13.8.09

क्षय हो .....

भारतीय संस्कृति की महान संरक्षिका एवं संवाहिका, प्रातः स्मरणीया परम आदरणीया सुश्री राखी सावंत जी का अति रोमांचक प्रेरणादायी औत्सुक्यप्रद स्वयंवर, जनक नंदिनी मैया सीता, द्रुपद दुहिता द्रौपदी तथा ऐसे ही अन्यान्य असंख्य स्वयंवरों को लघुता देता, नवीन मानदंड स्थापित करता हुआ, सबकी आँखों को चुन्धियाता अंततः सफलतापूर्वक संपन्न हुआ. आशा है, इसकी आशातीत सफलता से अति उत्साहित हुए दृश्य जगत के दिग्दर्शक निकट भविष्य में इनसे भी उत्कृष्ट , महत्तम प्रतिमान स्थापित करने हेतु इस कोटि के प्रस्तुतियों की झड़ी लगा देंगे,जिनसे भारतीय जनमानस अपने गौरवशाली अतीत के दिग्दर्शन करने के साथ साथ भविष्य के लिए इनसे महत प्रेरणा प्राप्त कर अपने जीवन को कृतार्थ करेंगे...

सत्यम शिवम् सुन्दरम को सिद्ध पुनरप्रतिष्ठित करता, सत्यानुयाई महान राजा हरिश्चंद्र के वंशजों का साक्षात्कार अभी चल ही रहा है.यह और बात है कि निरीह राजा जी को सत्य की रक्षा क्रम में सर्वस्व गवाना पड़ा था. परन्तु उसी दुर्घटना से सचेत हो उनके अनुयायियों ने सत्य उद्घाटन क्रम में " अर्थार्जन " को ही सर्वोपरि मानते हुए इसे सर्वोच्च प्राथमिकता दी है. यूँ भी अर्थ के सम्मुख इस कलिकाल में सब अर्थहीन है. जैसे ही ये सत्यवादी " उष्ण पीठिका " (हॉट सीट) पर विराजित होते हैं, वीभत्स सत्य उद्घाटन/ उत्सर्जन को अपना परम कर्तब्य मान लेते हैं . बधाई हो !!! अब सत्यध्वज निश्चिंत निर्बाध हो, उतंग फहराएगा.....इसमें कोई शंशय नहीं......

इन सब के साथ संवेदनाओं से उभ चुभ महान कथानकों वाले धारावाहिक भारतीय जनमानस के ह्रदय को द्रवित करती धाराप्रवाह प्रवाहमान है..इनमे से अधिकाँश द्वारा परम्पराओं संबंधों के नित नवीन कीर्तिमान उपस्थित किये जा रहे हैं. ये भारतीय समाज को प्रगति के पथ पर पाँव पैदल नहीं अपितु द्रुतगामी वायुयान यात्रा करा रहें हैं.....इतना ही नहीं नए उत्पादों के लुभावने विज्ञापन ,जिनमे से अधिकाँश अपने अति सीमित पलों के प्रसारण क्रम में भी एक पूरे तीन घंटे के " ए" श्रेणी ( वयस्क श्रेणी) के चलचित्र का रोमांच देते हुए हमारे ज्ञान कोष को अभूत पूर्व समृद्धि दे रहे हैं.. .हमारी प्रजावत्सल सरकार की अपार अनुकम्पा से चौबीसों घंटे तीन सौ पैंसठ दिन के लिए वभिन्न चैनलों पर अनवरत बालक वृद्ध नर नारी उभयचारी ,सबके लिए सबकुछ सहजसुलभ हैं.....

और तो और, अति कर्मठ समाचार वाचक, आठों याम, नगर नगर,डगर डगर ,पानी की धार में, बरखा की फुहार में, आंधी में रेत में, रेल में खेल में ,गली गली कूचे कूचे, स्नानघर से लेकर शयनकक्ष तक, धरती अम्बर पाताल, डोल डोल, टटोल टटोल कर हमें एकदम गरमागरम खट्टे मीठे करारे सनसनीदार समाचार (??) दे निहाल किये रहते हैं...

डेढ़ दो दशक से भी कम समय में सूचना और संचार क्रांति ने हमें कहाँ से कहाँ पहुंचा दिया...देखा, इसे कहते हैं प्रगति की पराकाष्ठा... हमारा देश कितना प्रगति कर गया है,नहीं ???

क्या कहा, आपको इसमें से अधिकांश नहीं सुहाता, तो लो भाई, इसमें कुलबुलाने और भड़कने वाली कौन सी बात है, रिमोट है न आपके पास ?? बस पुट से बटन दबाइए,चुट से चैनल बदल गया.......इतने सारे चैनल हैं...कोई बाध्यता थोड़े न है कि न पसंद आये तो भी देखते रहो.......चालक, संचालक,दिग्दर्शक ,प्रबुद्ध वर्ग सबकी यही सीख और सुझाव है आम दर्शकों के लिए.....

चलिए हमने मान लिया.... हम जैसे पुरातनपंथी,प्रगति के विरोधी लोग वर्तमान में प्रसारित अधिकाँश कार्यक्रमों से क्षुब्ध होकर रिमोट तो क्या टी वी तक का उपयोग नहीं करेंगे या फिर यदि करेंगे भी तो पूर्ण सजग रह अपने हाथों विवेक रुपी रिमोट का सतत प्रयोग करेंगे ......पर समस्या है कि देश की कितनी प्रतिशत आबादी विवेक रूपी रिमोट को सजग हो व्यवहृत कर पायेगी और आत्मरक्षा में सफल हो पायेगी ??

आज टेलीविजन तथा असंख्य चैनलों की पहुँच समाज के उस हिस्से तक है जो दिहाडी कमाता है..और उनके लिए दारू ताडी के बाद यही एकमात्र मनोरंजन का सबसे सुगम और सस्ता साधन है.निम्न ,माध्यम वर्ग से लेकर हिंदी देखने सुनने वाले उच्च आय वर्ग तक ने अपना परम मित्र इन्हें ही बना लिया है . इन दृश्य मध्यमो से अहर्निश मनोमस्तिष्क तक जो कुछ पहुँच रहा है,वहां अनजाने जो छप रहा है, वह पूरे समाज को कहाँ लिए जा रहा है,क्या यह विचारणीय नहीं ???

कैसी विडंबना है कि चार पांच या इससे अधिक सदस्यों वाला एक निम्न/ मध्यमवर्गीय परिवार डेढ़ दो सौ रुपये में चार दिन का राशन भले नहीं खरीद सकता पर इतने रुपयों में महीने भर के लिए आँखों को चुन्धियाता चमचमाता वैभवशाली मनोरंजन अवश्य खरीद सकता है,जिसके आगे अपने परिवार को बैठा वह सुनहरे सपने दिखा सकता है,तंगहाली के क्षोभ को बहला सकता है ..

मुझे बहुधा ही उन राजकुमारों की कथा का स्मरण हो आता है,जिनको पठन पाठन से घोर वितृष्णा थी और फिर उनके गुरु ने रोचक कथाओं में उलझा खेल खेल में उनकी सम्पूर्ण शिक्षा सफलतापूर्वक संपन्न कराई थी.कोई भी बात या सन्देश जितनी सफलतापूर्वक कथानकों के माध्यम से व्यक्ति के ह्रदय में आरोपित की जा सकती है,उतनी किसी भी अन्य माध्यम से नहीं. उसमे भी कथानकों का दृश्य रूप तो कभी निष्फल हो ही नहीं सकता..यह तो रामबाण सा कार्य करता है...

कहा जाता है, आसपास जो घट रहा है, उसीको तो टी वी, सिनेमा या विज्ञापन में दिखाया जाता है.......क्या सचमुच ?? चलिए मान लेते हैं कि यह कथन सत्य है...तो भी ऐसे सत्य का क्या करना जो व्यक्ति की संवेदनाओं को पुष्ट नहीं बल्कि नष्ट करे,उसे सुन्न करे ....क्या हम नहीं जानते कि विभत्सता की पुनरावृत्ति व्यक्ति की विषय विशेष के प्रति उदासीनता को ही प्रखर करती है...

विभत्सता,व्यभिचार, अश्लीलता, अनैतिक सबंध, अनाचार, धन वैभव का भव्य फूहड़ प्रदर्शन, षडयंत्र इत्यादि के अहर्निश बौछारों के बीच सफलतापूर्वक स्वयं को अप्रभावित या निर्लिप्त रख पाना कितनो के लिए संभव है ???? यह जो एक प्रकार का नियमित विषपान प्रतिदिन नियत मात्रा में इन दृश्य माध्यमों द्वारा आम भारतीय जनमानस के मष्तिष्क को कराया जा रहा है, देसी विदेसी चैनल के दिग्दर्शकों द्वारा हमारे देश पर एक सुनियोजित सांस्कृतिक आक्रमण नहीं है?

बहुत पहले की तो बात नहीं,यही कोई एक डेढ़ दशक पूर्व की बात है...किसी स्त्री को यदि "सेक्सी" कह दिया जाता, तो तलवारें खिंच जाती थीं...आज यह महिलाओं को उपाधि, गर्व की बात लगती है. धन्यवाद कह वे प्रफ्फुलित हो लिया करती हैं...विचारों में यह इतना व्यापक परिवर्तन यूँ ही तो नहीं हो गया... क्या प्रगति का मार्ग नग्नता और नैतिक पतन के मार्ग से ही निकलता है??? क्या नैतिक मूल्यों की सचमुच कोई प्रासंगिकता नहीं बची ???

करीब पांच छः वर्ष पहले की बात है,एक दिन मेरा बेटा बिसुरने लगा,कि माँ आप भगवान् जी से हमेशा मुझे सद्बुद्दि देने और मुझे अच्छा आदमी बनाने की प्रार्थना करती हैं ,यह बहुत गलत बात है ...आप उन्हें यह क्यों नहीं कहतीं कि मेरा बेटा खूब बड़ा आदमी बने, खूब पैसा और नाम कमाए......उसका मानना था कि अच्छा आदमी हमेशा दुखी , लाचार और अभावग्रस्त रहता है और एक अच्छा आदमी कभी बड़ा आदमी नहीं बन सकता...

बड़े आदमी की उसकी परिभाषा यह थी कि बड़ा आदमी वह होता है,जिसके पास बहुत सारा पैसा हो,जो हवाई सफ़र कर सकता हो,बल्कि उसके अपने कई हवाई जहाज हो,मंहगी गाडियां हो,महल जैसा घर हो, ढेर सारे नौकर चाकर हों, ऐशो आराम का सारा सामान हो,पूरी दुनिया में नाम और पहचान हो.........और यह सब सच्चा और अच्छा आदमी बनकर तो पाया नहीं जा सकता न.

यह केवल एक बालमन की बात नहीं थी, बल्कि यह तो एक आम धारणा बन गयी है आज की. सफलता का मतलब तो बस यही रह गया है न....और उस लक्ष्य को पाने के लिए ये ही रास्ते रह गए हैं...

-> कुछ भी दांव पर लगाकर अभिनेता अभिनेत्री बन जाओ...

-> सही गलत को भूल कर किसी भी तरह कुछ भी करके टाटा बिडला अम्बानी मित्तल जैसा बनो ....

-> सारे पेंच आजमा राजनीति में घुस जाओ ....

-> दाउद शकील या गवली का अनुकरण कर भाईगिरी के धंधे में नाम पैसा और पद प्रतिष्ठा भी कमाओ ....

-> और कुछ नहीं कर सकते तो " बाबा " बन जाओ ....

" रिच एंड फेमस " बनना, बस यही है जीवन का लक्ष्य....नैतिक मूल्य की बात इसके सामने प्रलाप और व्यंग्य बन कर रह गया है.......

कहते हैं कि जब जनमानस दिग्भ्रमित हो,पतनोन्मुख हो तो राजा उन्हें दिशा देता है,जब राजा दिग्भ्रमित कर्तब्य विमुख हो जाता है तो राज्य के ज्ञानी विचारक (मंत्री/अधिकारी) उनका मार्गदर्शन करते हैं,परन्तु जब ज्ञानी विचारक ही दिग्भ्रमित और पतित हो जायं तो उस राज्य को ईश्वर भी नहीं बचा सकते...

सत्ता तथा शक्ति यदि सत्पुरुष के हाथ हो तो और तो और ऋतुएं भी धर्मपरायण उस शासक की चेरी हो अपने धर्मानुसार अनुगमन करती हैं ( क्योंकि तब शासक अपनी प्रजा की ही नहीं अपने धरती/प्रकृति तथा पशु पक्षी आदि समस्त प्राणि मात्र की रक्षा करना अपना परम धर्म बना लेता है और तदनुसार ये सभी भी स्वधर्म में तत्पर होतें हैं).परन्तु यदि यही सत्ता और शक्ति दुराचारी के हाथों लग जाय तो सभ्यता संस्कृति के भ्रष्ट और नष्ट होने में अधिक समय नहीं लगता...

किसी समय सेंसर नाम का कुछ हुआ करता था, जिसका काम यह देखना था कि मनोरंजन के विभिन्न दृश्य मध्यमो द्वारा समाज के सम्मुख अहितकर कुछ तो नहीं रखा जा रहा है........संभवतः अब वह आस्तित्व में नहीं है या फिर है भी तो इन सत्ताधीशों ने उसे बाज़ार के हाथों ऊंची बोली लगा बेच दी है...

क्या केवल प्रत्यक्ष सैन्य आक्रमणों से देश की रक्षा करना ही प्रशासक का कर्तब्य होता है?? सामाजिक, सांस्कृतिक एवं नैतिक मूल्यों की रक्षा करना प्रशासनन का कर्तब्य नहीं होता? आज मिडिया ने जो स्थिति बना रखी है,ऐसा तो नहीं कि प्रशासन इससे पूर्ण रूपेण अनभिज्ञ हैं....और यदि ये अनभिज्ञ हैं, तो ऐसे चक्षुविहीन प्रशासकों को क्या राज्य करने का अधिकार होना चाहिए ?? क्या समय नहीं आ गया,हमारा कर्तब्य नहीं बनता, कि ऐसे ध्रितराष्ट्र को जो अपनी छत्रछाया में पाप को संरक्षण दे रहा हो, जो शासन में सर्वथा अयोग्य हो, को सत्ताहीन कर हम अपने राष्ट्र की रक्षा करें ....

रोटी नहीं दे सकती, शिक्षा नहीं दे सकती, सुरक्षा नहीं दे सकती, संस्कार और संस्कृति का संरक्षण नहीं कर सकती,फिर भी क्या हम इनकी " जय हो " ही कहेंगे ?? माना कि ऐसा सोचने वाले हम संख्या में अतिअल्प हैं तो क्या हुआ,चलिए प्रण करें और अपने पूर्ण सामर्थ्य के साथ इस ओर प्रस्तुत हों कि ऐसे प्रशासक का " क्षय हो " ....

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63 comments:

डॉ .अनुराग said...

रंजना जी ...आपने बहुत कुछ कहा है ओर दिल से कहा है ...हमसब में से हर कोई कभी न कभी किसी मोड़ पे पहुँच के बहुत सी बाते सोचता है ..मै आज भी मानता हूँ किसी भी समाज के विकास में टीचरों का जो रोल होता है .उसकी जगह कोई नहीं ले सकता ..वे ही ऐसी पोध तैयार करते है जो नन्हे दिमागों में घर कर जाती है .कभी मैंने भी लिखा था .


अच्छा लिखने से कही बेहतर है अच्छा इन्सान होना

M VERMA said...

"हम संख्या में अतिअल्प हैं तो क्या हुआ,चलिए प्रण करें और अपने पूर्ण सामर्थ्य के साथ इस ओर प्रस्तुत हों कि ऐसे प्रशासक का " क्षय हो " ...."
इस विचार की संकल्पता और गहनता मे कही अतिअल्पता नज़र नही आती.
बहुत गहन विश्लेषण

Vinay said...

बहुत अच्छा लेख है, जय श्री कृष्ण!

महेन्द्र मिश्र said...

विचारणीय लेख
कृष्ण जन्माष्टमी की हार्दिक शुभकामना और ढेरो बधाई .

संगीता पुरी said...

बहुत सुंदर लिखा आपने .. पता नहीं इतनी मेहनत कब सार्थक होगी हमारी .. सारे संस्‍कार भूलते जा रहे हैं लोग .. और एक अंधी दौड जारी है सबकी .. जन्‍माष्‍टमी की बहुत बहुत बधाई और शुभकामनाएं !!

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' said...

विचारणीय पहलू।
कृष्ण जन्माष्टमी की हार्दिक शुभकामना।

Rakesh Singh - राकेश सिंह said...

रंजना जी, अपना आभार प्रकट करता हूँ - आपने इतनी सारी बातों को ससक्त रूप से रखा | पर दिक्कत ये है की :
"कुपथ पथ जो रथ दौडाता, पथ निर्देशक वही है " |

imported विचारों के प्रति भारतियों का प्रेम और अपने सभ्यता-संस्कृति के प्रति घृणा तो देखने लायक है |

आपने अक्षरसः सत्य बात कही है पर चुकी आप सभ्यता-संस्कृति को गन्दगी से बचाने की बात कर रही हैं तो कोई आश्चर्य नहीं की आपको सांप्रदायिक विचार धारा का समर्थक लिया जाए | इसके लिए भी तैयार हो जाएँ तो अच्छा रहेगा |

इस मुहीम मैं हम आपके साथ है |

ऐसे प्रशासकों का " क्षय हो " ...

रश्मि प्रभा... said...

सूक्ष्म ढंग से सार्थक विवेचना......बहुत बढ़िया लिखा है

vikram7 said...

रोटी नहीं दे सकती,शिक्षा नहीं दे सकती,सुरक्षा नहीं दे सकती,संस्कार और संस्कृति का संरक्षण नहीं कर सकती,फिर भी क्या हम इनकी " जय हो " ही कहेंगे ?? हम संख्या में अतिअल्प हैं तो क्या हुआ,चलिए प्रण करें और अपने पूर्ण सामर्थ्य के साथ इस ओर प्रस्तुत हों कि ऐसे प्रशासक का " क्षय हो " ....
विचारणीय लेख,कृष्ण जन्माष्टमी की हार्दिक शुभकामनायें

निर्मला कपिला said...

विचारणीय सार्तह्क पो्स्ट जन्माश्ट्मी की बहुत बहुत बधाई

Shiv said...

क्या कहूँ?

इस लेख की प्रशंसा के लिए शब्द कम पड़ जायेंगे. विचारों को लेख में बाँधने का अद्भुत गुण है तुम्हारे पास. लेखन का पाठ पढ़ाने के लिए ऐसे लेखों को उपयोग किया जा सकता है.

निशांत मिश्र - Nishant Mishra said...

आपने बढ़िया लिखा है.
पोस्ट भी खासी लम्बी है:)
और क्या लिखूं. यह सब तो दिनोंदिन बढ़ते ही जाना है.
पहले लगता था की चीज़ें सुधरेंगी.
अब उम्मीद छोड़ दी है.

सिद्धार्थ शंकर त्रिपाठी said...

बिल्कुल ठीक बात है आपकी, बहुत अच्छे ढंग से कही गयी है। लेकिन प्रश्न है इसके अनुपालन का।

साधुवाद!

सुरेन्द्र "मुल्हिद" said...

अत्यन्त सुंदर अभिव्यक्ति है!
जन्माष्टमी और स्वतंत्रता दिवस की शुभकामनायें!
दास,
सुरेन्द्र "मुल्हिद"

डॉ महेश सिन्हा said...

जनता सब जानती है , उसके पास अधिकार भी है लेकिन जब उसे चंद रुपयों के लिए बेचकर ५ साल की गुलामी खरीद लेती है तो क्या किया जा सकता है . टाटा बिडला और अम्बानी मित्तल को एक तराजू में नहीं तौला जा सकता है . टाटा बिडला की जहाँ इस देश के विकास में एक लम्बी परम्परात्मक युक्ति रही है वहीँ अम्बानी मित्तल की कहानी कुछ और है . रिमोट तो सबके पास है लेकिन इसका गुणात्मक उपयोग न होकर संख्यात्मक है . चमकीले परदे ने लोगों को हमेशा से भरमाया है कल यह दूर था तकनीक ने घर ला बैठाया है . स्वतंत्रता की जय हो .

प्रसन्नवदन चतुर्वेदी 'अनघ' said...

बहुत अच्छा लेख....बहुत बहुत बधाई....

समय चक्र said...

अच्छा लेख
कृष्ण जन्माष्टमी की हार्दिक शुभकामना और ढेरो बधाई .

Hari Shanker Rarhi said...

रंजना जी, इस उद्गार की प्रशंसा कैसे करूं? जिस भाव और भाषा का प्रयोग आपने किया है,वह आज की आवश्यकता है और सत्य- स्वयंवर शैली के आयोजकों के मुँह पर सत्य का तमाचा है.परंतु वे इतने चीमड और चिकने हो गये हैं कि उनपर कोई असर ही नहीं होता.हो भी क्यों ? लोग मांगते ही यही हैं.अभी एक चैनल पर एक कार्यक्रम आता है- इंडिया हैज गॉट टैलेंट .उसमें राजस्थान के लोक गायकों ने समाँ बाँध दिया था. निर्णायक भी अवाक रह गये पर ज़ब वोट से सेलेक्शन की बात आई तो अपने आर्यावर्त की ज़नता (विशेषतः नई पीढी ) ने माइकल जैक्सन और सलमान खान टाइप लोगों को सेमी फाइनल तक पहुंचा दिया और लोक कलाकार देखते रह गए . ऊपर एक कमेंट में डॉ.अनुराग ने कहा कि टीचर्स की बहुत बडी भूमिका हो सकती है. वे सही हो सकते हैं पर टीचर्स की दुर्गति शायद उन्हें मालूम नहीं. यह सच है कि पतन के इस युग में शिक्षकों क भी पतन हुआ है पर शिक्षक की क्या हालत है, यह प्रो.सब्बरवाल की आत्मा से पूछा जा सकता है. यह बहस अंतहीन है पर आपकी प्रतिभा एक सफल व्यंगकार के रूप में उभर कर सामने आई है. निजी तौर पर मैं बहुत प्रभावित हूँ.साधुवाद .
दिल्ली से प्रकाशित एक साहित्यिक त्रैमासिकी समकालीन अभिव्यक्ति के सम्पादन कार्य से जुडा हूं. इस संबन्ध मेंआप अपना ईमेल देखें.

jamos jhalla said...

krishan gopal ke janm ki lakh lakh vadhaaiyan.aapne information ke khoobsoorat taanke lagaaye hain lagtaa hai aap software nahi varan hardware hain.
jhalli-kalam-se
angrezi-vichar.blogspot.com

Prem Farukhabadi said...

sundar likh ke liye badhai!

Mumukshh Ki Rachanain said...

आपने अपने विस्तृत किन्तु रोचक लेख में बहुत से संवेदनशील मुद्दे पूर्ण सार्थकता के साथ रखे. कुछ विचार इतने ह्रदय को छू लेने वाले लगे कि उनका उद्धरण यहाँ पुनः कर रहा हूँ........
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बड़े आदमी की उसकी परिभाषा यह थी कि बड़ा आदमी वह होता है,जिसके पास बहुत सारा पैसा हो,जो हवाई सफ़र कर सकता हो,बल्कि उसके अपने कई हवाई जहाज हो,मंहगी गाडियां हो,महल जैसा घर हो, ढेर सारे नौकर चाकर हों, ऐशो आराम का सारा सामान हो,पूरी दुनिया में नाम और पहचान हो.........और यह सब सच्चा और अच्छा आदमी बनकर तो पाया नहीं जा सकता न.
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कहते हैं कि जब जनमानस दिग्भ्रमित हो,पतनोन्मुख हो तो राजा उन्हें दिशा देता है,जब राजा दिग्भ्रमित कर्तब्य विमुख हो जाता है तो राज्य के ज्ञानी विचारक (मंत्री/अधिकारी) उनका मार्गदर्शन करते हैं,परन्तु जब ज्ञानी विचारक ही दिग्भ्रमित और पतित हो जायं तो उस राज्य को ईश्वर भी नहीं बचा सकते...
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क्या केवल प्रत्यक्ष सैन्य आक्रमणों से देश की रक्षा करना ही प्रशासक का कर्तब्य होता है?? सामाजिक, सांस्कृतिक एवं नैतिक मूल्यों की रक्षा करना प्रशासनन का कर्तब्य नहीं होता?
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रोटी नहीं दे सकती, शिक्षा नहीं दे सकती, सुरक्षा नहीं दे सकती, संस्कार और संस्कृति का संरक्षण नहीं कर सकती,फिर भी क्या हम इनकी " जय हो " ही कहेंगे ?? माना कि ऐसा सोचने वाले हम संख्या में अतिअल्प हैं तो क्या हुआ,चलिए प्रण करें और अपने पूर्ण सामर्थ्य के साथ इस ओर प्रस्तुत हों कि ऐसे प्रशासक का " क्षय हो " ....
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आपकी बातों से मैं भी पूर्णतः सहमत हूँ, मैं तो यही कहूँगा कि आपके लेख की "जय हो"

जन्माष्टमी और स्‍वतंत्रता दिवस की आपको बहुत-बहुत बधाई और हार्दिक शुभकामनाएं !!

दर्पण साह said...

एक बीज,
ऊपर आने के लिए,
कुछ नीचे गया ,
ज़मीन के .


कस के पकड़ ली मिटटी ,
ताकि मिट्टी छोड़ उड़ सके .

६३ बरसा हुए आज उसे ….

…मिट्टी से कट के कौन उड़ा ,
देर तक ?

स्वतंत्रता दिवस की हार्दिक शुभकामनाएं

Gyan Dutt Pandey said...

इस महान महिला के स्वयंवर से बौराया था यह देश - कुछ दिन बाद इसके तलाक से बौरायेगा!

डॉ महेश सिन्हा said...

ज्ञानदत्त जी महान की नई व्याख्या देखने मिली :)

Manish Kumar said...

आपकी बात से पूर्ण रूप से सहमति है और तार्किक रूप से आपने उन सभी प्रश्नों का सफलतापूर्वक उत्तर देने की कोशिश की है जिन्हें मीडिया अपने बचाव में उठाता रहा है। पर यह भी पाता हूँ रिमोट का प्रयोग ना कर स्वयंवर जैसे कार्यक्रम को हमारे पढ़े लिखे तबके के बीच भी बड़े चाव से देखा जा रहा है।
दूसरों की निजी ज़िंदगी में ताक झाँक करने की भारतीय समाज की पुरानी मानसिकता रही है और मीडिया लोगों की इस कमजोर नब्ज़ को पकड़कर रियालटी शो के नाम पर तरह तरह के व्यंजन परोस रहा है ।

राजीव थेपड़ा ( भूतनाथ ) said...

bahut gahraa vyabgya.....adbhut.... gazab....shaandaar.....magar sabse mahtvapoorn....dhaardaar.....!!

दिगम्बर नासवा said...

बहुत ही संवेदनशील पोस्ट लिखी है आपने............आज का यथार्त बस इतना ही रह गया ही की कितनी ज्यादा से ज्यादा अपनी संस्कृति को गाली दी जा सके ........... जो जितना ज्याद हिन्दू संस्कृति गो गलियाँ देगा ....... उसको उतना ही प्रगतिशील मन जाएगा............. जहा तक मीडिया की बात है .......... वो तो है ही विदेशी हाथ में................ उनको पता है यदि भारत को ख़त्म करना है तो पहले संस्कृति को ख़त्म करो............ उनका प्रचार इतन फ़ैल चुका है की आज की नौजवान पीड़ी इसको देख ही नहीं पा रही............ बह चुकी है उनकी रो में...........

Smart Indian said...

यह परिवर्तनकाल है. समय, विचार, संस्कृति बहुत तेज़ी से बदल रहे हैं. कोई भी सेंसर, नियंत्रण, या कानून आदि बनने में समय लगता है. मगर धीरे-धीरे सब कुछ "असतो मा सद्गमय.." का अनुपालन करता ही है. जो अच्छा है वही टिकेगा. "सत्यमेव जयते"

Arvind Mishra said...

यह अर्थ की प्रधानता ही सारे अनर्थों के मूल में है -व्यापारिक दृश्य माध्यम उन तमाम संभावनाओं का उत्खनन कर रहे हैं जिनसे निर्बाध धनागम का मार्ग प्रशस्त हो सके -राखी सावंत प्रसंग से ऐसी ही अनंत संभावनाएं जगी हैं -जिनमें एक है ,भविष्य में होने वाली मंगनी /शादी /स्वयम्बरों का दूरदर्शनी प्रसारण ताकि जो नाते रिश्तेदार न पहुँच पायें वे कृतार्थ हो सके !
आपकी भाषा शैली आश्वस्त करती है की आपको हिन्दी साहित्य की कम से कम मानद डाकटर ऑफ़ फिलासफी डिग्री तो दे ही दी जाय ! डीलिट आप खुद कर लीजियेगा ! अगर ऐसा नहीं हुआ तो डाकटर ऑफ़ फिलासफी डिग्री का मान घाट जाएगा जो मुझे रास नहीं आएगा क्योंकि मैं यह उपाधि खुद भी धारण कर सुशोभित हूँ -तो आप आज से ब्लॉग जगत के लिए डॉ ,रंजना सिंह हुईं -भाई कोई इस प्रस्ताव का अनुमोदन तो कर दे !

के सी said...

विषय, भाषा, विचार, प्रवाह और संचार अपने चिट्ठे के नाम के अनुकूल ही है. रंजना जी मेरी ब्लॉग सूची में क्षय हो का उदघोष दिखाई दे रहा था किन्तु किन्ही अपरिहार्य कारणों से इस विचारोत्तेजक आलेख तक पहुंचना संभव नहीं हो पाया. आज एक कहानी के तंतुओं को आगे बढाने के लिए उपस्थित हुआ तो इसने मुझे अपने दिव्यप्रभाव में ले लिया है. आपने जिस राष्ट्रीय महत्त्व के विषय से अपनी बात को आरम्भ किया उसी पर पहली बात यही कहना चाहूँगा कि परिवार, मित्र, कार्यालय और घनघोर शराबी साथियों ने भी इस प्रदर्शन की जम कर आलोचना की लेकिन दुर्भाग्य कि किसी चैनल ने इस राष्ट्रव्यापी आलोचना को सम्मान तो क्या उचित स्थान भी नहीं दिया, सार्वजनिक रूप से देहिक और विवाहपूर्व एवं विवाहेत्तर संबंधों के विषय में इतना भद्दा प्रस्तुतीकरण शर्म का विषय नहीं बन पाया. आपको याद होगा कि एक तुलसी कथा आधारित डैली सोप इतना लोकप्रिय था कि भारत की प्रबुद्ध और सजीव चेतन जनता ने एक पात्र के कथा में मारे जाने के विरुद्ध आन्दोलन किया था इस बार वे आंदोलनकारी कहाँ विलुप्त हुए समझ नहीं आया. समाज के उन्नति आरोहण में नीतिगत और विचारगत मूल्य आधार होते हैं जबकि आज आरम्भ और अंत तक प्रत्येक कार्य-कथा में व्यक्तिगत एवं सुविधागत अपनी भूमिका निभा रहे हैं. आपने बहुत सुंदर लिखा है आशा करता हूँ कि मैं जो लिखता हूँ उसमे आपके इन भावों के प्राण बसे रहें और मेरा मार्ग प्रशस्त करते रहें. आपके इस लेख के योग्य टिप्पणी लिख पाने का सामर्थ्य नहीं है. आपकी आगामी पोस्ट थोड़ी जल्दी आये, इसी कामना के साथ शुभकामनाएं !

सुरेन्द्र "मुल्हिद" said...

good one to think upon...

Himanshu Pandey said...

राखी-स्वयंवर का सजग अवलोकन किया है आपने । भाषा तो अद्भुत है आपकी । अरविन्द जी की शुभानुशंसा का मैं अनुमोदन करता हूँ । आज से आप डॉ० रंजना सिंह हुईं ।

संजीव गौतम said...

रंजना जी सबसे पहले तो उत्साह वर्धन के लिये आभार. इस बहाने आपके ब्लाग तक आने का रस्ता मिला. पढना शुरू करते ही आनन्द आ गया-
'भारतीय संस्कृति की महान संरक्षिका एवं संवाहिका, प्रातः स्मरणीया परम आदरणीया सुश्री राखी सावंत जी का अति रोमांचक प्रेरणादायी औत्सुक्यप्रद'
जय हो.....
काश सब लोग आपकी तरह सोचने लगें. ये बाज़ार हमरे मूल्यों को कहीं का नहीं छोडेगा.

Harshvardhan said...

post achchi lagi...........

Khushdeep Sehgal said...

रंजनाजी, आपका लेख पढ़ कर बहुत कुछ आपके विचार मुझे अपने जैसे ही लगे. देश में रोज छह हज़ार बच्चे कुपोषण से मरते है, है कोई फ़िक्र करने वाला. लेकिन आप जैसे सोचने वालों से ही यह देश चल रहा है. वरना हमारा वजूद ही मिट जायें. आज़ादी के दिन से ही मैंने अपना ब्लॉग शुरू किया है- देशनामा. उस पर आपका कमेन्ट ज़रूर चाहूँगा. वैसे अब ब्लॉग के ज़रिये आपसे मुलाकात का सिलसिला चलता रहेगा. मेरे ब्लॉग का लिंक है-http://www.deshnama.blogspot.com/

Poonam Agrawal said...

Ranjanaji.....Aapki post padhi....baat to vicharniya hai....Thanx....

रंजीत/ Ranjit said...

जबर्दस्त और विचारोत्तेजक ! जो मानसिक तौर पर जिंदा हैं उन्हें झकझोर कर जगा देगा यह आलेख। ईश्वर आपकी कलम की तेज को हमेशा बरकरार रखे।
पता नहीं बाजारवाद का यह विष बेल समाज के और किन-किन मान्यताओं को ग्रसेगा। वैसे भी हम भस्मांकुरण में विश्वास रखने वाले लोग हैं। हम तब तक नहीं जागते जब तक सबकुछ जल कर राख नहीं हो जाता। किस-किस को कोसें ? धूमिल की पंक्ति , जिसकी पूंछ उठाओ... याद आ रही है। जब चीजें आर्थिक हितों की कसौटी पर तय हो रही हो, तो हमारे और आपके नैतिक विमर्श को सुनेगा कौन ? जब अर्थ ही हो जाये जिंदगी का ईष्ट, तो सुचिता की फिक्र किसे। यह नशा है। इसमें हर कोई मदहोश हो जाना चाहता है। अर्थानन्द ही हो गया है जीवन का अंतिम इष्ट, फिर स्वास्थ्य के बारे में सोचेगा कौन ?
फिर भी बुद्धिजीवी लिखना क्यों छोड़े। कविता से क्रांति भले नहीं हो, कविता गवाह है , गवाह रहेगी कि कवि ने कभी इन प्रवृत्तियों को नहीं स्वीकारा।
बहुत-बहुत धन्यवाद
रंजीत

Harshvardhan said...

aapse poori tarah se sahmat hu..............

गौतम राजऋषि said...

आने में जरा सी देर क्या हुई, हम चालीस टिप्पणियों के नीचे दब गये...!!!

आपकी विलक्षण लेखनी को नमन पहले तो...कैसे लिख लेती हैं आप इतना कुछ और वो भी इतना डूबकर और फिर भाषा के प्रवाह को बरकरार रखते हुये?

शोभना चौरे said...

gouatm ji ne bikul theek kha hai
mai to vimugdh hoo aapki is post par aur khushi bhi mhsus kar rhi hoo ki jaisa kuch mai sochti hoo use itne jeevant shabdo ki abhivykti mili hai
beshak ye aapki amuly aur imandar soch ,aur utni hi imandar bhavana hai .aur apne apne star par isko kriyanvit karna hi ak aahuti hogi .
aise vichar hme milte rhe isi asha ke sath anek shubhkamnaye .

योगेन्द्र मौदगिल said...

सटीक प्रस्तुति.... जय हो हो हो..

adwet said...

bahut sunder vichar aur adhbut abhivyakti

Arvind Mishra said...

डॉ .रंजना सिंह ,
मानद डाक्टरेट के लिए बधाई !

Khushdeep Sehgal said...

रंजनाजी, आप जैसी विभूति का एक-एक शब्द सरस्वती की वाणी लगता है, मुझ जैसे नए ब्लॉगर के लिए आपका उत्साहवर्धन कुछ अलग करने की प्रेरणा देता रहेगा.

adwet said...

bahut khoob likha aapne, prernadayak

अभिषेक मिश्र said...

Prashashan swayan bhi janta ko in chalavon mein uljhaye rakhne mein hi interested hai.

अभिषेक मिश्र said...
This comment has been removed by the author.
BrijmohanShrivastava said...

इस लेख पर टिप्पणी देना यानी एक ब्लॉग लिखना है |संयत ,सुसंस्कृत ,अलंकारों और उपमाओं से परिपूर्ण भाषा |स्वयंवर,पर करारा व्यंग्य |पहले ही पद की भाषा नोट करने लायक |अर्थ के सम्मुख इस कलिकाल में सब अर्थ हीन है वैसे ही अर्थी के सम्मुख इस कलिकाल में सब अर्थ हीन है |अब अ (वयस्क श्रेणी )कर्मठ समाचार bachanनाम की कोई चीज़ रही नहीं |कर्मठ समाचार बाचक सनसनीखेज समाचार देते है कभी नाग नागिन के किस्से ,कभी दूध पीते भगवन ,कभी ,पुनर्जन्म मुझे तो पता नहीं शायद इसे ही टी पी कहते हैं |यह प्रगति की पराकाष्ठा नहीं है "इब्तदा इश्क है रोता है क्या ,आगे आगे देखिये होता है क्या ""ठीक भी है हम तो दिखायेंगे तुमको पसंद नहीं तो चेनल बदल लो |शुतुरमुर्ग के पीछे जब शिकारी दौड़ता है तो वह रेत में गर्दन घुसा लेता है समझता है शिकारी मुझे नहीं दिख रहा तो मैं भी शिकारी को नहीं दिख रहा होऊँगा| रिमोट क्या बच्चों से छुपा कर रखोगे ?सही है चार दिन का राशन न खरीदने वाला भी डिस्क कनेक्सन के पैसे नियमित जमा करता है |इस पद में शायद आपका इशारा "पंचतंत्र "की ओर है |यदि कथन या द्रश्य सही है तो एक बार दिखादो बात ख़त्म मगर तुर्रा ये की सबसे पहले हम दिखा रहे हैं |यह भी नितांत सत्य है कि विदेशी संस्कृति जबरन थोपी जा रही है |आपके बेटे की इच्छा वर्तमान माहौल के अनुसार ही है क्या कीजियेगा हवा ही ऐसी चल रही है |सेसर का आलम तो मैं तब से देख रहा हूँ जब राजकपूर ने सत्यम शिवम् सुन्दरम फिल्म बनाई थी |टिप्पणी ज्यादा बड़ी हो रही है -tippneekar का ज्यादा लिखना अपना panditya pradarshan kahlata है |at: kshama

विवेक सिंह said...

लेख के नीचे टिप्पणियाँ भी कम अच्छी नहीं हैं .

कुल मिला कर अच्छी कोशिश है !

vallabh said...

pahli baar aapke vichar padhe.. behad prasangik evam gambhir... jyada kya kahun?

hem pandey said...

कोई भी बात या सन्देश जितनी सफलतापूर्वक कथानकों के माध्यम से व्यक्ति के ह्रदय में आरोपित की जा सकती है,उतनी किसी भी अन्य माध्यम से नहीं. उसमे भी कथानकों का दृश्य रूप तो कभी निष्फल हो ही नहीं सकता..यह तो रामबाण सा कार्य करता है...
- ये कथानक और उनके पात्र हमारे समाज से विलुप्त हो गए हैं.

Sulabh Jaiswal "सुलभ" said...

रंजना जी, आपका यह लेख केवल एक आलेख नहीं है. यह सम्पूर्ण आह्वान है.

सभी प्रबुद्ध नागरिको की यह ड्यूटी बनती है की वे अपने व्यस्त जीवन शैली में से कुछ हिस्सा निकाल कर नियमित रूप से राष्ट्रीय सम्पदा एवं सांस्कृतिक गौरव को अक्षुण बनाए रखने की दिशा में साझेदारी कर गर्वित महसूस करे. चाहे वे किसी भी आय अथवा आयु वर्ग के हो. सुधार के दिशा में हम सब की एक एक राय कीमती हो सकती है. स्कूली जीवन में हमने भी शपथ ली थी. इसी क्रम में एक कोशिश " Few things to reform our Education system & Health in Poor India.

बहरहाल यह चर्चा विभिन्न राहो एवं सरोकारों से गुजरते हुए अपने लक्ष्य तक पहुंचे - ऐसी हम कामना भी करते हैं और प्रयासरत भी है और आज इस मंच के माध्यम से सभी से अनुरोध करता हूँ कृपया सुधार की दिशा में अपनी अपनी सलाह दे या अपने अपने पत्रों/ब्लॉग आदि पर कुछ उपाय प्रकाशित करते रहें. हो सकता इन्ही में से हम सबको राष्ट्रहित में कल्याणकारी सचमुच कुछ उपाय मिल जाए.

कहते हैं कि जब जनमानस दिग्भ्रमित हो,पतनोन्मुख हो तो राजा उन्हें दिशा देता है,जब राजा दिग्भ्रमित कर्तब्य विमुख हो जाता है तो राज्य के ज्ञानी विचारक (मंत्री/अधिकारी) उनका मार्गदर्शन करते हैं,परन्तु जब ज्ञानी विचारक ही दिग्भ्रमित और पतित हो जायं तो उस राज्य को ईश्वर भी नहीं बचा सकते...

और क्या कहूँ. सबके लिए आदर. धन्यवाद !!

- सुलभ

Alpana Verma said...

परन्तु जब ज्ञानी विचारक ही दिग्भ्रमित और पतित हो जायं तो उस राज्य को ईश्वर भी नहीं बचा सकते...
बहुत सही लिखा है रंजना जी.
आज किसे दोष दें?
सिर्फ 'बालमन 'ही नहीं हर कोई यह जनता है और मानता है [manane laga hai]की पैसा ही सबकुछ है ..बाकि सब मूल्य अर्थहीन हैं..
देखें कब तक यह स्थिति बनी रहती है ..बिगड़ती है या सुधार की गुंजाईश है?
-आज के लेख में aap ki लेखनी बहुत पैनी हो गयी है..शब्द भी तीखे और समाज की वर्तमान स्थिति पर खूब कटाक्ष कर रहे हैं.अच्छा लेख है.

Anonymous said...

CHHAY HO.
वैज्ञानिक दृष्टिकोण अपनाएं, राष्ट्र को प्रगति पथ पर ले जाएं।

सुरभि said...

सुन्दर और दिमाग को झकझोड़ कर रख देने वाली रचना के लिए ढेरों बधाई. आपकी बातों से मैं पूर्णत सहमत हूँ. समाज के मानदंड आज इतने गिर चुके हैं की राखी के स्वयंवर जैसे घटिया धारावाहिक को उच्च टी.र.पी रेटिंग मिलती है , या फिर एक अच्छे इंसान होने का पर्याय पैसा बन चुका है.

फिर भी ऐसे में हमारे जैसे लोगों को हर गलत को गलत कहने की अपनी आदत को कायम रखते हुए ऐसी बातों का पुरजोर विरोध करना चाहिए. हमारे आने वाली पीढी हो सकता है खुद को कई बार असमंजस में पाए, दुविधा की स्थिथि में खड़ी हो पर हम लोग हैं उनको सही और गलत की पहचान करने में.

अपनी पोस्ट पर जब मैंने आपका कमेन्ट देखा तो दिल को तसल्ली हुई की कोई और भी हैं जो मेरे साथ बिना स्त्री पुरुष का भेदभाव किये सही गलत की और उंगुली उठता है.

मैं उम्मीद करती हूँ की आने वाले समय में भी आप हमेशा सही बात का सम्रथन करने में सक्षम रहेगी और विरोधो से हार नहीं मानेगी.

आभार
सुरभि

रचना त्रिपाठी said...

रंजना जी यह पोस्ट पढ़कर बहुत अच्छा लगा। शायद इसीलिए इसे कलयुग कहा गया है। आजकल के बच्चे इस चकाचौंध को देखकर अपनी वास्तविकता को भूलकर उसी दुनिया में भागे जा रहे हैं.जिन्हें खाने के लिए एक वक्त की रोटी नही मिलती वह भी अपने माँ-बाप से सोने के लिए स्लीपिंसूट की माँग करते हैं।
विचारणीय पोस्ट। आभार.

Khushdeep Sehgal said...

आपकी पोस्ट पढ़कर एक पुराना गीत याद आ गया- चम्पावती आ जा...वाकई अगर चम्पा ना आए तो किचन का क्या हो..मैंने ब्लॉग की दुनिया में नया दाखिला लिया है. अब पढ़ना-कहना लगा ही रहेगा

vishnu-luvingheart said...

sarvapratham dhanyavaad mere blog pe aane ke liye...
aapki rachnaye sach mein dil choone wali hai...

Asha Joglekar said...

Eye opener. Par jo jan booz kar aankhe band kye hain unka kya ?

RADHIKA said...

आपकी पोस्ट पढ़कर भावः विभोर हूँ ,सच आप दिल से लिखती हैं और आपकी हर बात दिल को छु जाती हैं .सच मैं पिछले कई दिनों से मैं भी सिर्फ विचार विचार और विचार कर रही हूँ की ये सब क्या होता जा रहा हैं दुनिया में ,और क्या कुछ बदलाव लाया जा सकता हैं ,या हमें ही इस सबकी आदत डाल कर खुश रहना हैं (जो की कम से कम मेरे लिए असंभव हैं )

Dr. Zakir Ali Rajnish said...

इन संवेदन की कद्र किसे है। फिरभी आप लिखती रहें, क्योंकि हमें पढना अच्छा लगता है।
-Zakir Ali ‘Rajnish’
{ Secretary-TSALIIM & SBAI }

Unknown said...
This comment has been removed by the author.
Unknown said...

रन्जना जी, आपके इस लेख मे़ बहुत सी बातो ने सबका मन जीता है. हमेशा की तरह आखिरी टिप्प्णी कर रहा हू पर क्या कहू़ ?
बडे आदमी और अच्छे आदमी के बीच आपने जो भेद किया है वो मेरे जीवन की सबसे बडी लडाई है. आपने उसे सार्थक शब्द ददिये इसके लिये अनुग्रहित हू़