सहज स्वाभाविक रूप से दुनिया के प्रत्येक अभिभावक के तरह मेरे माता पिता की भी मुझसे बहुत सी अपेक्षाएं थीं, बहुत से सपने उन्होंने देख रखे थे मेरे लिए... पर समस्या यह थी कि माताजी और पिताजी दोनों के सपने विपरीत दिशाओं में फ़ैली दो ऐसी टहनियों सी थी जिनका मूल एक मुझ कमजोर से जुड़ा था पर दोनों डालों को सम्हालने के लिए मुझे अपने सामर्थ्य से बहुत अधिक विस्तार करना पड़ता...
पिताजी जहाँ मुझे गायन, वादन, नृत्य, संगीत, चित्रकला इत्यादि में प्रवीण देखने के साथ साथ डाक्टर इंजिनियर या उच्च प्राशासनिक पद पर प्रतिष्ठित देखना चाहते थे, वहीँ मेरी माताजी मुझे सिलाई बुनाई कढाई पाक कला तथा गृहकार्य में दक्ष एक अत्यंत कुशल, शुशील ,संकोची, छुई मुई गृहणी जो ससुराल जाकर उनका नाम ऊंचा करे , न कि नाक कटवाए.. के रूप में देखना चाहती थीं..
मुझे दक्ष करने के लिए पिताजी ने संगीत ,नृत्य, चित्रकारी तथा एक पढाई के शिक्षक की व्यवस्था घर पर ही कर दी थी।संगीत, चित्रकला तथा पढाई तक तो ठीक था पर नृत्य वाले गुरूजी मुझसे बड़े परेशान रहते थे...मैं इतनी संकोची और अंतर्मुखी थी कि मुझसे हाथ पैर हिलवाना किसी के लिए भी सहज न था.
दो सप्ताह के अथक परिश्रम के बाद मुझसे किसी तरह हल्का फुल्का हाथ पैर तो हिलवा लिए गुरूजी ने पर जैसे ही आँखों तथा गर्दन की मुद्राओं की बारी आई ,उनके झटके देख मेरी ऐसी हंसी छूटती कि उन्हें दुहराने के हाल में ही मैं नहीं बचती थी.. गुरूजी बेचारे माथा पीटकर रह जाते थे... यूँ भी गुरूजी की लड़कियों की तरह लचकती चाल और उनके बात करने का ढंग मेरी हंसी की बांध तोड़ दिया करते थे...जब हर प्रकार से गुरूजी अस्वस्त हो गए कि मैं किसी जनम में नृत्य नहीं सीख सकती तो उन्होंने पिताजी से अपनी व्यस्तता का बहाना बना किनारा कर लिया.... और तब जाकर मेरी जान छूटी थी....
जहाँ तक प्रश्न माताजी के अपेक्षाओं का था,माँ जितना ही अधिक मुझमे स्त्रियोचित गुण देखना चाहती थी,मुझे उससे उतनी ही वितृष्णा होती थी.पता नहीं कैसे मेरे दिमाग में यह बात घर कर गयी कि बुनाई कढाई कला नहीं बल्कि परनिंदा के माध्यम हैं...औरतें फालतू के समय में इक्कठे बैठ हाथ में सलाइयाँ ले सबके घरों के चारित्रिक फंदे बुनने उघाड़ने में लग जातीं हैं. मुझे यह बड़ा ही निकृष्ट कार्य लगता था और "औरतों के काम मैं नहीं करती" कहकर मैं भाग लिया करती थी..मेरे लक्षण देखकर माताजी दिन रात कुढा करतीं थीं..
डांट डपट या झापड़ खाकर जब कभी रोती बिसूरती मैं बुनाई के लिए बैठती भी थी, तो चार छः लाइन बुनकर मेरा धैर्य चुक जाता था. जब देखती कि इतनी देर से आँखें गोडे एक एक घर गिरा उठा रही हूँ और इतने अथक परिश्रम के बाद भी स्वेटर की लम्बाई दो उंगली भी नहीं बढ़ी तो मुझे बड़ी कोफ्त होती थी... वस्तुतः मुझे वही काम करना भाता था जो एक बैठकी में संपन्न हो जाये और तैयार परिणाम सामने हो और स्वेटर या क्रोशिये में ऐसी कोई बात तो थी नहीं..
नया कुछ सिलने की उत्सुकता बहुत होती थी पर पुराने की मरम्मती मुझे सर्वाधिक नीरस लगा करती थी.मेरी माँ मुझे कोसते गलियां देते ,ससुराल में उन्हें कौन कौन सी गालियाँ सुन्वाउंगी इसके विवरण सुनाते हुए हमारे फटे कपडों की मरम्मती किया करती, पर मेरे कानो पर किंचित भी जूं न रेंगती..
संभवतः मैं साथ आठ साल की रही होउंगी तभी से मेरे दहेज़ का सामान जोड़ा जाने लगा था..इसी क्रम में मेरे विवाह से करीब दो वर्ष पहले एक सिलाई मशीन ख़रीदी गयी. जब वह मशीन खरीदी गयी,उन दिनों मैं छात्रावास में थी और मेरी अनुपस्थिति में मेरे मझले भाई ने मशीन चलाने से लेकर उसके छोटे मोटे तकनीकी खामियों तक से निपटने की पूरी जानकारी ली.
जब मैं छुट्टियों में आई तो यह नया उपकरण मुझे अत्यंत उत्साहित कर गया. मैं अपने पर लगे निकम्मेपन के कालिख को इस महत उपकरण की सहायता से धो डालने को कटिबद्ध हो गयी. मझले भाई के आगे पीछे घूमकर बड़ी चिरौरी करके किसी तरह उससे मशीन चलाना तो सीख लिया, पर उसपर सिला क्या जाय यह बड़ा सवाल था.
मेरे सौभाग्य से उन दिनों हमारे घर आकर ठहरे साधू महराज ने मेरे छोटे भाई को विश्वास दिला दिया कि किशोर वय से ही पुरुष को लंगोट का मजबूत होना चाहिए और उन्हें आधुनिक अंडरवियर नहीं लंगोट पहनना चाहिए,इससे बल वीर्य की वृद्धि होती है.....आखिर इसी लंगोट की वजह से तो हनुमान जी इतने बलशाली हुए हैं...हनुमान जी की तरह बलशाली बनने की चाह रखने वाला मेरा भाई उनके तर्कों से इतना प्रभावित हुआ कि उसने तुंरत चड्डी को लंगोट से स्थानांतरित करने की ठान ली.
अब हम भाई बहन चल निकले लंगोट अभियान में..माताजी के बक्से से उनके एक पेटीकोट का कपडा हमने उड़ा लिया, साधू महराज के धूप में तार पर सूखते लंगोट का पर्यवेक्षण किया गया और हम इस निष्कर्ष पर पहुंचे की पतंग के ऊपर के आधे भाग को काटकर यदि उसकी लम्बी पूंछ और दो बड़ी डोरियाँ बना दी जाय ..तो बस लंगोट बन जायेगा...अब बचपन से इतने तो पतंग बना चुके हैं हम..तो यह लंगोट सिलना कौन सी बड़ी बात है.
फटाफट कपडे को काटा गया और सिलकर आधे घंटे के अन्दर खूबसूरत लंगोट तैयार कर लिया गया...मेरे जीवन की यह सबसे बड़ी सफलता थी..कई दिनों तक मैं छोटे भाई को गर्व से वह लंगोट खुद ही बांधा करती थी और भाई भी मेरी कलाकारी की दाद दिए नहीं थकता था...उसका बस चलता तो आस पड़ोस मोहल्ले को वह सगर्व मेरी उत्कृष्ट कलाकारी और इस नूतन अनोखे परिधान का दिग्दर्शन करवा आता.
मेरा उत्साह अपनी चरम पर था..हाथ हमेशा कुछ न कुछ सिलने को कुलबुलाया करते थे.....एक दिन देखा छोटा भाई माताजी के आदेश पर कपडा लिए दरजी से पजामा सिलवाने चला जा रहा है...यह मेरा सरासर अपमान था...भागकर मैं उससे कपडा छीन कर लायी..
मेरी एक सहेली ने बताया था कि जो भी कपडा सिलना हो नाप के लिए अपने पुराने कपडे को नए कपडे पर बिछाकर उसके नाप से नया कपडा काट लेना..मुझे लगा अब भला पजामा सिलने में कौन सी कलाकारी है,दो पैर ही तो बनाने हैं और नाडा डालने के लिए एक पट्टी डाल देनी है बस..
भाई कुछ डरा हुआ था कि अगर मैंने कपडा बिगाड़ दिया तो माँ से बहुत बुरी झाड़ पड़ेगी..मैंने उसे याद दिलाया कि जीवन में पहली बार बिना किसी पूर्व प्रशिक्षण के मैंने मशीन पकडा और इतना सुन्दर लंगोट सिला फिर भी वह मेरी कला पर शक करता है...वह कुछ आश्वस्त तो हुआ पर बार बार मुझे चेताता रहा कि अगर पजामा गड़बडाया तो माता क्या गत बनायेंगी.....
पूर्ण आश्वस्त और अपार उत्साहित ह्रदय से कपडा नीचे बिछा उसपर उसके पुराने पजामे को सोंटकर नाप के लिए फैला दिया मैंने. जैसे ही काटने के लिए कैंची उठाई कि भाई ने फरमाइश की......दीदी परसों वाली फिल्म में जैसे अमिताभ बच्चन ने चुस्त वाला चूडीदार पायजामा पहना था ,वैसा ही बना देगी ???...मैंने पूरे लाड से उसे पुचकारा...क्यों नहीं भाई...जरूर बना दूंगी...इसमें कौन सी बड़ी बात है.
बिछे हुए कपडे के बीच का कपडा काट कर मैंने दो पैरों की शक्ल दे दी और बड़े ही मनोयोग से उसे सिलना शुरू किया..भाई अपनी आँखों में अमिताभ बच्चन के पजामे का सपना संजोये और खुद को अमिताभ सा स्मार्ट देखने की ललक लिए पूरे समय मेरे साथ बना रहा..
लगभग चालीस मिनट लगा और दो पैरों और नाडे के साथ पायजामा तैयार हो गया.माताजी पड़ोस में गयीं हुईं थीं और हम दोनों भाई बहनों ने तय किया कि जब वो घर आयें तो भाई पजामा पहनकर उन्हें चौंकाने को तैयार रहेगा..
लेकिन यह क्या....चुस्त करने के चक्कर में पजामा बहुत ही तंग बन गया था,आधे पैर के ऊपर चढ़ ही नहीं पा रहा था... ...लेकिन हम कहाँ हार मानने वाले थे, ठूंस ठांस कर पजामे में भाई को फिट कर दिया...बेचारे भाई ने पजामा पहन तो लिया पर पता नहीं उसमे गडबडी क्या हुई थी कि वह हिल डुल या चल ही नहीं पा रहा था..
भाई ठुनकने लगा...दीदी तूने पजामा खराब कर दिया न....देख तो मैं चल नहीं पा रहा...पैर एकदम जाम हो गया...मेरी बनी बनाई इज्जत धूल में मिलने जा रही थी.....मैंने उसे उत्साहित किया ... ऐसे कैसे चला नहीं जा रहा है,तू पैर तो आगे बढा...और फिर....जैसे ही उसने पैर जबरदस्ती आगे बढाया कि ठीक बीचोबीच पजामा दो भागों में बटकर फट गया..
इस दौरान मझला भाई भी वहां आ गया था और छुटके की हालत देख हम हंसते हंसते पहले तो लोट पोट हो गए...फिर याद आया कि माँ किसी भी क्षण वापस आ जायेंगी....और हमारा जोरदार बैंड बजेगा....सो फटाफट मझले और मैंने मिलकर अपनी पूरी ताकत लगा पजामा खींच उसमे से भाई को किसी तरह निकला....खूब पुचकारकर और हलवा बनाकर खिलाने के आश्वासन के बाद दोनों भाई राजी हो गए कि वे माताजी को कुछ नहीं बताएँगे...मैंने उन्हें आश्वाशन दिया कि कोई न कोई जुगाड़ लगाकर मैं पजामा ठीक कर दूंगी....
मेरे समझ में नहीं आ रहा था कि आखिर गडबडी हुई कैसे...सिला तो मैंने ठीक ठाक ही था...चुपके से दरजी के पास वह पजामा लेकर हम भाई बहन पहुंचे...दरजी ने जब पजामा देखा तो पहले तो लोट लोट कर हंसा और फिर उसने पूछा कि यह नायाब सिलाई की किसने...मेरे मूरख भाई ने जैसे ही मेरा नाम लेने के लिए अपना मुंह खोला कि मैंने उसे इतने जोर की चींटी काटी कि उसकी चीख निकल गयी..मेरे डर से उसने नाम तो नहीं लिया पर दरजी था एक नंबर का धूर्त उसने सब समझ लिया...उसके बाद तो उसने ऐसी खिल्ली उडानी शुरू की कि मैं दांत पीसकर रह गयी...
जान बूझकर उसने कहा कि अब इसका कुछ नहीं हो सकता.. तो सारे गुस्से को पी उसके आगे रिरियाने के सिवाय दूसरा कोई विकल्प न था मेरे पास...खूब हाथ पैर जोड़े,अंकल अंकल कहा ...तो उसने कहा कि अलग से कपडे लगाकर वह पजामे को ठीक करने की कोशिश करेगा...
जब लौटकर अपने क्षात्रावास पहुँची और सिलाई जानने वाली सहेलियों से पूछा तो पता चला कि भले पजामा क्यों न हो ,उसकी कटाई विशेष प्रकार से होती है और दोनों पैरों के बीच कली लगायी जाती है..
जो भी हो... वह पजामा आज भे हमारी यादों की खूंटी पर वैसे ही लटका पड़ा है,जिसे देख हम भाई बहन आज भी उतना ही हंसा करते हैं...
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पिताजी जहाँ मुझे गायन, वादन, नृत्य, संगीत, चित्रकला इत्यादि में प्रवीण देखने के साथ साथ डाक्टर इंजिनियर या उच्च प्राशासनिक पद पर प्रतिष्ठित देखना चाहते थे, वहीँ मेरी माताजी मुझे सिलाई बुनाई कढाई पाक कला तथा गृहकार्य में दक्ष एक अत्यंत कुशल, शुशील ,संकोची, छुई मुई गृहणी जो ससुराल जाकर उनका नाम ऊंचा करे , न कि नाक कटवाए.. के रूप में देखना चाहती थीं..
मुझे दक्ष करने के लिए पिताजी ने संगीत ,नृत्य, चित्रकारी तथा एक पढाई के शिक्षक की व्यवस्था घर पर ही कर दी थी।संगीत, चित्रकला तथा पढाई तक तो ठीक था पर नृत्य वाले गुरूजी मुझसे बड़े परेशान रहते थे...मैं इतनी संकोची और अंतर्मुखी थी कि मुझसे हाथ पैर हिलवाना किसी के लिए भी सहज न था.
दो सप्ताह के अथक परिश्रम के बाद मुझसे किसी तरह हल्का फुल्का हाथ पैर तो हिलवा लिए गुरूजी ने पर जैसे ही आँखों तथा गर्दन की मुद्राओं की बारी आई ,उनके झटके देख मेरी ऐसी हंसी छूटती कि उन्हें दुहराने के हाल में ही मैं नहीं बचती थी.. गुरूजी बेचारे माथा पीटकर रह जाते थे... यूँ भी गुरूजी की लड़कियों की तरह लचकती चाल और उनके बात करने का ढंग मेरी हंसी की बांध तोड़ दिया करते थे...जब हर प्रकार से गुरूजी अस्वस्त हो गए कि मैं किसी जनम में नृत्य नहीं सीख सकती तो उन्होंने पिताजी से अपनी व्यस्तता का बहाना बना किनारा कर लिया.... और तब जाकर मेरी जान छूटी थी....
जहाँ तक प्रश्न माताजी के अपेक्षाओं का था,माँ जितना ही अधिक मुझमे स्त्रियोचित गुण देखना चाहती थी,मुझे उससे उतनी ही वितृष्णा होती थी.पता नहीं कैसे मेरे दिमाग में यह बात घर कर गयी कि बुनाई कढाई कला नहीं बल्कि परनिंदा के माध्यम हैं...औरतें फालतू के समय में इक्कठे बैठ हाथ में सलाइयाँ ले सबके घरों के चारित्रिक फंदे बुनने उघाड़ने में लग जातीं हैं. मुझे यह बड़ा ही निकृष्ट कार्य लगता था और "औरतों के काम मैं नहीं करती" कहकर मैं भाग लिया करती थी..मेरे लक्षण देखकर माताजी दिन रात कुढा करतीं थीं..
डांट डपट या झापड़ खाकर जब कभी रोती बिसूरती मैं बुनाई के लिए बैठती भी थी, तो चार छः लाइन बुनकर मेरा धैर्य चुक जाता था. जब देखती कि इतनी देर से आँखें गोडे एक एक घर गिरा उठा रही हूँ और इतने अथक परिश्रम के बाद भी स्वेटर की लम्बाई दो उंगली भी नहीं बढ़ी तो मुझे बड़ी कोफ्त होती थी... वस्तुतः मुझे वही काम करना भाता था जो एक बैठकी में संपन्न हो जाये और तैयार परिणाम सामने हो और स्वेटर या क्रोशिये में ऐसी कोई बात तो थी नहीं..
नया कुछ सिलने की उत्सुकता बहुत होती थी पर पुराने की मरम्मती मुझे सर्वाधिक नीरस लगा करती थी.मेरी माँ मुझे कोसते गलियां देते ,ससुराल में उन्हें कौन कौन सी गालियाँ सुन्वाउंगी इसके विवरण सुनाते हुए हमारे फटे कपडों की मरम्मती किया करती, पर मेरे कानो पर किंचित भी जूं न रेंगती..
संभवतः मैं साथ आठ साल की रही होउंगी तभी से मेरे दहेज़ का सामान जोड़ा जाने लगा था..इसी क्रम में मेरे विवाह से करीब दो वर्ष पहले एक सिलाई मशीन ख़रीदी गयी. जब वह मशीन खरीदी गयी,उन दिनों मैं छात्रावास में थी और मेरी अनुपस्थिति में मेरे मझले भाई ने मशीन चलाने से लेकर उसके छोटे मोटे तकनीकी खामियों तक से निपटने की पूरी जानकारी ली.
जब मैं छुट्टियों में आई तो यह नया उपकरण मुझे अत्यंत उत्साहित कर गया. मैं अपने पर लगे निकम्मेपन के कालिख को इस महत उपकरण की सहायता से धो डालने को कटिबद्ध हो गयी. मझले भाई के आगे पीछे घूमकर बड़ी चिरौरी करके किसी तरह उससे मशीन चलाना तो सीख लिया, पर उसपर सिला क्या जाय यह बड़ा सवाल था.
मेरे सौभाग्य से उन दिनों हमारे घर आकर ठहरे साधू महराज ने मेरे छोटे भाई को विश्वास दिला दिया कि किशोर वय से ही पुरुष को लंगोट का मजबूत होना चाहिए और उन्हें आधुनिक अंडरवियर नहीं लंगोट पहनना चाहिए,इससे बल वीर्य की वृद्धि होती है.....आखिर इसी लंगोट की वजह से तो हनुमान जी इतने बलशाली हुए हैं...हनुमान जी की तरह बलशाली बनने की चाह रखने वाला मेरा भाई उनके तर्कों से इतना प्रभावित हुआ कि उसने तुंरत चड्डी को लंगोट से स्थानांतरित करने की ठान ली.
अब हम भाई बहन चल निकले लंगोट अभियान में..माताजी के बक्से से उनके एक पेटीकोट का कपडा हमने उड़ा लिया, साधू महराज के धूप में तार पर सूखते लंगोट का पर्यवेक्षण किया गया और हम इस निष्कर्ष पर पहुंचे की पतंग के ऊपर के आधे भाग को काटकर यदि उसकी लम्बी पूंछ और दो बड़ी डोरियाँ बना दी जाय ..तो बस लंगोट बन जायेगा...अब बचपन से इतने तो पतंग बना चुके हैं हम..तो यह लंगोट सिलना कौन सी बड़ी बात है.
फटाफट कपडे को काटा गया और सिलकर आधे घंटे के अन्दर खूबसूरत लंगोट तैयार कर लिया गया...मेरे जीवन की यह सबसे बड़ी सफलता थी..कई दिनों तक मैं छोटे भाई को गर्व से वह लंगोट खुद ही बांधा करती थी और भाई भी मेरी कलाकारी की दाद दिए नहीं थकता था...उसका बस चलता तो आस पड़ोस मोहल्ले को वह सगर्व मेरी उत्कृष्ट कलाकारी और इस नूतन अनोखे परिधान का दिग्दर्शन करवा आता.
मेरा उत्साह अपनी चरम पर था..हाथ हमेशा कुछ न कुछ सिलने को कुलबुलाया करते थे.....एक दिन देखा छोटा भाई माताजी के आदेश पर कपडा लिए दरजी से पजामा सिलवाने चला जा रहा है...यह मेरा सरासर अपमान था...भागकर मैं उससे कपडा छीन कर लायी..
मेरी एक सहेली ने बताया था कि जो भी कपडा सिलना हो नाप के लिए अपने पुराने कपडे को नए कपडे पर बिछाकर उसके नाप से नया कपडा काट लेना..मुझे लगा अब भला पजामा सिलने में कौन सी कलाकारी है,दो पैर ही तो बनाने हैं और नाडा डालने के लिए एक पट्टी डाल देनी है बस..
भाई कुछ डरा हुआ था कि अगर मैंने कपडा बिगाड़ दिया तो माँ से बहुत बुरी झाड़ पड़ेगी..मैंने उसे याद दिलाया कि जीवन में पहली बार बिना किसी पूर्व प्रशिक्षण के मैंने मशीन पकडा और इतना सुन्दर लंगोट सिला फिर भी वह मेरी कला पर शक करता है...वह कुछ आश्वस्त तो हुआ पर बार बार मुझे चेताता रहा कि अगर पजामा गड़बडाया तो माता क्या गत बनायेंगी.....
पूर्ण आश्वस्त और अपार उत्साहित ह्रदय से कपडा नीचे बिछा उसपर उसके पुराने पजामे को सोंटकर नाप के लिए फैला दिया मैंने. जैसे ही काटने के लिए कैंची उठाई कि भाई ने फरमाइश की......दीदी परसों वाली फिल्म में जैसे अमिताभ बच्चन ने चुस्त वाला चूडीदार पायजामा पहना था ,वैसा ही बना देगी ???...मैंने पूरे लाड से उसे पुचकारा...क्यों नहीं भाई...जरूर बना दूंगी...इसमें कौन सी बड़ी बात है.
बिछे हुए कपडे के बीच का कपडा काट कर मैंने दो पैरों की शक्ल दे दी और बड़े ही मनोयोग से उसे सिलना शुरू किया..भाई अपनी आँखों में अमिताभ बच्चन के पजामे का सपना संजोये और खुद को अमिताभ सा स्मार्ट देखने की ललक लिए पूरे समय मेरे साथ बना रहा..
लगभग चालीस मिनट लगा और दो पैरों और नाडे के साथ पायजामा तैयार हो गया.माताजी पड़ोस में गयीं हुईं थीं और हम दोनों भाई बहनों ने तय किया कि जब वो घर आयें तो भाई पजामा पहनकर उन्हें चौंकाने को तैयार रहेगा..
लेकिन यह क्या....चुस्त करने के चक्कर में पजामा बहुत ही तंग बन गया था,आधे पैर के ऊपर चढ़ ही नहीं पा रहा था... ...लेकिन हम कहाँ हार मानने वाले थे, ठूंस ठांस कर पजामे में भाई को फिट कर दिया...बेचारे भाई ने पजामा पहन तो लिया पर पता नहीं उसमे गडबडी क्या हुई थी कि वह हिल डुल या चल ही नहीं पा रहा था..
भाई ठुनकने लगा...दीदी तूने पजामा खराब कर दिया न....देख तो मैं चल नहीं पा रहा...पैर एकदम जाम हो गया...मेरी बनी बनाई इज्जत धूल में मिलने जा रही थी.....मैंने उसे उत्साहित किया ... ऐसे कैसे चला नहीं जा रहा है,तू पैर तो आगे बढा...और फिर....जैसे ही उसने पैर जबरदस्ती आगे बढाया कि ठीक बीचोबीच पजामा दो भागों में बटकर फट गया..
इस दौरान मझला भाई भी वहां आ गया था और छुटके की हालत देख हम हंसते हंसते पहले तो लोट पोट हो गए...फिर याद आया कि माँ किसी भी क्षण वापस आ जायेंगी....और हमारा जोरदार बैंड बजेगा....सो फटाफट मझले और मैंने मिलकर अपनी पूरी ताकत लगा पजामा खींच उसमे से भाई को किसी तरह निकला....खूब पुचकारकर और हलवा बनाकर खिलाने के आश्वासन के बाद दोनों भाई राजी हो गए कि वे माताजी को कुछ नहीं बताएँगे...मैंने उन्हें आश्वाशन दिया कि कोई न कोई जुगाड़ लगाकर मैं पजामा ठीक कर दूंगी....
मेरे समझ में नहीं आ रहा था कि आखिर गडबडी हुई कैसे...सिला तो मैंने ठीक ठाक ही था...चुपके से दरजी के पास वह पजामा लेकर हम भाई बहन पहुंचे...दरजी ने जब पजामा देखा तो पहले तो लोट लोट कर हंसा और फिर उसने पूछा कि यह नायाब सिलाई की किसने...मेरे मूरख भाई ने जैसे ही मेरा नाम लेने के लिए अपना मुंह खोला कि मैंने उसे इतने जोर की चींटी काटी कि उसकी चीख निकल गयी..मेरे डर से उसने नाम तो नहीं लिया पर दरजी था एक नंबर का धूर्त उसने सब समझ लिया...उसके बाद तो उसने ऐसी खिल्ली उडानी शुरू की कि मैं दांत पीसकर रह गयी...
जान बूझकर उसने कहा कि अब इसका कुछ नहीं हो सकता.. तो सारे गुस्से को पी उसके आगे रिरियाने के सिवाय दूसरा कोई विकल्प न था मेरे पास...खूब हाथ पैर जोड़े,अंकल अंकल कहा ...तो उसने कहा कि अलग से कपडे लगाकर वह पजामे को ठीक करने की कोशिश करेगा...
जब लौटकर अपने क्षात्रावास पहुँची और सिलाई जानने वाली सहेलियों से पूछा तो पता चला कि भले पजामा क्यों न हो ,उसकी कटाई विशेष प्रकार से होती है और दोनों पैरों के बीच कली लगायी जाती है..
जो भी हो... वह पजामा आज भे हमारी यादों की खूंटी पर वैसे ही लटका पड़ा है,जिसे देख हम भाई बहन आज भी उतना ही हंसा करते हैं...
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59 comments:
बचपन की खूंटी पर ना जाने क्या लटका हुआ है।यादो की पोटली यूंही कभी कभी खोलते रहना चाहिये।बहुत बहुत बढिया लिखा आपने।
रंजना जी,
संवेदना संसार पर बहुत ही रोचक अभिव्यक्ति। सरल सहज हास्य पढते हुये यूँ लगा कि जैसे कोई मेरे अपने बचपन में झांक रहा हो।
यादों को काफी करीने से संजो रखा है।
सादर,
मुकेश कुमार तिवारी
बहुत गजब पोस्ट है. शुरू से आखिर तक बांधे हुए. पायजामे के नाड़े की तरह....:-)
यादों की रहगुजर हमेशा एक सुकून देती है। अच्छा लगा आपकी यादों की गलियों के बीच से गुजरना।
-Zakir Ali ‘Rajnish’
{ Secretary-TSALIIM & SBAI }
sahi me aaj kuchh shabdo ne hame apane bachapan me lekar kar chale gaye ...........kaee baar to has has kar pet me bal pad gaya........bahut saral abhiwyakti jo dil ko chhoo gayi
रंजना जी हम तो बिना पाजामा देख कर ही हंस हंस कर लोट पोट हो गये, सच मै यह बचपन बार बार क्यो नही आता, उन दिनो मे सच मै हम सब राजा ही तो होते है, मजा आ गया आप की लेखनी को पढ कर, लेकिन आप ने लिखा नही कि मां भी हंसी कि नही...
धन्यवाद
मुझे शिकायत है
पराया देश
छोटी छोटी बातें
नन्हे मुन्हे
शब्दों के फंदों में भावों की कसीदाकारी ने यह साबित कर दिया है कि भावों की अभिव्यक्ति का हुनर आप में प्रचुर है ना जाने क्यों नृत्य गुरू हताश हो गए।
शुरू से अंत तक यह पोस्ट बहुत मजेदार लगी .. माता पिता से छुपकर कुछ नया करने की चाहत में बचपन में कुछ भूलें हो ही जाती है .. और उसे छुपाने के क्रम में फिर भूलें .. न डांट की चिंता रहती है और न मार की .. बचपन की ये यादें जीवनभर अंदर ही अंदर गुदगुदाती रहती हैं .. बहुत बढिया लिखा आपने।
:) :) mujhe bhi bahut kuchh bevakufiya yaad aa gayi bachapan ki
आपकी एक लिखने की शैली है जो बांधे रहती है शुरु से आखिर तक. और अब यही लगता है कि काश वो बचपन एक बार फ़िर से जीने का मौका मिल जाये.
रामराम.
वैसे पाजामा सिलना इतना आसान है हमें तो पता ही नहीं था.. बहुत रोचक.. अच्छा लगा..
वह पजामा आज भे हमारी यादों की खूंटी पर वैसे ही लटका पड़ा है,जिसे देख हम भाई बहन आज भी उतना ही हंसा करते हैं
यादों की खूँटी पर जाने क्या क्या लटका हुवा है............. रोचक घटना का वर्णन लाजवाब तरीके से किया है आपने.......... बचपन न जाने ऐसी कितनी ही यादों से भरा रहता है.............. कभी न कभी वो बातें अचानक सामने आ कर चोंका देती हैं........ सुन्दर पोस्ट
संसार गज़ब की खूँटी है।
सबका ध्यान इसी पर रहता है।
जरा भी तारतम्य नही टूटता।
Wah...ye bhi khoob rahi...
ye bachapan kee khoontiyan jab bhee tatolane baitho to aap chahe thak jao ye khatam hone kaa naam hi nahin leti bahut badia post hai aabhar
बेहद रोचक!!
यादों की खूँटी से अब वो पजामा कहीं नहीं जाने वाला!:)
यादो की खूटी पर लटका पजामा..... . बहुत बढ़िया संस्मरण . आभार.
bahut din ho gaye hain .....
ab use utaar lo please....................
aur kisi kaam na aaye toh uska langot hi banaalo_________ha ha ha ha ha ha
waah
waah
waah
shaandaar rachna.........anand aa gaya
नृत्य की पढाई के लिए शिक्षक ,गुरूजी की लड़कियों की तरह लचकती चाल
डांट डपट या झापड़ खाकर रोती बिसूरती बुनाई के लिए बैठना ,आठ साल की उम्र से दहेज़ का सामान जोड़ा जाना ,ओर उसपे सबसे बड़ा तुर्रा ......चड्डी को लंगोट से स्थानांतरित करने में भाई की सहायता ...पजामे से ज्यदा हमें लंगोट एपिसोड मजेदार लगा ....निश्चल ओर खुले मन से लिखा लेख....
आपसे निवेदन है अपनी किशोरावस्था के कुछ संमरण ईमानदारी से लिखिए ,उत्सुकता रहेगी....
हंस हंस के बुरा हाल है
लेकिन हम कहाँ हार मानने वाले थे, ठूंस ठांस कर पजामे में भाई को फिट कर दिया...
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अन्दाजे बयां आपका क्या कहना. आपके भाई तो कभी उस पाजामे को देखने की इच्छा हो रही है. आपके भाई पाजामे से किस प्रकार निकले यह जानना भी दिलचस्प होगा.
बेहद सरस अंदाज में पूरी घटना का वर्णन किया है आपने !
आपने सिकुड़ा हुआ पायजामा जरूर सिला, पर पोस्ट गज़ब का आयाम लिए हुई लगी. शुरू से अंत तक बांध कर रखी.
सिलाई के प्रयास में भले विफलता का अनुभव किया हो, झेप लगी हो पर इसने आपको जो अहसास कराया, सारी जिन्दगी सफलता दिलाएगा.
प्रयास में सफल.
बधाई.
चन्द्र मोहन गुप्त
संस्मरण में आपने तो जान ही डाल दी है
दिल से बधाई.
BACHAPAN KO JIS TARAH AAPNE USE KHUNTI ME TAANG KAR JIWANT KIYA HAI WO TO KAMAAL KI BAAT KAHI HAI AAPNE... KABHI KABHI BACHAPAN KE CHHOTI CHHOTI ASAFALTAA BADI SAFALTA KI OR LE JAATI HAI....
LEKH ME SHABDON KA PAINAAPAN PADHTE HI BAN RAHAA HAI BAHOT BAHOT BADHAAYEE
ARSH
pdhte pdhte hansi chut rhi hai .behd khubsurt sansmaran aur utni hi rochak sheeli .aannd agya .
koi laouta de mere beete huye din.
shubhkamnaye
बहुत खूब, काफी घुमावदार रास्ता चलकर यहाँ तक पहुंचे हैं!
बचपन के दिन भी क्या दिन थे।
मजेदार संस्मरण। आनन्दित हुये बांचकर!
बहुत बेहतरीन फिर से बचपन के दिन याद दिला दिए मेरी बधाई स्वीकार करो
सादर
प्रवीण पथिक
9971969084
पाजामे की ही तरह पोस्ट भी कसी हुई. अच्छा लगा आपकी यादों को साझा करके.
rochak aur majedaar sansmaran.
बेहद गुदगुदाने वाला रहा संस्मरण !
हंसी रोकने में नाकामयाब रहा !
आपका लेखन बरबस अतीत की ओर खींचता रहा !
शानदार पोस्ट !
आज की आवाज
savdna sansaar... naam ke upyukt ek savedanshil blog... achha laga padhkar... khas kar aapke likhne ki shaili pasand aayi... jindki ke sansmarnon ko bakhubi utara aapne panno par...
bahut badhiya post..
bachpan hota hi aisa hai.. :)
mujhe didi ki yaad ho aayi.. :(
बहुत गजब पोस्ट है.
"हिन्दीकुंज"
रंजना जी,
आपकी लेखनी सहज और सुन्दर है...पहले तो बधाई स्वीकार करें..
पढ़ कर हंसी रुक नहीं पा रही है..!
पजामा निर्माण कला पर आपकी दक्षता प्रशसनीय है.
प्रकाश सिंह
बहुत मजेदार रहा। शायद पहली बार मैने किसी ब्लाग पर इतनी बड़ी कहानी पढ़ डाली, नहीं तो एक दो पैराग्राफ में ही निपटा देता हूं, यह मेरी नहीं आपकी उपलब्धि मान रहा हूं।
आपकी लेखनी सहज और सुन्दर है
मनोरंजक और मासूम रस और हास्य से लबालब घटनाएं खून बढ़ाने में समर्थ हैं। रक्त की मात्रा गति नहीं। यह इसका उपयोगी पक्ष है।
Aunty! Ap bahut achha likhti ho.
aapki lekhni ka jawab nahi....
yadain aisi hi hoti hain...
bahut accha laga padkar.
bahuut achcha likha aapne...... yaadon ko bahut khoobsoorti se sameta hai....
Wow! Bhaut khubsurrat. I really enjoyed reading your post. Maan bada prasaan hua! Thanks for sharing.
अपने फैन की फ़ेहरिश्त बना रखी होगी आपने....मेरा भी नाम दर्ज कर लीजिये।
क्या लिखती हो आप,,,,अहा!
दिलचस्प संस्मरण और उतनी ही दिलचस्प कलम !
यादों की खूँटी पर अनगिनत चीज़ें लटकी हुई हैं कभी कोई हाथ पड जाती है कभी कोई । बढिया संस्मरण ।
बचपन की सुनहरी यादें । हालांकि हमारा तो अभी भी बचपन चल रहा है । अपना और अपने सुपुत्र दोनों का बचपन हम इंजाय कर रहे हैं ।
एक शानदार संस्मरण । बधाई ।
जायकेदार ,हसगुल्ले के साथ यह पेशकश ! मजा आ गया मैडम!
रंजना जी आप बहुत ही रोचक और बाँध रख लेने लायक लिखती हैं , पिछले कितने ही पोस्ट्स पढ़ डाले हैं , कितनी ही जगह बह आई हूँ , कितनी ही बार रोंगटे खड़े हो जाते रहे |
धन्यवाद
आपने यादों को खूबसूरती से उधेड़ा है :)
ओह अब समझ मैं आया की ये कहावत किस पजामे के लिए बनी थी की आदमी है या पायजामा हूँ !!! ये वही पायजाम था!!
'देख तो मैं चल नहीं पा रहा...पैर एकदम जाम हो गया'
----आगे बढाया कि ठीक बीचोबीच पजामा दो भागों में बटकर फट गया..!
:D ha ha ha!
bechara bhaayee!
आप ने रंजना जी अपने इस संस्मरण को बहुत ही सिलसिलेवार ढंग से लिखा है!
ऐसा लगा जैसे सब कुछ आँखों के सामने हो रहा हो!बहुत हंसी आई!शुक्रिया इतनी बढ़िया प्रस्तुति के लिए!
बहुत बढिया लिखा आपने.....
मज़ेदार संस्मरण। खूब आनंद लिया हमने इसका।
Yadon ki khunti...Bahut sundar article..really its awesome...
Regards..
DevSangeet
पहले नृत्य वाला संस्मरण और बाद में पजामे वाला.. इतनी हँसी आई कि क्या कहें!
आपकी शैली बड़ी रोचक है। अब नियमित आना जाना लगा रहेगा।
॥दस्तक॥|
गीतों की महफिल|
तकनीकी दस्तक
बहुत खुशनुमा, आपके इस संस्मरण ने हमें भी यादों के झरोखों से झंकवा ही दिया....
बहुत उत्कृष्ट तरीके से बेहद खुशनुमा संस्मरण लिखने के लिए आप वाकई धन्यवाद की पात्र है. ऐसा लगा जैसे इस घटना को पढ़ नहीं रहे बल्कि इसका सजीव चित्रण हो रहा है. काफी समय बाद एक भद्र शालीन हास्य लेख पढने को मिला.
apki kahani pardhte hue apna bachpan bhi ghum aaya, lajabab.
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