17.4.09

सप्त्शी के तालीबानी....

किसी भी धर्म के पूज्य ग्रंथोँ, जिन्हें कि न जाने कितने महत अन्वेश्नोपरांत लिखा गया है, को केवल ऊपरी सतही तौर पर पढ़कर, यदि हम शब्द आधारित विश्लेषण करेंगे और उसके विषय में अपना अभिमत स्थिर करेंगे तो यह उस ग्रन्थ और उसके रचयिता के श्रम और उद्देश्य की अवमानना होगी,उसके प्रति सरासर अन्याय होगा..जिस प्रकार गहरे सागर में से मोती चुनने के लिए बार बार गहन तल में उतारना पड़ता है,वैसे ही भाव /ज्ञान रुपी मोती को पाने के लिए एकाधिक बार ग्रन्थ रूपी उस अथाह समुद्र में भी उतरना चाहिए....

जिस किसी ने भी इसका अनुभव किया होगा वह सहज ही इससे सहमत होगा कि रामायण गीता हो या कुरान बाइबिल ,जितनी बार उसे पढ़ा बांचा जाता है,हर बार जैसे नयी नयी परतें खुलती जातीं हैं..हर बार एक नया अनुभव होता है..लगता है.....अरे इतनी बार पहले भी पढ़ा ,पर इसबार तो यह नितांत ही नवीन तथ्य दृष्टिगत हुआ..

कालजयी रचनाओं के विषय में ठोस धारणा स्थापित करने से पहले कम से कम पूर्ण समर्पित भाव से अपने पूर्वाग्रहों को परे कर न्यूनतम दो तीन बार अवश्य पढ़नी चाहिए,इसके पश्चात ही किसी निर्णय पर पहुँच समालोचना देनी चाहिए...

इसी क्रम में एक कथा का स्मरण हो आया..किसी सत्संग सभा में रामकथा पर प्रवचन हो रहा था...कथोपरांत प्रश्न काल में एक महोदय ने तुलसीदास जी के प्रति अपना क्षोभ व्यक्त करते हुए संत से कहा कि, तुलसीदास जी ने रामायण के समस्त पात्रों के साथ सामान न्याय नहीं किया है.राम और सीता का तो उन्होंने इतना गुणगान बखान किया ,पर लक्षमण,उर्मिला,दशरथ इत्यादि पात्रों के उल्लेखनीय व्यक्तित्व को बड़े ही संक्षिप्त कलेवर में समेट दिया.

संत ने उनकी जिज्ञासा का समाधान करते हुए कहा कि - भाई,अब चूँकि यह रामचरितमानस है,इसलिए इसमें राम के व्यक्तित्व और कृतित्व को प्रमुखता दी गयी है,यदि यह दशरथ वंशावली होती तो निश्चित ही इसमें प्रत्येक पात्र के कृतित्वों की वृहद् विस्तृत व्याख्या की गयी होती.

मैंने अपने अनुभव में अधिकांशतः यह देखा है कि धर्म और धर्मग्रंथों की सर्वाधिक आलोचना करने वालों में बहुलता से वे ही होते हैं, जिन्होंने एक बार भी इन्हें पढने तथा निरपेक्ष भाव से इन्हें जानने का प्रयास नहीं किया है. धर्म हो, चाहे कोई भी अन्य विषय, किसी भी विषय पर अपना अभिमत स्थिर करने तथा उसकी निंदा स्तुति करने से पूर्व उसे एक बार ठीक ठीक जानने का प्रयास अवश्य करना चाहिए तथा अपने मत के साथ साथ दूसरों के दृष्टिकोण को भी सुनना समझना चाहिए..

साधारनतया हमारे धर्मग्रंथों या धार्मिक आख्यानों में जिस प्रकार से कथा वर्णित होती है, प्रथम दृष्टया ग्राह्य नहीं लगते और कुछ हद तक हास्यास्पद भी लगते हैं..परन्तु उन शब्द योजनाओं से आगे जाकर यदि उनके सारगर्भित भावों उद्देश्यों को देखेंगे तो वे बहुत ही समसामयिक लगेंगे..और यही कारण है कि शताब्दियाँ बीत गयीं पर ये आज भी आस्तित्व में हैं और आगे भी रहेंगी.

अभी कुछ दिनों पूर्व नवरात्र में दुर्गा सप्त्शी का पाठ कर रही थी और हटात कथानक को पढ़ मन में कौंधा कि , जिस प्रकार से उसमे वर्णित है कि, देवताओं को राज्यच्युत कर जब राक्षसों ने श्रृष्टि को त्रास देना आरम्भ किया तो उन्होंने रक्षार्थ देवी का आह्वान किया और भीषण युद्ध के उपरांत देवी ने असुरों का विनाश कर सात्विक संस्कृति की रक्षा की...आज के प्रसंग में यदि इस कथा को देखें तो...लगेगा कितनी प्रासंगिक है यह आज भी...इसमें राक्षस और देव दोनों ही रूपक या प्रतीक हैं,संस्कृति के विध्वंसक और पोषक के..

समय के अनंत कालखंड में उत्तरोत्तर प्रगति और विकास के पथ पर चलकर जो सभ्यता सुदृढ़ वैभवशाली हुई है.धार्मिक ,सांस्कृतिक,वैज्ञानिक और सामाजिक प्रत्येक क्षेत्र में जो जीवनोपयोगी अविष्कार किये गए हैं , नवीन मानदंड स्थापित हुए हैं,जिसने जीवन को सुन्दर सुखद बनाने में महत भूमिका निभाई है. मानव जगत का एक वर्ग उसे पूर्णतः नष्ट भ्रष्ट और ध्वस्त कर देना चाहता है.आज भी संसार में देव और दानव मनुष्य के अंतस में विद्यमान हैं.इसमें देव वो लोग हैं,जो किसी भी सकारात्मक प्रगति के पक्षधर हैं तथा किसी न किसी प्रकार इसके पोषण संरक्षण में संलग्न हैं और दनाव वो लोग हैं जो इस प्रगति को नकार कर व्यवस्था को छिन्न भिन्न नष्ट भ्रष्ट कर सभ्यता समाज को, जीवन को मूल्यहीन बर्बर पाषणयुगीन दौर में ले जाना चाहते हैं.

देखिये न ....आज मानव जगत का एक वर्ग जो उग्र विध्वंसक बन प्रगति का धुर विरोधी है,क्या वह पुराण कथाओं में वर्णित दानवों से किसी भांति कम है....तालिबानी के नाम से जाने जाने वाले इस वर्ग के जो भी कार्य कलाप या विचारधारा है,क्या वह बर्बर दानवों से किसी मायने में कम है...

कल्पना कर देखिये की यदि यह वर्ग सचमुच ही सफल हो जाय और पूरे संसार पर इनका आधिपत्य हो जाय...इनके जो भी नियम कानून हैं, उसके अंतर्गत पशुवत जीवन यापन करने को हम बाध्य हों, प्रगति और संस्कृति के पोषक रक्षक इन विध्वंसकों से पराजित हो असहाय हो जायं.....फिर तो लगभग वही स्थिति होगी जो असुरों से पराजित हुई सत्ता शक्ति विहीन शाप्ताशी कथा में वर्णित उन देवों की हुई थी.

आज सभ्यता की विध्वंसक शक्तियां इसलिए सफलता प्राप्त कर रही है क्योंकि वह संगठित है.....अस्त्र शस्त्र दृढ संकल्प शक्ति कठोर अनुशासन और संगठन की वह शक्ति जितनी सुदृढ़ है,रक्षक शक्तियों में इन सबका अभाव है इसलिए चाहकर भी वह इन क्रूर शक्तियों के आगे पराजित हो जाती हैं...जिस दिन देव (रक्षक) शक्तियां संगठित हो जाएँगी और अपने सर्वोच्च तेज पुंज को एकत्रित कर उनके विरुद्ध खड़ी हो jayengee , असुर शक्ति का विनाश हो जायेगा। शांति के पोषक प्रगति के कर्णधार जब तक विखण्डित रहेंगे,असुर शक्तियां फलती फूलती जायेंगी.

दुर्गा का अर्थ ही होता है "संगठित शक्ति" और दुर्गा सप्त्शी की यह कथा मूल रूप में यही दिखाती सिखाती है। सकारात्मक शक्तियां संगठित और अनुशाषित होकर ही दुराचारी विनाशकारी शक्तियों को सहज ही पराजित कर सकती हैं,भले वह शक्ति एक स्त्री शक्ति ही क्यों न हो.

अब बात रही दुर्गा को स्त्री और माँ कहने की,बात तो कुछ लम्बी हो जायेगी,संक्षेप में यही कहा जा सकता है कि ... शक्ति स्त्रीलिंग है,इसलिए इस शक्तिपुंज को भी स्त्री रूप में माना गया है.दुसरे, जब कभी भी हम कष्ट में होते हैं ,सबसे पहले हमें जिस नाम का स्मरण होता है,वह "माँ" का ही होता है.हम कितने भी कष्ट में रहें " माँ" का नाम दुहराते ही जैसे लगता है जैसे कष्ट कम हो गया....तो शाप्त्शी में भी जो माता के आह्वान की कथा है ,वह इसी भाव में है.

पौराणिक आख्यानों में वस्तुतः जो भी कथा वर्णित है,वह दृष्टान्त या रूपक हैं,जिसे युग विशेष के परिप्रेक्ष्य में देखने समझने का प्रयास करना चाहिए.जिस समय ये कथानक रचित हुए थे ,उस समय के जो भी राजनितिक सामाजिक परिदृश्य थे ,उन रूपकों के साथ ये कथा वर्णित किये गए थे...

एक बात और है,धार्मिक आख्यानों में जिस प्रकार से दंड विधान नियोजित हैं तथा धार्मिक आख्यानों में जिस प्रकार के कथानक रखे गएँ हैं,उनके एकमात्र उद्देश्य यही हैं कि वे अशिक्षित जनसाधारण द्वारा भी सहज ही बोधगम्य ग्राह्य हो और भयवश जनसाधारण नियमों में बंधे रहें। .

"सार्वजानिक स्थान पर धूम्रपान वर्जित है " पता नहीं कितने समय से यह निर्देश सार्वजानिक स्थलों पर उद्दृत रहता था....परन्तु दंड(भय) के अभाव में यह पूर्णतः निरस्त था.जबसे इसके लिए अर्थ दंड का प्रावधान किया गया ,लोग सतर्क रहने लगे. बहुत कुछ इसी आशय से धर्म में भी जो स्वर्ग नर्क ,पाप पुन्य दंड इत्यादि की व्याख्या है,उसका निहितार्थ यही है कि भयवश ही सही लोग धर्माचरण में प्रवृत्त हों और समाज संतुलित सुव्यवस्थित रहे.

एक बात और ....आज हमारे जो भी धर्मग्रन्थ जिस रूप में हमें उपलब्ध हैं,लगभग कोई भी अपने मूल रूप में नहीं रह गए हैं.परवर्ती काल में इसमें बहुत से प्रक्षेपांश जोड़े गए हैं.धर्म को विवादस्पद और दिग्भ्रमित किये रखने के लिए बड़े ही सुनियोजित ढंग से ये प्रयास विशेषकर मध्यकाल में मुस्लिम शासकों द्वारा करवाए गए हैं.उद्देश्य स्पष्ट है,धर्म ही व्यक्ति को दृढ बंधन में आबद्ध कर संगठित करता है,उसमे जितने विवाद होंगे,शासक का काम उतना ही आसान होगा..जात पांत छूआ छूट वैमनस्य फैलाकर और लोगों को असंगठित कर ही कोई भी शासक अपने कुचक्रों में सफल हो सकता है.अब देखिये न एक तरफ जहाँ भगवान् को भी शूद्रों के जूठन खाने की बात कही गयी,स्त्री को सर्वोच्च शक्ति और पूज्य माना गया वहीँ आज उपलब्ध इन्ही ग्रंथों में शूद्रों की उपेक्षा और नारी की अवमानना की बातें भी मिल जातीं हैं...अब सोचने वाली बात यह है कि कोई भी प्रबुद्ध व्यक्ति ऐसी विरोधाभासी बातें कैसे लिख सकता है....यह केवल हिन्दू ग्रंथों के साथ ही नहीं हुआ है,बल्कि अन्य धर्मग्रंथों के साथ भी हुआ है.

इसलिए आज आवश्यकता यह है की अपनी बुद्धि का उपयोग कर हम इन पवित्र ग्रंथों को पढें और इनके प्रक्षेपांशों को नकारते हुए कल्याणकारी सुन्दर बातों को हृदयंगम करने और उनका अनुकरण करने का प्रयास करें.

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