सीता परित्याग या सीता का त्याग
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वल्कल वस्त्र धारण कर जब राम लक्ष्मण और सीता वन को चले और केवट की नाँव चढ़ गङ्गा पार उतरे, तो संभवतः पहली बार राम का मन कचोटा कि केवट ने नदी तो पार करा दी,पर उसे उतराई देने भर भी उनमें सामर्थ्य नहीं। जिस राजपुत्र के हाथ आजतक केवल देने के लिए ही उठे हों,वह सेवा का न्यायोचित दाम भी न चुका पाए, उसके मन की दशा वही स्वाभिमानी मनुष्य जान सकता है, जिसने मातृ पितृ और गुरु के स्वाभाविक कर्तव्य तक को स्वाभाविक नहीं,अपितु ऋण की तरह ही लिया हो,जिसका सतांश चुकाने में वह अपना जीवन लगा दे।
और राम की उस मनोदशा को भाँपकर पतिव्रता सीता ने अगले ही क्षण अपने जीवन की वह अनमोल निधि,जिसे अयोध्या से निकलते समय समस्त राजसी वस्त्राभूषण त्यागने के क्रम में भी वह न त्याग पायीं थीं- पति श्रीराम द्वारा दी गयी कोहबर के रात की वह प्रथम भेंट "स्वर्णमुद्रिका", एक ही क्षण में उतारकर पति के हाथों रख दिया,ताकि वे पारिश्रमिक रूप में वह मुद्रिका देकर सँकोच से उबर सकें।ऐसी थी उस दम्पति की एक दूसरे के मन में पैठ और एक दूसरे के सुख सम्मान हेतु सर्वस्व न्योछावर कर देने की प्रतिबद्धता।
राम और सीता सा प्रेमी इस सँसार में और कौन होगा?राम ने सीता के लिए नङ्गे पाँव समुद्र लाँघकर रावण जैसे सामर्थ्यवान से भी टकरा जाने में सँकोच न किया तो सीता ने पति का साथ देने को न केवल राजभोग छोड़ा अपितु राम को अपनाते उनके सभी सम्बन्धों,परिस्थितियों को ऐसे अंगीकार किया कि वह सबकुछ उन दोनों का हो गया।
नहीं तो सोचिये कोई भी स्त्री अपनी उस सास को कभी सम्मान दे सकती है जिसके कारण उसका पति वन वन भटक रहा हो,सत्ताच्युत हो चुका हो। लेकिन सीता ने वन में भरत के साथ आये परिवार को सम्मुख पाते ही सबसे पहले जाकर पूरी श्रद्धा से न केवल माता कैकयी की वन्दना की,अपितु पूरे प्रवास में सबसे अधिक सेवा उनकी ही की।राम को कभी भी कुछ भी बोलना बताना नहीं पड़ा सीता को कि उनके कौन कितने प्रिय हैं और उनका सम्मान स्थान सीताजी को कैसे देना है।
वस्तुतः राम के मन में सीता और सीता के मन में राम कितने बसे हैं,यह सँसार में कोई जान ही नहीं सकता,क्योंकि किसी भी प्रेमी/दम्पति का प्रेम उस स्तर तक नहीं पहुँचा है कि उस उत्कर्ष और उस असीमता को थाह सके।
जब भी मेरे सम्मुख यह तथ्य इस प्रकार आता है कि "राजाराम ने अपनी प्राणप्रिया जीवनाधार परमसती सीता का परित्याग कर दिया,,,और वह भी तब जब वह गर्भवती थीं और उन्हें पति का सानिध्य सर्वाधिक चाहिए था"
इसको ऐसे ही कभी भी नहीं स्वीकार पाती मैं। चाहे कोई लाख पौराणिक साक्ष्य दे दे, चाहे महर्षि वाल्मीकि या तुलसीदासजी में अगाध श्रद्धा हो मेरी।
मेरी चेतना कहती है, कहीं कोई कड़ी, कोई बिन्दु छूटी हुई है इस पूरे प्रसंग में, जिसे वे महर्षि भी या तो जान न पाए या अनजाने में सामने रखना भूल गए।क्योंकि किसी भी व्यक्ति के जीवन का कोई एक टुकड़ा अन्य सभी टुकड़ों से कटा हुआ, असंगत या तो तब हो सकता है जबकि वह व्यक्ति कुछ समय के लिए विवेकहीन विक्षिप्त हो चुका हो, या कैकयी के समान ही उक्त कालखण्ड विशेष में वह मन्थरा जैसी बुद्धिवाला हो चुका हो।अन्यथा अपने स्वाभाविक आचरण के सर्वथा विपरीत कुछ कैसे कर सकता है?
जिस राम ने गौ, ब्राह्मण (सत्यनिष्ठ,धर्मपरायण मनुष्य) और स्त्री के उद्धार, उनके सम्मान और स्वतंत्रता हेतु ही अवतार लिया, धर्म मर्यादा स्थापित कर "मर्यादापुरुषोत्तम" बने, वे लोकोपवाद के कारण अपनी प्राणप्रिया का परित्याग कर अपनी राजगद्दी बचायेंगे?
क्या मर्यादापुरुषोत्तम यह नहीं जानते थे कि एक व्यक्ति ही पुत्र,पति,पिता और राजा सबकुछ एकसाथ ही है।किसी एक को ऊपर उठाकर दूसरे को गिराने से भी वस्तुतः पतन उस व्यक्ति का ही होता है।व्यक्ति स्वयं के लिए, परिवार समाज और देश के लिए कैसा हो, यही आदर्श स्थापना तो राम का जीवन ध्येय था, फिर वे इस क्रम में एक राजा को व्यक्तिगत जीवन में अधार्मिक होने देते क्या?
असल में होता यह है कि जब भी कोई कवि लेखक अपने नायक के चरित्र को उत्कृष्टता दे रहा होता है, उसपर यह मानसिक दवाब,,या कहें लगभग सनक सी होती है कि अपने नायक को वह उस स्थान पर बैठा दे जो अतुल्य हो,जहाँ तक किसी की भी पहुँच न हो,, तो ऐसे में कभी कभी अनजाने ही वह अन्य पात्र/पात्रों के साथ अन्याय कर जाता है।
अब देखिए न, हमारे मन में कोई विचार आया,हमें लगा उसे लिपिबद्ध करना चाहिए और हम उसे लिखने बैठते हैं।लिख चुकने के बाद उसे स्वयं पढ़कर देखिए,क्या हम हूबहू वही लिख पाए जैसे वे मन में घुमड़े थे?अब आगे उसको किसी और को पढ़ाइये,,क्या उसने उसको वैसा ही ग्रहण किया,जैसे आपने लिखा था?? उस पाठक से कहिये कि पढ़े हुए को लिख दे।अब उसके लिखे को पढ़कर देखिए।आपके मानस में घुमड़े वे विचार और अगले दो लोगों के पास से घूमफिर कर आये उस अंश में जो अन्तर होगा,,कई बार तो यह अन्तर दिन और रात की तरह हुआ मिलेगा आपको।
फिर श्रुति स्मृति परंपरा में चली आ रही कोई गाथा जो विधर्मियों के आक्रमणों, समय के झंझावातों को सहती हजारों वर्षों बाद लिपिबद्ध हुई, क्या वह बिल्कुल वही रहेगी जैसी मूल रूप में थी?
चलिए मान लिया कि गर्भवती सीता राजभवन छोड़ जँगलों में रहीं और लवकुश का जन्म भी वहीं हुआ।राजसूय यज्ञ के अश्वों को पकड़ने के बाद लवकुश ने लक्ष्मण हनुमान आदि सभी महावीरों को बन्दी बनाया। लवकुश के विषय में ज्ञात होने पर अयोध्या की प्रजा जब रामसाहित लवकुश तथा सीता को लौटा लाने का अनुनय करने मुनि आश्रम पहुँचे तो सीता ने लवकुश को तो उनको सौंप दिया पर स्वयं धरती के गर्भ में समा गयीं,उनके साथ वापस अयोध्या लौटकर नहीं गयीं।सबकुछ ऐसे ही हुआ।
परन्तु मेरा चित्त तो इस प्रसंग में इसी स्थापना में रमता है कि राजा राम और रानी सीता, कोई अलग अलग व्यक्ति नहीं थे,दो देह एक प्राण थे।राम ने सीता परित्याग नहीं किया था,अपितु सीता ने महान त्याग किया।स्वेच्छा से उन्होंने वनगमन चुना। सीता का वन में निवास राम से अधिक सीता का निर्णय था,क्योंकि अपने पति पर कोई प्रवाद सीता जैसी सती कभी नहीं सह सकती थी।फिर यहाँ तो प्रश्न उसके अपने राज्य व्यवस्था(जिसमें अव्यवस्था, स्वेच्छाचार न फैल जाय)का था।सीता स्वयं भी तो परंपराओं के उतने ही अधीन थी।इसके साथ ही सती का अपना एक स्वाभिमान भी था,जिसकी भी उन्हें रक्षा करनी थी।अपने भावी संतान को भी उन्हें वह परिवेश और लालन पालन देना था जो सर्वथा निष्कलुष हो,स्वस्थ हो।
राजाराम ने जगत को यह बताया कि एक राजा रूप में कोई प्रजापालक व्यक्तिगत/पारिवारिक सुखों को कैसे त्याग सकता है,,तो सीता ने भी अपनी पुत्रवत प्रजा को धरती में समाते हुए कठोर सीख/दण्ड दिया कि माता/स्त्री पर अविश्वास करने,उसके आत्मसम्मान को ठेस पहुँचाने पर व्यक्ति और समाज को कैसी क्षति उठानी पड़ती है।सीता के प्राणोत्सर्ग के बाद जीवन के अन्तिम स्वास तक उस पीढ़ी के लोग और बाद की भी कई पीढ़ियाँ आत्मग्लानि के किस अग्नि में जलते रहे होंगे,तनिक कल्पना कीजिये।राम ने दाम्पत्य सुख का त्याग कर जो आदर्श उपस्थित किया, अपने पति, गृहस्थी और जीवन का भी परित्याग कर उस राजरानी, पुरुषोत्तम की अर्धांगिनी ने पूरे समाज के संस्कारों को कैसे सुगठित किया, तनिक विचार कीजिये इसका।
और इसके पश्चात आप कभी न कह पाएँगे कि राम ने सीता का परित्याग किया,,आपके मन से स्वतः ही निकलेगा राम और सीता ने कैसा महान त्याग किया।
!! जय जय सियाराम !!
Ranjana Singh
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वल्कल वस्त्र धारण कर जब राम लक्ष्मण और सीता वन को चले और केवट की नाँव चढ़ गङ्गा पार उतरे, तो संभवतः पहली बार राम का मन कचोटा कि केवट ने नदी तो पार करा दी,पर उसे उतराई देने भर भी उनमें सामर्थ्य नहीं। जिस राजपुत्र के हाथ आजतक केवल देने के लिए ही उठे हों,वह सेवा का न्यायोचित दाम भी न चुका पाए, उसके मन की दशा वही स्वाभिमानी मनुष्य जान सकता है, जिसने मातृ पितृ और गुरु के स्वाभाविक कर्तव्य तक को स्वाभाविक नहीं,अपितु ऋण की तरह ही लिया हो,जिसका सतांश चुकाने में वह अपना जीवन लगा दे।
और राम की उस मनोदशा को भाँपकर पतिव्रता सीता ने अगले ही क्षण अपने जीवन की वह अनमोल निधि,जिसे अयोध्या से निकलते समय समस्त राजसी वस्त्राभूषण त्यागने के क्रम में भी वह न त्याग पायीं थीं- पति श्रीराम द्वारा दी गयी कोहबर के रात की वह प्रथम भेंट "स्वर्णमुद्रिका", एक ही क्षण में उतारकर पति के हाथों रख दिया,ताकि वे पारिश्रमिक रूप में वह मुद्रिका देकर सँकोच से उबर सकें।ऐसी थी उस दम्पति की एक दूसरे के मन में पैठ और एक दूसरे के सुख सम्मान हेतु सर्वस्व न्योछावर कर देने की प्रतिबद्धता।
राम और सीता सा प्रेमी इस सँसार में और कौन होगा?राम ने सीता के लिए नङ्गे पाँव समुद्र लाँघकर रावण जैसे सामर्थ्यवान से भी टकरा जाने में सँकोच न किया तो सीता ने पति का साथ देने को न केवल राजभोग छोड़ा अपितु राम को अपनाते उनके सभी सम्बन्धों,परिस्थितियों को ऐसे अंगीकार किया कि वह सबकुछ उन दोनों का हो गया।
नहीं तो सोचिये कोई भी स्त्री अपनी उस सास को कभी सम्मान दे सकती है जिसके कारण उसका पति वन वन भटक रहा हो,सत्ताच्युत हो चुका हो। लेकिन सीता ने वन में भरत के साथ आये परिवार को सम्मुख पाते ही सबसे पहले जाकर पूरी श्रद्धा से न केवल माता कैकयी की वन्दना की,अपितु पूरे प्रवास में सबसे अधिक सेवा उनकी ही की।राम को कभी भी कुछ भी बोलना बताना नहीं पड़ा सीता को कि उनके कौन कितने प्रिय हैं और उनका सम्मान स्थान सीताजी को कैसे देना है।
वस्तुतः राम के मन में सीता और सीता के मन में राम कितने बसे हैं,यह सँसार में कोई जान ही नहीं सकता,क्योंकि किसी भी प्रेमी/दम्पति का प्रेम उस स्तर तक नहीं पहुँचा है कि उस उत्कर्ष और उस असीमता को थाह सके।
जब भी मेरे सम्मुख यह तथ्य इस प्रकार आता है कि "राजाराम ने अपनी प्राणप्रिया जीवनाधार परमसती सीता का परित्याग कर दिया,,,और वह भी तब जब वह गर्भवती थीं और उन्हें पति का सानिध्य सर्वाधिक चाहिए था"
इसको ऐसे ही कभी भी नहीं स्वीकार पाती मैं। चाहे कोई लाख पौराणिक साक्ष्य दे दे, चाहे महर्षि वाल्मीकि या तुलसीदासजी में अगाध श्रद्धा हो मेरी।
मेरी चेतना कहती है, कहीं कोई कड़ी, कोई बिन्दु छूटी हुई है इस पूरे प्रसंग में, जिसे वे महर्षि भी या तो जान न पाए या अनजाने में सामने रखना भूल गए।क्योंकि किसी भी व्यक्ति के जीवन का कोई एक टुकड़ा अन्य सभी टुकड़ों से कटा हुआ, असंगत या तो तब हो सकता है जबकि वह व्यक्ति कुछ समय के लिए विवेकहीन विक्षिप्त हो चुका हो, या कैकयी के समान ही उक्त कालखण्ड विशेष में वह मन्थरा जैसी बुद्धिवाला हो चुका हो।अन्यथा अपने स्वाभाविक आचरण के सर्वथा विपरीत कुछ कैसे कर सकता है?
जिस राम ने गौ, ब्राह्मण (सत्यनिष्ठ,धर्मपरायण मनुष्य) और स्त्री के उद्धार, उनके सम्मान और स्वतंत्रता हेतु ही अवतार लिया, धर्म मर्यादा स्थापित कर "मर्यादापुरुषोत्तम" बने, वे लोकोपवाद के कारण अपनी प्राणप्रिया का परित्याग कर अपनी राजगद्दी बचायेंगे?
क्या मर्यादापुरुषोत्तम यह नहीं जानते थे कि एक व्यक्ति ही पुत्र,पति,पिता और राजा सबकुछ एकसाथ ही है।किसी एक को ऊपर उठाकर दूसरे को गिराने से भी वस्तुतः पतन उस व्यक्ति का ही होता है।व्यक्ति स्वयं के लिए, परिवार समाज और देश के लिए कैसा हो, यही आदर्श स्थापना तो राम का जीवन ध्येय था, फिर वे इस क्रम में एक राजा को व्यक्तिगत जीवन में अधार्मिक होने देते क्या?
असल में होता यह है कि जब भी कोई कवि लेखक अपने नायक के चरित्र को उत्कृष्टता दे रहा होता है, उसपर यह मानसिक दवाब,,या कहें लगभग सनक सी होती है कि अपने नायक को वह उस स्थान पर बैठा दे जो अतुल्य हो,जहाँ तक किसी की भी पहुँच न हो,, तो ऐसे में कभी कभी अनजाने ही वह अन्य पात्र/पात्रों के साथ अन्याय कर जाता है।
अब देखिए न, हमारे मन में कोई विचार आया,हमें लगा उसे लिपिबद्ध करना चाहिए और हम उसे लिखने बैठते हैं।लिख चुकने के बाद उसे स्वयं पढ़कर देखिए,क्या हम हूबहू वही लिख पाए जैसे वे मन में घुमड़े थे?अब आगे उसको किसी और को पढ़ाइये,,क्या उसने उसको वैसा ही ग्रहण किया,जैसे आपने लिखा था?? उस पाठक से कहिये कि पढ़े हुए को लिख दे।अब उसके लिखे को पढ़कर देखिए।आपके मानस में घुमड़े वे विचार और अगले दो लोगों के पास से घूमफिर कर आये उस अंश में जो अन्तर होगा,,कई बार तो यह अन्तर दिन और रात की तरह हुआ मिलेगा आपको।
फिर श्रुति स्मृति परंपरा में चली आ रही कोई गाथा जो विधर्मियों के आक्रमणों, समय के झंझावातों को सहती हजारों वर्षों बाद लिपिबद्ध हुई, क्या वह बिल्कुल वही रहेगी जैसी मूल रूप में थी?
चलिए मान लिया कि गर्भवती सीता राजभवन छोड़ जँगलों में रहीं और लवकुश का जन्म भी वहीं हुआ।राजसूय यज्ञ के अश्वों को पकड़ने के बाद लवकुश ने लक्ष्मण हनुमान आदि सभी महावीरों को बन्दी बनाया। लवकुश के विषय में ज्ञात होने पर अयोध्या की प्रजा जब रामसाहित लवकुश तथा सीता को लौटा लाने का अनुनय करने मुनि आश्रम पहुँचे तो सीता ने लवकुश को तो उनको सौंप दिया पर स्वयं धरती के गर्भ में समा गयीं,उनके साथ वापस अयोध्या लौटकर नहीं गयीं।सबकुछ ऐसे ही हुआ।
परन्तु मेरा चित्त तो इस प्रसंग में इसी स्थापना में रमता है कि राजा राम और रानी सीता, कोई अलग अलग व्यक्ति नहीं थे,दो देह एक प्राण थे।राम ने सीता परित्याग नहीं किया था,अपितु सीता ने महान त्याग किया।स्वेच्छा से उन्होंने वनगमन चुना। सीता का वन में निवास राम से अधिक सीता का निर्णय था,क्योंकि अपने पति पर कोई प्रवाद सीता जैसी सती कभी नहीं सह सकती थी।फिर यहाँ तो प्रश्न उसके अपने राज्य व्यवस्था(जिसमें अव्यवस्था, स्वेच्छाचार न फैल जाय)का था।सीता स्वयं भी तो परंपराओं के उतने ही अधीन थी।इसके साथ ही सती का अपना एक स्वाभिमान भी था,जिसकी भी उन्हें रक्षा करनी थी।अपने भावी संतान को भी उन्हें वह परिवेश और लालन पालन देना था जो सर्वथा निष्कलुष हो,स्वस्थ हो।
राजाराम ने जगत को यह बताया कि एक राजा रूप में कोई प्रजापालक व्यक्तिगत/पारिवारिक सुखों को कैसे त्याग सकता है,,तो सीता ने भी अपनी पुत्रवत प्रजा को धरती में समाते हुए कठोर सीख/दण्ड दिया कि माता/स्त्री पर अविश्वास करने,उसके आत्मसम्मान को ठेस पहुँचाने पर व्यक्ति और समाज को कैसी क्षति उठानी पड़ती है।सीता के प्राणोत्सर्ग के बाद जीवन के अन्तिम स्वास तक उस पीढ़ी के लोग और बाद की भी कई पीढ़ियाँ आत्मग्लानि के किस अग्नि में जलते रहे होंगे,तनिक कल्पना कीजिये।राम ने दाम्पत्य सुख का त्याग कर जो आदर्श उपस्थित किया, अपने पति, गृहस्थी और जीवन का भी परित्याग कर उस राजरानी, पुरुषोत्तम की अर्धांगिनी ने पूरे समाज के संस्कारों को कैसे सुगठित किया, तनिक विचार कीजिये इसका।
और इसके पश्चात आप कभी न कह पाएँगे कि राम ने सीता का परित्याग किया,,आपके मन से स्वतः ही निकलेगा राम और सीता ने कैसा महान त्याग किया।
!! जय जय सियाराम !!
Ranjana Singh
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विचारणीय आलेख
आभार आपका
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