10.9.20

ममत्व के निहितार्थ- जिउतिया पर

 असंख्यों नरबलियों के उपरान्त जब महाभारत का युद्ध सम्पन्न हुआ तो कलपती बिलखती स्त्रियों के बीच कुछ ही ऐसी स्त्रियाँ बची थीं, जिनके पति या सन्तान में से कोई बचे थे।इन्हीं में से एक द्रौपदी भी थीं,दैव कृपा से जिनके पति और पाँचों पुत्र बच गए थे।किन्तु यह सन्तोष शीघ्र ही धराशायी हो गया जब अश्वत्थामा ने छल से द्रौपदी पुत्रों को पाण्डव समझकर सोते में मार दिया।

अपना वंश, राज्य का उत्तराधिकारी खोकर समस्त प्रजा ही नहीं द्रौपदी भी सन्ताप से विक्षिप्त सी हो गयी।किसी में भी जीवित रहने की कामना नहीं बची थी।तब ऋषि समाज ने आकर विलाप करती स्त्रियों के उस समूह को आकर टूटने से बचाने का संकल्प लिया।ज्ञान चर्चा से जब उनका मन कुछ सम्हला तो द्रौपदी ने विह्वल कातर भाव से ऋषियों से प्रश्न किया कि यह असह्य दुःख उन्हें ही क्यों सहना पड़ा और आगे भी क्या माताओं को अपने जीवनकाल में ही अपनी संतानों की मृत्यु और वैधव्य का नर्क इसी तरह भोगते रहना होगा?

ऋषिकुल ने तब उन्हें समझाते हुए वे कथाएँ कहीं,जिनमें से कुछ का उल्लेख आज भी जीवित्पुत्रिका व्रत पुस्तिका में उल्लिखित है।
ऋषियों ने उन्हें बताया कि केवल वे ही नहीं हैं जिन्हें सन्तान का यह वियोग सहना पड़ा है, जो स्वयं जगतजननी हैं,उन्हें भी सन्तान पाने और उन्हें दीर्घायु रखने के लिए न केवल असह्य कष्ट भोगने पड़े,तप करना पड़ा,अपितु अनेक यत्न भी करने पड़े हैं।
माँ आदिशक्ति के नौ रूपों में जो पाँचवा रूप- "स्कंदमाता"(स्कन्द-कार्तिकेय) का है, उसे पाने की पूरी कथा ही एक असाधारण तप और त्याग की कथा है।

रति के श्राप से देवी पार्वती कभी स्वाभाविक रूप से गर्भ धारण नहीं कर सकती थीं।इसके लिए उन्होंने गहन तप कर वह स्थितियाँ बनायीं जिससे अपने शरीर से बाहर ही वे भ्रूण का सृजन और पोषण कर सकें।किन्तु ऐन अवसर पर जब वह गर्भ पूर्ण और परिपक्व होने को था, तारकासुर उसे नष्ट करने पहुँच गया और उसकी रक्षा क्रम में अग्निदेव और माता गङ्गा के अथक प्रयास के उपरांत भी वह अक्षुण्ण न रह सका।गिरकर उसके छः खण्ड हो गए जो कृतिकाओं को प्राप्त हुए।
कल्पना कीजिये कि अपने सन्तान को प्राप्त करने की उस अन्तिम बेला में जब ममत्व पिघलकर दूध बनकर स्तनों में उतर आता है, उस घड़ी यदि उस माँ से उसका संतान छिन जाए, तो उसकी क्या मनोदशा होगी।
अपहृत सन्तान को ढूँढती हुई जब माता पार्वती कृतिकाओं के पास पहुँचीं तो कहते हैं छः भाग में बंटे हुए बालकों को पकड़कर इतनी जोर से अपने वक्ष में समेटा कि वे पुनः छः से एक हो गए।किन्तु तबतक कृतिकाओं का ममत्व भी उस बालक से ऐसे बन्ध गया था कि उससे विछोह की स्थिति में वे प्राणोत्सर्ग को तत्पर हो उठीं। 
और तब महादेव ने मध्यस्तता कर माता को इसके लिए प्रस्तुत कर दिया कि बारह वर्ष तक वह बालक कृतिकाओं की ममता को पोषण देता कृतिकालोक में ही वास करेगा और उसके उपरान्त स्वेच्छा से कृतिकाएँ बालक को माता पार्वती को सौंप देंगी।

स्त्री तो छोड़िए, किसी भी नवप्रसूता जीव जन्तु के पास उसके शिशु को स्पर्श करने का प्रयास करके देखिए,अपना सम्पूर्ण बल लगाकर वह आक्रमण को प्रस्तुत हो जाएगी, फिर स्वेच्छा से उस संतान का दूसरे को दान...
वस्तुतः यह तभी सम्भव है, जब ममत्व की परिसीमा इतनी विस्तृत हो, जिसमें व्यक्ति स्वयं को खो दे और सबको उसमें समेट ले।ममत्व के इस स्वरूप की प्रतिस्थापना हेतु ही इन पूरे घटनाक्रम की सर्जना हुई।ममता केवल अपने जाए सन्तान में ही सिमटकर रह जाए, तो यह ममत्व का सबसे संकुचित और छिछला रूप है।

आगे इसी क्रम में ऋषि इस ममत्व की भावना का उद्दात्त रूप और मानव मात्र में इसकी उपस्थिति दिखाने के लिए एक और घटना का उल्लेख करते हैं जब सतयुग में नागवंश और गरुड़वंश में नित्यप्रति के संघर्ष के उपरांत एक व्यवस्था बनी थी कि गरुड़ यदि नागों का अनियंत्रित आखेट न करे तो स्वतः उसके आहार हेतु एक नाग प्रतिदिन उसके सम्मुख उपस्थित हो जाया करेगा।व्यवस्था से अनियंत्रित संहार तो रुक गया, किन्तु नागलोक का प्रतिदिन का किसी न किसी के घर का करुण क्रन्दन निर्बाध चलता ही रह।
एक दिन संयोगवश राजा जीमूतवाहन जो नागों की उन बस्ती से गुजरते अपने ससुराल जा रहे थे,उन्होंने एक नागमाता का विह्वल क्रन्दन सुना जिनका पुत्र शंखचूड़ आज गरुड़ का ग्रास बनने वाला था।
कहा जाता है कि एक प्रसूता ही दूसरे स्त्री के मन की ममता जान सकती है, किन्तु यह मिथ्या भ्रम है।ममत्व का लिंग से कोई लेनादेना नहीं।यह भाव तो किसी में भी हो सकती है और नहीं तो नवप्रसूता में भी नहीं।
राजा जीमूतवाहन ने उस माँ की विह्वलता को उससे भी अधिक तीव्रता से अनुभूत किया और उस आखेट के स्थान पर स्वयं को गरुड़ के सम्मुख आहार रूप में उपस्थित कर दिया।
इधर गरुड़ ने जब देखा कि मृत्यु के भय और घायल होने की पीड़ा से व्याकुल होकर जहाँ बाकी सारे भागते फिरते थे, यह मनुष्य न केवल निश्छल होकर अडिग खड़ा है अपितु पूर्ण प्रयास में है कि मुझे कहीं भोजन क्रम में किसी तरह का व्यवधान न हो।गरुड़ का अहम इस विराट करुणा के आगे बहकर नष्ट हो गया और उसने दिव्य औषधियों द्वारा राजा को जीवनदान देते पूर्णतः स्वस्थ कर दिया।और जगत में ऐसे स्थापित हुआ कि करुणा,ममता से महान कोई भावना नहीं है।

आगे इस कथा में एक कथा चिल्हो सियारो की भी है कि अपने व्रत,अर्थात धर्म में अडिग रहने पर उसका फल संतान को अवश्य प्राप्त होता है और यदि उसका पालन न किया गया तो यदि सन्तान हो भी तो उसमें उत्तम संस्कार नहीं जाएँगे और उसका होना न होना बराबर ही होगा।अतः महत्वपूर्ण केवल संतान को जन्म देना ही नहीं अपितु उसे राजा जीमूतवाहन की भाँति सुसंस्कारी बनाना भी माता का ही कर्तब्य है।जीमूतवाहन जैसी उदार सोच पहले यदि माताएँ स्वयं में धारण करें,तो उत्तम संस्कारी सन्तान शरीर से जीवित रहें न रहें, उनके नाम और अस्तित्व तो अमर रहेंगे ही,जैसे किशोरावस्था भी पार न कर पाए अभिमन्यु का रहा।

जिउतिया पर भाई गिरिजेश राव की 2009 में लिखी यह पोस्ट पढ़िए।मैं तो हर वर्ष व्रत पुस्तिका के इतर इसे अवश्य पढ़ती हूँ।

https://girijeshrao.blogspot.com/2011/09/blog-post_20.html?m=1

2 comments:

Dr.Manoj Rastogi said...

सुंदर

Ankityadav said...

bhut hi badiya post likhi hai aapne. Ankit Badigar Ki Traf se Dhanyvad.