तुमने तो स्वयं को समेट लिया,
मैं तुम बिन धूल बनी बिखरी.
आंधी आई तो संग उडी,
जो जल बरसा तो बह निकली.
रिश्तों ने भी मुंह मोड़ लिया,
हर अपना कुछ और तोड़ गया.
ज्यों ही तुमने ऊँगली छोडी ,
हो विदा जहाँ से विमुख हुए,
क्या जानो मुझपर क्या गुजरी,
कैसे जीवन मे तमस घिरी.
साँसें अब हैं ठहरी ठहरी,
धड़कन गुमसुम सहमी सहमी.
सपने भी तो हैं स्याह हुए,
आशा की लड़ियाँ हैं बिखरी.
नयनो मे कांटे उग आए,
यह ह्रदय हुआ छलनी छलनी.
नींदें पलकों को छोड़ गई,
अधरों पर मौन जमी ठहरी.
कुछ भान नही रहता मुझको,
कब किरण खिली कब रात ढली.
जाने क्यों हूँ अब भी जीती ,
जाने अब क्या है आस बची.
किंचित अंतस मे तेरा बसना,
स्मृति मे हर पल का रमना.
मेरा है जीवन श्रोत वही,
मेरे होने का कारण भी.
जबतक मुझमे तुम जीते हो,
बिन देह भी मैं निर्जीव नही.
अनुभूति तेरे होने भर का,
अस्तित्व मेरा संचालित करती.
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10 comments:
जबतक मुझमे तुम जीते हो,
बिन देह भी मैं निर्जीव नही.
अनुभूति तेरे होने भर का,
अस्तित्व मेरा संचालित करती.
bahut hi sunder abhivayakti Rachna ji
pyaar yahi hai ki jab tak mujhmain zinda ho main zinda hoon
ek nari ki manodasha ko apne bakhubi likha hai, samarpan aur tyag isme dikhata hai. achchi rachna.
नींदें पलकों को छोड़ गई,
अधरों पर मौन जमी ठहरी.
कुछ भान नही रहता मुझको,
कब किरण खिली कब रात ढली.
जाने क्यों हूँ अब भी जीती ,
जाने अब क्या है आस बची.
आस बनाए रखे ..सुंदर रचना लिखी है
जबतक मुझमे तुम जीते हो,
बिन देह भी मैं निर्जीव नही.
अनुभूति तेरे होने भर का,
अस्तित्व मेरा संचालित करती.
vah bahut khoob.....
di,bahut acchhey bhaav hain..
बहुत सुंदर...
बहुत अच्छी रचना. बधाई.
तुमने तो स्वयं को समेट लिया,
मैं तुम बिन धूल बनी बिखरी.
आंधी आई तो संग उडी,
जो जल बरसा तो बह निकली.
bhut bavanatmak paktiya. likhati rhe.
सही भावुक और मोहक एह्सास --
स्नेह,
-- लावण्या
जीवन के लिये एक पतला आधार, नैराश्य में हल्की सी आशा - मानो डूबते को तिनके का सहारा - यह अनुभूति मैने बहुधा की है। नारी के रूप में यह अनुभूति शायद और स्पष्ट होती हो।
कविता अच्छी लगी जी।
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