4.8.15

शिव शक्ति



शक्ति/ऊर्जा/पवार, जो ब्रह्माण्ड के एक एक अणु में अवस्थित है......
और अणु? जीवित वह कण, जिसमें स्पंदन है,चैतन्यता है,आत्मा है.…
और यह आत्मा ?? यही तो शिव है.. शक्ति (अरघा) के आधार पर टिका अण्डाकार पिण्ड।
जैसे ही शिव (आत्मा) शक्ति (शरीर) से विलग हुआ नहीं कि वह "शव"।
पंचतत्वों से बना देह पुनः पंचतत्व में विलीन।
श्रावण मास में शिवशंकर के जलाभिषेक के विषय में यह मान्यता है कि इसी मास में शिव ने समुद्र मंथन से निकले कालकूट विष को, जिसे देव दानव सबने ग्रहण करने से मना कर दिया, उसे पी लिया और उससे जो असह्य दाह उन्हें व्यापा, उसी कष्ट को क्षीण करने हेतु शिव पर जलाभिषेक की परम्परा भक्तों ने आरम्भ की जो आज भी निर्बाध है.
लेकिन सावन,सोमवारी,शिवलिंग, जलार्पण एक कथा और एक क्रिया भर है क्या?
पत्थर पर जल ढार दिया,फल, फूल,भांग धतूरा उस निरंकारी निष्कामी निर्गुण निर्लिप्त पर चढ़ा दिया और हो गयी पूजा पूरी,,,संपन्न ? या फिर ये क्रियाएँ प्रतीक हैं, हमें कुछ कहती भी हैं?
हमारे जीवित रहते भगवती/शक्ति त्रिगुणों(सत रज और तम) के साथ सदा ही तो अवस्थित हैं हममें ,, और त्रिपुरारी(ये भी तीनों गुणों के धारक) शिव आत्मा,चेतना और विवेक रूप में अवस्थित हैं हममें। शक्ति के जिस रूप (सात्विक राजसिक और तामसिक)को हम साधते हैं,उसका आधिपत्य होता है हमारे मन मस्तिष्क चेतना और संस्कार व्यवहार पर,,,, और चाहे जिस गुण के भी अधीन हो हमारा व्यक्तित्व, निर्बाध जीवन पर्यन्त हमपर घुमड़ते कठिन परिस्थितियाँ,चुनौतियाँ, दुःख,अपमान अपयश,दुःख देने वाले रिश्ते नाते, आत्मीय सम्बन्ध……यही तो हैं वे विष, जिसका पान हमें शिव की भांति करना पड़ता है।विष के दाह से मुक्ति हेतु त्रिपुरारी के विग्रह पर जिस प्रकार जल (जिसके बिना जीवन संभव नहीं) ढारते हैं, वैसे ही तो जीवन के विष से मुक्ति/शांति के लिए सात्विक सकारात्मक सोच रूपी जान्हवी (शुद्ध पवित्र शीतल गंगा जल) को अपने मन मस्तिष्क पर ढारना होगा।अपने अंतस के शिव और शक्ति,उदारता और विराटता को जगाना होगा, जो अधिकांशतः तम (अन्धकार) से आच्छादित रहता है,, क्योंकि हम, सत(प्रकाश) का विकाश वहाँ और उतना तक नहीं करते जिससे तम हार जाए, सहज शंकर सा गरल पान कर भी हम अमर, करुण और सद्चिदानन्द रहें।
सनातन धर्म में आध्यात्मिक कथाएँ,पूजा पद्धतियाँ,प्रस्तर प्रतीक गहन गूढ़ार्थ छिपाए हुए हैं. एक कोड की तरह. इन्हे डिकोड कर समझना और अपनाना होगा, तभी इस अमूल्य जीवन का सार, सच्चा सुख पाने का हमारा लक्ष्य सिद्ध और पूर्ण होगा।
स्वास्थ्य की दृष्टि से वर्षा ऋतु हेतु धर्म में जो व्यवस्थाएँ हैं, चलिए कुछ चर्चा उसपर भी कर ली जाए।
हमारा शरीर और विशेषकर जठराग्नि(पाचनतंत्र), का सूर्य से सबसे प्रभावी और सीधा सम्बन्ध होता है.जैसे एक सूर्य आकाश में है, ऐसे ही एक सूर्य हमारे जठर(पेट) में भी अवस्थित है। जब आकाशीय सूर्य वर्षा ऋतु में मेघों से आच्छादित रहते मन्द रहता है तो जठर सूर्य भी मंद हो जाता है.इस ऋतू में मन्दाग्नि(भूख न लगना ), अपच,भोजन से अरुचि, यह शायद ही कोई हो जिसने अनुभूत न किया हो.परन्तु भोजन प्रेमी/ जीभ व्यसनी यदि जीभ तुष्टि हेतु तेल मसालेदार भोजन जबरन उदर में डाल देते हैं, तो यह उनका सप्रेम निमंत्रण है कई कष्टकारी व्याधियों को. इसलिए अपने यहाँ धर्म में व्यवस्था की गयी है कि इस ऋतु में माँसाहार,प्याज लहसुन आदि से परहेज किया जाय। सोमवार को फलाहार या पूरे सावान एकसंझा(दिन भर में एक बार अन्न ग्रहण) व्रत भी कई लोग करते हैं।
दूसरी बात,भूख देह की प्राथमिक आवश्यकता है,यदि इसपर किसी ने नियंत्रण कर लिया, जीभ को अपने वश में कर लिया,तो उसका मानसिक बल बढ़ना तय ही तय है. और यही मानसिक बल तो है जिसके सहारे व्यक्ति कुछ भी कर पाता है।
और देखिये हमारे मनीषियों को,,,कितना सोच समझकर यम नियम निर्धारित किये थे उन्होंने। जैसा कि हम जानते ही हैं, वर्षा ऋतु में सब्जियों की कमी हो जाती है, अन्न भण्डारण और उसका संरक्षण भी कितनी बड़ी चुनौती होती है, तो ऐसे में यदि लोग भोज्य पदार्थों का उपयोग कम करें तो बहुत बड़ी संख्या में उन लोगों की समस्या का समाधान हो सकता है जो चीजें मँहगी हो जाने के कारण भूखे या अधपेटे रहने को विवश होते हैं। यदि कुछ लाख/करोड़ लोग भी कुछ दिनों के लिए एक शाम का भोजन छोड़ देते हैं तो समाज राष्ट्र सहित अपने शारीरिक स्वास्थ्य की भी कैसी सेवा करेंगे वे,नहीं क्या?
हाँ, एक भ्रम और दूर कर लें,कई लोग इस तरह जोड़ते हैं कि रात को दस बजे खाया था और अब सुबह के आठ नौ या दस बज गए ,,,,मतलब दस बारह घण्टे पेट में अन्न न गया, हाय, बेचारा पेट हाहाकार कर रहा है, घोर अन्याय हो गया उसके साथ, तो "ब्रेक फास्ट",यानि इतने लम्बे अंतराल के उपवास का बदला फास्ट को तोड़ते हुए पूरी तरह ठूंस ठूंस कर खा कर कर ली जाए। दोपहर में कुछ हल्का फुल्का खा लिया जाएगा और शाम के नाश्ते के बाद सोने से पहले भर दम ठांस लिया जाएगा ताकि बेचारा पेट इतने लम्बे उपवास को झेल सके।
हा हा हा हा हा ……भाई यह 100% भ्रम है। जब सूर्य का प्रकाश न हो, तो शरीर को भोजन नहीं चाहिए। जैसे पेड़ पौधे जीव जंतु पक्षी (निशाचरों को छोड़कर) सूर्य की रौशनी में ही आहार और उसी से ऊर्जा लेते हैं, वही नियम मानव के लिए भी है. जब आकाश में बाल सूर्य हों (सुबह) तो हल्का भोजन,जब सूर्य प्रखर हों (दोपहर) तो पूरा भोजन और फिर शाम में (हो सके तो सूर्यास्त के तुरंत बाद) हल्का भोजन लें। जब कभी उपवास करें तो उससे एक दिन पहले तेल घी रहित सुपाच्य एकदम हल्का भोजन और उपवास समाप्ति पर भी वैसा ही हल्का सुपाच्य भोजन। उपवास के दौरान अधिक से अधिक जलसेवन, ताकि टॉक्सिन शरीर से निकल जाए।
और पञ्चाक्षर(ॐ नमः शिवाय) या महामृत्युञ्जय का जितना अधिक हो सके सस्वर या मानसिक जाप करें।गहन शोधोपरान्त ये मन्त्र बनाए गए हैं, जिनका जाप हमारे अंतस में सुप्त पड़ी शक्तियों को जागृत कर हमें बली बनाते हैं।
कर्पूर गौरं करुणावतारं संसारसारं भुजगेन्द्र हारं,
सदा वसन्तं हृदयारविन्दे भवं भवानि सहितं नमामि !!!
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रंजना

     


                              

7 comments:

रचना दीक्षित said...
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रचना दीक्षित said...

सावन के महीने में शिव को समर्पित सुंदर लेख. बधाई रंजना जी.

रंजना said...
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रंजना said...

बहुत बहुत आभार रचना जी।

गिरिजा कुलश्रेष्ठ said...

रंजना जी ,श्रावण मास के सोमवार व्रत और शिवपूजन के महत्त्व को काफी विस्तार से बताया है आपने .यह भी सही कहा कि हमारे धार्मिक कार्यकलापों और तमाम मान्यताओं का ठोस आधार है . लोगों ने अज्ञान व स्वार्थवश अर्थान्तरण कर दिया है .

रंजना said...
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रंजना said...
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