27.9.10

आन बसो हिय मेरे.....

प्रभुजी प्यारे ,

आन बसो हिय मेरे...


साँसों से मैं डगर बुहारूँ,
नैनन जल से पाँव पखारूँ,
चुन चुन भाव के मूंगे मोती,
हार तुझे पहनाऊं ...
हे स्वामी प्यारे,
आन बसो हिय मेरे...


लाख चौरासी योनि भटका,
मानुस तन को ये मन तरसा,
तब ही जीव पाए यह काया ,
जब तूने उसे परसा ...
ओ ठाकुर न्यारे,
ना छोडो कर मेरे....
प्रभुजी प्यारे,
आन बसो हिय मेरे...


तू न बसे जो ह्रदय हमारे,
मोह गर्त से कौन उबारे,
पञ्च व्याधि ले डोरी फंदा,
बैठा सांझ सकारे ...
ओ पालन हारे,
त्रिताप हरो हमारे ....
प्रभुजी प्यारे,
आन बसो हिय मेरे...


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15.9.10

किला फतह

परीक्षा फल तीन महीने बाद निकलने वाला था,सो उसबार वहां गयी तो पूरे ढाई महीने रहने का अवसर मिल गया ... आनंद सर्वत्र पसरा पड़ा था वहां जिसमे हम दिन रात डूबते उतराते रहते थे..आनंद के अजस्र स्रोतों मध्य सर्वाधिक सुखकारी उसका वह साहचर्य सुख ही था जो मेरी ममेरी बहन की सहपाठी सातवीं कक्षा में अध्यनरत छात्रा थी.. प्रतिदिन सुबह विद्यालय जाने से पूर्व वह यहाँ अपनी सखी को संग लेने आया करती थी. पहली बार जब उसपर दृष्टि पड़ी थी तो ठिठक कर रह गयी थी..उसके भोलेपन और अनिद्य सौंदर्य ने ह्रदय को ऐसे बाँधा कि उसके सानिध्य को यह विकल रहने लगा था.. बहन को मैंने मना लिया कि विद्यालय से वापसी में प्रतिदिन उसे वह अपने साथ लेती आये.

दूध में गुलाब की पंखुडियां घोल शायद ईश्वर ने उसे रंग दिया था. हंसती तो रक्ताभ कपोल ह्रदय में उजास भर देते थे.. बड़ी बड़ी विस्तृत आँखें और सघन पलकें बिना काजल लगाये भी कजरारी लगतीं थीं और उसके अधर...उफ़ !!! बात बात पर उसका खिलखिलाना किसी भी मुरझाये मन को तरोताजा करने में समर्थ था. जान बूझ कर मैं उन दोनों को अपने पास बिठा लेती और कभी कहानियां सुना तो कभी चुटकुले उन्हें भरमाती..वे मुग्ध हो अपने मुख मंडल पर प्रसंगोनुकूल भाव बिखेरतीं और मैं विभोर होकर अपने हिस्से का रस लेती..कभी कहीं किसी पटचित्र में राधा रानी की मनोहारी छवि देखी थी, उस बाला में मुझे वही रूप साकार दीखता था.

मेरे उस पूरे प्रवास में यह क्रम कभी बाधित न हुआ था.. वहां से वापसी से हफ्ते भर पहले पता चला कि उसका विवाह सुनिश्चित हो गया है जो कि छठवें ही दिन होनेवाला है...बैठक में उसके दादाजी मेरे नानाजी को न्योतने आये थे..तिलमिलाती हुई मैं उनके सम्मुख पहुँची. हालाँकि तब मेरी भी अवस्था ऐसी न थी कि कोई मुझ किशोरी को गंभीरता से लेता. पर इससे मैं अपने प्रश्न पूछने की अर्हता थोड़े न खोने वाली थी..मैंने जाकर प्रश्न दाग ही दिया..

संभवतः वे स्वयं ही अपना पक्ष रख शान बघारने और मेरे नानाजी को सीख देने के लिए इस प्रश्न की आकांक्षा कर रहे थे, सो अतिउत्साहित हो उन्होंने अपना पक्ष रखा ..." हमारे मैथिल समाज में कन्यादान की परंपरा है..कन्या का अर्थ है ऐसी कन्या, जो सचमुच ही कन्या हो. यदि कन्या अपने मायके में ही बड़ी ही जाती है तो माता पिता नरकगामी होते हैं. समय भले कितना भी बदल गया हो,पर हमारे वंश में आजतक इस परंपरा का खंडन न हुआ है और न होगा...."

अगले छः दिन मैं तिलमिलाती रही और ठान लिया था कि जो हो जाए, किसी स्थिति में नहीं जाउंगी इस विवाह में..पर न जाने कौन सी डोर थी जिसमे आबद्ध सम्मोहित सी अन्य परिवार जनों संग मैं उनके घर की ओर बढ़ चली..जब हम पहुंचे,द्वार पूजा संपन्न हो चुकी थी और अगले रीति की प्रतीक्षा में वर अपने संगी साथियों संग पंडाल में ही विराज मान थे..माथे पर सुशोभित मौर के कारण वर का मुख मंडल तो न दिखा पर उनका पहलवान सा डील डौल मेरी पिंडलियों को कंपकपा गया...वहां हँसी हिलोड़ का माहौल था और गुजरते हुए मेरे कानों में वर के एक संगी का स्वर गया - "देखो, आज जदि किला फतह न किया न...तो फिर......, फिर जीवन भर गुलाम बने रहना ,सो ध्यान रहे......हा हा हा हा....."

पीली साड़ी और आभूषण से सुसज्जित उस गुडिया का मुग्धकारी रूप नैनों को ऐसे मोह गया कि पलकें, कई पल को अपना स्वाभाविक गुण ही भूल गयीं.एकटक स्थिर हो गयीं उसपर जाकर.पर यह अवस्था अधिक देर तक न रह पाई.जैसे ही परिस्थिति का ध्यान आया, आँखें धार बहाने लगीं.उनके घर के निकट ही हमारा घर था, छोटी बहन को नानी को बता देने को कह मैं घर वापस चली आई...

नानी मामी जब वापस आयीं तो वर और वर के घर के गुण बखाने नहीं अघा रही थीं..कई पीढ़ियों से लक्ष्मी जी ने झा जी के घर में स्थायी निवास बना रखा था.पर सरस्वती जी की कृपा दृष्टि उन्हें अबतक न मिली थी.. झा जी ने अपने जीवन में बड़ा प्रयास किया पर दो पीढ़ियों में न तो कोई बाल बच्चा उच्च शिक्षा पा सका न ही चाहकर भी अबतक वे कोई इंजीनियर डाक्टर दामाद दरवाजे पर उतार पाए थे. परन्तु इस बार ईश्वर ने उनकी साध पूरी कर दी थी.. वर के घर केवल लक्ष्मी जी ही नहीं सरस्वती जी भी बसती थीं.वर बिजली विभाग में कनीय अभियंता थे...

उसबार जो ननिहाल से वापस आई तो फिर दो वर्ष बाद ही ममेरे भाई के विवाह के अवसर पर पुनः जाने का सुयोग बना ..प्रणाम पाती, कुशल क्षेम ,भोजन इत्यादि का उद्योग संपन्न हुआ ही था कि छोटी बहन पूछ बैठी...दीदी आपको मेरी वो सखी याद है ?? मिलेंगी उससे ??? मेरा ह्रदय उस स्मृति गंध से आलोड़ित हो गया.तीव्र उत्कंठित हो मैंने उससे आग्रह किया कि बाकी सब बाद में होता रहेगा,पहले तू मुझे उससे मिलवा दे.

यह एक अच्छी परंपरा थी उनमे, कि विवाह भले बाल्यावस्था में हो जाए पर द्विरागमन(गौना) कम से कम तीन, पांच या सात वर्ष बाद ही हुआ करता था.दामाद भले अपने ससुराल आता जाता रहता था,पर कन्या गौने के बाद ही अपने ससुराल जाती थी. अभी उसका गौना नहीं हुआ था इसलिए वह यहीं रह रही थी..लम्बे डग भरते हम उसके घर पहुँच गए.बड़ा परिवार था उनका , कई महिलायें आँगन में विराजित थीं. शिष्टाचार निभाते पैर छूने का अभियान चल पड़ा और इसी क्रम में बच्चे को गोद में लिए मैंने जिसके पैर छुए ,अनायास वहां हंसी की फुहार फूट पडी .. वह भी लपक कर पीछे हट गई. सिर उठाकर देखा तो प्रथम दृष्टया पहचान न पाई..

बहन ने झकझोरा...अरे दी, नहीं पहचाना आपने...इसी से तो मिलने दौड़ी हुई आयीं थीं आप. ध्यान से देखा, तो कलेजा दरक गया. वह जो छवि मन में बसी थी,उसकी क्षीण सी रेखा बची थी वहां. पूरा चेहरा बरौनियों से भरा हुआ. रंग उतरकर गेहूंआ भी नहीं बच गया था. लम्बी अवश्य हो गई थी पर लावण्यता रंचमात्र भी न बची थी उसमे.. कहीं अनजाने में यदि देखती तो किसी हालत में उसे नहीं पहचान पाती मैं..एक और धमाका हुआ...बताया गया कि यह गोद का बालक उसी का कोखजाया है..

किला केवल फतह ही नहीं हुआ था, अपितु उसे पूर्णतः ध्वस्त भी कर दिया गया था.....
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9.9.10

दानवीर राजा बलि !!!

राजा बलि विष्णु के अनन्य उपासक भक्तप्रवर प्रहलाद के पौत्र थे. थे तो राक्षस कुल के , परन्तु परम सात्विक तथा भगवान् विष्णु के परम भक्त थे. सदाचारी राजा सत्कार्य में लीन रह प्रजा का पुत्रवत पालन करते. इनकी दानशीलता जगद्विख्यात थी. इनके द्वार से कोई याचक रिक्तकर कभी न लौटा था. परन्तु कालांतर में इसी बात का राजा बलि को अभिमान हो गया. सर्वविदित है, भक्त का अभिमान प्रभु का भोजन हुआ करता है.तो जैसे भगवान् ने महर्षि नारद का मोह और अहंकार भंग किया था, वैसे ही अपने इस भक्त के चरित्रमार्जन को भी प्रस्तुत हो गए..

एक दिन जब राजा बलि पूजनोपरांत याचकों को दान देने हेतु द्वार से बाहर आये तो उन्होंने क्षत्र तथा कमण्डलु धारण किये बावन उंगली के बाल याचक को देखा. राजन ने सबसे पहले उन्ही से उनके अभीष्ट की जिज्ञासा की और वामन ने उनसे तीन पग भूमि दान में माँगा. राजन आश्चर्यचकित हो गए उन्हें याचक के बुद्धि विवेक पर अपार शंका हुई और उन्होंने सोचा कि हो सकता है याचक अपनी क्षमता से अनभिज्ञ है.अब यह छोटा बालक कितने भी प्रयास से भूमि पर डग भरेगा तो भी कितनी भूमि घेर पायेगा. अतः उसकी सहायतार्थ उन्होंने उनसे आग्रह किया कि इतनी तुच्छ वस्तु मांग वे उन्हें लज्जित न करें.वे चाहें तो कुछ गाँव अथवा राज्य ही मांग लें अन्यथा कुछ बहुमूल्य ऐसा मांगे जिसे देने में भी उन्हें प्रसन्नता हो.पर वामन भी थे कि अड़ गए कि उन्हें चाहिए तो तीन पग भूमि या नहीं तो कुछ नहीं.

हार कर राजन ने उनका प्रस्ताव स्वीकार लिया . पर वामन भी कम न थे..उन्होंने राजन से कहा कि ऐसे ही न लूँगा, पहले आप संकल्प कीजिये और वचन दीजिये कि बाद में आप न मुकरेंगे तभी मैं अपनी इच्छित लूँगा. मामला उलझा देख राजा बलि के गुरु शुक्राचार्य ने जब अपनी दिव्य दृष्टि से देखा तो याचक और उसकी उसकी मंशा सब उनके सम्मुख प्रकट हो गयी..उन्होंने राजा को समझाना प्रारंभ किया कि वे इस वामन की बातों में न आयें ,यह छलिया है उन्हें कहीं का न छोड़ेगा.परन्तु वचनबद्ध राजन कब पीछे हटने वाले थे.

राजन दानी और वामन यजमान बन कुश के आसन पर विराजे और वामन ने अपने कमण्डलु का जल संकल्प के लिए कुश पकडे राजन के कर में डालने का उपक्रम किया.इधर जब शुक्राचार्य ने बात बनती न देखी तो अपने योग बल से वे अतिशूक्ष्म रूप धर कर कमण्डलु की टोंटी में जाकर बैठ गए और जलधार को ही अवरुद्ध कर दिया. उन्हें भय हुआ कि राजन का सब कुछ दान में जब यह वामन ही ले लेगा तो मेरे लिए क्या बचेगा.अतः इस कार्य को बाधित करना अतिआवश्यक था..इधर जल धार अवरुद्ध देख वामन ने अपने कुषाशन से एक कुषा खींचकर टोंटी में डाल कर खरोंच दिया जिससे कि अवरोध दूर हो जाय. कुषा जाकर सीधे शुक्राचार्य की आँख में लगी और रुधिर प्रवाह होने लगा.छटपटाकर शुक्राचार्य जी बाहर निकले और एक आँख वाले काने बनकर रह गए. तभी से यह कहावत चल पड़ी कि दान में जो विघ्न डाले,नजर लगाये, वह काना हो जाता है..

संकल्प पूरा हुआ और राजन ने वामन से कहा कि अब इस सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड में जहाँ की भी भूमि लेना चाहें निःसंकोच ले लें.वामन, अबतक जो बावन उंगली के थे, ने अपना विराट रूप प्रकट किया और एक पग पाताल पर रख धरती होते हुए दूसरे पग से सारा आकाश नाप लिया और तीसरा पग धरने को राजन से स्थान माँगा. राजन सोच में पड़ गए,परन्तु त्वरित गति से उनकी पत्नी ने जो कि परम विदुषी ही नहीं विष्णुभक्त भी थी,ने स्थिति सम्हाली. उसने प्रभु का आशय समझ लिया और राजन को समझाया कि अभी तक तो आपने भौतिक भूमि दान किया है, पंचतत्वों से निर्मित आपका यह शरीर भी तो भूमि सामान ही है जो अभी बच ही रहा है,अब इसे प्रभु को अर्पित कर दें..राजन ने झट अपना शीश प्रभु के सम्मुख नत कर स्वयं को प्रभु को अर्पित कर दिया..

राजन परम भक्त थे ,परन्तु मोह ने उन्हें विभ्रम में डाल दिया था.वे जानते थे कि इस ब्रह्माण्ड के एकाधिकारी प्रभु ही हैं ,पर इस बात को वे व्यवहार और स्मरण में नहीं रख पाए थे.तभी तो वे किसी को भी कुछ यह सोचकर देते थे कि अपनी वस्तु वे दान कर रहे हैं.प्रभु पर उनकी श्रद्धा थी,पर उन्होंने अबतक स्वयं को पूर्ण रूपेण प्रभु को समर्पित नहीं किया था, तभी तो सहज ही अहंकार ने उन्हें ग्रस लिया था. और प्रभु उन्हें पूर्णतः दुर्गुणों से मुक्त कर पवित्र कर देना चाहते थे. प्रभु अपने सच्चे भक्तों की देख भाल ठीक ऐसे ही करते हैं जैसे एक वैद्य अपने रोगी की करता है.प्रभु ने भी अपने इस परम स्नेही भक्त के इस रोग से त्राण के लिए यह स्वांग रचा था.

राजन ने जब स्वयं को निश्छल भाव से प्रभु को समर्पित कर दिया तो भगवान् अति प्रसन्न हुए और उन्होंने राजा बलि से पुरुष्कार स्वरुप इच्छित वर मांगने को कहा. बलि अबतक समझ चुके थे कि प्रभु पर आस्था होते हुए भी चूँकि आजतक उन्होंने उन्हें अपने चित्त का प्रहरी न बनाया था तो सहज ही दुर्गुणों ने उनपर अपना आधिपत्य जमा लिया .तो जबतक इस चित्त के प्रहरी स्वयं विष्णु न होंगे माया से बचे रहना संभव नहीं है. सो उन्होंने प्रभु से आर्त प्रार्थना की कि अब से प्रभु सदैव उनके नयनों के सम्मुख रहें और किसी भी प्रकार के दुर्गुण दोष से उनकी रक्षा ठीक ऐसे ही करें जैसे एक स्वामिभक्त द्वारपाल सतत सजग रह द्वार पर डटे अपने राजा की करता है..

भगवान् तो ऐसे ही सत्पुरुष भक्त से बंध जाते हैं,तो यहाँ तो वे वचन से भी बंधे हुए थे. उन्होंने प्रसन्नता पूर्वक यह अधिभार लिया और पातालपुरी में राजा बलि के राज्य में आठों प्रहर राजा के सम्मुख सशरीर उपस्थित रह उनकी रक्षा करने लगे . इधर वैकुण्ठ से बाहर रहे जब बहुत दिन हो गए तो सभी देवी देवता समेत लक्ष्मी जी अत्यंत चिंतित हो गयीं...सब सोच में पड़े थे कि ऐसा कबतक चलेगा.जैसी स्थिति थी इसमें न भगवान् भक्त को छोड़ सकते थे और भक्त द्वारा स्वेच्छा से उन्हें मुक्त करने का तो प्रश्न ही नहीं उठता था..तब इस कठिन काल में नारद जी ने माता लक्ष्मी को एक युक्ति बताई. उन्होंने कहा कि एक रक्षा सूत्र लेकर वे राजा बलि के पास अपरिचित रूप में दीन हीन दुखियारी बनकर जाएँ और राजा बलि को भाई बनाकर दान में प्रभु को मांग लायें..

लक्ष्मी जी राजा बलि की दरबार में उपस्थित हुईं और उन्होंने उनसे आग्रह किया कि वे उन्हें भाई बनना चाहती हैं.राजन ने उनका प्रस्ताव सहर्ष स्वीकार कर लिया और उनसे रक्षासूत्र बंधवा लिया. रक्षासूत्र बंधवाने के उपरान्त राजन ने लक्ष्मी जी से आग्रह किया कि वे अपनी इच्छित कुछ भी उनसे मांग लें,जबतक वे कुछ उपहार न लेंगी,उन्हें संतोष न मिलेगा..लक्ष्मी जी इसी हेतु तो वहां आयीं थीं. उन्होंने राजन से कहा कि आप मुझे अपनी सबसे प्रिय वस्तु दे दें.. राजन घबडा गए. उन्होंने कहा मेरा सर्वाधिक प्रिय तो मेरा यह प्रहरी है,परन्तु इसे देने से पूर्व तो मैं प्राण त्यागना अधिक पसंद करूँगा.

तब लक्ष्मी जी ने अपना परिचय उन्हें दिया और बताया कि मैं आपके उसी प्रहरी की पत्नी हूँ,जिन्हें आपने इतने दिनों से अपने यहाँ टिका रखा है. अब तो राजा पेशोपेश में पड़ गए..बात हो गई थी कि जिन्हें उन्होंने बहन माना था, उसके सुख सौभाग्य और गृहस्थी की रक्षा करना भी उन्ही का दायित्व था और यदि बहन की देखते तो उन्हें अपने प्राणों से भी प्रिय अपने इष्ट का साथ छोड़ना पड़ता.. पर राजन भक्त संत और दानवीर यूँ ही तो न थे.. उन्होंने अपने स्वार्थ से बहुत ऊपर भगिनी के सुख को माना और प्रभु को मुक्त कर उनके साथ वैकुण्ठ वास की सहमति दे दी ..परन्तु इसके साथ ही उन्होंने लक्ष्मी जी से आग्रह किया कि जब बहन बहनोई उनके घर आ ही गए हैं तो कुछ मास और वहीँ ठहर जाएँ और उन्हें आतिथ्य का सुअवसर दें..

लक्ष्मी जी ने उनका आग्रह मान लिया और श्रावण पूर्णिमा (रक्षाबंधन) से कार्तिक मास की त्रयोदशी तिथि (धनतेरस ) तक विष्णु और लक्ष्मी जी वहीँ पाताल लोक में रजा बलि के यहाँ रहे . धनतेरस के बाद प्रभु जब लौटकर वैकुण्ठ को गए तो अगले दिन पूरे लोक में दीप पर्व मनाया गया. माना जाता है कि प्रत्येक वर्ष रक्षा बंधन से धनतेरस तक विष्णु लक्ष्मी संग राजा बलि के यहाँ रहते हैं और दीपोत्सव का अन्य कई कारणों संग एक कारण यह भी है..


आज भी जब किसी को रक्षा सूत्र बंधा जाता है तो यह मंत्र उच्चारित किया जाता है -

" ॐ एन बद्धो बलि राजा, दानवेन्द्रो महाबलः
तेन त्वा मनुबधनानि रक्षे माचल माचल
"

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