8.1.20

राक्षस

बड़े बड़े दाँत नाखून,विकराल मनुष्येतर जीव... फिल्मों, नाटकों या कथाओं के चित्रण ने हमारे मानस पटल पर राक्षसों दैत्यों की कुछ ऐसी ही छवि उकेरी है। इस छवि ने हमें ऐसे दिग्भ्रमित कर रखा है कि हम कभी ध्यान में नहीं रख पाते कि मानवी या दानवी दोनों स्थूल छवियाँ नहीं मनुष्य की ही मनोवृत्तियाँ हैं जो वह अपने आचरण के माध्यम से सिद्ध करता है।महर्षि पुलस्त्य के महान वंश में जन्मे उनके दोनों पौत्रों- रावण और कुबेर में से एक दैत्य बना तो दूसरे पूज्य  देव हुए,,मामा कंस राक्षस तो कृष्ण महामानव हुए,,,असंख्य उदाहरण हैं ऐसे।

देव दानव,,अर्थात दो परस्पर विरोधी प्रवृत्तियाँ, सृष्टि के आरम्भ से ही पृथ्वी पर रहीं हैं,आगे भी रहेंगी।जब भी दानवों की संख्या और उनका वर्चस्व पृथ्वी पर बढ़ता है, सृष्टि विनासोन्मुख हो जाती है,उसकी व्यवस्थाएँ विखण्डित होती हैं।
तो सृष्टि/प्रकृति का सम्मान करने वाले, धर्मशील देव(जिनका मूल स्वभाव अहिंसा करुणा धैर्य सहनशीलता और सहानुभूति होता है), शौर्य धारण कर दानवी वृत्ति के पोषकों के नाश हेतु कृतसंकल्प होते हैं। इन्हीं में से कोई वीर राम बनता है तो कोई कृष्ण, कोई गुरुगोविंद सिंहजी तो कोई शिवाजी...लम्बी श्रृंखला है ऐसे धर्मरक्षक महानायकों की।

बहुधा मेरे ध्यान में रामकथा में वर्णित वे शांतिप्रिय अहिंसक धर्मभीरु लोग और उनकी परिस्थितियाँ आ जातीं हैं जो वनों में,ग्रामों में, सादगी से जीविकोपार्जन करते, अध्ययन मनन शोध चिंतन में रत, अपने विशाल हृदय में जीवित प्राणियों तो क्या प्रकृति के कण कण के लिए करुणा और सम्मान का भाव रखते हुए जीते हैं।किन्तु ऐसे लोगों से भी घृणा करने वाले,इन्हें असह्य कष्ट और अपमान देकर आनन्द और सन्तोष पाने वाले रावण के अनुयायी रक्ष संस्कृति के पोषक हैं, जो अपर धर्मानुयायियों को कष्ट देने,उन्हें मिटाना अपना धर्म मानते हैं।ये राक्षस संगठित हो वनवासियों,ऋषि आश्रमों पर आक्रमण कर इनकी निर्मम हत्यायें करते हैं, इनकी स्त्रियों का बलात्कार करते हैं,इनकी भूमि से इन्हें वञ्चित कर इनके श्रम से अर्जित साधनों का भोग करते हैं।क्योंकि इन ऋषियों वनवासियों ने क्रूर होना,युद्ध लड़ना नहीं सीखा है,अतः मिटाये जा रहे हैं।

त्रेता में महर्षि विश्वामित्र अयोध्या नरेश से उनके पुत्रों को इन्हीं समूहों के रक्षार्थ माँगकर दंडकारण्य लाये थे। किन्तु उनका उद्देश्य केवल इनके द्वारा राक्षसों का नाश करवाना भर नहीं था,अपितु उन्होंने राम से यह वचन भी लिया था कि वे एकबार पुनः आएँगे और दण्डकारण्य से लेकर सुदूर सागर पार दक्षिण तक की भूमि को भोग की इस रक्ष संस्कृति से मुक्त करवाएँगे।जो व्यक्ति या समूह मानवीय मूल्यों सम्वेदनाओं का वहन न कर व्यवस्थाएँ नष्ट भ्रष्ट करे, उसको नष्ट करने की चैतन्यता जबतक समाज के सबसे निर्बल और उपेक्षित समूह नहीं पायेगा,सृष्टि और धर्म का रक्षण असम्भव है।
और राम ने बारह वर्षों के जनजागरण में कोल भील तो क्या,वानर रीछ तक को ऐसी चैतन्यता दे दी कि पत्थर थप्पड़ के आसरे ही सागर लाँघ वे रावण की शस्त्र सुसज्जित सेना से अड़ भिड़ और जीत भी आए।आज जब उन स्थानों पर दृष्टिपात करती हूँ जहाँ की परिस्थितियाँ ठीक वैसी ही हैं जैसी उन दंडकारण्यवासी असहाय वनवासियों की थी, तो लगता है हे ईश्वर इन निरीहों को कौन आएगा बचाने।
वर्तमान भारत सरकार ने सहृदयता दिखाते इन निरीहों के रक्षण हेतु CAA के माध्यम से एक उपाय बनाया...और देखिए राक्षस कैसे व्याकुल हो उठे।अपने ही हाथों सज्जनता, सहृदयता और बुद्धिजीविता का अपना मुखौटा नोच वे सड़कों पर अपनी सेना के साथ उतर आए हैं।

तब जो योग से विरोध रखने वाले और स्त्री को मात्र भोग की वस्तु मानने वाले बहुरूपिये महिषासुर तथा शुम्भ निःशुभ थे, भोग की संस्कृति के पोषक रावण मारीच ताड़का और शूर्पणखा थे,,, वही आज वामी तथा क़ुर-आनवादी नहीं हैं क्या??
रावण कंस आदि ने जन्म चाहे जिस वंश में लिया हो,,पर ये ब्राह्मण क्षत्रिय न थे केवल और केवल राक्षस थे।वैसे ही चाहे आज के ये सेकुलड़ (जिन्होंने भले हिन्दू नाम धारण कर रखा हो) तथा ल्लाहवादी, ये राक्षस नहीं हैं क्या?? ये भी तो रावण महिषासुर आदि की ही भाँति अपनी सोच और आस्था से इतर किसी को सहन नहीं कर सकते, इनका ध्येय और धर्म ही सनातन तथा अन्य उन समस्त विचारों संस्कृतियों को, जिनमें इनकी आस्था नहीं,उन्हें क्रूरतम विधि से मिटा देना है??
हाँ,, एक छोटा सा अन्तर है वामियों तथा ल्लाहवादियों में।वामियों के वस्त्र सुघड़ सुसज्जित और अस्त्र घातक तथा गुप्त होते हैं। बुद्धिजीविता के चमचमाते मुखौटे तले ये अपनी कुत्सित विध्वंसक सोच तथा योजनाओं को बड़ी ही कुशलता पूर्वक छुपा लेते हैं और बौद्धिक आतंक फैला भगवान बने उनसब को जिन्हें ये उनके धर्म से च्युत नहीं कर पाते, हीनभावना से ग्रस्त रखते हैं।अपनी सेकुलड़ी बीन पर मन भर नचाते हुए कभी सर्वसाधारण को चैतन्य नहीं होने देते।
और ल्लाहवादी समूह- इनके राक्षसत्व के पोषक पालक भी वामी ही होते हैं, प्रकट रूप में हाथों में नंगी तलवारें लिए धार्मिक उन्माद में काफिरों को क्रूरतापूर्वक रौंदते कुचलते अपने संख्या बल को बढ़ाते अपनी विजययात्रा अबाधित रखते हैं।
कहीं असहिष्णुता का कोई आक्षेप न लग जाये, इस भय से थरथर काँपता हिन्दू समाज आँख उठाकर नहीं देख पाता कि कैसे विश्व मानचित्र पर से मिटता सिमटता वह उस भूभाग में भी अपना अस्तित्व नहीं बचा पाया जो कहने को भारत का अभिन्न अंग(कश्मीर)था या निरंतर आज भी भारतीय मानचित्र पर से मिटता कई क्षेत्रों में अल्पसंख्यक बन चुका है।वास्तविकता की धरातल पर आकर कभी हिन्दू समाज आँकने को प्रस्तुत नहीं कि आखिर वर्तमान भारत में भारत बचा कितना है??

बन्धुओं,, किसी एक भोर को अपने कानों को खोलिये और अगली भोर तक के बीच अज़ान नाम से उनके आह्वान और उद्घोषणाओं (उनका वह सर्वशक्तिमान ही एकमात्र परम सत्य है।सम्पूर्ण धरा पर केवल उसकी सत्ता में आस्था रखने वाले ही होने चाहिए,इस पर ईमान रखने की शर्त काफिरों को मिटाना है) को सुनिए, अपने चारों तरफ देखिए कि कितने पाकिस्तान अफगानिस्तान या बांग्लादेश आपके चारों ओर उगे बसे हुए हैं।

सदियों तक डिनायल मोड में पड़ा विश्व आज इनके पागलपन और कहर से कराह रहा है।बसे बसाये समृद्ध नगर उजड़ चुके हैं,,पर कोई बड़ा उपाय किसी के हाथ नहीं।

किसी को मिटाना, हमारे DNA में भी नहीं।और कोई रावण कंस की तरह एक दो चार हो तो उससे निपटा भी जाय,,यहाँ तो आसमानी किताब के विषाक्त हर्फ़ों में नहाया एक एक विस्फोटक विषाणु है।
तो, निवेदन केवल यह कि सतर्क रहें,संगठित रहें और अस्तित्व रक्षण को सनद्ध हों।सत्ताओं पर यह दवाब बनाएँ कि इनके विस्फोटक संख्या विस्तार पर वह नकेल कसने की व्यवस्था करे।इन्हें मानवीय संस्कारों में दीक्षित नहीं किया जा सकता,,पर जबतक ये संख्या में अल्प हैं, अपनी दानवी वृत्ति को छिपाये विध्वंस को अकुलाए नहीं रहेंगे।अतः रंच मात्र भी इनका तुष्टिकरण नहीं,अपितु इनपर दृढ़ अनुशासन रखिये।
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Ranjana Singh