5.12.15

नशामुक्त बिहार

दूर तक फैले हरे भरे खेत,आम लीची कटहल के बगीचे,तुलसी चौरा के चारों ओर फैला गोबर लिपा बड़ा सा आँगन, अनाज भरे माटी की कोठियाँ बखारी, बथाने पर गाय बैल छौने और उनके बड़े बड़े नाद, बड़ा सा खलिहान, अनाज दौनी करते बैल, पुआलों के ढेर, जलवान और गोइठे के लिए अलग से बना घर, जिसमें केवल जलावन ही नहीं, साँपों का भी बसेरा,आँगन के बाहर सब्जियों की बाड़ी, जिसमें से लायी गयी ताज़ी सब्जियों के छौंके का सुगन्ध,घर में भरे तीन चार पीढ़ियों के इतने सारे सदस्य,ऊपर वाली पीढ़ी के सामने खड़े नजरें झुकाये निचली पीढ़ी अकारण भी गालियाँ सुन लें, पर न तो उफ़ करें न जवाब सफाई दें।
...यह था हमारा गाँव। केवल सुख सुख सुख।  

लेकिन फिर न जाने क्या हुआ, किसकी नजर लगी, आँगन के छोटे छोटे टुकड़े ही न हुए,तुलसी चौबारे तक बँट गए,गाय बैलों के बथान उजड़ गए, खलिहान बगीचे टुकड़े टुकड़े हो गए या फिर मिट गए,दालानों पर शाम की बैठके और ठहाके उजड़ गए,केस मुक़दमे कोर्ट कचहरी से बचा कोई घर न रहा.शाम ढलने से पहले ही गले में गमछा और मुँह में गुटका चुभलाते 14 से 64 साल के पुरुषों के कदम चौक पर स्थित दारू अड्डे की तरफ मुड़ गये। शरीफ लोग अँधेरा घिरने से पहले घरों में कैद होने लगे कि न जाने कब हुड़दंगी आकर बेबात मारपीट मचा दें या कब कोई गैंग आकर अपहरण रंगदारी का खेल खेलने लगे। और फिर आधी रात ढ़ले सन्नाटे गुलजार होने लगे पिटती औरतों के करुण चित्कार से,लेकिन किसकी हिम्मत कि जाकर उन्हें छुड़ा बचा ले। 

जीने की जद्दोजहद में जुटे अशिक्षित अल्पशिक्षित लोगों ने तो मजदूरी के लिए दुसरे राज्यों की राह ली और जो उच्च शिक्षित थे,पहले ही से राज्य से बाहर नौकरियों में निकले हुए थे,पर दोनों के ही आँखों में एक दिन फिर कर अपनी उस मिटटी में बसने और मिटने की चाह बनी रही।
लेकिन जब वो लौटे तो अवाक हतप्रभ।उनके घर खेत अपनों ही के द्वारा या फिर दबंगो द्वारा हथियाये जा चुके थे।उनकी स्थिति दुर्योधन के सामने अपने जायज हक़ के लिए याचक बने खड़े पाण्डवों सी।और हाथ में उपाय कि या तो युद्ध लड़ो या दबंगों द्वारा हड़पे संपत्ति के रद्दी के भाव लेकर वापस लौट जाओ।थाना कचहरी जाकर क्या होता,वर्दीवाले काले कोट वाले डाकू लूट लेते।

अपूर्व सुखद लगा यह सुनना कि शराब रुपी जो दीमक वर्षों से राज्य को चाट रही है,अब राज्य उससे मुक्त हो जाएगा।
लोकहितकारी सजग सरकार इतनी बड़ी आय को प्रदेशहित में न्योछावर कर दे रही है।
लेकिन वर्षों से ऑफिसयली गुटका भी तो प्रतिबन्धित है राज्य में सौ में से केवल कोई बीस पच्चीस मुँह तो दिखा दीजिये जो गुटकारहित हो।क्या हुआ इसमें?

5 का गुटका 25 में मिलने लगा और 20 रूपये की बन्दर बाँट गुटका बनाने,बेचने और पकड़ने वाले के बीच हो गया।
क्या यही हाल इस शराब बन्दी का भी नहीं होगा? क्या सरकार के पास वो मशीनरी है कि दो नम्बरी शराब से लेकर कफ शिरप, नींद की दवाएँ या ऐसे ही अन्य दवाइयों को नशे के रूप में लेने से रोक सकें या फिर यह एक नये उद्योग की आधारशिला रखी जा रही है,अपहरण उद्योग की तरह?
सुलगते सवाल हैं ये।    

4.8.15

शिव शक्ति



शक्ति/ऊर्जा/पवार, जो ब्रह्माण्ड के एक एक अणु में अवस्थित है......
और अणु? जीवित वह कण, जिसमें स्पंदन है,चैतन्यता है,आत्मा है.…
और यह आत्मा ?? यही तो शिव है.. शक्ति (अरघा) के आधार पर टिका अण्डाकार पिण्ड।
जैसे ही शिव (आत्मा) शक्ति (शरीर) से विलग हुआ नहीं कि वह "शव"।
पंचतत्वों से बना देह पुनः पंचतत्व में विलीन।
श्रावण मास में शिवशंकर के जलाभिषेक के विषय में यह मान्यता है कि इसी मास में शिव ने समुद्र मंथन से निकले कालकूट विष को, जिसे देव दानव सबने ग्रहण करने से मना कर दिया, उसे पी लिया और उससे जो असह्य दाह उन्हें व्यापा, उसी कष्ट को क्षीण करने हेतु शिव पर जलाभिषेक की परम्परा भक्तों ने आरम्भ की जो आज भी निर्बाध है.
लेकिन सावन,सोमवारी,शिवलिंग, जलार्पण एक कथा और एक क्रिया भर है क्या?
पत्थर पर जल ढार दिया,फल, फूल,भांग धतूरा उस निरंकारी निष्कामी निर्गुण निर्लिप्त पर चढ़ा दिया और हो गयी पूजा पूरी,,,संपन्न ? या फिर ये क्रियाएँ प्रतीक हैं, हमें कुछ कहती भी हैं?
हमारे जीवित रहते भगवती/शक्ति त्रिगुणों(सत रज और तम) के साथ सदा ही तो अवस्थित हैं हममें ,, और त्रिपुरारी(ये भी तीनों गुणों के धारक) शिव आत्मा,चेतना और विवेक रूप में अवस्थित हैं हममें। शक्ति के जिस रूप (सात्विक राजसिक और तामसिक)को हम साधते हैं,उसका आधिपत्य होता है हमारे मन मस्तिष्क चेतना और संस्कार व्यवहार पर,,,, और चाहे जिस गुण के भी अधीन हो हमारा व्यक्तित्व, निर्बाध जीवन पर्यन्त हमपर घुमड़ते कठिन परिस्थितियाँ,चुनौतियाँ, दुःख,अपमान अपयश,दुःख देने वाले रिश्ते नाते, आत्मीय सम्बन्ध……यही तो हैं वे विष, जिसका पान हमें शिव की भांति करना पड़ता है।विष के दाह से मुक्ति हेतु त्रिपुरारी के विग्रह पर जिस प्रकार जल (जिसके बिना जीवन संभव नहीं) ढारते हैं, वैसे ही तो जीवन के विष से मुक्ति/शांति के लिए सात्विक सकारात्मक सोच रूपी जान्हवी (शुद्ध पवित्र शीतल गंगा जल) को अपने मन मस्तिष्क पर ढारना होगा।अपने अंतस के शिव और शक्ति,उदारता और विराटता को जगाना होगा, जो अधिकांशतः तम (अन्धकार) से आच्छादित रहता है,, क्योंकि हम, सत(प्रकाश) का विकाश वहाँ और उतना तक नहीं करते जिससे तम हार जाए, सहज शंकर सा गरल पान कर भी हम अमर, करुण और सद्चिदानन्द रहें।
सनातन धर्म में आध्यात्मिक कथाएँ,पूजा पद्धतियाँ,प्रस्तर प्रतीक गहन गूढ़ार्थ छिपाए हुए हैं. एक कोड की तरह. इन्हे डिकोड कर समझना और अपनाना होगा, तभी इस अमूल्य जीवन का सार, सच्चा सुख पाने का हमारा लक्ष्य सिद्ध और पूर्ण होगा।
स्वास्थ्य की दृष्टि से वर्षा ऋतु हेतु धर्म में जो व्यवस्थाएँ हैं, चलिए कुछ चर्चा उसपर भी कर ली जाए।
हमारा शरीर और विशेषकर जठराग्नि(पाचनतंत्र), का सूर्य से सबसे प्रभावी और सीधा सम्बन्ध होता है.जैसे एक सूर्य आकाश में है, ऐसे ही एक सूर्य हमारे जठर(पेट) में भी अवस्थित है। जब आकाशीय सूर्य वर्षा ऋतु में मेघों से आच्छादित रहते मन्द रहता है तो जठर सूर्य भी मंद हो जाता है.इस ऋतू में मन्दाग्नि(भूख न लगना ), अपच,भोजन से अरुचि, यह शायद ही कोई हो जिसने अनुभूत न किया हो.परन्तु भोजन प्रेमी/ जीभ व्यसनी यदि जीभ तुष्टि हेतु तेल मसालेदार भोजन जबरन उदर में डाल देते हैं, तो यह उनका सप्रेम निमंत्रण है कई कष्टकारी व्याधियों को. इसलिए अपने यहाँ धर्म में व्यवस्था की गयी है कि इस ऋतु में माँसाहार,प्याज लहसुन आदि से परहेज किया जाय। सोमवार को फलाहार या पूरे सावान एकसंझा(दिन भर में एक बार अन्न ग्रहण) व्रत भी कई लोग करते हैं।
दूसरी बात,भूख देह की प्राथमिक आवश्यकता है,यदि इसपर किसी ने नियंत्रण कर लिया, जीभ को अपने वश में कर लिया,तो उसका मानसिक बल बढ़ना तय ही तय है. और यही मानसिक बल तो है जिसके सहारे व्यक्ति कुछ भी कर पाता है।
और देखिये हमारे मनीषियों को,,,कितना सोच समझकर यम नियम निर्धारित किये थे उन्होंने। जैसा कि हम जानते ही हैं, वर्षा ऋतु में सब्जियों की कमी हो जाती है, अन्न भण्डारण और उसका संरक्षण भी कितनी बड़ी चुनौती होती है, तो ऐसे में यदि लोग भोज्य पदार्थों का उपयोग कम करें तो बहुत बड़ी संख्या में उन लोगों की समस्या का समाधान हो सकता है जो चीजें मँहगी हो जाने के कारण भूखे या अधपेटे रहने को विवश होते हैं। यदि कुछ लाख/करोड़ लोग भी कुछ दिनों के लिए एक शाम का भोजन छोड़ देते हैं तो समाज राष्ट्र सहित अपने शारीरिक स्वास्थ्य की भी कैसी सेवा करेंगे वे,नहीं क्या?
हाँ, एक भ्रम और दूर कर लें,कई लोग इस तरह जोड़ते हैं कि रात को दस बजे खाया था और अब सुबह के आठ नौ या दस बज गए ,,,,मतलब दस बारह घण्टे पेट में अन्न न गया, हाय, बेचारा पेट हाहाकार कर रहा है, घोर अन्याय हो गया उसके साथ, तो "ब्रेक फास्ट",यानि इतने लम्बे अंतराल के उपवास का बदला फास्ट को तोड़ते हुए पूरी तरह ठूंस ठूंस कर खा कर कर ली जाए। दोपहर में कुछ हल्का फुल्का खा लिया जाएगा और शाम के नाश्ते के बाद सोने से पहले भर दम ठांस लिया जाएगा ताकि बेचारा पेट इतने लम्बे उपवास को झेल सके।
हा हा हा हा हा ……भाई यह 100% भ्रम है। जब सूर्य का प्रकाश न हो, तो शरीर को भोजन नहीं चाहिए। जैसे पेड़ पौधे जीव जंतु पक्षी (निशाचरों को छोड़कर) सूर्य की रौशनी में ही आहार और उसी से ऊर्जा लेते हैं, वही नियम मानव के लिए भी है. जब आकाश में बाल सूर्य हों (सुबह) तो हल्का भोजन,जब सूर्य प्रखर हों (दोपहर) तो पूरा भोजन और फिर शाम में (हो सके तो सूर्यास्त के तुरंत बाद) हल्का भोजन लें। जब कभी उपवास करें तो उससे एक दिन पहले तेल घी रहित सुपाच्य एकदम हल्का भोजन और उपवास समाप्ति पर भी वैसा ही हल्का सुपाच्य भोजन। उपवास के दौरान अधिक से अधिक जलसेवन, ताकि टॉक्सिन शरीर से निकल जाए।
और पञ्चाक्षर(ॐ नमः शिवाय) या महामृत्युञ्जय का जितना अधिक हो सके सस्वर या मानसिक जाप करें।गहन शोधोपरान्त ये मन्त्र बनाए गए हैं, जिनका जाप हमारे अंतस में सुप्त पड़ी शक्तियों को जागृत कर हमें बली बनाते हैं।
कर्पूर गौरं करुणावतारं संसारसारं भुजगेन्द्र हारं,
सदा वसन्तं हृदयारविन्दे भवं भवानि सहितं नमामि !!!
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रंजना

     


                              

23.6.15

चैतन्य वह अचेतन संसार........

सम्पूर्ण भौतिक संसार (यूनिवर्स) भौतिकी के नियम से बंधा हुआ है।यहाँ कोई भी कण एक दुसरे से स्वतंत्र नहीं।कोई भी क्रिया प्रतिक्रिया विहीन नहीं,कोई भी सूचना परिघटना और मनः स्थितियाँ गुप्त नहीं, सबकुछ प्रकट, संरक्षित,अनंत काल तक अक्षय और सर्वसुलभ(जो भी इसे जानना पाना चाहे उसके लिए सुलभ) रहता है, इसी व्योम में, ऊर्जा कणों(इलेक्ट्रॉनिक पार्टिकल) में रूपांतरित होकर।

जैसे प्रसारण केन्द्रों द्वारा निर्गत/प्रसारित दृश्य श्रव्य तरङ्ग वातावरण में सर्वत्र व्याप्त रहते हैं और जब कोई रिसीवर उन फ्रीक्वेंसियों से जुड़ता है, तो वे तरंग रेडियो टीवी इंटरनेट द्वारा हमारे सम्मुख प्रकट उपस्थित हो जाते हैं,ठीक ऐसे ही मस्तिष्क/चेतना रूपी रिसीवर भी काम करता है। यदि हम चाहें तो अपने मस्तिष्क को चैतन्य और जागृत कर व्योम में संरक्षित भूत भविष्य के परिघटनाओं तथा ज्ञान को भी पूरी स्पष्टता से सफलता पूर्वक प्राप्त कर सकते हैं, जो चाहे हजारों लाखों साल पहले क्यों न घट चुके हों या घटने वाले हों.ठीक वैसे ही जैसे युद्ध भूमि से सुदूर बैठे संजय ने अपनी चेतना को दूर भेज वहाँ का पूरा लेखा जोखा धृतराष्ट्र तक पहुँचा दिया था..ठीक ऐसे ही जैसे कई विद्वान लेखकों कवियों को पढ़ हम आश्चर्यचकित हो जाते हैं कि,वर्षों सदियों पहले घटित या भविष्य में सम्भावित इन परिस्थितियों परिघटनाओं को इतनी सटीकता और सुस्पष्टता से इन्होनें कैसे देख जान वर्णित कर दिया। देखा जाए तो यह विशिष्ठ सामर्थ्य केवल उनमें ही नहीं, बल्कि हम सबमें है,यह अलग बात कि उन असीमित आलौकिक शक्तियों को हम साधते नहीं हैं और हममें निहित रहते भी निष्क्रिय रह वे शक्तियाँ हमारे शरीर के साथ ही नष्ट हो जाती हैं। 

यह अनुभव तो सबका ही रहा है कि अपने प्रियजनों, जिनसे हम मानसिक रूप से गहरे जुड़े होते हैं,उनके सुख दुःख संकट का आभास कोसों दूर रहते भी कितनी स्पष्टता से हमें हो जाता है।बस दिक्कत है कि अपनी उस शक्ति पर विश्वास और उसका विकाश हम नहीं करते, कई बार तो उसे शक्ति ही नहीं मानते,बस स्थूल पंचेन्द्रिय प्रमाणों पर ही अपने विश्वास का खम्भा टिकाये रखते हैं।

ऐंद्रिक शक्तियों की सीमा अत्यंत सीमित है,जबकि चेतना की शक्ति अपार विकसित।किसी को देखा सुना न हो,उसके विषय में कुछ भी ज्ञात न हो,फिर भी उसका नाम सुनते ही उसके प्रति श्रद्धा प्रेम वात्सल्य या घृणा जैसे भाव मन में क्यों उत्पन्न होते हैं?
वस्तुतः यह इसी चेतना के कारण होता है.चेतना उसके व्यक्तित्व/प्रभाक्षेत्र/ऑरा को पकड़ मस्तिष्क को सूचना दे देती है,कि अमुक ऐसा है,पर अधिकांशतः उसकी न सुन हम स्थूल प्रमाणों की खोज करने लगते हैं। हाँ, यह बात अलग है कि यदि मन कलुषित हो, उसमें उक्त के प्रति पूर्वनिश्चित पूर्वाग्रह हो, तो चेतना की यह अनुभूति क्षमता भी कुन्द रहती है.जैसे गड़बड़ाया हुआ एन्टीना ठीक से सिग्नल नहीं पकड़ पाता।मन मस्तिष्क को निर्दोष निष्कलुष और सकारात्मक रख ही अपनी प्रज्ञा को जागृत और सशक्त रखा जा सकता है। 

आज शब्दों पर हमने अपनी निर्भरता आवशयकता से अधिक बढ़ा ली है।मन में द्वेष पाला व्यक्ति भी यदि मीठी बोली बोलता है तो चेतना द्वारा दिए जा रहे सूचना कि सामने वाला छल कर रहा है,को हम अनसुना कर देते हैं। स्थूल प्रमाणों (आँखों देखी, कानों सुनी) पर अपनी आश्रयता अधिक बढ़ाने के कारण शूक्ष्म अनुभूति क्षमता अविकसित रह जाती है और उसपर कभी यदि चेतना की सुनने की चाही और वह सही सिद्ध न हुआ तो उससे विद्रोह छेड़ उसे और भी कमजोर करने में लग जाते हैं। 

एक वृहत विज्ञान है यह,जिसे "ऑरा साइन्स" कहते हैं।जैसे भगवान् के फोटो में उनके मुखमण्डल के चारों ओर एक प्रकाश वृत रेखांकित किया जाता है,वैसा ही प्रभा क्षेत्र प्रत्येक मनुष्य के चारों और उसे आवृत्त किये होता है।यह प्रभाक्षेत्र निर्मित होता है व्यक्ति विशेष के शारीरिक मानसिक अवस्था,उसकी वृत्ति प्रवृत्ति,सोच समझ चिंतन स्वभाव संवेदना संवेग स्वभावगत सकारात्मकता नकारात्मकता की मात्रा द्वारा। जिसका प्रभाव जितना अधिक उसी अनुसार निर्मित होता है उसका प्रभामण्डल भी। डाकू रहते अंगुलिमाल का जो प्रभामण्डल रहा, सत्पथ पर आते ही कर्म और वृत्तिनुसार उसके प्रभामण्डल में भी वैसा ही परिवर्तन हुआ.डाकू अंगुलिमाल का प्रभामण्डल भयोत्पादी था, जबकि साधक का स्मरण सुख शान्तिकारी हो गया। 

वैसे अपने कर्म आचरण से जो जितना सकारात्मक होता है, उसका प्रभामण्डल भी उतना ही बली प्रभावशाली होता है। प्रत्यक्ष और निकट से ही नहीं,हजारों लाखों कोस दूर भी बैठे भी संवेदनात्मक रूप से स्मरण करते कोई भी किसी से जो सम्बद्ध (कनेक्ट) होता है, वस्तुतः दोनों के प्रभा क्षेत्र का प्रभाव होता है यह। आजकल तो इस विद्या का उपयोग विश्व भर में "डिस्टेंस रेकी", "ऑरा हीलिंग" नाम से शारीरिक मानसिक उपचार हेतु किया जा रहा है और इसके सकारात्मक प्रभावों परिणामों (सक्सेस रेट) को देखते इसपर आस्था और इसकी प्रमाणिकता भी दिनोदिन बढ़ती ही जा रही है। 

हमने अनुभव किया तो है कि, किसी साधु संत पीर पैग़म्बर देवी देवता भगवान्,चाहे वे हमारे बीच हों या न हों,किसी संकट में जब हम उनका स्मरण करते है,कष्ट हरने की उनसे याचना करते हैं,तो एक अभूतपूर्व शान्ति ऊर्जा और निश्चिंतता का अनुभव करने लगते हैं।असल में यह मन का भ्रम नहीं,बल्कि वास्तव में घटित होने वाला सत्य/प्रभाव है।ठीक रेडियो टीवी की तरह जैसे ही हम उस ऊर्जा स्रोत से जुड़ते हैं,ऊर्जा रिसीव कर ऊर्जान्वित हो उठते हैं।

सात्विक खान पान,रहन सहन,स्वाध्याय और सतसाधना द्वारा हम अपने अंतस की इस आलौकिक ऊर्जा को जगा सचमुच ही उस अवस्था को पा सकते हैं,जैसा पुराणों में वर्णित आख्यानों में ऋषि मुनि संत साधकों अवतारों को पाते सुना है। मिथ नहीं सत्य है यह।

..........

23.3.15

मन्त्र शक्ति

चौरासी लाख योनियों में सर्वश्रेष्ठ मनुष्य योनि इसलिए है क्योंकि इसी योनि में प्राणी अपने सामर्थ्य का सर्वाधिक और सर्वोत्तम उपयोग कर सकता है।इतिहास साक्षी है इसका कि साधारण देह धारियों ने अपनी बुद्धि से कितने और कैसे कैसे असाधारण कृत्य कर डालें हैं।
लेकिन सत्य यह भी है कि बहुसंख्यक लोग ऐसे ही हैं, जो पूरे जीवन में प्रकृति प्रदत्त क्षमताओं का साधारण और सामान्य उपयोग भी नहीं कर पाते। और शरीर के साथ ही उनकी क्षमताएँ भी माटी में मिल जाती है।
सही गलत का ज्ञान रखते हुए भी गलत करते,दुर्व्यसनों में फंसे अधिकांश लोग यह कहते मिल जाएँगे कि क्या करें मोह है कि छूटता नहीं,मन है कि मानता नहीं..
असल में हारे हुए ये वही लोग हैं जिनमें दृढ निश्चय नहीं,जिन्होंने कभी धिक्कारते या दुत्कारते स्वयं को गलत से बरजा नहीं है,अपने आत्मबल को बढ़ाने के यत्न नहीं किये हैं।
तो ऐसे में यदि हम चाहें तो अपने आत्मबल को जागृत और सम्पुष्ट करने हेतु सिद्ध मन्त्रों का सहारा ले सकते हैं।
मन्त्र जाप(मानसिक या सश्वर) वस्तुतः हमारे मन मस्तिष्क में तंत्रियों को झंकृत करते उनमें वह प्रवाह उत्पन्न करता है जो नकारात्मक भावों/शक्तियों से उबरने में हमारी मदद करता है।फलस्वरूप जहाँ हममें सही गलत में भेद करने की क्षमता बढ़ती है,वहीँ नकारात्मकता से उबरते अपनी क्षमताओं के सार्थक सदुपयोग में भी हम समर्थ होते हैं।उदहारण के लिए हम यह देख सकते हैं कि यदि धमनियों कहीं ब्लॉकेज हो जाए या मस्तिष्क तंत्रिकाओं में कहीं कोई अवरोध आ जाए तो हृदय(हार्ट) तथा मस्तिष्क व्यवस्थित रूप से काम करना बंद कर देते हैं,परन्तु इन अवरोधों/ब्लॉकेज को यदि चिकित्सा द्वारा हटा दिया जाता है तो निरोगी स्वस्थ अंग पुनः अच्छे ढंग से काम करने लगते हैं.   
तो चलिए हम जपें -
"ॐ ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डाय विच्चै"
जिसका अर्थ है - "हे चित्स्वरूपिणी महासरस्वती,हे सद्रूपिणी महालक्ष्मी,हे आनंदरूपिणी महाकाली,,ब्रह्मविद्या (आत्मज्ञान) पानेके लिए हम सब समय तुम्हारा ध्यान करते हैं.हे महाकाली-महालक्ष्मी-महासरस्वती-स्वरूपिणी चण्डिके तुम्हें नमस्कार है।अविद्यारूपी रज्जुकी दृढ़ ग्रंथि को खोलकर मुझे मुक्त करो।"
इस छोटे से मन्त्र से सत् रज और तम् तीनों शक्तियाँ सधती हैं।इन तीनों का उत्तम संतुलन ही जीवन को उर्ध्वगामी बनाता है।
अपने अंतः में अवस्थित दुर्गुणों रूपी दानवों तथा जीवन में भाग्य एवं कर्मवश मिलने वाले दुर्दिनों का सामना हम अपने आत्मबल द्वारा ही तो कर सकते हैं न,सो इसे जगाये और बनाये रखना तो जरुरी है।

9.2.15

एकाकीपन


सन्नाटों  का कोलाहल,
नित चित को कर देता चंचल।
एकांत है चिंतन का साथी,
भावों के पाँख उगा जाती ।
शशि की शीतल कोमल किरणें
उर डूब उजास पाता जिसमें।
उस पल में कविता है किलके,
रस शब्द ओढ़ चल बह निकले।
माना आँखों से सब दीखता,
दृग मूंदे ही पर जग दीखता।
नीरवता के कुछ पल खोजो,
दुनियाँ के संग संग मन बूझो।
अन्तरचिंतन बिन सृजन कहाँ,
गहरे उतरो मिले मोती वहाँ।