23.6.08

परिताप

पूजा ही अभिशाप बन गई,
मन की भाषा पाप बन गई।

तुमको जीवन सौंप क्या दिया,
जीवन ही परिताप बन गई।

शक्ति के कर अस्त्र सुस्सज्जित
शक्तिहीन बलिदान चढ़ गई.

सुख से जीने की अभिलाषा,
मोती बन नयनो से ढल गई।

गुब्बारों से रिश्ते नाते,
गहरे उर में घाव कर गई.

जीवन की ढलती संझा अब
अमावस ही संगिनी रह गई।

थकी थकी ये बोझिल पलकें,
चिरनिद्रा की बाट निहोरे।

आकर कब ये अंग लगाये,
इतनी सी बस साध रह गई.

10 comments:

Shiv said...

बहुत खूबसूरत...बहुत सहज.
शानदार लेखन है.

रंजू भाटिया said...

बहुत सुंदर सही कहा
सुख से जीने की अभिलाषा,
मोती बन नयनो से ढल गई।

jasvir saurana said...

सुख से जीने की अभिलाषा,
मोती बन नयनो से ढल गई।
bhut khub.sundar bhav sundar rachan.likhati rhe.

डॉ .अनुराग said...

गुब्बारों से रिश्ते नाते,
गहरे उर में घाव कर गई.
kya bat kahi....vah.....

vijaymaudgill said...

बहुत ही बढ़िया लिखा है आपने। अच्छा लगा आपको पढ़कर। आप लिखते रहें हम पढ़ते रहेंगे।

लावण्यम्` ~ अन्तर्मन्` said...

सुँदर , सहज कल्पना लिये कविता बहुत अच्छी लगी --
स स्नेह्,
-लावण्या

sanjay patel said...

गुब्बारों से रिश्ते नाते,
गहरे उर में घाव कर गई.

गहरी पीड़ा की पंक्तियाँ लेकिन
यथार्थ है इसी में.

रंजूजी ; बुरा न मानें तो एक मशवरा:
थकी थकी ..वाला मतला निकाल दीजिये
बाक़ी सभी जगह ’गई’के वज़न के साथ बात ख़त्म हो रही है यहाँ निहोरे पर तो थोड़ा अटकता है मामला.श्री सुवीर पंकज ने तो अपने ब्लॉग पर रदीफ़ - काफ़िये पर विस्तृत जानकारी दी है ..उसे ज़रूर पढ़ें.

mehek said...

man ki vyatha ka bahut hi saral sundar varnan hua hai,bahut bahut badhai,har pankti ke alfazon se bhav parivartit ho rahe,its awesome.

Udan Tashtari said...

बहुत उम्दा भाव, बधाई. लिखते रहें.

Gyan Dutt Pandey said...

सुन्दर!