14.6.08

संवेदनशीलता

यूं तो संवेदना,जड़ प्रानधारी पेड़ पौधों मे भी होती है,पर यह जिस प्रखर रूप मे प्रकृति की सर्वश्रेष्ठ रचना, मनुष्य मे विद्यमान होती है और अपने असीमित सामर्थ्य के बल पर इन संवेदनाओं का संवहन,निर्वहन और प्रतिपादन जितना मनुष्य द्वारा सम्भव हो पाता है,श्रीष्टि का अन्य कोई प्राणी उतना सामर्थ्य नही रखता. यह मनुष्य मे प्रकृति प्रद्दत्त वह गुण है जो श्रीष्टि को सुंदर से सुन्दरतम बनाता है.यह तो हुई जो सहज स्वाभाविक रूप से हुआ करती है और जिसे पाने और धारण करने के लिए कोई द्रव्य नही खर्चना पड़ता उसकी बात.पर वर्तमान मे जो वस्तुस्थिति है,जितनी तेजी से द्रव्य / भौतिक वस्तुओं की अहमियत दिन दूनी रात चौगुनी वेग से विस्तार पाती जा रही है,उतनी ही तेजी से मानव मूल्यों ,संस्कारों के साथ साथ संवेदनशीलता भी त्याज्य होती जा रही है.स्थिति यह है की बहुधा संवेदनशील मनुष्य बेवकूफ या पागल की श्रेणी मे गिना जाने लगा है. यहाँ संवेदनशीलता से मेरा तात्पर्य पर सुख दुःख के प्रति संवेदनशीलता से है.वैसे ऐसा नही की मनुष्य संवेदनहीन होता जा रहा है,उसकी संवेदनशीलता का महज दायरा बड़ा तंग होता जा रहा है.अब उसमे अपर से सिमट स्व का घेरा दिनानुदिन बढ़ता ही जा रहा है.निज के सुख दुःख इच्छा अनिच्छा के प्रति मनुष्य जितना सतत सजग और सचेष्ट रहने लगा है कि उसके लिए अपने आस पास किसी को भी कष्ट देने के प्रति झिझक तेजी से समाप्ति की ओर उन्मुख है और प्रतिफल मे जो व्यवस्था सामने है वह परिवार समाज देश को विघटन की ही ओर अग्रसर कर रहा है.

जन्म लेने के साथ ही एक बच्चे को एक उसी पूरी व्यवस्था के साथ दो चार होना पड़ता है जिसमे बिना धन/पैसे के जन्म तक ले पाना सम्भव नही.एक जमाना था जब बच्चे का जन्म घर मे ही हुआ करता था,पर अब निर्धन भी जच्चा अस्पताल मे ही संपन्न करवाता है.उसके बाद से तो परिवार संमाज और शिक्षण संस्थान तक की सारी व्यवस्था इसी पैसे की नींव पर रखी हुई है.हर चीज की गुणवत्ता पूर्णतः इसी धन की मात्रा पर ही निर्भर करती है.अपने आस पास सब जगह देख सुन समझ कर बच्चा जो एक बात सीख पाता है वह यही कि 'बिन पैसा सब सून'.सो फ़िर सारी दौड़ सारा प्रयास ही एक मार्गी इस ओर उन्मुख हो जाता है.व्यवस्था उस बाल मन को भौतिक वस्तुओं की महत्ता समझाने और उसे प्राप्त कर पाने के क्रम मे श्रेष्ठतम योग्यता पाने की दौड़ मे झोंक देती है. आज की पीढ़ी का आदर्श शायद ही वे महापुरुष हैं जिन्होंने धन को केवल जीवन जीने का माध्यम माना और मात्र उसके संचय को ही ध्येय नही माना. जो पीढी हम तैयार कर रहे हैं ,जब वह तैयार होगी और आगे चलकर वह जो पीढी बनाएगी,उसकी परिकल्पना कर पाना बड़ा ही त्रासद लगता है.मानव मूल्यों का वरण कर उसे जीवन मे सर्वोच्च स्थान दे चारित्रिक निर्माण का प्रयास न ही अभिभावकों द्वारा हो रहा है न ही शिक्षण संस्थानों द्वारा संपादित किया जा रहा है,जो कि बड़ी ही सोचनीय स्थिति है.किसी भी क्षेत्र मे अव्वल आ उसके द्वारा धनोपार्जन ही एकमात्र विकल्प बच्चों के लिए छोडा जा रहा है,जहाँ हर कोई एक दूसरे से भाईचारे के भाव से नही अपितु एक दूसरे के प्रतिस्पर्धी के रूप मे खड़ा ओर जुडा है और उसे अपने आस पास सबको पछाड़ सबसे आगे निकल जाना है भले इसमे साम दाम दंड भेद निति कोई भी उपक्रम क्यों न अपनाना पड़े

वर्तमान संचार क्रांति ने दुनिया का जो हित किया है ,उससे कम अहित भी नही किया.इन माध्यमो ने जो एक्सपोजर उपलब्ध कराये हैं वह निश्चय ही बच्चों की संवेदनशीलता पर कुठाराघात किया है. प्रति दिन घटित आस पास की दुर्घटनाएं जब एक वयस्क मन को सुन्न करने लगा है तो बालमन पर इसके प्रभाव की परिकल्पना की जा सकती है.अब बड़ी से बड़ी घटनाएँ बड़े ही सरलता से सामान्य भाव से लिया जाने लगा है.सामान्य ज्ञान का जो स्तर कभी बीस बाईस की उम्र मे हुआ करता था,बमुश्किल वह आज के बच्चों मे दस बारह की उम्र मे हो जाया करती है.पर समस्या यह है की हर नई चीज को आजमाकर देख लेने की अदम्य लालसा रखने वाला यह उम्र उतनी ही दृढ़ता से विवेक तथा करनीय अकरनिया मे भेद कर उस पर अमल कर पाने मे समर्थ तो होता नही, तो फ़िर दिग्भ्रमित हो बड़े ही सुगमता से अनैतिक यौनाचार और अनाचार की ओर अग्रसर हो जाता है.

जब जीवन का मूलमंत्र ही धनोपार्जन रह जाए तो उसके अर्जन के लिए अख्तियार किए जाने वाले नैतिक अनैतिक उपायों मे भी कितना विभेद रह जाता है.संवेदनशीलता और सर्वजन हिताय,सर्वजन सुखाय की बातें कोरी किताबी बातें बन रह जाती हैं. संवेदनशील होना दृढ़ चारित्रिक बल का प्रतीक नही बल्कि दुर्बलता और कामयाबी के मार्ग का बाधक माना जाने लगा है.आज के किशोरों से जब बात कर उनके जीवन के लक्ष्य जानने की कोशिश की तो देखा उनमे गहरे बैठा एक ही विश्वाश है कि ,सफलता का मानक ही अधिक से अधिक भौतिक साधन संपन्न होना हैं. और इनका सारा प्रयास इस ओर एकमुखी है.दुखद यह है कि भविष्य के प्रति आशंकित या उज्जवल भविष्य के लिए लालायित अभिभावक भी बच्चों को इस भ्रामक स्थिति से निकलने के लिए किंचित भी जागरूक और प्रयासरत नही बल्कि उसे और अधिक संपुष्ट करने मे लगे हुए हैं. वर्तमान मे गिने चुने अभिभावक ही अपने भर बाल मन मे यह भरने का प्रयास करते हैं कि सच्चरित्रता ,मानवीय मूल्य, त्याग,दया,क्षमा,अहिंसा,कर्मठता,संतोष इत्यादि यदि व्यक्तिव का अंग न हो तो लाख संचित धन भी सही मायने मे सुखी और संतुष्ट नही कर सकता.

अब बात यह है की चाहे शिक्षण संस्थान हो या सामाजिक व्यवस्था ,इन्हे जादू की छड़ी घुमा आमूल बदला तो नही जा सकता ,पर यदि इसी समाज की इकाई अपने आस पास के नन्हें कोमल बालमन मे मूल्यों और संवेदनशीलता की परत बालपन मे ही डाल उसके विकास की ओर प्रयत्नशील हुआ जाए तो कम से कम यह आशा तो रखी जा सकती है की किसी एक सुह्रिदय मे भी यह अंकुर फल निकला तो वृक्ष बन कई वृक्षों का प्रणेता बन सकता है और श्रीष्टि की सुन्दरता बरकरार रह सकती है.

4 comments:

Shiv said...

बहुत शानदार पोस्ट है..विचार और भाषा का अद्भुत संगम.

बालकिशन said...

आपके लेखन और विचार काफ़ी प्रभावित कर रहें है.
बहुत सुंदर लिखा आपने.

Amit K Sagar said...

बहुत ही सुन्दर लेख. उम्दा. गहरी पैठ. लिखते रहिये. शुक्रिया.
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उल्टा तीर

आशीष कुमार 'अंशु' said...

दिलचस्प है अन्दाज ए बयाँ