20.7.22

रूपांतरण

अपनी प्रचण्ड विध्वंसक अजेय विशाल सेना को तेजी से नष्ट होता देख क्षुब्ध महिसासुर ने भयानक महिष का रूप धारण कर देवी सेना को रौंदना आरम्भ किया।बड़े बड़े पर्वतों को अपने सिंहों पर उठाकर वह उनपर फेंकने लगा।अपने पूँछ के आघात से, थुथुन की मार से,खुरों के प्रहार से,उग्र निःश्वास वायु के वेग से वह द्रुतगति से देवी सेना को क्षति पहुँचाते देवी का वध करने उनके निकट पहुँच गया।समस्त संसार को सन्तप्त देख तब देवी ने प्रचण्ड क्रोध करते उस महिष को अपने पाश से बाँध लिया। स्वयं को बन्धा हुआ अक्षम असमर्थ पाकर उस महिष ने त्वरित वह रूप त्याग दिया..... इसके बाद से जबतक उस महासुर का वध नहीं हुआ,,कभी गज,कभी सिंह,कभी मनुष्य तो कभी पुनः महिष रूप में आ आकर वह भीषण संघर्ष और विध्वंस पसारता रहा। जैसे ही कोई भोगधर्मी बनता है,सात्त्विक गुणों (दया,करुणा,क्षमा,संवेदनशीलता,परोपकार आदि) से रिक्त होता चला जाता है और भोग में धँसता दानवत्व और पिशाचत्व को प्राप्त होता है भले शरीर से वह देव या मनुष्य ही क्यों न हो।फिर प्रत्येक सात्त्विक व्यक्ति वस्तु यम नियम साधन सिद्धांत से उसे अथाह घृणा होती जाती है और वह उन्हें नष्ट कर देने को प्रतिपल व्यग्र रहता है।यहाँ तक कि उसका जीवन ध्येय ही शुभ को नष्ट कर अशुभ स्थापित करना हो जाता है। दानव/पिशच कोई व्यक्ति नहीं,अपितु प्रवृत्ति है जो आदिकाल से ही सृष्टि में अवस्थित है।जिस त्रिगुणात्मक गुणों,सत रज तम से सृष्टि की रचना हुई,उसमें से स्रष्टा भी यह व्यवस्था न कर पाए कि केवल सत या सत रज रहे और तम न रहे।किन्तु हाँ, यह व्यवस्था उन्होंने अवश्य कर दी कि तीन लोक बना दिये जिसमें स्वर्ग में सतोगुणी अर्थात देवता वास करें,,जिनके हाथों सृष्टि संचालन की व्यवस्था रहे। मनुष्य लोक में ऋषि महर्षि रूप में सतोगुणी व रजो सतोगुणी मनुष्य रह सकें जो अपने सदाचरण और धार्मिक आध्यात्मिक गुणों प्रवृत्तियों द्वारा प्रकृति सृष्टि की सुव्यवस्था में योगदान करते यज्ञादि द्वारा देवताओं को भी शक्ति प्रदान करें। और तीसरे, रज तम या घनघोर तम धारण करने वाले असुरों दानवों को पाताल लोक का वास मिला जहाँ वे असीमित भोग में लिप्त रह सकते थे। तीनों लोकों की मर्यादा बाँध दी गयी कि कोई किसी अन्य लोक को अपने अधीन करने की कुचेष्टा नहीं करेगा।जिसने भी,जब कभी इस सीमा का,मर्यादा का अतिक्रमण किया, उसे दण्डित करते यह उदाहरण अवश्य स्थापित किया गया कि अगला कोई महत्वाकांक्षी अपने अहंकार में आकर ऐसी कुचेष्टा न करे।अन्यथा इसका परिणाम केवल उसे नहीं,उसके सम्पूर्ण समूह समाज को भोगना पड़ेगा। इन तीनों में से देवताओं और मनुष्यों ने कभी अपने प्रभुत्व प्रभाव को अनावश्यक रूप से विस्तृत कर अन्यों को पराजित प्रताड़ित व पराधीन करने का लोभ नहीं किया,किन्तु भोगधर्मी असुरों को सदा ही सबकुछ अपने अधीन करने, अन्य सभी के धार्मिक मान्यताओं आस्थाओं को मिटा देने,सबका अधिपति रहने का हठ रहा। आदिकाल से असुरों का उत्पात,उनके द्वारा अन्यों का विध्वंस और देवशक्तियों द्वारा समय समय पर उनका विध्वंस,उनकी शक्तियों को सीमित किया जाना,,,तब से अबतक अनवरत है और संभवतः सृष्टि के अन्त तक यह क्रम अबाधित ही रहेगा। पिछले कुछ हजार वर्षों का ही इतिहास देख लें,,,दुष्ट शक्तियों का विस्तार,उनके द्वारा विध्वंस, सात्त्विक शक्तियों का संगठित होकर उनका सामना करना और विध्वंसक शक्तियों का कमजोर पड़ने पर शिथिल होकर कुछ समय के लिए सिमट कर रहना.....कब यह क्रम टूटा है? कभी जिन्हें हम अलाने फलाने दैत्य,असुर,राक्षस नाम से जानते थे,उनके अत्याचार की लोमहर्षक कथाएँ पढ़ते सुनते सिहरते थे, आज वैसे ही अत्याचारी दैत्यों, उनके संगठन,उनके विध्वंसक धर्म और कर्म...एकदम से पूर्ववर्ती ढर्रे पर आज भी नहीं हैं क्या?बल्कि समय के साथ वे कुछ और उग्र व्यापक क्रूर हुए हैं। अलकायदा आइसिस अलाना फलाना ढिमकाना.... आप एक नाम मिटा भी दें, ठीक महिषासुर की तरह वह अगले ही पल दूसरे हिंसक रूप में प्रकट होकर पहले से भी अधिक व्यापक विध्वंस मचाएगा।संक्रमित सोच से ग्रसित एक समूह को मिटाकर आप विध्वंसक प्रवृत्ति को नहीं मिटा सकते।इसके लिए आपको रक्तबीज का संहार करना होगा।उस बीज को समाप्त करना होगा,जिससे ऐसे जहरीले फल की उतपत्ति होती है और वह भी दिन दूनी रात चौगुनी। शक्ति प्रहार द्वारा ही इनकी शक्ति को कुण्ठित किया जा सकता है।जबतक इन्हें अपने सम्पूर्ण नाश का भय हो,ये सिमटे रह सकते हैं। जब सात्त्विक लोग,जिनकी मानवीय धर्म में गहरी आस्था है धर्मस्थापना हेतु प्रतिबद्ध हो संगठित होते हैं,वही सामूहिक शक्ति "दुर्गा" कहलाती है और तभी वह प्रचण्ड प्रहार महिषासुरों,शुम्भ निशुम्भ रक्तबीजों से मानवता का रक्षण हो पाता है। ॐ

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