7.10.23

पितृ पक्ष

हेलोवीन महापर्व जो कि पश्चिम वाले कब्र में पड़े कयामत के दिन फैसले के बाद मुक्ति पाने की आस में व्याकुल विचलित अशरीरी आसपास उत्पात मचाते पूर्वजों को कम्पनी देने के लिए(साथ ही उनके जैसा बन उनके भय से मुक्त होने के प्रयास हित रचते हैं) धूमधाम से कोंहड़ा काटते मनाते हैं,,,वह पर्व उतनी ही श्रद्धा से उन्हीं के स्टाइल में शिक्षित प्रगतिशील भारतीय सेकुलड़ भी विगत कुछ वर्षों से बड़े हर्षोल्लास से मनाने लगे हैं,,,अपने उन सेकुलड़ बन्धुओं से मेरा निवेदन है कि 29 सेप्टेंबर से ही आरम्भ हुआ 15 दिनों का जो श्राद्धपक्ष अपने यहाँ चल रहा है, उसके विषय में पता कर अपने पूर्वजों को श्रद्धा सहित प्रणाम और हो सके तो दक्षिणमुखी होकर कम से कम एक लोटा जल अवश्य अर्पित कर दें।ध्यान रखें कि आपने पूर्वज कब्रों में नहीं पड़े हैं बल्कि अग्नि में भस्म होकर पुनः पंचतत्वों में विलीन हो गए हैं।अतः आप जब भी उन्हें मन से नमन करेंगे,जलादि अर्पित करेंगे,उन्हें वे अवश्य ग्रहण करेंगे। आधुनिक विज्ञान ने भी कहा है न कि डीएनए(अनुवांशिकी) एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी में जाती रहती है।हम बन्दर से आदमी नहीं बने हैं,,जैसा कि वैज्ञानिकों की स्थापना थी(और पता नहीं कैसे आज भी बन्दर बन्दरे बने बचे हुए हैं हजारों साल से इस इंतजार में कि उनका भी मनुष्य बनने का नम्बर आएगा),,लेकिन अपने मनुष्यता के लच्छन सहेजे नहीं रख पाए तो कुछ ही पीढ़ी में मनुष्य शरीर के साथ ही बन्दर अवश्य बन जायेंगे। और मनुष्यता यह कहती है कि सम्पूर्ण प्रकृति,पंचतत्व, हमारे पूर्वज जिनसे भी हमनें जीवन पाया है, हमारा गर्भनाल (गर्भ में सबसे पहले यही बनता है और सबसे कोमल यह अंश पूरे शरीर के अग्नि में भस्म होने के उपरांत भी नहीं जलता,बचा रह जाता है जिसे चुनकर गङ्गा जी में बाद में प्रवाहित किया जाता है) जिससे हम एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी से जुड़े होते हैं, अपने उन पूर्वजों का सम्मान करें। कहते हैं, पितृपक्ष के ये पन्द्रह दिन भगवान ने केवल पितरों के पूजनार्थ आरक्षित कर दिया है।इस समय पितृलोक से धरती तक मार्ग खुल जाता है जिससे पितर आकर अपनी अगली पीढ़ी से मिल सकें,उनके द्वारा श्रद्धा पाकर सन्तुष्ट और बली हो पाएँ। एक प्रश्न मन में आ सकता है कि जब शरीर नष्ट हो गया, आत्मा ने नवजीवन पा लिया, फिर पितर कहाँ और कैसे बच गए? तो इसका समाधान यह है कि इस सृष्टि में सबकुछ ऊर्जा(एनर्जी) है।सजीव निर्जीव क्रिया(मानसिक शारीरिक) सबकुछ,,,और ऊर्जा का क्षय नहीं होता।अभी यदि यह मैं सोच रही हूँ,लिख रही हूँ, तो यह मेरा नहीं।ये समस्त सूचनाएँ इसी ब्रह्माण्ड में असंख्यों द्वारा सोची कही गयी संरक्षित उर्जास्वरूप में अवस्थित है।मैं इसे व्यक्त कर दूँगी, यह पुनः ब्रह्माण्ड में ऐसे ही अवस्थित रहेगा और पुनः किसी के मस्तिष्क द्वारा रिसीव किया जाएगा,प्रकट किया जाएगा। तो व्यक्ति जब नष्ट होता है, उसका स्थूल शरीर अग्नि में भस्म होकर पुनः पंचतत्वों में विलीन हो जाता है,, शुद्ध आत्मा दूसरा शरीर प्राप्त करती है,किन्तु उसके द्वारा निष्पादित कर्म,उसकी स्मृतियाँ उर्जास्वरूप में इसी ब्रह्माण्ड में संरक्षित रहती हैं।इसलिए आवश्यक है कि हम उस रूप में अवस्थित अपने पूर्वजों के सम्मुख नतमस्तक हों। मैं भावुक हो जाती हूँ जब स्मरण में आता है कि किन झंझावातों दुःसह कष्टों को झेलकर हमारे वे पूर्वज सनातनी रह गए थे जिनके कारण आज हम सगर्व सनातनी हैं,,नहीं तो पूरे सँसार में कभी रहने वाला सनातन पन्थिकों के विध्वंसी नीति के सम्मुख नतमस्तक होकर उन पथों की ओर उन्मुख हुआ और आज सिमटा हुआ समूह अपना अस्तित्व बचाये रखने को संघर्षरत है,हर कोई उससे लील कर मिटा देना चाहता है क्योंकि यह धर्म मनुष्य को मदान्ध उद्दण्ड स्वार्थी भोगी असुर बनने की कोई संभावना नहीं देता। खैर, मैं बात कर रही थी पितृपक्ष पर अपने कर्तव्यों की। इसी सिलसिले में एक और विषय पर चर्चा करना अत्यन्त अपरिहार्य है। जैसे गङ्गा जी जब गोमुख से निकलती हैं, उनका रंग रूप उनके जल की पवित्रता और जब वे गंगासागर में सागर से मिलती हैं उनके जल की स्थिति,,एक सी नहीं होती(विश्वास कीजिये, गङ्गा सागर में उस जल का रूपरंग देख मैं वहाँ स्नान तो क्या उस जल के स्पर्श की भी हिम्मत नहीं जुटा पा रही थी,वह इस प्रकार प्रदूषित थी)... इसी प्रकार हमारे ऋषि महर्षियों पूर्वजों ने जो कर्मकाण्ड अनुष्ठान आयोजनों की स्थापनाएँ कीं, उसमें अनेक अशुद्धियाँ विकृतियाँ आडम्बर कालान्तर में समाहित हो गए,, किन्तु इसका यह अर्थ नहीं है कि उनका सम्पूर्ण त्याग कर दिया जाय।हमें विवेकपूर्वक चावल में पड़े कंकड़ों को चुनकर हटाना होगा और तब खीर बनानी होगी।कर्मकाण्डों के मूल में निहित सर्वोपयोगी कल्याणकारी भाव जब हम देखेंगे तो गर्व से भर उठेंगे कि कितने दूरदर्शी विद्वान और वैज्ञानिक थे इनकी स्थापना करने वाले। यदि हमें उन्हें नकारना त्यागना है,उन्हें अवैज्ञानिक मानना है तो अनुसंधान पूर्वक यह सिद्ध करें कि ये अयोग्य हैं,अन्यथा पूर्वजों पर आस्था रखते कर्मकाण्ड कुलरीति नीति निभाएँ।उर्जास्वरूप में हमारे कर्म अन्ततः हमें और जिनके निमित्त हम वह कर रहे हैं,सुख दायक कल्याणकारक होगा ही होगा,विश्वास करें। एक बात और- जिन परिजनों के साथ हमनें सम्पूर्ण जीवन जिया है, मृत्यु के उपरांत ऐसी हड़बड़ी क्यों कि सनातनी वैदिक पारम्परिक तरीके से नहीं बल्कि आर्यसमाजी 3 दिवसीय निपटान कर देना??कृपया ऐसा कदापि न करें।मृत्योपरांत 13 दिन तक जितने नेमधर्म कर्मकाण्ड सम्पादित होते हैं,वह जो केशदान होता है,नख कटवाए जाते हैं,घर कपड़े की सफाई होती है, भोजन का नियम, भोज का नियम होता है,,सबके पीछे वृहत्त वैज्ञानिक सामाजिक कल्याणकारी कारण है।आडम्बर मत कीजिये,किन्तु सात्त्विक ढंग से वे कर्मकाण्ड अवश्य निष्पादित कीजिये।वैसे भी कुलरीतियाँ लिखित रूप में नहीं होतीं,आप उन्हें व्यवहार में लाकर ही अगली पीढ़ी तक पहुँचा सकते हैं।हमारा आपका कर्तब्य है कि अगली पीढ़ियों तक संस्कृति पहुँचाएँ। रंजना सिंह

20.7.22

रूपांतरण

अपनी प्रचण्ड विध्वंसक अजेय विशाल सेना को तेजी से नष्ट होता देख क्षुब्ध महिसासुर ने भयानक महिष का रूप धारण कर देवी सेना को रौंदना आरम्भ किया।बड़े बड़े पर्वतों को अपने सिंहों पर उठाकर वह उनपर फेंकने लगा।अपने पूँछ के आघात से, थुथुन की मार से,खुरों के प्रहार से,उग्र निःश्वास वायु के वेग से वह द्रुतगति से देवी सेना को क्षति पहुँचाते देवी का वध करने उनके निकट पहुँच गया।समस्त संसार को सन्तप्त देख तब देवी ने प्रचण्ड क्रोध करते उस महिष को अपने पाश से बाँध लिया। स्वयं को बन्धा हुआ अक्षम असमर्थ पाकर उस महिष ने त्वरित वह रूप त्याग दिया..... इसके बाद से जबतक उस महासुर का वध नहीं हुआ,,कभी गज,कभी सिंह,कभी मनुष्य तो कभी पुनः महिष रूप में आ आकर वह भीषण संघर्ष और विध्वंस पसारता रहा। जैसे ही कोई भोगधर्मी बनता है,सात्त्विक गुणों (दया,करुणा,क्षमा,संवेदनशीलता,परोपकार आदि) से रिक्त होता चला जाता है और भोग में धँसता दानवत्व और पिशाचत्व को प्राप्त होता है भले शरीर से वह देव या मनुष्य ही क्यों न हो।फिर प्रत्येक सात्त्विक व्यक्ति वस्तु यम नियम साधन सिद्धांत से उसे अथाह घृणा होती जाती है और वह उन्हें नष्ट कर देने को प्रतिपल व्यग्र रहता है।यहाँ तक कि उसका जीवन ध्येय ही शुभ को नष्ट कर अशुभ स्थापित करना हो जाता है। दानव/पिशच कोई व्यक्ति नहीं,अपितु प्रवृत्ति है जो आदिकाल से ही सृष्टि में अवस्थित है।जिस त्रिगुणात्मक गुणों,सत रज तम से सृष्टि की रचना हुई,उसमें से स्रष्टा भी यह व्यवस्था न कर पाए कि केवल सत या सत रज रहे और तम न रहे।किन्तु हाँ, यह व्यवस्था उन्होंने अवश्य कर दी कि तीन लोक बना दिये जिसमें स्वर्ग में सतोगुणी अर्थात देवता वास करें,,जिनके हाथों सृष्टि संचालन की व्यवस्था रहे। मनुष्य लोक में ऋषि महर्षि रूप में सतोगुणी व रजो सतोगुणी मनुष्य रह सकें जो अपने सदाचरण और धार्मिक आध्यात्मिक गुणों प्रवृत्तियों द्वारा प्रकृति सृष्टि की सुव्यवस्था में योगदान करते यज्ञादि द्वारा देवताओं को भी शक्ति प्रदान करें। और तीसरे, रज तम या घनघोर तम धारण करने वाले असुरों दानवों को पाताल लोक का वास मिला जहाँ वे असीमित भोग में लिप्त रह सकते थे। तीनों लोकों की मर्यादा बाँध दी गयी कि कोई किसी अन्य लोक को अपने अधीन करने की कुचेष्टा नहीं करेगा।जिसने भी,जब कभी इस सीमा का,मर्यादा का अतिक्रमण किया, उसे दण्डित करते यह उदाहरण अवश्य स्थापित किया गया कि अगला कोई महत्वाकांक्षी अपने अहंकार में आकर ऐसी कुचेष्टा न करे।अन्यथा इसका परिणाम केवल उसे नहीं,उसके सम्पूर्ण समूह समाज को भोगना पड़ेगा। इन तीनों में से देवताओं और मनुष्यों ने कभी अपने प्रभुत्व प्रभाव को अनावश्यक रूप से विस्तृत कर अन्यों को पराजित प्रताड़ित व पराधीन करने का लोभ नहीं किया,किन्तु भोगधर्मी असुरों को सदा ही सबकुछ अपने अधीन करने, अन्य सभी के धार्मिक मान्यताओं आस्थाओं को मिटा देने,सबका अधिपति रहने का हठ रहा। आदिकाल से असुरों का उत्पात,उनके द्वारा अन्यों का विध्वंस और देवशक्तियों द्वारा समय समय पर उनका विध्वंस,उनकी शक्तियों को सीमित किया जाना,,,तब से अबतक अनवरत है और संभवतः सृष्टि के अन्त तक यह क्रम अबाधित ही रहेगा। पिछले कुछ हजार वर्षों का ही इतिहास देख लें,,,दुष्ट शक्तियों का विस्तार,उनके द्वारा विध्वंस, सात्त्विक शक्तियों का संगठित होकर उनका सामना करना और विध्वंसक शक्तियों का कमजोर पड़ने पर शिथिल होकर कुछ समय के लिए सिमट कर रहना.....कब यह क्रम टूटा है? कभी जिन्हें हम अलाने फलाने दैत्य,असुर,राक्षस नाम से जानते थे,उनके अत्याचार की लोमहर्षक कथाएँ पढ़ते सुनते सिहरते थे, आज वैसे ही अत्याचारी दैत्यों, उनके संगठन,उनके विध्वंसक धर्म और कर्म...एकदम से पूर्ववर्ती ढर्रे पर आज भी नहीं हैं क्या?बल्कि समय के साथ वे कुछ और उग्र व्यापक क्रूर हुए हैं। अलकायदा आइसिस अलाना फलाना ढिमकाना.... आप एक नाम मिटा भी दें, ठीक महिषासुर की तरह वह अगले ही पल दूसरे हिंसक रूप में प्रकट होकर पहले से भी अधिक व्यापक विध्वंस मचाएगा।संक्रमित सोच से ग्रसित एक समूह को मिटाकर आप विध्वंसक प्रवृत्ति को नहीं मिटा सकते।इसके लिए आपको रक्तबीज का संहार करना होगा।उस बीज को समाप्त करना होगा,जिससे ऐसे जहरीले फल की उतपत्ति होती है और वह भी दिन दूनी रात चौगुनी। शक्ति प्रहार द्वारा ही इनकी शक्ति को कुण्ठित किया जा सकता है।जबतक इन्हें अपने सम्पूर्ण नाश का भय हो,ये सिमटे रह सकते हैं। जब सात्त्विक लोग,जिनकी मानवीय धर्म में गहरी आस्था है धर्मस्थापना हेतु प्रतिबद्ध हो संगठित होते हैं,वही सामूहिक शक्ति "दुर्गा" कहलाती है और तभी वह प्रचण्ड प्रहार महिषासुरों,शुम्भ निशुम्भ रक्तबीजों से मानवता का रक्षण हो पाता है। ॐ

1.8.21

महाभारत की सती नारियाँ

गान्धारी, कुन्ती, द्रौपदी तीनों ही महान, पूज्य,ऐतिहासिक स्त्रियाँ जो श्राप और वरदान दोनों ही देने की क्षमता रखती थीं, महान कैसे बनीं और जीवन में विफल कहाँ हुईं,, स्मरण करने पर ध्यान में आता है कि जिस ओर इनका तप था,उसकी सिद्धि तो इन्हें मिली,किन्तु जो पक्ष इनके ध्यान/तप से छूटे रह गए वे निर्बल रहते इनके दुःख के कारण बने। गान्धारी- अपने चक्षुहीन पति के मनोभावों को समझने के लिए, जीवनभर का चक्षुहीनता स्वीकारना,दृष्टि का त्याग करना कोई साधारण बात नहीं थी, किन्तु इस कठोर पातिव्रत्य को देवी गान्धारी ने सहर्ष स्वीकारा।धृतराष्ट्र तथा कुरु वंश की आकांक्षा का मान रखते उन्होंने सौ प्रतापी पुत्रों का उपहार दिया और इस तप से ऐसी शक्ति पायी कि उनके कृष्ण को निरवंशी होने श्राप भी उतना ही प्रभावी रहा जितना अपने पुत्र दुर्योधन के शरीर को वज्र बनाने का वरदान। किन्तु अपरिमित शक्तिमती तपस्वी सक्षम यह माता अपने सौ पुत्रों को सन्मार्गी न बना पायी,, क्यों? क्योंकि सती गान्धारी ने अपने जीवन का धर्म "पति की चक्षुहीनता का अनुसरण" तथा "पति की सौ पुत्रों की कामना" तक ही सीमित समझ लिया था। चक्षुत्याग कर उत्तम पतिव्रता तो बना जा सकता है, किन्तु सफल माता बनना सम्भव नहीं।यदि गान्धारी जन्मजात चक्षुहीन होती तो बात और थी,किन्तु युवावस्था तक चक्षुओं की अभ्यस्त बुद्धि अनुभव के वे सूत्र नहीं पकड़ पाती जो जन्मान्ध पकड़ लेता है। एक पुत्र को सन्मार्ग पर चलाने के लिए तो माता को सौ नेत्र खोलकर रखने होते हैं, फिर सौ पुत्रों की भीड़....कम से कम दो खुली आँखें भी यदि प्रतिपल अंकुश को उपस्थित नहीं,,,तो क्या होगा? और फलतः वही हुआ।पत्नी रूप में विजयी गान्धारी माता रूप में जीते जी सौ पुत्रों के शव वाली माता बनी।कृष्ण को श्राप देने का जो अतिरिक्त पाप उन्होंने लिया,सो लिया ही,,जीवन के उत्तरार्द्ध में अन्तिम पलों तक अविराम उनकी सेवा में रत रहकर कुन्ती ने उनको कभी इस अपराधबोध से मुक्त नहीं होने दिया कि उनदोनों पतिपत्नी तथा उनके पुत्रों ने पाण्डवों, कुन्ती के साथ कितने अन्याय किये।सो पतिव्रता रूप में सिद्ध प्रसिद्ध पूज्य होते भी एक माता,महारानी और जेठानी रूप में गान्धारी विफल ही रहीं। कुन्ती- यह तो सबको ज्ञात है कि कुन्ती कुन्तिभोज की दत्तक पुत्री थी।सम्भवतः यही कारण हो कि कुन्ती में यदि सर्वाधिक उद्दात्त कोई भाव था तो वह वात्सल्य या कहें मातृत्व भाव ही था।अत्यन्त क्रोधी रूप में जगत्प्रसिद्ध ऋषि दुर्वासा की भी उन्होंने ऐसे मातृत्व भाव से सेवा की कि उन्होंने किशोरी कुन्ती को श्रेष्ठ सन्तान प्राप्ति हेतु मनोवांछित देवताओं के आवाहन और उनसे सन्तान प्राप्ति का सिद्ध मन्त्र प्रदान किया।उतावलेपन में उस मन्त्र का प्रयोग और कर्ण की प्राप्ति की कथा भी सबको ज्ञात ही है। तो पाण्डव की पत्नी बनने से पूर्व कुन्ती माता बन चुकी थीं।अर्थात उनके व्यक्तित्व में सर्वाधिक प्रबल भाव था,तो वह मातृत्व भाव ही था। इसी भाव के कारण पाण्डु द्वारा सन्तान देने में असमर्थ रहने के बाद भी कुन्ती के सन्तान सुख में कोई बाधा न आयी। तीन स्वयं के और दो माद्री के संतान की वास्तविक माता जीवनभर कुन्ती ही रहीं।माद्री भी मूल रूप से केवल पत्नी भाव में रही,तो पति के साथ ही उन्होंने अपना भी देह त्याग कर दिया।क्योंकि वे आश्वस्त थीं कि कुन्ती सभी पुत्रों को एक आँख से देखेंगी। और कुन्ती,,,, ज्येष्ठ पत्नी होते हुए भी उन्होंने पति के साथ स्वर्ग गमन नहीं किया,अपितु केवल माता बनकर दायित्व निर्वाह को रह गयीं और द्रौपदी से पाँचों भाइयों के विवाहोपरांत उन्हें अपनी पुत्रवधू को सौंपकर ही उनसे विलग हुईं। यह उनका तप था कि एक से बढ़कर एक विषम परिस्थितियाँ आयीं पर न ही उनकी पाँचों सन्तानों के धर्म का क्षय हुआ,न ही जीवन का।यहाँ तक कि उनके पुत्र और पुत्रवधु स्वेच्छा से चलकर स्वर्ग की ओर गए,उससे पूर्व तक यम उन्हें छूने नहीं आये। इसलिए माता रूप में यदि किसी को विजयी कहा जा सकता है तो वे देवी कुन्ती ही हैं। द्रौपदी- कहते हैं, देवी द्रौपदी का जन्म सामान्य रूप से नहीं अपितु यज्ञकुंड की धधकती अग्नि से हुआ था, इसी कारण उन्हें याज्ञसेनी भी कहा जाता है।हो सकता है यह किंवदन्ती हो।किन्तु इसे तो नकारा नहीं जा सकता कि द्रौपदी को जो जीवन मिला वह किसी धधकती अग्नि से कम नहीं था जिसमें जीवन भर, प्रतिपल वह जलती रही।किन्तु उनके तप की अग्नि में ही अंततः अधर्म जलकर भष्म हुआ। पाँच पति साथ होते भी उस सती नारी,एक चक्रवर्ती सम्राट की साम्राज्ञी ने सबसे असहनीय अपमान पाया।एक सामान्य ब्याहता स्त्री जो सुख पाती है,वह भी इस नारी को सम्पूर्ण रूप में प्राप्त न हुआ।विवाह पूर्व तक पाँचों पाण्डवों को एक सूत्र में बाँधकर रखने का जो उत्तरदायित्व कुन्ती ने निभाया, उससे बड़ा दायित्व द्रौपदी को पत्नी बनकर निभाना पड़ा।माता बनकर अपने सभी सन्तानों को समान रूप से स्नेह देना जितना ही सरल स्वाभाविक है,एकाधिक पुरुषों की पत्नी बनकर यह निभाना उतना ही दुष्कर।किन्तु याज्ञसेनी ने यह दुर्लभ चुनौती जीती। लाँछनाओं अपमान के साथ जैसे ही दाम्पत्य जीवन आरम्भ हुआ बँटवारे के नाम पर पतियों के साथ एक तरह से राज्यनिकाला मिला,जहाँ खांडवप्रस्थ में बंजर धरती से आरम्भ करके इन्द्रप्रस्थ स्थापना एवं राजसूय यज्ञ तक की कठिन यात्रा द्रौपदी ने सफलतापूर्वक समपन्न किया। सुख के दिन आरम्भ होते कि द्यूत सभा रच दी गयी जहाँ सम्पूर्ण निर्लज्जता से प्रदर्शित हुआ कि अधर्म का विस्तार कहाँ तक हो चुका है, प्रबुद्ध समर्थ लोगों तक की चेतना कैसे भ्रमित हो गयी है। और कुरुसभा में उस घनघोर अपमान के बाद उस राजरानी ने धरा को अधर्मियों से रहित कर धर्म का ज्ञान तथा स्थापना का जो संकल्प लिया, हजारों वर्षों के लिए स्त्रियाँ सबला निष्कंटक हुईं। देवांश पाँचों पाण्डव तो वस्तुतः कृष्ण और कृष्णा(द्रौपदी) के पंचास्त्र थे जिनके बल पर अधर्म नाश और धर्म स्थापना का महत कार्य होना था। विवाह से पूर्व से ही कृष्ण और द्रौपदी, इन दोनों को ज्ञात था कि सँसार में पसर चुके अधर्म के निस्तार क्रम में क्या क्या गतिविधियाँ होनी है,इस यज्ञाग्नि में उन्हें किस प्रकार अपने व्यक्तिगत सुखों और सगों की आहुतियाँ पग पग पर देनी है। और इन्होंने वह दिया,,तभी सृष्टि ने धर्मस्थापना का अपना ध्येय पाया। इन दोनों ने ही अपने आँखों के सामने अपने कुल का नाश देखा,पर अडिग अविचल स्थिर रहे। ॐ

19.6.21

बेटी का सुख

पुत्री जैसे जैसे किशोरावस्था को पार कर रही होती है, अभिभावकों के मन में उसके विवाह और सुखद भविष्य के स्वप्न स्पन्दित होने लगते हैं। युवावस्था के बढ़ते पड़ाव के साथ साथ यह चिंता और व्याकुलता में परिवर्तित होता चला जाता है।जबतक विवाह न हो जाय, सोते जागते इसके अतिरिक्त ध्यान में कुछ और आता ही नहीं। किन्तु कभी आपने विचार किया है कि जिस पुत्री के सुखद भविष्य के लिए आपने इतने स्वप्न देखे, इतने प्रयास किये,,,,पुत्री को शिक्षित किया,आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर बनने की योग्यता भी दे दी, अपने सामर्थ्य से कई गुना आगे बढ़कर उसके विवाह में व्यय किया...... आपने स्वयं ही उसका घर परिवार सुख शान्ति,, सब कुछ बिखेर दिया। कैसे??? वो ऐसे कि आपने अपनी पुत्री को शिक्षित तो किया,पर उसकी तैयारी ऐसी न करायी कि वह अपने ससुराल में सामंजस्य बिठा पाए।वह सबको अपना सके और अपने सेवा, अपनत्व, मृदुल स्वभाव और सदाचरण से लोगों को बाध्य कर दे कि लोग उसे अपनाए बिना न रह पाएँ।आपने उसे अधिकार और केवल अधिकार का भान रखना तो सिखा दिया, पर "कर्तब्य प्रथम" और यही सर्वोपरि,, यह न समझा सके। बेटी को विदा करने के साथ ही पग पग पर अपने हस्तक्षेप से ऐसी व्यवस्था कर दी कि पुत्री के लिए अपने माता पिता भाई बहन तो पहले से भी अधिक अपने हो गए, पर पति के माता पिता भाई बहन बोझ और त्यज्य होकर गए। बेचारे दामाद ने बड़ी कोशिश की कि वह अपने माता पिता भाई बहन को भी अपनी पत्नी और उसके मायके वालों के लिए स्वीकार्यता दिलवा पाए,परन्तु नित क्लेश के कारण उसके सम्मुख केवल दो ही मार्ग बचे,,या तो वह अपना दाम्पत्य जीवन बचाये या अपने अभिभावकों सहोदरों का साथ बचाये। अपने पुत्र/भाई को पिसते हुए देखकर, उसके घर को टूटने से बचाने के लिए अन्ततः लड़के के परिजन ही वृद्धावस्था में एकाकीपन स्वीकार कर पुत्र को स्वतन्त्र कर देते हैं।आजकल के शिक्षित और आर्थिक रूप से समर्थ समझदार अभिभावक पुत्र का विवाह करने के साथ ही उसकी गृहस्थी अलग बसा देते हैं(यदि एक ही शहर में रह रहे हों तो अन्यथा तो दो अलग अलग जगह रहने पर दोनों दोनों के लिए अतिथि बनकर रह जाते हैं।दुर्भाग्य प्रबल हुआ तो टोटल सम्बन्ध विच्छेद)। अब आइये,,अगली पीढ़ी पर।परिजनों से दूर रह रहे ऐसे एकल परिवार में जहाँ पुत्री ने कभी नहीं देखा कि माता दादा दादी, चाचा चाची,बुआ फूफा या चचेरे फुफेरे भाई बहन से कोई मतलब रख रहे, उनके लिए उसके मन में सम्मान या कोई स्थान है।ऐसे में जब वह ब्याहकर ससुराल जाएगी तो क्योंकर उस पराए घरवालों को अपनाएगी? और जब वह किसीको अपनाएगी नहीं तो भला किस प्रकार वह सबके मन में अपने लिए स्थान,अपने जीवन में सुख और शांति पाएगी? यदि बच्ची भोजन पकाना, घर की साफ सफाई आदि को अत्यन्त तुच्छ(नौकर वाले काम) समझती है,जबकि माता का यह प्राथमिक कर्तब्य है कि पुत्र हो या पुत्री,बचपन से ही उसकी तैयारी ऐसी कराएँ कि अपने शरीर, अपने वस्त्र,अपने स्थान को साफ सुथरा रखना,अपने लिए स्वच्छ सादा पौष्टिक भोजन पका सकने में वय के 19वें वर्ष तक पहुँचते पहुँचते वे दक्ष हो जाँय।ऐसे बच्चे जहाँ भी रहेंगे व्यवस्थित और सुखी रहेंगे।बच्चे में यदि एडॉप्टबिलिटी(व्यक्तियों परिस्थितियों को स्वीकारने और उनके साथ सामंजस्य स्थापित करने की क्षमता)नहीं,तो इसमें पूरा दोष माता पिता का है,निश्चित मानिए। आज की शिक्षा सुसंस्कृत करने के लिए नहीं,बस आर्थिक सक्षमता के लिए होती है(नून तेल जुटान विद्या)।इसलिए यह दायित्व माता पिता और परिवार का होता है कि बच्चे को जीवन के लिए तैयार करें।जब आप संयुक्त परिवार में रहते हैं,निश्चित रूप से परिवार के सभी सदस्य भिन्न सोच विचार के होंगे और बहुधा उनको हैण्डिल करना,शांति सौहार्द्र बनाये रखना,एक बड़ी चुनौती होती है।किन्तु यदि आप और आपके बच्चे बचपन से ही सबको मैनेज करने में सफल होते हैं,,तो निश्चित मानिए कि वे अपने कार्मिक जीवन में भी अवश्य सफल होंगे। नौकरी में हों या व्यवसाय में साथ वाले सभी प्रतिस्पर्धी ही होते हैं,प्रत्येक परिस्थिति एक चुनौती ही होती है। आज से 20-25 वर्ष पूर्व तक किशोरवय की अन्तिम सीढ़ी तक पहुँचते पहुँचते लड़कियों का ब्याह हो जाता था।ऐसी लड़कियों के लिए नए घर की रीत,खानपान, सदस्यों के अनुरूप ढ़लने का सामर्थ्य वर्तमान की तुलना में बहुत अधिक होता था।आज 28 से 35 तक की लड़कियाँ अपने हिसाब से जीने की अभ्यस्त हो चुकी होती हैं।उनमें एडॉप्टबिलिटी इतनी कम हो चुकी होती है कि यदि बचपन से ही मानसिक तैयारी कराकर न रखी जाय तो विवाहोपरांत उसका जीवन तो दुरूह होता ही है,जहाँ वह जाती है,उनके सुख चैन भी कपूर के धुएँ के समान कुछ ही दिनों में उड़ जाते हैं। बढ़ते हुए विवाह विच्छेद की घटनाएँ,, युवाओं में लीव-इन की स्वीकार्यता, हमारे सामाजिक भविष्य को उस ओर लिए जा रहे हैं,जहाँ व्यक्ति के पास भौतिक सुख साधन का अम्बार होते हुए भी व्यकि दुःख अवसाद में घिरा,टूट हारा एकाकी होगा।क्योंकि वास्तविक "सुख और शान्ति" तो व्यक्ति के जीवन में तभी आ सकता है जब उसके पास परिजनों का स्नेह हो,परिवार में एक दूसरे के लिए आदर आत्मीयता हो,सुख दुःख में कभी वह स्वयं को अकेला नहीं पाये और भौतिक समृद्धि को ही जीवन ध्येय व सुख न माने। ॐ

10.9.20

ममत्व के निहितार्थ- जिउतिया पर

 असंख्यों नरबलियों के उपरान्त जब महाभारत का युद्ध सम्पन्न हुआ तो कलपती बिलखती स्त्रियों के बीच कुछ ही ऐसी स्त्रियाँ बची थीं, जिनके पति या सन्तान में से कोई बचे थे।इन्हीं में से एक द्रौपदी भी थीं,दैव कृपा से जिनके पति और पाँचों पुत्र बच गए थे।किन्तु यह सन्तोष शीघ्र ही धराशायी हो गया जब अश्वत्थामा ने छल से द्रौपदी पुत्रों को पाण्डव समझकर सोते में मार दिया।

अपना वंश, राज्य का उत्तराधिकारी खोकर समस्त प्रजा ही नहीं द्रौपदी भी सन्ताप से विक्षिप्त सी हो गयी।किसी में भी जीवित रहने की कामना नहीं बची थी।तब ऋषि समाज ने आकर विलाप करती स्त्रियों के उस समूह को आकर टूटने से बचाने का संकल्प लिया।ज्ञान चर्चा से जब उनका मन कुछ सम्हला तो द्रौपदी ने विह्वल कातर भाव से ऋषियों से प्रश्न किया कि यह असह्य दुःख उन्हें ही क्यों सहना पड़ा और आगे भी क्या माताओं को अपने जीवनकाल में ही अपनी संतानों की मृत्यु और वैधव्य का नर्क इसी तरह भोगते रहना होगा?

ऋषिकुल ने तब उन्हें समझाते हुए वे कथाएँ कहीं,जिनमें से कुछ का उल्लेख आज भी जीवित्पुत्रिका व्रत पुस्तिका में उल्लिखित है।
ऋषियों ने उन्हें बताया कि केवल वे ही नहीं हैं जिन्हें सन्तान का यह वियोग सहना पड़ा है, जो स्वयं जगतजननी हैं,उन्हें भी सन्तान पाने और उन्हें दीर्घायु रखने के लिए न केवल असह्य कष्ट भोगने पड़े,तप करना पड़ा,अपितु अनेक यत्न भी करने पड़े हैं।
माँ आदिशक्ति के नौ रूपों में जो पाँचवा रूप- "स्कंदमाता"(स्कन्द-कार्तिकेय) का है, उसे पाने की पूरी कथा ही एक असाधारण तप और त्याग की कथा है।

रति के श्राप से देवी पार्वती कभी स्वाभाविक रूप से गर्भ धारण नहीं कर सकती थीं।इसके लिए उन्होंने गहन तप कर वह स्थितियाँ बनायीं जिससे अपने शरीर से बाहर ही वे भ्रूण का सृजन और पोषण कर सकें।किन्तु ऐन अवसर पर जब वह गर्भ पूर्ण और परिपक्व होने को था, तारकासुर उसे नष्ट करने पहुँच गया और उसकी रक्षा क्रम में अग्निदेव और माता गङ्गा के अथक प्रयास के उपरांत भी वह अक्षुण्ण न रह सका।गिरकर उसके छः खण्ड हो गए जो कृतिकाओं को प्राप्त हुए।
कल्पना कीजिये कि अपने सन्तान को प्राप्त करने की उस अन्तिम बेला में जब ममत्व पिघलकर दूध बनकर स्तनों में उतर आता है, उस घड़ी यदि उस माँ से उसका संतान छिन जाए, तो उसकी क्या मनोदशा होगी।
अपहृत सन्तान को ढूँढती हुई जब माता पार्वती कृतिकाओं के पास पहुँचीं तो कहते हैं छः भाग में बंटे हुए बालकों को पकड़कर इतनी जोर से अपने वक्ष में समेटा कि वे पुनः छः से एक हो गए।किन्तु तबतक कृतिकाओं का ममत्व भी उस बालक से ऐसे बन्ध गया था कि उससे विछोह की स्थिति में वे प्राणोत्सर्ग को तत्पर हो उठीं। 
और तब महादेव ने मध्यस्तता कर माता को इसके लिए प्रस्तुत कर दिया कि बारह वर्ष तक वह बालक कृतिकाओं की ममता को पोषण देता कृतिकालोक में ही वास करेगा और उसके उपरान्त स्वेच्छा से कृतिकाएँ बालक को माता पार्वती को सौंप देंगी।

स्त्री तो छोड़िए, किसी भी नवप्रसूता जीव जन्तु के पास उसके शिशु को स्पर्श करने का प्रयास करके देखिए,अपना सम्पूर्ण बल लगाकर वह आक्रमण को प्रस्तुत हो जाएगी, फिर स्वेच्छा से उस संतान का दूसरे को दान...
वस्तुतः यह तभी सम्भव है, जब ममत्व की परिसीमा इतनी विस्तृत हो, जिसमें व्यक्ति स्वयं को खो दे और सबको उसमें समेट ले।ममत्व के इस स्वरूप की प्रतिस्थापना हेतु ही इन पूरे घटनाक्रम की सर्जना हुई।ममता केवल अपने जाए सन्तान में ही सिमटकर रह जाए, तो यह ममत्व का सबसे संकुचित और छिछला रूप है।

आगे इसी क्रम में ऋषि इस ममत्व की भावना का उद्दात्त रूप और मानव मात्र में इसकी उपस्थिति दिखाने के लिए एक और घटना का उल्लेख करते हैं जब सतयुग में नागवंश और गरुड़वंश में नित्यप्रति के संघर्ष के उपरांत एक व्यवस्था बनी थी कि गरुड़ यदि नागों का अनियंत्रित आखेट न करे तो स्वतः उसके आहार हेतु एक नाग प्रतिदिन उसके सम्मुख उपस्थित हो जाया करेगा।व्यवस्था से अनियंत्रित संहार तो रुक गया, किन्तु नागलोक का प्रतिदिन का किसी न किसी के घर का करुण क्रन्दन निर्बाध चलता ही रह।
एक दिन संयोगवश राजा जीमूतवाहन जो नागों की उन बस्ती से गुजरते अपने ससुराल जा रहे थे,उन्होंने एक नागमाता का विह्वल क्रन्दन सुना जिनका पुत्र शंखचूड़ आज गरुड़ का ग्रास बनने वाला था।
कहा जाता है कि एक प्रसूता ही दूसरे स्त्री के मन की ममता जान सकती है, किन्तु यह मिथ्या भ्रम है।ममत्व का लिंग से कोई लेनादेना नहीं।यह भाव तो किसी में भी हो सकती है और नहीं तो नवप्रसूता में भी नहीं।
राजा जीमूतवाहन ने उस माँ की विह्वलता को उससे भी अधिक तीव्रता से अनुभूत किया और उस आखेट के स्थान पर स्वयं को गरुड़ के सम्मुख आहार रूप में उपस्थित कर दिया।
इधर गरुड़ ने जब देखा कि मृत्यु के भय और घायल होने की पीड़ा से व्याकुल होकर जहाँ बाकी सारे भागते फिरते थे, यह मनुष्य न केवल निश्छल होकर अडिग खड़ा है अपितु पूर्ण प्रयास में है कि मुझे कहीं भोजन क्रम में किसी तरह का व्यवधान न हो।गरुड़ का अहम इस विराट करुणा के आगे बहकर नष्ट हो गया और उसने दिव्य औषधियों द्वारा राजा को जीवनदान देते पूर्णतः स्वस्थ कर दिया।और जगत में ऐसे स्थापित हुआ कि करुणा,ममता से महान कोई भावना नहीं है।

आगे इस कथा में एक कथा चिल्हो सियारो की भी है कि अपने व्रत,अर्थात धर्म में अडिग रहने पर उसका फल संतान को अवश्य प्राप्त होता है और यदि उसका पालन न किया गया तो यदि सन्तान हो भी तो उसमें उत्तम संस्कार नहीं जाएँगे और उसका होना न होना बराबर ही होगा।अतः महत्वपूर्ण केवल संतान को जन्म देना ही नहीं अपितु उसे राजा जीमूतवाहन की भाँति सुसंस्कारी बनाना भी माता का ही कर्तब्य है।जीमूतवाहन जैसी उदार सोच पहले यदि माताएँ स्वयं में धारण करें,तो उत्तम संस्कारी सन्तान शरीर से जीवित रहें न रहें, उनके नाम और अस्तित्व तो अमर रहेंगे ही,जैसे किशोरावस्था भी पार न कर पाए अभिमन्यु का रहा।

जिउतिया पर भाई गिरिजेश राव की 2009 में लिखी यह पोस्ट पढ़िए।मैं तो हर वर्ष व्रत पुस्तिका के इतर इसे अवश्य पढ़ती हूँ।

https://girijeshrao.blogspot.com/2011/09/blog-post_20.html?m=1

17.7.20

धर्म की जय कैसे हो

उन्हें तो छोड़ ही दीजिये जिन्हें वामी प्रभाव में आकर सनातन उपहास करते प्रगतिशील बनना है,सनातन को हेय सिद्ध करना है,,,
उन आस्थावान हिन्दुओं ने भी धर्म को कम हानि नहीं पहुँचाई है जिन्होंने कर्मकाण्डों में से मूल और बाद में जुड़े आडम्बरों में भेद करना नहीं सीखा,प्रतीकों अभ्यासों के वैज्ञानिक मर्म को नहीं समझा जाना और पौराणिक पात्रों के महान चरित्रों को अपने जीवन आचरण में उतारने के स्थान पर उन्हें ऊँचे चबूतरे पर बैठाकर केवल फल पुष्प धूप बत्ती का अधिकारी बना कर मूर्तियों में सीमित कर दिया।अपने आराध्य के जीवन संघर्षों को सामान्य न रहने देकर उनके साथ इतने अस्वाभाविक अलौकिक चमत्कार जोड़ दिए कि भक्तों का ध्यान उनके संघर्ष और सफलतापूर्वक उनपर विजय पर नहीं अपितु चमत्कारों पर केन्द्रित होकर सिमट गया और दुःख में उनके आचरण से प्रेरित होकर धैर्य और सामर्थ्य की आकांक्षा रखने/माँगने के स्थान पर व्यक्ति और अधिक निर्बल कातर होकर उनसे मुक्ति की प्रार्थना करने लगा।चमत्कार कर पल में ईश्वर वह दुःख हर लें, अपार सुख साधन दे दें,इसके आग्रह में धूप दीप नैवेद्य लेकर मूर्तियों के सम्मुख डट गया।
तुलसीदास जी तक ने जब भी प्रभु श्रीराम को वन में पत्नी वियोग में रोते हुए दिखाया उसे सहज स्वाभाविक न रहने देकर "लीला" कह दिया।
राम या कृष्ण ने अपने सम्पूर्ण जीवन काल में जो संघर्ष किये और यह स्थापित किया कि संघर्षों को सुअवसर कैसे बनाया जाता है,वे कौन से गुण हैं जिन्हें साधकर व्यक्ति अनन्त काल तक के लिए विजयी,अमर और पूज्य हो सकता है,,इतने सुस्पष्टता से उन्होंने रूपरेखा सी खींच दी कि यदि मनुष्य जीवन के प्रत्येक परिस्थिति में उनका स्मरण रखे और स्वयं के भीतर भी उन गुणों का विकास करे, तो जीवन में दुःख कातरता हताशा का रंचमात्र भी स्थान बचेगा क्या? या फिर धन पद सत्ता साधन आदि पाकर जो मद में बौराये फिरते हैं और धार्मिक स्थलों, कार्यों में बड़े बड़े दान देकर यह मान लेते हैं कि अपने हिस्से का पुण्य कार्य उन्होंने निबटा लिया अब अपने सांसारिक सामर्थ्य का उपयोग कर अपने लाभ हेतु वे किसी का भी कुछ बिगाड़ सकते हैं,,ऐसी अवस्था बनेगी क्या?

कई ऐसे लोग जिनका दिनभर का अधिकांश समय पूजा पाठ में बीतता है किन्तु मन से अशान्त,सांसारिक मोह माया और दुःख से ग्रसित हताश निराश हैं, जब उनसे उनके आराध्यों के जीवन चरित सुनाकर उनसे प्रेरित होने की बात की है, वे कह उठते हैं,वे तो भगवान थे,यह सब उनकी लीलाएँ थीं।अर्थात वे मन से नहीं मानते कि वास्तव में उनके संघर्ष वास्तविक थे, मानवीय संवेदनाओं और सुख दुःख की अनुभूतियाँ उनकी भी वैसी ही थीं,जैसी हमारी है।
अतिमानवीयकरण का ही यह दुष्प्रभाव है कि हमने अपने आराध्यों को अपने जीवन से काट दिया है, उन्हें मूर्तियों और पूजाघरों में सीमित कर दिया है।

जिस कर्म और कर्मफल से हमारे आराध्यों ने स्वयं को मुक्त नहीं रखा,उस कर्मफल के चुटकी में नाश को हम ईश्वर के सम्मुख बैठ कर याचनारत रहते हैं,यह नहीं सोचते कि हमारे हिस्से का वह फल जो कदापि लुप्त नहीं हो सकता,भोगेगा कौन?क्योंकि कर्मफल तो नष्ट हो नहीं सकता।वह तो समय के कपाल पर अमिट हो अंकित हो जाता है।संसार में फैले अधर्म को समेटने और धर्म स्थापना क्रम में कृष्ण ने महान संहार रचा, महान शक्तिशाली एक पूरे वंश का तो समूल संहार हो गया।सही गलत को अलग कर दें,इसे केवल एक कर्म मानकर चलें।तो इस कर्म का फल श्रीकृष्ण ने गांधारी के यदुवंश के सम्पूर्ण नाश के श्राप रूप में सादर स्वीकार किया।उन्होंने तो जगत का उद्धार किया था।इतना बड़ा पुण्यकर्म। किन्तु इस क्रम में जो कर्म हुआ, उसके फल से उन्होंने स्वयं को मुक्त न रखा।
राम कृष्ण दुर्गा काली शंकर हनुमान, जिन्हें भी हम पूजते हैं या तपस्या कर वरदान में पाए असमनान्य सामर्थ्यवान वे अत्याचारी असुर राक्षस जिनसे घृणा करते हैं, किसी का भी जीवन उठाकर देख लीजिए जो उन्होंने एक ही सत्य स्थापित न किया हो कि कर्मफल अकाट्य है।
अतः दम्भी अत्याचारियों के कर्मों से सीख लेते और अपने आराध्यों के चरितों से प्रेरणा ऊर्जा लेते हुए यदि हम प्राप्त जीवनावधि को ईश्वर प्रदत्त सामर्थ्य सीमाओं में सुखी सफल और सार्थक करने को सचेष्ट हों, तभी उन अवतारों महानायकों का अवतरण और उद्देश्य परिपूर्ण होगा, हमारा समाज स्वस्थ धर्मपरायण और सुखी होगा और सनातन की जय होगी।

ॐ...

26.4.20

सीता का परित्याग या सीता का त्याग

सीता परित्याग या सीता का त्याग
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वल्कल वस्त्र धारण कर जब राम लक्ष्मण और सीता वन को चले और केवट की नाँव चढ़ गङ्गा पार उतरे, तो संभवतः पहली बार राम का मन कचोटा कि केवट ने नदी तो पार करा दी,पर उसे उतराई देने भर भी उनमें सामर्थ्य नहीं। जिस राजपुत्र के हाथ आजतक केवल देने के लिए ही उठे हों,वह सेवा का न्यायोचित दाम भी न चुका पाए, उसके मन की दशा वही स्वाभिमानी मनुष्य जान सकता है, जिसने मातृ पितृ और गुरु के स्वाभाविक कर्तव्य तक को स्वाभाविक नहीं,अपितु ऋण की तरह ही लिया हो,जिसका सतांश चुकाने में वह अपना जीवन लगा दे।

और राम की उस मनोदशा को भाँपकर पतिव्रता सीता ने अगले ही क्षण अपने जीवन की वह अनमोल निधि,जिसे अयोध्या से निकलते समय समस्त राजसी वस्त्राभूषण त्यागने के क्रम में भी वह न त्याग पायीं थीं- पति श्रीराम द्वारा दी गयी कोहबर के रात की वह प्रथम भेंट "स्वर्णमुद्रिका", एक ही क्षण में उतारकर पति के हाथों रख दिया,ताकि वे पारिश्रमिक रूप में वह मुद्रिका देकर सँकोच से उबर सकें।ऐसी थी उस दम्पति की एक दूसरे के मन में पैठ और एक दूसरे के सुख सम्मान हेतु सर्वस्व न्योछावर कर देने की प्रतिबद्धता।

राम और सीता सा प्रेमी इस सँसार में और कौन होगा?राम ने सीता के लिए नङ्गे पाँव समुद्र लाँघकर रावण जैसे सामर्थ्यवान से भी टकरा जाने में सँकोच न किया तो सीता ने पति का साथ देने को न केवल राजभोग छोड़ा अपितु राम को अपनाते उनके सभी सम्बन्धों,परिस्थितियों को ऐसे अंगीकार किया कि वह सबकुछ उन दोनों का हो गया।
नहीं तो सोचिये कोई भी स्त्री अपनी उस सास को कभी सम्मान दे सकती है जिसके कारण उसका पति वन वन भटक रहा हो,सत्ताच्युत हो चुका हो। लेकिन सीता ने वन में भरत के साथ आये परिवार को सम्मुख पाते ही सबसे पहले जाकर पूरी श्रद्धा से न केवल माता कैकयी की वन्दना की,अपितु पूरे प्रवास में सबसे अधिक सेवा उनकी ही की।राम को कभी भी कुछ भी बोलना बताना नहीं पड़ा सीता को कि उनके कौन कितने प्रिय हैं और उनका सम्मान स्थान सीताजी को कैसे देना है।
वस्तुतः राम के मन में सीता और सीता के मन में राम कितने बसे हैं,यह सँसार में कोई जान ही नहीं सकता,क्योंकि किसी भी प्रेमी/दम्पति का प्रेम उस स्तर तक नहीं पहुँचा है कि उस उत्कर्ष और उस असीमता को थाह सके।

जब भी मेरे सम्मुख यह तथ्य इस प्रकार आता है कि "राजाराम ने अपनी प्राणप्रिया जीवनाधार परमसती सीता का परित्याग कर दिया,,,और वह भी तब जब वह गर्भवती थीं और उन्हें पति का सानिध्य सर्वाधिक चाहिए था"
इसको ऐसे ही कभी भी नहीं स्वीकार पाती मैं। चाहे कोई लाख पौराणिक साक्ष्य दे दे, चाहे महर्षि वाल्मीकि या तुलसीदासजी में अगाध श्रद्धा हो मेरी।

मेरी चेतना कहती है, कहीं कोई कड़ी, कोई बिन्दु छूटी हुई है इस पूरे प्रसंग में, जिसे वे महर्षि भी या तो जान न पाए या अनजाने में सामने रखना भूल गए।क्योंकि किसी भी व्यक्ति के जीवन का कोई एक टुकड़ा अन्य सभी टुकड़ों से कटा हुआ, असंगत या तो तब हो सकता है जबकि वह व्यक्ति कुछ समय के लिए विवेकहीन विक्षिप्त हो चुका हो, या कैकयी के समान ही उक्त कालखण्ड विशेष में वह मन्थरा जैसी बुद्धिवाला हो चुका हो।अन्यथा अपने स्वाभाविक आचरण के सर्वथा विपरीत कुछ कैसे कर सकता है?

जिस राम ने गौ, ब्राह्मण (सत्यनिष्ठ,धर्मपरायण मनुष्य) और स्त्री के उद्धार, उनके सम्मान और स्वतंत्रता हेतु ही अवतार लिया, धर्म मर्यादा स्थापित कर "मर्यादापुरुषोत्तम" बने, वे लोकोपवाद के कारण अपनी प्राणप्रिया का परित्याग कर अपनी राजगद्दी बचायेंगे?
क्या मर्यादापुरुषोत्तम यह नहीं जानते थे कि एक व्यक्ति ही पुत्र,पति,पिता और राजा सबकुछ एकसाथ ही है।किसी एक को ऊपर उठाकर दूसरे को गिराने से भी वस्तुतः पतन उस व्यक्ति का ही होता है।व्यक्ति स्वयं के लिए, परिवार समाज और देश के लिए कैसा हो, यही आदर्श स्थापना तो राम का जीवन ध्येय था, फिर वे इस क्रम में एक राजा को व्यक्तिगत जीवन में अधार्मिक होने देते क्या?

असल में होता यह है कि जब भी कोई कवि लेखक अपने नायक के चरित्र को उत्कृष्टता दे रहा होता है, उसपर यह मानसिक दवाब,,या कहें लगभग सनक सी होती है कि अपने नायक को वह उस स्थान पर बैठा दे जो अतुल्य हो,जहाँ तक किसी की भी पहुँच न हो,, तो ऐसे में कभी कभी अनजाने ही वह अन्य पात्र/पात्रों के साथ अन्याय कर जाता है।

अब देखिए न, हमारे मन में कोई विचार आया,हमें लगा उसे लिपिबद्ध करना चाहिए और हम उसे लिखने बैठते हैं।लिख चुकने के बाद उसे स्वयं पढ़कर देखिए,क्या हम हूबहू वही लिख पाए जैसे वे मन में घुमड़े थे?अब आगे उसको किसी और को पढ़ाइये,,क्या उसने उसको वैसा ही ग्रहण किया,जैसे आपने लिखा था?? उस पाठक से कहिये कि पढ़े हुए को लिख दे।अब उसके लिखे को पढ़कर देखिए।आपके मानस में घुमड़े वे विचार और अगले दो लोगों के पास से घूमफिर कर आये उस अंश में जो अन्तर होगा,,कई बार तो यह अन्तर दिन और रात की तरह हुआ मिलेगा आपको।
फिर श्रुति स्मृति परंपरा में चली आ रही कोई गाथा जो विधर्मियों के आक्रमणों, समय के झंझावातों को सहती हजारों वर्षों बाद लिपिबद्ध हुई, क्या वह बिल्कुल वही रहेगी जैसी मूल रूप में थी? 

चलिए मान लिया कि गर्भवती सीता राजभवन छोड़ जँगलों में रहीं और लवकुश का जन्म भी वहीं हुआ।राजसूय यज्ञ के अश्वों को पकड़ने के बाद लवकुश ने लक्ष्मण हनुमान आदि सभी महावीरों को बन्दी बनाया। लवकुश के विषय में ज्ञात होने पर अयोध्या की प्रजा जब रामसाहित लवकुश तथा सीता को लौटा लाने का अनुनय करने मुनि आश्रम पहुँचे तो सीता ने लवकुश को तो उनको सौंप दिया पर स्वयं धरती के गर्भ में समा गयीं,उनके साथ वापस अयोध्या लौटकर नहीं गयीं।सबकुछ ऐसे ही हुआ।

परन्तु मेरा चित्त तो इस प्रसंग में इसी स्थापना में रमता है कि राजा राम और रानी सीता, कोई अलग अलग व्यक्ति नहीं थे,दो देह एक प्राण थे।राम ने सीता परित्याग नहीं किया था,अपितु सीता ने महान त्याग किया।स्वेच्छा से उन्होंने वनगमन चुना। सीता का वन में निवास राम से अधिक सीता का निर्णय था,क्योंकि अपने पति पर कोई प्रवाद सीता जैसी सती कभी नहीं सह सकती थी।फिर यहाँ तो प्रश्न उसके अपने राज्य व्यवस्था(जिसमें अव्यवस्था, स्वेच्छाचार न फैल जाय)का था।सीता स्वयं भी तो परंपराओं के उतने ही अधीन थी।इसके साथ ही सती का अपना एक स्वाभिमान भी था,जिसकी भी उन्हें रक्षा करनी थी।अपने भावी संतान को भी उन्हें वह परिवेश और लालन पालन देना था जो सर्वथा निष्कलुष हो,स्वस्थ हो।
राजाराम ने जगत को यह बताया कि एक राजा रूप में कोई प्रजापालक व्यक्तिगत/पारिवारिक सुखों को कैसे त्याग सकता है,,तो सीता ने भी अपनी पुत्रवत प्रजा को धरती में समाते हुए कठोर सीख/दण्ड दिया कि माता/स्त्री पर अविश्वास करने,उसके आत्मसम्मान को ठेस पहुँचाने पर व्यक्ति और समाज को कैसी क्षति उठानी पड़ती है।सीता के प्राणोत्सर्ग के बाद जीवन के अन्तिम स्वास तक उस पीढ़ी के लोग और बाद की भी कई पीढ़ियाँ आत्मग्लानि के किस अग्नि में जलते रहे होंगे,तनिक कल्पना कीजिये।राम ने दाम्पत्य सुख का त्याग कर जो आदर्श उपस्थित किया, अपने पति, गृहस्थी और जीवन का भी परित्याग कर उस राजरानी, पुरुषोत्तम की अर्धांगिनी ने पूरे समाज के संस्कारों को कैसे सुगठित किया, तनिक विचार कीजिये इसका।
और इसके पश्चात आप कभी न कह पाएँगे कि राम ने सीता का परित्याग किया,,आपके मन से स्वतः ही निकलेगा राम और सीता ने कैसा महान त्याग किया।

!! जय जय सियाराम !!

Ranjana Singh