स्वयं को बहुत पहले से ही मैंने चेता रखा था कि, अपनी तथा अपने संवेदनशीलता की रक्षा के लिए कभी भी कुछ खाते पीते समय समाचार पठन या दर्शन न किया करूँ...परन्तु दुर्भाग्यवश आज उसे विस्मृत कर दोपहर के भोजन काल में टी वी पर समाचार देखने बैठ गयी ..सामने कल तक जीवित परन्तु आज मृत सी आई डी के पदाधिकारी फ्रांसिस हेम्ब्रम का वह चेहरा आया जिसे नक्सलियों ने अपने तीन शीर्ष नेताओं कोबर्ट गांधी ,छत्रधर महतो और भूषन को पुलिस द्वारा गिरफ्तार कर लिए जाने के बाद ,उन्हें मुक्त कराने हेतु अपहरण के बाद धमकी स्वरुप अपनी गंभीरता तथा प्रतिबद्धता दिखाते हुए मार डाला था...
मन अत्यंत खिन्न और विचलित हो गया और सच कहूँ तो लगा कि अभी जाकर पुलिस की गिरफ्त में उन तथाकथित महान नेताओं की हत्या कर इन्हें भी सबक सिखाऊँ. यह हमारे देश की कैसी न्याय प्रणाली है,जिसमे दुर्दांत अपराधियों के मानवाधिकारों के लिए भी इतनी चिंता की जाती है कि न्यायिक प्रक्रिया में उसमे और सामान्य अपराधी में कोई भेद नहीं किया जाता और दूसरी ओर कमजोर मासूम आदमी की रक्षा के लिए कोई व्यवस्था नहीं....
सामर्थ्यवान द्वारा शक्तिहीन को शोषित पीड़ित होते देख सुन कर किसी भी संवेदनशील व्यक्ति का ह्रदय प्रतिकार को उत्कंठित हो उठता है और आक्रोश की यह मात्रा ज्यों ज्यों बढ़ती जाती है,एक सामान्य शक्तिहीन मनुष्य में भी शोषक को समाप्त करने की प्रतिबद्धता प्रगढ़तम होती जाती है.. और फिर प्रतिकार का सबसे पहला मार्ग जो उसे दीखता है वह उग्रता और हिंसा का ही हुआ करता है...आवेग व्यक्ति में उस सीमा तक धैर्य का स्थान नहीं छोड़ती, कि व्यक्ति सत्याग्रह एवं अहिंसक मार्ग अपना सके और उसपर अडिग रह सके.रक्षक को ही भक्षक बने देख स्वाभाविक ही किसी भी संवेदनशील का खून खौलना और आवेश में उसके द्वारा अस्त्र उठा लेना,एक सामान्य बात है...
विश्व इतिहास साक्षी है ऐसे अनेकानेक विद्रोहों विप्लवों का जब अन्याय के प्रतिकार में व्यक्ति या समूह ने अस्त्र उठाये,आत्मबलिदान दिया और शोषकों के प्राण हरे.हत्या चाहे शोषक करे या शोषित,हत्या तो हत्या ही होती है,लेकिन अपने उद्देश्य के कारण एक पाप है तो दूसरा पुण्य.एक ही कार्य उद्देश्य भिन्न होने पर विपरीत अर्थ और परिणामदाई हो जाते है.परन्तु दोनों के मध्य अदृश्य अतिशूक्ष्म वह अंतर है जो पता ही नहीं चलने देता कि कब शोषित शोषक बन गया....
साठ की दशक में नक्सल आन्दोलन की नींव जिस विचारभूमि पर पड़ी थी, अन्याय और शोषण के विरुद्ध सशश्त्र प्रतिकार को उपस्थित हुआ वह समूह एक तरह से निंदनीय नहीं, वन्दनीय ही था.मुझे लगता है तब यदि मैं वयस्क रही होती तो मैं भी इसकी प्रबल समर्थक और प्रमुख कार्यकर्त्ता रही होती. इसके महत उद्देश्य ने ही देश के युवा वर्ग को सम्मोहित कर एकजुट किया था. देश को चलाने वाले बहुत छोटे से पदाधिकारी से लेकर शीर्षस्थ पदाधिकारी तक,राजनेता ,पूंजीपति आदि आदि यदि पथभ्रष्ट हो जायं और पोषक के बदले शोषक बन आमजन का जीवन दुरूह कर दें,न्याय पालिका तक अपनी प्रासंगिकता खो चुकी हो , तो उनके विरुद्ध आवाज़ बुलंद करना, उन्हें चेताना और दण्डित करना किसी भी लिहाज से अनैतिक नहीं.बल्कि मैं तो कहूँगी आज भी ऐसे ही समूह और शक्ति की आवश्यकता है जो पथविमुख को सही मार्ग पर रखने के लिए सदैव ही प्राणोत्सर्ग को तत्पर रहे...
परन्तु यही रक्षक शक्तियां जनकल्याण मार्ग से विमुख हो यदि शोषक और हिंसक बन जाय तो इन्हें कुचलना भी उतना ही आवश्यक है.कैसी विडंबना है,सरकार द्वारा विकास न किये जाने,पूंजीपतियों द्वारा शोषित होने और समस्त सरकारी तंत्र में व्याप्त भ्रष्टाचार के त्रासद स्थिति पर , जिस जनांदोलन की नींव रखी गयी ,आज महज तीन चार दशकों में ही इसका रूप विद्रूप हो आन्दोलन ठीक इसके विपरीत मार्ग पर चल अधोगामी हो चुका है . विकास का मार्ग पूर्ण रूपेण अवरुद्ध कर,उन्ही देशी विदेशी पूंजीपतियों ,विध्वंसक शक्तियों से सांठ गाँठ कर उनके आर्थिक मदद से तथा व्यापारी वर्ग को आतंकित कर उनसे धन उगाह अपना और भ्रष्ट राजनेताओं का स्वार्थ साधना , जब उस उग्रवादी समूह का सिद्धांत और स्वभाव बन जाय तो ऐसे समूह को डाकुओं हत्यारों का एक सुसंगठित गिरोह ही कहना होगा न ,जिसका उद्देश्य ही आतंक के सहारे धन लूटना, आतंक का धंधा चलाना और अपने ही देश को कमजोर करना है .
कहा जाता है कि दलित शोषित गरीब लोग हथियार उठा नक्सली बन रहे हैं.यदि यह समूह दलित शोषित उन गरीब लोगों का है,जिनके पास अन्न,वस्त्र,छत,जमीन और रोजी रोजगार नहीं हैं, तो भला इनके पास बेशकीमती अत्याधुनिक हथियार कहाँ से आ जाते हैं ?? यह सोचने और हंसने वाली बात है..यह किसी से छुपा नहीं अब कि, इस समूह के आय के श्रोत क्या हैं और इनके उद्देश्य क्या हैं...
समूह तो पथभ्रष्ट हो ही चुका है,पर सबसे दुखद यह है कि हमारे देश के कर्ताधर्ताओं को अभी भी यह कोई बड़ी समस्या नहीं लगती.हमारे यहाँ एक विचित्र व्यवस्था है,व्यक्ति का अपराध ही दंड प्रक्रिया से गुजरता है,समूह का अपराध जघन्य नहीं माना जाता और उसमे भी जितना बड़ा समूह, वह उतना ही उच्छश्रृंखल उतना ही मुक्त होता है... जानकार जानते हैं कि अपने ही देश में कई समूहों ने इसे अपना रोजगार बना लिया है..कहीं उल्फा ,कहीं नक्सल कहीं किसी और नाम से एक समूह संगठित होता है और ये सरकार को शांति और सुव्यवस्था बनाये रखने देने में सहयोग के नाम पर लेवी वसूल करते हैं.और इस तरह चलता है इनका पूरा व्यापार..
सरकार और ये आतंकी संगठन दोनों के ही उद्देश्य लोगों को अशिक्षित रख,उन्हें दुनिया और विकास से पूरी तरह काट भली भांति पूरे होते हैं.कौन नहीं जानता कि इनके ही इशारे पर मतदान भी हुआ करते हैं.इन आतंकवादियों से प्रभावित इलाकों में पूर्ण रूपेण इनका ही साम्राज्य चलता है और ये ही फौरी तौर पर राजनेताओं तथा राजनीति की दिशा दशा निर्धारित करते हैं....
इसके विकल्प रूप में तो यही दीखता है कि जब प्रशासन आँख कान मुंह ढांपे पड़ा है तो क्यों न लोहा से लोहे को काटने की तर्ज पर एक ऐसा ही सशश्त्र समूह संगठित किया जाय और इन आततायी शक्तियों को सबक सिखाई जाय...पर फिर यही लगता है कि इसकी क्या गारंटी है कि यह नया समूह भी कभी स्वार्थी नेताओं के नेतृत्व में स्वार्थी तथा विघटनकारी न बनेगा..
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48 comments:
aapne kafi kuchh wo kah diya jo mere man me tha. dhanyawad.
नक्सलवाद अपने मूल उद्देश्य से भटक चुका है और ये बात नक्सल आन्दोलन वाले भी दबी जुबान से ही सही स्वीकार तो करते ही हैं |
नक्सलवाद से लड़ने की जिम्मेदारी राज्यों की अपेक्षा केंद्र की ज्यादा है | केंद्र ने किसी तरह अब माना है की ये एक बड़ी समस्या है, माना ही है कुछ किया नहीं है और कुछ करने का विचार भी नहीं है | वोट बैंक की राजनीति से फुर्सत मिले तब ना ! सभी जानते हैं नक्सलियों को हथियार कहाँ से मिल रहा है फिर भी हमारी सरकार चुप बैठी है..... कारवाही के नाम पे बस लिपा-पोती चल रही है ... बदले मैं दो-चार नक्सलियों को मार के सांत बैठ जाओ .... ये सिलसिला यू ही चलने दो ....
विषय जटिल है .किसी भी क्रान्ति के मूल में शोषण ओर दोहन ही छिपा होता है...ओर कुछ अवसरवादी ओर भ्रष्ट लोगो की वजह से लोगो को उनका वास्तविक हक नहीं मिल पाता है ...ओर ये भी सच है बाद में क्रांतिया अपने मूल उद्देश्य से भटक जाती है
आपका क्लांत हो जाना समझा जा सकता है -नक्सली समस्या में भी कुछ लोगों को निहित स्वार्थी बरगलाकर उनके कंधे पर बन्दूक रख दिए हैं !
आपकी जायज़ चिंता आज की भ्रष्ट राजनीत के हाथों की कठपुतली बन चुकी है .........हम कभी कभी बेहद विवश महसूस करते हैं .
dil ki baat keh di aapne
आतंकवाद का नाम चाहे माओवाद रख दिया जाए, चाहे जिहाद और चाहे नक्सलवाद. नाम बदलने भर से उसकी नस-नस में बसी दरिंदगी कम नहीं होती है. ये हत्यारे देश , दुनिया और मानवमात्र के कितने बड़े दुश्मन हैं यह बताने के लिए उनके कुकृत्यों से बड़ा साक्ष्य और क्या हो सकता है? मगर इसके साथ ही प्रशासन को कभी तो जनाकांक्षा का आदर करते हुए इन हत्यारों को कानून का रास्ता दिखाना पडेगा ही. आखिर पीडितों के प्रति भी तो प्रशासन की जिम्मेदारी बंटी है.
आपकी बातों से सहमत हूँ... मेरे पास चे गुएआरा की एक टी शर्ट है बड़ी मुश्किल से मिल पायी थी. अब पहनने की इच्छा नहीं होती. किसी भी वाद का आधार बनाकर इनका समर्थन नहीं किया जा सकता.
बहुत अच्छा विषय उठाया. नक्सलवाद अपने मूल उद्देश्य से जाने कहाँ भटक गया है और आतंकवाद का पर्यायवाची बन कर रह गया है.
naksalwaad ho ya aatankwaad manavta ke liye kalank hain.
इसके विकल्प रूप में तो यही दीखता है कि जब प्रशासन आँख कान मुंह ढांपे पड़ा है तो क्यों न लोहा से लोहे को काटने की तर्ज पर एक ऐसा ही सशश्त्र समूह संगठित किया जाय और इन आततायी शक्तियों को सबक सिखाई जाय...पर फिर यही लगता है कि इसकी क्या गारंटी है कि यह नया समूह भी कभी स्वार्थी नेताओं के नेतृत्व में स्वार्थी तथा विघटनकारी न बनेगा..
बहुत सही कहा है आपने!
फिलवक्त , बुद्धिजीवी लोगों के हाथों में लाल ,हरा, भगवा,नीला, झंडा न होकर सफ़ेद झंडे की आवश्यकता है क्योंकि सफ़ेद सच और अहिंसा का प्रतीक है . और एक ऐसा रंग भी जिसपर जरुरत के हिसाब से विभिन्न रंगों को चढाया जा सकता है . नहीं तो सरकार की हुंकार साफ़ है .बहुत हो गयी याचना अब रण होगा . हर हिंसक वाद का जबाव देने की जरुरत आन पड़ी है . अभी ज्यादा दिन नहीं हुए जब श्रीलंका सरकार ने संसार की सबसे सुगठित आतंकी संगठन लिट्टे को निबटाया था .
बहन रंजना,
बहुत ही अच्छा विवेचन.
नक्सलवाद, माओवाद और चीन अब ये ही भारत के लिए ज्यादा बड़े ख़तरे हैं. भारत और भारत के सुरक्षा तंत्र को चाहिए कि अब बचपना और जज़्बात को पीछे छोड़ इन ख़तरनाक और ज़हरीले 'वादों' और देश से बेहतर ढंग से निबटे.
किस शोषण की बात करते हैं नक्सलवादी।बस्तर मे हो रहा शोषण बस्तर के लोगोम को आंध्र के लोग बतात हैं,उन्हे यंहा की चिंता है यंहा के लोगों से ज्यादा,फ़िर जब वे यंहा बिजलीके टावर गिराकर लोगों को अंधेरे मे रहने को मज़बूर करते हैं तो शोषन नही होता।भोले-भाले बेरोज़गारो के दिलो मे नफ़रत के बीज़ बोकर अपने ही लोगो को मौत के घाट उतारने वालों का कोई सिद्धांत नही है।लूट-खसोट का विरोध जब वे लूट-खसोट से कर सकते हैं तो खून का बदला खून ही होना चाहिये।इस मामले मे आपका गुस्सा स्वाभाविक है मगर सरकार से लेकर सारा सिस्टम सड़ गया है।एक गिरोह उनके लिये प्रोपोगण्डा करने मे लगा हुआ और सब कुछ बिका हुआ है।
नक्सलवाद का सिद्धांत भले ही शोषण और अन्याय के विरुद्ध संघर्ष रहा हो (और इसके छोटे प्यादे आज भी इसी भ्रम में हैं) परन्तु इसका मूल नारा है "चीन का चेयरमैन, हमारा चेयरमैन". इसके नेता इसे एक माफिया गिरोह की तरह संचालित कर रहे हैं जिसका उद्देश्य है धन बटोरना और विदेशों में ऐशोआराम की जिंदगी जीना. इसके लिए इन्हें निर्दोष और उन मासूम लोगों पर भी अत्याचार करने से परहेज नहीं जिनके लिए लड़ने का ये दम भरते है.
मुझे विश्वाश है कि आप में से हर कोई अन्याय और शोषण के विरुद्ध है पर क्या इसके लिए "चीन के चेयरमैन को अपना चेयरमैन" बना लेंगे. यह देशद्रोह है और इसकी सजा संविधान में तय है, सजा कब दी जायेगी यह सरकार को तय करना है. हमारा कर्त्तव्य है कि हम एक कर्तव्यपरायण पुलिस अधिकारी और निर्दोष परिवार के बलिदान को व्यर्थ न जाने दें.
इस अद्भुत विवेचना को पढ़ने के पश्चात अभी कुछ दिन पहले आपसे अपनी मैथिली में की हुई बातें याद हो आयीं...इन दो अलग-अलग रूपों को मिला कर एक "रंजना" में देखना मेरे लिये फिलहाल असंभव सा जान पड़ रहा है... :-)
सोचता हूं, बहस को एक नया मोड़ दूं ये कह कर कि एक ऐसे ही आंदोलन को करीब से देखने के बाद सच मानिये तो मन का एक कोना थोड़ा सा समझता है इस कथित "उद्देश्य" का सार...या इस भटके हुये उद्देश्य को जैसा कि डाक्टर साब कहते हैं। फिर अभिषेक की ये उद्घोषणा कि अब उन्हें वो चे ग्वेरा जड़ित टी-शर्ट पहनने का मन नहीं करता...सत्तर प्रतिशत ऐसे सारे उद्देश्य अब महज "गन" या "राइफल" के प्रति ग्लैमर या आसक्ति जैसे रह गये हैं...
कई बातें हैं जो मुझे मेरे प्रोफेशन में होने की बदौलत इजाजत नहीं है सार्वजनिक रूप से कहने की.....फिर कभी छेडूंगा इनको।
बहुत ही अच्छा और संवेदनशील लेख.
bahut sahi likha hai,badhaai
ranjana ji , deri se aane ke liye maafi ..
namaskar..
nazalwaad ab jaane kya ban chuka hai aur jis uddeshaya se ye shuru hua tha wo ab nahi raha . massom logo ka kya honga , jaan nahi sakte ..
itni saarthak aur sashakt post ke liye is post ke liye meri badhai sweekar kare..
dhanywad
vijay
www.poemofvijay.blogspot.com
"नस्लवाद जिस उद्देश्य से उभरा था अब वही नहीं रहा" कह कर उसके विरूद्ध हो जाने से बेहतर है उन कारणों की पड़ताल। दूसरी बात यह कि हम चंद बाहरी जानकारियों एवं अफवाहों के आधार पर अपने मानसिकता का एक ढांचा दे देते हैं जिसकी वजह से सही निष्कर्षों तक नहीं पहूंच पाते हैं। यह भी ध्यान रहे जानकारियों एंव अफवाहों के लिए जो माध्यम है वह नस्लवाद के विरूद्ध कटिबद्ध है। अत: हम सही दिशा में नहीं सोच पाते। कृपया सही, तथ्यात्मक एवं विचाधारात्मक कारणों को जाने बगैर एवं भविष्य के आदर्श को दरकिनार कर सरल टिप्पणियों से भी बचने की जरूरत है।
विरूद्धों के विरूद्ध होने से पहले व्यवस्था के क्रियाकलाप एवं रवैये पर जरूर ध्यान रखें।
नस्लवाद के बहाने आपने गम्भीर सवाल उठाए हैं, इनपर खुली चर्चा का समय आ गया है।
करवा चौथ की हार्दिक शुभकामनाएँ।
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बोटी-बोटी जिस्म नुचवाना कैसा लगता होगा?
naksalwad shuru toh eak bare uddeshya se hua tha lekin bhatak gaya hai... chunki sarkaaren neend mein hai aur unhe hashiye ke paar ke logon ki aor vote ke alawa kabhi dekhne ki jarurat nahi hoti... yeh aam logon ke frustration ka poshan kar raha hai.... eak gambhir vishay par gambhir baaten karne ke liye shukriya !
नक्सलवादियों के साथ चीन व पाकिस्तान के स्वार्थों का गम्भीर मिश्रण हो गया है. भारत की अखण्डता को खतरा है. और पत्रकार, फिल्मकार इनके पैरोकार बन रहे हैं.
बहुत सही कहा है आपने.हार्दिक शुभकामनाएँ।
नक्सलवाद आकुशल शासन की देन हॆ,विचारणीय लेख
दुनिया का कोई भी सिस्टम उतना ही अच्छा या बुरा है जितने उससे जुडे लोग. यही बात सब जगह लागू गोती है
बेहद सन्तुलित और विचार्परक लेख के लिये बधाई.
वैचारिक ताजगी लिए हुए रचना विलक्षण है। विषय को गहराई में जाकर देखा गया है और इसकी गंभीरता और चिंता को आगे बढ़या गया है।
sashkt aalekh .kisi ak achhe uddeshy ko lekar chlna badi door ki kaoudi ho gai hai .fir chahe maovadi ho naksli ho ya fir bjarg dal hi kyo na ho .sb apne uddeshy se bhatk gye hai
aaj ndt v par ak smachar me china me
"chota bhart
' karykrm dikha rhe rhe usme tha maovadi ke desh me ahisa ke doot gandhiji ki pooja .
नये सशस्त्र समूह के नाम पर छत्तीसगढ़ मे एक प्रयोग हो चुका है । यह नाकाफी है । केवल बातचीत और राजनीतिक इच्छाशक्ति ही इसका हल है ।
मन अत्यंत खिन्न और विचलित हो गया और सच कहूँ तो लगा कि अभी जाकर पुलिस की गिरफ्त में उन तथाकथित महान नेताओं की हत्या कर इन्हें भी सबक सिखाऊँ. यह हमारे देश की कैसी न्याय प्रणाली है,जिसमे दुर्दांत अपराधियों के मानवाधिकारों के लिए भी इतनी चिंता की जाती है कि न्यायिक प्रक्रिया में उसमे और सामान्य अपराधी में कोई भेद नहीं किया जाता और दूसरी ओर कमजोर मासूम आदमी की रक्षा के लिए कोई व्यवस्था नहीं....
दोनों के मध्य अदृश्य अतिशूक्ष्म वह अंतर है जो पता ही नहीं चलने देता कि कब शोषित शोषक बन गया....
देश को चलाने वाले बहुत छोटे से पदाधिकारी से लेकर शीर्षस्थ पदाधिकारी तक,राजनेता ,पूंजीपति आदि आदि यदि पथभ्रष्ट हो जायं और पोषक के बदले शोषक बन आमजन का जीवन दुरूह कर दें,न्याय पालिका तक अपनी प्रासंगिकता खो चुकी हो , तो उनके विरुद्ध आवाज़ बुलंद करना, उन्हें चेताना और दण्डित करना किसी भी लिहाज से अनैतिक नहीं.बल्कि मैं तो कहूँगी आज भी ऐसे ही समूह और शक्ति की आवश्यकता है जो पथविमुख को सही मार्ग पर रखने के लिए सदैव ही प्राणोत्सर्ग को तत्पर रहे...
परन्तु यही रक्षक शक्तियां जनकल्याण मार्ग से विमुख हो यदि शोषक और हिंसक बन जाय तो इन्हें कुचलना भी उतना ही आवश्यक है.
.पर फिर यही लगता है कि इसकी क्या गारंटी है कि यह नया समूह भी कभी स्वार्थी नेताओं के नेतृत्व में स्वार्थी तथा विघटनकारी न बनेगा..
वंदना जी,
उपरोक्त अंश स्वतः ही आपकी चिंताओं को जायज़ ठहराते हैं, अविश्वाश एक दिन में नहीं धीरे-धीरे ही बनता है, बात कहीं पर भी भरोसे रूपी गारंटी से प्रारंभ होती है और धोखे के रूप में परिणित पति है, शायद आज के समय में यही आम आदमी की नियति हो गयी है.............
बहुत ही धारदार लेख रहा यह आपका.
मैंने भी अपने ब्लाग पर ताज़ातरीन पोस्ट में छोटी सी रचना में भी शायद ऐसा ही कुछ कहने का प्रयास किया है, गौर करें....
चन्द्र मोहन गुप्त
जयपुर
www.cmgupta.blogspot.com
गंभीर विमर्श.
विचार सूत्र भी अहम लगे.
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डॉ.चन्द्रकुमार जैन
Saikdon police wale mare jate hain...chahe naxaltes ho, chahe ULFA, LTtE, ya any..aajtak ( azadee ke baadse) sena b-nisbat police ke karmcharee/adhukaree 10 guna se zyada mare gaye hain...unka smarak din hota hai...janta ko patabhee nahee hota...abhi aahee raha hai...in shaheedon ko koyee shraddhanjalee dene nahee aata...
आपने नक्सलवाद के भटकाव की बेहतरीन विवेचना की है। लेकिन मैं आप के लेख को सब्जेक्टिव ज्यादा मान रहा हूं। आपने घटनाओं के थ्रू घटकों को समझने की कोशिश की है और इस लिहाज से यह एक श्रेष्ठ विश्लेषण है। कमोबेश हम सभी नक्सलवादियों की अतार्किक, अनियंत्रित, अराजक गतिविधियों से अब अच्छी तरह परिचित हो चुके हैं। तर्क और न्याय की कसौटी पर अगर कसें तो इनकी 99 प्रतिशत गतिविधियां आज बेजा साबित हो जायेंगी। सिबाय उस पवित्र "वाद' के, जो तब तक प्रासंगिक रहेगा जब तक इस धरती पर एक भी आदमी शोषित और वंचित रहेगा। लेकिन सच यह है कि मार्क्स को छोड़कर आज तक इस वाद का एक भी सच्चा अनुयायी पैदा नहीं हुआ। मैं इस तथ्य को किसी भी बहस में साबित कर सकता हूं। यह अलग बात है कि हजारों सर्वसत्तावादियों ने इस वाद को हथियार बनाकर सत्ता हथियाई। यह लंबी बहस का मुद्दा है और मेरा मानना है कि भारत के तथाकथित माओवादियों के लिए भी वामपंथ का वाद उनकी सत्ताई महत्वाकांक्षा का औजार भर है। इन्हें गरीबों से नहीं गरीबी से मतलब है। अशिक्षितों से नहीं अशिक्षा से मतलब है। क्योंकि अगर गरीबी और अशिक्षा खत्म हो गयी तो इनके हथियार भी खत्म हो जायेंगे।
यह तो इस समस्या का सैद्धांतिक पक्ष है और इसमें आज के माओवादी पड़ते ही नहीं। इसलिए समस्या के व्यवहारिक पक्षों को देखने की जरूरत ज्यादा है। व्यवहारिक सच यह है कि आज का समाज भयानक बाजारवाद और उपभोगवाद की मानसिकता से ग्रस्त हो चुका है। हर कोई येन-केन-प्रकारेण सत्ता, रूतवा, सुविधा और उपभोग के लिए हाथ-पैर मार रहा है। चाहे वह मुख्य धारा के मान्य नेता हो या अतिवाद के समर्थक और इनके कार्यकर्ता, सबका लक्ष्य अपनी लालसा, पिपाश और इंद्रियों की संतुष्टि भर हो चुका है। सामाजिक बदलाव के लिए सोचने वाले इस देश में अब नहीं रहे। अगर कोई होंगे तो मैं उन्हें नहीं जानता। वे इक्के-दुक्के हारे-थके और खुद को मिसफिट महसूस करने वाले लोग होंगे। इसलिए क्रांति की बात इस देश में अब झूठी हो चुकी है। जिस देश में समाज और समुदाय की बेहतरी के लिए सोचने वाले लोगों के टोटे पड़ जाते हैं उस देश में ये सब कुछ होना निश्चित है। इसलिए मैं इस नतीजे पर पहुंचा हूं कि आज इस देश की असल समस्या व्यक्तिवाद, स्वार्थवाद और उपभोक्ता की है। ये ऐसे वाद हैं जो किसी भी जीते-जागते समाज को मुर्दा बना सकता है। शायद हमारा समाज मुर्दों की टोली बनता जा रहा है। बस और कुछ नहीं।
धन्यवाद
रंजीत
अब इस बहस में क्या शामिल हुआ जाए? सभी लोग कानून के रक्षक ही नजर आते हैं। उन गरीबों की बात उठाने वाले, जो दिल्ली की सड़कों के किनारे भगवान की खूबसूरत मूर्तियां तो बनाते हैं, लेकिन पेट भरने के लिए भीख भी मांगनी पड़ती है, उन्हें माओवादी या उनका समर्थक घोषित कर दिया जाता है। इस बहस में तो सभी मान रहे हैं कि नक्सलवादी चीन, पाकिस्तान और जाने कहां-कहां से समर्थन पा रहे हैं... लेकिन कानून के समर्थकों को अपने गृहमंत्री के बयान भी कभी-कभी पढ़ लेने चाहिए जो कहते हैं कि इसमें विदेशी हाथ के कोई सबूत नहीं मिले हैं।
भारत में कानून व व्यस्था कितनी लुन्जपून्ज है। इस का उद्धाहरण हम हर जगह देख सकते है। हमारे देश के करणधार पाकिस्तान, चीन, बंगलादेश से लडने का दम भरते हैं। सीमा की रक्षा करने की हुंकार भरते हैं, ये बात समझ से परे है कि जब हमारे शासन को 8 आतंवादियों से निपटने मे 2 दिन लगे, नक्सलीयों से हमारे सुरक्षा बल कोइ पार नहीं पा रहें हैं। तो किसी पूरे के पूरे देश से कैसे लड सकते हैं। मैं हमारे सुरक्षा बलों को कम नहीं आंकता, कमी तो उन नेताओं की इच्छा शक्ति में है जो हर आतंकवादी घटना को वोट के चश्में से ही देखते हैं और हमारे सुरक्ष बलों का मनोबल तोडते हैं।
दरअसल बहुत से सामाजिक आन्दोलन ऐसे ही अपनी राह खो देते हैं ......... ये आन्दोलन भी अपना मूल उद्देश्य खो कर रानीति की शरण में जा चुका है और इसका इस्तेमाल आज सत्ता हथियाने (साथ से मेरा मतलब शक्ति से है ) के लिए हो रहा है ..... बहुत ही शशक्त और आंदोलित करता लेख है आपका .........
समाचारों में लगभग हर दिन एक न एक खबर किसी न किसी राज्य से नकासल्वादियों के हमले की आती रहती हैं ..कल ही पुलिस थाने पर हुए हमले में १७ पुलिस कर्मियों के मारे जाने की खबर थी.
सच मन बहुत खिन्न होता है ऐसे समाचारों से, जहाँ बेगुनाहों की बलि चढाई जाती है.
नक्सल वाद आतंकवाद का पर्याय बनता जा रहा है.जिम्मेदार कौन है आप ने लिखा ही है..सहमत हूँ.
आपने बहुत सही विवेचन किया हैं. आप खूब लिखिये इस पर कुछ तो चेतना आयेगी.
माफी चाहूँगा, आज आपकी रचना पर कोई कमेन्ट नहीं, सिर्फ एक निवेदन करने आया हूँ. आशा है, हालात को समझेंगे. ब्लागिंग को बचाने के लिए कृपया इस मुहिम में सहयोग दें.
क्या ब्लागिंग को बचाने के लिए कानून का सहारा लेना होगा?
वाद कोई भी हों, वे अपने समर्थकों को रिजिड बना देते हैं जो समय के साथ न बदलना चाहते हैं और न समझना चाहते हैं दूसरे के वाद को. ऐसे ही कारणों से नक्सलवाद भी आंदोलन से आतंक बन गया है.
चिंतनीय पर सटीक..... वाह..
संवेदना-सम्पन्न अभिव्यक्ति के लिए साधुवाद.
एक शेर याद हो आया
" यहां कुछ सिरफिरों ने हादिसों की धुन्ध बाँटी है
नज़र में इसलिए दिलकश कोई मंज़र नहीं आता"
बहुत ही चिंताजनक और जरूरी मुददा है। इसे अब निपटा ही देना चाहिए, वर्ना आगे स्थितियां और भी दुखद होती जाएंगी।
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बढ़ा दो अपनी लौ
कि पकड़ लूँ उसे मैं अपनी लौ से,
इससे पहले कि फकफका कर
बुझ जाए ये रिश्ता
आओ मिल के फ़िर से मना लें दिवाली !
दीपावली की हार्दिक शुभकामना के साथ
ओम आर्य
दीपावली की हार्दिक शुभकामनायें
सरकार और ये आतंकी संगठन दोनों के ही उद्देश्य लोगों को अशिक्षित रख,उन्हें दुनिया और विकास से पूरी तरह काट भली भांति पूरे होते हैं.कौन नहीं जानता कि इनके ही इशारे पर मतदान भी हुआ करते हैं.इन आतंकवादियों से प्रभावित इलाकों में पूर्ण रूपेण इनका ही साम्राज्य चलता है और ये ही फौरी तौर पर राजनेताओं तथा राजनीति की दिशा दशा निर्धारित करते हैं...
katu satya..
yu to hazaroN saal se hai insaN ka vazood!
dhoondho to aaj bhi insaN nahi milta !!
इस सदी में ये भारत कि सबसे बड़ी चुनौती होगी, जब तक हम सुरक्षात्मक उपायों की बात करने लगेंगे तब तक नासूर बढ़ चुका होगा. आपने सरल औरसम्यक प्रश्न उठाये हैं जिनके उत्तर बड़े ही पेचीदा हैं.
बसंत पंचमी की आपको और आपके परिवार को हार्दिक शुभकामनाएं...
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