पूजा ही अभिशाप बन गई,
मन की भाषा पाप बन गई।
तुमको जीवन सौंप क्या दिया,
जीवन ही परिताप बन गई।
शक्ति के कर अस्त्र सुस्सज्जित
शक्तिहीन बलिदान चढ़ गई.
सुख से जीने की अभिलाषा,
मोती बन नयनो से ढल गई।
गुब्बारों से रिश्ते नाते,
गहरे उर में घाव कर गई.
जीवन की ढलती संझा अब
अमावस ही संगिनी रह गई।
थकी थकी ये बोझिल पलकें,
चिरनिद्रा की बाट निहोरे।
आकर कब ये अंग लगाये,
इतनी सी बस साध रह गई.
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10 comments:
बहुत खूबसूरत...बहुत सहज.
शानदार लेखन है.
बहुत सुंदर सही कहा
सुख से जीने की अभिलाषा,
मोती बन नयनो से ढल गई।
सुख से जीने की अभिलाषा,
मोती बन नयनो से ढल गई।
bhut khub.sundar bhav sundar rachan.likhati rhe.
गुब्बारों से रिश्ते नाते,
गहरे उर में घाव कर गई.
kya bat kahi....vah.....
बहुत ही बढ़िया लिखा है आपने। अच्छा लगा आपको पढ़कर। आप लिखते रहें हम पढ़ते रहेंगे।
सुँदर , सहज कल्पना लिये कविता बहुत अच्छी लगी --
स स्नेह्,
-लावण्या
गुब्बारों से रिश्ते नाते,
गहरे उर में घाव कर गई.
गहरी पीड़ा की पंक्तियाँ लेकिन
यथार्थ है इसी में.
रंजूजी ; बुरा न मानें तो एक मशवरा:
थकी थकी ..वाला मतला निकाल दीजिये
बाक़ी सभी जगह ’गई’के वज़न के साथ बात ख़त्म हो रही है यहाँ निहोरे पर तो थोड़ा अटकता है मामला.श्री सुवीर पंकज ने तो अपने ब्लॉग पर रदीफ़ - काफ़िये पर विस्तृत जानकारी दी है ..उसे ज़रूर पढ़ें.
man ki vyatha ka bahut hi saral sundar varnan hua hai,bahut bahut badhai,har pankti ke alfazon se bhav parivartit ho rahe,its awesome.
बहुत उम्दा भाव, बधाई. लिखते रहें.
सुन्दर!
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