18.1.10

लोकधर्म (भाग -१)

ईश्वर की अपार अनुकम्पा से कुछ दिनों पूर्व आचार्य रामचंद्र शुक्ल लिखित अप्रतिम कृति " गोस्वामी तुलसीदास " पढने का सौभाग्य मिला.पुस्तक की प्रस्तावना में डाक्टर हरिवंश तरुण ने लिखा है -
"आचार्य शुक्ल ने इस शिखर कृति में तुलसी की भक्ति-पद्धति,प्रकृति और स्वभाव,लोकधर्म,धर्म और जातीयता का समन्वय ,मंगलाशा, लोकनीति और मर्यदावाद, लोकसाधना और भक्ति , ज्ञान और भक्ति, काव्य पद्धति, भावुकता, शील निरूपण और चरित्र चित्रण, बाह्य दृश्य चित्रण, अलंकार विधान, उक्तिवैचित्र्य , भाषाधिकार, मानस की धर्मभूमि आदि पर जो सांगोपांग एवं अंतर्दर्शी प्रकाश डाला है, लगता है, गोस्वामी तुलसीदास के बहु फलकीय व्यक्तित्व एवं अप्रतिम काव्यसाधना के परत दर परत खुलते जा रहे हों और उनके अध्येता उनसे प्रक्षेपित होनेवाली प्रकाश किरणों से आलोकित हो अनिर्वचनीय आह्लाद की अनुभूति कर रहे हों....."

पुस्तक के पठनोपरांत ये वाक्यांश तो शब्दशः सत्य लगे ही,यह विशेष रूप से अभिभूत कर गया कि आचार्यवर ने कितनी शूक्ष्म अंतर्दृष्टि से भारतीय जनमानस की वृत्तियों और रुचियों को समझा परखा है...और जो भी स्थापनाएं उन्होंने की हैं,वे सदा के लिए भारतीय परिवेश में समीचीन व प्रासंगिक रहेंगी..

हो सकता है कई साहित्य प्रेमियों ने यह पुस्तक पढी हो.परन्तु मैं दावे के साथ कह सकती हूँ कि जन्होने भी यह पढ़ी होगी और इसमें डूब कर इसके अलौकिक रस का आनंद लिया होगा,उनके लिए इसका पुनर्पठन पूर्वत ही आह्लादकारी होगा.इस अप्रतिम पुस्तक से "लोक धर्म" शीर्षकान्तर्गत आलेख का एक अंश मैं अपने ब्लॉग पर सगर्व सहर्ष साहित्यप्रेमियों के लिए प्रेषित कर रही हूँ...

लोकधर्म -(ले.श्री आचार्य रामचंद्र शुक्ल की पुस्तक " गोस्वामी तुलसीदास " से-)
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कर्म ,ज्ञान और उपासना, लोकधर्म के ये तीन अवयव जनसमाज की स्थिति लिए बहुत प्राचीन काल से भारत में प्रतिष्ठित है | मानव जीवन की पूर्णता इन तीनो के मेल के बिना नहीं हो सकती | पर देश - काल के अनुसार कभी किसी अवयव की प्रधानता रही, कभी किसी की | यह प्रधानता लोक में जब इतनी प्रबल हो जाती है कि दुसरे अवयवों की ओर लोक की प्रवृति का अभाव सा होने लगता है ,तब साम्य स्थापित करने के लिए ,शेष अवयवों की ओर जनता को आकर्षित करने के लिए कोई न कोई महात्मा उठ खड़ा होता है | एक बार जब कर्मकांड की प्रबलता हुई तब याज्ञवल्क्य के द्वारा उपनिषदों के ज्ञानकाण्ड की ओर लोग प्रवृत्त किये गए |कुछ दिनों में फिर कर्मकांड प्रबल पड़ा और यज्ञों में पशुओ का बलिदान धूमधाम से होने लगा | उस समय भगवान् बुद्धदेव का अवतार हुआ, जिन्होंने भारतीय जनता को एक बार कर्मकांड से बिलकुल हटाकर अपने ज्ञानवैराग्यमिश्रित धर्म की ओर लगाया | पर उनके धर्म में 'उपासना ' का भाव नहीं था, इससे साधारण जनता की तृप्ति उस से न हुई और उपासना -प्रधान धर्म की स्थापना फिर से हुई |

पर किसी एक अवयव की अत्यंत वृद्धि से उत्पन्न विषमता को हटाने के लिए जो मत प्रवर्तित हुए ,उनमे उनके स्थान पर दूसरे अवयव का हद से बढ़ना स्वाभाविक था | किसी बात की एक हद पर पहुँच कर जनता फिर पीछे पलटती है और क्रमशः बढती हुई दूसरी हद पर जा पहुचती है | धर्म और राजनीति दोनों में यह उलटफेर ,चक्रगति के रूप में ,होता चला आ रहा है |जब जनसमाज नई उमंग से भरे हुए किसी शक्तिशाली व्यक्ति के हाथ पड़कर किसी एक हद से दूसरी हद पर पंहुचा दिया जाता है , तब काल का संग पाकर उसे फिर किसी दुसरे के सहारे किसी दूसरे हद तक जाना पड़ता है | जिन मत प्रवर्तक महात्माओं को आजकल की बोली में हम 'सुधारक 'कहते है वे भी मनुष्य थे| किसी वस्तु को अत्यधिक परिमाण में देख जो विरक्ति या द्वेष होता है वह उस परिमाण के ही प्रति नहीं रह जाता , किन्तु उस वस्तु तक पहुचता है | चिढ़नेवाला उस वस्तु की अत्यधिक मात्रा से चिढने के स्थान पर उस वस्तु से ही चिढने लगता है और उससे भिन्न वस्तु की ओर अग्रसर होने और अग्रसर करने में परिमिति या मर्यादा का धयान नहीं रखता |इस से नए-नए मत प्रवर्तकों या 'सुधारकों ' से लोक में शांति स्थापित होने के स्थान पर अब तक अशांति ही होती आई है | धर्म के सब पक्षों का ऐसा सामंजस्य जिससे समाज की भिन्न-भिन्न व्यक्ति अपनी प्रकृति और विद्या-बुद्धि के अनुसार धर्म का स्वरुप ग्रहण कर सकें ,यदि पूर्ण रूप से प्रतिष्ठित हो जाये तो धर्म का रास्ता अधिक चलता हो जाये |

उपर्युक्त सामंजस्य का भाव लेकर गोस्वामी तुलसीदासजी की आत्मा ने उस समय भारतीय जनसमाज के बीच अपनी ज्योति जगाई जिस समय नए-नए सम्प्रदायों की खीचतान के कारण आर्यधर्म का व्यापक स्वरुप आँखों से ओझल हो रहा था, एकांगदर्शिता बढ़ रही थी | जो एक कोना देख पाता था, वह दूसरे कोने पर दृष्टि रखनेवालो को बुरा भला कहता था | शैवों , वैष्णों , शाक्तों और कर्मठो की तू तू -मैं मैं तो थी ही, बीच में मुसलमानों से अविरोध प्रदर्शन करने के लिए भी अपढ़ जनता को साथ लगाने वाले कई नए-नए पंथ निकल चुके थे जिनमें एकेश्वरवाद का कट्टर स्वरुप ,उपासना का आशिकी रंगढंग ,ज्ञानविज्ञान की निंदा ,विद्वानों का उपहास ,वेदांत के चार प्रसिद्द शब्दों का अनाधिकार प्रयोग आदि सब कुछ था; पर लोक को व्यवस्थित करने वाली वह मर्यादा न थी जो भारतीय आर्येधर्म का प्रधान लक्षण है | जिस उपासनाप्रधान धर्म का जोर बुद्ध के पीछे बढ़ने लगा, वह उस मुसलमानी राजत्वकाल में आकर -जिसमे जनता की बुद्धि भी पुरुषार्थ के हास के साथ-साथ शिथिल पड गयी थी - कर्म और ज्ञान दोनों की उपेक्षा करने लगा था | ऐसे समय में इन नए पंथों का निकलना कुछ आश्चर्ये की बात नहीं| उधर शास्त्रों का पठन पाठन कम लोगो में रह गया , इधर ज्ञानी कहलाने की इच्छा रखनेवाले मूर्ख बढ़ रहे थे जो किसी 'सतगुरु के प्रसाद ' मात्र से ही अपने को सर्वज्ञ मानने के लिए तैयार बैठे थे | अतः 'सतगुरु ' भी उन्हीं मे निकल पड़ते थे जो धर्म का कोई एक अंग नोचकर एक ओर भाग खड़े होते थे , और कुछ लोग झाँज-खँजरी लेकर उनके पीछे हो लेते थे |दंभ बढ रहा था | 'ब्रह्मज्ञान बिन नारि नर कहहिं न दूसरि बात ' - ऐसे लोगो ने भक्ति को बदनाम कर रखा था | 'भक्ति ' के नाम पर ही वे वेदशास्त्रों की निंदा करते थे,पंडितों को गालियाँ देते थे और आर्यधर्म के सामाजिक तत्व को न समझकर लोगो में वर्णाश्रम के प्रति अश्रद्धा उत्पन्न कर रहे थे | यह उपेक्षा लोक के लिए कल्याणकर नहीं | जिस समज से बडों का आदर, विद्वानों का सम्मान, अत्याचार का दलन करनेवाले शूरवीरों के प्रति श्रद्धा इत्यादि भाव उठ जायें,वह कदापि फलफूल नहीं सकता ; उसमें अशांति सदा बनी रहेगी |

'भक्ति ' का यह विकृत रूप जिस समय उतर भारत में अपना स्थान जमा रहा था ,उसी समय भक्तवर गोस्वामीजी का अवतार हुआ जिन्होनें वर्णधर्म , आश्रमधर्म ,कुलाचार , वेदविहित कर्म, शास्त्रप्रतिपादित ज्ञान इत्यादि सबके साथ भक्ति का पुनः सामंजस्य स्थापित करने आर्यधर्म को छिन्नभिन्न होने से बचाया | ऐसे सर्वांगदर्शी लोक्व्यव्स्थापक महात्मा के लिए मर्यादापुरुषोत्तम भागवान रामचंन्द्र के चरित्र से बढकर अवलम्ब और क्या मिल सकता था ! उसी आदर्श चरित्र के भीतर अपनी आलौकिक प्रतिभा के बल से उन्होंने धर्म के सब रूपों को दिखाकर , भक्ति का प्रकृत आधार खड़ा किया | जनता ने लोक की रक्षा करनेवाले प्राकृतिक धर्म का मनोहर रूप देखा| उसने धर्म को दया , दाक्षिन्य , नम्रता ,सुशीलता , पितृभक्ति, सत्यव्रत ,उदारता ,प्रजापालन , क्षमा आदि में ही नहीं देखा बल्कि अत्याचारियों पर जो क्रोध प्रकट किया जाता है , असाध्य दुर्जनों के प्रति जो घृणा प्रकट की जाती है , दीनदुखियों को सतानेवालों का जो संहार किया जाता है ,कठिन कर्तव्यों के पालन में जो वीरता प्रकट की जाती है, उसमें भी धर्म अपना मनोहर रूप दिखता है | जिस धर्म की रक्षा से लोक की रक्षा होती है- जिससे समाज चलता है - वह यही व्यापक धर्म है | सत् और असत , भले और बुरे दोनों के मेल का नाम संसार है |पापी और पुण्यात्मा ,परोपकारी और अत्याचारी , सज्जन और दुर्जन सदा से संसार में रहते आये है और सदा रहेंगे -

सुगुण छीर अवगुण जल , ताता | मिलई रचई परपंच विधाता ||

किसी एक सर्प को उपदेश द्वारा चाहे कोई अहिंसा में तत्पर कर दे, किसी डाकू को साधू बना दे,क्रूर को सज्जन कर दे, पर सर्प ,दुर्जन और क्रूर संसार में रहेंगे और अधिक रहेंगे | यदि ये उभय पक्ष न होंगे, तो सारे धर्म और कर्तव्य की ,सारे जीवनप्रयत्न की इतिश्री हो जाएगी | यदि एक गाल में चपत मारनेवाला ही न रहेगा तो दूसरा गाल फेरने का महत्व कैसे दिखाया जायगा ? प्रकृति के तीनों गुणों की अभिव्यक्ति जबतक अलग अलग है.तभी तक उसका नाम जगत या संसार है | अतः एसी दुष्टता सदा रहेगी जो सज्जनता के द्वारा कभी नहीं दबाई जा सकती, ऐसा अत्याचार सदा रहेगा जिसका दमन उपदेशों के द्वारा कभी नहीं हो सकता| संसार जैसा है वैसा मानकर उसके बीच से एक कोने को स्पर्श करता हुआ, जो धर्म निकलेगा वही धर्म लोकधर्म होगा | जीवन के किसी एक अंग मात्र को स्पर्श करनेवाला धर्म लोकधर्म नहीं |जो धर्म उपदेश द्वारा न सुधरनेवाले दुष्टों और अत्याचारियों को दुष्टता के लिए छोड़ दे , उनके लिए कोई व्यवस्था न करे , वह लोकधर्म नहीं ,व्यक्तिगत साधना है |यह साधना मनुष्य की वृति को ऊँचे से ऊँचे ले जा सकती है जहाँ वह लोकधर्म से परे हो जाती है |पर सारा समाज इसका अधिकारी नहीं | जनता की प्रवृतियों का औसत निकालने पर धर्म का जो मान निर्धारित होता है ,वही लोकधर्म होता है |

क्रमशः -
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25 comments:

Unknown said...

जानकारी बढाने बाला लेख. बहुत दिन बाद आपको पढना सुखकर लगा.
कल मेरे ब्लोग मे डा. रान्गेय राघव पर र्क पोस्त है.

Satyendra Kumar said...

"स्वयं को पूरी तरह से खोज पाना और निश्चित तौर पर बता देना कि 'मैं ये हूँ', आसान तो नहीं. यह तो एक अनवरत खोज है. अंततः एक नाम ,एक शरीर नही बल्कि व्यक्ति द्वारा जीवन मे प्रतिपादित कर्म ही उसकी पहचान बनते है"

बढिया है

अतः कृपया इसे भी देखें
http://kumarsatyendra.blogspot.com

Rajeysha said...

रामचन्‍द्र शुक्‍ल जी का अन्‍य साहि‍त्‍य भी गहन और हर प्रबुद्ध पाठक के लि‍ये पठनीय है।

निर्मला कपिला said...

जनता ने लोक की रक्षा करनेवाले प्राकृतिक धर्म का मनोहर रूप देखा| उसने धर्म को दया , दाक्षिन्य , नम्रता ,सुशीलता , पितृभक्ति, सत्यव्रत ,उदारता ,प्रजापालन , क्षमा आदि में ही नहीं देखा बल्कि अत्याचारियों पर जो क्रोध प्रकट किया जाता है , असाध्य दुर्जनों के प्रति जो घृणा प्रकट की जाती है , दीनदुखियों को सतानेवालों का जो संहार किया जाता है ,कठिन कर्तव्यों के पालन में जो वीरता प्रकट की जाती है, उसमें भी धर्म अपना मनोहर रूप दिखता है | जिस धर्म की रक्षा से लोक की रक्षा होती है- जिससे समाज चलता है - वह यही व्यापक धर्म है |
कितनी सार्गर्भित है ये पंम्क्तियाँ बहुत सुन्दर आलेख आपने पढवाया है राम चन्द्र शुक्ल जी को पढना हमेशा कुछ सीखने समझने जैसा ही होता है धन्यवाद और शुभकामनायें

Arvind Mishra said...

डॉ रंजना जी की परिष्कृत रूचि की ही परिचायिका है यह प्रवाहमय लेखन अंश -आभार !

डॉ. मनोज मिश्र said...

गंभीर लेखन के साथ सारगर्भित जानकारी ,धन्यवाद .

डॉ महेश सिन्हा said...

जीवन एक खोज

pran sharma said...

AAPKAA LEKH PAHAADON MEIN BAH RAHEE
BAYAAR KE SAMAAN LAGAA HAI.AGAR
RAMCHANDRA SHUKLA AAJ JEEVIT HOTE
TO AAPKI IS VISHAD VYAKHYA KO PADH-
KAR GADGAD HO JAATE.RAMCHANDRA
SHUKLA DWARA TULSI DAAS PAR RACHIT
PUSTAK KEE TARAH AAPKA YAH LEKH BHEE SAHEJNE WAALAA HAI.AAPKAA
ADHYAYAN ADVITIYA HAI.

राज भाटिय़ा said...

बहुत सुंदर रचना,
धन्यवाद

aarya said...

सादर वन्दे
इन महान रचनाकारों कि कृतियों को पढ़ना और उसको समझना यूँ तो साधना का विषय है, लेकिन इन्हें पढ़ने मात्र से ही ज्ञान के सरोवर में हम डुबकियाँ लगातेरहते हैं.
बहुत ही सुन्दर प्रयास जीवन को समझाने का.
रत्नेश त्रिपाठी

Abhishek Ojha said...

आचार्य रामचंद्र शुक्ल को पढना हमेशा सुखद होता है और यहाँ तो बात तुलसीदास की हो रही है. आभार इस श्रृंखला को पढवाने के लिए.

स्वप्न मञ्जूषा said...

प्रिय रंजना,
तुम्हारी लेखनी कितनी समृद्ध है ये मैं क्या बताऊँ...क्यूंकि स्वयं को इतनी सक्षम नहीं पाती हूँ..कि तुम्हारी लेखनी के ऐश्वर्य पर कुछ कह सकूँ...!!
बहुत अच्छा लिखती होया और गवाह हैं पूरी ब्लॉग दुनिया..
ख़ुशी होती है देख कर कि आखिर मेरी छोटी बहन हो न ...!!
खूब आगे बढ़ो और ऐसी ही कलम की धनी बनी रहो..
आचार्य रामचंद्र शुक्ल को पढना हमेशा सुखद होता है ..
शुभाशीष....!!

के सी said...

अदा जी सही कहती हैं, आपकी लेखनी समृद्ध है. अगले भाग की प्रतीक्षा बनी रहेगी.

Kusum Thakur said...

रंजना ,
तुमको धन्यवाद नहीं बहुत बहुत आशीर्वाद !! ऐसे ही लिखती रहो जब भी समय मिले . तुम्हारी भाषा और रचना दोनों पढ़कर मन प्रफुल्लित हो जाता है !

Alpana Verma said...

'जिस धर्म की रक्षा से लोक की रक्षा होती है- जिससे समाज चलता है - वह यही व्यापक धर्म है | सत् और असत , भले और बुरे दोनों के मेल का नाम संसार है |पापी और पुण्यात्मा ,परोपकारी और अत्याचारी , सज्जन और दुर्जन सदा से संसार में रहते आये है और सदा रहेंगे '
बहुत ही ग़ूढ बात कही है.
लोक धरम ,आचार-व्यवहार की बातें आज भी उतनी ही प्रासंगिक है जितनी उस समय रही होंगी.
हर बार की तरह आप का यह लेख भी ज्ञान वर्धक लगा.

सुरेन्द्र "मुल्हिद" said...

bahut sundar rachna hai ranjana ji!!

दिगम्बर नासवा said...

राम चंद्र शुक्ल जी को पढ़ा तो नही है पर आपने जिस सारगर्भीता से इसकी व्याख्या की है .......... लगता है पढ़े बिना रह नही सकूँगा ......... लोकड़तम की जिस तरह से आपने परिभाषित करने का प्रयास लिक्या है वो विलक्षण है ........ आपने बहुत समय बाद कुछ लिखा है .......... पर बहुत ही कालजयी लिखा है .........

Shiv said...

"जीवन के किसी एक अंग मात्र को स्पर्श करनेवाला धर्म लोकधर्म नहीं |जो धर्म उपदेश द्वारा न सुधरनेवाले दुष्टों और अत्याचारियों को दुष्टता के लिए छोड़ दे , उनके लिए कोई व्यवस्था न करे , वह लोकधर्म नहीं ,व्यक्तिगत साधना है |"

शायद साहित्य, लेखन वगैरह की तरह ज्ञान भी कालजयी होता है. पढ़कर लगा जैसे आज के तमाम बाबाओं और 'साधुओं' के बारे में शुक्ल जी को पहले से ही मालूम था. या फिर ऐसा हर युग में होता आया है.

बहुत उत्कृष्टि प्रस्तुति.

BrijmohanShrivastava said...

यह पुस्तक नही पढ पाया । वैसे शुक्ल जी को पढा है , श्री अंजनीनंदनशरण जी ने बहुत सारे विद्वानों के विचार जिनमे श्री रामचन्द्र शुक्ल भी है ,प्राचीन न आधुनिक विद्वानों की आलोचनात्मक व्याख्याओं का सग्रह मानस पीयूष के नाम से है वह ,श्री मोरारी बापू द्वारा लिखित और श्री डोंगरे जी की मानस पर टीका पढी है ,आभारी है जो आप अत्यन्त परिश्रम करके लोकधर्म के अंश उपलब्ध करा रही है

अमिताभ श्रीवास्तव said...

abhari hu me aapka, yah me nahi padhh payaa tha.../ lokdharm, shuklji ke shbd vese bhi aatmsaat karne jese hote he.\
punah dhnyavaad aapka.

देवेन्द्र पाण्डेय said...

कर्म ,ज्ञान और उपासना इन तीन अवयवों को लेकर आचार्य रामचंद्र शुक्ल की लोक धर्म के सम्बन्ध में यह विवेचना अद्भुत है.
...दूसरे अंक की प्रतिक्षा रहेगी.

Udan Tashtari said...

एक शानदार पोस्ट. पठनीय. कितनी ही जानकारी समेटे हुए. बहुत आभार आपका.

समयचक्र said...

शानदार पोस्ट
बसंत पंचमी की आपको और आपके परिवार को हार्दिक शुभकामनाएं

Prem Farukhabadi said...

apka lekh apki soch aur apke vyaktitv ko paribhashit karta hai.
lekh sachmuch bahut sundar hai.badhai!

Rakesh Singh - राकेश सिंह said...

लोकधर्म क्या है? इसे बताना सरल नहीं, पर आपके आलेख द्वारा लोकधर्म को सरलता से समझा जा सकता है | बाकी आलेख के विषय, भाषा शैली पे मेरा कुछ कहना तो सूर्य को दिया दिखाने के सामान ही होगा |

काश ये बात सभी ज्ञानियों तक पहुंचे की "जो धर्म उपदेश द्वारा न सुधरनेवाले दुष्टों और अत्याचारियों को दुष्टता के लिए छोड़ दे , उनके लिए कोई व्यवस्था न करे , वह लोकधर्म नहीं ,व्यक्तिगत साधना है |"

कर्म ,ज्ञान और उपासना इन तीनों से ही लोकधर्म बना है, पर आज उपासना पद्धति को ही धर्म मानने की भयंकर भूल जारी है |