावट और बुनावट में नयापन है।

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' said...

बहुत सुन्दर और सशक्त प्रस्तुति!

सुरेन्द्र सिंह " झंझट " said...

ह्रदय स्पर्शी कथा...
अपनी माँ की मौत का ज़िम्मेदार बाल मन ने एक बार पिता को मान लिया तो यह विचार भी उम्र के साथ और दृढ होता गया ...
कहानी के अंत में.... मृत्युपूर्व विमाता की आखिरी इच्छा मन को द्रवित कर जाती है ...
बहुत सलीके और भावपूर्ण ढंगसे गढ़े गए आपके कहानी के पात्र ...........स्वाभाविक रूप से असल जिंदगी की घटना के लगते हैं |

Smart Indian said...

कितने सिरे हैं इस सुलगती डोर के। एक प्री-टीन जिसने स्कूल तो नहीं देखा परंतु माँ की आत्महत्या देखी हो, और उस शोक से उबरने का कोई स्वस्थ साधन कभी न पाया हो, उससे और आशा होती भी तो क्या। भाई और विमाता पर ध्यान जाता है तो कर्म-फल का सामान्य-स्वीकृत रूप अविश्वसनीय लगता है। कुल मिलाकर एक छोटी परंतु हृदयस्पर्शी कहानी!

Arvind Mishra said...

प्रेतिनी लीला

सुरेन्द्र "मुल्हिद" said...

khoobsoorat kahaani samvednaaon ke saath

निर्मला कपिला said...

बहुत मार्मिक कथा है समझ नही आ रहा कि इसमे दोश किसका है, निस्सन्देह विमाता का तो नही है-- लेकिन सदियों से इस रिश्ते के प्रती बीजे गये बीज न चाहते हुये भी प्रस्फुटित हो जाते हैं भले विमाता के दिल मे या बच्चों के दिल मे। इसी विषय पर मेरी एक लम्बी कहानी है उसे भी कभी पोस्ट करूँगी मगर उसमे अन्त सकारात्मक है।।। धन्यवाद।

Dr (Miss) Sharad Singh said...

मर्मस्पर्शी कहानी !
हार्दिक शुभकामनायें !

अरुण चन्द्र रॉय said...

काल्पनिक तो नहीं लगती यह कथा... हमारे बीच का ही दृश्य है... आपका रचना प्रवाह अच्छा है...

रविकर said...

ये क्या लिख दी|

ये कैसी रचना
मन
व्यथित हो गया ||

गाँव की घटना में खो गया ||

५ भाई और छ: बहिने हैं |

भाइयों का जीना दूभर

कर रक्खी है वही बहिन

जो है सबसे समर्थ --

फिर ऐसे कानून का क्या अर्थ |

पहले दहेज़ का विरोध--

फिर भी अच्छा भला खर्च एवं दहेज़ |

फिर

पिता की मृत्यु के बाद संपत्ति बटावें ||

सम्पत्ति विवाद की ऐसी घटनाएं बढ़ीं

तो निश्चय ही अनुपात और बिगड़ेगा ||

गाँव-गाँव में संघर्ष की स्थिति आएगी |

बात बिगड़ जाएगी ||



अभी भी कई जगह पर

कई घरों में

असहाय घर की बेटी

बड़े मजे से

अपने बच्चों का भविष्य संवार रही है,

अपने भाइयों के पास ||

rashmi ravija said...

बहुत ही मर्मस्पर्शी कहानी..

कभी-कभी तस्वीर का ये रुख भी देखने को मिलता है...जिस पर सहज ही मन विश्वास नहीं करता...पर सच तो सच है...

Gyan Dutt Pandey said...

आवेग, उन्माद और क्रोध को एक सीमा के बाद थाम कर व्यक्ति को पुनर्मूल्यांकन की दशा में आना चाहिये। यह लड़की वह जानती ही न थी।
और वह विजयिनी के रूप में दुनियां से नहीं जायेगी, यह मेरा मत है।

अग्निमन said...

bahut sundat

Pawan Kumar said...

रंजना जी

मार्मिक दिल को गहरे से छू जाने वाली कहानी पोस्ट करने का आभार !!!!

निवेदिता श्रीवास्तव said...

बेहद मार्मिक ......

दिगम्बर नासवा said...

हृदयस्पर्शी कहानी है ... पिता तो दोषी नज़र आते अहिं पर उसके अलावा .. किसी और को दोषी कहने का मन नहीं मानता ... जिस बाल मन ने अपनी माता के साथ इतना क्रूर अन्याय देखा हो वो सहज भी कैसे रह सकती है ... पर अंत में उसने अपने हित के लिए जो कुछ किया वो सहज घृणा नहीं थी ... कहीं न कहीं कुछ और भी था ...

सुज्ञ said...

हृदयद्रावक पूर्णाहूति!!

मार्मिक!! आभार आपका इस सुगठित कथा के लिए।

Manish Kumar said...

ऐसे भी लोग होते हैं !क्या कहें इस पर ...

Hari Shanker Rarhi said...

Though the story is very short, it has perfect dimensions and deep analysis of human nature ; along with message.

वाणी गीत said...

बचपन में ही पद गए कुंठा के बीज जिसके पौधे बढ़ कर विशाल हुए और उनकी छत्रछाया में कोई भी सुखी न रह सका ...
मार्मिक कथा !

चंद्रमौलेश्वर प्रसाद said...

रिश्तों के खेल भी निराले होते हैं॥

देवेन्द्र पाण्डेय said...

बिलकुल अनूठे अंदाज में लिखी कहानी। लगा जैसे नायिका से परिचित हों!

Kailash Sharma said...

बहुत मार्मिक और संवेदनशील कहानी..

Asha Joglekar said...

प्रतिशोध की आग कितनी भयंकर हो सकती है । मार्मिक कहानी ।

महेन्द्र श्रीवास्तव said...

बहुत मार्मिक रचना है। जीवन की सच्चाई को बिना लाग लपेट के प्रस्तुत किया गया है। लिखने के अंदाज का क्या कहूं..कभी कभी ही ऐसी रचनाएं पढने को मिलती हैं।
बहुत बहुत बधाई

जितेन्द्र ‘जौहर’ Jitendra Jauhar said...

आज सिर्फ़ यह कहने आया हूँ कि-

मैं एक अरसे के बाद दस्तक दे सका हूँ...मुझे कुछेक किताबें प्रकाशनार्थ तैयार करनी थी...काम अभी भी जारी है।

प्रसन्नता है कि आपने कभी कोई उलाहना भी नहीं दिया...और आप समय-समय पर आती भी रहीं, मेरे लिखे हुए के इर्द-गिर्द!

प्रणाम आपके अखण्ड जुड़ाव को...अपनत्व को...स्नेह को!

Alpana Verma said...

मन विचलित हो गया.
......
एक विवेकहीन स्त्री के नासमझ कदम ने कितनी ज़िंदगी तबाह कर दी.अपने साथ कितनों की खुशियाँ स्वाहा कर दीं.

सुधीर राघव said...

मर्मस्पर्शी कहानी

Avinash Chandra said...

कितना आवेग, कितना क्रोध, और सोच की कितनी छोटी सीमाएँ!!
कहानी, कथानक, पात्र, व्यवहार और शिल्प...प्रशंसनीय!!
आभार कि आप ऐसा लिखती हैं।

P.N. Subramanian said...

दिल को छू गयी यह कहानी. आभार.

Rahul Singh said...

न्‍याय की सघन आशा, साकार होने में समय लगे, लेकिन होती जरूर है.

anand.v.tripathi@gmail.com said...

आदरणीय नमस्कार ,बहुत अच्छी कहानी । आपकी अनुमति हो तो यह कहानी करुणावती साहित्य धारा में प्रकाश्िात करें ।सादर धन्यवाद