21.12.09

स्मृति कोष से...

विशेषकर उस वय तक जबतक कि संतान पलटकर अपने अभिभावक को जवाब न देने लगे,उनकी अवहेलना न करने लगे,विरले ही कोई माता पिता अपने संतान के विलक्षणता के प्रति अनाश्वस्त होते हैं ..संसार के प्रत्येक अभिभावक जितना ही अपनी संतान में विलक्षणता के लिए लालायित रहते हैं,उतना ही सबके सम्मुख उसे सिद्ध और प्रस्तुत करने को उत्सुक और तत्पर भी रहा करते हैं.



ऐसे ही अपनी संतान की योग्यता के प्रति अति आश्वस्त आत्मविश्वास से भरे पिता ने अपनी चार वर्ष की पिद्दी सी बच्ची को संगीत कला प्रदर्शन हेतु मंच पर आसीन कर दिया..घबरायी बालिका ने सामने देखा - अपार भीड़..अपने दायें बाएं पीछे देखा...वयस्क वादक वृन्दों के सिर्फ घुटने ही घुटने .....घबराये निकटस्थ वादक के पतलून पकड़ उन्हें नीचे झुक अपनी बात सुनने का आग्रह किया और रुंधे कंठ से उनके कान में फुसफुसाई - अंकल मैं कौन सा गाना गाऊं, मुझे तो कोई भी एक पूरा गाना नहीं आता ..उन्होंने बालिका को उत्साहित करते हुए कहा..इसमें घबराने का क्या है बेटा, जो आता है जितना आता है उतना ही गा दो.. बालिका ने दिमाग पर पूरा जोर लगाया ,सुबह रेडियों पर सुनी कव्वाली का स्मरण उसे हो आया जो कि उसे बहुत पसंद भी था..कंठ में गोले से अटके आंसुओं के छल्ले को घोंट लगभग तुतलाती सी आवाज में उसने गा दिया..."झूम बराबर झूम शराबी,झूब बराबर झूम..मुखड़ा तीन बार दुहरा अंतरे का एक पद सुनाने के बाद बस, आगे सब साफ़...वादक महोदय ने आगे सुनाने का इशारा किया और बालिका ने सिर हिलाकर प्रत्युत्तर दिया,बस इतना ही आता है...


यह था मंच का मेरा पहला अनुभव, जिसे मैं इसलिए नहीं विस्मृत कर पाई हूँ कि एक पूरा गीत न जान और गा पाने के अपने अक्षमता के कारण मुझे जो ग्लानि हुई थी ,वह सहज ही विष्मरणीय नहीं और मेरे माता पिता इसलिए नहीं विस्मृत कर पाए हैं कि उनकी बेटी ने चार वर्ष के अल्पवय में मंच पर निर्भीकता से कला प्रदर्शित कर उनका नाम और मान बढ़ाते हुए प्रथम पुरस्कार जीता था.यूँ मैं आज तक निर्णित न कर पाई हूँ कि मुझे वह प्रथम पुरस्कार क्यों मिला था...


* औरों ने बहुत बुरा गाया था इसलिए,

* अन्य सभी प्रतियोगियों के चौथाई अवस्था की होने कारण मैं सहानुभूति की पात्र थी इसलिए,

* मेरे पिताजी जो अच्छे गायक के रूप में प्रतिष्ठा प्राप्त सबके चहेते थे इस कारण ,

* या फिर मेरे गीत चयन ने जो सबको हंसा हंसा कर लोट पोट करा दिया था उस कारण..


साहित्य और संगीत में अभिरुचि मेरे पिताजी को विरासत रूप में कहाँ से मिली यह तो पाता नहीं, पर मुझमे यह अभिरुचि पिताजी से ही संस्कार रूप में आई, इसके प्रति मैं अस्वस्त हूँ.विज्ञान के विद्यार्थी होते हुए भी मेरे पिताजी जितना लाजवाब गीत लिखा करते थे,उतने ही सुमधुर स्वर में गाया भी करते थे. जहाँ भी वे रहे उनके बिना वहां का कोई भी सांस्कृतिक कार्यक्रम पूर्णता न पाती थी..


स्वाभाविक ही पिताजी मुझे संगीत कला में पारंगत देखना चाहते थे,परन्तु दैव योग से हम जिन स्थानों में रहा करते थे अधिकाँश स्थानों पर संगीत प्रशिक्षण की कोई व्यवस्था ही न थी..परन्तु जब मैं लगभग नौ वर्ष की थी स्थानांतरित होकर हम जिस जगह गए थे जहाँ कि हम लगभग तीन वर्ष रहे , वहां के बांगला स्कूल के एक संगीत प्रशिक्षक के विषय में जानकारी मिलते ही पिताजी ने उन्हें जा पकड़ा..वे विद्यालय तथा अपने आवास के अतिरिक्त कहीं और जाकर सिखाते नहीं थे..पर पिताजी भी मुझे मेरे घर आ प्रशिक्षण देने के लिए ऐसे हाथ धोकर उनके पीछे पड़े कि बेचारे गुरूजी को भागने का रास्ता ही नहीं दिया.. गुरूजी ने पिताजी को बहुत समझाया कि वे रविन्द्र तथा बांग्ला गीत ही सिखाते हैं, मेरे लिए हिन्दी में सब कुछ करने के लिए उन्हें बहुत कठिनाई होगी,उसपर से मेरे घर आकर समय देने का अतिरिक्त श्रम अलग था,परन्तु पिताजी कहाँ मानने वाले थे.उन्होंने उन्हें मना ही लिया..


मेरी संगीत शिक्षा आरम्भ हुई सप्ताह में तीन दिन गुरु जी आने लगे.मेरी वयस्कों की तरह एक पूरा गीत गा पाने की वह साध अब पूर्णता पाने वाली थी.पर यह क्या,गुरु जी जो सरगम पर अटके तो आगे बढ़ने का नाम ही नहीं लेते थे.सुर और संगीत से भले मुझे लाख स्नेह था,पर उन दिनों सरगम पर ही अटके रहना मुझे नितांत ही अरुचिकर लगा करता था..ऊपर से पिताजी भी अजीब थे, अपने मित्र मंडली के समक्ष सगर्व मेरे संगीत कला की विरुदावली गाने लगते और उनके वाह कहते कि मुझे उनके समक्ष अपने संगीत ज्ञान प्रदर्शन का आदेश जारी कर देते..यह दुसह्य आदेश मेरे लिए प्राण दंड से किंचित भी कमतर न हुआ करता था ..क्योंकि ऐसे समय में जब मैं सरगम दुहरा रही होती,पिताजी तो अपना सीना चौड़ा कर रहे होते पर उनके मित्र उबासी लेने लगते..गीत न जानने की टीस उस समय मुझे असह्य पीड़ा दिया करती..


जब करीब पांच मास इसी तरह सरगम गाते बीत गए तो मेरा धैर्य चुकने लगा और एक दिन आशापूर्ण अश्रुसिक्त नयनों और रुंधे कंठ से गुरूजी के सम्मुख अपना निवेदन रखा कि अब तो सरगम पूरी तरह कंटस्थ हो गाया , मुझे गीत भी सिखाएं. संभवतः गुरु जी को मुझपर दया आ गयी और उन्होंने मेरे लिए हिन्दी गीतों की कसरत शुरू की..परन्तु इसमें भी मुझे विशेष उत्साहजनक कुछ न लगा. क्योंकि राग आधारित कोई भी गीत चार पंक्तियों से अधिक के न हुआ करते थे और मेरी अभिरुचि उन दिनों लम्बे लम्बे तानो में तनिक भी न थी. खैर अब जो था सो था.हाँ,बाद के दिनों में इसकी भरपाई मैंने चुपके से अकेले में फ़िल्मी गीतों की धुनों को हारमोनियम पर उतार कर करने के यत्न के साथ किया..


गुरूजी जो भी सिखाया करते थे,सारा मुंह्जबानी ही हुआ करता था. कहीं कुछ लिखित रूप में न था. बाकी तो सब ठीक था,परन्तु उनके सिखाये गीतों में से एक गीत,जिसे मैं लगभग डेढ़ वर्ष पूरे तान के साथ दुहराती गाती रही थी, लाख दिमाग लगा भी उसका अर्थ समझ पाने के मेरे सभी यत्न विफल रहे थे..गीत की प्रथम पंक्ति थी - "अमुवा की डार को ले गाया बोले" .यूँ व्यावहारिक ज्ञान में मैं बहुत बड़ी गोबर थी,फिर भी मुझे यह प्रथम पंक्ति खटका करती कि आखिर इसका अर्थ क्या हुआ..


इधर गुरूजी मेरे संगीत के प्रथम वर्ष की परीक्षा दिलवाने की तैयारी कर ही रहे थे और उधर पुनः मेरे पिताजी के स्थानांतरण का आदेस निर्गत हुआ..तबतक गुरूजी का मुझपर अपार स्नेह हो गया था. उन्होंने असाध्य श्रम से न जाने कहाँ कहाँ संधान करा , राग आधारित गीतों की एक पुस्तक मेरे लिए मंगवाई और उस स्थान से जाने से पहले मुझे वह उपहार स्वरुप दिया जिसमे अन्य गीतों के अतिरिक्त वे समस्त गीत भी संकलित थे,जो गुरूजी ने मुझे सिखाये थे...जब मैंने पुस्तक में उपर्युक्त गीत को देखा,तो मुझे लगा कि मेरी शंका निर्मूल नहीं थी..वर्षों पूरे तान के साथ लगभग प्रतिदिन जिस "अमुवा की डार को ले गाया बोले " को मैंने न जाने कितने सौ बार दुहराया था ,वह गीत वस्तुतः -" अमुवा की डार पर कोयलिया बोले " था......


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2.12.09

स्त्री विमर्श ......

एक स्त्री हूँ, आज तक उन समस्त विषम परिस्थितियों से गुजरी हूँ जिससे एक आम भारतीय स्त्री को गुजरना पड़ता है.अपने  आस पास असंख्य स्त्रियों को भी उन त्रासदियों से गुजरते उनसे जूझते देखा सुना है... परन्तु फिर भी बात जब समग्र रूप में स्त्री पुरुष की होती है तो पता नहीं क्यों लाख चाहकर भी इस विषय को मैं स्त्री पुरुष के हिसाब से नहीं देख पाती..मैं यह नहीं मान पाती कि एक पूरा स्त्री समाज ही पीडिता है और पुरुष समाज प्रताड़क..आज तक के अपने अनुभव में जितनी स्त्रियों को पुरुषों द्वारा प्रताड़ित देखा है उससे कम पुरुषों को स्त्रियों द्वारा प्रताड़ित नहीं देखा,चाहे वे किसी भी जाति धर्म भाषा या आय वर्ग से सम्बद्ध हों.या फिर एक नर में जो नारी की अपेक्षा श्रेष्ठता का दंभ होता है उसे पोषित और परिपुष्ट करते प्रमुख रूप से नारी को ही देखा है.


सृष्टि के प्रारंभ से ही मनाव समाज में अच्छे बुरे लोग रहें हैं और आगे भी रहेंगे...सदियों से समाज में न ही कुल समाज उद्धारक स्त्रियों की कमी रही है और न ही कुलनाशक विपत्ति श्रिजनी स्त्रियों की. एक ओर ऐसी स्त्रियाँ हैं , जो घर परिवार और समाज को अच्छाई और सच्चाई का मार्ग दिखाते हुए स्त्री गरिमा को परिपुष्ट करती हैं..स्त्री जाति को पूज्या और अनुकरणीय बना देती हैं तो दूसरी ओर दुष्टता के उच्चतम प्रतिमान स्थापित करती स्त्रियों की भी कोई कमी नहीं..बल्कि सहज ही देखा जा सकता है,स्त्रियों को जितनी प्रताड़ना एक स्त्री से मिलती है एक पुरुष से नहीं...एक स्त्री दूसरी स्त्री के लिए जितना कठोर हो सकती है,उस स्तर तक पुरुष कभी नहीं हो सकता..भय, इर्ष्या इत्यादि को स्त्रैण गुण यूँ ही नहीं माना गया है.कोई आवश्यक नहीं कि यह परिस्थितिजन्य ही हो..अधिकांशतः तो ये परिकलिप्त ही हुआ करते हैं.मैंने तो यही देखा है कि स्त्रियाँ जाने अनजाने स्वयं ही अपने मानसिक दौर्बल्य की परिपोषक होती हैं..


एक बड़ी साधारण सी घटना है,पर मैं इसे सहज ही विस्मृत नहीं कर पाती..एक बार एक मॉल में वहां के लेडीज टायलेट गयी...दरवाजे से अन्दर गयी तो वहां की स्थिति ने अचंभित कर दिया...करीब सात आठ महिलाएं एक कोने में दुबकी खड़ी थीं,एक बच्ची अपनी पैंटी पकडे खड़ी रोते हुए अपनी माँ से कह रही थी कि अगर जल्द से जल्द उसे टायलेट में न बैठाया गया तो पैंटी में ही उसकी शू शू निकल जायेगी. मामला यह था कि वहां तीन टायलेट में से एक का फ्लश खराब था,सो वह इस्तेमाल के लायक न था और बाकी बचे दो में से एक में कोई गयी थी और बाकी एक जो खाली था , उसमे ऊपर दीवार पर एक छिपकिली और जमीन पर कोने में एक तिलचट्टा अपनी मूंछे हिलाते दुबका हुआ था...बच्ची का डरना और चिल्लाना फिर भी समझा जा सकता था , पर उनकी माताजी तथा अन्य स्त्रियों को भयग्रस्त देख मेरा मन क्षुब्ध हो गया...छिपकिली और तिलचट्टे को भागकर मैंने उस बच्ची को समझाने की कोशिश की कि बेटा ये ऐसे जंतु नहीं कि मनुष्य का कुछ बिगाड़ सके,बल्कि ये तो स्वयं ही मनुष्यों से बहुत ही डरते हैं,इनसे डरना कैसा.....पर मैं आश्वस्त हूँ कि मेरे इस समझाने से किसी के भी सोच में कोई अंतर नहीं पड़ने वाला...पश्चिमी परिधान पहने और पुरुषों के दुर्गुणों को अंगीकार करने को उत्सुक , पुरुषों से बराबरी का दंभ भरने वाली स्त्री पीढी जब इतने निराधार तुच्छ भय को पोषित किये रहेंगी तो हम क्या खाकर इनके उत्थान का दंभ भर पाएंगी...


वस्तुतः स्त्री पुरुष का अबला सबला और प्रताड़क प्रताड़ित वाला यह विषय और द्वन्द स्त्री पुरुष का है ही नहीं. मनुष्य से लेकर पशु जगत तक में एक ही एक सिद्धांत अनंत काल से चलता आ रहा है और सदा चला करेगा..और वह है......" जिसकी लाठी उसकी भैंस "..पर मनुष्यों के मध्य यह "लाठी " शारीरिक बल वाली नहीं बल्कि बौद्धिक क्षमता वाली है..यहाँ बौद्धिक क्षमता से मेरा तात्पर्य विधिवत शिक्षा से उपार्जित बौधिकता से नहीं बल्कि सामान्य सोच समझ से है..स्त्री पुरुष दोनों में से जिसमे भी सूझ बूझ अधिक होगी,अपनी बात मनवाने की कला में भी वह अपेक्षाकृत अधिक कुशल होगा..अपने आस पास ही देखिये न,कई घरों में एक अनपढ़ स्त्री भी माँ बहन पत्नी या बेटी किसी भी रूप में यदि मानसिक रूप से अधिक सबल या समझदार होती है तो घर में उसीका सिक्का चलता है.अपने से कई गुना बली या पढ़े लिखे पर वह अति स्वाभाविक रूप से शासन करती है..यह सर्वसिद्ध है कि स्त्री हो या पुरुष ,व्यक्ति नियोजन में जो जितना कुशल/चतुर होगा, चाहे परिवार में हो या समाज में, अपना स्थान और स्थिति सुदृढ़ करने में वह उतना ही सक्षम होगा. बाकी रही चुनौतियों की बात तो,यदि नारी अपने जीवन में कंटकाकीर्ण पथ पर चलने को बाध्य है तो पुरुषों के जीवन में भी कम चुनौतियां नहीं हैं..


जहाँ तक क्षमताओं की बात करें,निश्चित रूप से प्रकृति/ईश्वर ने स्त्रियों को मानसिक रूप से पुरुषों की तुलना में अधिक सबल और सामर्थ्यवान बनाया है.श्रृष्टि रचना का श्रोत पुरुष अवश्य है परन्तु श्रृष्टि की क्षमता स्त्रियों को ही है..संभवतः इसी कारण ईश्वर ने स्त्रियों को शारीरिक बल में पुरुषों से कुछ पीछे कर दिया,क्योंकि यदि दोनों एक साथ स्त्रियों को ही मिल जाता तो इसकी प्रबल सम्भावना थी कि संसार में पुरुषों की स्थिति अत्यंत दयनीय होती..


हाँ यह अवश्य कहा जा सकता है कि स्त्री की इसी अपरिमित क्षमताओं से भयभीत होकर उसके समग्र विकास की प्रत्येक सम्भावना को बाधित और कुंठित करने का यथासंभव प्रयास पिछले कई शतकों से लेकर पिछले कुछ दशक तक पुरुष समाज द्वारा किया गया, जिसमे उसे स्त्रियों का भी यथेष्ट सहयोग मिला...परन्तु पिछले कुछ दशकों में स्त्री उत्थान की दिशा में जो भी महत प्रयास किये गए ये कम उत्साहजनक नहीं .ये समस्त सकारात्मक प्रयास उसे वस्तु और भोग्या से बाहर निकाल एक मनुष्य समझने और बनाने की ओर हो रहे हैं...वस्तुतः यही वह अनुकूल अवसर है जब स्त्रियाँ अपनी दुर्बलताओं को भली भांति चिन्हित कर उससे बाहर आ सच्चे अर्थों में सबलता प्राप्त करे...उसे यह कदापि नहीं विस्मृत करना चाहिए कि उसके शरीर और सुख दे पाने की क्षमता के कारण ही वर्षों तक पुरुषों द्वारा उसे वस्तु और भोग्या बनाकर रखने का यत्न किया गया. अपने उसी अपरिमित सामर्थ्य अपने शरीर अपने देय क्षमता को उसे सतत जागरूक होकर संरक्षित और मर्यादित रखना है..भोगवादी प्रवृत्ति पुरुषों में भी यदि है तो वह उनका मानसिक दौर्बल्य ही है,उसे यदि स्त्री भी बराबरी का अधिकार मानते हुए अंगीकार करेगी तो फिर तो परिवार समाज और संस्कृति का अस्तित्व ही नहीं बचेगा...


आवश्यकता है कि स्त्री हो या पुरुष अपने चारित्रिक दुर्बलताओं का शमन करना अपना परम लक्ष्य बना ले, अपना नैतिक विकास करे और करुणा ,क्षमा,स्नेह , सद्भावना ,सौहाद्र के भाव का विकाश करे.ह्रदय विशाल होगा और पर पीड़ा से जैसे ही व्यक्ति व्यथित होने लगेगा फिर संसार में कोई प्रताड़क और प्रताड़ित न बचेगा.ईश्वर ने श्रृष्टि के विस्तार के निमित्त ही भिन्न योग्यताओं से युक्त स्त्री और पुरुष की रचना की है. दोनों का योग ही संसार को पूर्ण बनाता है..एक अकेला अपने आप में कुछ भी नहीं.दोनों एक दूसरे के प्रति आदर का भाव रखें इसी में श्रृष्टि का सौंदर्य और संतुलन संरक्षित अक्षुण रहेगा.


मुझे लगता है यदि मैं परिवार समाज में आदर की अपेक्षा करती हूँ, अधिकार और बराबरी की अपेक्षा करती हूँ,तो इसके लिए सबसे पहले मुझे अपने आप को ही स्त्री पुरुष के इन विभेदों से ऊपर उठाना पडेगा,स्वयं को मनुष्य समझना पड़ेगा..तभी किसी और से मैं अपेक्षा कर सकती हूँ कि वह मेरे विषय में इन सबसे ऊपर उठकर सोचे..मुझे स्त्री पुरुष के भेद से न देखे.. और इसके बाद इस स्त्री शरीर के साथ एक स्त्री के प्रकृतिजन्य जो भी स्वाभाविक गुण और कर्तब्य (जैसे कि लज्जा ,शील ,करुणा, कोमलता,ममत्व आदि आदि जैसे स्त्रियोचित गुण और सेवा, आदर सम्मान आदि जैसे कर्तब्य) हैं, उनके प्रति सतत सजग रहूँ...मुझे लगता है संस्कार संस्कृति जो कि एक समाज को सुसंगठित रखती है,उसके रक्षा का प्रथम दायित्व स्त्री का ही है,क्योंकि इनका संरक्षण शारीरिक बल से नहीं बल्कि मानसिक बल से ही संभव है और यह मनोबल संपन्न स्त्री ही कर सकती है.स्त्री यदि एक नया शरीर उत्पन्न कर सकती है तो श्रृष्टि का संरक्षण भी कर सकती है...


एक स्त्री होकर यदि हम सचमुच स्त्री उत्थान का सोचती हैं तो सबसे पहले तो अपने जीवन में जितना हो सके अपने आस पास स्त्रियों को शिक्षित करें, स्वयं किसी स्त्री को मानसिक प्रताड़ना न दें और दूसरों को भी इसके लिए प्रोत्साहित करें.अपने आचरण में दृढ़ता लायें,स्वयं को दोषमुक्त करें तो नारी उत्थान के मार्ग को कोई अवरुद्ध न कर पायेगा....

12.11.09

महत्तम - विवेक !!!

इस संसार में कोई भी शब्द अपने आप में पूर्ण नहीं होता..शब्द को पूर्णता या अर्थ तो उसमे निहित उद्देश्य देते हैं, चाहे सत्य, अहिंसा, स्नेह ,शांति, करुणा, क्षमा आदि जैसे असंख्य सकारात्मक शब्द हों या क्रोध, हिंसा, दंड, घृणा, असत्य आदि आदि असंख्य नकारात्मक शब्द.

एक बार एक वृद्ध साधु अपने युवा शिष्य के साथ कहीं जा रहे थे.जेठ का महीना था और दोपहर का समय. गुरु शिष्य दोनों ही प्यास से विकल हो रहे थे..मार्ग में एक स्थान पर उन्हें एक कुआँ दिखा, जिसमे से एक स्त्री जल भर रही थी.गुरु निकट ही एक वृक्ष की छाँव में बैठ गए और शिष्य से उस स्त्री से जल मांग लाने को कहा. शिष्य उस स्त्री के पास गया और उससे जल की याचना की. स्त्री ने जल से भरी कलसी शिष्य को दे दी और जल पी पिलाकर कलसी वापस ला देने को कहा.शिष्य ने वैसा ही किया. आभार व्यक्त कर कलसी वापस दे, जैसे ही शिष्य वापस आने को मुड़ा, कि उसने स्त्री की चित्कार सुनी. पलटकर उसने देखा, तो देखा कि उस स्त्री का पैर फिसल गया है और वह मुंडेर को पकड़ कुएं में लटकी भयभीत सहायता को गुहार लगा रही है..

शिष्य रक्षा हेतु पलटा तो अवश्य, परन्तु मुंडेर के निकट पहुँच वह सोच में पड़ गया कि उस स्त्री की सहायता करे तो कैसे करे, क्योंकि कठोर ब्रह्मचर्य व्रतधारी वह जीवन भर किसी भी स्त्री का स्पर्श न करने को वचनबद्ध था.. इधर ऊहापोह में पड़ा वह शिष्य जबतक खडा सोचता रहा वह स्त्री कुँए में गिर गयी..वृद्ध गुरूजी ने यह देखा तो झपटकर कुएं के निकट पहुंचे और कुएं में कूद उस स्त्री को बाहर निकाल उन्होंने उसके प्राण बचाए..

स्त्री जब कुछ स्वस्थ हुई तो गुरु जी ने शिष्य की जमकर धुनाई की, कि जिस स्त्री ने उन्हें जल पिलाकर उनके ऊपर इतनी कृपा की, कृतघ्न शिष्य ने अपने प्राण के भय से उसे बचाने का प्रयास नहीं किया...अब निरीह शिष्य पिटते हुए सोच रहा था कि जिस गुरु ने मुझसे आजन्म स्त्री का स्पर्श न करने का वचन लिया था और जो स्वयं भी बाल ब्रह्मचारी थे, उन्होंने न केवल स्वयं स्त्री का स्पर्श किया अपितु उसे स्पर्श न करने पर दण्डित भी किया.
स्त्रीस्पर्श वर्जना तो स्त्री के भोग के लिए थी..शिष्य यदि यह सार ग्रहण कर पाता तो न तो उस स्त्री के जान पर बनती और न किसी के प्राण न बचा पाने तथा कृतघ्नता का दोष उसपर लगता..थोथे अर्थग्रहण ने उसे इतना भ्रमित कर रखा था कि कीडे मकोडे के भी प्राणों की रक्षा करने वाला वह शिष्य परिस्थितिनुकूल अपना करणीय स्थिर न कर पाया.

इसी प्रकार एक बार किसी नगर में नीरव रात्रि बेला में कुछ हत्यारे एक युवक का पीछा करते हुए उसके पीछे दौडे जा रहे थे. वह युवक उन्हें चकमा दे निकटस्थ ही एक घर में जा घुसा जो कि एक शिक्षक का था. शिक्षक कठोर सिद्धांतवादी और सत्यवादी थे. स्वयं भी सत्य बोलते थे और दूसरों को भी इसके लिए प्रेरित करते थे. आतंकित उस युवक ने उन्हें अपनी वस्तुस्थिति बताई और उनसे आग्रह किया कि यदि वे हत्यारे उसे ढूंढते वहां आ जाएँ तो वे उनसे उसके बारे में कुछ न बता उसकी प्राणों की रक्षा करें..इतना कह युवक उनके पलंग के नीचे छुप गया.

हत्यारे जब उस युवक की खोज में उनके घर पहुंचे और उनसे उसके विषय में पूछा, तो कुछ पल को तो शिक्षक महोदय को लगा कि इस समय सत्य बोलने से अधिक आवश्यक शरणागत की रक्षा करना है परन्तु फिर उन्हें लगा कि यही तो परीक्षा का समय है..इस कठिन समय में भी यदि उन्होंने सत्य का साथ नहीं छोडा तभी तो सत्य की विजय होगी और इसके साथ ही उस युवक को भी सत्य बोलने का पाठ वे पढ़ा सकेंगे..सो उन्होंने युवक के बारे में हत्यारों को बता दिया..फिर क्या था अविलम्ब हत्यारों ने उस युवक को बाहर निकाल उसकी हत्या तो की ही, इसे गोपनीय रखने तथा साक्ष्य छुपाने को उन शिक्षक महोदय की भी हत्या कर दी.

जो सत्य के मार्ग पर चलना चाहते हैं उनके सम्मुख ऐसी भ्रम तथा शंशय की स्थिति बहुधा ही जीवन में उपस्थित हो जाया करती है,जिसमे बड़ी ही कुशलता पूर्वक यह निर्णीत करना पड़ता है कि सही गलत करणीय अकरणीय क्या है.. किसी की हत्या करना यदि महापाप है तो हत्यारे की हत्या न्यायसंगत मानी जाती है..वस्तुतः शब्दों के वास्तविक अर्थ उसके प्रयोग पर ही निर्भर करते हैं और सार्थक प्रयोग या सार्थक निर्णय हेतु विवेक को प्रखर करना अति आवश्यक है.. मानवमात्र में नैसर्गिक रूप से विवेक रुपी सामर्थ्य विद्यमान रहती है और चाहे संसार का क्रूरतम अपराधी मनोवृत्ति वाला मनुष्य ही क्यों न हो,अपराध से पूर्व एक बार उसका विवेक उसे सही गलत का भान अवश्य कराता है,भले वह उसकी आवाज को अनसुना कर दे..

परन्तु विवेक रूपी इस प्रहरी, अपरिमित सामर्थ्य को जाग्रत और प्रखर करने के लिए आवश्यक है कि व्यक्ति सकारात्मकता से अधिकाधिक जुड़ा रहे और उसके निर्देशों को सुने और तदनुरूप चले. जो व्यक्ति आत्मा/विवेक के निर्देशों की जितनी अवहेलना करता है, उसका विवेक उतना ही सुप्तावस्था को प्राप्त होता जाता है.विवेक जागृत और प्रखर होने के लिए किसी वैधानिक शिक्षा या विशेष शैक्षणिक योग्यता की आवश्यकता नहीं होती. यह तो जन्म के बाद ही जैसे जैसे व्यक्ति में देखने सुनने समझने की शक्ति का विकास होता जाता है अपने आस पास सामाजिक संरचना में स्थित सही गलत की व्यवस्था को देखकर और आभास कर वह सब सीख जान लेता है.व्यक्ति यदि अपनी परिस्थिति या रूचिवस् गलत अनैतिक कर भी रहा होता है तो उसे इसका भान अवश्य होता है, भले अपने मन को विभिन्न तर्कों द्वारा वह समझा ले और स्वयं को निर्दोषता का प्रमाण पत्र दे दे..

मन मस्तिष्क से जो व्यक्ति जितना स्वस्थ और सबल होगा उसमे उचित अनुचित सोचने समझने की क्षमता उतनी ही अधिक होगी, विवेक उतना ही जागृत प्रखर होगा..अब बात है कि मानसिक स्वास्थ्य का निर्णय हम कैसे करें ??? तो इसके लिए हमें स्वयं से ही ये प्रश्न पूछने होंगे और निर्णय करना होगा कि हम स्वयं को कहाँ देखते हैं..क्योंकि इन्ही प्रश्नों के सार्थक उत्तर हमें बता सकते हैं कि हम सकारात्मकता से कितने जुड़े हैं और फलतः हमारा विवेक कितना परिपुष्ट है ...


१. सत्साहित्य, सात्विक संगीत से हमें कितनी अभिरुचि है और यह हमें कितना आनंदित करती है ?

२. प्रकृति का नैसर्गिक सौन्दर्य हमें कितना आह्लादित करता है ?

३. बिना किसी अपेक्षा के तन मन धन से किसी का हित कर हमें कितना आनंद प्राप्त होता है ?

४. अपने आस पास सबको प्रसन्न देखना कितना सुहाता है ?

५. आध्यात्मिकता से जुड़ना कितना रुचता है ?

६. सात्विक आहार (विशेषकर शाकाहार) और विहार (अनुशाषित दिनचर्या) कितना सुखद लगता है ?

6. अपनी की हुई गलतियाँ कितने समय तक याद रखते हैं और इसके लिए स्वयं को दण्डित करते हैं या नहीं ?

7. दूसरों के किये उपकार को अधिक याद रखते हैं या अपकार को ?

8. रोजमर्रा में कितने निर्णय आवेश ( दुःख, हर्ष, क्रोध, भावुकता इत्यादि ) के अतिरेक में लिया करते हैं ?

9. दूसरों के विचारों को धैर्य पूर्वक सुनने में विश्वास रखते हैं या सुनाने में ?

10. जीवन के लिए धन को कितना महत्वपूर्ण मानते हैं ?

सभी प्रश्नों के लिए दस अंक निर्धारित करें और एक से दस के स्केल में अपनी उत्तर को रेखांकित कर सम्पूर्ण प्रश्नावली के उत्तर में प्राप्तांक जोड़ कर देखें . आपके मानसिक स्वास्थ्य का पैमाना आपके सामने होगा. अधिक पूर्णांक अधिक स्वस्थ मस्तिष्क का परिचायक होगा और न्यूनतम अंक दुर्बलता का और सबसे बड़ी बात ये ही वे सकारात्मक साधन भी हैं जिनसे जुड़ हम अपने अपने सामर्थ्य को बढा सकते हैं..

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27.10.09

क्षमादान !!!

जन्मगत हों या स्वनिर्मित, ह्रदय से गहरे जुड़े सम्बन्ध, हमें जितना मानसिक संबल और स्नेह देने में समर्थ होते हैं,जितना हमें जोड़ते हैं, कभी वे जाने अनजाने ह्रदय को तीव्रतम आघात पहुंचा कर हमें तोड़ने में भी उतने ही प्रभावी तथा सक्षम हुआ करते हैं. स्वाभाविक है कि जो ह्रदय के जितना सन्निकट होगा, प्रतिघात में भी सर्वाधिक सक्षम होगा. कई बार तो अपनों के ये प्रहार इतने तीव्र हुआ करते हैं कि उसका व्यापक प्रभाव जीवन की दशा दिशा ही बदल दिया करते हैं, सम्पूर्ण व्यक्तित्व ही कुंठाग्रस्त हो जाया करता है. जीवन भर के लिए व्यक्ति इस दंश से मुक्त नहीं हो पाता और फिर न स्वयं सुखी रह पाता है न ही अपने से जुड़े लोगों को सुख दे पाता है.

हमारी एक परिचिता हैं, वे एक नितांत ही खडूस महिला के रूप में विख्यात या कहें कुख्यात हैं.सभी उनकी प्रतिभा का लोहा मानते हैं,परन्तु उनसे घनिष्टता बढ़ाने को कोई भी उत्सुक नहीं होता..लगभग पचपन वर्ष की अविवाहिता हैं,उच्च पद पर आसीन हैं,धन की कमी नहीं..फिर भी न जाने किस अवसाद में घुलती रहती हैं. पूरा संसार ही उन्हें संत्रसक तथा अपना शत्रु लगता है. अपने अधिकार के प्रति अनावश्यक रूप सजग रह कर्तब्यों के प्रति सतत उदासीन रहती हैं.बोझिल माहौल उन्हें बड़ा रुचता है जबकि अपने आस पास किसी को हंसते चहकते देखना कष्टकर लगता है..


परिचय के उपरांत पहले पहल तो मुझे भी उनसे बड़ी चिढ होती थी,पर बाद में जब उनसे निकटता का अवसर मिला तो शनै शनै मेरे सम्मुख उनके व्यक्तित्व की परतें खुलने लगी.उनसे बढ़ती हुई घनिष्ठता के साथ मुझे आभास हुआ कि उनके व्यवहार में जितनी कठोरता और कटुता है,उतनी कठोर और कलुषित हृदया वो हैं नहीं..मैं उनके मन का वह कोना ढूँढने लगी जिसमे संवेदनाएं और बहुत से वे कटु अनुभव संरक्षित थे, जिसने उनके व्यक्तित्व और व्यवहार में यह विकृति दी थी..


अंतत मेरा स्नेह काम कर गया और ज्ञात हुआ कि अति प्रतिभाशाली इस महिला ने बाल्यावस्था से ही बड़े दुःख उठाये हैं..उनके रुढिवादी माता पिता ने छः पुत्रियों और एक पुत्र के बीच पुत्रियों की सदा ही उपेक्षा की.बाकी बहनों ने तो इसे अपनी नियति मान स्वीकार लिया,परन्तु अपने अधिकार के प्रति सजग, विद्रोही स्वभाव की इस महिला ने सदा ही इसका प्रतिवाद किया और फलस्वरूप सर्वाधिक प्रताड़ना भी इन्होने ही पायी..अपने अभिभावकों को अपनी इस उपेक्षा और अनादर के लिए इन्होने कभी क्षमा नहीं किया..इतना ही नहीं दुर्भाग्यवस बालपन में अपने परिचितों तथा रिश्ते के कुछेक पुरुषों द्वारा अवांछनीय व्यवहार ने इनके मन में पुरुषों के प्रति घोर घृणा का भाव भी भर दिया,जिसके फलस्वरूप इन्होने विवाह नहीं किया....इन्होने अपने प्रतिभा का लोहा मनवाने तथा स्वयं को स्थापित करने के लिए पारिवारिक तथा आर्थिक मोर्चे पर कठोर संघर्ष किया और दुर्लभ धन पद सबकुछ पाया,परन्तु अपने जीवन की कटु स्मृतियों की भंवर से वे कभी मुक्त न हो पायीं..


ऐसा नहीं कि इन परिस्थितियों से गुजरी हुई ये एकमात्र महिला हैं...आज भी अधिकांश भारतीय महिलाओं को न्यूनाधिक इन्ही परिस्थितियों से गुजरना होता है. पर इन्होने जैसे इसे दिल से लगाया, इनके व्यक्तित्व में नकारात्मकता ही अधिक परिपुष्ट हुआ.सफलता पाकर भी इनका मन सदा उदिग्न ही रहा..ये यदि अपने मन से कटुता रुपी इस नकारात्मकता को निकाल पातीं तो परिवार समाज के सम्मुख एक बहुत बड़ा अनुकरणीय उदाहरण उपस्थित कर सकती थीं..स्वयं पाए उपेक्षा अनादर को कइयों में स्नेह और उदारता बाँट स्वयं भी सुखी हो सकती थीं और दूसरों को भी सुखी कर सकती थीं.ये स्थापित कर सकती थीं कि एक उपेक्षिता नारी इस समाज को क्या कुछ नहीं दे सकती है..


जब तक अपने अपनों के प्रति क्षोभ को हम अपनी स्मृतियों में, मन में जीवित पालित पोषित रखेंगे वह हमारे ह्रदय को दग्ध करती ही रहेगी और यदि प्रतिकार की अग्नि ह्रदय में जल रही हो तो सुख और शांति कैसे पाया जा सकता है..


व्यक्ति अपने जीवन में समस्त उपक्रम सुख प्राप्ति के निमित्त ही तो करता है,परन्तु चूँकि साधन को ही साध्य बना लिया करता है तो सुख सुधा से ह्रदय आप्लावित नहीं हो पाता. कितनी भी बहुमूल्य भौतिक वस्तु अपने पास हो, या पद मान प्रतिष्ठा मिल जाए, यदि मन शांत न हो, मन कर्म और वचन से दूसरों को सुख न दे पायें तो मन कभी सच्चे सुख का उपभोग न कर पायेगा....

जीवन है तो उसके साथ घात प्रतिघात दुर्घटनाएं तो लगी ही रहेंगी...लेकिन इसीके के मध्य हमें उन युक्तियों को भी अपनाना पड़ेगा जो हमारे अंतस के नकारात्मक उर्जा का क्षय कर हममे सकारात्मकता को परिपुष्ट करे, ताकि हम अपने सामर्थ्य का सर्वोत्तम निष्पादित कर पायें...दुर्घटनाओं को हम भले न रोक पायें पर दुःख और कष्ट से निकलने के मार्ग पर हम अवश्य ही चल सकते हैं..और सच मानिये तो ऐसे मार्गों की कमी नहीं...


ईश्वर की अपार अनुकम्पा से मेरी स्वाभाविक ही रूचि रही है कि सोच को सकारात्मक बनाने में सहायक जो भी युक्तियाँ जानने में आयें उन्हें जानू, समझूं और इसी क्रम में एक बार जब रेकी का प्रशिक्षण ले रही थी,हमारी गुरु ने हमें एक महिला की तस्वीर दिखाई और उनके विषय में बताया कि उक्त महिला बाल्यावस्था से ही गंभीर रूप से मस्तिष्क पीडा से व्यथित थीं..इसके साथ ही बहुधा ही वे अवचेतनावास्था में अत्यंत उग्र हो किसी को जान से मारने की बात कहा करती थीं..उनके अभिभावकों ने उनका बहुत इलाज कराया पर कोई भी चिकित्सक उनके रोग का न तो कारण बता पाया और न ही उसका प्रभावी निदान हो पाया..


विवाहोपरांत उनके पति ने भी अपने भर कोई कोर कसर न छोडी उनकी चिकित्सा करवाने में, पर सदा ढ़ाक के तीन पात ही निकले..अंततः उन्होंने कहीं रेकी के विषय में सुना और इसके शरण में आये..कुछ महीनो के चिकित्सा के उपरांत ही बड़े सकारात्मक प्रभाव दृष्टिगत होने लगे. तब अतिउत्साहित हो इन्होने स्वयं भी रेकी का प्रशिक्षण लेना आरम्भ किया. आगे बढ़कर एक यौगिक क्रिया के अर्न्तगत जब इन्होने पूर्वजन्म पर्यवेक्षण कर अपने रोग के कारणों तक पहुँचने का प्रयास किया तो इन्हें ज्ञात हुआ कि कई जन्म पूर्व इनके पति ने किसी अन्य महिला के प्रेम में पड़ इनके संग विश्वासघात किया और धोखे से इनके प्राण लेने को इन्हें बहुमंजिली भवन के नीचे धकेल दिया..अप्रत्याशित इस आघात से इनका ह्रदय विह्वल हो गया और इनके मन में प्रतिशोध की प्रबल अग्नि दहक उठी..मृत्युपूर्व कुछ क्षण में ही इन्होने जो प्रण किया था कि विश्वासघाती अपने पति से वे अवश्य ही प्रतिशोध लेंगी और उसे भी मृत्यु दंड देंगी, वह उनके अवचेतन मष्तिष्क में ऐसे संरक्षित हो गया कि कई जन्मो तक विस्मृत न हो पाया..और ऊंचाई से गिरने पर सिर में चोट लगने से इन्हें जो असह्य पीडा हुई ,वह भी जन्म जन्मान्तर तक इनके साथ बनी रही....


क्रिया क्रम में गुरु ने इन्हें आदेश दिया कि जिस व्यक्ति ने इनके साथ विश्वासघात किया ,उसे ये अपने पूरे मन से क्षमादान दे स्वयं भी मुक्त हो जाएँ और उसे भी मुक्त कर दें..सहज रूप से तो इसके लिए वे तैयार न हुयीं ,पर गुरु द्वारा समझाने पर उन्होंने तदनुरूप ही किया..और आर्श्चय कि इस दिन के बाद फिर कभी उन्हें मस्तिष्क पीडा न हुई और न ही मन में कभी वह उद्वेग ही आया...आगे जाकर उक्त महिला ने रेकी में ग्रैंड मास्टर तक का प्रशिक्षण लिया और असंख्य लोगों का उपचार करते हुए अपने जीवन को समाजसेवा में पूर्णतः समर्पित कर दिया...


सुनने में यह एक कथा सी लग रही होगी,परन्तु यह कपोल कल्पित नहीं..मैंने स्वयं ही अपने जीवन में इसे सत्य होते देखा है.कुछेक दंश जो सदा ही मुझे पीडा दिया करते थे,मैंने इस क्रिया के द्वारा पीडक को क्षमादान देते हुए मन स्मृति से तिरोहित करने का प्रयास किया और उस स्मृति दंश से मुक्त हो गयी..इसके बाद से तो मैंने इसे जीवन का मूल मंत्र ही बना लिया है...अब बिना यौगिक क्रिया के ही सच्चे मन से ईश्वर को साक्षी मान कष्ट देने वाले को क्षमा दान दे दिया करती हूँ और निश्चित रूप से कटु स्मृतियों, पीडा से अत्यंत प्रभावशाली रूप से मुक्ति पा जाया करती हूँ..


मेरा मानना है कि सामने वाले को सुख और खुशी देने के लिए हमें स्वयं अपने ह्रदय को सुख शांति से परिपूर्ण रखना होगा.अब परिवार समाज से भागकर तो कहीं जाया नहीं जा सकता..तो इसके बीच रह ही हमें सुखद स्मृतियों को जो कि हमें उर्जा प्रदान करती हों,संजोना पड़ेगा और दुखद स्मृतियाँ जो हमें कमजोर करे हममे नकारात्मकता प्रगाढ़ करे,उससे बचना पड़ेगा..सकारात्मक रह ही हम अपनी क्षमताओं का अधिकाधिक सदुपयोग कर सकते हैं..


क्षमादान से वस्तुतः दूसरों का नहीं सबसे अधिक भला अपना ही होता है.जब तक दुखद स्मृतियाँ अपने अंतस में संरक्षित रहती हैं,वे हमारे सकारात्मक सोच को बाधित करती है,हमें सुखी नहीं होने देती..सच्चे सुख की अभिलाषा हो तो उन सभी साधनों को अंगीकार करना चाहिए,जो हमारी नकारात्मकता न नाश करती हो.व्यक्ति में अपरिमित प्रतिभा क्षमता होती है,जिसका यदि सकारात्मक उपयोग किया जाय तो अपने साथ साथ अपने से जुड़े असंख्य लोगों के हित हम बहुत कुछ कर सकते हैं.ऐसे जीवन का क्या लाभ यदि इसकी पूरी अवधि में हम किसी को सुख और खुशियाँ न दे पायें..


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6.10.09

नक्सलवाद का वाद (???)

स्वयं को बहुत पहले से ही मैंने चेता रखा था कि, अपनी तथा अपने संवेदनशीलता की रक्षा के लिए कभी भी कुछ खाते पीते समय समाचार पठन या दर्शन न किया करूँ...परन्तु दुर्भाग्यवश आज उसे विस्मृत कर दोपहर के भोजन काल में टी वी पर समाचार देखने बैठ गयी ..सामने कल तक जीवित परन्तु आज मृत सी आई डी के पदाधिकारी फ्रांसिस हेम्ब्रम का वह चेहरा आया जिसे नक्सलियों ने अपने तीन शीर्ष नेताओं कोबर्ट गांधी ,छत्रधर महतो और भूषन को पुलिस द्वारा गिरफ्तार कर लिए जाने के बाद ,उन्हें मुक्त कराने हेतु अपहरण के बाद धमकी स्वरुप अपनी गंभीरता तथा प्रतिबद्धता दिखाते हुए मार डाला था...


मन अत्यंत खिन्न और विचलित हो गया और सच कहूँ तो लगा कि अभी जाकर पुलिस की गिरफ्त में उन तथाकथित महान नेताओं की हत्या कर इन्हें भी सबक सिखाऊँ. यह हमारे देश की कैसी न्याय प्रणाली है,जिसमे दुर्दांत अपराधियों के मानवाधिकारों के लिए भी इतनी चिंता की जाती है कि न्यायिक प्रक्रिया में उसमे और सामान्य अपराधी में कोई भेद नहीं किया जाता और दूसरी ओर कमजोर मासूम आदमी की रक्षा के लिए कोई व्यवस्था नहीं....


सामर्थ्यवान द्वारा शक्तिहीन को शोषित पीड़ित होते देख सुन कर किसी भी संवेदनशील व्यक्ति का ह्रदय प्रतिकार को उत्कंठित हो उठता है और आक्रोश की यह मात्रा ज्यों ज्यों बढ़ती जाती है,एक सामान्य शक्तिहीन मनुष्य में भी शोषक को समाप्त करने की प्रतिबद्धता प्रगढ़तम होती जाती है.. और फिर प्रतिकार का सबसे पहला मार्ग जो उसे दीखता है वह उग्रता और हिंसा का ही हुआ करता है...आवेग व्यक्ति में उस सीमा तक धैर्य का स्थान नहीं छोड़ती, कि व्यक्ति सत्याग्रह एवं अहिंसक मार्ग अपना सके और उसपर अडिग रह सके.रक्षक को ही भक्षक बने देख स्वाभाविक ही किसी भी संवेदनशील का खून खौलना और आवेश में उसके द्वारा अस्त्र उठा लेना,एक सामान्य बात है...


विश्व इतिहास साक्षी है ऐसे अनेकानेक विद्रोहों विप्लवों का जब अन्याय के प्रतिकार में व्यक्ति या समूह ने अस्त्र उठाये,आत्मबलिदान दिया और शोषकों के प्राण हरे.हत्या चाहे शोषक करे या शोषित,हत्या तो हत्या ही होती है,लेकिन अपने उद्देश्य के कारण एक पाप है तो दूसरा पुण्य.एक ही कार्य उद्देश्य भिन्न होने पर विपरीत अर्थ और परिणामदाई हो जाते है.परन्तु दोनों के मध्य अदृश्य अतिशूक्ष्म वह अंतर है जो पता ही नहीं चलने देता कि कब शोषित शोषक बन गया....


साठ की दशक में नक्सल आन्दोलन की नींव जिस विचारभूमि पर पड़ी थी, अन्याय और शोषण के विरुद्ध सशश्त्र प्रतिकार को उपस्थित हुआ वह समूह एक तरह से निंदनीय नहीं, वन्दनीय ही था.मुझे लगता है तब यदि मैं वयस्क रही होती तो मैं भी इसकी प्रबल समर्थक और प्रमुख कार्यकर्त्ता रही होती. इसके महत उद्देश्य ने ही देश के युवा वर्ग को सम्मोहित कर एकजुट किया था. देश को चलाने वाले बहुत छोटे से पदाधिकारी से लेकर शीर्षस्थ पदाधिकारी तक,राजनेता ,पूंजीपति आदि आदि यदि पथभ्रष्ट हो जायं और पोषक के बदले शोषक बन आमजन का जीवन दुरूह कर दें,न्याय पालिका तक अपनी प्रासंगिकता खो चुकी हो , तो उनके विरुद्ध आवाज़ बुलंद करना, उन्हें चेताना और दण्डित करना किसी भी लिहाज से अनैतिक नहीं.बल्कि मैं तो कहूँगी आज भी ऐसे ही समूह और शक्ति की आवश्यकता है जो पथविमुख को सही मार्ग पर रखने के लिए सदैव ही प्राणोत्सर्ग को तत्पर रहे...


परन्तु यही रक्षक शक्तियां जनकल्याण मार्ग से विमुख हो यदि शोषक और हिंसक बन जाय तो इन्हें कुचलना भी उतना ही आवश्यक है.कैसी विडंबना है,सरकार द्वारा विकास न किये जाने,पूंजीपतियों द्वारा शोषित होने और समस्त सरकारी तंत्र में व्याप्त भ्रष्टाचार के त्रासद स्थिति पर , जिस जनांदोलन की नींव रखी गयी ,आज महज तीन चार दशकों में ही इसका रूप विद्रूप हो आन्दोलन ठीक इसके विपरीत मार्ग पर चल अधोगामी हो चुका है . विकास का मार्ग पूर्ण रूपेण अवरुद्ध कर,उन्ही देशी विदेशी पूंजीपतियों ,विध्वंसक शक्तियों से सांठ गाँठ कर उनके आर्थिक मदद से तथा व्यापारी वर्ग को आतंकित कर उनसे धन उगाह अपना और भ्रष्ट राजनेताओं का स्वार्थ साधना , जब उस उग्रवादी समूह का सिद्धांत और स्वभाव बन जाय तो ऐसे समूह को डाकुओं हत्यारों का एक सुसंगठित गिरोह ही कहना होगा न ,जिसका उद्देश्य ही आतंक के सहारे धन लूटना, आतंक का धंधा चलाना और अपने ही देश को कमजोर करना है .


कहा जाता है कि दलित शोषित गरीब लोग हथियार उठा नक्सली बन रहे हैं.यदि यह समूह दलित शोषित उन गरीब लोगों का है,जिनके पास अन्न,वस्त्र,छत,जमीन और रोजी रोजगार नहीं हैं, तो भला इनके पास बेशकीमती अत्याधुनिक हथियार कहाँ से आ जाते हैं ?? यह सोचने और हंसने वाली बात है..यह किसी से छुपा नहीं अब कि, इस समूह के आय के श्रोत क्या हैं और इनके उद्देश्य क्या हैं...


समूह तो पथभ्रष्ट हो ही चुका है,पर सबसे दुखद यह है कि हमारे देश के कर्ताधर्ताओं को अभी भी यह कोई बड़ी समस्या नहीं लगती.हमारे यहाँ एक विचित्र व्यवस्था है,व्यक्ति का अपराध ही दंड प्रक्रिया से गुजरता है,समूह का अपराध जघन्य नहीं माना जाता और उसमे भी जितना बड़ा समूह, वह उतना ही उच्छश्रृंखल उतना ही मुक्त होता है... जानकार जानते हैं कि अपने ही देश में कई समूहों ने इसे अपना रोजगार बना लिया है..कहीं उल्फा ,कहीं नक्सल कहीं किसी और नाम से एक समूह संगठित होता है और ये सरकार को शांति और सुव्यवस्था बनाये रखने देने में सहयोग के नाम पर लेवी वसूल करते हैं.और इस तरह चलता है इनका पूरा व्यापार..

सरकार और ये आतंकी संगठन दोनों के ही उद्देश्य लोगों को अशिक्षित रख,उन्हें दुनिया और विकास से पूरी तरह काट भली भांति पूरे होते हैं.कौन नहीं जानता कि इनके ही इशारे पर मतदान भी हुआ करते हैं.इन आतंकवादियों से प्रभावित इलाकों में पूर्ण रूपेण इनका ही साम्राज्य चलता है और ये ही फौरी तौर पर राजनेताओं तथा राजनीति की दिशा दशा निर्धारित करते हैं....


इसके विकल्प रूप में तो यही दीखता है कि जब प्रशासन आँख कान मुंह ढांपे पड़ा है तो क्यों न लोहा से लोहे को काटने की तर्ज पर एक ऐसा ही सशश्त्र समूह संगठित किया जाय और इन आततायी शक्तियों को सबक सिखाई जाय...पर फिर यही लगता है कि इसकी क्या गारंटी है कि यह नया समूह भी कभी स्वार्थी नेताओं के नेतृत्व में स्वार्थी तथा विघटनकारी न बनेगा..

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24.9.09

सिंदूरदान (एक पौराणिक आख्यान) भाग - 2

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गतांक से आगे...

परन्तु क्या यह सब इतना ही सहज था..एक ओर तो क्षोभग्रस्त महारानी लज्जा शोक और पापबोध से घुली जा रही थीं, तो दूसरी ओर कणाद भी मोह और विवेक के मध्य छिड़े गहन द्वंद में घिरा अपना मत और करनीय स्थिर करने में स्वयं को सर्वथा असमर्थ पा रहा था.सरोवर सुन्दरी के आलौकिक सौन्दर्य को विस्मृत कर पाना उसके लिए असंभव हो रहा था.स्मृतिपटल पर अवस्थित वह दृश्य उसे उदिग्न कर दिया करता... सदैव ही उसे आभास होता जैसे वह निष्कलुष सौन्दर्य उसे अपने भुजपाश में आबद्ध होने को प्रतिपल प्रणय निवेदन भेज रहा है.


मोहग्रस्त कणाद कभी तो दर्पण के सम्मुख बैठ विभिन्न प्रकार से अपना श्रृंगार करता, अपनी ही छवि पर मुग्ध होता परन्तु जैसे ही विवेक उसे झकझोर उस पर अट्टहास करता ,वह स्वयं को दण्डित करने लगता. विछिप्त सी हो गयी थी उसकी स्थिति..आर्या गांधारी समस्त उपक्रम देख समझ रही थी,परन्तु कुछ भी कर पाने में वह असमर्थ थी. न तो वे महारानी का सत्य उद्घाटित कर सकतीं थीं न ही शिष्य की भ्रमित बुद्धि पर उनकी धर्मदेशना का किंचित भी प्रभाव पड़ रहा था...दुश्चिंताओं में घिरी आर्या के सम्मुख आचार्यवर के पुनरागमन के अतिरिक्त अन्य कोई विकल्प न रह गया था.महारानी को तो उन्होंने समझा लिया था परन्तु कणाद के सम्पूर्ण गतिविधियों पर दृष्टि रखने के अतिरिक्त उनके पास अन्य कोई साधन न था...


असह्य प्रतीक्षा का वह दीर्घ अन्तराल अंततः समाप्त हुआ और आचार्य के आगमन के साथ ही आर्या गांधारी के व्याकुल मन ने कई दिनों उपरांत अवलंबन पाया . अधीरता से वे रात्रि के एकान्तवेला की प्रतीक्षा करने लगी , जबकि वे आचार्यवर को समस्त वृतांत बता पातीं और इस घोर संकट से मुक्ति का मार्ग संधान वे कर पाते ...

उधर अपने सहपाठियों का संग पा कणाद पुनः प्रफ्फुलित हो गया था.समस्त शिष्य अतिउत्साहित हो यात्रा वृतांत कणाद को सुना रहे थे. परन्तु जो वृतांत कणाद के पास था वह तो अकल्पनीय ही था सबके लिए.. कणाद ने अनुमानित किया था कि ऋषिप्रसाद में गोपनीय ढंग से निवास करने वाली वह अप्सरा कोई ऋषि कन्या ही थी. अंत्यंत उत्साहित हो उसने अपने सहपाठियों को समस्त वृतांत तथा अनुमानित ऋषि कन्या के अनिर्वचनीय अनिद्य सौन्दर्य की विरुदावली सुनाई...

फिर क्या था, कणाद का मोह ऐसे विस्तृत हुआ कि उसके चुम्बकीय प्रभाव में अन्यान्य छात्र भी आ गए और उनके मध्य वाक् युद्ध प्रारंभ हो गया. सभी स्वयं को श्रेष्ठ घोषित कर पाणिग्रहण हेतु स्वयं को उस कन्या का अधिकारी ठहरा रहे थे.ज्येष्ठ शिष्य ने अपने ज्येष्ठता का कारण दिया तो कणाद ने अपने सर्वप्रथम दर्शन और प्रेम का. इसके साथ ही रमणी पर अधिकार हेतु किसी ने अपने बल का तो किसी ने अपने सौन्दर्य का और किसी ने धन का आधार स्थापित किया. आपसी सद्भाव सौहाद्र भाव तिरोहित हो मोह और इर्ष्या ने परस्पर सबको एक दूसरे का प्रबल प्रतिद्वंदी तथा शत्रु बना दिया था...

इस तथ्य से सभी भली भांति परिचित थे कि आचार्य विद्याध्यन के मध्य ब्रह्मचर्य व्रत खण्डित कर गृहस्थ स्थापना की आज्ञां कदापि न देंगे. सो गुरुवर संग किसी प्रकार की मंत्रणा किये या उनकी आज्ञा बिना ही समस्त शिष्य अपने अभिभावकों से विवाह का अनुज्ञान पाने आचार्यवर के नाम एक पत्र छोड़ कर स्वगृह को प्रस्थान कर गए. प्रातःकाल रिक्त संघाराम ने पूर्व से ही दुर्घटना से मर्माहत आचार्य और देवी गांधारी के ह्रदय पर मानों तुषारपात सा कर उन्हें दुःख के सागर में आकंठ निमग्न कर दिया. शोक संतप्त आर्या अपने पुत्रवत शिष्यों के मोह-ग्रस्त अवस्था का ध्यान कर उनका पतन लक्ष्य कर आहत हो विलाप करने लगी.

आचार्य खालित आहत अवश्य थे परन्तु निराश न थे..उन्हें अपनी दी हुई शिक्षा और शिष्यों के सुसंस्कार पर पूर्ण विश्वास था. भग्नहृदया भगिनी को उन्होंने आश्वस्त किया कि कुलीन शिष्यगणों की वर्तमान मनोदशा वयजनित विभ्रम है जो कि नितांत ही क्षणिक है,जैसे ही उनका विवेक जागृत होगा, पश्चात्ताप की अग्नि में शुद्ध हो वे पुनः अपने सुसंस्कार और कर्तब्य का सर्वोत्कृष्ट रूप से वहन करेंगे.... क्षात्रावास में उनका विद्याध्यन हेतु पुनरागमन अवश्यम्भावी है.वस्तुतः विधाता रचित इस घटना के पीछे भी छुपा हुआ उनका कल्याणकारी महत उद्देश्य ही है..दिव्य द्रष्टा आचार्यवर के धीर गंभीर आशापूर्ण वचनों ने आर्या के दग्ध ह्रदय को अनिर्वचनीय शीतलता प्रदान की..

इधर महारानी के गृहत्याग उपरांत क्रोध शांत होने पर जब कोशल नरेश को अपने अकरणीय का आभास हुआ तो वे विह्वल हो उठे और उन्होंने राज्य में चहुँ ओर महारानी का संधान आरम्भ कर दिया..परन्तु सब ओर से उन्हें निराशा ही मिली..निराशा पश्चात्ताप और वियोग महाराजा के दग्ध ह्रदय में हविष्याग्नि बन विरह ज्वाला को और भी उग्र कर दिया करते थे....अंततः चहुँ ओर से निराशा प्राप्ति उपरांत अब नृप के सम्मुख महारानी के संधान हेतु आचार्य के दिव्य ज्ञान का सहयोग लेने के अतिरिक्त कोई विकल्प न था..

शोक क्षोभ से विह्वल नरेश आश्रम में उपस्थित हो आचार्यवर के सम्मुख व्याकुल भाव से रुदन करने लगे...परन्तु उन्हें कहाँ आभास था कि जिस अभिलाषा से वे आश्रम में उपस्थित हुए हैं, उनका अभीष्ट तो वहीँ सुरक्षित है.जैसे ही उनके सम्मुख यह रहस्योद्घाटन हुआ कोशल नरेश आभारनत हो आचार्यद्वय के चरणों में नतमस्तक हो गए....

दंपत्ति का पुनर्मिलन आह्लाद को भी आह्लादित करने वाला हुआ.परन्तु आचार्यवर ने ऐतिहासिक निर्णय लेते हुए नरेश से कहा कि उन्हें उनकी भार्या तभी प्राप्त होगी जब कि वे अग्नि के सम्मुख पवित्र वैदिक मंत्रों के साथ सप्त वचन लेंगे और अग्निदेव को साक्षी मान महारानी की मांग में सिन्दूर भरेंगे...

पवित्र वैदिक मंत्रों संग महारानी का सिंदूरदान संपन्न हुआ.पतिपत्नी ने गृहस्थ धर्म की मर्यादा और अक्षुणता हेतु समस्त देवी देवताओं को साक्षी रख मृत्युपर्यंत एक दूसरे के प्रति प्रेम ,निष्ठां , मर्यादा, आदर और सेवा का शपथ लिया और तभी से परंपरा में सिंदूरदान नाम की इस पावन परंपरा का श्रीगणेश हुआ. सौभाग्य सिन्दूर विवाहित तथा अविवाहित स्त्री के मध्य अंतर स्थापित करने वाला सुगम साधन ही नहीं, स्त्री की मान रक्षा तथा पति के कर्तब्यबोध का सफल वाहक भी बन गया.

पुत्रीवत महारानी को पतिगृह विदा करते आचार्य वर तथा आर्या गांधारी का ह्रदय विह्वल हो उठा,परन्तु उसके सुखी जीवन के आभास और अभिलाषा ने उन्हें परम संतुष्टि और अनिर्वचनीय आनंद भी दिया..

महरानी के गमनोपरांत जब शिष्यगण अपने अभिभावकों से पाणिग्रहण हेतु सहमति ले आश्रम में उपस्थित हुए तो वहां की साज-सज्जा और विवाह वेदी देख अनिष्ट की आशंका से उनका मन विचलित होने लगा. सशंकित ह्रदय वे सभी आर्या तथा आचार्य के सम्मुख उपस्थित हुए तथा अपनी धृष्टता के लिए क्षमायाचना करते हुए अपना प्रयोजन स्पष्ट किया..अपना-अपना पक्ष रखते हुए सबने उस ऋषिकन्या पर अपना अधिकार स्थापित किया तथा पाणिग्रहण की अनुमति मांगी .

आचार्य कुछ पल को तो शांत भाव से समस्त अघटित देखते रहे,यकायक भीषण चीत्कार के साथ उठ खड़े हुए..उस भीषण वज्र ध्वनि ने सभी शिष्यों को स्तब्ध कर दिया.सभी निष्पलक निर्मिमेष दृष्टि से आचार्यवर को देखने लगे...और जैसे ही आचार्यवर ने महारानी का सत्य उनके सम्मुख उद्घाटित किया, लज्जा ग्लानि और पापबोध ने उन्हें विक्षिप्त सा कर दिया...जिन्हें वे अबतक एक कुंवारी ऋषिकन्या मान रहे थे ,वह तो परम वन्दनीय महारानी थीं. क्षणमात्र में मोह तिरोहित हो गया और आत्मग्लानि की भीषण ज्वाला में उनका कोमल ह्रदय दग्ध होने लगा..आचार्यवर के चरणों में भूलुंठित शिष्य अपने इस निकृष्ट कुकृत्य हेतु प्राणदंड की याचना करने लगे.

आचार्यवर ने कठोर शब्दों में उन्हें सावधान किया कि इस घोरतम पाप के लिए उन्हें दंड तो अवश्य मिलेगा परन्तु दंड की उद्घोषणा अगले दिन प्रातः काल की जायेगी इस अवधि-मध्य यदि कोई क्षात्र दंडमुक्ति की अभिलाषा रखता हो तो बिना आज्ञा, आश्रम छोड़कर जा सकता है..

कठोरतम दंड का आश्वासन पा शिष्यों ने मानों नूतन जीवन का आधार पाया था..अत्यंत अधीरतापूर्वक वे उषा काल की प्रतीक्षा करने लगे.अन्य दिनों की अपेक्षा बहुत पहले ही नित्यक्रिया से निवृत हो वे आचार्यवर के कक्ष के सम्मुख उपस्थित हो गए.

शिष्यों की प्रतिबद्धता ने आचार्यवर को परम सुख और संतोष दिया. पश्चात्ताप की जिस अग्नि में इतने काल तक वे जले थे, उसमे से उनका ह्रदय विशुद्ध कंचन बन बाहर आ गया था.अब इससे बड़ा दंड और क्या हो सकता था कि जीवन भर वे अपने इस अकरणीय से शिक्षा ले मोह बंधन से मुक्त रहते. आचार्यवर ने उन्हें दंडमुक्त कर परम ज्ञान का वह उपदेश दिया जो उनके शिक्षण समाप्ति के पूर्व उन्हें प्राप्त होता. इसके साथ ही आचार्यवर ने अपने इन परमज्ञानी शिष्यों को विश्व कल्याण हेतु ज्ञान प्रसार की आज्ञा दे समाज के बीच भेज दिया..

सर्वविदित है कि महर्षि गौतम, कपिल, जैमिनी, पतंजलि, व्यास और कणाद ने ज्ञान रूपी वह धरोहर विश्व को सौंपी है जो सृष्टि के अंत तक संसार का मार्गदर्शन करती रहेंगी....

(हिंदी साहित्य के सिद्ध हस्ताक्षर, परम आदरणीय श्री रामेश्वर प्रसाद सिंह की ह्रदय से आभारी हूँ,जिनके पुराणों,जैन तथा बौद्ध ग्रंथों के गहन अध्ययन अन्वेश्नोपरांत लिखित महान आध्यात्मिक ऐतिहासिक उपन्यास " पाटलीपुत्र की राजनर्तकी " के अध्ययन क्रम में इस प्रसंग से अवगत होने का सौभाग्य मिला...

उक्त पुस्तक में तो यह प्रसंग अत्यंत विस्तृत रूप में उल्लिखित है,मैंने उसके साररूप को अपने शब्दों में ढाल यहाँ प्रेषित करने का प्रयास किया है.चूँकि यह प्रसंग मेरे लिए सर्वथा नवीन एवं रोमांचक था,सो मैंने सार्वजानिक स्थल पर इसे सर्वसुलभ करने का निर्णय लिया. )

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22.9.09

सिंदूरदान (एक पौराणिक आख्यान) भाग-1

वैदिक युग के भी पूर्व सतयुग के आरंभिक काल की कथा है.उन दिनों माता जान्हवी धरा पर अवतरित न हुई थीं..सिन्धु तथा सरस्वती नदी के संगमस्थल पर दैवज्ञ आचार्य महर्षि खालित का गुरुकुल अवस्थित था. महर्षि की बाल विधवा भगिनी गांधारी आश्रम की संचालिका थी.महर्षि के अतुल ज्ञान तथा आर्या गांधारी के वात्सल्यमयी छत्रछाया में छः शिष्य - गौतम, कपिल, जैमिनी, पतंजलि, व्यास और कणाद ब्रह्मचर्य व्रत धारण किये शिक्षण प्राप्त कर रहे थे.



सात वर्षों की शिक्षावधि समाप्त हो चुकी थी,पांच वर्ष शेष रह गए थे. इस काल में कुशाग्रबुद्धि सुसंस्कारी शिष्यों ने कठोरतम साधना द्वारा अपनी कुल कुंडलिनी पर्याप्त जागृत कर ली थी. आत्मबोध तथा युगबोध ने उनके सम्मुख मोह माया को नगण्य कर दिया था.आचार्य खालित तथा आर्या गांधारी को अपने इन पुत्रवत शिष्यों से जितना स्नेह था उतना ही उनपर गर्व भी था.


इन्ही दिनों एक दिन मध्यरात्रि में आश्रम की नीरवता को एक अनिद्य सुन्दरी रमणी के करुण क्रंदन ने अभिशप्त कर दिया. आर्या गांधारी तथा आचार्य महर्षि के पाद पद्मों में भूलुंठित रमणी आश्रय हेतु गुहार लगा रही थी...वह परम सुन्दरी और कोई नहीं कोशल नरेश की अर्धांगिनी महारानी वेपुथमति थी. क्रोधोन्मत्त नृप ने पतिपरायना भार्या का परित्याग कर दिया था..भग्नहृदया महारानी को अपने मान शील की रक्षा की शरणस्थली आश्रय स्वरुप एकमात्र विकल्प यह पावन आश्रम ही दृष्टिगत हुआ था, सो निःशंक निस्पंद उस रात्रि में ऋषि आश्रम में वह आ उपस्थित हुई थी.


महारानी की करुण अवस्था ने भाई बहन के ह्रदय को दग्ध कर दिया.. उन्होंने महारानी को पुत्रीवत स्नेह और आश्रय का आश्वासन दे आश्वस्त किया. परन्तु महारानी के आलौकिक सौन्दर्य ने उन्हें चिंतित और दुविधाग्रस्त भी कर दिया .एक तो महारानी की मानरक्षा के लिए इस तथ्य की गोपनीयता सर्वथा अनिवार्य थी और इसके लिए उन्हें महारानी के लिए गोपनीय वास की व्यवस्था करनी थी और दूसरे अपरिपक्व वयि शिष्यों को उनके परिपक्व होने तथा शिक्षण समाप्ति पर्यंत स्त्री संपर्क से पूर्णतः वंचित रखना था. जिस वयः संधि पर उनके शिष्यगन अवस्थित थे,उनमे विवेक उतना प्रखर न हुआ था कि वे अपना करनीय भली भांति स्थिर कर पाते.आचार्यवर अपने शिष्यों के शिक्षण समाप्ति से पूर्व किसी भी भांति तपश्चर्या में विघ्न उपस्थित होने देना नहीं चाहते थे.


अंततः भाई बहनों ने गहन मंत्रणा कर आश्रम के विस्तृत प्रांगन के एक जनशून्य अलंघ्य दुकूल में महारानी के रहने की समुचित व्यवस्था कर दी तथा महारानी से वचन लिया कि अपनी गोपनीयता को संरक्षित रखते हुए वे कभी भी आश्रम के अवांछित भाग में आवागमन नहीं करेंगी. विछिन्न हृदया महारानी तो स्वयं ही एकांत की अभिलाषिनी थीं, अभीष्ट पूर्ण होते देख उनके संतप्त उदिग्न ह्रदय में नव आशा का संचार हुआ. समय के साथ आर्या गांधारी की देख रेख उनके वात्सल्यपूर्ण स्नेहिल व्यवहार तथा धर्मदेशना के संग आश्रम के उस पवित्र सात्विक परिवेश में शनैः शनैः महारानी का संताप भी घुलने लगा..


कुछ मास में जब सब व्यवस्थित और सुचारू रूप से चलने लगा, पूर्वनियोजित कार्यक्रमानुसार आचार्य ने अपने शिष्यगणों संग चातुर्मास हेतु तीर्थाटन का अनुष्ठान किया. सब व्यवस्था हो गयी किन्तु प्रस्थान से ठीक एक दिन पूर्व कनिष्ठ शिष्य कणाद भीषण ज्वर बाधा से पीड़ित हो गया. उसके स्वस्थ होने तक यात्रा स्थगित कर दी गयी. आचार्य सहित समस्त शिष्य समुदाय उसके उपचार और सेवा में जुट गए,परन्तु रोग दिनानुदिन असाध्य ही होता गया. ज्वर मुक्त होने में कणाद को मास भर लग गया.परन्तु इस दीर्घकालिक ज्वर ने उसे जीर्णकाय कर, उसकी शारीरिक अवस्था ऐसी न छोडी थी कि वह सहस्त्र कोसों की पद यात्रा में सक्षम हो पाता. अंतत महर्षि ने उसे स्वास्थ्य लाभ हेतु आश्रम में ही आर्या गांधारी की देख रेख में छोड़, अन्य शिष्यों संग तीर्थयात्रा को प्रस्थान किया...


स्वास्थ्य लाभ करते हुए कणाद देवी गांधारी के संग आश्रम में रह तो गया परन्तु अपने सहपाठियों का विछोह उसे कष्टकर लगने लगा. एकाकीपन ने उसके मन को अस्थिर और व्यथित कर रखा था...ऐसे ही एक दिन पूर्णमासी की रात्रि को तृतीय प्रहर में ही उसकी निद्रा विखण्डित हो गयी. विचलित मन आसन त्याग जब वह कक्ष से बाहर आया तो, शुभ्र ज्योत्स्ना की चहुँ ओर विस्तृत धवल आभा ने उसे विमुग्ध कर दिया. मन का एकाकीपन और अस्थिरता जैसे उस धवल उर्मी में धुल कर बह गया.आत्मविस्मृत मंत्रमुग्ध हो प्रकृति की उस मनोरम छटा का आनंद लेते हुए उस सौन्दर्य सुधा का रसपान करता भ्रमण को निकल पड़ा..आनंद और चिंतन में मग्न किशोर लक्ष्य ही न कर पाया कि कब उसने आश्रम के निषिद्ध प्रकोष्ठ की परिसीमा का उल्लंघन कर दिया था.....


संयोगवश दुश्चिंताओं में घिरी रानी भी असमय निद्रा भंग के बाद क्लांत मन को प्रकृति की सुरम्यता में रमा दुश्चिंताओं से मुक्ति हेतु सरोवर में स्नान करने चली आयीं थीं.चूँकि रानी आचार्य तथा शिष्यों के तीर्थाटन गमन तथ्य से अवगत थी ,सो निश्चित होकर उन्होंने सरोवर के दुकूल में अवस्थित वृक्ष की शाख पर अपने वस्त्र रख सरोवर के स्निग्ध जल में मुक्त भाव से संतरण करने लगीं.


सरोवर कूल में वृक्ष द्रुमो पर रखे वस्त्रों का मस्तक पर स्पर्श होते ही सहसा कणाद का ध्यान भंग हुआ और जैसे ही उसकी दृष्टि सद्यः स्नाता सर्वांग सुंदरी महारानी पर पडी अचंभित किशोर जड़वत वहां संज्ञासून्य सा ठिठका खडा अपलक उस दृश्य को निहारता रह गया..आकस्मात जब महारानी की दृष्टि इस ओर गयी तो संकोच लज्जा और भयवश वह भी पल भर को काष्ठवत स्थिर हो गयी.परन्तु शीघ्र ही अपनी सम्पूर्ण उर्जा लगा द्युत गति से सरोवर से बाहर निकल पलक मारते लता द्रुमो के मध्य लुप्त हो गयी..


कुछ क्षणों का यह सम्पूर्ण दृश्य विद्युत्पात सा बारम्बार कणाद के मनोमस्तिष्क पर कौंधने लगा...यह एक स्वप्न था अथवा सत्य , निर्णीत करने में वह सर्वथा असमर्थ हो रहा था. हतप्रभ सा किशोर चकित थकित उसी मुद्रा में एक प्रहर तक जड़वत ऐसे ही निर्मिमेष दृष्टि से सरोवर को निहारता सुध बुध बिसराए खडा रह गया.


प्रतिदिन की भांति चतुर्थ प्रहर में आकर जब कणाद ने आर्या गांधारी का अभिवादन और चरण स्पर्श नहीं किया तो चिंतातुर गांधारी ही संघाराम (छात्रावास) की ओर चल दी. वहां कणाद को अनुपस्थित देख अनिष्ट की आशंका से आतंकित गांधारी आश्रम में चहुँ ओर उसका संधान करने लगी. अनुमानित किसी भी स्थल पर उसे न पा सशंकित जब वह महारानी के प्रकोष्ठ की ओर बढ़ी और सरोवर के कूल में महारानी के वस्त्रों के निकट निश्चल कणाद को विस्मृत उस अवस्था में देखा तो सबकुछ समझने में उन्हें दो पल भी न लगा...


अंततः वही हुआ था, जिसका उन्हें भय था. महारानी के अतुलित सौन्दर्य ने बालक के बुद्धि विवेक को राहु सा ग्रस लिया था..आशंकित आर्या ने शिष्य को झकझोरा .. तंद्रा भंग होने पर स्वयं की स्थिति का उसे भान हुआ. वर्जित प्रदेश में प्रवेश कर आश्रम के अनुशाशन को तो उसने भंग किया ही था, वस्त्रहीना स्त्री के सम्मुख इस प्रकार निर्लज्जता से खड़े रह उसका घोर अपमान भी किया था. अनुशाशन तथा मर्यादा भंग कर उसने घोरतम अपराध किया था. विवेक जब पुनर्प्रतिष्ठित हुआ तो अपराधबोध से उसका ह्रदय दग्ध होने लगा..अपने ही मुख से अपने समस्त दोषों को स्वीकृत करते हुए माता गांधारी के पाद पद्मों में लोट कर वह अपने लिए कठोरतम दंड की याचना करने लगा.


बालक के निष्कलुष अश्रुबिंदुओं ने ममतामयी गांधारी का ह्रदय द्रवित कर दिया था..उसकी स्वीकारोक्ति ने उन्हें संशयहीन कर दिया..इस अप्रिय प्रसंग को स्वप्नवत विस्मृत करते हुए, उस निषिद्ध प्रदेश में पुनर्प्रवेश न करने के अनुशासन का प्रतिबद्धता पूर्वक पालन करने का निर्देश दे आर्या एक प्रकार से निश्चिंत सी हो गयी. कणाद ने भी शपथ लेते हुए माता को आश्वस्त किया कि इस प्रकार का अकरणीय भविष्य में कदापि घटित न होगा...

क्रमशः


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8.9.09

समालोचना !!!

सम्पूर्ण श्रृष्टि में चर चराचर, प्रत्येक उद्यम सुख और आनंद प्राप्ति के निमित्त ही तो करते हैं. परन्तु समस्या यह है कि सुख आनंद विभिन्न श्रोतों द्वारा जितना अधिक हम लेने / जोड़ने में तत्पर रहा करते हैं, उतना किसी को देने में नहीं. जबकि यदि हम सचमुच ही शाश्वत सुख के अभिलाषी हैं, तो मन वचन और कर्म से सतत सजग रह कर हमें अपने आस पास अपने से जुड़े प्रकृति से लेकर प्राणिमात्र को सुख देना होगा...क्योंकि भौतिकी का यह सिद्धांत निर्विवादित सत्य है कि, हमारे द्वारा संपादित प्रत्येक क्रिया के सापेक्षिक समानुपातिक प्रतिक्रिया होती है..यदि हम सदैव यह ध्यान रखें कि अमुक कारक यदि मेरे सुख का कारण बनती है तो मैं भी दूसरे को यह सुख दूँ, तो संसार में दुःख का संभवतः कोई कारण ही नहीं बचेगा...

जैसे कि यही देख लें , सामान्य जीवन में हम प्रशंषित प्रोत्साहित होने में तो सुख पाते हैं,परन्तु सच्चे मन से प्रशंशा या प्रोत्साहन देने में संकोच कर जाते हैं. अधिकांशतः ऐसे अवसरों पर हमारा अहम् आड़े आ जाया करता है. यही नहीं, बहुधा जाने अनजाने अपने आत्मीय, अपने प्रिय तक से ऐसा कुछ कह जाया करते हैं, जो उनकी आत्मा को गहरे खरोंच जाया करती हैं. हमारे लिए साधारण लगने वाली बातों को भी मन में चुभ जाने पर हमारे अपने अति गंभीरता से ले लिया करते हैं और फिर ये बातें उनके जीवन की दिशा ही बदल दिया करती है. नकारात्मक बातें जीवन को अधोगामी बना बड़ा ही घातक परिणाम छोडा करती हैं...

मेरी एक प्रिय सखी है. उसके लेखन की मैं कायल हूँ..परन्तु इधर बहुत लम्बे समय से उसका मन लेखन से विरत हो गया था...पहले तो मुझे लगा उसकी अन्मयस्कता का कारण संभवतः पारिवारिक व्यस्तता है, पर वार्ता क्रम में जब उसे बड़ा ही निराश हतोत्साहित सा देखा तो मैं कारण जानने को बाध्य हो गयी.....बहुत खोंदने पर ज्ञात हुआ कि एक वरिष्ठ साहित्यकार , जिनपर उसकी अपार आस्था और श्रद्धा थी तथा जिनके मार्गदर्शन में चलना ही उसने अपना परम कर्तब्य माना था, ने न जाने क्या सोचकर उसके लेखन कला की तीव्र भर्त्सना कर दी...इस घटना से उसका संवेदनशील ह्रदय इतना आहत और हतोत्साहित हुआ कि उसने स्वयं ही अपने आप को अयोग्यता का प्रमाण पत्र देते हुए भविष्य में रचनाशीलता से किनारा करने का मन बना लिया.यह मेरे लिए असह्य था,क्योंकि अपनी श्रीजनात्मकता से वह साहित्य को समृद्धि प्रदान कर रही थी...

अपने जीवन में बहुधा ही इन परिस्थितियों से मैं स्वयं भी गुजरी हूँ तथा असंख्य लोगों को गुजरते देखा है,चाहे वह घर हो,कार्यालय हो, साहित्य/कला का क्षेत्र हो या जीवन से जुड़ा कोई भी अन्य क्षेत्र...और मुझे लगता है इस संसार का कोई मनुष्य नहीं जो इससे अछूता रहा होगा..जिससे हम नकारात्मकता की अपेक्षा किये होते हैं,जो हमारे आत्मीय नहीं होते , उनकी आलोचना से भले हम आहत न हो..परन्तु अपने आत्मीय जनों या जिनपर हमें आपर आस्था हो, अनपेक्षित रूप से यदि आलोचना मिले या प्रोत्साहन न मिले,तो हतोत्साहित हताश होना स्वाभाविक है.

ऐसी परिस्थतियों में हौसला हार कर शिथिल हो बैठा जाना, अपने कर्तब्य से विमुख होना, स्वाभाविक सही पर उतना ही अनुचित है, जितना कि किसी को हतोत्साहित करना. यदि हमने अपने कर्म का मार्ग परोपकार(मन वचन या कर्म से किसी को भी सुख देने का) का चुना है, तो ऐसे मार्ग पर कर्म विमुख कर्ताब्य्च्युत होकर बैठना निसंदेह पाप है. हाँ बात यह है कि संवेदनशील ह्रदय जब आहत व्यथित होगा यह नकारात्मक भाव हमारे रचनात्मक उर्जा का क्षय तो करेगा ही...ऐसे में इससे उबरने के साधनों पर यदि विचार कर लिया जाय तथा उसे सदैव ध्यान में रखा जाय तो नकारात्मक भाव से यथासंभव शीघ्रातिशीघ्र छुटकारा मिल सकता है..

सबसे पहले इसपर विचार करें कि क्या आलोचक की व्यक्तिगत योग्यता, अभिरुचि या कार्यक्षेत्र वह है कि वह हमारे विचारों और कार्यों का सही मूल्यांकन कर सकता है....

दुसरे, कि कहीं अधिकांश व्यक्तियों या उनके कृतित्वों का क्षिद्रान्वेशन आलोचक की स्वाभाविक प्रवृत्ति ही तो नहीं .....(क्योंकि कुछ वरिष्ठ और महत्वपूर्ण पद पर प्रतिष्ठित तथा महत कार्य संपादित कर रहे व्यक्ति भी कुंठाग्रस्त नकारात्मक प्रवृत्ति के होते हैं और उनसे सकारात्मकता की आशा करना रेत से तेल निकलने सा है)

तीसरे ,यदि आलोचक में उपर्युक्त कोई भी दोष नहीं, तो कहीं ऐसा तो नहीं कि उसने जब नकारात्मक प्रतिक्रिया दी उस कालावधि में वह तनावग्रस्त ,खीझा चिड़चिडाया हुआ था .

इन तथ्यों को ध्यान में रखकर ही निष्कर्ष पर पहुंचना चाहिए कि आलोचक की बातों को कितना वजन देना है और अंगीकार करना है. यूँ तो सर्वोत्तम यह होता है कि सौ पैसे अपनी भी न सुनी जाय.... सबकी सुन, अपनी तथा बाकियों की बातों को अपने विवेक की कसौटी पर भली प्रकार जांच परख कर,अभिमत स्थिर करना ही श्रेयकर हुआ करता है और तत्पश्चात उस मार्ग पर पूर्ण सकारात्मक उर्जा के साथ अग्रसर हों..सामान्यतया यदि व्यक्ति सकारात्मकता से गहरे जुड़ा होता है तो उसका विवेक भी उतना ही जागृत होता है और फिर छोटी छोटी बातों, दुर्घटनाओं की तो बात ही क्या, बड़ी से बड़ी दुर्घट्नाये बाधाएं उसका कर्मपथ अवरुद्ध बाधित नहीं कर पातीं.

कहते हैं न...... " खुदी को कर बुलंद इतना,कि खुदा भी बन्दे से खुद पूछे, बता तेरी रजा क्या है..." वस्तुतः सही मायने में जिसने भी अपने आत्मबल को सुदृढ़ कर लिया ,विवेक को सतत जागृत रखा, जीवन उसीने जिया...वही विजेता बना... क्योंकि अंततः जीवन में यदि कुछ माने रखता है तो स्वयं द्वारा निष्पादित सत्कर्म और उससे प्राप्त संतोष और शांति...

यह सतत स्मरणीय है कि समालोचना क्रम में सदैव सकारात्मक रहें,नहीं तो आपकी नकारात्मक उक्ति किसी की रचनात्मक प्रतिभा को समूल नष्ट कर सकती है...


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31.8.09

मुद्रा चिकित्सा (भाग -२)

भाग - १ पढ़ने के लिए यहाँ क्लिक कीजिये.

अतिविनाम्रतापूर्वक मैं स्पष्ट कर देना चाहती हूँ कि मैं कोई योग विशेषज्ञ नहीं और न ही मुद्रा चिकित्सा में मैंने कोई विशेषज्ञता प्राप्त की है..ईश्वर की असीम अनुकम्पा से बाल्यावस्था से ही अपने परिवेश तथा अन्यान्य श्रोतों से शरीर तथा मन को सात्विकता से जोड़कर जीवन में सच्चे सुख प्राप्ति के साधनों के विषय में जानने का महत सुअवसर मिला..

मेरे पिताजी योग से जुड़े थे और उनके पास योग की अनेक पुस्तकें थीं. उन्हें क्रियायें / मुद्राएँ करते देखा करती तथा उन पुस्तकों को भी यदा कदा उल्टा-पुल्टा करती थी..परवर्ती वर्षों में अध्यात्म के साथ साथ "रेकी ", "आर्ट ऑफ़ लिविंग" इत्यादि के प्रशिक्षण क्रम में भी मुद्रा चिकित्सा के विषय में बहुत कुछ जानने-सुनने तथा सीखने का सुअवसर मिला...

इसके विस्मयकारी सकारात्मक प्रभाव को प्रत्यक्ष ही अपने जीवन में मैंने अनुभव किया है..और आज इसे उत्सुक परन्तु अनभिज्ञ लोगों के कल्याणार्थ प्रेषित कर रही हूँ. मनुष्य अपने जीवन में प्रत्येक उपक्रम सुख प्राप्ति हेतु ही तो करता है,पर चूँकि उसकी समस्त चेष्टाएँ सदा ही सकारात्मक दिशा में नहीं रहतीं, फलस्वरूप सुख के स्थान पर दुःख उसके हाथ आता है.

इस विधा पर सचित्र विस्तृत विवरण किसी भी मुद्रा चिकित्सा या योग मुद्रा की पुस्तक में जिज्ञासु सहज ही पा सकते हैं...

हमें तो प्रशिक्षण क्रम में यही निर्देशित किया गया था कि किसी भी मुद्रा को अपरिहार्य लाभ हेतु न्यूनतम चालीस मिनट करना चाहिए,परन्तु मैंने अनुभूत किया है कि कभी कभार व्यस्तता वश यह समय सीमा यदि संकुचित भी हो जाती है तो अल्पकाल में भी लाभ मिलता ही है.समयाभाव के बहाने इसे पूर्णतः टालना उचित नहीं रहता..

2. अपान मुद्रा :- अंगूठे से दूसरी अंगुली (मध्यमा) तथा तीसरी अंगुली (अनामिका) के पोरों को मोड़कर अंगूठे के पोर से स्पर्श करने से जो मुद्रा बनती है,उसे अपान मुद्रा कहते हैं..

लाभ - यदि मल मूत्र निष्कासन में समस्या आ रही हो,पसीना नहीं आ रहा हो,तो इस मुद्रा के चालीस मिनट के प्रयोग से इस अवधि के मध्य ही शरीर से प्रदूषित विजातीय द्रव्य निष्काषित हो जाते हैं.देखा गया है कि जब औषधि तक का प्रयोग निष्फल रहता है, इस मुद्रा का प्रयोग त्वरित लाभ देता है..

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3. शून्य मुद्रा :- अंगूठे से दूसरी अंगुली (मध्यमा,सबसे लम्बी वाली अंगुली) को मोड़कर अंगूठे के मूल भाग (जड़ में) स्पर्श करें और अंगूठे को मोड़कर मध्यमा के ऊपर से ऐसे दबायें कि मध्यमा उंगली का निरंतर स्पर्श अंगूठे के मूल भाग से बना रहे..बाकी की तीनो अँगुलियों को अपनी सीध में रखें.इस तरह से जो मुद्रा बनती है उसे शून्य मुद्रा कहते हैं..

लाभ - इस मुद्रा के निरंतर अभ्यास से कान बहना, बहरापन, कान में दर्द इत्यादि कान के विभिन्न रोगों से मुक्ति संभव है.यदि कान में दर्द उठे और इस मुद्रा को प्रयुक्त किया जाय तो पांच सात मिनट के मध्य ही लाभ अनुभूत होने लगता है.इसके निरंतर अभ्यास से कान के पुराने रोग भी पूर्णतः ठीक हो जाते हैं..

इसकी अनुपूरक मुद्रा आकाश मुद्रा है.इस मुद्रा के साथ साथ यदि आकाश मुद्रा का प्रयोग भी किया जाय तो व्यापक लाभ मिलता है.



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4. सूर्य मुद्रा :- अंगूठे से तीसरी अंगुली अनामिका (रिंग फिंगर) को मोड़कर उसके ऊपरी नाखून वाले भाग को अंगूठे के जड़ (गद्देदार भाग) पर दवाब(हल्का) डालें और अंगूठा मोड़कर अनामिका पर निरंतर दवाब(हल्का) बनाये रखें तथा शेष अँगुलियों को अपने सीध में सीधा रखें.....इस तरह जिस मुद्रा का निर्माण होगा उसे सूर्य मुद्रा कहते हैं...

लाभ - यह मुद्रा शारीरिक स्थूलता (मोटापा) घटाने में अत्यंत सहायक होता है...जो लोग मोटापे से परेशान हैं,इस मुद्रा का प्रयोग कर फलित होते देख सकते हैं..

( अनामिका को महत्त्व लगभग सभी धर्म सम्प्रदाय में दिया गया है.इसे बड़ा ही शुभ और मंगलकारी माना गया है.हिन्दुओं में पूजा पाठ उत्सव आदि पर मस्तक पर जो तिलक लगाया जाता है,वह इसलिए कि ललाट में जिस स्थान पर तिलक लगाया जाता है योग के अनुसार मस्तक के उस भाग में द्विदल कमल होता है और अनामिका द्वारा उस स्थान के स्पर्श से मस्तिष्क की अदृश्य शक्ति जागृत हो जाती हैं,व्यक्तित्व तेजोमय हो जाता है)




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5. वायु मुद्रा :- अंगूठे के बाद वाली पहली अंगुली - तर्जनी को मोड़कर उसके नाखभाग का दवाब (हल्का) अंगूठे के मूल भाग (जड़) में किया जाय और अंगूठे से तर्जनी पर दवाब बनाया जाय ,शेष तीनो अँगुलियों को अपने सीध में सीधा रखा जाय...इससे जो मुद्रा बनती है,उसे वायु मुद्रा कहते हैं.

लाभ - वायु संबन्धी समस्त रोग यथा - गठिया,जोडों का दर्द, वात, पक्षाघात, हाथ पैर या शरीर में कम्पन , लकवा, हिस्टीरिया, वायु शूल, गैस, इत्यादि अनेक असाध्य रोग इस मुद्रा से ठीक हो जाते हैं. इस मुद्रा के साथ कभी कभी प्राण मुद्रा भी करते रहना चाहिए...




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6. प्राण मुद्रा :- अंगूठे से तीसरी अनामिका तथा चौथी कनिष्ठिका अँगुलियों के पोरों को एकसाथ अंगूठे के पोर के साथ मिलाकर शेष दोनों अँगुलियों को अपने सीध में खडा रखने से जो मुद्रा बनती है उसे प्राण मुद्रा कहते हैं..

लाभ - ह्रदय रोग में रामबाण तथा नेत्रज्योति बढाने में यह मुद्रा परम सहायक है.साथ ही यह प्राण शक्ति बढ़ाने वाला भी होता है.प्राण शक्ति प्रबल होने पर मनुष्य के लिए किसी भी प्रतिकूल परिस्थितियों में धैर्यवान रहना अत्यंत सहज हो जाता है.वस्तुतः दृढ प्राण शक्ति ही जीवन को सुखद बनाती है..

इस मुद्रा की विशेषता यह है कि इसके लिए अवधि की कोई बाध्यता नहीं..इसे कुछ मिनट भी किया जा सकता है.



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7. पृथ्वी मुद्रा :- अंगूठे से तीसरी अंगुली - अनामिका (रिंग फिंगर) के पोर को अंगूठे के पोर के साथ स्पर्श करने पर पृथ्वी मुद्रा बनती है.शेष तीनो अंगुलियाँ अपनी सीध में खड़ी होनी चाहिए..

लाभ - जैसे पृथ्वी सदैव पोषण करती है,इस मुद्रा से भी शरीर का पोषण होता है.शारीरिक दुर्बलता दूर कर स्फूर्ति और ताजगी देने वाला, बल वृद्धिकारक यह मुद्रा अति उपयोगी है.जो व्यक्ति अपने क्षीण काया (दुबलेपन) से चिंतित व्यथित हैं,वे यदि इस मुद्रा का निरंतर अभ्यास करें तो निश्चित ही कष्ट से मुक्ति पा सकते हैं. यह मुद्रा रोगमुक्त ही नहीं बल्कि तनाव मुक्त भी करती है..यह व्यक्ति में सहिष्णुता का विकाश करती है.


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8. वरुण मुद्रा :- कनिष्ठिका (सबसे छोटी अंगुली) तथा अंगूठे के पोर को मिलाकर शेष अँगुलियों को यदि अपनी सीध में राखी जाय तो वरुण मुद्रा बनती है..

लाभ - यह मुद्रा रक्त संचार संतुलित करने,चर्मरोग से मुक्ति दिलाने, रक्त की न्यूनता (एनीमिया) दूर करने में परम सहायक है.वरुण मुद्रा के नियमित अभ्यास से शरीर में जल तत्व की कमी से होने वाले अनेक विकार समाप्त हो जाते हैं.वस्तुतः जल की कमी से ही शरीर में रक्त विकार होते हैं.यह मुद्रा त्वचा को स्निग्ध तथा सुन्दर बनता है.

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9. अंगुष्ठ मुद्रा :- बाएँ हाथ का अंगूठा सीधा खडा कर दाहिने हाथ से बाएं हाथ कि अँगुलियों में परस्पर फँसाते हुए दोनों पंजों को ऐसे जोडें कि दाहिना अंगूठा बाएं अंगूठे को बहार से आवृत्त कर ले ,इस प्रकार जो मुद्रा बनेगी उसे अंगुष्ठ मुद्रा कहेंगे.

लाभ - अंगूठे में अग्नि तत्व होता है.इस मुद्रा के अभ्यास से शरीर में उष्मता बढ़ने लगती है.शरीर में जमा कफ तत्व सूखकर नष्ट हो जाता है.सर्दी जुकाम,खांसी इत्यादि रोगों में यह बड़ा लाभदायी होता है.कभी यदि शीत प्रकोप में आ जाएँ और शरीर में ठण्ड से कंपकंपाहट होने लगे तो इस मुद्रा का प्रयोग त्वरित लाभ देता है.




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मेरे अनुज, (शिवकुमार मिश्र) ने आलेख आलेख के प्रथम भाग का शीर्षक पढ़ कहा था कि उसने सोचा वर्तमान चिकित्सा में मुद्रा की आवश्यकता पर मैंने कोई व्यंग्य लिखा है...

व्यंगात्मक तो नहीं विवेचनात्मक प्रयास अवश्य है मेरा इस आलेख के माध्यम से कि चिकित्सा में मुद्रा की अपरिहार्यता को हम अपने इन मुद्राओं द्वारा नगण्य ठहरा सकते हैं.जब इतनी शक्ति हमारे अपने ही इन अँगुलियों में है,तो क्यों न इन मुद्राओं के प्रयोग द्वारा उस मुद्रा (पैसे) की बचत कर लें...

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26.8.09

मुद्रा चिकित्सा (भाग -१)

प्राणी जगत में समस्त प्राणियों में सर्वाधिक सामर्थ्यवान प्राणी मनुष्य ही है,यह सर्वविदित है..परन्तु अपने सम्पूर्ण जीवन काल में अपने सामर्थ्य के दशांश का भी सदुपयोग विरले ही कोई मनुष्य कर पाता है,यह दुर्भाग्यपूर्ण है....एक शरीर के साथ ही अपार सामर्थ्य का वह अकूत भण्डार भी व्यर्थ ही अनुपयुक्त रह नष्ट हो जाता है.


जैसा कि हम जानते सुनते आये हैं, कि मानव शरीर -क्षिति जल पावक गगन समीरा(पृथ्वी,जल,अग्नि,आकाश तथा वायु) पंचतत्व से निर्मित है..साधारनतया आहार विहार का असंतुलन इन पंचतत्वों के संतुलन को विखण्डित करता है और फलस्वरूप मनुष्य शरीर भांति भांति के रोगों से ग्रसित हो जाता है...रोग का प्रभाव बढ़ने पर हम चिकित्सकों के पास जाते हैं और वर्तमान में एलोपैथीय चिकित्सा में अभीतक किसी भी व्याधि के लिए ऐसी कोई भी औषधि उपलब्ध नहीं है,जिसका सेवन पूर्णतः निर्दोष हो. कई औषधियों में तो स्पष्ट निर्देशित होते हैं कि अमुक औषधि अमुक रोग का निवारण तो करेगी परन्तु इसके सेवन से कुछ अन्य अमुक अमुक रोग(साइड इफेक्ट) हो सकते हैं...जबकि हमारे अपने शरीर में ही रोग प्रतिरोधन की वह अपरिमित क्षमता है जिसे यदि हम प्रयोग में लायें तो बिना चिकित्सक के पास गए, या किसी भी प्रकार के औषधि के सेवन के ही अनेक रोगों से मुक्ति पा सकते हैं....


यूँ तो नियमित व्यायाम तथा संतुलित आहार विहार सहज स्वाभाविक रूप से काया को निरोगी रखने में समर्थ हैं , पर वर्तमान के द्रुतगामी व्यस्ततम समय में कुछ तो आलस्यवश और कुछ व्यस्तता वश नियमित योग सबके द्वारा संभव नहीं हो पाता.. परन्तु योग में कुछ ऐसे साधन हैं जिनमे न ही अधिक श्रम की आवश्यकता है और न ही अतिरिक्त समय की. इसे " मुद्रा चिकित्सा " कहते हैं...विभिन्न हस्तमुद्राओं से अनेक व्याधियों से मुक्ति संभव है...


हमारे हाथ की पाँचों अंगुलियाँ वस्तुतः पंचतत्वों का प्रतिनिधित्व करती हैं.यथा-

१.अंगूठा= अग्नि,
२.तर्जनी (अंगूठे के बाद वाली पहली अंगुली ) = वायु,
३.मध्यमा (अंगूठे से दूसरी अंगुली) = आकाश,
४.अनामिका (अंगूठे से तीसरी अंगुली) = पृथ्वी,
५. कनिष्ठिका ( अंगूठे से चौथी अंतिम सबसे छोटी अंगुली ) = जल ..


शरीर में पंचतत्व इस प्रकार से है...शरीर में जो ठोस है,वह पृथ्वी तत्व ,जो तरल या द्रव्य है वह जल तत्व,जो ऊष्मा है वह अग्नि तत्व,जो प्रवाहित होता है वह वायु तत्व और समस्त क्षिद्र आकाश तत्व है.


अँगुलियों को एक दुसरे से स्पर्श करते हुए स्थिति विशेष में इनकी जो आकृति बनती है,उसे मुद्रा कहते हैं...मुद्रा चिकित्सा में विभिन्न मुद्राओं द्वारा असाध्यतम रोगों से भी मुक्ति संभव है...वस्तुतः भिन्न तत्वों का प्रतिनिधित्व करती हाथ की इन अँगुलियों से विद्युत प्रवाह निकलते हैं.अँगुलियों से निकलने वाले विद्युत प्रवाहों के परस्पर संपर्क से शरीर के चक्र तथा सुसुप्त शक्तियां जागृत हो शरीर के स्वाभाविक रोग प्रतिरोधक क्षमता को आश्चर्यजनक रूप से उदीप्त तथा परिपुष्ट करती है. पंचतत्वों का संतुलन सहज स्वाभाविक रूप से शरीर को रोगमुक्त करती है.रोगविशेष के लिए निर्देशित मुद्राओं को तबतक करते रहना चाहिए जबतक कि उक्त रोग से मुक्ति न मिल जाए...रोगमुक्त होने पर उस मुद्रा का प्रयोग नहीं करना चाहिए. मुद्राओं से केवल काया ही निरोगी नहीं होती, बल्कि आत्मोत्थान भी होता है. क्योंकि मुद्राएँ शूक्ष्म शारीरिक स्तर पर कार्य करती है.



मुद्राओं का समय न्यूनतम चालीस मिनट का होता है.अधिक लाभ हेतु यह समयसीमा यथासंभव बढा लेनी चाहिए..यूँ तो सर्वोत्तम है कि सुबह स्नानादि से निवृत होकर पद्मासन या सुखासन में बैठ आठ दस गहरी साँसें लेकर और रीढ़ की हड्डी को पूरी तरह सीधी रख इन मुद्राओं को किया जाय...परन्तु सदा यदि यह संभव न हो तो चलते फिरते उठते बैठते या लेटे हुए किसी भी अवस्था में इसे किया जा सकता है, इससे लाभ में कोई विशेष व्यवधान नहीं पड़ता...मुद्रा में लिप्त अँगुलियों के अतिरिक्त अन्य अँगुलियों को सहज रूप से सीधा रखना चाहिए.एक हाथ से यदि मुद्रा की जाती है तो उस हाथ के उल्टे दिशा में अर्थात बाएँ से किया जाय तो दायें भाग में और दायें से किया जाय तो बाएँ भाग में लाभ होता है.परन्तु लाभ होता है, यह निश्चित है.


ज्ञान मुद्रा -
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अंगूठे और तर्जनी(पहली उंगली) के पोरों को आपस में (बिना जोर लगाये सहज रूप में) जोड़ने पर ज्ञान मुद्रा बनती है.


लाभ :-


इस मुद्रा के नित्य अभ्यास से स्मरण शक्ति का अभूतपूर्व विकाश होता है.मष्तिष्क की दुर्बलता समाप्त हो जाती है.साधना में मन लगता है.ध्यान एकाग्रचित होता है.इस मुद्रा के साथ यदि मंत्र का जाप किया जाय तो वह सिद्ध होता है. किसी भी धर्म/पंथ के अनुयायी क्यों न हों ,उपासना काल में यदि इस मुद्रा को करें और अपने इष्ट में ध्यान एकाग्रचित्त करें तो, मन में बीज रूप में स्थित प्रेम की अन्तःसलिला का अजश्र श्रोत स्वतः प्रस्फुटित हो प्रवाहित होने लगता है और परमानन्द की प्राप्ति होती है.इसी मुद्रा के साथ तो ऋषियों मनीषियों तपस्वियों ने परम ज्ञान को प्राप्त किया था॥

पागलपन,अनेक प्रकार के मनोरोग,
चिडचिडापन,क्रोध,चंचलता,लम्पटता,अस्थिरता,चिंता,भय,घबराहट,व्याकुलता,अनिद्रा रोग, डिप्रेशन जैसे अनेक मन मस्तिष्क सम्बन्धी व्याधियां इसके नियमित अभ्यास से निश्चित ही समाप्त हो जाती हैं.मानसिक क्षमता बढ़ने वाला तथा सतोगुण का विकास करने वाला यह अचूक साधन है. विद्यार्थियों ,बुद्धिजीवियों से लेकर प्रत्येक आयुवर्ग के स्त्री पुरुषों को अपने आत्मिक मानसिक विकास के लिए मुद्राओं का प्रयोग अवश्य ही करना चाहिए...


क्रमशः :-

......

13.8.09

क्षय हो .....

भारतीय संस्कृति की महान संरक्षिका एवं संवाहिका, प्रातः स्मरणीया परम आदरणीया सुश्री राखी सावंत जी का अति रोमांचक प्रेरणादायी औत्सुक्यप्रद स्वयंवर, जनक नंदिनी मैया सीता, द्रुपद दुहिता द्रौपदी तथा ऐसे ही अन्यान्य असंख्य स्वयंवरों को लघुता देता, नवीन मानदंड स्थापित करता हुआ, सबकी आँखों को चुन्धियाता अंततः सफलतापूर्वक संपन्न हुआ. आशा है, इसकी आशातीत सफलता से अति उत्साहित हुए दृश्य जगत के दिग्दर्शक निकट भविष्य में इनसे भी उत्कृष्ट , महत्तम प्रतिमान स्थापित करने हेतु इस कोटि के प्रस्तुतियों की झड़ी लगा देंगे,जिनसे भारतीय जनमानस अपने गौरवशाली अतीत के दिग्दर्शन करने के साथ साथ भविष्य के लिए इनसे महत प्रेरणा प्राप्त कर अपने जीवन को कृतार्थ करेंगे...

सत्यम शिवम् सुन्दरम को सिद्ध पुनरप्रतिष्ठित करता, सत्यानुयाई महान राजा हरिश्चंद्र के वंशजों का साक्षात्कार अभी चल ही रहा है.यह और बात है कि निरीह राजा जी को सत्य की रक्षा क्रम में सर्वस्व गवाना पड़ा था. परन्तु उसी दुर्घटना से सचेत हो उनके अनुयायियों ने सत्य उद्घाटन क्रम में " अर्थार्जन " को ही सर्वोपरि मानते हुए इसे सर्वोच्च प्राथमिकता दी है. यूँ भी अर्थ के सम्मुख इस कलिकाल में सब अर्थहीन है. जैसे ही ये सत्यवादी " उष्ण पीठिका " (हॉट सीट) पर विराजित होते हैं, वीभत्स सत्य उद्घाटन/ उत्सर्जन को अपना परम कर्तब्य मान लेते हैं . बधाई हो !!! अब सत्यध्वज निश्चिंत निर्बाध हो, उतंग फहराएगा.....इसमें कोई शंशय नहीं......

इन सब के साथ संवेदनाओं से उभ चुभ महान कथानकों वाले धारावाहिक भारतीय जनमानस के ह्रदय को द्रवित करती धाराप्रवाह प्रवाहमान है..इनमे से अधिकाँश द्वारा परम्पराओं संबंधों के नित नवीन कीर्तिमान उपस्थित किये जा रहे हैं. ये भारतीय समाज को प्रगति के पथ पर पाँव पैदल नहीं अपितु द्रुतगामी वायुयान यात्रा करा रहें हैं.....इतना ही नहीं नए उत्पादों के लुभावने विज्ञापन ,जिनमे से अधिकाँश अपने अति सीमित पलों के प्रसारण क्रम में भी एक पूरे तीन घंटे के " ए" श्रेणी ( वयस्क श्रेणी) के चलचित्र का रोमांच देते हुए हमारे ज्ञान कोष को अभूत पूर्व समृद्धि दे रहे हैं.. .हमारी प्रजावत्सल सरकार की अपार अनुकम्पा से चौबीसों घंटे तीन सौ पैंसठ दिन के लिए वभिन्न चैनलों पर अनवरत बालक वृद्ध नर नारी उभयचारी ,सबके लिए सबकुछ सहजसुलभ हैं.....

और तो और, अति कर्मठ समाचार वाचक, आठों याम, नगर नगर,डगर डगर ,पानी की धार में, बरखा की फुहार में, आंधी में रेत में, रेल में खेल में ,गली गली कूचे कूचे, स्नानघर से लेकर शयनकक्ष तक, धरती अम्बर पाताल, डोल डोल, टटोल टटोल कर हमें एकदम गरमागरम खट्टे मीठे करारे सनसनीदार समाचार (??) दे निहाल किये रहते हैं...

डेढ़ दो दशक से भी कम समय में सूचना और संचार क्रांति ने हमें कहाँ से कहाँ पहुंचा दिया...देखा, इसे कहते हैं प्रगति की पराकाष्ठा... हमारा देश कितना प्रगति कर गया है,नहीं ???

क्या कहा, आपको इसमें से अधिकांश नहीं सुहाता, तो लो भाई, इसमें कुलबुलाने और भड़कने वाली कौन सी बात है, रिमोट है न आपके पास ?? बस पुट से बटन दबाइए,चुट से चैनल बदल गया.......इतने सारे चैनल हैं...कोई बाध्यता थोड़े न है कि न पसंद आये तो भी देखते रहो.......चालक, संचालक,दिग्दर्शक ,प्रबुद्ध वर्ग सबकी यही सीख और सुझाव है आम दर्शकों के लिए.....

चलिए हमने मान लिया.... हम जैसे पुरातनपंथी,प्रगति के विरोधी लोग वर्तमान में प्रसारित अधिकाँश कार्यक्रमों से क्षुब्ध होकर रिमोट तो क्या टी वी तक का उपयोग नहीं करेंगे या फिर यदि करेंगे भी तो पूर्ण सजग रह अपने हाथों विवेक रुपी रिमोट का सतत प्रयोग करेंगे ......पर समस्या है कि देश की कितनी प्रतिशत आबादी विवेक रूपी रिमोट को सजग हो व्यवहृत कर पायेगी और आत्मरक्षा में सफल हो पायेगी ??

आज टेलीविजन तथा असंख्य चैनलों की पहुँच समाज के उस हिस्से तक है जो दिहाडी कमाता है..और उनके लिए दारू ताडी के बाद यही एकमात्र मनोरंजन का सबसे सुगम और सस्ता साधन है.निम्न ,माध्यम वर्ग से लेकर हिंदी देखने सुनने वाले उच्च आय वर्ग तक ने अपना परम मित्र इन्हें ही बना लिया है . इन दृश्य मध्यमो से अहर्निश मनोमस्तिष्क तक जो कुछ पहुँच रहा है,वहां अनजाने जो छप रहा है, वह पूरे समाज को कहाँ लिए जा रहा है,क्या यह विचारणीय नहीं ???

कैसी विडंबना है कि चार पांच या इससे अधिक सदस्यों वाला एक निम्न/ मध्यमवर्गीय परिवार डेढ़ दो सौ रुपये में चार दिन का राशन भले नहीं खरीद सकता पर इतने रुपयों में महीने भर के लिए आँखों को चुन्धियाता चमचमाता वैभवशाली मनोरंजन अवश्य खरीद सकता है,जिसके आगे अपने परिवार को बैठा वह सुनहरे सपने दिखा सकता है,तंगहाली के क्षोभ को बहला सकता है ..

मुझे बहुधा ही उन राजकुमारों की कथा का स्मरण हो आता है,जिनको पठन पाठन से घोर वितृष्णा थी और फिर उनके गुरु ने रोचक कथाओं में उलझा खेल खेल में उनकी सम्पूर्ण शिक्षा सफलतापूर्वक संपन्न कराई थी.कोई भी बात या सन्देश जितनी सफलतापूर्वक कथानकों के माध्यम से व्यक्ति के ह्रदय में आरोपित की जा सकती है,उतनी किसी भी अन्य माध्यम से नहीं. उसमे भी कथानकों का दृश्य रूप तो कभी निष्फल हो ही नहीं सकता..यह तो रामबाण सा कार्य करता है...

कहा जाता है, आसपास जो घट रहा है, उसीको तो टी वी, सिनेमा या विज्ञापन में दिखाया जाता है.......क्या सचमुच ?? चलिए मान लेते हैं कि यह कथन सत्य है...तो भी ऐसे सत्य का क्या करना जो व्यक्ति की संवेदनाओं को पुष्ट नहीं बल्कि नष्ट करे,उसे सुन्न करे ....क्या हम नहीं जानते कि विभत्सता की पुनरावृत्ति व्यक्ति की विषय विशेष के प्रति उदासीनता को ही प्रखर करती है...

विभत्सता,व्यभिचार, अश्लीलता, अनैतिक सबंध, अनाचार, धन वैभव का भव्य फूहड़ प्रदर्शन, षडयंत्र इत्यादि के अहर्निश बौछारों के बीच सफलतापूर्वक स्वयं को अप्रभावित या निर्लिप्त रख पाना कितनो के लिए संभव है ???? यह जो एक प्रकार का नियमित विषपान प्रतिदिन नियत मात्रा में इन दृश्य माध्यमों द्वारा आम भारतीय जनमानस के मष्तिष्क को कराया जा रहा है, देसी विदेसी चैनल के दिग्दर्शकों द्वारा हमारे देश पर एक सुनियोजित सांस्कृतिक आक्रमण नहीं है?

बहुत पहले की तो बात नहीं,यही कोई एक डेढ़ दशक पूर्व की बात है...किसी स्त्री को यदि "सेक्सी" कह दिया जाता, तो तलवारें खिंच जाती थीं...आज यह महिलाओं को उपाधि, गर्व की बात लगती है. धन्यवाद कह वे प्रफ्फुलित हो लिया करती हैं...विचारों में यह इतना व्यापक परिवर्तन यूँ ही तो नहीं हो गया... क्या प्रगति का मार्ग नग्नता और नैतिक पतन के मार्ग से ही निकलता है??? क्या नैतिक मूल्यों की सचमुच कोई प्रासंगिकता नहीं बची ???

करीब पांच छः वर्ष पहले की बात है,एक दिन मेरा बेटा बिसुरने लगा,कि माँ आप भगवान् जी से हमेशा मुझे सद्बुद्दि देने और मुझे अच्छा आदमी बनाने की प्रार्थना करती हैं ,यह बहुत गलत बात है ...आप उन्हें यह क्यों नहीं कहतीं कि मेरा बेटा खूब बड़ा आदमी बने, खूब पैसा और नाम कमाए......उसका मानना था कि अच्छा आदमी हमेशा दुखी , लाचार और अभावग्रस्त रहता है और एक अच्छा आदमी कभी बड़ा आदमी नहीं बन सकता...

बड़े आदमी की उसकी परिभाषा यह थी कि बड़ा आदमी वह होता है,जिसके पास बहुत सारा पैसा हो,जो हवाई सफ़र कर सकता हो,बल्कि उसके अपने कई हवाई जहाज हो,मंहगी गाडियां हो,महल जैसा घर हो, ढेर सारे नौकर चाकर हों, ऐशो आराम का सारा सामान हो,पूरी दुनिया में नाम और पहचान हो.........और यह सब सच्चा और अच्छा आदमी बनकर तो पाया नहीं जा सकता न.

यह केवल एक बालमन की बात नहीं थी, बल्कि यह तो एक आम धारणा बन गयी है आज की. सफलता का मतलब तो बस यही रह गया है न....और उस लक्ष्य को पाने के लिए ये ही रास्ते रह गए हैं...

-> कुछ भी दांव पर लगाकर अभिनेता अभिनेत्री बन जाओ...

-> सही गलत को भूल कर किसी भी तरह कुछ भी करके टाटा बिडला अम्बानी मित्तल जैसा बनो ....

-> सारे पेंच आजमा राजनीति में घुस जाओ ....

-> दाउद शकील या गवली का अनुकरण कर भाईगिरी के धंधे में नाम पैसा और पद प्रतिष्ठा भी कमाओ ....

-> और कुछ नहीं कर सकते तो " बाबा " बन जाओ ....

" रिच एंड फेमस " बनना, बस यही है जीवन का लक्ष्य....नैतिक मूल्य की बात इसके सामने प्रलाप और व्यंग्य बन कर रह गया है.......

कहते हैं कि जब जनमानस दिग्भ्रमित हो,पतनोन्मुख हो तो राजा उन्हें दिशा देता है,जब राजा दिग्भ्रमित कर्तब्य विमुख हो जाता है तो राज्य के ज्ञानी विचारक (मंत्री/अधिकारी) उनका मार्गदर्शन करते हैं,परन्तु जब ज्ञानी विचारक ही दिग्भ्रमित और पतित हो जायं तो उस राज्य को ईश्वर भी नहीं बचा सकते...

सत्ता तथा शक्ति यदि सत्पुरुष के हाथ हो तो और तो और ऋतुएं भी धर्मपरायण उस शासक की चेरी हो अपने धर्मानुसार अनुगमन करती हैं ( क्योंकि तब शासक अपनी प्रजा की ही नहीं अपने धरती/प्रकृति तथा पशु पक्षी आदि समस्त प्राणि मात्र की रक्षा करना अपना परम धर्म बना लेता है और तदनुसार ये सभी भी स्वधर्म में तत्पर होतें हैं).परन्तु यदि यही सत्ता और शक्ति दुराचारी के हाथों लग जाय तो सभ्यता संस्कृति के भ्रष्ट और नष्ट होने में अधिक समय नहीं लगता...

किसी समय सेंसर नाम का कुछ हुआ करता था, जिसका काम यह देखना था कि मनोरंजन के विभिन्न दृश्य मध्यमो द्वारा समाज के सम्मुख अहितकर कुछ तो नहीं रखा जा रहा है........संभवतः अब वह आस्तित्व में नहीं है या फिर है भी तो इन सत्ताधीशों ने उसे बाज़ार के हाथों ऊंची बोली लगा बेच दी है...

क्या केवल प्रत्यक्ष सैन्य आक्रमणों से देश की रक्षा करना ही प्रशासक का कर्तब्य होता है?? सामाजिक, सांस्कृतिक एवं नैतिक मूल्यों की रक्षा करना प्रशासनन का कर्तब्य नहीं होता? आज मिडिया ने जो स्थिति बना रखी है,ऐसा तो नहीं कि प्रशासन इससे पूर्ण रूपेण अनभिज्ञ हैं....और यदि ये अनभिज्ञ हैं, तो ऐसे चक्षुविहीन प्रशासकों को क्या राज्य करने का अधिकार होना चाहिए ?? क्या समय नहीं आ गया,हमारा कर्तब्य नहीं बनता, कि ऐसे ध्रितराष्ट्र को जो अपनी छत्रछाया में पाप को संरक्षण दे रहा हो, जो शासन में सर्वथा अयोग्य हो, को सत्ताहीन कर हम अपने राष्ट्र की रक्षा करें ....

रोटी नहीं दे सकती, शिक्षा नहीं दे सकती, सुरक्षा नहीं दे सकती, संस्कार और संस्कृति का संरक्षण नहीं कर सकती,फिर भी क्या हम इनकी " जय हो " ही कहेंगे ?? माना कि ऐसा सोचने वाले हम संख्या में अतिअल्प हैं तो क्या हुआ,चलिए प्रण करें और अपने पूर्ण सामर्थ्य के साथ इस ओर प्रस्तुत हों कि ऐसे प्रशासक का " क्षय हो " ....

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17.7.09

बेटी - लक्ष्मीस्वरूपा....

पिताजी की चिट्ठी आई थी,माँ की तबियत कुछ खराब है,तुमसे मिलने की जिद ठाने हुए है,हो सके तो दो दिन के लिए आकर मिल जाओ...चार दिन बाद से थर्ड ईयर के पेपर शुरू होने वाले थे...मैं ऊहापोह में था कि क्या करूँ...लेकिन माँ का मोह सब पर भारी पड़ा और मैं स्टेशन की तरफ निकल पड़ा...सोचा ,जल्दी से जाकर पहली ही ट्रेन पकड़ लूँ और मिलकर कल रात तक वापस आ जाऊं...स्टेशन की तरफ तेज कदमो से बढा चला जा रहा था, दस फर्लांग की ही दूरी बची होगी कि ट्रेन खुल गयी...बदहवास सा मैं दौड़ पड़ा...पर भीड़ में घिरा मैं आगे बढ़ने में असमर्थ रहा और मेरे सामने से सीटी बजाती हुई ट्रेन निकल गयी....


दिमाग सीटियों के शोर से भर गया.....बार बार लगातार किसी न किसी प्लेटफार्म पर सीटियों का जैसे सिलसिला सा चल निकला....उस कनफोडू शोर से बचकर भागने के लिए मैं तेजी से स्टेशन से बाहर की ओर भागा... कि अचानक किसी के सामन से मेरा पैर टकराया और गिरते हुए मैं सीढियों से नीचे चला गया ........


तभी अचानक आँख खुली....अपने चारों तरफ आँखें फाड़ फाड़ कर देखने लगा...सारे दृश्य गायब हो चुके थे.....मैं स्टेशन पर नहीं अपने कमरे में था और अपने बिस्तर से नीचे गिरा हुआ था....लेकिन सीटियों का शोर अब भी वैसा ही था...तभी तंद्रा कुछ भंग हुई और आभास हुआ कि यह शोर सीटियों का नहीं बल्कि लगातार बजते कॉल बेल का था ... दीवार पर लटके घडी पर नजर डाली तो देखा रात के सवा दो बज रहे हैं....


आशंकित सा आगे बढ़ बत्ती जलाते हुए मैंने दरवाजा खोला....एक औरत और मर्द आकर पैरों से लिपट गए....हतप्रभ सा होते हुए मैं पीछे हटने लगा...बड़ी मुश्किल से किसी तरह मैंने उनसे अपने पैर छुडाये....वे खड़े हुए तो पहचाना, गली के अगले छोर पर रहने वाले अम्मा और झुमरू हैं....दोनों घिघिया रहे थे....डाक्टर बाबू रधिया को बचा लो,नहीं तो वह मर जायेगी.


पता चला दो दिनों से उसे जचगी का दर्द उठा हुआ था,पर दाई जचगी करवा नहीं पा रही थी और अब हारकर उसने राधा को अंग्रेजी डाक्टर को दिखने की बात कही थी....मैंने उन्हें बहुत समझाने की कोशिश की कि मैं इसमें कुछ नहीं कर पाउँगा ,वे लोग राधा को लेकर तुंरत अस्पताल के लिए निकल जाएँ...पर उन्होंने ऐसी जिद ठान रखी थी कि आखिर झुककर मुझे वहां जाना ही पड़ा....


जाकर देखा तो सचमुच राधा की स्थिति बहुत खराब थी...बच्चे की धड़कन सुनने की कोशिश की तो वह भी बिलकुल क्षीण हो रही थी....मैंने उनसे अपनी लाचारी बताई और कहा कि अब ज़ल्द से जल्द अस्पताल ले जाकर ओपरेशन करवाए बगैर उन्हें बचाने का कोई उपाय नहीं...


उन लोगों की स्थिति देख मेरा दिल पसीज गया और फिर मैंने अपने एक सीनियर के बड़े भाई के नर्सिंग होम में बात कर किसी तरह केस लेने को उन्हें मनवाया...मेरी निगरानी में दो ओटो रिक्शाओं में बैठकर वह काफिला मेरे संग नर्सिंग होम पहुंचा....


प्रारंभिक जांच के बाद कहा गया की अभी दस मिनट के अन्दर अगर ओपरेशन न किया गया तो जच्चा बच्चा दोनों में से किसी का भी बचना नामुमकिन था...और ओप्रेशन के लिए तुंरत ही पच्चीस हजार रुपये जमा करना था.....


मैं पेशोपेश में पड़ गया....मेरे पास पचीस हजार क्या ढाई सौ रुपये भी न थे और इतनी बड़ी रकम इनके पास होने की कोई सम्भावना मुझे नहीं दिख रही थी...मेरे माथे की शिकन को देख अम्मा ने मानो सब ताड़ लिया....कहने लगी, पैसे की कोई चिंता नहीं बाबू, मैं तीस हज़ार रुपये साथ लेकर आई हूँ ...और जरूरत पड़ी तो भी दिक्कत नहीं सब इंतजाम हो जायेगा,बस आप माई बाप लोग मेरी बच्ची को बचा लीजिये......


सीनियर डाक्टर से रिक्वेस्ट कर मैं भी आपरेशन थियेटर में गया....दो दिनों तक दाई ने जो युक्तियाँ लगायी थी,इससे केस बड़ा ही कॉम्प्लीकेटेड हो गया था...बच्ची के गले में नाड़ इस कदर फंसी हुई थी कि वह बच्ची का दम घोंट रही थी....लग रहा था जैसे गर्भ में ही उसे फांसी की सजा मिल गयी थी..बड़ी मुश्किल से बेजान पड़ी उस बच्ची में जान लायी गयी.....


सबकुछ कुशल मंगल देख मैंने रहत की साँस ली.....डॉक्टर जबतक स्टिचिंग तथा सफाई में लगे हुए थे,मैंने सोचा बाहर जाकर इनके अपनों को यह खबर दे आऊँ....जैसे ही बाहर निकला सबने आकर मुझे घेर लिया...मैं थोडी दुविधा में था,कि बेचारों का इतना पैसा लग भी गया और तीसरे संतान के रूप में फिर से लडकी होने की खबर इन्हें मायूसी ही देगी.......मैंने धीमे से कहा.....चिंता की कोई बात नहीं,सब कुशल मंगल है,राधा को लडकी हुई है.......


मैं अचंभित रह गया.......सब लोग खुशी से झूम उठे थे,एक दुसरे के गले लग रहे थे....अम्मा की आँखों में खुशी के आँसू झड़ी बने हुए थे.....खुशी से कांपती हाथों से मेरा हाथ पकड़ बोली.. ...बचवा तुम्हारे मुंह में घी शक्कर.......हमारे घर तो लछमी आई हैं....तुम हमारे लिए भगवान् हो....सदा सुखी रहो बेटा...खूब बड़े डाक्टर बनो....


सब निपटते निपटते सुबह हो गयी थी....घर पहुंचकर हाथ मुंह धो, मैं कॉलेज होस्टल की ओर निकल पड़ा...वहां अपने सहपाठी अशोक के साथ अगले पेपर की तैयारी और विषय चर्चा करते करते समय का ध्यान ही न रहा.....जब पेट में भूख के मडोड़े पड़ने लगे तो समय का ध्यान आया...रात के दस बज चुके थे...वहीँ पर खाना खा मैं करीब साढ़े ग्यारह बजे अपने घर पहुंचा....


दरवाजे के बाहर अम्मा बैठी थी..पढाई के चक्कर में यह बात दिमाग से निकल ही चुकी थी...मुझे लगा कहीं कुछ और असुविधा तो नहीं हो गयी,जो अम्मा इतनी रात गए दरवाजे के बाहर बैठी है...

मैंने चिंतित होकर पूछा ...क्या अम्मा फिर से कोई परेशानी हो गयी क्या...उसे हमेशा इसी नाम से पुकारा जाते सुना था, सो यही संबोधन दिया.


अम्मा बोली....अरे नहीं बचवा ,कोई परेशानी नहीं...तुम तनिक किवाडी तो खोलो, फिर बताती हूँ...थोडा तो मैं झिझका ,पर फिर भी उस आवाज में जो आग्रह, अपनापन और हर्ष था ,मैं कुछ कह न सका...


दरवाजा खोलते ही वह अन्दर आई और उसने मेरे हाथ पकड़ एक घडी मेरे हाथों में पहना दी और मिठाई का एक डब्बा मेरे मेज पर रख दिया.....मैं अचकचा गया....यह क्या है अम्मा?????


अम्मा बोली, बचवा हम गरीब का यह भेंट तो तुम्हे स्वीकारना ही पड़ेगा,नहीं तो हमें किसी कल भी चैन नहीं पड़ेगा...अगर तुम न होते तो हमारी रधिया निश्चित ही मर जाती और उसके साथ वह लछमी भी मर जाती....अब हम लोगों को कोई डाक्टर बैद अपने यहाँ घुसने थोड़े ही न देता....तो बोलो तुम भगवान् हुए की नहीं....


मैं संकोच में गडा जा रहा था....मैंने कहा...अरे नहीं अम्मा डाक्टर के लिए सब मरीज मरीज ही होता है....उसे भेद करना नहीं सिखाया जाता....यह तो हम सब का फर्ज है,इसके लिए इतना महंगा तोहफा मैं नहीं ले सकता....तुम लोग ऐसे ही जिस नर्क में रह रहे हो,मैं चाहकर भी कुछ नहीं कर पा रहा हूँ...इसपर यह तो मैं नहीं ही ले सकता...मुझे तो खेद इस बात का है कि मैं आर्थिक रूप से तुमलोगों की कोई मदद न कर पाया.....


हम दोनों ही भावुक हो गए थे...हालाँकि इस घटना से पहले हम दोनों में कभी कोई बात नहीं हुई थी,जब कभी कोई बीमार पड़ता तो झुमरू मेरे पास आकर दवाई लिखवा जाता था,इसके आगे हमारा कोई परिचय न था, पर नितांत अपरिचित होते हुए भी जैसे हम एक दूसरे की भावनाओ और स्थिति से पूर्णतः भिज्ञ थे...वे लोग जानते थे कि किस मजबूरी में मैं इस गंदी बस्ती में रह रहा हूँ और मैं भी जनता था कि वे लोग कैसी जिन्दगी जी रहे हैं....


मैंने अपने जीवन का लक्ष्य ही यह बना लिया था कि पढाई ख़तम कर जब मैं डॉक्टर बन जाऊंगा तो इन जैसे उपेक्षित लोगों की सेवा को सर्वोच्च प्राथमिकता दूंगा.... पता नहीं कैसे बिना बताये ही मेरी यह भावना उन तक पहुँच गयी थी....मेरे लिए उनके मन में क्या था ,यह मैं उनकी आँखों में सहज ही दूर से आते जाते पढ़ पाता था...


उस क्षण भावुकता में मेरी बुद्धि ऐसे सठिया गयी थी कि बिना कुछ सोचे समझे मैं पूछ बैठा.....

लेकिन अम्मा, तुंरत के तुंरत इतने रुपये का इंतजाम तुमने कैसे कर लिया,मैं तो घबरा ही गया था कि पैसों का इंतजाम कैसे होगा.........


अम्मा ने कहा...बेटा जब ऊपर वाला जीवन देता है तो उसे चलाने के रस्ते भी दे देता है....अब देखो न,एक रधिया ही तो है जिसे भगवान् ने इतनी खूबसूरती दी है कि दो बच्चे बियाने के बाद भी सबसे ज्यादा कमाई वही करती है..एक तरफ सातों लड़कियों की कमाई है और दुसरे तरफ अकेले रधिया की कमाई है....उसने बच्चे भी ऐसे खूबसूरत दिए हैं ,जिनसे हमारा घराना रौशन है.


हमारे घर की कमाऊ पूत तो वही है....उसे ऐसे कैसे मर जाने देते...और ये पैसे भी तो उसी के भाग के हैं,जो उसके इलाज में लगे....चार दिन पहले ही उसकी बड़ी लडकी निशा की नथ उतराई में पच्चीस हजार रुपये मिले थे,जो इस उल्टे समय में काम आ गए....


मेरे दिमाग की नसें फटी जा रही थीं, मेरी आँखों के सामने उन बच्चियों का चेहरा घूम गया,जिन्हें आते जाते गली में खेलते हुए देखा करता था....मेरे मुंह से अनायास ही निकल गया.........लेकिन अम्मा वो तो अभी इतनी छोटी सी मासूम बच्ची है....


अम्मा बोली....बच्ची काहे की बाबूजी,बारह बसंत देख लिए हैं उसने....

......................................................................................................................................

9.7.09

अमरत्व की लालसा ------>>>>

जीवन में सबकुछ सामान्य हो, फिर भी संक्षिप्त जीवन की अभिलाषा रखने वाले मनुष्य संसार में दुर्लभ ही रहे हैं. इतिहास साक्षी है ,अमरत्व पाने के लिए व्यक्ति ने न जाने कितने संधान किये ,इस हेतु क्या क्या न किया....... मृत्यु भयप्रद तथा अमरत्व की अभिलाषा चिरंतन रही है...विरले ही इसके अपवाद हुआ करते हैं..


आधुनिक विज्ञान भी इस ओर अपना पूर्ण सामर्थ्य लगाये हुए है तथा पूर्णतः आशावान है कि इस प्रयास में वह अवश्य ही सफलीभूत होगा.... हमारे भारतीय दंड विधान में तो नहीं परन्तु विश्व के कई संविधानों में आजीवन कारावास के प्रावधान में अक्षम्य,घोर निंदनीय अपराध में कारा वास की अवधि दो सौ ,पांच सौ या इससे भी अधिक वर्षों की होती है.क्योंकि उनका विश्वास है कि विज्ञान जब जीवन काल को वृहत्तर करने या अमरत्व के साधन प्राप्त कर लेगा तो २० ,२५,५० वर्षों को ही सम्पूर्ण जीवन काल मानना अर्थहीन हो जायेगा और ऐसे में ऐसे अपराधियों को जिनका स्वछन्द समाज में विचरना घातक,समाज के लिए अहितकर है,उन के आजीवन कारावास का प्रावधान निरुद्देश्य हो जायेगा...


परन्तु विचारणीय यह है कि क्या हमें अमरत्व चाहिए ? और यदि चाहिए भी तो क्या हम इस अमरत्व का सदुपयोग कर पाएंगे ? कहते हैं अश्वत्थामा को द्रोणाचार्य ने अपने तपोबल से अमरत्व का वरदान दिया था.दुर्योधन के प्रत्येक कुकृत्यों का सहभागी होने के साथ साथ पांडवों के संतानों का वध करने तक भगवान् कृष्ण ने उसे जीवनदान दिए रखा परन्तु जब उसने उत्तरा के गर्भ पर आघात किया तब कृष्ण ने उसके शरीर को नष्ट कर दिया परन्तु उसके मन,आत्मा तथा चेतना के अमरत्व को यथावत रहने दिया...माना जाता है की आज भी अश्वत्थामा की विह्वल आत्मा भटक रही है और युग युगांतर पर्यंत भटकती रहेगी. सहज ही अनुमानित किया जा सकता है कि यदि यह सत्य है तो अश्वत्थामा की क्या दशा होगी....


किंवदंती है की समुद्र मंथन काल में समुद्र से अमृत घट प्राप्य हुआ था.जिस मंथन में ब्रह्माण्ड की समस्त शक्तियां (देवता तथा असुर) लगी थीं,तिसपर भी अमृत की उतनी ही मात्रा प्राप्त हुई थी कि यह उभय समूहों में वितरित नहीं हो सकती थी. तो आज भी यदि संसार की साधनसम्पन्न समस्त वैज्ञानिक शक्तियां संयुक्त प्रयास कर अमरत्व के साधान को पा भी लेती है तो निश्चित ही यह समस्त संसार के समस्तआम जनों के लिए तो सर्वसुलभ न ही हो पायेगी .यह दुर्लभ साधन निसंदेह इतनी मूल्यवान होगी की इसे प्राप्त कर पाना सहज न होगा .मान लें की हम में से कुछ लोगों को अमरत्व का वह दुर्लभ साधन मिल भी जाता है,तो हम क्या करेंगे ?


हम जिस जीवन से आज बंधे हुए हैं, उसके मोह के निमित्त क्या हैं ? हमारा इस जीवन से मोह का कारण साधारणतया शरीर, धन संपदा,पद प्रतिष्ठा,परिवार संबन्धी इत्यादि ही तो हुआ करते हैं.ऐसे में हममे से कुछ को यदि अमरत्व का साधन मिल भी जाय तो क्या हम उसे स्वीकार करेंगे ?


सुख का कारण धन संपदा या कोई स्थान विशेष नहीं हुआ करते,बल्कि स्थान विशेष में अपने अपनों से जुड़े सुखद क्षणों की स्मृतियाँ हुआ करती हैं. धन सुखद तब लगता है जब उसका उपभोग हम अपने अपनों के साथ मिलकर करते हैं....मान लेते हैं कि यह शरीर, धन वैभव तथा स्थान अपने पास अक्षुण रहे परन्तु जिनके साथ हमने इन सब के सुख का उपभोग किया उनका साथ ही न रहे...तो भी क्या हम अमरत्व को वरदान मान पाएंगे.....उन अपनों के बिना जिनका होना ही हमें पूर्णता प्रदान करता है ,हमारे जीजिविषा को पोषित करता है, जीवन सुख का उपभोग कर पाएंगे?


जीवन में किसी स्थान का महत्त्व स्थान विशेष के कारण नहीं बल्कि स्थान विशेष पर कालखंड में घटित घटना विशेष के कारण होती है.किसी स्थान से यदि दुखद स्मृतियाँ जुड़ीं हों तो अपने प्रिय के संग वहां जाकर उस स्थान विशेष के दुखद अनुभूतियों को धूमिल करने का प्रयास अवश्य करना चाहिए ,परन्तु किसी स्थान विशेष से यदि मधुरतम, सुखद स्मृतियाँ बंधी हों तो वहां दुबारा कभी नहीं जाना चाहिए,नहीं तो कालखंड विशेष में सुरक्षित सुखद स्मृतियों को आघात पहुँचता है,क्योंकि तबतक समय और परिस्थितियां पूर्ववत नहीं रहतीं.......यह कहीं पढ़ा था और अनुभव के धरातल पर इसे पूर्ण सत्य पाया.


ऐसे में इस नश्वर संसार में अधिक रहकर क्या करना जहाँ प्रतिपल सबकुछ छीजता ही जा रहा है,चाहे वह काया हो या अपने से जुड़ा कुछ भी .मनुष्य अपनों के बीच अपनों के कारण ही जीता और सुखी रहता है,ऐसे अमरत्व का क्या करना जो अकेले भोगना हो...संवेदनशील मनुष्य संभवतः यही चाहेगा.और यदि कोई कठोर ह्रदय व्यक्ति ऐसा जीवन पा भी ले तो क्या वह सचमुच सुखोपभोग कर पायेगा या दुनिया को कुछ दे पायेगा......ययाति ने तो सुख की लालसा में अपने पुत्रों के भाग के जीवन का भी उपभोग किया था,पर क्या वह सचमुच सुखी हो पाया था...


जीवन को सुखी उसकी दीर्घता नहीं बल्कि उसके सकारात्मक सोच और कार्य ही बना पाते हैं,यह हमें सदैव स्मरण रखना होगा।


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23.6.09

यादों की खूंटी पर टंगा पजामा !!!

सहज स्वाभाविक रूप से दुनिया के प्रत्येक अभिभावक के तरह मेरे माता पिता की भी मुझसे बहुत सी अपेक्षाएं थीं, बहुत से सपने उन्होंने देख रखे थे मेरे लिए... पर समस्या यह थी कि माताजी और पिताजी दोनों के सपने विपरीत दिशाओं में फ़ैली दो ऐसी टहनियों सी थी जिनका मूल एक मुझ कमजोर से जुड़ा था पर दोनों डालों को सम्हालने के लिए मुझे अपने सामर्थ्य से बहुत अधिक विस्तार करना पड़ता...


पिताजी जहाँ मुझे गायन, वादन, नृत्य, संगीत, चित्रकला इत्यादि में प्रवीण देखने के साथ साथ डाक्टर इंजिनियर या उच्च प्राशासनिक पद पर प्रतिष्ठित देखना चाहते थे, वहीँ मेरी माताजी मुझे सिलाई बुनाई कढाई पाक कला तथा गृहकार्य में दक्ष एक अत्यंत कुशल, शुशील ,संकोची, छुई मुई गृहणी जो ससुराल जाकर उनका नाम ऊंचा करे , न कि नाक कटवाए.. के रूप में देखना चाहती थीं..

मुझे दक्ष करने के लिए पिताजी ने संगीत ,नृत्य, चित्रकारी तथा एक पढाई के शिक्षक की व्यवस्था घर पर ही कर दी थी।संगीत, चित्रकला तथा पढाई तक तो ठीक था पर नृत्य वाले गुरूजी मुझसे बड़े परेशान रहते थे...मैं इतनी संकोची और अंतर्मुखी थी कि मुझसे हाथ पैर हिलवाना किसी के लिए भी सहज न था.


दो सप्ताह के अथक परिश्रम के बाद मुझसे किसी तरह हल्का फुल्का हाथ पैर तो हिलवा लिए गुरूजी ने पर जैसे ही आँखों तथा गर्दन की मुद्राओं की बारी आई ,उनके झटके देख मेरी ऐसी हंसी छूटती कि उन्हें दुहराने के हाल में ही मैं नहीं बचती थी.. गुरूजी बेचारे माथा पीटकर रह जाते थे... यूँ भी गुरूजी की लड़कियों की तरह लचकती चाल और उनके बात करने का ढंग मेरी हंसी की बांध तोड़ दिया करते थे...जब हर प्रकार से गुरूजी अस्वस्त हो गए कि मैं किसी जनम में नृत्य नहीं सीख सकती तो उन्होंने पिताजी से अपनी व्यस्तता का बहाना बना किनारा कर लिया.... और तब जाकर मेरी जान छूटी थी....

जहाँ तक प्रश्न माताजी के अपेक्षाओं का था,माँ जितना ही अधिक मुझमे स्त्रियोचित गुण देखना चाहती थी,मुझे उससे उतनी ही वितृष्णा होती थी.पता नहीं कैसे मेरे दिमाग में यह बात घर कर गयी कि बुनाई कढाई कला नहीं बल्कि परनिंदा के माध्यम हैं...औरतें फालतू के समय में इक्कठे बैठ हाथ में सलाइयाँ ले सबके घरों के चारित्रिक फंदे बुनने उघाड़ने में लग जातीं हैं. मुझे यह बड़ा ही निकृष्ट कार्य लगता था और "औरतों के काम मैं नहीं करती" कहकर मैं भाग लिया करती थी..मेरे लक्षण देखकर माताजी दिन रात कुढा करतीं थीं..


डांट डपट या झापड़ खाकर जब कभी रोती बिसूरती मैं बुनाई के लिए बैठती भी थी, तो चार छः लाइन बुनकर मेरा धैर्य चुक जाता था. जब देखती कि इतनी देर से आँखें गोडे एक एक घर गिरा उठा रही हूँ और इतने अथक परिश्रम के बाद भी स्वेटर की लम्बाई दो उंगली भी नहीं बढ़ी तो मुझे बड़ी कोफ्त होती थी... वस्तुतः मुझे वही काम करना भाता था जो एक बैठकी में संपन्न हो जाये और तैयार परिणाम सामने हो और स्वेटर या क्रोशिये में ऐसी कोई बात तो थी नहीं..

नया कुछ सिलने की उत्सुकता बहुत होती थी पर पुराने की मरम्मती मुझे सर्वाधिक नीरस लगा करती थी.मेरी माँ मुझे कोसते गलियां देते ,ससुराल में उन्हें कौन कौन सी गालियाँ सुन्वाउंगी इसके विवरण सुनाते हुए हमारे फटे कपडों की मरम्मती किया करती, पर मेरे कानो पर किंचित भी जूं न रेंगती..

संभवतः मैं साथ आठ साल की रही होउंगी तभी से मेरे दहेज़ का सामान जोड़ा जाने लगा था..इसी क्रम में मेरे विवाह से करीब दो वर्ष पहले एक सिलाई मशीन ख़रीदी गयी. जब वह मशीन खरीदी गयी,उन दिनों मैं छात्रावास में थी और मेरी अनुपस्थिति में मेरे मझले भाई ने मशीन चलाने से लेकर उसके छोटे मोटे तकनीकी खामियों तक से निपटने की पूरी जानकारी ली.

जब मैं छुट्टियों में आई तो यह नया उपकरण मुझे अत्यंत उत्साहित कर गया. मैं अपने पर लगे निकम्मेपन के कालिख को इस महत उपकरण की सहायता से धो डालने को कटिबद्ध हो गयी. मझले भाई के आगे पीछे घूमकर बड़ी चिरौरी करके किसी तरह उससे मशीन चलाना तो सीख लिया, पर उसपर सिला क्या जाय यह बड़ा सवाल था.

मेरे सौभाग्य से उन दिनों हमारे घर आकर ठहरे साधू महराज ने मेरे छोटे भाई को विश्वास दिला दिया कि किशोर वय से ही पुरुष को लंगोट का मजबूत होना चाहिए और उन्हें आधुनिक अंडरवियर नहीं लंगोट पहनना चाहिए,इससे बल वीर्य की वृद्धि होती है.....आखिर इसी लंगोट की वजह से तो हनुमान जी इतने बलशाली हुए हैं...हनुमान जी की तरह बलशाली बनने की चाह रखने वाला मेरा भाई उनके तर्कों से इतना प्रभावित हुआ कि उसने तुंरत चड्डी को लंगोट से स्थानांतरित करने की ठान ली.

अब हम भाई बहन चल निकले लंगोट अभियान में..माताजी के बक्से से उनके एक पेटीकोट का कपडा हमने उड़ा लिया, साधू महराज के धूप में तार पर सूखते लंगोट का पर्यवेक्षण किया गया और हम इस निष्कर्ष पर पहुंचे की पतंग के ऊपर के आधे भाग को काटकर यदि उसकी लम्बी पूंछ और दो बड़ी डोरियाँ बना दी जाय ..तो बस लंगोट बन जायेगा...अब बचपन से इतने तो पतंग बना चुके हैं हम..तो यह लंगोट सिलना कौन सी बड़ी बात है.

फटाफट कपडे को काटा गया और सिलकर आधे घंटे के अन्दर खूबसूरत लंगोट तैयार कर लिया गया...मेरे जीवन की यह सबसे बड़ी सफलता थी..कई दिनों तक मैं छोटे भाई को गर्व से वह लंगोट खुद ही बांधा करती थी और भाई भी मेरी कलाकारी की दाद दिए नहीं थकता था...उसका बस चलता तो आस पड़ोस मोहल्ले को वह सगर्व मेरी उत्कृष्ट कलाकारी और इस नूतन अनोखे परिधान का दिग्दर्शन करवा आता.


मेरा उत्साह अपनी चरम पर था..हाथ हमेशा कुछ न कुछ सिलने को कुलबुलाया करते थे.....एक दिन देखा छोटा भाई माताजी के आदेश पर कपडा लिए दरजी से पजामा सिलवाने चला जा रहा है...यह मेरा सरासर अपमान था...भागकर मैं उससे कपडा छीन कर लायी..


मेरी एक सहेली ने बताया था कि जो भी कपडा सिलना हो नाप के लिए अपने पुराने कपडे को नए कपडे पर बिछाकर उसके नाप से नया कपडा काट लेना..मुझे लगा अब भला पजामा सिलने में कौन सी कलाकारी है,दो पैर ही तो बनाने हैं और नाडा डालने के लिए एक पट्टी डाल देनी है बस..


भाई कुछ डरा हुआ था कि अगर मैंने कपडा बिगाड़ दिया तो माँ से बहुत बुरी झाड़ पड़ेगी..मैंने उसे याद दिलाया कि जीवन में पहली बार बिना किसी पूर्व प्रशिक्षण के मैंने मशीन पकडा और इतना सुन्दर लंगोट सिला फिर भी वह मेरी कला पर शक करता है...वह कुछ आश्वस्त तो हुआ पर बार बार मुझे चेताता रहा कि अगर पजामा गड़बडाया तो माता क्या गत बनायेंगी.....


पूर्ण आश्वस्त और अपार उत्साहित ह्रदय से कपडा नीचे बिछा उसपर उसके पुराने पजामे को सोंटकर नाप के लिए फैला दिया मैंने. जैसे ही काटने के लिए कैंची उठाई कि भाई ने फरमाइश की......दीदी परसों वाली फिल्म में जैसे अमिताभ बच्चन ने चुस्त वाला चूडीदार पायजामा पहना था ,वैसा ही बना देगी ???...मैंने पूरे लाड से उसे पुचकारा...क्यों नहीं भाई...जरूर बना दूंगी...इसमें कौन सी बड़ी बात है.

बिछे हुए कपडे के बीच का कपडा काट कर मैंने दो पैरों की शक्ल दे दी और बड़े ही मनोयोग से उसे सिलना शुरू किया..भाई अपनी आँखों में अमिताभ बच्चन के पजामे का सपना संजोये और खुद को अमिताभ सा स्मार्ट देखने की ललक लिए पूरे समय मेरे साथ बना रहा..

लगभग चालीस मिनट लगा और दो पैरों और नाडे के साथ पायजामा तैयार हो गया.माताजी पड़ोस में गयीं हुईं थीं और हम दोनों भाई बहनों ने तय किया कि जब वो घर आयें तो भाई पजामा पहनकर उन्हें चौंकाने को तैयार रहेगा..

लेकिन यह क्या....चुस्त करने के चक्कर में पजामा बहुत ही तंग बन गया था,आधे पैर के ऊपर चढ़ ही नहीं पा रहा था... ...लेकिन हम कहाँ हार मानने वाले थे, ठूंस ठांस कर पजामे में भाई को फिट कर दिया...बेचारे भाई ने पजामा पहन तो लिया पर पता नहीं उसमे गडबडी क्या हुई थी कि वह हिल डुल या चल ही नहीं पा रहा था..


भाई ठुनकने लगा...दीदी तूने पजामा खराब कर दिया न....देख तो मैं चल नहीं पा रहा...पैर एकदम जाम हो गया...मेरी बनी बनाई इज्जत धूल में मिलने जा रही थी.....मैंने उसे उत्साहित किया ... ऐसे कैसे चला नहीं जा रहा है,तू पैर तो आगे बढा...और फिर....जैसे ही उसने पैर जबरदस्ती आगे बढाया कि ठीक बीचोबीच पजामा दो भागों में बटकर फट गया..

इस दौरान मझला भाई भी वहां आ गया था और छुटके की हालत देख हम हंसते हंसते पहले तो लोट पोट हो गए...फिर याद आया कि माँ किसी भी क्षण वापस आ जायेंगी....और हमारा जोरदार बैंड बजेगा....सो फटाफट मझले और मैंने मिलकर अपनी पूरी ताकत लगा पजामा खींच उसमे से भाई को किसी तरह निकला....खूब पुचकारकर और हलवा बनाकर खिलाने के आश्वासन के बाद दोनों भाई राजी हो गए कि वे माताजी को कुछ नहीं बताएँगे...मैंने उन्हें आश्वाशन दिया कि कोई न कोई जुगाड़ लगाकर मैं पजामा ठीक कर दूंगी....


मेरे समझ में नहीं आ रहा था कि आखिर गडबडी हुई कैसे...सिला तो मैंने ठीक ठाक ही था...चुपके से दरजी के पास वह पजामा लेकर हम भाई बहन पहुंचे...दरजी ने जब पजामा देखा तो पहले तो लोट लोट कर हंसा और फिर उसने पूछा कि यह नायाब सिलाई की किसने...मेरे मूरख भाई ने जैसे ही मेरा नाम लेने के लिए अपना मुंह खोला कि मैंने उसे इतने जोर की चींटी काटी कि उसकी चीख निकल गयी..मेरे डर से उसने नाम तो नहीं लिया पर दरजी था एक नंबर का धूर्त उसने सब समझ लिया...उसके बाद तो उसने ऐसी खिल्ली उडानी शुरू की कि मैं दांत पीसकर रह गयी...


जान बूझकर उसने कहा कि अब इसका कुछ नहीं हो सकता.. तो सारे गुस्से को पी उसके आगे रिरियाने के सिवाय दूसरा कोई विकल्प न था मेरे पास...खूब हाथ पैर जोड़े,अंकल अंकल कहा ...तो उसने कहा कि अलग से कपडे लगाकर वह पजामे को ठीक करने की कोशिश करेगा...


जब लौटकर अपने क्षात्रावास पहुँची और सिलाई जानने वाली सहेलियों से पूछा तो पता चला कि भले पजामा क्यों न हो ,उसकी कटाई विशेष प्रकार से होती है और दोनों पैरों के बीच कली लगायी जाती है..

जो भी हो... वह पजामा आज भे हमारी यादों की खूंटी पर वैसे ही लटका पड़ा है,जिसे देख हम भाई बहन आज भी उतना ही हंसा करते हैं...



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