पूर्व जन्म के संचित पुण्य कर्म रहे होंगे कि जिस घर में जन्म पाया,माहौल अत्यन्त धार्मिक था.धर्म ग्रंथों,धार्मिक पुस्तक पत्र पत्रिकाओं,कथा प्रवचनों तथा धर्म चर्चाओं के बीच ही बचपन पला बढ़ा.छोटी उम्र में ही बहुत कुछ पढने जानने का अवसर मिला परन्तु रामचरित मानस ने जहाँ उस बालमन को बहुत गहरे बांध प्रभावित किया , वहीँ कुछ प्रश्न भी मन पर उकेर गया जो कई वर्षों तक अनुत्तरित रहा .उत्तर पाने की व्यग्रता लगातार बनी रही और बहुत कुछ पढने आख्यान सुनने के बाद भी यथोचित उत्तर न पा सकी.
मन यह मानता था कि चाहे किसी भी धर्म के ग्रन्थ हों,ये व्यक्ति समाज को दिशा दे सुगठित करने के निमित होतें हैं जो पूर्णरूपेण दोषमुक्त न भी हों तो भी ऐसा कुछ भी प्रतिपादित नही करते जिसमे किसी के भी अहित के निमित्त कोई प्रावधान या संभावना हो .फ़िर हिंदू धर्म और इसके धर्मग्रन्थ तो प्रत्येक धर्म और पंथ का पथप्रदर्शक रहा है.इसमे ऐसी गुंजाईश नही कि सम्पूर्ण मानव हित की बात न हो.इसमे भी तुलसीकृत रामायण तो सबका सिरमौर है.जिस प्रकार से यह व्यक्ति,समाज के चरित्र गठन का प्रयास है वह अद्भुत और अन्यतम है.प्रेम भक्ति और धर्म कर्तब्य का जो सर्वोच्च सुगठित रूप प्रस्तुत करता है वह किसी भी देश काल के लिए अनुकरणीय तथा सर्वथा निर्दोष आख्यान बन पड़ा है.जो समुदाय तुलसी पर नारी और शूद्रों की उपेक्षा का आरोप लगाता रहा है,संभवतः उनकी "ढोल गंवार शूद्र पशु नारी,सकल ताड़ना के अधिकारी " कथन के आधार पर, उक्ति उधृत करते समय वह यह स्मरण नही रख पाता कि इसी नारी की,शूद्रों की मान सम्मान प्रतिष्ठित करने हेतु उन्होंने कितने घटनाक्रम एवं पात्र चित्रित कर भक्ति,प्रेम, कर्तब्य,निष्ठा आदि के अनगिनत उद्धरण रचित किए हैं...चाहे वे शबरी हों,निषाद हों या वानर भालू. आज अगर तुलसीदास जी होते तो एक बार अवश्य माथा पीटकर कहते कि भइया इतनी बड़ी पुस्तक लिख डाली उसमे आपको बस यही एक दोहा मिला????
मुझे लगता है सीधे सीधे लोगों ने इस "ताड़ना" को "मारना" अर्थ में ले लिया है और जैसे ही ध्यान में मारना ,ताड़ना प्रताड़ना आता है तो लोग बिफर उठते हैं.जबकि एक बड़ी ही सीधी सरल बात उन्होंने कही जो कहीं से भी अनुचित नही है यदि वर्तमान सन्दर्भ में भी इसे देखें तो.. इस ''ताड़ना" को 'नियंत्रण' के अर्थ में लेना चाहिए.यथा ढोल से यदि सही लय ताल निकालनी हो तो उसे पीटना तो पड़ेगा ही और वह भी नियंत्रित रूप से अन्यथा सुर ताल सामंजस्य बनने से रहा."गंवार और शूद्र" भी उन्होंने "मूर्ख" के अर्थ में ही प्रयुक्त किया.अब देखिये न मूर्ख यदि शक्ति संपन्न हो जाए और साथ में यह शक्ति अनियंत्रित हो तो अवस्था की परिकल्पना की जा सकती है. उदहारण हेतु कहीं अन्यत्र नही जाना होगा अपने जनप्रतिनिधियों और भाई(गुंडे)लोगों को हम देख सकते हैं.अब कमोबेश यही सब हिंसक पशुओं तथा अविवेकी स्त्रियों के लिए भी कहा गया. दृष्टान्तों की कमी नही कि दुष्ट हृदय स्त्री यदि नियंत्रित न हो तो अपनी असीमित शक्तियों का दुरूपयोग कर वह इतिहास बदल सकती है.
अब बात उन शंशयों की,जो मेरे मानसपटल पर वर्षों तक आच्छादित रह अनुत्तरित रहे थे.राम के चरित्र वर्णन क्रम में तुलसीदास जैसे युगद्रष्टा,आदर्श चरित्र के स्थापना की चाह रखने वाले विद्वान् से यह चूक कैसे हुई कि जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में कर्म का सर्वोच्च निष्पादन कर धर्म और आदर्श की स्थापना करने वाले राम ने एक पति रूप में अपनी प्रिय भामिनी सीता के साथ जो कठोरता बरती उसका प्रतिवाद उन्होंने नही किया इसके लिए राम को दोषी नही माना,मेरे लिए बड़ी ही कचोटने वाली बात थी..वह कर्म व्यवहार जो मर्यादा पुरुसोत्तम ने एक पति रूप में निष्पादित किए थे क्या वे उचित थे,सर्वसाधारण द्वारा पूर्णरूपेण ग्राह्य होने चाहिए? क्या इस से सचमुच ही एक स्त्री एक पत्नी के अधिकारों की उपेक्षा अवमानना नही होती?राम को पूज्य ठहरा उनके इस व्यवहार की निंदा भर्त्सना तुलसीदासजी ने कैसे नही की,यह मुझे बड़ा ही अखरा करता था.जिस भार्या ने जीवन के हर पग पर राम का साथ दिया,अपने पत्नी धर्म का सर्वदा पूर्णरूपेण निर्वहन किया,उसे बार बार इस तरह अपमान का गरल क्यों पीना पड़ा,कभी सारे समाज के सामने अग्निपरीक्षा देकर तो कभी गर्भावस्था में पतिद्वारा परित्यक्ता होकर. .राम फ़िर भी भगवान् बने रहे और एक कुलवधू,पत्नी और माता को प्रताडित करने वाले का प्रतिवाद करने वाला, उस से प्रश्न पूछने वाला,उन्हें दोषी मानने वाला कोई न रहा.....सीता कब कहाँ अपने पत्नी धर्म से रंचमात्र भी च्युत हुईं.वनवास तो राम को मिला था पर कठिन समय में पति का साथ निभाने को सीता ने सुख वैभव का परित्याग किया.एक राजरानी साधारण स्त्री की भांति वन में पति और देवर के सुख सुविधा में जुटी बन बन भटकती रही. रावण को भिक्षा दान के समय भी रेखा का उल्लंघन उन्होंने एक साधू के श्राप से घर परिवार को निष्कंटक रखने हेतु ही किया था.रावण की कैद में अपमान का प्रतिपल गरल पीते हुए भी इस हेतु देह को धरे रखा कि वह जानती थीं कि वही प्रियतम के प्रेम और मनोबल का आधार थीं जिसे किसी कीमत पर आघात पहुँचने नही दे सकती थीं वो पतिव्रता.और वही प्रियतम लोकापवाद से भय ग्रस्त हो कैसे अपनी कोमलांगी कामिनी प्राणप्रिया को अग्नि के सुपुर्द करने को प्रस्तुत हो गए,इसकी वेदना सीता को उस वेदना से निःसंदेह अधिक बड़ी और भारी पड़ी होगी जो उन्हें रावण द्वारा हरण और प्रताड़ना के कष्ट से मिली होगी.क्यों नही राम ने बिना परीक्षा के ही यह मान लिया की सीता के सतीत्व पर प्रश्न उठाना ही सबसे बड़ा पाप है.चाहे राम ने एक पुत्र,भाई,शिष्य,राजा या पिता हर रूप में कर्तब्य परायणता की मिसाल दी हो पर यह मानना ही पड़ेगा कि एक पति रूप में पतिधर्म निर्वहन को उन्होंने कभी प्राथमिकता नही दी.इस कलंक से मुक्त सचमुच ही राम का व्यक्तित्व नही हो सकता.भले जीवन पर्यंत सीता ने राम पर दोषारोपण नही किया हो.समस्त समाज के सम्मुख अग्निशिखा से गुजर यदि एक पटरानी को अपना सतीत्व साबित करना पड़े तो इस से अधिक दुर्भाग्य जनक और क्या बात हो सकती थी.पर सवाल यह उठता है कि वहां उपस्थित वह पूरा समाज जो इस तथ्य से पूर्णतया भिज्ञ था कि सीता राम के लिए क्या महत्व रखती है या सीता के सतीत्व पर प्रश्न चिन्ह लगना इन दोनों के ही मान और प्रेम का अपमान करना है,तो फ़िर वह एक पूरा समाज राम के प्रस्ताव को सिरे से खारिज क्यों न कर सका,इस घटना को रोक क्यों नही सका?यदि राम स्वामी और पिता तुल्य थे सबके लिए तो सीता भी तो माता थीं ,माता का यह अपमान किसी भी अवस्था में सह्या होना सर्वथा अनुचित था. यह घटना उस पूरे समाज की कायरता और संवेदनहीनता का प्रतीक है.
. अयोध्या पहुंचकर सीता ने अपनी गृहस्थी सम्हाली और वंश के नवांकुरों को अपने गर्भ में धारण किया.अब प्रश्न यह उठता है कि राम यदि राजा थे तो सीता भी तो राजमहिषी थीं.राम के अधिकार यदि असीमित थे तो सीता के भी तो कुछ अधिकार होने चाहिए.थे .एक पटरानी के रूप में न भी सही तो राम के राज्य की एक नागरिक ,एक गर्भवती स्त्री, कुलवधू के क्या इतने भी अधिकार नही थे कि जिस राज्य में एक धोबी की भी सुनी जाती हो,उसका न्याय किया जाता हो,उसे संतुष्ट किया जाता हो वहां एक अबला को किसी के दोषारोपण पर परित्यक्त कर वन में निसहाय भटकने हेतु छोड़ दिया जाए.और इस कुकृत्य को रोकने वाला भी कोई नही हो.एक राजा का कर्तब्य तो स्थापित हो गया,सुकीर्ति पताका चहुँ और फहरा गया ,पर एक पति के कर्तब्य का क्या हुआ और जनमानस के सम्मुख कौन सा आदर्श उपस्थित हुआ?
वर्षों तक यह बात मुझे पीड़ित करती रही और तुलसी और राम के आदर्श को मानने को सहज ही मन प्रस्तुत नही होता था. पर अनायास ही जीवन में अपने आस पास कुछ ऐसा घटित होते देखा कि एक दिन यह अनुत्तरित प्रश्न अपनी पूर्ण समीक्षा के साथ मनोभूमि पर अवतरित हो गया.लगा कैसे इतने दिन दिग्भ्रमित रही,सबकुछ तो पूर्ण रूपेण स्पष्ट वर्णित ही है रामचरित में,सम्पूर्ण घटनाक्रम अपने परिणाम और आदर्श के साथ सबको करणीय अकरणीय का भेद बताता हुआ.
जब अश्वमेघ यज्ञ के दिगंत विजय को छोड हुए अश्वों को नन्हे रामपुत्रों लव कुश ने खेल खेल में सहज ही पकड़ कर बाँध लिया,राजा राम की विश्व विजयी अजेय सैन्य बल का लक्षमण ,हनुमान समेत उन बालकों ने दर्प दमन किया.उस समय वे दोनों बालक राम के नही सीता के शक्ति थे.सीता के तप और सतीत्व के बल थे,जिसके सम्मुख प्रत्येक बल परास्त हो गया. जब राम ने सीता को साथ लौट चलने का प्रस्ताव दिया तो सीता ने एकमुश्त अपने समस्त अपमान का प्रतिकार लेते हुए अपनी पवित्रता और आत्मसम्मान का महत्व बताते हुए राम के साथ साथ उस पूरे समाज से वह प्रतिदान लिया जिसने सबको रिक्तहस्त हतप्रभ कर रख छोडा.राम पिता पुत्र भाई शाशक आदि आदि सबकुछ तो रह गए पर पति न रह सके.राम के जीवन की वह जीवनी शक्ति जिसके बल पर राम बलि थे एक पत्नी ने अपने देह को धरित्री के खोख में समाहित कर सीता ने उस बल को होम कर दिया.देखिये न,चाहे किसी भी भाषा में लिखी हो,पर सीता प्रयाण के बाद रामचरित्र किस तरह निस्तेज सा हो विराम पा जाता है जबकि उसके बाद भी वर्षों तक राम इस धरती पर विद्यमान रहे थे.
तुलसीदास ने कितनी स्पष्टता से यह सिद्ध कर समाज के सामने सत्य रख दिया कि जिस समाज में स्त्री का समुचित सम्मान न हो तो उस समाज का विकास सम्भव ही नही.पति चाहे वह राम जैसे सर्वसमर्थ व्यक्ति ही क्यों न हो,यदि उन्होंने पत्नी के मान सम्मान और अधिकार के संरक्षण का यथोचित उपक्रम नही किया तो कभी सुखी दांपत्य जीवन का उपभोग नही कर पाएंगे. स्त्री त्याग,करुना,क्षमा,प्रेम की प्रतिमूर्ति सही,कई बार अपमान की पीड़ा सह क्षमा दान दे उसकी गृहस्थी संचालित करने में अपना सबकुछ अर्पित कर सकती है. पर यदि पुरूष इसे उसकी शक्तिहीनता माने और बार बार यह प्रयास दुहराने लगे तो स्त्री यदि प्रतिकार ले ले तो उसके हाथ क्या लगेगा.यदि वह उसका सम्मान नही कर पायेगा,उसके स्नेह को नही समझ पायेगा,उसे प्रताडित करना,उपेक्षित करना अधिकार मानने लगेगा, तो राजा हो या रंक जीवन पर्यंत स्नेह और सुख से वंचित ही रहना पड़ेगा........ .
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यथार्थ, सटीक और विचारणीय लेख के लिए साधुवाद।
रंजना सिंह जी, पहली बार आया आप के ब्लांग पर,सोचा यु ही कुछ पढने को मिलेगा जेसा कि आज कल लिखा जाता हे.. लेकिन जेसे जेसे आप का लेख पढता गया,ओर एक एक शव्द पढा, सच मे खो सा गया,आप ने सच लिखा हे यदि वह उसका सम्मान नही कर पायेगा,उसके स्नेह को नही समझ पायेगा,उसे प्रताडित करना,उपेक्षित करना अधिकार मानने लगेगा, तो राजा हो या रंक जीवन पर्यंत स्नेह और सुख से वंचित ही रहना पड़ेगा........ .
बहुत धन्यवाद
रचना जी प्रणाम
जो हम आज पढ़ रहे हैं उसको जिसने भी लिखा है ये उसका नजरिया था। लेखक स्वतंत्र तो है न अपने मन की सोच ही तो उड़ेलता है हर लेख में। पढ़ने वाले या उस लिखे का अनुसरण करने वाले का अपना विवेक अलग महत्व रखता है। उसका कितना और कहां सही या गलत कितना अपयोग करता है, ये अलग बात है। बाकी प्रामाणिक कुछ होता तो प्रति्क्रिया करने का अर्थ भी था। अब तो सिर्फ आस्था का सहारा है सबको। कहने का मतलब आस्था विवेक पर भारी रही है इसिलिए प्रश्नों का जन्मना लाजमी है।
रचना जी प्रणाम
जो हम आज पढ़ रहे हैं उसको जिसने भी लिखा है ये उसका नजरिया था। लेखक स्वतंत्र तो है न अपने मन की सोच ही तो उड़ेलता है हर लेख में। पढ़ने वाले या उस लिखे का अनुसरण करने वाले का अपना विवेक अलग महत्व रखता है। उसका कितना और कहां सही या गलत कितना अपयोग करता है, ये अलग बात है। बाकी प्रामाणिक कुछ होता तो प्रति्क्रिया करने का अर्थ भी था। अब तो सिर्फ आस्था का सहारा है सबको। कहने का मतलब आस्था विवेक पर भारी रही है इसिलिए प्रश्नों का जन्मना लाजमी है।
बहुत ही गहरा पैठ लगता है .जिन्होंने पढ़ा वो ऊपर के अर्थ लिए आपने मनन किया तो सही निष्कर्ष तक पहुच गए .बहुत बहुत बधाई इस सुंदर पोस्ट के लिए. रंजना जी सच कहूँ तो मैंने सोच रखा था इस पर लिखूं, अच्छा हुआ आपने लिख दिया कीमती शब्द शायद ही ला पाटा ,और गहराई तक उतरने का धर्य भी न था .
आभार आपका. आता रहूँगा अब.
सराहनीय प्रयास है। कुतर्क करने वालों को तर्कसम्मत उत्तर देने के लिये साधुवाद। आशा है भविष्य में भी आप इस प्रक्रिया को आगे बढ़ायेंगे।
"ढोल गंवार शूद्र पशु नारी,सकल ताड़ना के अधिकारी "
मैंने कहीं पढ़ा है, यहां 'ताड़ना' शब्द वस्तुत: 'ताड़न' है। 'ताड़न' मतलब समझ, संवेदना अथवा सहानुभूति। इस तरह पद का अर्थ हुआ कि ढोल, गंवार, शूद्र, पशु व नारी के साथ सहानुभूतिपूर्ण व्यवहार होना चाहिए।
रंजना जी, लकीर तोड़नेवाले इस लेख के लिए धन्यवाद। पढ़ना बहुत अच्छा लगा।
बहुत शानदार विश्लेषण है. भाषा की जितनी सराहना की जाय, कम है.
कुतर्क करने वालों का क्या है..कुतर्क करना तो बड़ा सरल है. कठिन तो तर्क करना है. जहाँ तक सीता के प्रति राम के व्यवहार की बात है तो यह भी कहा जा सकता है कि चूंकि राम को एक आदर्श पुरूष के रूप में दिखाना था तो ऐसा हुआ. आख़िर आदर्श पुरूष भी तो बिना किसी न किसी कमी के नहीं रहता.
प्रिय रंजना जी ,
आपका लेख पढ़ा.बहुत ही अच्छा लगा.
''ढोल गंवार शूद्र पशु नारी,सकल ताड़ना के अधिकारी''
रामचरित मानस की इस चौपाई के सम्बन्ध में समाज के कुछ वर्ग विशेष में भ्रांतियां फैली हुई हैं.आपने अपने लेख में विवेकपूर्ण अर्थ करते हुए भ्रान्ति का निराकरण किया है,जो सराहनीय है.
सधन्यवाद.
मुन्ना पाण्डेय
पर सीता प्रयाण के बाद रामचरित्र किस तरह निस्तेज सा हो विराम पा जाता है जबकि उसके बाद भी वर्षों तक राम इस धरती पर विद्यमान रहे थे.
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यह तो आपने सोचने को बाध्य कर दिया। लगता तो ऐसा ही है।
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