12.11.09

महत्तम - विवेक !!!

इस संसार में कोई भी शब्द अपने आप में पूर्ण नहीं होता..शब्द को पूर्णता या अर्थ तो उसमे निहित उद्देश्य देते हैं, चाहे सत्य, अहिंसा, स्नेह ,शांति, करुणा, क्षमा आदि जैसे असंख्य सकारात्मक शब्द हों या क्रोध, हिंसा, दंड, घृणा, असत्य आदि आदि असंख्य नकारात्मक शब्द.

एक बार एक वृद्ध साधु अपने युवा शिष्य के साथ कहीं जा रहे थे.जेठ का महीना था और दोपहर का समय. गुरु शिष्य दोनों ही प्यास से विकल हो रहे थे..मार्ग में एक स्थान पर उन्हें एक कुआँ दिखा, जिसमे से एक स्त्री जल भर रही थी.गुरु निकट ही एक वृक्ष की छाँव में बैठ गए और शिष्य से उस स्त्री से जल मांग लाने को कहा. शिष्य उस स्त्री के पास गया और उससे जल की याचना की. स्त्री ने जल से भरी कलसी शिष्य को दे दी और जल पी पिलाकर कलसी वापस ला देने को कहा.शिष्य ने वैसा ही किया. आभार व्यक्त कर कलसी वापस दे, जैसे ही शिष्य वापस आने को मुड़ा, कि उसने स्त्री की चित्कार सुनी. पलटकर उसने देखा, तो देखा कि उस स्त्री का पैर फिसल गया है और वह मुंडेर को पकड़ कुएं में लटकी भयभीत सहायता को गुहार लगा रही है..

शिष्य रक्षा हेतु पलटा तो अवश्य, परन्तु मुंडेर के निकट पहुँच वह सोच में पड़ गया कि उस स्त्री की सहायता करे तो कैसे करे, क्योंकि कठोर ब्रह्मचर्य व्रतधारी वह जीवन भर किसी भी स्त्री का स्पर्श न करने को वचनबद्ध था.. इधर ऊहापोह में पड़ा वह शिष्य जबतक खडा सोचता रहा वह स्त्री कुँए में गिर गयी..वृद्ध गुरूजी ने यह देखा तो झपटकर कुएं के निकट पहुंचे और कुएं में कूद उस स्त्री को बाहर निकाल उन्होंने उसके प्राण बचाए..

स्त्री जब कुछ स्वस्थ हुई तो गुरु जी ने शिष्य की जमकर धुनाई की, कि जिस स्त्री ने उन्हें जल पिलाकर उनके ऊपर इतनी कृपा की, कृतघ्न शिष्य ने अपने प्राण के भय से उसे बचाने का प्रयास नहीं किया...अब निरीह शिष्य पिटते हुए सोच रहा था कि जिस गुरु ने मुझसे आजन्म स्त्री का स्पर्श न करने का वचन लिया था और जो स्वयं भी बाल ब्रह्मचारी थे, उन्होंने न केवल स्वयं स्त्री का स्पर्श किया अपितु उसे स्पर्श न करने पर दण्डित भी किया.
स्त्रीस्पर्श वर्जना तो स्त्री के भोग के लिए थी..शिष्य यदि यह सार ग्रहण कर पाता तो न तो उस स्त्री के जान पर बनती और न किसी के प्राण न बचा पाने तथा कृतघ्नता का दोष उसपर लगता..थोथे अर्थग्रहण ने उसे इतना भ्रमित कर रखा था कि कीडे मकोडे के भी प्राणों की रक्षा करने वाला वह शिष्य परिस्थितिनुकूल अपना करणीय स्थिर न कर पाया.

इसी प्रकार एक बार किसी नगर में नीरव रात्रि बेला में कुछ हत्यारे एक युवक का पीछा करते हुए उसके पीछे दौडे जा रहे थे. वह युवक उन्हें चकमा दे निकटस्थ ही एक घर में जा घुसा जो कि एक शिक्षक का था. शिक्षक कठोर सिद्धांतवादी और सत्यवादी थे. स्वयं भी सत्य बोलते थे और दूसरों को भी इसके लिए प्रेरित करते थे. आतंकित उस युवक ने उन्हें अपनी वस्तुस्थिति बताई और उनसे आग्रह किया कि यदि वे हत्यारे उसे ढूंढते वहां आ जाएँ तो वे उनसे उसके बारे में कुछ न बता उसकी प्राणों की रक्षा करें..इतना कह युवक उनके पलंग के नीचे छुप गया.

हत्यारे जब उस युवक की खोज में उनके घर पहुंचे और उनसे उसके विषय में पूछा, तो कुछ पल को तो शिक्षक महोदय को लगा कि इस समय सत्य बोलने से अधिक आवश्यक शरणागत की रक्षा करना है परन्तु फिर उन्हें लगा कि यही तो परीक्षा का समय है..इस कठिन समय में भी यदि उन्होंने सत्य का साथ नहीं छोडा तभी तो सत्य की विजय होगी और इसके साथ ही उस युवक को भी सत्य बोलने का पाठ वे पढ़ा सकेंगे..सो उन्होंने युवक के बारे में हत्यारों को बता दिया..फिर क्या था अविलम्ब हत्यारों ने उस युवक को बाहर निकाल उसकी हत्या तो की ही, इसे गोपनीय रखने तथा साक्ष्य छुपाने को उन शिक्षक महोदय की भी हत्या कर दी.

जो सत्य के मार्ग पर चलना चाहते हैं उनके सम्मुख ऐसी भ्रम तथा शंशय की स्थिति बहुधा ही जीवन में उपस्थित हो जाया करती है,जिसमे बड़ी ही कुशलता पूर्वक यह निर्णीत करना पड़ता है कि सही गलत करणीय अकरणीय क्या है.. किसी की हत्या करना यदि महापाप है तो हत्यारे की हत्या न्यायसंगत मानी जाती है..वस्तुतः शब्दों के वास्तविक अर्थ उसके प्रयोग पर ही निर्भर करते हैं और सार्थक प्रयोग या सार्थक निर्णय हेतु विवेक को प्रखर करना अति आवश्यक है.. मानवमात्र में नैसर्गिक रूप से विवेक रुपी सामर्थ्य विद्यमान रहती है और चाहे संसार का क्रूरतम अपराधी मनोवृत्ति वाला मनुष्य ही क्यों न हो,अपराध से पूर्व एक बार उसका विवेक उसे सही गलत का भान अवश्य कराता है,भले वह उसकी आवाज को अनसुना कर दे..

परन्तु विवेक रूपी इस प्रहरी, अपरिमित सामर्थ्य को जाग्रत और प्रखर करने के लिए आवश्यक है कि व्यक्ति सकारात्मकता से अधिकाधिक जुड़ा रहे और उसके निर्देशों को सुने और तदनुरूप चले. जो व्यक्ति आत्मा/विवेक के निर्देशों की जितनी अवहेलना करता है, उसका विवेक उतना ही सुप्तावस्था को प्राप्त होता जाता है.विवेक जागृत और प्रखर होने के लिए किसी वैधानिक शिक्षा या विशेष शैक्षणिक योग्यता की आवश्यकता नहीं होती. यह तो जन्म के बाद ही जैसे जैसे व्यक्ति में देखने सुनने समझने की शक्ति का विकास होता जाता है अपने आस पास सामाजिक संरचना में स्थित सही गलत की व्यवस्था को देखकर और आभास कर वह सब सीख जान लेता है.व्यक्ति यदि अपनी परिस्थिति या रूचिवस् गलत अनैतिक कर भी रहा होता है तो उसे इसका भान अवश्य होता है, भले अपने मन को विभिन्न तर्कों द्वारा वह समझा ले और स्वयं को निर्दोषता का प्रमाण पत्र दे दे..

मन मस्तिष्क से जो व्यक्ति जितना स्वस्थ और सबल होगा उसमे उचित अनुचित सोचने समझने की क्षमता उतनी ही अधिक होगी, विवेक उतना ही जागृत प्रखर होगा..अब बात है कि मानसिक स्वास्थ्य का निर्णय हम कैसे करें ??? तो इसके लिए हमें स्वयं से ही ये प्रश्न पूछने होंगे और निर्णय करना होगा कि हम स्वयं को कहाँ देखते हैं..क्योंकि इन्ही प्रश्नों के सार्थक उत्तर हमें बता सकते हैं कि हम सकारात्मकता से कितने जुड़े हैं और फलतः हमारा विवेक कितना परिपुष्ट है ...


१. सत्साहित्य, सात्विक संगीत से हमें कितनी अभिरुचि है और यह हमें कितना आनंदित करती है ?

२. प्रकृति का नैसर्गिक सौन्दर्य हमें कितना आह्लादित करता है ?

३. बिना किसी अपेक्षा के तन मन धन से किसी का हित कर हमें कितना आनंद प्राप्त होता है ?

४. अपने आस पास सबको प्रसन्न देखना कितना सुहाता है ?

५. आध्यात्मिकता से जुड़ना कितना रुचता है ?

६. सात्विक आहार (विशेषकर शाकाहार) और विहार (अनुशाषित दिनचर्या) कितना सुखद लगता है ?

6. अपनी की हुई गलतियाँ कितने समय तक याद रखते हैं और इसके लिए स्वयं को दण्डित करते हैं या नहीं ?

7. दूसरों के किये उपकार को अधिक याद रखते हैं या अपकार को ?

8. रोजमर्रा में कितने निर्णय आवेश ( दुःख, हर्ष, क्रोध, भावुकता इत्यादि ) के अतिरेक में लिया करते हैं ?

9. दूसरों के विचारों को धैर्य पूर्वक सुनने में विश्वास रखते हैं या सुनाने में ?

10. जीवन के लिए धन को कितना महत्वपूर्ण मानते हैं ?

सभी प्रश्नों के लिए दस अंक निर्धारित करें और एक से दस के स्केल में अपनी उत्तर को रेखांकित कर सम्पूर्ण प्रश्नावली के उत्तर में प्राप्तांक जोड़ कर देखें . आपके मानसिक स्वास्थ्य का पैमाना आपके सामने होगा. अधिक पूर्णांक अधिक स्वस्थ मस्तिष्क का परिचायक होगा और न्यूनतम अंक दुर्बलता का और सबसे बड़ी बात ये ही वे सकारात्मक साधन भी हैं जिनसे जुड़ हम अपने अपने सामर्थ्य को बढा सकते हैं..

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40 comments:

शिवम् मिश्रा said...

एक अर्थपूर्ण और उम्दा आलेख के लिए बहुत बहुत आभार !

Kusum Thakur said...

बहुत ही गहरे भाव लिए हुए आलेख हैं । आपको बहुत बहुत बधाई !!!

L.Goswami said...

हमें सिर्फ अध्यात्म समझ नही आता .. .इस हिसाब से अंक बहुत बुरे नही हैं.

Himanshu Pandey said...

सकारात्मक आलेख । बहुत कुछ अर्थपूर्ण और उपयोगी एकट्ठा प्रदान कर दिया आपने । आभार ।

दिगम्बर नासवा said...

aapka lekh bahoot hi sakaaratmak aur jevan ke prati aashavaan rukh apnaane ko prerit karta hai .... kai baar ek hi baat mein virodhabhas hota hai aur alag alag nazariye se dekha ja sakta hai ek hi baat ko ..... jaisa ki pahli katha mein spasht hai ... guri aur shishy dono ne apne apne andaaz se liya hai is baat ko ..... ki brahmchary ka kya matlab hai ....

vyapak drishtikon rakh kar har pehloo ko dekhna hi uchit hai ....

Achha lekh hai aapka ..... bahoot kuch jeevan mein utaarne ko orerit karta huva ....

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' said...

इस संसार में कोई भी शब्द अपने आप में पूर्ण नहीं होता..शब्द को पूर्णता या अर्थ तो उसमे निहित उद्देश्य देते हैं, चाहे सत्य, अहिंसा, स्नेह ,शांति, करुणा, क्षमा आदि जैसे असंख्य सकारात्मक शब्द हों या क्रोध, हिंसा, दंड, घृणा, असत्य आदि आदि असंख्य नकारात्मक शब्द.

सहमत हूँ जी!
सारगर्भित लेख के लिए बधाई!

rashmi ravija said...

बहुत ही अर्थपूर्ण आलेख है...अपने अन्दर झाँक कर देखने को मजबूर करता हुआ...

mark rai said...

very nice article..i fully agree with u...........

चंद्रमौलेश्वर प्रसाद said...

वाह! सच्चाई और मूर्खता का अंतर :) शब्दों को समझने में अंतर.... यही सब तो है विचारों और समझ का फेर॥

इष्ट देव सांकृत्यायन said...

मुश्किल यही है कि हमारी पूरी शिक्षा व्यवस्था हमें विवेक जागरण की नहीं, सिर्फ़ तोता रटंत की सीख दे रही है. इस स्थिति में किसी का विवेक जागृत हो भी तो कैसे?

महावीर said...

एक सारगर्भित और सकारात्मक आलेख है.
इस संसार में कोई भी शब्द अपने आप में पूर्ण नहीं होता..शब्द को पूर्णता या अर्थ तो उसमे निहित उद्देश्य देते हैं, चाहे सत्य, अहिंसा, स्नेह ,शांति, करुणा, क्षमा आदि जैसे असंख्य सकारात्मक शब्द हों या क्रोध, हिंसा, दंड, घृणा, असत्य आदि आदि असंख्य नकारात्मक शब्द.
बिलकुल सही है.
महावीर शर्मा

मनोज कुमार said...

आपकी व्यावहारिक सूझ-बूझ की दाद देनी पड़ेगी, यह रचना आम लोगों के साथ-साथ खास लोगों में भी जगह बना लेगी। सरस, रोचक और एक सांस में पठनीय रचना के लिए बधाई। अंत तक पठनीयता से भरपूर होना ही इसकी सार्थकता है जिसके जरिये व्यक्तित्व निर्माण पर बल दिया गया है।

Pt. D.K. Sharma "Vatsa" said...

शब्दश: सहमत ! इस प्रकार के सकारात्मक आलेख आज के समय में नितांत आवश्यक हैं ।
लकीर के फकीर या 'बाबा वाक्यं प्रमाणम' मान लेने वाले इन्सान का ही विवेक सुषुप्तावस्था को प्राप्त होता है..ओर जहाँ विवेक का अभाव हुआ नहीं कि मनुष्य पशु से भी निष्कृ्ट होकर स्वय़ तथा समाज दोनो के लिए ही भार बनने लगता है....इसलिए विवेक को जागृ्त कर उसकी आवाज को सुनना सीखना हमारा प्राथमिक कर्तव्य होना चाहिए....

Abhishek Ojha said...

एक तोते की तरह रट लेना तो सच में अज्ञान रहने से भी ज्यादा बुरा है. छोटी कहानियों के साथ सारगर्भित बातें मिलीं आपकी इस पोस्ट में.

लता 'हया' said...

dhanyawad;
aapki donon kahaniyan bahut shikshaprad hain.(stri-sparsh aur hatyra)
WAH.

Udan Tashtari said...

सकारात्मक्ता का परिचय देता बेहतरीन आलेख. बधाई.

अनूप शुक्ल said...

सुन्दर पोस्ट! दोनों उदाहरण बहुत अच्छे लगे।

सुशीला पुरी said...

behad sundar........ranjana ji aapka hardik aabhar ....badhai.

के सी said...

अनुकरणीय, प्रेरक आलेख. भाषा प्रवाह सरस है. सोचता हूँ कि प्रश्नावली को डेस्क के आगे टांग लिया जाये.

निर्मला कपिला said...

सार्गर्भित सुन्दर आलेख ।बोधगम्य प्रसंगों से आलेख सरल और सुन्दर बना है बहुत बहुत बधाई

रश्मि प्रभा... said...

काफी महत्वपूर्ण लेख......एक-एक प्रश्न,विचार अर्थपूर्ण......रेखांकित किया है मैंने इसे-
अपनी की हुई गलतियाँ कितने समय तक याद रखते हैं और इसके लिए स्वयं को दण्डित करते हैं या नहीं ?

योगेन्द्र मौदगिल said...

बेहतरीन रचना..... साधुवाद स्वीकारें..

Dr. Ashok Kumar Mishra said...

बेहतरीन रचना
maine apney blog pr ek lekh likha hai- gharelu hinsa-samay mile to padhein aur comment bhi dein-

http://www.ashokvichar.blogspot.com


मेरी कविताओं पर भी आपकी राय अपेक्षित है। यदि संभव हो तो पढ़ें-

http://drashokpriyaranjan.blogspot.com

Deepak Tiruwa said...

Aadmi ko stree deh se 'jugupsa' tabhi hoti hai jab wo swayam 'kunthit'ho...aapke 'brahmchari' patr ne ek baar phir ise siddh kiya hai...ek link de raha hun ...फेमिनिस्ट

Manish Kumar said...

Main yahi sochta hoon aapko itni kathayein kahan se kanthasth rahti hain.
Kathaon aur prshnavli ke madhyam se apne viveksheelta ko aankne ka avsar mila.

शोभना चौरे said...

prernadayak aalekh aapke kuch prshno par sahi utrte hai
parntu is prashn par poore ank chahte hai
अपने आस पास सबको प्रसन्न देखना कितना सुहाता है ?
abhar

गौतम राजऋषि said...

रंजना जी की लेखनी से उपजा एक और सशक्त आलेख।

दोनों कहानियां रोचक और प्रेरणादायक हैं।

इन सवालों के बाबत सोच रहा हूं कि इस भागती-दौड़ती दुनिया में क्या हमसब के पास इतना भी समय है कि इन प्रश्नों को उठाया भी जाये, उत्तर तलाशना तो बहुत दूर की बात है। जहां तक मेरी बात है तो सच कहता हूं कम-से-कम मेरे सामर्थ्य में तो नहीं है ऐसा...

श्रद्धा जैन said...

Din sunder aur man bada shant ho gaya
ek ek bhaav man ko chintan dete hue
shishy saar grahan kar paata to.....

waqayi aapki kalam aur vichaardhara mein jaadu hai

शरद कोकास said...

कहानी का आनंद हमने ले लिया ..परीक्षा देने का अभी मन नही है अगली बार .. ठीक है ना ?

pran sharma said...

AAPKEE LEKHNEE KE AAGE NATMASTAK
HOON MAIN.AAP VIDOOSHEE HAIN.
JAAESEE VISHAD VYAAKHYA AAPNE APNE
LEKH " MAHATTAM:VIVEK MEIN KEE HAI
VAESEE BAHUT KAM PADHNE KO MILTEE
HAI.ISEE TARAH GYAN KEE SUGANDH
BIKHRAATEE RAHIYE .

BrijmohanShrivastava said...

शिक्षाप्रद लेख भी ,द्रष्टांत भी ।पहले द्र्ष्टांत मे _साल भर बाद फ़िर शिष्य ने कहा गुरुजी आपने स्पर्श किया था ,गुरु ने कहा मै तो उस बात को भूल चुका था तेरे मन मे अभी तक स्पर्श बसा हुआ है । दूसरे द्रष्टांत वाबत कहा गया है कि आगे गाय निकल गई हो पीछे कसाई आकर पूछे तो असत्य बोलना उचित है ,और वैसे देखा जाय तो ""नरोवा कुन्जरोवा" पर भी असत्य बोलने का आरोप तो लगा ही था ।आपकी बात नितांत सत्य है कि कही गई बात या अर्थ का स्वविवेक से भी निर्णय लेना उचित रहता है किन्तु ’अस विवेक जब देइ विधाता’। सत्साहित्य और संगीत डिप्रेशन दूर करने मे सहायक है ।सुखी होने और दुखी होने के सैकडो कारण उपलब्ध है प्राक्रतिक सौन्दर्य से आनन्दित होने वाबत ओशो ने भी बहुत बार समझाया है । पूरे दस प्रश्न ही महत्वपूर्ण है ५० से ऊपर भी व्यक्ति नम्बर प्राप्त कर लेता है तो सबसे सुखी व्यक्ति की श्रेंणी मे आ सकताहै

निर्झर'नीर said...

hamesha ki tarah ..
ek or gyanjyoti jali hai aapki kalam se.

bandhaii swikaren

Sulabh Jaiswal "सुलभ" said...

साकारात्मकता की ओर जाता शब्दों का अर्थ निश्चित ही अनुकरणीय है.
विवेक के महत्व को सर्वोपरि बताता आपका ये आलेख कल्याणकारी है.


-सुलभ

डॉ. महफूज़ अली (Dr. Mahfooz Ali) said...

bahut hi gahre bhaav aur sakaaratmak lekh.....

mark rai said...

bahut hi bhaawpurn rachna...........

Alpana Verma said...

Ranjana ji,aap ka likha har lekh hi arthpurn hota hai.
मन मस्तिष्क से जो व्यक्ति जितना स्वस्थ और सबल होगा उसमे उचित अनुचित सोचने समझने की क्षमता उतनी ही अधिक होगी, विवेक उतना ही जागृत प्रखर होगा.
-yah lekh na kewal shikshprd hai balki sakaratmak soch ko bhi pusht kar raha hai
khud mein vivek kitna hai iske liye In 10 prashno ke uttar khud ko de diye hain.

Abhaaar in kimati vicharon ke liye.

पंकज said...

ज्ञानवर्धक आलेख.

Rajeysha said...

दो कहानि‍यों के बाद इन बि‍न्‍दुओं को लि‍खने की कतई आवश्‍यकता नहीं क्‍योंकि‍ उन दोनों कहानि‍यों में यही कहा गया है कि‍ धर्म तो साक्षात उसी समय आपके सामने खड़ा होता है... सोच वि‍चार कर आपके 10 बि‍न्‍दुओं के शत प्रति‍शत सच या झूठ का इंतजार भी नहीं करता।
यही गलती उस शि‍ष्‍य और शि‍क्षक ने की जो आपके 10 बि‍न्‍दुओं के सोच वि‍चार के चक्‍कर में पड़ गया कि‍ कौन सा काम कौन से बि‍न्‍दु अनुसार ठीक होगा या गलत। ....नहीं ?

लावण्यम्` ~ अन्तर्मन्` said...

Yes, there is an emotional intellegence & then there is Native intellegence --
we need both to make the correct decision in life.
Very good posts Ranjana ji

suresh kumar said...

Excellent post Ranjanajee.

Suresh