प्राणी जगत में समस्त प्राणियों में सर्वाधिक सामर्थ्यवान प्राणी मनुष्य ही है,यह सर्वविदित है..परन्तु अपने सम्पूर्ण जीवन काल में अपने सामर्थ्य के दशांश का भी सदुपयोग विरले ही कोई मनुष्य कर पाता है,यह दुर्भाग्यपूर्ण है....एक शरीर के साथ ही अपार सामर्थ्य का वह अकूत भण्डार भी व्यर्थ ही अनुपयुक्त रह नष्ट हो जाता है.
जैसा कि हम जानते सुनते आये हैं, कि मानव शरीर -क्षिति जल पावक गगन समीरा(पृथ्वी,जल,अग्नि,आकाश तथा वायु) पंचतत्व से निर्मित है..साधारनतया आहार विहार का असंतुलन इन पंचतत्वों के संतुलन को विखण्डित करता है और फलस्वरूप मनुष्य शरीर भांति भांति के रोगों से ग्रसित हो जाता है...रोग का प्रभाव बढ़ने पर हम चिकित्सकों के पास जाते हैं और वर्तमान में एलोपैथीय चिकित्सा में अभीतक किसी भी व्याधि के लिए ऐसी कोई भी औषधि उपलब्ध नहीं है,जिसका सेवन पूर्णतः निर्दोष हो. कई औषधियों में तो स्पष्ट निर्देशित होते हैं कि अमुक औषधि अमुक रोग का निवारण तो करेगी परन्तु इसके सेवन से कुछ अन्य अमुक अमुक रोग(साइड इफेक्ट) हो सकते हैं...जबकि हमारे अपने शरीर में ही रोग प्रतिरोधन की वह अपरिमित क्षमता है जिसे यदि हम प्रयोग में लायें तो बिना चिकित्सक के पास गए, या किसी भी प्रकार के औषधि के सेवन के ही अनेक रोगों से मुक्ति पा सकते हैं....
यूँ तो नियमित व्यायाम तथा संतुलित आहार विहार सहज स्वाभाविक रूप से काया को निरोगी रखने में समर्थ हैं , पर वर्तमान के द्रुतगामी व्यस्ततम समय में कुछ तो आलस्यवश और कुछ व्यस्तता वश नियमित योग सबके द्वारा संभव नहीं हो पाता.. परन्तु योग में कुछ ऐसे साधन हैं जिनमे न ही अधिक श्रम की आवश्यकता है और न ही अतिरिक्त समय की. इसे " मुद्रा चिकित्सा " कहते हैं...विभिन्न हस्तमुद्राओं से अनेक व्याधियों से मुक्ति संभव है...
हमारे हाथ की पाँचों अंगुलियाँ वस्तुतः पंचतत्वों का प्रतिनिधित्व करती हैं.यथा-
१.अंगूठा= अग्नि,
२.तर्जनी (अंगूठे के बाद वाली पहली अंगुली ) = वायु,
३.मध्यमा (अंगूठे से दूसरी अंगुली) = आकाश,
४.अनामिका (अंगूठे से तीसरी अंगुली) = पृथ्वी,
५. कनिष्ठिका ( अंगूठे से चौथी अंतिम सबसे छोटी अंगुली ) = जल ..
शरीर में पंचतत्व इस प्रकार से है...शरीर में जो ठोस है,वह पृथ्वी तत्व ,जो तरल या द्रव्य है वह जल तत्व,जो ऊष्मा है वह अग्नि तत्व,जो प्रवाहित होता है वह वायु तत्व और समस्त क्षिद्र आकाश तत्व है.
अँगुलियों को एक दुसरे से स्पर्श करते हुए स्थिति विशेष में इनकी जो आकृति बनती है,उसे मुद्रा कहते हैं...मुद्रा चिकित्सा में विभिन्न मुद्राओं द्वारा असाध्यतम रोगों से भी मुक्ति संभव है...वस्तुतः भिन्न तत्वों का प्रतिनिधित्व करती हाथ की इन अँगुलियों से विद्युत प्रवाह निकलते हैं.अँगुलियों से निकलने वाले विद्युत प्रवाहों के परस्पर संपर्क से शरीर के चक्र तथा सुसुप्त शक्तियां जागृत हो शरीर के स्वाभाविक रोग प्रतिरोधक क्षमता को आश्चर्यजनक रूप से उदीप्त तथा परिपुष्ट करती है. पंचतत्वों का संतुलन सहज स्वाभाविक रूप से शरीर को रोगमुक्त करती है.रोगविशेष के लिए निर्देशित मुद्राओं को तबतक करते रहना चाहिए जबतक कि उक्त रोग से मुक्ति न मिल जाए...रोगमुक्त होने पर उस मुद्रा का प्रयोग नहीं करना चाहिए. मुद्राओं से केवल काया ही निरोगी नहीं होती, बल्कि आत्मोत्थान भी होता है. क्योंकि मुद्राएँ शूक्ष्म शारीरिक स्तर पर कार्य करती है.
मुद्राओं का समय न्यूनतम चालीस मिनट का होता है.अधिक लाभ हेतु यह समयसीमा यथासंभव बढा लेनी चाहिए..यूँ तो सर्वोत्तम है कि सुबह स्नानादि से निवृत होकर पद्मासन या सुखासन में बैठ आठ दस गहरी साँसें लेकर और रीढ़ की हड्डी को पूरी तरह सीधी रख इन मुद्राओं को किया जाय...परन्तु सदा यदि यह संभव न हो तो चलते फिरते उठते बैठते या लेटे हुए किसी भी अवस्था में इसे किया जा सकता है, इससे लाभ में कोई विशेष व्यवधान नहीं पड़ता...मुद्रा में लिप्त अँगुलियों के अतिरिक्त अन्य अँगुलियों को सहज रूप से सीधा रखना चाहिए.एक हाथ से यदि मुद्रा की जाती है तो उस हाथ के उल्टे दिशा में अर्थात बाएँ से किया जाय तो दायें भाग में और दायें से किया जाय तो बाएँ भाग में लाभ होता है.परन्तु लाभ होता है, यह निश्चित है.
ज्ञान मुद्रा -
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अंगूठे और तर्जनी(पहली उंगली) के पोरों को आपस में (बिना जोर लगाये सहज रूप में) जोड़ने पर ज्ञान मुद्रा बनती है.
लाभ :-
इस मुद्रा के नित्य अभ्यास से स्मरण शक्ति का अभूतपूर्व विकाश होता है.मष्तिष्क की दुर्बलता समाप्त हो जाती है.साधना में मन लगता है.ध्यान एकाग्रचित होता है.इस मुद्रा के साथ यदि मंत्र का जाप किया जाय तो वह सिद्ध होता है. किसी भी धर्म/पंथ के अनुयायी क्यों न हों ,उपासना काल में यदि इस मुद्रा को करें और अपने इष्ट में ध्यान एकाग्रचित्त करें तो, मन में बीज रूप में स्थित प्रेम की अन्तःसलिला का अजश्र श्रोत स्वतः प्रस्फुटित हो प्रवाहित होने लगता है और परमानन्द की प्राप्ति होती है.इसी मुद्रा के साथ तो ऋषियों मनीषियों तपस्वियों ने परम ज्ञान को प्राप्त किया था॥
पागलपन,अनेक प्रकार के मनोरोग,
चिडचिडापन,क्रोध,चंचलता,लम्पटता,अस्थिरता,चिंता,भय,घबराहट,व्याकुलता,अनिद्रा रोग, डिप्रेशन जैसे अनेक मन मस्तिष्क सम्बन्धी व्याधियां इसके नियमित अभ्यास से निश्चित ही समाप्त हो जाती हैं.मानसिक क्षमता बढ़ने वाला तथा सतोगुण का विकास करने वाला यह अचूक साधन है. विद्यार्थियों ,बुद्धिजीवियों से लेकर प्रत्येक आयुवर्ग के स्त्री पुरुषों को अपने आत्मिक मानसिक विकास के लिए मुद्राओं का प्रयोग अवश्य ही करना चाहिए...
क्रमशः :-
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30 comments:
जानकारीपूर्ण -शुक्रिया !
आज तो आपने मुझे अचम्भित कर दिया रंजना जी। सचमुच आपका इस रूप में लेख के माध्यम से आना मेरे लिए नवीन है। एक जनोपयोगी आलेख पढ़कर अच्छा लगा। जब मुलाकात होगी तो मुद्राओं के बारे में विस्तार से बातचीत करूँगा।
बहुत प्रभावशाली
उपयोगी जानकारी
आपके द्वारा लेखन के नए रूप (मेरे लिये) का स्वागत
शुक्रिया इस जानकारी के लिए ..बहुत ही अधिक उपयोगी लेख है ..रोज़ इन मुद्राओं को करती हूँ पर इस तरह खूबसूरती से लिखने का ख्याल नहीं आया :) अच्छा है इनको करना बहुत फायदेमंद है आपने बहुत अच्छे ढंग से बताया है ..आगे जारी रखे इन्तजार रहेगा
रंजना जी ऐसी जानकारियों के साथ रेखा चित्र भी दे दे तो सोने पे सुहागा हो
वाह.. रंजना सिंह जी!
आपने विस्तार से बहुत उपयोगी
पोस्ट लिखी है।
आभारी हूँ।
रोचक विवरण दिया है आपने मुद्रा चिकित्सा के बारे में।
रंजना जी,
बहुउद्देश्यपरक उपयोगी लेख के लिये आभार।
वाह रंजना जी बहुत ही अच्छी जानकारी दे रही है आप |
मुझे कोई १० साल पहले thyraid था मुद्रा और acupreshar नियमित करने से मै उससे मुक्त हुई |
आभार
उपयोगी जानकारीपरक इस लेख के लिए आभार स्वीकारें!!!!
मुद्रा चिकित्सा की जानकारियां विस्मयकारी भी है और सुखद भी। अगली कड़ी की प्रतीक्षा है।
वाह नई और अच्छी जानकारी।
अच्छा लगा यह जानकारी पा कर!!
wow...never heard of it before...
thanks for sharing this one ranjana ji...
बहुत जानकारी युक्त आलेख.
रामराम.
बहुत बढ़िया जानकारीयुक्त पोस्ट है. अनुराग जी का सुझाव बढ़िया है. अगर उसे क्रियान्वित किया जा सके तो पोस्ट और भी बढ़िया हो जायेगी.
वैसे शीर्षक पढ़कर कुछ और लगा था....:-)
kafi gyanvardhak likha apne.
I am reading... waiting next episode.
Thanks
बहुत ही सुन्दर लेख ..............ज्ञानवर्धक भी
क्या हर मुद्रा चालीस मिनट करने का प्रवधान है या सब मिला कर चालीस मिनट?
अभी तो आपने एक बताई है..
ज्ञानवर्धक और प्रभावशाली आलेख |
यदि संभव हो तो इस श्रंखला के अंत मैं इस चिकित्सा पद्धती की प्रमाणिक पुस्तक (हिंदी मैं हो तो सोने पे सुहागा) का भी नाम दे दें अच्छा रहेगा |
बहुत बडिया जानकारी है गायत्री महाविग्यान मे सभी मुद्रायेण चित्रों समेत दी गयी हैं और कुछ को मैने आजमाया भी है और सही पाया बहुत सुन्दर पोस्ट है बधाई
aisi post padhen ka maza aata hai...
...jankari ki jankari aur 'ravita' ka ravita.
aabhar.
मुद्रा चिकित्सा से सम्बन्धित आपके इस लेख से उपयोगी जानकारी प्राप्त हुई,अगली कडी का इन्तजार हॆ.
बहुत सुन्दर! अर्थ ज्ञान की आशा से पढ़ने पर ज्ञान मुद्रा पता चली! ध्यान के समय इस मुद्रा का प्रयोग करने का यत्न करेंगे।
मैने इस से पहले वाली पोस्ट भी पढ़ ली है आप में अथाह विचार शक्ति है । इस शक्ति का सार्तक उपयोग हो यही कामना ।
shukria. ur mudrachikitsa is very knowable.
बहुत दिनों से सोच रहा था की आपका ब्लॉग पढू, समयाभाव था, आज रविबार की छुट्टी पर तसल्ली से पढ़ा ! बहुत ही लाभपर्द जानकारियाँ दी है आपने, वधाई !
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