28.1.10

लोकधर्म (भाग - ३)

(आचार्य रामचंद्र शुक्ल जी की कृति "गोस्वामी तुलसीदास" से साभार)
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भक्ति के तत्व को हृदयंगम करने के लिए उसके विकास पर ध्यान देना आवश्यक है | अपने ज्ञान की परमिति के अनुभव के साथ साथ मनुष्य जाति आदिम काल से ही आत्मरक्षा के लिए परोक्ष शक्तियों की उपासना करती आई है |इन शक्तियों की भावना वह अपनी परिस्थिति के अनुरूप करती रही | दुखों से बचने का प्रयत्न जीवन का प्रथम प्रयत्न है | इन दुखों का आना न आना बिलकुल अपने हाथ में नहीं है, यह देखते ही मनुष्य ने उनको कुछ परोक्ष शक्तियों द्वारा प्रेरित समझा | अतः बलिदान आदि द्वारा उन्हें शांत और तुष्ट रखना उसे आवाश्यक दिखाई पडा | इस आदिम उपासना का मूल था, ' भय ' | जिन देवताओं की उपासना असभ्य दशा में प्रचलित हुई , वे "अनिष्टदेव " थे | आगे चलकर जब परिस्थिति ने दुःख निवारण मात्र से कुछ अधिक सुख की आकांक्षा का अवकाश दिया,तब साथ ही देवों के सुख समृद्धि विधायक रूप की प्रतिष्ठा हुई | यह 'इष्टा-निष्ट ' भावना बहुत काल तक रही | वैदिक देवताओं को हम इसी रूप में पाते हैं | वे पूजा पाने से प्रसन्न होकर धन धान्य , ऐश्वर्य, विजय सब कुछ देते थे, पूजा न पाने पर कोप करते थे और घोर अनिष्ट करते थे | ब्रज में गोपों ने जब इन्द्र की पूजा बंद कर दी थी, तब इन्द्र ने ऐसा ही कोप किया था | उसी काल से 'इष्टा-निष्ट' काल की समाप्ति माननी चाहिए |

समाज के पूर्ण रूप से सुव्यवस्थित हो जाने के साथ ही मनुष्य के कुछ आचरण लोक रक्षा के अनुकूल और कुछ प्रतिकूल दिखाई पड़ गए थे | 'इष्टानिष्ट' काल के पूर्व ही लोकधर्म और शील की प्रतिष्ठा समाज में हो चुकी थी,पर उनका सम्बन्ध प्रचलित देवताओं के साथ नहीं स्थापित हुआ था | देव गण धर्म और शील से प्रसन्न होने वाले, अधर्म और दुह्शीलता पर कोप करने वाले नहीं हुए थे, वे अपनी पूजा से प्रसन्न होने वाले और उस पूजा में त्रुटि से ही अप्रसन्न बने थे | ज्ञान मार्ग की ओर ब्रह्म का निरूपण बहुत पाले से ही हो चुका था,पर वह ब्रह्म लोकव्यवहार में तटस्थ था | लौकिक उपासना के योग्य वह नहीं था | धीरे धीरे उसके व्यवहारिक रूप ,सगुन रूप, की तीन रूपों में प्रतिष्ठित हुई - श्रष्टा , पालक और संहारक | उधर स्थितिरक्षा का विधान करने वाले धर्म और शील के नाना रूपों की अभिव्यक्ति पर जनता पूर्ण रूप से मुग्ध हो चुकी थी | उसने चट दया, दाक्षिन्य , क्षमा, उदारता, वत्सलता ,सुशीलता आदि उद्दात्त वृत्तियों का आरोप ब्रह्म के लोकपालक सगुन रूप में किया | लोक में ' इष्टदेव ' की प्रतिष्ठा हो गयी | नारायण वासुदेव के मंगलमय रूप का साक्षात्कार हुआ | जनसमाज आशा और आनंद से नाच उठा | भागवत धर्म का उदय हुआ | भगवान पृथ्वी का भार उतारने और धर्म की स्थापना करने लिए बार बार आते हुए साक्षात दिखाई पड़े | जिन गुणों से लोक की रक्षा होती है, जिन गुणों को देख हमारा ह्रदय प्रफुल्ल हो जाता है, उन गुणों को हम जिसमे देखें वही 'इष्टदेव' हैं - हमारे लिए वही सबसे बड़ा है-

तुलसी जप तप नेम व्रत सब सबहीं ते होई |
लहेइ बड़ाई देवता 'इष्टदेव' जब होई ||

इष्टदेव भगवान के स्वरुप के अंतर्गत केवल उनका दया - दाक्षिन्य ही नहीं असाध्य दुष्टों के संहार की उनकी अपरिमित शक्ति और लोकमर्यादा पालन भी है |
भक्ति का यह मार्ग बहुत प्राचीन है | जिसे रूखे ढंग से 'उपासना 'कहते हैं, उसी ने व्यक्ति की रागात्मक सत्ता के भीतर प्रेमपरिपुष्ट होकर 'भक्ति' का रूप धारण किया है | व्यष्टिरूप में प्रत्येक मनुष्य के और समशिष्टरूप में मनुष्य जाति के सारे प्रयत्नों का लक्ष्य स्थितिरक्षा है | अतः इश्वरत्व के तीन रूपों में स्थिति -विधायक रूप ही भक्ति का आलंबन हुआ | विष्णु या वासुदेव की उपासना ही मनुष्य के रितिभाव को अपने साथ लगाकर भक्ति की परम अवस्था को पहुँच सकी | या यों कहिए की भक्ति की ज्योति का पूर्ण प्रकाश वैष्णवों में ही हुआ|

तुलसीदास के समय में दो प्रकार के भक्त पाए जाते थे | एक तो प्राचीन परंपरा के रामकृष्णोपासक जो वेदशास्त्रज्ञ तत्वदर्शी आचार्यों द्वारा प्रवर्तित सम्प्रदायों के अनुयायी थे ; जो अपने उपदेशों में दर्शन ,इतिहास ,पुराण आदि के प्रसंग लाते थे | दुसरे वे जो समाजव्यवस्था की निंदा और पूज्य तथा सम्मानित व्यक्तियों के उपहास द्वारा लोंगों को आकर्षित करते थे | समाज की व्यवस्था में कुछ विकार आ जाने से ऐसे लोगों के लिए अच्छा मैंदान हो जाता है | समाज के बीच शासकों ,कुलीनों ,श्रीमानों , विद्वानों ,शूरवीरों ,आचार्यों इत्यादि को आवश्यक अधिकार और सम्मान कुछ अधिक प्राप्त रहता है ; अतः ऐसे लोगों को भी कुछ संख्या सदा रहती है जो उन्हें अकारण ईर्ष्या और द्वेष की दृष्टि से देखते हैं और उन्हें नीचा दिखाकर अपने अहंकार को तुष्ट करने की ताक में रहते हैं |अतः उक्त शिष्ट वर्गों में कोई दोष न रहने पर भी उनमें दोषोद्भावना करके कोई चलतेपुरजे का आदमी ऐसे लोगों को संग में लगाकर 'प्रवर्तक ' 'अगुआ ' महात्मा ' आदि होने का डंका पीट सकता है| यदि दोष सचमुच हुआ तो फिर क्या कहना | सुधार की सच्ची इच्छा रखनेवाले दो चार होगें, तो ऐसे लोक पच्चीस | किसी समुदाय के मद , मत्सर ,ईर्ष्या , द्वेष और अहंकार को काम में लाकर "अगुआ ' प्रवर्तक ' बनने का हौसला रखनेवाला समाज के शत्रु हैं |

योरप में जो सामाजिक अशांति चली आ रही है , वह बहुत कुछ ऐसे ही लोगों के कारण | पूर्वीय देशों की अपेक्षा संघनिर्माण में अधिक कुशल होने के कारण वे अपने व्यवसाय में बहुत जल्दी सफलता प्राप्त कर लेते हैं | योरप में जितने लोक -विप्लव हुए हैं , जितनी राजहत्या ,नरहत्या हुई है , सबमें जनता के वास्तविक दुःख और क्लेश का भाग यदि १/३ था तो विशेष जनसमुदाय की नीच ''प्रवृत्तियों का भाग २/३ | 'क्रांतिकारक ' 'प्रवर्तक ' आदि कहलाने का उन्माद योरप में बहुत अधिक है ,इन्हीं उन्मादियों के हाथ में पड़कर वहाँ का समाज छिन्नभिन्न हो रहा है | अभी थोड़े दिन हुए ; एक मेम साहब पति -पत्नी के साथ के सम्बन्ध पर व्याख्यान देती फिरती थीं की कोई आवश्यकता नहीं है स्त्री पति के घर में ही रहे |


क्रमशः :-
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20.1.10

लोकधर्म (भाग -२)

आचार्यवर श्री रामचंद्र शुक्ल की पुस्तक "गोस्वामी तुलसीदास" से साभार
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इसाई ,बौद्ध ,जैन इत्यादि वैराग्यप्रधान मतों में साधना के जो धर्मोपदेश दिए गये , उनका पालन अलग अलग कुछ व्यक्तियों ने चाहे किया हो, पर सारे समाज ने नहीं किया | किसी इसाई साम्राज्य ने अन्यायपूर्वक अग्रसर होने वाले दूसरे साम्राज्य में मार खाकर अपना दूसरा गाल नहीं फेरा | वहां भी समिष्टरूप में जनता के बीच लोकधर्म ही चलता रहा | अतः व्यक्तिगत साधना के कोरे उपदेशों की तड़क भड़क दिखाकर लोकधर्म के प्रति उपेक्षा प्रकट करना पाषंड ही नहीं हैं ,उस समाज के प्रति घोर कृतध्नता भी है जिसके बीच काया पली है |

लोकमर्यादा का उल्लंघन ,समाज की व्यवस्था का तिरस्कार ,अनाधिकार चर्चा ,भक्ति और साधुता का मिथ्या दम्भ ,मूर्खता छिपाने के लिए वेद शास्त्र की निंदा , ये सब बातें येसी थीं जिनसे गोस्वामीजी की अंतरात्मा बहुत व्यथित हुई | इस दल का लोकविरोधी स्वरुप गोस्वामीजी ने खूब पहचाना | समाजशास्त्र के आधुनिक विवेचकों ने भी लोकसंग्रह और लोकविरोध की दृष्टि से जनता का विभाग किया है | गिडिंग के चार विभाग ये है- लोकसंग्रही ,लोकबाह्य ,अलोकोपयोगी और लोकविरोधी |लोकसंग्रही वे हैं, जो समाज की व्यवथा और मर्यादा की रक्षा में तत्पर रहते हैं और भिन्न -भिन्न वर्गों के परस्पर सम्बन्ध को सुखावह और कल्याणप्रद करने की चेष्टा से रहते हैं | लोकबब्राह्य वे हैं , जो केवल अपने जीवन -निर्वाह से काम रखते हैं और लोक के हिताहित से उदासीन रहते हैं | अलोकोपयोगी वे हैं, जो समाज में मिले तो दिखाई देते हैं, पर उसके किसी अर्थ के नहीं होते ; जैसे आलसी और निकम्मे जिन्हें पेट भरना ही कठिन रहता है | लोकविरोधी वे हैं जिन्हें लोक से द्वेष होता है और जो उसके विधान और व्यवस्था को देखकर जला करते हैं | गिडिंग ने इस चतुर्थ वर्ग के भीतर पुराने पापियों और अपराधियों को लिया है| पर अपराध की अवस्था तक न पहुँचे हुए लोग भी उसके भीतर आते हैं जो अपने ईर्ष्या द्वेष का उदगार उतने उग्र रूप में नहीं निकलते , कुछ मृदुल रूप में प्रकट करते हैं |अशिष्ट सम्प्रदायों का औद्धत्य गोस्वामी जी नहीं देख सकते थे | इसी औद्धत्य के कारण विद्वान और कर्मनिष्ट भी भक्तों को उपेक्षा की दृष्टि से देखने लगे थे, जैसा की गोस्वामीजी के इन वाक्यों से प्रकट होता है -

कर्मठ कठमलिया कहैं ज्ञानी ज्ञान बिहीन ||

धर्म व्यवस्था के बीच ऐसी विषमता उत्पन्न करनेवाले नए - नए पंथों के प्रति इसी से उन्होंने अपनी चिढ़ कई जगह प्रकट की है ; जैसे-

श्रुति सम्मत हरिभक्ति पथ ,संजुत बिरती बिबेक ||

तेहि परिहरहिं बिमोह बस कल्पहिं पंथ अनेक | |
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साखी , सबदी , दोहरा , कहि किहनी उपखान |

भगत निरूपहिं भगति कलि , निंदहि वेद पुरान ||

उत्तरकांड में कलि के व्यवहारों का वर्णन करते हुए वे इस प्रसंग में कहते हैं -

बादहिं शूद्र द्विजन सन हम तुमतें कछु घाटि |

जानहि ब्रह्म सो बिप्रवर आँखि दिखावहिं डांटि ||

जो बातें ज्ञानियों के चिन्तन के लिए थीं , उन्हें अपरिपक्व रूप में अनधिकारियों के आगे रखने से लोकधर्म का तिरस्कार अनिवार्य था | 'शूद्र' शब्द से जाति की नीचता मात्र से अभिप्राय नहीं है ; विद्या ,शील , शिष्टता ,सभ्यता सबकी हीनता से है |समाज में मूर्खता का प्रचार ,बल और पौरुष का ह्रास , अशिष्टता की वृद्धि , प्रतिष्टित आदर्शों की उपेक्षा कोई विचारवान नहीं सहन कर सकता | गोस्वामीजी सच्चे भक्त थे | भक्ति मार्ग की यह दुर्दशा वे कब देख सकते थे ? लोकविहित आदर्शों की प्रतिष्टा फिर से करने के लिए , भक्ति के सच्चे सामाजिक आधार फिर से खड़ें करने के लिए ,उन्होंने रामचरित का आश्रय लिया जिसके बल से लोगों ने फिर धर्म के जीवनव्यापी स्वरुप का साक्षात्कार किया और उस पर मुग्ध हुए | ' कलिकलुष विभंजिनी ' राम कथा घर घर धूमधाम से फैली | हिन्दू धर्म में नई भक्ति का संचार हुआ | स्रुति सम्मत हरि भक्ति की ओर जनता फिर से आकर्षित हुई |

रामचरितमानस के प्रसाद से उत्तर भारत में साम्प्रदायिकता का वह उछश्रृंखल रूप अधिक न ठहरने पाया जिसने गुजरात आदि में वर्ग के वर्ग को वैदिक संस्कारों से एकदम विमुख कर दिया था, दक्षिण में शैवों और वैष्णवों का घोर द्वन्द खड़ा किया था.यहाँ की किसी प्राचीन पूरी में शिव कांची और विष्णु कांची के सामान दो अलग अलग बस्तियां होने की नौबत नहीं आई | यहाँ शैवों और वैष्णवों में मार पीट कभी नहीं होती | यह सब किसके प्रसाद से ? भक्त शिरोमणि गोस्वामी तुलसीदास जी के प्रसाद से | उनकी शांति प्रदायिनी मनोहर वाणी के प्रभाव से जो सामंजस्य बुद्धि जनता में आई वह अब तक बनी है और जब तक रामचरित मानस का पठन पाठन रहेगा, तबतक बनी रहेगी |

शैवों और वैष्णवों के विरोध के परिहार का प्रयत्न राम चरित मानस में स्थान - स्थान पर लक्षित होता है | ब्रह्म वैवर्त्त पुराण के गणेश खंड में शिव हरिमंत्र के जापक कहे गए हैं | उसके अनुसार उन्होंने शिव को राम का सबसे अधिकारी भक्त बनाया,पर साथ ही राम को शिव का उपासक बनाकर गोस्वामी जी ने दोनों का महत्त्व प्रतिपादित किया | राम के
मुखारविंद से उन्होंने स्पष्ट कहला दिया कि -

शिव द्रोही मम दास कहावै | सो नर सपनेहु मोहि न भावै ||

वे कहते हैं कि ' शंकर प्रिय, मम द्रोही,शिव द्रोही,मम दास 'मुझे पसंद नहीं |
इस प्रकार गोस्वामी जी ने उपासना या भक्ति का केवल कर्म और ज्ञान के साथ ही सामंजस्य स्थापित नहीं किया,बल्कि भिन्न भिन्न उपास्य देवों के कारण जो भेद दिखाई पड़ते थे,उनका भी एक में पर्यवसान किया | इसी एक बात से यह अनुमान हो सकता है कि उनका प्रभाव हिन्दू समाज की रक्षा के लिए - उसके स्वरुप को रखने के लिए- कितने महत्त्व का था |


तुलसीदास जी यद्यपि राम के अनन्य भक्त थे,पर लोकरीति के अनुसार अपने ग्रंथों में गणेश वंदना पहले करके तब वे आगे चले हैं | सूरदास जी ने ' हरि हरि हरि सुमिरन करो ' से ही ग्रन्थ का आरम्भ किया है | तुलसीदास जी की अनन्यता सूरदास जी से कम नहीं थी, पर लोक मर्यादा की रक्षा का भाव लिए हुए थी | सूरदास जी की भक्ति में लोकसंग्रह का भाव न था | पर हमारे गोस्वामी जी का भाव अत्यंत व्यापक था- वह मानस जीवन के सब व्यापारों तक पहुँचने वाला था | राम की लीला के भीतर वे जगत के सारे व्यवहार और जगत के सारे व्यवहारों के भीतर राम की लीला देखते थे | पारमार्थिक दृष्टि से तो सारा जगत राममय है,पर व्यवहारिक दृष्टि से उसके राम और रावण दो पक्ष हैं |अपने स्वरुप के प्रकाश के लिए मानो राम ने रावण का असत रूप खड़ा किया | 'मानस ' के आरम्भ में सिद्धांत कथन के समय तो वे ' सियाराम मय सब जग जानी ' फिर सबको ' सप्रेम प्रणाम ' करते हैं,पर आगे व्यवहार क्षेत्र में चलकर वे रावण के प्रति 'शठ' आदि बुरे शब्दों का प्रयोग करते हैं |


क्रमशः :-

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18.1.10

लोकधर्म (भाग -१)

ईश्वर की अपार अनुकम्पा से कुछ दिनों पूर्व आचार्य रामचंद्र शुक्ल लिखित अप्रतिम कृति " गोस्वामी तुलसीदास " पढने का सौभाग्य मिला.पुस्तक की प्रस्तावना में डाक्टर हरिवंश तरुण ने लिखा है -
"आचार्य शुक्ल ने इस शिखर कृति में तुलसी की भक्ति-पद्धति,प्रकृति और स्वभाव,लोकधर्म,धर्म और जातीयता का समन्वय ,मंगलाशा, लोकनीति और मर्यदावाद, लोकसाधना और भक्ति , ज्ञान और भक्ति, काव्य पद्धति, भावुकता, शील निरूपण और चरित्र चित्रण, बाह्य दृश्य चित्रण, अलंकार विधान, उक्तिवैचित्र्य , भाषाधिकार, मानस की धर्मभूमि आदि पर जो सांगोपांग एवं अंतर्दर्शी प्रकाश डाला है, लगता है, गोस्वामी तुलसीदास के बहु फलकीय व्यक्तित्व एवं अप्रतिम काव्यसाधना के परत दर परत खुलते जा रहे हों और उनके अध्येता उनसे प्रक्षेपित होनेवाली प्रकाश किरणों से आलोकित हो अनिर्वचनीय आह्लाद की अनुभूति कर रहे हों....."

पुस्तक के पठनोपरांत ये वाक्यांश तो शब्दशः सत्य लगे ही,यह विशेष रूप से अभिभूत कर गया कि आचार्यवर ने कितनी शूक्ष्म अंतर्दृष्टि से भारतीय जनमानस की वृत्तियों और रुचियों को समझा परखा है...और जो भी स्थापनाएं उन्होंने की हैं,वे सदा के लिए भारतीय परिवेश में समीचीन व प्रासंगिक रहेंगी..

हो सकता है कई साहित्य प्रेमियों ने यह पुस्तक पढी हो.परन्तु मैं दावे के साथ कह सकती हूँ कि जन्होने भी यह पढ़ी होगी और इसमें डूब कर इसके अलौकिक रस का आनंद लिया होगा,उनके लिए इसका पुनर्पठन पूर्वत ही आह्लादकारी होगा.इस अप्रतिम पुस्तक से "लोक धर्म" शीर्षकान्तर्गत आलेख का एक अंश मैं अपने ब्लॉग पर सगर्व सहर्ष साहित्यप्रेमियों के लिए प्रेषित कर रही हूँ...

लोकधर्म -(ले.श्री आचार्य रामचंद्र शुक्ल की पुस्तक " गोस्वामी तुलसीदास " से-)
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कर्म ,ज्ञान और उपासना, लोकधर्म के ये तीन अवयव जनसमाज की स्थिति लिए बहुत प्राचीन काल से भारत में प्रतिष्ठित है | मानव जीवन की पूर्णता इन तीनो के मेल के बिना नहीं हो सकती | पर देश - काल के अनुसार कभी किसी अवयव की प्रधानता रही, कभी किसी की | यह प्रधानता लोक में जब इतनी प्रबल हो जाती है कि दुसरे अवयवों की ओर लोक की प्रवृति का अभाव सा होने लगता है ,तब साम्य स्थापित करने के लिए ,शेष अवयवों की ओर जनता को आकर्षित करने के लिए कोई न कोई महात्मा उठ खड़ा होता है | एक बार जब कर्मकांड की प्रबलता हुई तब याज्ञवल्क्य के द्वारा उपनिषदों के ज्ञानकाण्ड की ओर लोग प्रवृत्त किये गए |कुछ दिनों में फिर कर्मकांड प्रबल पड़ा और यज्ञों में पशुओ का बलिदान धूमधाम से होने लगा | उस समय भगवान् बुद्धदेव का अवतार हुआ, जिन्होंने भारतीय जनता को एक बार कर्मकांड से बिलकुल हटाकर अपने ज्ञानवैराग्यमिश्रित धर्म की ओर लगाया | पर उनके धर्म में 'उपासना ' का भाव नहीं था, इससे साधारण जनता की तृप्ति उस से न हुई और उपासना -प्रधान धर्म की स्थापना फिर से हुई |

पर किसी एक अवयव की अत्यंत वृद्धि से उत्पन्न विषमता को हटाने के लिए जो मत प्रवर्तित हुए ,उनमे उनके स्थान पर दूसरे अवयव का हद से बढ़ना स्वाभाविक था | किसी बात की एक हद पर पहुँच कर जनता फिर पीछे पलटती है और क्रमशः बढती हुई दूसरी हद पर जा पहुचती है | धर्म और राजनीति दोनों में यह उलटफेर ,चक्रगति के रूप में ,होता चला आ रहा है |जब जनसमाज नई उमंग से भरे हुए किसी शक्तिशाली व्यक्ति के हाथ पड़कर किसी एक हद से दूसरी हद पर पंहुचा दिया जाता है , तब काल का संग पाकर उसे फिर किसी दुसरे के सहारे किसी दूसरे हद तक जाना पड़ता है | जिन मत प्रवर्तक महात्माओं को आजकल की बोली में हम 'सुधारक 'कहते है वे भी मनुष्य थे| किसी वस्तु को अत्यधिक परिमाण में देख जो विरक्ति या द्वेष होता है वह उस परिमाण के ही प्रति नहीं रह जाता , किन्तु उस वस्तु तक पहुचता है | चिढ़नेवाला उस वस्तु की अत्यधिक मात्रा से चिढने के स्थान पर उस वस्तु से ही चिढने लगता है और उससे भिन्न वस्तु की ओर अग्रसर होने और अग्रसर करने में परिमिति या मर्यादा का धयान नहीं रखता |इस से नए-नए मत प्रवर्तकों या 'सुधारकों ' से लोक में शांति स्थापित होने के स्थान पर अब तक अशांति ही होती आई है | धर्म के सब पक्षों का ऐसा सामंजस्य जिससे समाज की भिन्न-भिन्न व्यक्ति अपनी प्रकृति और विद्या-बुद्धि के अनुसार धर्म का स्वरुप ग्रहण कर सकें ,यदि पूर्ण रूप से प्रतिष्ठित हो जाये तो धर्म का रास्ता अधिक चलता हो जाये |

उपर्युक्त सामंजस्य का भाव लेकर गोस्वामी तुलसीदासजी की आत्मा ने उस समय भारतीय जनसमाज के बीच अपनी ज्योति जगाई जिस समय नए-नए सम्प्रदायों की खीचतान के कारण आर्यधर्म का व्यापक स्वरुप आँखों से ओझल हो रहा था, एकांगदर्शिता बढ़ रही थी | जो एक कोना देख पाता था, वह दूसरे कोने पर दृष्टि रखनेवालो को बुरा भला कहता था | शैवों , वैष्णों , शाक्तों और कर्मठो की तू तू -मैं मैं तो थी ही, बीच में मुसलमानों से अविरोध प्रदर्शन करने के लिए भी अपढ़ जनता को साथ लगाने वाले कई नए-नए पंथ निकल चुके थे जिनमें एकेश्वरवाद का कट्टर स्वरुप ,उपासना का आशिकी रंगढंग ,ज्ञानविज्ञान की निंदा ,विद्वानों का उपहास ,वेदांत के चार प्रसिद्द शब्दों का अनाधिकार प्रयोग आदि सब कुछ था; पर लोक को व्यवस्थित करने वाली वह मर्यादा न थी जो भारतीय आर्येधर्म का प्रधान लक्षण है | जिस उपासनाप्रधान धर्म का जोर बुद्ध के पीछे बढ़ने लगा, वह उस मुसलमानी राजत्वकाल में आकर -जिसमे जनता की बुद्धि भी पुरुषार्थ के हास के साथ-साथ शिथिल पड गयी थी - कर्म और ज्ञान दोनों की उपेक्षा करने लगा था | ऐसे समय में इन नए पंथों का निकलना कुछ आश्चर्ये की बात नहीं| उधर शास्त्रों का पठन पाठन कम लोगो में रह गया , इधर ज्ञानी कहलाने की इच्छा रखनेवाले मूर्ख बढ़ रहे थे जो किसी 'सतगुरु के प्रसाद ' मात्र से ही अपने को सर्वज्ञ मानने के लिए तैयार बैठे थे | अतः 'सतगुरु ' भी उन्हीं मे निकल पड़ते थे जो धर्म का कोई एक अंग नोचकर एक ओर भाग खड़े होते थे , और कुछ लोग झाँज-खँजरी लेकर उनके पीछे हो लेते थे |दंभ बढ रहा था | 'ब्रह्मज्ञान बिन नारि नर कहहिं न दूसरि बात ' - ऐसे लोगो ने भक्ति को बदनाम कर रखा था | 'भक्ति ' के नाम पर ही वे वेदशास्त्रों की निंदा करते थे,पंडितों को गालियाँ देते थे और आर्यधर्म के सामाजिक तत्व को न समझकर लोगो में वर्णाश्रम के प्रति अश्रद्धा उत्पन्न कर रहे थे | यह उपेक्षा लोक के लिए कल्याणकर नहीं | जिस समज से बडों का आदर, विद्वानों का सम्मान, अत्याचार का दलन करनेवाले शूरवीरों के प्रति श्रद्धा इत्यादि भाव उठ जायें,वह कदापि फलफूल नहीं सकता ; उसमें अशांति सदा बनी रहेगी |

'भक्ति ' का यह विकृत रूप जिस समय उतर भारत में अपना स्थान जमा रहा था ,उसी समय भक्तवर गोस्वामीजी का अवतार हुआ जिन्होनें वर्णधर्म , आश्रमधर्म ,कुलाचार , वेदविहित कर्म, शास्त्रप्रतिपादित ज्ञान इत्यादि सबके साथ भक्ति का पुनः सामंजस्य स्थापित करने आर्यधर्म को छिन्नभिन्न होने से बचाया | ऐसे सर्वांगदर्शी लोक्व्यव्स्थापक महात्मा के लिए मर्यादापुरुषोत्तम भागवान रामचंन्द्र के चरित्र से बढकर अवलम्ब और क्या मिल सकता था ! उसी आदर्श चरित्र के भीतर अपनी आलौकिक प्रतिभा के बल से उन्होंने धर्म के सब रूपों को दिखाकर , भक्ति का प्रकृत आधार खड़ा किया | जनता ने लोक की रक्षा करनेवाले प्राकृतिक धर्म का मनोहर रूप देखा| उसने धर्म को दया , दाक्षिन्य , नम्रता ,सुशीलता , पितृभक्ति, सत्यव्रत ,उदारता ,प्रजापालन , क्षमा आदि में ही नहीं देखा बल्कि अत्याचारियों पर जो क्रोध प्रकट किया जाता है , असाध्य दुर्जनों के प्रति जो घृणा प्रकट की जाती है , दीनदुखियों को सतानेवालों का जो संहार किया जाता है ,कठिन कर्तव्यों के पालन में जो वीरता प्रकट की जाती है, उसमें भी धर्म अपना मनोहर रूप दिखता है | जिस धर्म की रक्षा से लोक की रक्षा होती है- जिससे समाज चलता है - वह यही व्यापक धर्म है | सत् और असत , भले और बुरे दोनों के मेल का नाम संसार है |पापी और पुण्यात्मा ,परोपकारी और अत्याचारी , सज्जन और दुर्जन सदा से संसार में रहते आये है और सदा रहेंगे -

सुगुण छीर अवगुण जल , ताता | मिलई रचई परपंच विधाता ||

किसी एक सर्प को उपदेश द्वारा चाहे कोई अहिंसा में तत्पर कर दे, किसी डाकू को साधू बना दे,क्रूर को सज्जन कर दे, पर सर्प ,दुर्जन और क्रूर संसार में रहेंगे और अधिक रहेंगे | यदि ये उभय पक्ष न होंगे, तो सारे धर्म और कर्तव्य की ,सारे जीवनप्रयत्न की इतिश्री हो जाएगी | यदि एक गाल में चपत मारनेवाला ही न रहेगा तो दूसरा गाल फेरने का महत्व कैसे दिखाया जायगा ? प्रकृति के तीनों गुणों की अभिव्यक्ति जबतक अलग अलग है.तभी तक उसका नाम जगत या संसार है | अतः एसी दुष्टता सदा रहेगी जो सज्जनता के द्वारा कभी नहीं दबाई जा सकती, ऐसा अत्याचार सदा रहेगा जिसका दमन उपदेशों के द्वारा कभी नहीं हो सकता| संसार जैसा है वैसा मानकर उसके बीच से एक कोने को स्पर्श करता हुआ, जो धर्म निकलेगा वही धर्म लोकधर्म होगा | जीवन के किसी एक अंग मात्र को स्पर्श करनेवाला धर्म लोकधर्म नहीं |जो धर्म उपदेश द्वारा न सुधरनेवाले दुष्टों और अत्याचारियों को दुष्टता के लिए छोड़ दे , उनके लिए कोई व्यवस्था न करे , वह लोकधर्म नहीं ,व्यक्तिगत साधना है |यह साधना मनुष्य की वृति को ऊँचे से ऊँचे ले जा सकती है जहाँ वह लोकधर्म से परे हो जाती है |पर सारा समाज इसका अधिकारी नहीं | जनता की प्रवृतियों का औसत निकालने पर धर्म का जो मान निर्धारित होता है ,वही लोकधर्म होता है |

क्रमशः -
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