30.7.08

आज के खबरी चैनल...........

आज जबकि टी वी के समस्त राष्ट्रीय हिन्दी समाचार चैनल(दूरदर्शन को छोड़) दिग्भ्रमित हो समाचार धर्मिता से भटक खालिस बाजारवाद की अंधी दौड़ में आँखें मूंदे दौडे चले जा रहे हैं.ख़बरों के नाम पर ये लोग जो परोसते हैं,देखकर अफ़सोस भी होता है,हँसी भी आती है और कभी कभी दया भी आ जाती है कि आख़िर ये किस ओर जा रहे हैं,एक बार भी रुक कर ठहरकर आत्म मंथन की प्रक्रिया से गुजर अपने करनीय और ध्येय की जांच परख करते हैं ?.इतनी बड़ी इनकी टीम होती है,क्या कोई इन्हे सचेत करने वाला नही कि किस तरह ये हँसी के पात्र बन रहे हैं??चौअन्नी छाप वो तारिकाएँ जो सस्ती लोकप्रियता पाने के लिए किसी भी हद तक गिरने में कोई गुरेज नही करती ,उनमे और इनमे कितना और क्या फर्क रह गया है? ऐसे में आज भी तथाकथित दोयम दर्जे रखने वाले प्रांतीय खबरी चैनलों का स्तर इन राष्ट्रीय चैनलों से बहुत बहुत अच्छा है.या यूँ कहें कि १ से १० के ग्रेड रेटिंग में राष्ट्रीय खबरी चैनल यदि २ पर हैं तो इन्हे ८ - ९ पर माना जाना चाहिए. यह एक सुखद अनुभूति देता है.सभी राज्यों के बारे में नही कह सकती,पर हमारे यहाँ 'ई टी वी बिहार झारखण्ड' तथा सहारा का 'बिहार झारखण्ड न्यूज चैनल' ये दो प्रांतीय चैनल हम देख पाते हैं और इसी के आधार पर मैं अपनी प्रतिक्रिया दे रही हूँ..
रात दस बजे के बाद जिस समय सारे राष्ट्रीय चैनल भूत प्रेत,हत्या बलात्कार की सनसनी फैलाने के होड़ में लिप्त रहते हैं, उस समय यदि शहर से लेकर राष्ट्रीय अंतर्राष्ट्रीय स्तर के खबर जानने की उत्सुकता हो तो ये प्रांतीय चैनल ही सहारा देते हैं.ख़बरों के प्रबंधन,नियोजन के साथ साथ समसामयिक प्रेरक प्रसंगों(खबरों), गंभीर विषयों पर चर्चा परिचर्चा से लेकर मनोरंजन तथा कुकरी शो सब कुछ इस तरह से नियोजित रहता है कि कभी भी कुछ उबाऊ नही लगता.
अभी करीब तीन दिन पहले देखा कि गया (बिहार)शहर जो कि बिना पानी के नदी(गया में बहने वाली फल्गू नदी में आजतक कभी भी भरी बरसात के मौसम में भी घुटने से ज्यादा पानी नही होता) और बिना पेड़ के पहाड़(गया शहर ही नही उसके आस पास के इलाके में भी असंख्य छोटी छोटी पहाडियां हैं जिनपर कोई पेड़ नही) के रूप में प्रख्यात है, एक व्यक्ति पिछले चौबीस वर्षों से अकेले एक साधक के भांति अपने सम्पूर्ण तन मन धन लगा जुटा हुआ है साधना में और उसका उद्देश्य समस्त बंजर पहाडियों को पेड़ों से आच्छादित कर हरा भरा वन प्रान्त बना देने की है. अबतक कई पहाडियों को पेड़ों से आच्छादित कर चुका है,जिसकी जानकारी प्रशाशन को भी नही है.. ऐसे में चैनल वालों का प्रयास और ख़बर देखकर इतना अच्छा लगा कि सबके लिए दुआएं निकली और लगा यह सराहनीय प्रयास निश्चय ही मुक्त कंठ से प्रशंशनीय है. .जब निम्स्तरीय की हम भर्त्सना कर सकते हैं तो अच्छे प्रयासों की सराहना भी अपरिहार्य है..
कल एक और समाचार देखा कि महाराष्ट्र में "पञ्चशील" नाम के एक स्वयंसेवी महिला संगठन ने जिसके सदस्य ग्रामीण निर्धन महिलाएं हैं , ने वह साहसिक जिम्मेवारी उठा रखी है जो आजतक केवल पुरूष द्वारा ही निष्पादित किए जाते थे. स्त्रियों की यह संस्था शहर तथा आसपास के इलाकों के निर्धन तथा लावारिश ऐसे मृतकों की जिनका अन्तिम संस्कार करने वाला कोई न हो,उनका पूर्ण सम्मान और विधि विधान के साथ अन्तिम संस्कार संपन्न करती हैं(अंत्येष्टि कर्मकांड किसी भी धर्म में पुरुषों द्वारा ही संपन्न होते हैं,जैसा कि आजतक मैंने देखा सुना है).हिंदू हुआ हुआ तो दाह संस्कार और मुस्लिम हुआ तो दफ़नाने की क्रिया.इस क्रम में हर कार्य संश्ता सदस्यों द्वारा ही संपादित होता है.मदद के रूप में नगरनिगम द्वारा प्रति मृतक ३ हजार रूपये इन्हे सहायता राशि रूप में दी जाती है. ख़बर ने मन को हर्ष और गर्व से भर दिया और संस्थान तथा इस ख़बर को हमतक पहुँचने वाले के प्रति मन नतमस्तक हो गया..

समाचार जिन माध्यमो से जनमानस तक पहुँचता है,इलेक्ट्रोनिक मिडिया इसमे सबसे अधिक सशक्त और प्रभावशाली मध्यम है.जाहिर है जो सशक्त होता है वह अच्छा और बुरा दोनों प्रचारित प्रसारित कर और दूरगामी प्रभाव स्थापित करने में सक्षम भी होता है.ऐसे में इनमे कर्तब्य बोध का अभाव निश्चित ही अनिष्टकारी है .अब क्या किया जाए.नाम क्या गिनवाऊँ, जितने भी प्राइवेट न्यूज चैनल हैं,किसी न किसी व्यावसायिक घरानों के ही हैं जिनका उद्देश्य केवल प्रोफिट मेकिंग भर है.तो ऐसे लोगों से क्या उम्मीद की जा सकती है कि ये पत्रकारिता के नैतिक कर्तब्य को समझेंगे और मूल्यों से समझौता किसी कीमत पर नही करेंगे. ये तो बस एक अंतहीन अंधी दौड़ और होड़ में निमग्न हैं.ईश्वर करें समय रहते ये सचेत हो जायें नही तो एक बार यदि जनमानस में साख गिर समाप्त हो गई तो वर्षों लग जायेंगे फ़िर से बनने में.दूर दर्शन जिस तरह राजनितिक पेंचों में फंस अपनी दुर्गति करवा चुका है और आज तक पुरानी साख नही लौटा पाया है,इन्हे कुछ तो सबक लेनी चाहिये उस से .मुझे भय इस बात का भी है कि कहीं ये प्रांतीय न्यूज चैनल भी इनके पीछे इनकी देखा देखी न हो लें.ईश्वर इन सबको सद्बुद्धि और कर्तब्यबोध दें.

25.7.08

वह कुलवधू

आज बहुत दिनों बाद सुबह सुबह माँ का फोन आया.कुशलक्षेम के आदान प्रदान के दौरान ही मुझे लग रहा था कि कुछ ख़ास वो मुझसे कहना चाह थी , पर कहने के पूर्व भूमिका बाँध रही हैं.मैं कह ही पड़ी क्या बात है माँ कोई खास बात है क्या,कहो न....गला साफ़ करते हुए उन्होंने कहा " सुमी एक बुरी ख़बर है.विनय की तबियत बहुत ख़राब है,उसे लीवर कैंसर है और वो भी शायद अन्तिम स्टेज में."
दो मिनट मैं कुछ भी नही कह पाई और फ़िर एक ज्वालामुखी सी फटती हुई कह उठी " माँ ईश्वर को किसीने देखा नही है,पर यदि वह है और उसके हाथों में सचमुच कुछ कर पाने की क्षमता है तो मैं उसे चुनौती देती हूँ कि वो इस इंसान को कम से कम पॉँच वर्ष तक और जीवित रखे और घिसट घिसट कर तिल तिल कर इसकी मौत हो.......यदि यह व्यक्ति सहज ही आराम की मौत मरा तो ईश्वर के न्याय को मैं नही मानूंगी............" आवेग में मैं एकदम से हांफने लगी..माँ ने मुझे बीच में ही टोका....." न न बेटा ऐसा नही कहते.सबका हिसाब रखने वाला वह उपरवाला है,उसकी लाठी में आवाज नही होती पर वह सब देखता सुनता है,पर हमारा काम नही कि हम किसी को बद्दुआ दें."
मैं इतनी विचलित हो चुकी थी कि और कोई बात न कर पाई।अगले दस मिनट तक माँ मुझे समझाती और विषयांतर कर बहलाने की कोशिश करती रही पर मेरे दिमाग तक उनकी कोई बात नही पहुँच रही थी॥बाद में फोन करती हूँ कहकर मैंने फोन रख दिया.

अतीत की परछाइयों ने मुझे पूर्णतः आपने गिरफ्त में ले लिया था.अपने वर्तमान से अनभिज्ञ हो मैं उसमे खोयी हुई कब से कब तक रोती रही मुझे स्वयं भी इसका भान न रहा.महरी ने जब आकर मुझे झकझोरा और चिंतित स्वर में घबराकर मुझसे मेरे रोने का कारण पूछा ,अपने गीले गालों पर हाथ फेर तब मुझे ज्ञात हुआ कि मेरे आंसुओं से मेरे गाल गला और पल्लू गीले हो रहे थे.बड़ी मुश्किल से महरी को समझा पाई कि मेरे एक चचेरे भाई की तबियत बहुत ख़राब है इसलिए मुझे रोना आ गया है.और कोई विशेष बात नही ,उनका इलाज चल रहा है ,जल्दी ही ठीक हो जायेंगे.
उस वक्त किसी से भी बात या जिरह करने की मनःस्थिति में मैं नही थी और महरी के साथ बात करने का मतलब था जबतक घंटा भर लगा उसके सभी सवालों का जवाब दे उसे पूरी तसल्ली न करा लो न ही अगले काम को हाथ लगायेगी और न ही आपको एकांत का मौका देगी.सो उसको जैसे तैसे निपटाकर मैं उसके अंतहीन प्रश्नों से बचने के लिए गुसलखाने में घुस गई.
बाहर निकलकर घड़ी पर नज़र डाला तो ग्यारह बज चुके थे। तैयार होकर दफ्तर पहुँचने में कम से कम बारह बज जाते जो कि किसी भी हाल में जायज न था. इसलिए बेहतर था कि छुट्टी ले ली जाती.सो दफ्तर में फोन कर तबियत ख़राब होना कारन बता उस दिन की छुट्टी ले ली.

सच कहूँ तो किसी से भी बात करने की इच्छा नही हो रही थी.ऐसे में बुझे हुए चेहरे को हरा करना या सहयोगियों को कारन बताना दोनों ही मुश्किल काम था.एक कप चाय पी कर यूँ ही कुछ देर अनमनी सी बैठी रही और फ़िर दिलो दिमाग को हल्का करने के लिए मनपसंद की एक ठुमरी की सी डी लगा कर बैठ गई.एक पुस्तक भी खोल लिया पढने हेतु ताकि ध्यान उसमे बंधकर अतीत की गलियों में भटकना छोड़ कर अन्यत्र रम जाए. पर न ही कानो से होकर मन तक धुन पहुँच पा रहे थे और न ही अक्षर आंखों को बाँध पा रहे थे..

भरा पूरा परिवार था हमारा गाँव में।दादाजी तीन भाई थे.हालाँकि तीनो दादाजी विधुर थे पर मझले निःसंतान भी थे. बड़े दादाजी को एक बेटा और चार बेटियाँ और चाचाजी को भी एक बेटा.और मेरे दादाजी को दो बेटे. विनय भइया मेरे चचेरे भाई थे.बड़े ही लाड प्यार में पले हुए चाचाजी के इकलौते संतान. मेरे पिताजी जुडिसिअल सर्विस में और एक चचेरे चाचा इंजिनयरिंग कर एक प्राइवेट संस्थान में नौकरी में संलग्न गाँव से सदा ही बाहर रहे बाकी परिवार के सभी सदस्य गाँव पर ही रह निजी व्यवसाय तथा जमींदारी के कार्य कलापों में संलग्न थे.

पिताजी के पोस्टिंग के अनुसार ही हमारा भी गाँव आना जाना छुट्टियों में या किसी पारिवारिक उत्सव के अवसर पर ही हो पाता था. पर गाँव में रहने का अवसर मिलना हमारे लिए लाटरी खुलने से कम नही होता था..बड़े बड़े कमरों और खूब बड़ा सा खुला आँगन वाला घर,फलों से लदे फदे पेड़,फूलों के पेड़ पौधे,दूर तक फैले हरे भरे खेत,बड़ा सा मैदाननुमा खलिहान,ढेर सारे गले में घंटियाँ टुन्तुनाते गाय बैल, और तो और भैंस की सवारी.तालाब में भैंस पर बैठ नहाने के आनंद को जिसने उठाया होगा वही समझ सकता है. घर के नौकर जब भैंसों को नहलाने तालाब लेकर जाते थे तो हम सभी भाई बहनों को उसकी सवारी करते थे और उनकी निगरानी में हम तालाब में भैंस की पीठ पर बैठ नौकाविहार का आनंद लिया करते थे.अद्भुत था वह भी सुख.चाचियों बुआओं दादाजी वगैरह के रहते हमलोग माताजी के अनुशाशन से बिल्कुल मुक्त रहते थे और पिटाई की तो नौबत आते ही इतनी जोर से बुक्का फाड़ रोते कि पीटने वाला (माँ या पिताजी) डांट सुन जाए.लाड में फूले और अनुशासनहीन ऐसी जिंदगी स्वर्ग से कमतर थोड़े न थी.

मैं करीब छः सात साल की रही हुंगी।मेरे जीवन का यह पहला मौका था जब घर में किसी की शादी में शामिल होने का मौका मिला था.शादी थी विनय भइया की.बाकि जो दो चचेरी भाभियाँ थी वे काफी बड़ी थीं .लगभग माताजी की उम्र की और उसमे भी एक भाभी कभी कभार छुट्टियों में ही गाँव आया करती थी.जो भाभी यहाँ गाँव में रहती थीं वो मुझे बिल्कुल भी अच्छी नही लगती थीं.निःसंतान थीं वे और अपना सारा समय सजने सवरने और गप्पबाजी में लगाती थीं और हम बच्चों तक से भद्दे भद्दे मजाक किया करती थीं.ऐसे में मन में एक आशा जगी थी कि ये नई वाली भाभी जरूर ही भली होंगी और उनके आते ही अपने सब भाई बहनों को पीछे छोड़ भाभी पर पूरा कब्जा जमा लूंगी और वो केवल मेरी भाभी होंगी.बाकी लोग लेकर सड़ते मरते रहें उस गन्दी वाली भाभी कों.

मेरी उत्सुकता अपनी चरम पर थी.ढेर सारे रस्मो रिवाज के बाद बारात रवाना हुई.सबकी चिरौरी कर थक चुकने के उपरांत अपने अन्तिम हथियार रोने धोने का सहारा लिया पर,हम रोते पीटते रह गए.गाजे बाजे के शोर में हमारा उच्च स्वर रुदन गौण होकर रह गया. हमारी एक न चली हमें साथ नही ले जाया गया.सिवाय बारात वापस आने के इन्तजार के और कोई चारा न रहा.....


तीसरे दिन बाजे गाजे के साथ शाम के धुन्धलुके में नई दुल्हन के साथ बरात वापस आई।जैसे ही ड्योढी में डोली उतरी महिलायों में द्वारचार को लेकर अफरा तफरी का जो माहौल बना उससे अधिक बुरा हाल हम बच्चों के नई भाभी को सबसे पहले देखने और उसपर कब्जा जता शान बघारने की धक्का मुक्की के माहौल से बना.मैं थोडी चतुर निकली धक्कामुक्की में शामिल न हो अपने कृशकाया का लाभ उठाते हुए सुट से डोली में जा घुसी और लम्बी सी घूंघट ताने भाभी के घूंघट के अन्दर घुस उनके चेहरे के ठीक सामने लगभग नाक से नाक सटा उन्हें निहारने लगी॥ यूँ तो भाभी काफ़ी डरी सहमी और घबरायी हुई सी थीं पर मेरे उतावलेपन ,उत्सुकता और विभोर सी मेरी नजरों ने पल भर को सिर्फ़ मेरी और केंद्रित कर सब कुछ विस्मृत करा दिया और उन्होंने स्नेह से मेरा मुंह चूम लिया. फ़िर क्या था,यही तो मुझे चाहिए था.खजाना मिल गया मुझे,गदगद हो खुशी से झूम उठी मैं.भाभी पूरी की पूरी मेरी थी और मैं अपने सभी भाई बहनों को पछाड़ जीत चुकी थी.यही खजाना तो मुझे चाहिए था.खजाना वो जो पूरी की पूरी मेरी थी.अपनी जीत की उद्घोषणा के लिए मन मचल गया पर मैंने अपने आप को इसके लिए रोक लिया क्योंकि यदि बाहर निकलती और कोई और मेरे खजाने तक पहुँच जाता तो मेरी जीत भी छोटी हो जाती और भाभी तक पहुँचने का रास्ता भी सुलभ हो जाता मेरे प्रतिद्वंदियों के लिए.सो मैंने वहीँ उस छोटी सी डोली में छिपकली सा दीवार से सटे बैठे रहना ही मुनासिब समझा.

पूजा द्वारचार के लिए जब भाभी को भी बाहर निकाला गया तो भी मैंने उनके साड़ी के पल्ले की कोर नही छोड़ी और कमरे में जहाँ उन्हें बैठाया गया वहां भी उनसे बिल्कुल चिपकी सी दुबककर बगल में बैठी अपलक उनका मुंह निहारती रही. .थोडी सावली सी जरूर थी वो पर उन जैसी सुंदर आकर्षक स्त्री बहुत कम देखी है मैंने आजतक के अपने जीवन में.बड़ी बड़ी पलकों वाली बड़ी सी आँखें,पतले पतले मुस्कुराते हुए ओंठ,लम्बी नुकीली नाक छरहरा बदन और सबसे बढ़कर व्यक्तिव में एक अजीब सी स्निग्धता और सौम्यता.
अजीब होता है गावों में सुन्दरता का मानदंड।जबतक रंग साफ़ और खूब दुधिया गोरा न हो तो सावंले रंग को तो सीधे सीधे काले की संज्ञा दे दी जाती है और बेझिझक कुरूपता का प्रमाणपत्र दे दिया जाता है.और सबसे बड़ी बात कि यदि ये अपनी प्रतिक्रिया चट मुह पर ही न दें मारें, तो लगता है इनके मुंहदिखाई के पावन पुनीत कर्तब्य का समुचित पालन ही नही किया इन्होने.माना जाता है कि गाँव के लोग बड़े ही सीधे सादे मासूम होते हैं.पर मेरा अनुभव रहा है कि तकनीकी ज्ञान में ये भले शहर वालों से उन्नीस पड़ते हों,व्यवहारिक ज्ञान चल प्रपंच में ये ऐसे निष्णात होते हैं कि खड़े खड़े शहर वालों को दो आने में बीच बाज़ार में बेच आयें और बिकने वाले को पता भी न चले.

औरतों का जो ताँता लगा मुन्हदिखाई का सो देर तक चलता रहा और मेरा हाल यह था कि जो कोई भी नकारत्मक प्रतिक्रिया देता लगता जाकर उसकी चोटी खींच उसे खूब गलियां दूँ.अपनी इस अनिद्य सुंदरी भाभी के ख़िलाफ़ एक लफ्ज भी सुन पाना दुष्कर हो रहा था मेरे लिए..मुझे लगता था किसी के भी पास वह नजर ही नही जो इस सुन्दरता को देख सराह पाए.हालाँकि सारे लोग ऐसे ही नही थे कुछ स्त्रियाँ बड़ाई भी कर रही थी और कुछ चुपचाप देख आशीर्वाद दे चली भी जा रही थीं पर मुझे लगता था दुनिया में एक भी ऐसा न हो जिसे मेरी भाभी प्यारी और सुंदर न दिखे.देर रात जब यह देखा देखी का सिलसिला थमा तो पहले तो खूब फुसलाया गया मुझे वहां से चलने के लिए और जब मैं न मानी तो जबरदस्ती खींचकर मुझे वहां से ऐसे ले जाया गया जैसे गाय के थन से बछडे का मुंह छुडाकर ले जाया जाता है.देर तक रोती रही,पहले बिछुड़ने के कष्ट से और फ़िर माँ से अपने इस जिद के प्रसादस्वरूप पिटाई खाने के वजह से पता नही कब रोती रोती सो गई.सुबह आँख खुलते ही दौडती हुई जा पहुँची अपनी अमूल्य निधि के पास और फ़िर यह जिम्मा भाभी को ही दिया गया कि मुझे मुंह हाथ धोने को राजी करे और नास्ता अपने साथ ही कराये. तब पहली बार भाभी की आवाज सुनी थी.जितनी गहराई से वह मीठी सी आवाज निकलती थी उतनी ही गहराई तक अंतर्मन को भिगो जाती थी अपने स्नेह से.

जबतक छुट्टियों में गाँव में रही,यूँ ही चिपकी रही भाभी से। सारे फुफेरे भाई बहन तो भाभी के आने के सप्ताह भर के बाद ही वापस जा चुके थे और बाकियों ने जब मुझे इस तरह से भाभी पर सर्वाधिकार जमाये उनके साथ इस तरह संलग्न देखा तो अपने पुराने खेल तमाशों में लग गए मुझे मेरे हाल पर छोड़.लेकिन मुझे जो मिला था उसके बाद अपने हमजोलियों के उस छूटे हुए साथ का कोई मलाल न रहा.रात को जब माँ खींचकर मुझे सोने को अपने साथ ले जाती थीं उसके सिवाय सुबह आँख खुलने के बाद से का मेरी सारी दिनचर्या भाभी के साथ ही व्यतीत होती थी.या यूँ कहें कि मेरी दिनचर्या सुव्यवस्थित रखने की जिम्मेदारी भाभी को ही दे दी गई थी.सुख केवल मेरा ही नही था.मेरे लिए हर छोटे बड़े काम को जितने हर्ष और खुशी से भाभी किया करती थीं,छोटी थी तो क्या हुआ मैं स्पष्ट अनुभव करती थी.वहीँ एक बड़ी भाभी थीं जो सबके सामने भले हंसकर बात कर लें अकेले में अक्सर ही दुत्कार दिया करती थी और एक भाभी यह थीं,जो एकांत पाते ही ऐसे प्यार लुटाती थीं मानो मेरी जन्मदात्री वही हों॥बाकी लोग बाग़ भी हमारे इस स्नेह का बड़ा फायदा उठाने लगे थे इनमे अग्रणी मेरी माता थीं जो मुझसे मेरे नापसंदगी की हर बात भाभी के मार्फ़त करवा लेती थी.वो सारी चीजें जिनसे मुझे सख्त नफरत थी भाभी के एक पुचकार पर मैं खा लिया करती थी.उस बार की सारी छुट्टी ऐसे ही इतने आनंद में बीता कि वो एक महीना मानो पलक मारते ही गुजर गया.रोते धोते भाभी से बिछुड़ मुझे अपने परिवार के साथ वापस अपने घर लौट जाना पड़ा.भाभी को अपने ख्यालों में बसाये अगली छुट्टी के इन्तजार में समय बीतने लगा.रोज सवेरे उठ माँ से पूछती कि अभी गाँव जाने में और कितने दिन बचे हैं.तंग आकर एक दिन माँ ने मुझे कैलेंडर में अगली छुट्टी वाले जगह में निशान लगाकर दिया और मुझे ताकीद की कि मैं रोज एक तारीख लाल कलम से काट दिया करुँगी तो दिन जल्दी से ख़तम हो जाएगा.इसी बहने मुझे दिन महीने तारीख भी सिखा रटा दिए माता ने.मुझे पढाकर वो भी खुश और तारीख पर लाल निशान लगा मैं भी खुश.दोनों के ही मतलब सध रहे थे. भाभी के प्यार का प्रालोभन दे माँ मुझे पढने लिखने से लेकर खाने पीने तक को नियमित करवा लेती थी.भाभी के प्रेमपात्र होने का प्रालोभन एक ऐसी उर्जा मुझमे भरती थी जो 'अच्छी लड़की' के खिताब पाने को मुझे हरदम प्रोत्साहित करती थी..

जिंदगी चलती रही,दिन निकलते रहे॥इन्तजार की घडियां अंततः ख़तम हुई जब दशहरे की छुट्टी में हम गाँव पहुंचे।मुझे भाभी की स्नेहिल गोद मिली और मुझसे भाभी के ममत्व को जैसे सहारा मिला.यूँ तो उस बार हम पन्द्रह दिन ही रहे वहां पर एक बात जो मैंने महसूस की वह यह थी की इन कुछ महीनो में ही भाभी का चेहरा बुझा बुझा मुरझा सा गया था.बोलती तो वे ऐसे भी बहुत कम थी ,जो अब और भी संक्षिप्त हो गई थी.ठीक ठाक सबकुछ तो समझ में नही आता था,पर जो देखती सुनती थी वह बड़ा ही अजीब सा लगता था.भाभी सारा दिन काम में लगी रहती थीं.खाना पकाने,खिलाने से लेकर परिवार के प्रत्येक सदस्यों के सेवा के लिए दिन रात एक किए रहती थी.चाचियों के तेल मालिश से लेकर कंघी चोटी करना,उनके हर छोटी बड़ी जरूरतों का ख़याल रखना उन्होंने अपना धर्म मान रखा था.तो भी चाची उन्हें हर वक्त मायके का ,उनके निक्कमेपन और कुरूपता का ताना दिया करती थी. चाची केवल महल्ले के औरतों के सामने ही नही बल्कि ,चाचाजी तथा भइया के सामने भी भाभी की इतनी बुराइयाँ करती थीं कि उन पन्द्रह दिनों के दरम्यान ही दो बार भइया कमरे में बंद कर भाभी को पीट चुके थे .हालाँकि जब मेरे पिताजी के कानो तक बात पहुँची तो उन्होंने भइया को इतना लताडा कि हमारे रहते कोई अप्रिय घटना नही घटी.लेकिन यही भइया थे जो बड़ी भाभी से इतना मधुर व्यवहार करते थे कि मेरी समझ में यह जरूर आता था कि भइया अपनी पत्नी को नही बडकी भाभी को प्यार करते हैं. जसे ही एकांत में भइया बडकी भाभी से मिलते थे दोनों अजीब से लिपटे चिपटे रहते थे और मुझे मौजूद देख जब कभी बडकी भाभी विनय भइया से कहती थी कि सुमी देख रही है,कहीं किसी से कुछ बोल न आए.तो भइया हंस दिया करते थे कि वो तो बच्ची है वो क्या सम्झेगी निश्चिंत रहो .पर जब एक दिन मैंने अपने ज्ञान का परिचय देते हुए भइया से निडर हो कह ही दिया कि आप मेरी भाभी से नही बडकी भाभी से प्यार करते हैं ,मैं सबको जाकर कह दूंगी तो उस समय उनकी डरी सहमी स्थिति देख मुझे एक अजीब से आनंद का आभास हुआ था..भइया को अपने पास देख जिस तरह का डर भाभी के आंखों में तैरा करता था कुछ ऐसा ही डर उस समय मैंने उनकी आंखों में देखा था.फ़िर तो उस दिन विनय भइया और बड़ी भाभी ने मेरी खूब मान मुनौअल की,खूब दुलारा और भइया ने किसी से कुछ न कहने की ताकीद के साथ मुझे तुरत फुरत बाज़ार ले जाकर नई फ्राक खरीदी और लड्डू खिलाया.पर इतना कुछ पाकर भी मेरा मन न बहल पाया और शाम को मैंने भाभी को रिपोर्ट दे ही दी.मेरी बातें सुन भाभी के चेहरे पर जो दर्द उभरा और जिस तरह आँखें बही वह मैं आज तक नही भूल पाई हूँ.लेकिन मुझे लगा भाभी को यह बात पहले से ही पता थी,वह तो मेरे प्रेम की उष्णता ने उनके मन को पिघला आँखें नम कर दी थी.भाभी ने मुझे दुलारा और मुझे अपनी कसम देते हुए कहा कि यह बात मैं किसी से भी कभी भी न कहूँ.कोई पूछे तो भी नही. पर मेरे कहने न कहने से क्या होता था,यह बात शायद घर का हर सदस्य जानता था.

विनय भइया भाभी को प्यार नही करते इसलिए हरदम डांटते पीटते हैं यह बात तो समझ में आती थी पर चाची को भाभी से इतनी नफरत क्यों थी यह बात पल्ले नही पड़ती थी जबकि भाभी तो उनकी हर बात बिना काटे,बिना सफाई दिए चुपचाप सर झुकाए मानती सुनती रहती थीं..यूँ घर में ऐसा कोई न था जिसे चाची पसंद करती थीं या जो चाची को पसंद करते थे.पूरे घर में एक मेरी माँ ही थीं जिनके पास दोपहर में चुपके से आकर भाभी बैठती थीं और अपने दुःख दर्द बांटा और रोया करती थीं..जब भी मैं भाभी को इस तरह रोते देखती तो लगता था जाकर अपना पूरा जोर लगाकर सबको पीट आऊं.एक दिन चाचा और विनय भइया से जाकर मैंने पूछ ही लिया कि वे भाभी को इतना क्यों डांटते हैं,उनसे प्यार क्यों नही करते उन्हें रुलाते क्यों हैं.आपलोग बहुत ही बुरे हैं.यह बात इतनी बढेगी और इसकी कीमत भाभी को चुकानी पड़ेगी यह मेरा बालमन बिल्कुल भी अंदाजा नही लगा पाया था.भाभी पर दोष लगा कि वे घर की बातें सबको जाकर बताती हैं और परिवार खानदान की नाक कटा इज्ज़त डुबा रही हैं. माँ ने तो मेरी क्लास ही लगानी शुरू की थी और मैं पिटने ही वाली थी कि भाभी ने आकर बचा लिया और मुझे पुचकार कर समझाया कि मैं जो भी कुछ देखा सुना करूँ वो किसी को न बताऊँ वरना उनकी रोने वाली बात सबको बहुत बुरी लगेगी और लोग दुखी हो जायेंगे..

समय के साथ सबकुछ बदलता रहा ,मैं बड़ी होती गई,भाभी की दुर्गति भी दिनोदिन बढती गई.पर एक चीज जो नही बदला बल्कि समय के साथ और दृढ़ होता गया वह था भाभी का मेरे लिए स्नेह और हमारा मानसिक जुडाव.मेरे लिए वो ममत्व की साक्षात् मूर्तरूपा देवी थीं.ऐसा नही था कि उनका यह स्नेह केवल मेरे ही लिए था.छोटे बच्चों को देखते ही जिस तरह उनके चेहरे पर खुशी झलकती थी,जिस तरह वो सबपर अपना प्यार लुटाती थी, वह अद्भुत था.हालाँकि मुझे थोड़ा जलन भी होता था पर भाभी के इस हर्ष और सुख के लिए यह मुझे सहज ही सह्य हो जाता था. मेरे लिए वह क्या थीं उनके व्यक्तिव के गरिमा से मन कैसे नतमस्तक रहता था यह बखान पाना बड़ा ही दुष्कर है..वो मुझे गुणों की खान दिखती थी,पर काश ईश्वर मेरी वह आँखें किसी और को भी देता.जब कभी भाभी का उदास चेहरा आंखों के सामने घूमता तो पूजाघर जाकर भगवानजी से विनती करती कि वे ऐसा कोई चमत्कार कर दें कि हर कोई भाभी को प्यार और सम्मान दे .

करीब दो साल बाद एक दिन जब स्कूल से घर लौटी तो माँ पिताजी को खूब गुस्से में चाचा चाची और विनय भइया के ख़िलाफ़ बोलते हुए सुना.जितना सुना उस से यही समझ में आया कि चाचा चाची विनय भइया कि दूसरी शादी करवाना चाहते हैं क्योंकि भाभी बाँझ हैं. माँ खूब रो रहीं थीं और उन तीनो को कोसे जा रही थीं कि इतनी लक्ष्मी सी औरत कि जो इन लोगों ने दुर्दशा कर राखी है,इन्हे ईश्वर से थोड़ा भी भय नही लगता.बाद में मैंने माँ से पुछा था कि माँ ये बाँझ माने क्या होता है?तो माँ ने मुझे उत्तर दिया बिना दूसरी बातों में बहला दिया था.पर मेरे मन में इसके उत्तर जानने की उत्सुकता बहुत समय तक बनी रही.पिताजी और माँ इस बार हम भाई बहन को नौकरों और पड़ोसियों के जिम्मे सौंप अकेले ही गाँव गए.हालाँकि मैंने अपने भर पूरजोर प्रयास किया कि मुझे भी वो साथ ले लें.पर परीक्षाएं नजदीक होने के कारण हमारी मांग पूर्णतः खारिज हो गयीं.

संयोग ऐसा रहा कि उसके बाद से करीब दो वर्ष तक हम गाँव नही नही जा पाए॥छुट्टियों में कहीं न कहीं अन्यत्र ही जाना होता रहा।इसी बीच एक दिन स्कूल से वापस आई तो माँ पिताजी को खूब खुश देखा.माँ ने बड़े प्यार से मिठाई खाने को दी और खुशखबरी सुनाया कि मेरी प्यारी भाभी को नन्हा मुन्ना बाबू होने वाला है.हालाँकि एक पल को मेरा मन आशंकित हो गया कि कहीं भाभी का बाबू मेरा प्यार तो नही बाँट लेगा पर फ़िर याद आया कि इतने सारे बच्चों से प्यार करते हुए भी तो भाभी सबसे ज्यादा मुझे ही मानती हैं,तो मेरी शंका निर्मूल है .मैं भाभी से मिलने जाने को मचल उठी.माँ ने बताया कि दशहरे की छुट्टियाँ होते ही हम गाँव निकल चलेंगे और तबतक भाभी का बाबू भी जन्म ले चुका होगा.

गहमा गहमी और तेज आवाजें सुनकर सुबह सुबह नींद टूटी तो देखा कि घर में अजीब तनाव और चिंता का माहौल था॥चाचा, चाची,बड़ी बुआ सब घर में थे बिकुल अस्त्व्यत अवस्था में और माँ रोये जा रही थी।किसी से कुछ पूछते भी नही बन रहा था और आशंका से दिल भी बैठा जा रहा था.अंततः हिम्मत करके बुआ से पूछ ही लिया तो पता चला कि भाभी का बाबू पेट में ही मर गया है जो अगले तीन महीने बाद जन्म लेने वाला था और भाभी की तबियत बहुत ही नाजुक है.इसलिए रातों रात उन्हें गाँव से लाकर सीधे बड़े अस्पताल में दाखिल कराया गया है. अगले सात दिनों तक लाख अनुनय विनय के बाद भी मुझे भाभी के पास नही ले जाया गया.पर इन सात दिनों में घर का माहौल इतना तनावपूर्ण रहा कि पिताजी को पहले कभी मैंने इतने गुस्से में नही देखा था.चाचा चाची से लगातार झगडे होते रहे.पिताजी ने विनय भइया को तो बस पीटा नही यही बहुत हुआ.उन्होंने उनसे कहा कि यदि बहू को कुछ भी हो जाता है तो अपने हाथों मैं तुझे पुलिस के हवाले कर दूंगा.इनलोगों के बहस से ही यह पता चला कि विनय भइया ने शराब के नशे में द्धुत्त होकर भाभी की ऐसी पिटाई की कि उन्हें मौत के कागार पर पहुँचा दिया.हालाँकि चाची ने सारा कुछ भइया के सर मढ़ दिया था पर मुझे अंदाजा लगते देर न हुई कि सारा खेल बडकी भाभी और चाची का ही है.उन्ही की लगायी आग में भाभी तिल तिल जलती रहती हैं.विनय भइया को तो यूँ भी मनुष्य मानते मुझे घिन आती थी.

जितने भी देवी देवताओं के प्रार्थना,स्तुति मैंने सुन जान रखे थे सबका पाठ किया करती थी और हमारे घर के पास वाले मन्दिर में घंटों बैठ भगवानजी से भाभी को जल्दी से ठीक करने की प्रार्थना करती थी.ईश्वर को अंततः मेरी प्रार्थना स्वीकार करनी ही पड़ी और पाँच दिन तक जिंदगी और मौत के बीच झूलती भाभी को डाक्टरों ने खतरे के बाहर बताया.
सातवें दिन जब मुझे भाभी के पास ले जाया गया तो मुझे अपने पास देखते ही भाभी ने सीने से चिपकाकर जो रोना शुरू किया और हम दोनों की ही ऐसी घिग्घी बंधी कि आस पास खड़े सभी लोग रो पड़े. भले मैं बिल्कुल ही नासमझ और बच्ची थी पर संवेदनाओं को समझने अनुभूत करने की कोई उम्र नही होती.भाभी की पीड़ा को मैं महसूस कर पा रही थी और भाभी को भी जैसे लगता था कि मैं उनके सुख दुःख पूर्णरूपेण अनुभूत कर सकती हूँ.

सब दिन एक समान नही रहता॥अगले साल दीपावली के बाद भाभी की गोद हरी हो गई और बच्चे के छठ्ठी के अवसर पर हमलोग गाँव गए तो भाभी के पीले पड़े मुरझाये चेहरे में जो संतोष और सुख का आब देखा तो मन जुडा गया। छोटे नन्हे मुन्ने ने तो मेरा मन ही बाँध लिया.इस बार अपने घर वापस जाते समय मुझे जितनी तकलीफ हुई उतनी कभी नही हुई थी.

साल गुजरते रहे और पढ़ाई के बोझ तले दबे हमारा गाँव जाने का क्रम बड़ा ही सिमित होता गया।कई बार ऐसा हुआ कि जब कभी हम जाते भी तो भाभी अपने मायके होती और उनसे मिले बिना अनमने दुखी हो मुझे वापस आ जाना पड़ता.फ़िर ऐसा हुआ कि अक्सर बीमार अवस्था में रहने वाली भाभी अपने मायके ही रहने लगी.जब कभी उनके भाई उन्हें यहाँ छोड़ भी जाते तो बीस पच्चीस दिन होते होते उन्हें फ़िर से मायके भेज दिया जाता था.भाभी के मुन्ने मोहित को चाची अपने पास ही रखती थी यह कहकर कि बीमार भाभी बच्चे कि देखभाल करने में पूर्णतया अक्षम हैं.घर गृहस्थी सम्हाल पाने में अयोग्य तो चाची ने बहुत पहले ही ठहरा दिया था.बहुत दिनों बाद पता चला कि भाभी को हार्ट की बीमारी थी और जब इनलोगों ने इनके इलाज का कोई प्रबंध नही किया तो हारकर भाभी के भाइयों ने इनका आपरेसन करवाया तथा अपने घर रख इनके इलाज का प्रबंध किया. जब वे फ़िर से स्वस्थ हो काम धाम करने लायक हुईं तभी जाकर भाभी को विनय भइया वापस गाँव लेकर आए.यूँ भी समाज में इनकी इतनी बदनामी होने लगी थी कि लोक लाज के अंतर्गत इन्हे ऐसा करना पड़ा.

मेरी नौवीं की परीक्षा संपन्न हो चुकी थी और इतने वर्षों जो कुछ भी ख़बर मुझे भाभी के बारे में मिलता रहा था उसने जहाँ एक ओर मेरा सारे परिवार के प्रति मन वितृष्णा से भर शादी ब्याह जैसे रिश्तों के प्रति भी मन में एक अजीब सी धारणा भर दी थी जो कहीं न कहीं इतने गहरे बैठ चुका था जिसके कारण कालांतर में मुझे विवाह के लिए राजी करने में माता पिता को बहुत ही कठिनाइयों का सामना करना पड़ा था. जो भाभी ममत्व की साक्षात् मूर्ति थीं,जिन्होंने पराये बच्चों को भी सदा अपने स्नेह से आप्लावित रखा था,जब मुझे पता चला की टी बी से ग्रस्त होने पर साल भर तक उन्हें अपने बच्चे को छूने नही दिया गया था.शारीरिक बीमारी ने जो दुर्दशा की थी उससे सैकड़ों गुना अधिक कष्ट उनके अपनों ने उन्हें देकर क्या पाया ,यह मुझे झकझोर जाता था.उनसे मिलने बातें करने को मैं इतनी बेचैन हो गई थी की किसी तरह माँ को मनाकर गाँव जाने की जुगत लगायी मैंने.

वर्षों बाद जिस स्त्री से मैं मिल रही थी वह किसी तरह जीवित एक हड्डियों का ढांचा मात्र थी..उनकी हालत देख बिलख पड़ी मैं.जितना गुस्सा मुझे घरवालों के आ रहा था उतना ही भाभी पर भी आया, कि इतना सारा कुछ उन्होंने क्यों झेला चुपचाप.क्यों इनलोगों को इतना अत्याचार करने दिया, कभी खुलकर प्रतिवाद क्यों न किया.एक दिन बहस कर ही बैठी उनसे.कि उनको कमजोर मान और जान ही लोगों ने उन्हें सताना अपने रोजमर्रा के मनोरंजन का साधन मान लिया है और इसके माध्यम से बड़े ही सुगमता से वे अपने अपने अहम् की तुष्टि किया करते हैं.भाभी ने जो उस दिन मुझे कहा वह ताउम्र अविस्मरनीय रहेगा मेरे लिए.पहली बार इस तरह से खुलकर उन्होंने मेरे सामने जीवन की वह सच्चाई रखी जिससे मुकर नही पाई थी मैं.उन्होंने कहा था "बचुवा यदि औरत का पति उसे उसका हक दे उसका सम्मान करे ,उसकी पीड़ा समझे तो परिवार में चाहकर भी कोई उस स्त्री को कष्ट नही दे सकता. यूँ सताने की नही सोच सकता.पर वही यदि उसे पीड़ित करने में सबसे आगे हो तो बाकी लोगों के हाथ तो खुले होते हैं,उन्हें कौन रोक सकता है.मेरे लिए तो कहीं जगह नही.ससुराल रही तो ये लोग हैं और बिना माँ बाप के मायके में भी भाभियाँ चार बातें सुना कोसकर ही खाना कपड़ा देती थीं. वह तो भाइयों ने अपनी पत्नियों से लड़कर इलाज करवाया नही तो भाभियों का बस चलता तो भीख का कटोरा दे सड़क पर बैठा देती.नाम है कि बड़े घर कि बेटी बहू हूँ तो कहीं दाई नौकर का काम कर भी इज्ज़त की रोटी जुटाने नही निकल सकती.बिटिया मेरी जिंदगी से यह सीख जरूर लेना कि पढ़ लिखकर अपनी ऐसी हैसियत जरूर बना लेना कि दो रोटी और इज्ज़त भरी जिंदगी के लिए इस तरह कभी जिल्लत न उठानी पड़े. जो पति परिवार प्यार सम्मान दे, तो उसपर जी जान लुटा देना पर यदि वह जान लेने को उतारू हो जाए तो अपनी जान भी न ले लेने देना.मैं प्रतिकार करती भी तो किस बल के बेटा ,किसका सहारा है मुझे.मेरे तो पूर्व जन्म के संचित पाप के फल रहे होंगे जिन्हें भुगत कर मुझे पार पाना है.ये लोग जो हर वक्त मुझे प्रताडित करते हैं ,गलियां देते ,कोसते रहते हैं इनकी बराबरी में उतरकर यदि मैं भी वही सब करने लगूं तो ऐसे संस्कार लाऊं कहाँ से. मैं यह सब कर अपना धर्म क्यों ख़राब करूँ............"
उन्होंने अपने धर्म की चाहे लाख समझाई हो पर उन दिनों मुझे उनका इस तरह अन्याय सहना सरासर अधर्म ही लगता था।उन दिनों उनकी असहाय स्थिति पुर्नरुपेन मैं नही समझ पायी थी. प्रतिवाद के लिए भी सहारे की आवश्यकता होती है चाहे वह आर्थिक समर्थता ही क्यों न हो बाद के वर्षों में इसी ने मुझे शायद आत्मनिर्भर बनने की सबसे बड़ी प्रेरणा दी॥

माँ से भी कभी कभी मैं लड़ पड़ती थी जब वे भाभी कि यह स्थिति देख समझ रही हैं और उस से क्षुब्ध भी हैं तो भाभी को अपने पास ही लाकर हमारे घर क्यों नही रखतीं..अथाह पीड़ा के साथ माँ ने कहा था एक बार कि बेटा उसी अभागी की भलाई के लिए उसे अपने पास नही रखती बेटा ,नही तो कोई बड़ी बात नही की तेरे चाचा चाची और विनय भइया उस बेचारी का नाम तेरे पिताजी के साथ जोड़ दें. ऐसे ही उसके लिए हम जो सहानुभूति रखते हैं उसके कारण कम नही सुनना पड़ता उसे.यह सब सुनकर कैसे सह पायेगी वह.मैं निरुत्तर हो गई थी..

भाभी के ह्रदय के शल्य चिकित्सा के बाद डाक्टरों ने शक्त हिदायत दी थी कि इनके खान पान तथा आराम का पूरा ख़याल रखा जाए तथा किसी भी हालत में अगले तीन वर्ष तक इनका गर्भवती होना इनके लिए मौत को दावत देने के बराबर है. डाक्टरों के निर्देशों का ठीक उलट पालन हुआ और डेढ़ साल बाद छः महीने के गर्भ के साथ भाभी परलोक सिधार गयीं.
भाभी की बरषी के अगले ही महीने ढेर सारे दान दहेज़ और धूम धाम के साथ विनय भइया की दूसरी शादी हो गई.दूसरी शादी में मिले इस भरपूर दहेज़ का कारण था पैंतीस पार कर चुकी इस कन्या का कुरूपा और कर्कशा के रूप में प्रसिद्द होना.के यह इश्वर की ही कृपा थी कि उन्होंने चाचा चाची के आंखों पर लोभ की वह पट्टी बाँध दी कि पैसे के सामने न ही चाचा चाची को कुछ देखने सोचने की जरुरत महसूस हुई न ही विनय भइया को क्योंकि बुरी तरह से बदनाम हो चुकी बडकी भाभी ने भी अपना प्रेम सम्बन्ध का आधार खींच भइया को अकेला कर दिया था. पर इस नई नवेली प्रौढा दुल्हन ने जब अपना रूप गुन दिखाया तो चाची के पास सिवाय सर धुनने के और कोई रास्ता न बचा था और समय ने भी वह सारा हिसाब चुका लिया जो उस बेचारी के दुखों का मूक गवाह था.

पर वह एक जिंदगी तमाम अच्छाइयों के बावजूद भी क्यों अभिशप्त रही यह आज भी मेरे समक्ष निरुत्तर है.







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10.7.08

माँ मेरी आर्त पुकार सुन...


कातर नयनो से निहार रही,
दृग भरे अश्रु भयभीत खड़ी।

किस हेतु ह्रदय पाषाण किया,
मुझको क्यों मृत्यु दान दिया।

मैं भी तो तेरी संतान हूँ माँ,
तेरी शक्ति औ पहचान हूँ माँ।

ममता का न अपमान यूँ कर,
स्त्रीत्व को न बलिदान तू कर।

मेरा जीवन अभिशाप नही,
बेटी होना कोई पाप नही।

मेरा न कर तू तिरस्कार,
अस्तित्व को न कर तार तार।

मुझको माँ तू स्वीकार कर,
श्रृष्टि को न निस्सार कर।

अपने ममत्व का प्रमाण दे,
मुझको तू जीवन दान दे।

क्या है मेरा तू दोष बता ,
कैसे कर लूँ संतोष बता।

माना भाई तुझे प्यारा है,
कुलदीपक तेरा सहारा है।

तेरा वह वंश बढ़ाएगा,
तुझको सम्मान दिलाएगा।

पर ज्यों मैं तुझको सुन सकती हूँ,
तेरे हर सुख दुख गुन सकती हूँ।

क्या नर वह सब सुन पायेगा,
अनकही तेरी गुन पायेगा।

मुझपर माता विश्वास तो कर,
मुझमे हिम्मत उत्साह तो भर।

मैं इस जग पर छा जाउंगी,
मैं भी तेरा मान बढाऊंगी।

ऐ जननी नारीत्व का मोल तोल,
शंसय के सारे बाँध खोल।

कर दे मेरा उद्धार ऐ माँ,
न ठहरा जग का भार ऐ माँ।

माँ मेरी आर्त पुकार सुन ,
मुझको अपना सौभाग्य चुन।

अब हर्ष से मुझको अपना ले,
उर में भर स्नेह तू बिखरा दे।

भर जाए यह मन मोद से ,
जन्मू तेरी जब कोख से।

जीवन सब का मैं संवारूंगी,
तेरे घर को स्वर्ग बनाऊँगी।

तेरे पथ के सब कांटे चुनु,
तेरे सारे सपने मैं बुनूं ।

मुझे शिक्षा दे संस्कार दे,
मुझे ममता और दुलार दे।

संस्कृति को पोषित मैं करूँ,
परहित निमित्त काया धरुं।

ऐ माँ !! मुझको आ जाने दे,
और इस जग पर छा जाने दे.
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7.7.08

अपनापन

देखो कैसा यह अपनापन,
मन ने तुमको मान लिया मन.

दुख हो सुख या हँसना रोना,
बांटे बिन है चैन कहीं ना .

बुद्धि तर्क कहाँ सुनता है,
यह तो अपनी ही करता है.

दुनियादारी की समझालो,
लाख बचाओ लाख सम्हालो.

यह तो बस बहता रहता है,
अपनी ही धुन में रमता है.

इसने तो इतना ही जाना,
धर्म ध्येय इतना भर माना.

प्रेम योग है एक साधना,
ईश्वर की ही है आराधना.

खोकर इसमे अहम् भाव को
करे परजित हर अभाव को.

प्रेम का तल जब गहरा छाना,
सम्भव तब ईश्वर को पाना.

धन वैभव क्या करना लेकर,
जब साथ न हो कोई अपना होकर.

मन को मन से बांधो ऐसे,
साँस से बंधा देह हो जैसे.

प्रेम तभी पूरन कहलाये,
चार आँख जो साथ बहाए.

दो मुस्कान साथ जब खिलता,
तब ही मानो दो मन मिलता.

5.7.08

आरम्भ तुम्ही,अवसान भी तुम

जिस पल प्राणों के गह्वर में,आकर तुमने डाला डेरा.

मन यूँ घुलमिल एकाकार हुआ,बस काया भर का भेद रहा.

ज्यों ही स्वयं को तुमको सौंपा, मेरा मुझमे न अवशेष बचा.

तुम मुझमे रचे बसे ऐसे,ज्यों रजनीगंधा हो सुवास भरा .

तुम से ही दिन और रैन सजा ,तुमसे ही साज सिंगार रचा.

तुम से ही साँसें संचालित,तुम से ही तो है सुहाग मेरा.

तुम ने ही मेरी गोद भरी ,और पूर्ण हुआ मातृत्व मेरा.

तुम ही हो सुख दुःख के संगी,तुम से ही हास विलास मेरा.

कण कण में मेरे व्याप्त तुम्ही,हर रोम में बसा स्नेह तेरा.

नयनों में पलते स्वप्न तुम्ही,तुमसे ही आदि अंत मेरा.

जीवन पथ के संरक्षक तुम,निष्कंटक करते पंथ सदा .

तुमने जो ओज भरा मुझमे, दुष्कर ही नही कोई कर्म बचा.

जितने भी नेह के नाते हैं,तुममे हर रूप को है पाया.

आरम्भ तुम्ही अवसान भी तुम,प्रिय तुमसे है सौभाग्य मेरा........

3.7.08

रामायण के आलोच्य प्रसंगों के निहितार्थ........(व्यक्तिगत दृष्टिकोण)

पूर्व जन्म के संचित पुण्य कर्म रहे होंगे कि जिस घर में जन्म पाया,माहौल अत्यन्त धार्मिक था.धर्म ग्रंथों,धार्मिक पुस्तक पत्र पत्रिकाओं,कथा प्रवचनों तथा धर्म चर्चाओं के बीच ही बचपन पला बढ़ा.छोटी उम्र में ही बहुत कुछ पढने जानने का अवसर मिला परन्तु रामचरित मानस ने जहाँ उस बालमन को बहुत गहरे बांध प्रभावित किया , वहीँ कुछ प्रश्न भी मन पर उकेर गया जो कई वर्षों तक अनुत्तरित रहा .उत्तर पाने की व्यग्रता लगातार बनी रही और बहुत कुछ पढने आख्यान सुनने के बाद भी यथोचित उत्तर न पा सकी.

मन यह मानता था कि चाहे किसी भी धर्म के ग्रन्थ हों,ये व्यक्ति समाज को दिशा दे सुगठित करने के निमित होतें हैं जो पूर्णरूपेण दोषमुक्त न भी हों तो भी ऐसा कुछ भी प्रतिपादित नही करते जिसमे किसी के भी अहित के निमित्त कोई प्रावधान या संभावना हो .फ़िर हिंदू धर्म और इसके धर्मग्रन्थ तो प्रत्येक धर्म और पंथ का पथप्रदर्शक रहा है.इसमे ऐसी गुंजाईश नही कि सम्पूर्ण मानव हित की बात न हो.इसमे भी तुलसीकृत रामायण तो सबका सिरमौर है.जिस प्रकार से यह व्यक्ति,समाज के चरित्र गठन का प्रयास है वह अद्भुत और अन्यतम है.प्रेम भक्ति और धर्म कर्तब्य का जो सर्वोच्च सुगठित रूप प्रस्तुत करता है वह किसी भी देश काल के लिए अनुकरणीय तथा सर्वथा निर्दोष आख्यान बन पड़ा है.जो समुदाय तुलसी पर नारी और शूद्रों की उपेक्षा का आरोप लगाता रहा है,संभवतः उनकी "ढोल गंवार शूद्र पशु नारी,सकल ताड़ना के अधिकारी " कथन के आधार पर, उक्ति उधृत करते समय वह यह स्मरण नही रख पाता कि इसी नारी की,शूद्रों की मान सम्मान प्रतिष्ठित करने हेतु उन्होंने कितने घटनाक्रम एवं पात्र चित्रित कर भक्ति,प्रेम, कर्तब्य,निष्ठा आदि के अनगिनत उद्धरण रचित किए हैं...चाहे वे शबरी हों,निषाद हों या वानर भालू. आज अगर तुलसीदास जी होते तो एक बार अवश्य माथा पीटकर कहते कि भइया इतनी बड़ी पुस्तक लिख डाली उसमे आपको बस यही एक दोहा मिला????

मुझे लगता है सीधे सीधे लोगों ने इस "ताड़ना" को "मारना" अर्थ में ले लिया है और जैसे ही ध्यान में मारना ,ताड़ना प्रताड़ना आता है तो लोग बिफर उठते हैं.जबकि एक बड़ी ही सीधी सरल बात उन्होंने कही जो कहीं से भी अनुचित नही है यदि वर्तमान सन्दर्भ में भी इसे देखें तो.. इस ''ताड़ना" को 'नियंत्रण' के अर्थ में लेना चाहिए.यथा ढोल से यदि सही लय ताल निकालनी हो तो उसे पीटना तो पड़ेगा ही और वह भी नियंत्रित रूप से अन्यथा सुर ताल सामंजस्य बनने से रहा."गंवार और शूद्र" भी उन्होंने "मूर्ख" के अर्थ में ही प्रयुक्त किया.अब देखिये न मूर्ख यदि शक्ति संपन्न हो जाए और साथ में यह शक्ति अनियंत्रित हो तो अवस्था की परिकल्पना की जा सकती है. उदहारण हेतु कहीं अन्यत्र नही जाना होगा अपने जनप्रतिनिधियों और भाई(गुंडे)लोगों को हम देख सकते हैं.अब कमोबेश यही सब हिंसक पशुओं तथा अविवेकी स्त्रियों के लिए भी कहा गया. दृष्टान्तों की कमी नही कि दुष्ट हृदय स्त्री यदि नियंत्रित न हो तो अपनी असीमित शक्तियों का दुरूपयोग कर वह इतिहास बदल सकती है.

अब बात उन शंशयों की,जो मेरे मानसपटल पर वर्षों तक आच्छादित रह अनुत्तरित रहे थे.राम के चरित्र वर्णन क्रम में तुलसीदास जैसे युगद्रष्टा,आदर्श चरित्र के स्थापना की चाह रखने वाले विद्वान् से यह चूक कैसे हुई कि जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में कर्म का सर्वोच्च निष्पादन कर धर्म और आदर्श की स्थापना करने वाले राम ने एक पति रूप में अपनी प्रिय भामिनी सीता के साथ जो कठोरता बरती उसका प्रतिवाद उन्होंने नही किया इसके लिए राम को दोषी नही माना,मेरे लिए बड़ी ही कचोटने वाली बात थी..वह कर्म व्यवहार जो मर्यादा पुरुसोत्तम ने एक पति रूप में निष्पादित किए थे क्या वे उचित थे,सर्वसाधारण द्वारा पूर्णरूपेण ग्राह्य होने चाहिए? क्या इस से सचमुच ही एक स्त्री एक पत्नी के अधिकारों की उपेक्षा अवमानना नही होती?राम को पूज्य ठहरा उनके इस व्यवहार की निंदा भर्त्सना तुलसीदासजी ने कैसे नही की,यह मुझे बड़ा ही अखरा करता था.जिस भार्या ने जीवन के हर पग पर राम का साथ दिया,अपने पत्नी धर्म का सर्वदा पूर्णरूपेण निर्वहन किया,उसे बार बार इस तरह अपमान का गरल क्यों पीना पड़ा,कभी सारे समाज के सामने अग्निपरीक्षा देकर तो कभी गर्भावस्था में पतिद्वारा परित्यक्ता होकर. .राम फ़िर भी भगवान् बने रहे और एक कुलवधू,पत्नी और माता को प्रताडित करने वाले का प्रतिवाद करने वाला, उस से प्रश्न पूछने वाला,उन्हें दोषी मानने वाला कोई न रहा.....सीता कब कहाँ अपने पत्नी धर्म से रंचमात्र भी च्युत हुईं.वनवास तो राम को मिला था पर कठिन समय में पति का साथ निभाने को सीता ने सुख वैभव का परित्याग किया.एक राजरानी साधारण स्त्री की भांति वन में पति और देवर के सुख सुविधा में जुटी बन बन भटकती रही. रावण को भिक्षा दान के समय भी रेखा का उल्लंघन उन्होंने एक साधू के श्राप से घर परिवार को निष्कंटक रखने हेतु ही किया था.रावण की कैद में अपमान का प्रतिपल गरल पीते हुए भी इस हेतु देह को धरे रखा कि वह जानती थीं कि वही प्रियतम के प्रेम और मनोबल का आधार थीं जिसे किसी कीमत पर आघात पहुँचने नही दे सकती थीं वो पतिव्रता.और वही प्रियतम लोकापवाद से भय ग्रस्त हो कैसे अपनी कोमलांगी कामिनी प्राणप्रिया को अग्नि के सुपुर्द करने को प्रस्तुत हो गए,इसकी वेदना सीता को उस वेदना से निःसंदेह अधिक बड़ी और भारी पड़ी होगी जो उन्हें रावण द्वारा हरण और प्रताड़ना के कष्ट से मिली होगी.क्यों नही राम ने बिना परीक्षा के ही यह मान लिया की सीता के सतीत्व पर प्रश्न उठाना ही सबसे बड़ा पाप है.चाहे राम ने एक पुत्र,भाई,शिष्य,राजा या पिता हर रूप में कर्तब्य परायणता की मिसाल दी हो पर यह मानना ही पड़ेगा कि एक पति रूप में पतिधर्म निर्वहन को उन्होंने कभी प्राथमिकता नही दी.इस कलंक से मुक्त सचमुच ही राम का व्यक्तित्व नही हो सकता.भले जीवन पर्यंत सीता ने राम पर दोषारोपण नही किया हो.समस्त समाज के सम्मुख अग्निशिखा से गुजर यदि एक पटरानी को अपना सतीत्व साबित करना पड़े तो इस से अधिक दुर्भाग्य जनक और क्या बात हो सकती थी.पर सवाल यह उठता है कि वहां उपस्थित वह पूरा समाज जो इस तथ्य से पूर्णतया भिज्ञ था कि सीता राम के लिए क्या महत्व रखती है या सीता के सतीत्व पर प्रश्न चिन्ह लगना इन दोनों के ही मान और प्रेम का अपमान करना है,तो फ़िर वह एक पूरा समाज राम के प्रस्ताव को सिरे से खारिज क्यों न कर सका,इस घटना को रोक क्यों नही सका?यदि राम स्वामी और पिता तुल्य थे सबके लिए तो सीता भी तो माता थीं ,माता का यह अपमान किसी भी अवस्था में सह्या होना सर्वथा अनुचित था. यह घटना उस पूरे समाज की कायरता और संवेदनहीनता का प्रतीक है.

. अयोध्या पहुंचकर सीता ने अपनी गृहस्थी सम्हाली और वंश के नवांकुरों को अपने गर्भ में धारण किया.अब प्रश्न यह उठता है कि राम यदि राजा थे तो सीता भी तो राजमहिषी थीं.राम के अधिकार यदि असीमित थे तो सीता के भी तो कुछ अधिकार होने चाहिए.थे .एक पटरानी के रूप में न भी सही तो राम के राज्य की एक नागरिक ,एक गर्भवती स्त्री, कुलवधू के क्या इतने भी अधिकार नही थे कि जिस राज्य में एक धोबी की भी सुनी जाती हो,उसका न्याय किया जाता हो,उसे संतुष्ट किया जाता हो वहां एक अबला को किसी के दोषारोपण पर परित्यक्त कर वन में निसहाय भटकने हेतु छोड़ दिया जाए.और इस कुकृत्य को रोकने वाला भी कोई नही हो.एक राजा का कर्तब्य तो स्थापित हो गया,सुकीर्ति पताका चहुँ और फहरा गया ,पर एक पति के कर्तब्य का क्या हुआ और जनमानस के सम्मुख कौन सा आदर्श उपस्थित हुआ?

वर्षों तक यह बात मुझे पीड़ित करती रही और तुलसी और राम के आदर्श को मानने को सहज ही मन प्रस्तुत नही होता था. पर अनायास ही जीवन में अपने आस पास कुछ ऐसा घटित होते देखा कि एक दिन यह अनुत्तरित प्रश्न अपनी पूर्ण समीक्षा के साथ मनोभूमि पर अवतरित हो गया.लगा कैसे इतने दिन दिग्भ्रमित रही,सबकुछ तो पूर्ण रूपेण स्पष्ट वर्णित ही है रामचरित में,सम्पूर्ण घटनाक्रम अपने परिणाम और आदर्श के साथ सबको करणीय अकरणीय का भेद बताता हुआ.
जब अश्वमेघ यज्ञ के दिगंत विजय को छोड हुए अश्वों को नन्हे रामपुत्रों लव कुश ने खेल खेल में सहज ही पकड़ कर बाँध लिया,राजा राम की विश्व विजयी अजेय सैन्य बल का लक्षमण ,हनुमान समेत उन बालकों ने दर्प दमन किया.उस समय वे दोनों बालक राम के नही सीता के शक्ति थे.सीता के तप और सतीत्व के बल थे,जिसके सम्मुख प्रत्येक बल परास्त हो गया. जब राम ने सीता को साथ लौट चलने का प्रस्ताव दिया तो सीता ने एकमुश्त अपने समस्त अपमान का प्रतिकार लेते हुए अपनी पवित्रता और आत्मसम्मान का महत्व बताते हुए राम के साथ साथ उस पूरे समाज से वह प्रतिदान लिया जिसने सबको रिक्तहस्त हतप्रभ कर रख छोडा.राम पिता पुत्र भाई शाशक आदि आदि सबकुछ तो रह गए पर पति न रह सके.राम के जीवन की वह जीवनी शक्ति जिसके बल पर राम बलि थे एक पत्नी ने अपने देह को धरित्री के खोख में समाहित कर सीता ने उस बल को होम कर दिया.देखिये न,चाहे किसी भी भाषा में लिखी हो,पर सीता प्रयाण के बाद रामचरित्र किस तरह निस्तेज सा हो विराम पा जाता है जबकि उसके बाद भी वर्षों तक राम इस धरती पर विद्यमान रहे थे.

तुलसीदास ने कितनी स्पष्टता से यह सिद्ध कर समाज के सामने सत्य रख दिया कि जिस समाज में स्त्री का समुचित सम्मान न हो तो उस समाज का विकास सम्भव ही नही.पति चाहे वह राम जैसे सर्वसमर्थ व्यक्ति ही क्यों न हो,यदि उन्होंने पत्नी के मान सम्मान और अधिकार के संरक्षण का यथोचित उपक्रम नही किया तो कभी सुखी दांपत्य जीवन का उपभोग नही कर पाएंगे. स्त्री त्याग,करुना,क्षमा,प्रेम की प्रतिमूर्ति सही,कई बार अपमान की पीड़ा सह क्षमा दान दे उसकी गृहस्थी संचालित करने में अपना सबकुछ अर्पित कर सकती है. पर यदि पुरूष इसे उसकी शक्तिहीनता माने और बार बार यह प्रयास दुहराने लगे तो स्त्री यदि प्रतिकार ले ले तो उसके हाथ क्या लगेगा.यदि वह उसका सम्मान नही कर पायेगा,उसके स्नेह को नही समझ पायेगा,उसे प्रताडित करना,उपेक्षित करना अधिकार मानने लगेगा, तो राजा हो या रंक जीवन पर्यंत स्नेह और सुख से वंचित ही रहना पड़ेगा........ .