28.1.10

लोकधर्म (भाग - ३)

(आचार्य रामचंद्र शुक्ल जी की कृति "गोस्वामी तुलसीदास" से साभार)
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भक्ति के तत्व को हृदयंगम करने के लिए उसके विकास पर ध्यान देना आवश्यक है | अपने ज्ञान की परमिति के अनुभव के साथ साथ मनुष्य जाति आदिम काल से ही आत्मरक्षा के लिए परोक्ष शक्तियों की उपासना करती आई है |इन शक्तियों की भावना वह अपनी परिस्थिति के अनुरूप करती रही | दुखों से बचने का प्रयत्न जीवन का प्रथम प्रयत्न है | इन दुखों का आना न आना बिलकुल अपने हाथ में नहीं है, यह देखते ही मनुष्य ने उनको कुछ परोक्ष शक्तियों द्वारा प्रेरित समझा | अतः बलिदान आदि द्वारा उन्हें शांत और तुष्ट रखना उसे आवाश्यक दिखाई पडा | इस आदिम उपासना का मूल था, ' भय ' | जिन देवताओं की उपासना असभ्य दशा में प्रचलित हुई , वे "अनिष्टदेव " थे | आगे चलकर जब परिस्थिति ने दुःख निवारण मात्र से कुछ अधिक सुख की आकांक्षा का अवकाश दिया,तब साथ ही देवों के सुख समृद्धि विधायक रूप की प्रतिष्ठा हुई | यह 'इष्टा-निष्ट ' भावना बहुत काल तक रही | वैदिक देवताओं को हम इसी रूप में पाते हैं | वे पूजा पाने से प्रसन्न होकर धन धान्य , ऐश्वर्य, विजय सब कुछ देते थे, पूजा न पाने पर कोप करते थे और घोर अनिष्ट करते थे | ब्रज में गोपों ने जब इन्द्र की पूजा बंद कर दी थी, तब इन्द्र ने ऐसा ही कोप किया था | उसी काल से 'इष्टा-निष्ट' काल की समाप्ति माननी चाहिए |

समाज के पूर्ण रूप से सुव्यवस्थित हो जाने के साथ ही मनुष्य के कुछ आचरण लोक रक्षा के अनुकूल और कुछ प्रतिकूल दिखाई पड़ गए थे | 'इष्टानिष्ट' काल के पूर्व ही लोकधर्म और शील की प्रतिष्ठा समाज में हो चुकी थी,पर उनका सम्बन्ध प्रचलित देवताओं के साथ नहीं स्थापित हुआ था | देव गण धर्म और शील से प्रसन्न होने वाले, अधर्म और दुह्शीलता पर कोप करने वाले नहीं हुए थे, वे अपनी पूजा से प्रसन्न होने वाले और उस पूजा में त्रुटि से ही अप्रसन्न बने थे | ज्ञान मार्ग की ओर ब्रह्म का निरूपण बहुत पाले से ही हो चुका था,पर वह ब्रह्म लोकव्यवहार में तटस्थ था | लौकिक उपासना के योग्य वह नहीं था | धीरे धीरे उसके व्यवहारिक रूप ,सगुन रूप, की तीन रूपों में प्रतिष्ठित हुई - श्रष्टा , पालक और संहारक | उधर स्थितिरक्षा का विधान करने वाले धर्म और शील के नाना रूपों की अभिव्यक्ति पर जनता पूर्ण रूप से मुग्ध हो चुकी थी | उसने चट दया, दाक्षिन्य , क्षमा, उदारता, वत्सलता ,सुशीलता आदि उद्दात्त वृत्तियों का आरोप ब्रह्म के लोकपालक सगुन रूप में किया | लोक में ' इष्टदेव ' की प्रतिष्ठा हो गयी | नारायण वासुदेव के मंगलमय रूप का साक्षात्कार हुआ | जनसमाज आशा और आनंद से नाच उठा | भागवत धर्म का उदय हुआ | भगवान पृथ्वी का भार उतारने और धर्म की स्थापना करने लिए बार बार आते हुए साक्षात दिखाई पड़े | जिन गुणों से लोक की रक्षा होती है, जिन गुणों को देख हमारा ह्रदय प्रफुल्ल हो जाता है, उन गुणों को हम जिसमे देखें वही 'इष्टदेव' हैं - हमारे लिए वही सबसे बड़ा है-

तुलसी जप तप नेम व्रत सब सबहीं ते होई |
लहेइ बड़ाई देवता 'इष्टदेव' जब होई ||

इष्टदेव भगवान के स्वरुप के अंतर्गत केवल उनका दया - दाक्षिन्य ही नहीं असाध्य दुष्टों के संहार की उनकी अपरिमित शक्ति और लोकमर्यादा पालन भी है |
भक्ति का यह मार्ग बहुत प्राचीन है | जिसे रूखे ढंग से 'उपासना 'कहते हैं, उसी ने व्यक्ति की रागात्मक सत्ता के भीतर प्रेमपरिपुष्ट होकर 'भक्ति' का रूप धारण किया है | व्यष्टिरूप में प्रत्येक मनुष्य के और समशिष्टरूप में मनुष्य जाति के सारे प्रयत्नों का लक्ष्य स्थितिरक्षा है | अतः इश्वरत्व के तीन रूपों में स्थिति -विधायक रूप ही भक्ति का आलंबन हुआ | विष्णु या वासुदेव की उपासना ही मनुष्य के रितिभाव को अपने साथ लगाकर भक्ति की परम अवस्था को पहुँच सकी | या यों कहिए की भक्ति की ज्योति का पूर्ण प्रकाश वैष्णवों में ही हुआ|

तुलसीदास के समय में दो प्रकार के भक्त पाए जाते थे | एक तो प्राचीन परंपरा के रामकृष्णोपासक जो वेदशास्त्रज्ञ तत्वदर्शी आचार्यों द्वारा प्रवर्तित सम्प्रदायों के अनुयायी थे ; जो अपने उपदेशों में दर्शन ,इतिहास ,पुराण आदि के प्रसंग लाते थे | दुसरे वे जो समाजव्यवस्था की निंदा और पूज्य तथा सम्मानित व्यक्तियों के उपहास द्वारा लोंगों को आकर्षित करते थे | समाज की व्यवस्था में कुछ विकार आ जाने से ऐसे लोगों के लिए अच्छा मैंदान हो जाता है | समाज के बीच शासकों ,कुलीनों ,श्रीमानों , विद्वानों ,शूरवीरों ,आचार्यों इत्यादि को आवश्यक अधिकार और सम्मान कुछ अधिक प्राप्त रहता है ; अतः ऐसे लोगों को भी कुछ संख्या सदा रहती है जो उन्हें अकारण ईर्ष्या और द्वेष की दृष्टि से देखते हैं और उन्हें नीचा दिखाकर अपने अहंकार को तुष्ट करने की ताक में रहते हैं |अतः उक्त शिष्ट वर्गों में कोई दोष न रहने पर भी उनमें दोषोद्भावना करके कोई चलतेपुरजे का आदमी ऐसे लोगों को संग में लगाकर 'प्रवर्तक ' 'अगुआ ' महात्मा ' आदि होने का डंका पीट सकता है| यदि दोष सचमुच हुआ तो फिर क्या कहना | सुधार की सच्ची इच्छा रखनेवाले दो चार होगें, तो ऐसे लोक पच्चीस | किसी समुदाय के मद , मत्सर ,ईर्ष्या , द्वेष और अहंकार को काम में लाकर "अगुआ ' प्रवर्तक ' बनने का हौसला रखनेवाला समाज के शत्रु हैं |

योरप में जो सामाजिक अशांति चली आ रही है , वह बहुत कुछ ऐसे ही लोगों के कारण | पूर्वीय देशों की अपेक्षा संघनिर्माण में अधिक कुशल होने के कारण वे अपने व्यवसाय में बहुत जल्दी सफलता प्राप्त कर लेते हैं | योरप में जितने लोक -विप्लव हुए हैं , जितनी राजहत्या ,नरहत्या हुई है , सबमें जनता के वास्तविक दुःख और क्लेश का भाग यदि १/३ था तो विशेष जनसमुदाय की नीच ''प्रवृत्तियों का भाग २/३ | 'क्रांतिकारक ' 'प्रवर्तक ' आदि कहलाने का उन्माद योरप में बहुत अधिक है ,इन्हीं उन्मादियों के हाथ में पड़कर वहाँ का समाज छिन्नभिन्न हो रहा है | अभी थोड़े दिन हुए ; एक मेम साहब पति -पत्नी के साथ के सम्बन्ध पर व्याख्यान देती फिरती थीं की कोई आवश्यकता नहीं है स्त्री पति के घर में ही रहे |


क्रमशः :-
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21 comments:

Creative Manch said...

bahut sundar lekh...


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Mithilesh dubey said...

बेहद उम्दा व सारगर्भित लेख रहा, आपने बहुत मेहनत किया होगा इसपर । आभार आपका हमतक पहुचाने के लिए ।

Anonymous said...

ज्ञानवर्धक आलेख.

राज भाटिय़ा said...

बिलकुल सही लिखा आप ने, आप से सहमत है

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' said...

भक्त-रस छलकाने के लिए आभार!

डॉ. मनोज मिश्र said...

विद्वतापूर्ण आलेख.

मनोज कुमार said...

असाधारण शक्ति का गद्य|

सुरेन्द्र "मुल्हिद" said...

aafareen!

समयचक्र said...

बहुत सारगर्वित प्रेरक आलेख आभार.

BrijmohanShrivastava said...

आचार्य जी का यह कहना गोस्वामी के जमाने मे दो प्रकार के भक्त थे प्रथम रामकृष्णोपासक और दूसरे उपहास द्वारा लोंगों को आकर्षित करते थे ,उन्हे भक्त कैसे कह दिया हालांकि उनकी ओर इशारा तुलसी जी ने किया है पर हित हानि लाभ जिन केरें और पर हित घ्रत जिनके मन माखी लेकिन बाबा ने उन्हे असज्जन कहा है उन दिनो बाममार्गी भक्त भी थे शायद पंच मकार वाले उनका तो तुलसी ने भक्त माना ही नही है उस मत का विरोध भी इनकी रचनाओं मे स्पष्ट दिखाई देत है ।यह सही है कि "" संग में लगाकर 'प्रवर्तक ' 'अगुआ ' महात्मा ' आदि होने का डंका पीट सकता है| यदि दोष सचमुच हुआ तो फिर क्या कहना "" वह स्थिति आज भी है ।आज भी मानस की अलंकार प्रयोग करके रची गई चौपाइयों की बराबर आलोचना की जा रही है

Manish Kumar said...

शुक्ल जी की इस लेखमाला को यहाँ प्रस्तुत कर तुलसीदास जी के विचारों को
उनके नज़रिए से देखने का पाठकों को मौका मिला है। शुक्रिया !

Hari Shanker Rarhi said...

I liked especially the sentence'Devgan dharm aur sheel se prasanna hone wale....nahin, apni pooja se prasanna hone wale the' . The article is undoubtedly thought evoking.

Hari Shanker Rarhi said...
This comment has been removed by the author.
Gyan Dutt Pandey said...

योरप में जितने लोक -विप्लव हुए हैं , जितनी राजहत्या ,नरहत्या हुई है , सबमें जनता के वास्तविक दुःख और क्लेश का भाग यदि १/३ था तो विशेष जनसमुदाय की नीच ''प्रवृत्तियों का भाग २/३ | 'क्रांतिकारक ' 'प्रवर्तक ' आदि कहलाने का उन्माद योरप में बहुत अधिक है ,इन्हीं उन्मादियों के हाथ में पड़कर वहाँ का समाज छिन्नभिन्न हो रहा है |
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आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने जब यह लिखा होगा तब भारत शायद उतना योरोपीय न रहा होगा। पर अब जैसी परिस्थितियां यहां बनती जा रही हैं - नेपाल से रायलसीमा तक जन विप्लव का नकली उबाल लाया जा रहा है, स्थितियां वैसी ही हो रही हैं।
कहां हैं आज के तुलसीदास?

कुश said...

आप अपने ब्लॉग को बहुत ऊपर ले जा रहीं है.. मैं पिछली सारी पोस्ट्स को एक एक करके बुकमार्क कर रहा हूँ.. मैं इन्हें कमाल कहूँगा.. सिर्फ और सिर्फ कमाल..

pran sharma said...

Aapka blog uchchstariy hai.Iska
aadhaar hai aap dwara dee jaa rahee
ullekhniy samagree.

वाणी गीत said...

उन्मादियों की यह भीड़ यूरोप से स्थानांतरित होकर एशिया में आ गयी है ...पूरे महाद्वीप में ही मार काट मची है ....ऐसे समय में आपकी यह कृति आंदोलित कर दे और कोई और चल निकले तुलिदास बनने की राह पर ....
बहुत सारगर्भित आलेख ...आभार ...खेद है कि मेरी नजर कुछ देर से गयी इस पर ...

लावण्यम्` ~ अन्तर्मन्` said...

रंजना जी
बहुत बहुत आभार ..
देर से पहुँची हूँ
परंतु
ज्ञानवर्धक आलेखों को पढ़कर
बहुत आनंद आ रहा है :)
स स्नेह,
- लावण्या

Abhishek Ojha said...

निश्चय ही वैचारिक आलेख है. पढता चल रहा हूँ...

निर्झर'नीर said...

सारगर्भित ,वैचारिक ,ज्ञानवर्धक
आपकी विद्व्ता का परिचायक है लेख

Rakesh Singh - राकेश सिंह said...

कहने को शब्द नहीं हैं ... सिवाय इसके की ... आलेख पढ़ कर मंत्रमुग्ध हो गया ....