7.11.19

प्रेतयोनि

भूख प्यास निद्रा मैथुन आदि का अनुभव और उपभोग शरीरिक है या मानसिक??
गम्भीरता से विचारेंगे तो पाएँगे कि 25 से 30% ही यह शारीरिक है, 70-75% यह विशुद्ध मानसिक है।ऐसा न होता तो हर्ष या अवसाद में कई कई दिनों तक भूख प्यास निद्रा का ध्यान भी न आना न होता, माता पुत्री या भगिनी के साथ शारीरिक संबंध की कल्पना भी पाप न लगता।

और हम कौन हैं, शरीर या आत्मा??
जबतक शरीर में आत्मा अवस्थित हो,हम हैं।जैसे ही आत्मा ने शरीर त्यागा किया, हम हम नहीं बचते, हमारी पहचान एक शब्द "शव" में परिणत हो जाता है जिसे हमारे अपने ही प्रियजन शीघ्रातिशीघ्र नष्ट कर देने को तत्पर हो जाते हैं।

किन्तु जिस शरीर में रमे और इसे ही अपना अस्तित्व समझते आये हम,, मृत्यु पाते ही क्या सहज स्वीकार लेते हैं कि अब "हम" नहीं रहे??
नहीं,,कदापि नहीं।
आत्मज्ञानी सिद्ध जन इसी हेतु जीवन भर ईश्वर से याचना करते हैं कि मृत्यु रूपी इस सत्य को वे/जीव सहज ही और तुरन्त स्वीकार लें।देह के मोह से वे मुक्त हो पाएँ।क्योंकि देह छूटने के बाद आत्मकोश में सञ्चित अभ्यास(भूख प्यास निद्रा मैथुन) अपरिमित कष्ट देने लगता है।वे आवश्यकताएँ पूर्ववत ही नहीं अपितु अधिक उग्र रूप में अनुभूत होने लगते हैं परन्तु इनकी पूर्ति का वह माध्यम -"देह" पास नहीं होता।देह का मोह,परिजनों का मोह,उसके द्वारा जीवन में सञ्चित धन और साधनों का मोह, पद प्रतिष्ठा का मोह, जीव को अत्यन्त व्याकुल कर देता है।सूक्ष्म शरीर जो भौतिक शरीर के आधीन रह सीमित गतिमान था, अशरीरी हो अपरिमित गति पाता है और भटकते हुए अपने प्रिय आधारों से लिपटकर करुण विलाप करता है।

सनातन धर्म में इसी कारण मृत्यु उपरान्त शरीर के अग्निस्नान की व्यवस्था की गयी ताकि जब वह शूक्ष्म शरीर अपने ही परिजनों द्वारा शरीर को नष्ट करते हुए देखे, पुनः शरीर प्राप्त करने की कोई संभावना उसे न दिखे। अगले 12-13 दिन की जितनी भी धार्मिक क्रियाएँ हिन्दू धर्म में सम्पादित होती हैं,हर एक क्रिया वैज्ञानिक भी है और जीव को मुक्त होने हेतु प्रेरित करने वाली भी।क्रियाओं के अन्तिम दिन जब श्राद्ध भोज(श्रद्धा निवेदन) होता है जिसमें उक्त व्यक्ति के समस्त परिजन तथा समाज दिवंगत को श्रद्धांजलि देते एक तरह से उद्घोषित करता है कि उन्होंने दिवंगत का जाना स्वीकार लिया है,अब वह जीव भी इस जीवन से मुक्त हो अपने गंतव्य को प्रस्थान करे, तो अधिकांश जीव यह स्वीकार कर लेते हैं कि उनकी जीवन यात्रा पूर्ण हुई। किन्तु इसी में कुछ जीव जो इसके लिए प्रस्तुत नहीं होते व्याकुल हुए इसी प्रेत योनि में भटकते रहते हैं।

जैसे मनुष्य या अन्य जीव योनि का अस्तित्व और संसार है, ठीक ऐसे ही प्रेत योनि का भी अस्तित्व है और मनुष्यों के समान ही इनकी विभिन्न प्रजातियाँ/प्रकार होते हैं।एक भरा पूरा संसार इस योनि का भी है।
अपनी मृत्यु को न स्वीकारने वाले,आकस्मिक निधन,आत्महत्या आदि को प्राप्त करने वाले अधिकाँश जीव इस योनि में सामान्य से अधिक काल तक रहने को अभिशप्त होते हैं।हालाँकि सनातन धर्म में अकाल मृत्यु को प्राप्त लोगों के लिए सामान्य के अतिरिक्त भी विशिष्ट पूजा/क्रियाओं की व्यवस्था है।लेकिन कोई जीव कितने समय तक इस नर्क योनि(प्रेतयोनि) में रहेगा,यह पूरी तरह उस जीव की स्वयं की मनःस्थिति पर ही निर्भर करती है।ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, सन्यास और वानप्रस्थ आश्रम की व्यवस्था इसी कारण तो हमारे यहाँ की गई थी ताकि एक जीव जो संसार में आया है,समस्त सांसारिक अनुभवों से गुजरता समृद्ध और सन्तुष्ट होता अंततः मृत्यु को सहजता पूर्वक स्वीकार कर पाए।

खौलते कड़ाहे में भुनना, विष्ठा में लोटना, अन्धकूप में भटकना,काँटों पर लोटना आदि आदि जिन नारकीय यन्त्रणाओं का वर्णन किया जाता है, वस्तुतः ये प्रतितियाँ हैं जो मोह में फँसा जीव/प्रेत भोगता है।

जीवनभर सतपथ पर चलता मनुष्य जो सहजभाव से मृत्योपरांत मुक्त हो चुका होता है और कहीं अन्यत्र किसी नूतन शरीर में जीवन जी रहा होता है, उसका भी एक क्षीणकोश(रक्त/DNA रूप में) अपने वंशजों द्वारा तर्पण प्राप्त कर उन्हें आशीर्वाद देने को ब्रह्माण्ड में अवस्थित रहता है।जब कोई जीवित व्यक्ति अच्छे कर्म करता है तो कहा जाता है पितृलोक में अवस्थित उसके पितर संतुष्ट हो अपने आशीर्वाद का बल उसे देते हैं,,अकाट्य सत्य है यह।

बहुत पहले कहीं पढ़ा था कि भले पश्चिमी देश भारत को अंधविश्वासी कूपमंडूक और असभ्य ठहराए, लेकिन उनका अपना समाज इन जंजीरों में अत्यधिक जकड़ा हुआ है।मृत शरीर को नष्ट करने हेतु अग्नि आदि की अनुपलब्धता के कुछ भौगोलिक कारण भले रहे हों, पर कब्रों में उन्हें रख देने की विधि के पीछे मुख्य कारण यही है कि उन्हें विश्वास है कि कयामत के दिन उनके ईश्वर आएँगे और प्रत्येक मृत मनुष्य के कर्मों का हिसाब कर उनका न्याय करेंगे।तबतक जीव शांतिपूर्वक कब्र में पड़ा रहे, किसी को परेशान न करे, इसीलिए RIP( रेस्ट इन पीस) की कामना करते हैं।और सत्य बात यह है कि प्रेत प्रकोप इनके यहाँ सनातनियों की तुलना में बहुत अधिक है।
अभी कुछ ही दिनों पहले (30 अक्टूबर को) बड़े ही धूमधाम से पश्चिम वालों के साथ साथ एलीट भारतीयों ने भी "हैलोवीन" पर्व/पार्टी मनाया।चूँकि उनके यहाँ व्यवस्थाएँ ऐसी हैं कि प्रेत योनि(सनातन धर्म में यह काल 10-11 दिन का ही माना गया है) में कौन कितने दिन रहेगा, इसका ठिकाना नहीं, तो इसके लिए स्वीकार्यता बढ़ाने के साधन उन्होंने खोज लिए हैं।स्वयं भूत प्रेत पिशाच चुड़ैल आदि बनकर भूतों को कम्पनी देना और स्वयं को इस स्थिति के लिए सज्ज करना,यह उनकी मजबूरी है।लेकिन उस धर्म के अनुयायियों द्वारा इसका अनुकरण जिसमें जीवन की तैयारी समस्त कर्तव्य सम्पादित करते मुक्त मन से मोक्ष की ओर जाना है, प्रेत योनि की स्वीकार्यता और इसे मनोरंजन का साधन बनाना, घोर दुर्भाग्यपूर्ण ही तो है।आज तो वैलेंटाइन पर्व के तरह इस पर्व में भी बाज़ार ने असीम सम्भावनाएँ देख ली हैं और इसका अपरिमित विस्तार को कमर कस चुकी है।खैर, जिसका जो अभीष्ट होगा,उसकी उसी ओर कर्म होंगे और वही उसका प्राप्य होगा,निश्चित ही है।
अतः ईश्वर के दिये एक एक साँस का हम सदुपयोग करें,स्वयं का कर्तब्य और दायित्व समझें,आत्मविकास करें तो हमारी सकारात्मकता निश्चय ही हमारे आसपास सात्विकता प्रसारित कर हमें आत्मसंतोष देगी,हमें अपना जीवन सार्थक लगेगा और जीवित रहते हम प्रसन्नतापूर्वक मृत्यु को अंगीकार करने को प्रस्तुत रहेंगे।जीतेजी और मरकर भी भकटने से बचें,यही तो जीवन की सिद्धि है।

Ranjana Singh

23.10.19

दीपोत्सव

पर्यावरण बचाने को पटाखों से और स्वास्थ्य बचाने को भारतीय मिठाइयों से परहेज़ हेतु व्यापक और प्रभावी अभियान स्कूलों से लेकर टीवी विज्ञापनों पर अविराम चल रहा है।बाज़ार यह समझाने में लगभग सफल हो गया है कि दीपोत्सव का अर्थ नए नए कपड़े,सोने गहने की खरीदारी और मिठाई के स्थान पर चॉकलेट खाना खिलाना है।
होली दिवाली जैसे पर्व कितने पर्यावरण अहितकारी, अवैज्ञानिक, दाकियानूसी त्योहार/परंपराएं हैं, यह सिद्ध करने में यूँ भी तथाकथित प्रगतिवादी वर्षों से अपने प्राण झोंके हुए हैं।
ऐसे में बेचारे सामान्य जन जिन्हें पर्व परम्पराएँ भी खींचती हैं और वामी प्रगतिशीलता भी, कनफ्यूज कनफ्यूज हैं।उन्हें साफ दिख रहा कि मिठाइयों में धड़ल्ले से मिलावट हो रही है, पटाखों से ध्वनि प्रदूषण और रंगबिरंगे फुलझड़ियों से वायु प्रदूषण ऐसे हो रहा है कि पर्व के हफ्ते भर बाद तक वायुमण्डल धुएँ से आच्छादित रहता है,साँस लेना दूभर लगता है।

बस यही समय है कि दो घड़ी को बैठकर खुद भी समझें कि हमें क्या और कैसे करना चाहिए और अपने बच्चों को भी यह समझायें-
 
वर्षा ऋतु में जमे पानी के गड्ढे जितने कीट पतंगे मच्छड़ आदि की बहुतायत के कारण बनते हैं,घर के भीतर भी जो गन्दगी फंगस आदि जमा होते हैं, सफाई के द्वारा पहले उनके उत्पादन स्थल को नष्ट करने के लिए ही दिवाली पूर्व व्यापक सफाई की परंपरा "नहीं तो लक्षमी घर में नहीं आएँगी", कहते पुरातन काल से चली आयी है।
तो घर के बड़ों का प्राथमिक कर्तब्य बनता है कि बच्चों को साथ लेकर घर के अन्दर बाहर गली मुहल्लों तक में सफाई करें।यह दीप से दीप जलाने जैसी बात होगी।एक परिवार को इस तरह से सफाई करते और इस क्रम में साथ सहयोग का आनंद लेते लोग देखेंगे तो एक से दो,दो से चार प्रभावित होते चले जाएँगे।

चंद्रविहीन अमावस की काली रात में अधिकाधिक मिट्टी के दीये ही क्यों जलाए जाने चाहिए,बच्चों को यह समझाएँ और उनसे दीये जलवाएँ।जब वे प्रत्यक्ष कीट पतंगों मच्छडों को नष्ट होते देखेंगे तो जीवन भर के लिए इसको अपना लेंगे।

यह दिन और रात मानसिक अंधकार को दूर कर सात्विकता और हर्ष द्वारा मन को उत्तम विचारों से प्रकाशित करने का दिन है, प्रभु राम को हृदय में विराजित कर इसे अयोध्या(जो कभी किसी के द्वारा जीता न जा सके, नकारात्मकता जिसपर कभी भी आधिपत्य न जमा सके) बनाने का दिन है।
और इस हेतु समझिए कि जबतक हम पर्यावरण की, गौ की, मानव मूल्यों की और सम्बन्धों की गरिमा नहीं रखेंगे, उनके संरक्षण हेतु तत्पर नहीं होंगे कभी सच्चे अर्थों में दीपोत्सव नहीं मना पाएँगे।
हमने गौ का बहिष्कार और तिरस्कार कर इसे सेकुलडिता के अन्तर्गत वध्य(फ्रीडम ऑफ फ़ूड या च्वाइस फ़ॉर फ़ूड) स्वीकार लिया, गायों को कसाईखाने और कुत्तों को ससम्मान घर के अन्दर लाकर पूज्य बना दिया,,तो अब मिठाई के लिए छेना खोया की जगह केमिकल कचड़े ही तो मिलेंगे।लेकिन इसके बाद भी उपाय और विकल्प "चॉकलेट" तो कतई नहीं है।हमारे घर की अन्नपूर्णाएँ इतनी सिद्ध हैं कि बिना खोये छेने के भी 50 तरह के मिष्टान्न बना सकती हैं।उनसे अनुरोध है कि थोड़ी सी मेहनत करें और बच्चों को साथ लेकर घर पर ही कुछ मिष्टान्न बना लें।विश्वास करें, जो आह्लाद मिलेगा,वह अपूर्व होगा।इसके साथ ही बच्चे भी यह सब बनाना सीखेंगे।

ध्यान रखें, अमावस्या की यह रात्रि सिद्धिदात्री होती है।काल/समय अपने कालिका रूप में पृथ्वी पर अपने साधकों को वर देने को विचरती रहती हैं। इसमें आप जो सिद्ध करेंगे, वह सिद्ध होगा।सात्विकता सिद्ध करेंगे तो वह सधेगा,यदि शराब जुआ पार्टीज आदि(नकारात्मकता) सिद्ध करेंगे तो हृदय का असुर सिद्ध होगा जो एक पल को भी सकारात्मकता की रश्मियों को हृदयतल तक पहुँचने न देगा।सबकुछ होते हुए भी आप शान्ति सन्तोष और सुख का अनुभव नहीं कर पाएँगे।

इस तरह, दीपमालिका से सजी पावन और सुन्दर दीपावली मनाइए।
और हाँ, दान हमारे सनातन की अनिवार्य प्रक्रिया है, इसके बिना पर्व पूर्ण नहीं होता।
सो, वंचितों को अवश्य कुछ न कुछ दीजिये ताकि उनके हृदय के प्रसन्नता का प्रकाश आपके जीवन को प्रकाशित कर दे।

"आप सभी को शुभ दीपोत्सव की अग्रिम शुभकामनाएँ....जय श्रीराम"

3.6.19

सावित्री कथा, वैज्ञानिकता के परिप्रेक्ष्य में

इस व्रत का नाम "वट सावित्री व्रत" है,जिसमें कथा केन्द्र में पतिपरायणा सती नारी सावित्री हैं,जो यमराज से न केवल पति के प्राण वापस ले आती हैं अपितु अपने मातृ और स्वसुर कुल के लिए भी यमराज से वरदान प्राप्त कर सबको सुखी समृद्ध और अभावहीन कर देती हैं। सम्बन्धों और सम्बन्धियों के प्रति निष्ठा, समर्पण, सेवा भाव आदि मानवीय भावों को थोड़ी देर के लिए बगल में रख देते हैं और वहाँ जाते हैं जहाँ वन में लकड़ियाँ काट रहे सत्यवान क्लान्त होकर विश्राम की इच्छा प्रकट करते हैं और सावित्री उन्हें वटवृक्ष के नीचे विश्राम का आग्रह करतीं हैं। सत्यवान प्रगाढ़ निद्रा में लीन होते हैं और यमराज उनके प्राण लेकर अपने लोक को गमन करते हैं।पतिव्रता सावित्री यमराज का अनुसरण करते उनके पीछे चलने लगती हैं। स्थूल रूप से यह सम्भव नहीं लगता।लेकिन जिनकी इस विषय में रुचि है,यदि उन्होंने थोड़ा भी अध्ययन किया है या जो सिद्ध पुरुष हैं और अपने अनुभवों से यह शक्ति पाया है, वे जानते हैं कि व्यक्ति का स्थूल शरीर केवल एक आवरण है जो पूर्णतः शूक्ष्म शरीर द्वारा संचालित होता है और उस शूक्ष्म शरीर के साथ व्यक्ति कहीं भी गमन कर सकता है। अब चूँकि सावित्री को ज्ञात था कि(जिसे ज्योतिष शास्त्र का ठीक ठाक ज्ञान हो,जीवन की घटनाएँ आयु मृत्यु आदि की गणना वह आज भी कर सकता है) अमुक दिन सत्यवान की आयु शेष हो रही है तो उसने अपना पूरा ध्यान वहीं केन्द्रित कर रखा था। मानवीय दुर्बलताओं,विकारों से एक सामान्य मनुष्य भी यदि स्वयं को बचा लेता है तो उसमें सात्विक ऐसी शक्तियाँ विकसित हो जाती हैं जिसके बल पर उसका कहा सत्य होता है,उसके आशीर्वाद और श्राप सिद्ध होते हैं और अपने शूक्ष्म शरीर के साथ वह न केवल कहीं आ जा सकता है अपितु परकाया प्रवेश भी कर सकता है( ये बातें केवल पढ़ी सुनी नहीं कह रही, बहुत कुछ स्वानुभूति के आधार पर, इस तरह के कई लोगों के अनुभूति के आधार पर कह रही हूँ)। हमारे एक मित्र हैं, जिन्होंने वैज्ञानिक ढंग से यह सिद्ध कर दिया है कि जिसे हम प्राण कहते हैं,उसका भी एक वजन होता है,उसके गमन का एक मार्ग होता है,अँगूठे सी आकृति वाला धुँधला पर उज्ज्वल वह प्रकाशमान होता है जिसे सामान्य दृष्टि/आँखों से नहीं देखा जा सकता।हाई रेज्युल्यूशन सॉफ्स्टिकेटेड ऐसे कैमरे बनाये जा चुके हैं जिसके द्वारा व्यक्ति के ऑरा/प्रभाकिरण तथा प्राण के उस प्रकाश को देखा जा सकता है।ऑरा हीलिंग के लिए तो ऐसे कैमरों के प्रयोग आरम्भ भी हो चुका है। तो जब यमराज सत्यवान के प्राण लेकर चले तो ध्यान में लीन सावित्री अपने शूक्ष्म शरीर के साथ उनका अनुगमन करने लगी और उसकी प्रतिबद्धता ने जाते हुए उस प्राण का,गमन बाधित किया जो शरीर से निकलने के बाद उससे मुक्त हो अपने गंतव्य की ओर जा रहा था,जहाँ उसे मोहमुक्त होकर एकाकी ही जाना था। उस प्राण/चेतना को ही हम थोड़ी देर के लिए यम मान लेते हैं। हममें जो भी शक्ति होती है,स्थूल कार्यों के लिए शारीरिक बल चाहे प्रत्यक्ष रूप में उपयुक्त होती हो,पर इसके पीछे भी असली शक्ति प्राण/चेतना की ही होती है।शरीर में रहते यह शक्ति भले सीमाओं में बन्धा हो,पर शरीर मुक्त होने पर अपनी सात्विकता के अनुपात में अपरिमित सबल सामर्थ्यवान हो जाती है। तो, अपने मार्ग में बाधा पाने पर मुक्त होने के लिए वह सावित्री से पीछा छुड़ाने के लिए उसको वे सारे वरदान देता चला गया जो सावित्री का अभीष्ट था। परन्तु इस क्रम में यह भी हुआ कि सावित्री का कुल के प्रति निष्ठा और समर्पण भाव देख वह प्राण मुग्ध होता बन्धता भी चला गया और अंततः अपनी प्रिया की संतान प्राप्ति के कोमल भाव के प्रति समर्पित होता हुआ,उसका इच्छित उसे देने को मुक्त होने के स्थान पर पुनः अपने शरीर में वापस आने को प्रस्तुत हो गया। अब जैसा कि हम सभी जानते हैं, वटवृक्ष को अक्षयवट इसलिए कहा जाता है कि इसका कभी क्षय नहीं होता।आज भी धरती पर हजारों हजारों वर्ष से अमर कई वटवृक्ष हैं जिनकी ईश्वर रूप में ही पूजा होती है।वटवृक्ष और पीपल, ये चौबीस घण्टे ऑक्सीजन ही देते हैं,यह तो आधुनिक विज्ञान ने भी कह दिया है। यही कारण है कि पक्षी और सरीसृप प्राथमिकता से इसी पर अपना बसेरा बनाते हैं। सावित्री ने इस वृक्ष के नीचे सत्यवान को इसलिए रखा ताकि वह एक तरह से ऑक्सीजन से आवृत्त उस वेंटिलेटर के सानिध्य में तबतक रहें जबतक प्राण पुनः स्थापित हो शरीर को सुचारु रूप से चलाने की अवस्था में न पहुँच जाय। अब पूरी कथा को एक सूत्र में पिरोकर देखिये।अब भी क्या आपको यह किवदंती, काल्पनिक कथा,असम्भव या हास्यास्पद लगती है? वटसावित्री पूजन के दिन ऐसे वृक्ष को प्राथमिकता दी जाती है जिसमें बड़गद और पीपल एक साथ हों या फिर पास पास।वृक्ष के चारों तरफ रक्षा सूत्र लपेटती विवाहिताएँ पतिव्रता देवी सावित्री के महान कर्मों का स्मरण करते जहाँ अपने लिए अखण्ड सौभाग्य का वरदान माँगती हैं वहीं अपने धर्म कर्म निष्ठा और प्रेम के प्रति प्रतिबद्धता भी दुहराती हैं।जहाँ एक जीवनदायी वृक्ष के संरक्षण का यह उद्योग है, वहीं स्वच्छ ऊर्जा ग्रहण कर अधिक सामर्थ्यशाली बनने का उपकरण भी। विवेक जो जागृत रखते जब हम विज्ञान को साथ लेकर चलेंगे, तभी अपने लिए कल्याणकारी मार्ग निकाल पाएँगे।आधुनिक विज्ञान जो कि पूर्णतः स्थूल साक्ष्यों को ही स्वीकार करता है, जो प्रतिपल नया कुछ सीख जान रहा है,उसकी स्थूल सीमाओं में उस ज्ञान को बाँधना जो शूक्ष्म शरीर द्वारा जाना भोगा गया हो, स्वयं को ही छोटा करना नहीं होगा?? अस्तु, मेरा आग्रह है कि व्रत करें न करें, एकबार शान्त मन इस वृक्ष के नीचे आँखें बन्द करके आत्मलीन होकर बैठिए और फिर बताइये कैसी अनुभूति हुई।यदि आनन्द और ऊर्जा मिले तो चिन्तन को उस आनन्द के मूल की ओर ले जाइए। पौराणिक कथा की प्रासंगिकता और वैधता स्वयं आपका मन आपको बताएगा।