एक स्त्री हूँ, आज तक उन समस्त विषम परिस्थितियों से गुजरी हूँ जिससे एक आम भारतीय स्त्री को गुजरना पड़ता है.अपने आस पास असंख्य स्त्रियों को भी उन त्रासदियों से गुजरते उनसे जूझते देखा सुना है... परन्तु फिर भी बात जब समग्र रूप में स्त्री पुरुष की होती है तो पता नहीं क्यों लाख चाहकर भी इस विषय को मैं स्त्री पुरुष के हिसाब से नहीं देख पाती..मैं यह नहीं मान पाती कि एक पूरा स्त्री समाज ही पीडिता है और पुरुष समाज प्रताड़क..आज तक के अपने अनुभव में जितनी स्त्रियों को पुरुषों द्वारा प्रताड़ित देखा है उससे कम पुरुषों को स्त्रियों द्वारा प्रताड़ित नहीं देखा,चाहे वे किसी भी जाति धर्म भाषा या आय वर्ग से सम्बद्ध हों.या फिर एक नर में जो नारी की अपेक्षा श्रेष्ठता का दंभ होता है उसे पोषित और परिपुष्ट करते प्रमुख रूप से नारी को ही देखा है.
सृष्टि के प्रारंभ से ही मनाव समाज में अच्छे बुरे लोग रहें हैं और आगे भी रहेंगे...सदियों से समाज में न ही कुल समाज उद्धारक स्त्रियों की कमी रही है और न ही कुलनाशक विपत्ति श्रिजनी स्त्रियों की. एक ओर ऐसी स्त्रियाँ हैं , जो घर परिवार और समाज को अच्छाई और सच्चाई का मार्ग दिखाते हुए स्त्री गरिमा को परिपुष्ट करती हैं..स्त्री जाति को पूज्या और अनुकरणीय बना देती हैं तो दूसरी ओर दुष्टता के उच्चतम प्रतिमान स्थापित करती स्त्रियों की भी कोई कमी नहीं..बल्कि सहज ही देखा जा सकता है,स्त्रियों को जितनी प्रताड़ना एक स्त्री से मिलती है एक पुरुष से नहीं...एक स्त्री दूसरी स्त्री के लिए जितना कठोर हो सकती है,उस स्तर तक पुरुष कभी नहीं हो सकता..भय, इर्ष्या इत्यादि को स्त्रैण गुण यूँ ही नहीं माना गया है.कोई आवश्यक नहीं कि यह परिस्थितिजन्य ही हो..अधिकांशतः तो ये परिकलिप्त ही हुआ करते हैं.मैंने तो यही देखा है कि स्त्रियाँ जाने अनजाने स्वयं ही अपने मानसिक दौर्बल्य की परिपोषक होती हैं..
एक बड़ी साधारण सी घटना है,पर मैं इसे सहज ही विस्मृत नहीं कर पाती..एक बार एक मॉल में वहां के लेडीज टायलेट गयी...दरवाजे से अन्दर गयी तो वहां की स्थिति ने अचंभित कर दिया...करीब सात आठ महिलाएं एक कोने में दुबकी खड़ी थीं,एक बच्ची अपनी पैंटी पकडे खड़ी रोते हुए अपनी माँ से कह रही थी कि अगर जल्द से जल्द उसे टायलेट में न बैठाया गया तो पैंटी में ही उसकी शू शू निकल जायेगी. मामला यह था कि वहां तीन टायलेट में से एक का फ्लश खराब था,सो वह इस्तेमाल के लायक न था और बाकी बचे दो में से एक में कोई गयी थी और बाकी एक जो खाली था , उसमे ऊपर दीवार पर एक छिपकिली और जमीन पर कोने में एक तिलचट्टा अपनी मूंछे हिलाते दुबका हुआ था...बच्ची का डरना और चिल्लाना फिर भी समझा जा सकता था , पर उनकी माताजी तथा अन्य स्त्रियों को भयग्रस्त देख मेरा मन क्षुब्ध हो गया...छिपकिली और तिलचट्टे को भागकर मैंने उस बच्ची को समझाने की कोशिश की कि बेटा ये ऐसे जंतु नहीं कि मनुष्य का कुछ बिगाड़ सके,बल्कि ये तो स्वयं ही मनुष्यों से बहुत ही डरते हैं,इनसे डरना कैसा.....पर मैं आश्वस्त हूँ कि मेरे इस समझाने से किसी के भी सोच में कोई अंतर नहीं पड़ने वाला...पश्चिमी परिधान पहने और पुरुषों के दुर्गुणों को अंगीकार करने को उत्सुक , पुरुषों से बराबरी का दंभ भरने वाली स्त्री पीढी जब इतने निराधार तुच्छ भय को पोषित किये रहेंगी तो हम क्या खाकर इनके उत्थान का दंभ भर पाएंगी...
वस्तुतः स्त्री पुरुष का अबला सबला और प्रताड़क प्रताड़ित वाला यह विषय और द्वन्द स्त्री पुरुष का है ही नहीं. मनुष्य से लेकर पशु जगत तक में एक ही एक सिद्धांत अनंत काल से चलता आ रहा है और सदा चला करेगा..और वह है......" जिसकी लाठी उसकी भैंस "..पर मनुष्यों के मध्य यह "लाठी " शारीरिक बल वाली नहीं बल्कि बौद्धिक क्षमता वाली है..यहाँ बौद्धिक क्षमता से मेरा तात्पर्य विधिवत शिक्षा से उपार्जित बौधिकता से नहीं बल्कि सामान्य सोच समझ से है..स्त्री पुरुष दोनों में से जिसमे भी सूझ बूझ अधिक होगी,अपनी बात मनवाने की कला में भी वह अपेक्षाकृत अधिक कुशल होगा..अपने आस पास ही देखिये न,कई घरों में एक अनपढ़ स्त्री भी माँ बहन पत्नी या बेटी किसी भी रूप में यदि मानसिक रूप से अधिक सबल या समझदार होती है तो घर में उसीका सिक्का चलता है.अपने से कई गुना बली या पढ़े लिखे पर वह अति स्वाभाविक रूप से शासन करती है..यह सर्वसिद्ध है कि स्त्री हो या पुरुष ,व्यक्ति नियोजन में जो जितना कुशल/चतुर होगा, चाहे परिवार में हो या समाज में, अपना स्थान और स्थिति सुदृढ़ करने में वह उतना ही सक्षम होगा. बाकी रही चुनौतियों की बात तो,यदि नारी अपने जीवन में कंटकाकीर्ण पथ पर चलने को बाध्य है तो पुरुषों के जीवन में भी कम चुनौतियां नहीं हैं..
जहाँ तक क्षमताओं की बात करें,निश्चित रूप से प्रकृति/ईश्वर ने स्त्रियों को मानसिक रूप से पुरुषों की तुलना में अधिक सबल और सामर्थ्यवान बनाया है.श्रृष्टि रचना का श्रोत पुरुष अवश्य है परन्तु श्रृष्टि की क्षमता स्त्रियों को ही है..संभवतः इसी कारण ईश्वर ने स्त्रियों को शारीरिक बल में पुरुषों से कुछ पीछे कर दिया,क्योंकि यदि दोनों एक साथ स्त्रियों को ही मिल जाता तो इसकी प्रबल सम्भावना थी कि संसार में पुरुषों की स्थिति अत्यंत दयनीय होती..
हाँ यह अवश्य कहा जा सकता है कि स्त्री की इसी अपरिमित क्षमताओं से भयभीत होकर उसके समग्र विकास की प्रत्येक सम्भावना को बाधित और कुंठित करने का यथासंभव प्रयास पिछले कई शतकों से लेकर पिछले कुछ दशक तक पुरुष समाज द्वारा किया गया, जिसमे उसे स्त्रियों का भी यथेष्ट सहयोग मिला...परन्तु पिछले कुछ दशकों में स्त्री उत्थान की दिशा में जो भी महत प्रयास किये गए ये कम उत्साहजनक नहीं .ये समस्त सकारात्मक प्रयास उसे वस्तु और भोग्या से बाहर निकाल एक मनुष्य समझने और बनाने की ओर हो रहे हैं...वस्तुतः यही वह अनुकूल अवसर है जब स्त्रियाँ अपनी दुर्बलताओं को भली भांति चिन्हित कर उससे बाहर आ सच्चे अर्थों में सबलता प्राप्त करे...उसे यह कदापि नहीं विस्मृत करना चाहिए कि उसके शरीर और सुख दे पाने की क्षमता के कारण ही वर्षों तक पुरुषों द्वारा उसे वस्तु और भोग्या बनाकर रखने का यत्न किया गया. अपने उसी अपरिमित सामर्थ्य अपने शरीर अपने देय क्षमता को उसे सतत जागरूक होकर संरक्षित और मर्यादित रखना है..भोगवादी प्रवृत्ति पुरुषों में भी यदि है तो वह उनका मानसिक दौर्बल्य ही है,उसे यदि स्त्री भी बराबरी का अधिकार मानते हुए अंगीकार करेगी तो फिर तो परिवार समाज और संस्कृति का अस्तित्व ही नहीं बचेगा...
आवश्यकता है कि स्त्री हो या पुरुष अपने चारित्रिक दुर्बलताओं का शमन करना अपना परम लक्ष्य बना ले, अपना नैतिक विकास करे और करुणा ,क्षमा,स्नेह , सद्भावना ,सौहाद्र के भाव का विकाश करे.ह्रदय विशाल होगा और पर पीड़ा से जैसे ही व्यक्ति व्यथित होने लगेगा फिर संसार में कोई प्रताड़क और प्रताड़ित न बचेगा.ईश्वर ने श्रृष्टि के विस्तार के निमित्त ही भिन्न योग्यताओं से युक्त स्त्री और पुरुष की रचना की है. दोनों का योग ही संसार को पूर्ण बनाता है..एक अकेला अपने आप में कुछ भी नहीं.दोनों एक दूसरे के प्रति आदर का भाव रखें इसी में श्रृष्टि का सौंदर्य और संतुलन संरक्षित अक्षुण रहेगा.
मुझे लगता है यदि मैं परिवार समाज में आदर की अपेक्षा करती हूँ, अधिकार और बराबरी की अपेक्षा करती हूँ,तो इसके लिए सबसे पहले मुझे अपने आप को ही स्त्री पुरुष के इन विभेदों से ऊपर उठाना पडेगा,स्वयं को मनुष्य समझना पड़ेगा..तभी किसी और से मैं अपेक्षा कर सकती हूँ कि वह मेरे विषय में इन सबसे ऊपर उठकर सोचे..मुझे स्त्री पुरुष के भेद से न देखे.. और इसके बाद इस स्त्री शरीर के साथ एक स्त्री के प्रकृतिजन्य जो भी स्वाभाविक गुण और कर्तब्य (जैसे कि लज्जा ,शील ,करुणा, कोमलता,ममत्व आदि आदि जैसे स्त्रियोचित गुण और सेवा, आदर सम्मान आदि जैसे कर्तब्य) हैं, उनके प्रति सतत सजग रहूँ...मुझे लगता है संस्कार संस्कृति जो कि एक समाज को सुसंगठित रखती है,उसके रक्षा का प्रथम दायित्व स्त्री का ही है,क्योंकि इनका संरक्षण शारीरिक बल से नहीं बल्कि मानसिक बल से ही संभव है और यह मनोबल संपन्न स्त्री ही कर सकती है.स्त्री यदि एक नया शरीर उत्पन्न कर सकती है तो श्रृष्टि का संरक्षण भी कर सकती है...
एक स्त्री होकर यदि हम सचमुच स्त्री उत्थान का सोचती हैं तो सबसे पहले तो अपने जीवन में जितना हो सके अपने आस पास स्त्रियों को शिक्षित करें, स्वयं किसी स्त्री को मानसिक प्रताड़ना न दें और दूसरों को भी इसके लिए प्रोत्साहित करें.अपने आचरण में दृढ़ता लायें,स्वयं को दोषमुक्त करें तो नारी उत्थान के मार्ग को कोई अवरुद्ध न कर पायेगा....
सृष्टि के प्रारंभ से ही मनाव समाज में अच्छे बुरे लोग रहें हैं और आगे भी रहेंगे...सदियों से समाज में न ही कुल समाज उद्धारक स्त्रियों की कमी रही है और न ही कुलनाशक विपत्ति श्रिजनी स्त्रियों की. एक ओर ऐसी स्त्रियाँ हैं , जो घर परिवार और समाज को अच्छाई और सच्चाई का मार्ग दिखाते हुए स्त्री गरिमा को परिपुष्ट करती हैं..स्त्री जाति को पूज्या और अनुकरणीय बना देती हैं तो दूसरी ओर दुष्टता के उच्चतम प्रतिमान स्थापित करती स्त्रियों की भी कोई कमी नहीं..बल्कि सहज ही देखा जा सकता है,स्त्रियों को जितनी प्रताड़ना एक स्त्री से मिलती है एक पुरुष से नहीं...एक स्त्री दूसरी स्त्री के लिए जितना कठोर हो सकती है,उस स्तर तक पुरुष कभी नहीं हो सकता..भय, इर्ष्या इत्यादि को स्त्रैण गुण यूँ ही नहीं माना गया है.कोई आवश्यक नहीं कि यह परिस्थितिजन्य ही हो..अधिकांशतः तो ये परिकलिप्त ही हुआ करते हैं.मैंने तो यही देखा है कि स्त्रियाँ जाने अनजाने स्वयं ही अपने मानसिक दौर्बल्य की परिपोषक होती हैं..
एक बड़ी साधारण सी घटना है,पर मैं इसे सहज ही विस्मृत नहीं कर पाती..एक बार एक मॉल में वहां के लेडीज टायलेट गयी...दरवाजे से अन्दर गयी तो वहां की स्थिति ने अचंभित कर दिया...करीब सात आठ महिलाएं एक कोने में दुबकी खड़ी थीं,एक बच्ची अपनी पैंटी पकडे खड़ी रोते हुए अपनी माँ से कह रही थी कि अगर जल्द से जल्द उसे टायलेट में न बैठाया गया तो पैंटी में ही उसकी शू शू निकल जायेगी. मामला यह था कि वहां तीन टायलेट में से एक का फ्लश खराब था,सो वह इस्तेमाल के लायक न था और बाकी बचे दो में से एक में कोई गयी थी और बाकी एक जो खाली था , उसमे ऊपर दीवार पर एक छिपकिली और जमीन पर कोने में एक तिलचट्टा अपनी मूंछे हिलाते दुबका हुआ था...बच्ची का डरना और चिल्लाना फिर भी समझा जा सकता था , पर उनकी माताजी तथा अन्य स्त्रियों को भयग्रस्त देख मेरा मन क्षुब्ध हो गया...छिपकिली और तिलचट्टे को भागकर मैंने उस बच्ची को समझाने की कोशिश की कि बेटा ये ऐसे जंतु नहीं कि मनुष्य का कुछ बिगाड़ सके,बल्कि ये तो स्वयं ही मनुष्यों से बहुत ही डरते हैं,इनसे डरना कैसा.....पर मैं आश्वस्त हूँ कि मेरे इस समझाने से किसी के भी सोच में कोई अंतर नहीं पड़ने वाला...पश्चिमी परिधान पहने और पुरुषों के दुर्गुणों को अंगीकार करने को उत्सुक , पुरुषों से बराबरी का दंभ भरने वाली स्त्री पीढी जब इतने निराधार तुच्छ भय को पोषित किये रहेंगी तो हम क्या खाकर इनके उत्थान का दंभ भर पाएंगी...
वस्तुतः स्त्री पुरुष का अबला सबला और प्रताड़क प्रताड़ित वाला यह विषय और द्वन्द स्त्री पुरुष का है ही नहीं. मनुष्य से लेकर पशु जगत तक में एक ही एक सिद्धांत अनंत काल से चलता आ रहा है और सदा चला करेगा..और वह है......" जिसकी लाठी उसकी भैंस "..पर मनुष्यों के मध्य यह "लाठी " शारीरिक बल वाली नहीं बल्कि बौद्धिक क्षमता वाली है..यहाँ बौद्धिक क्षमता से मेरा तात्पर्य विधिवत शिक्षा से उपार्जित बौधिकता से नहीं बल्कि सामान्य सोच समझ से है..स्त्री पुरुष दोनों में से जिसमे भी सूझ बूझ अधिक होगी,अपनी बात मनवाने की कला में भी वह अपेक्षाकृत अधिक कुशल होगा..अपने आस पास ही देखिये न,कई घरों में एक अनपढ़ स्त्री भी माँ बहन पत्नी या बेटी किसी भी रूप में यदि मानसिक रूप से अधिक सबल या समझदार होती है तो घर में उसीका सिक्का चलता है.अपने से कई गुना बली या पढ़े लिखे पर वह अति स्वाभाविक रूप से शासन करती है..यह सर्वसिद्ध है कि स्त्री हो या पुरुष ,व्यक्ति नियोजन में जो जितना कुशल/चतुर होगा, चाहे परिवार में हो या समाज में, अपना स्थान और स्थिति सुदृढ़ करने में वह उतना ही सक्षम होगा. बाकी रही चुनौतियों की बात तो,यदि नारी अपने जीवन में कंटकाकीर्ण पथ पर चलने को बाध्य है तो पुरुषों के जीवन में भी कम चुनौतियां नहीं हैं..
जहाँ तक क्षमताओं की बात करें,निश्चित रूप से प्रकृति/ईश्वर ने स्त्रियों को मानसिक रूप से पुरुषों की तुलना में अधिक सबल और सामर्थ्यवान बनाया है.श्रृष्टि रचना का श्रोत पुरुष अवश्य है परन्तु श्रृष्टि की क्षमता स्त्रियों को ही है..संभवतः इसी कारण ईश्वर ने स्त्रियों को शारीरिक बल में पुरुषों से कुछ पीछे कर दिया,क्योंकि यदि दोनों एक साथ स्त्रियों को ही मिल जाता तो इसकी प्रबल सम्भावना थी कि संसार में पुरुषों की स्थिति अत्यंत दयनीय होती..
हाँ यह अवश्य कहा जा सकता है कि स्त्री की इसी अपरिमित क्षमताओं से भयभीत होकर उसके समग्र विकास की प्रत्येक सम्भावना को बाधित और कुंठित करने का यथासंभव प्रयास पिछले कई शतकों से लेकर पिछले कुछ दशक तक पुरुष समाज द्वारा किया गया, जिसमे उसे स्त्रियों का भी यथेष्ट सहयोग मिला...परन्तु पिछले कुछ दशकों में स्त्री उत्थान की दिशा में जो भी महत प्रयास किये गए ये कम उत्साहजनक नहीं .ये समस्त सकारात्मक प्रयास उसे वस्तु और भोग्या से बाहर निकाल एक मनुष्य समझने और बनाने की ओर हो रहे हैं...वस्तुतः यही वह अनुकूल अवसर है जब स्त्रियाँ अपनी दुर्बलताओं को भली भांति चिन्हित कर उससे बाहर आ सच्चे अर्थों में सबलता प्राप्त करे...उसे यह कदापि नहीं विस्मृत करना चाहिए कि उसके शरीर और सुख दे पाने की क्षमता के कारण ही वर्षों तक पुरुषों द्वारा उसे वस्तु और भोग्या बनाकर रखने का यत्न किया गया. अपने उसी अपरिमित सामर्थ्य अपने शरीर अपने देय क्षमता को उसे सतत जागरूक होकर संरक्षित और मर्यादित रखना है..भोगवादी प्रवृत्ति पुरुषों में भी यदि है तो वह उनका मानसिक दौर्बल्य ही है,उसे यदि स्त्री भी बराबरी का अधिकार मानते हुए अंगीकार करेगी तो फिर तो परिवार समाज और संस्कृति का अस्तित्व ही नहीं बचेगा...
आवश्यकता है कि स्त्री हो या पुरुष अपने चारित्रिक दुर्बलताओं का शमन करना अपना परम लक्ष्य बना ले, अपना नैतिक विकास करे और करुणा ,क्षमा,स्नेह , सद्भावना ,सौहाद्र के भाव का विकाश करे.ह्रदय विशाल होगा और पर पीड़ा से जैसे ही व्यक्ति व्यथित होने लगेगा फिर संसार में कोई प्रताड़क और प्रताड़ित न बचेगा.ईश्वर ने श्रृष्टि के विस्तार के निमित्त ही भिन्न योग्यताओं से युक्त स्त्री और पुरुष की रचना की है. दोनों का योग ही संसार को पूर्ण बनाता है..एक अकेला अपने आप में कुछ भी नहीं.दोनों एक दूसरे के प्रति आदर का भाव रखें इसी में श्रृष्टि का सौंदर्य और संतुलन संरक्षित अक्षुण रहेगा.
मुझे लगता है यदि मैं परिवार समाज में आदर की अपेक्षा करती हूँ, अधिकार और बराबरी की अपेक्षा करती हूँ,तो इसके लिए सबसे पहले मुझे अपने आप को ही स्त्री पुरुष के इन विभेदों से ऊपर उठाना पडेगा,स्वयं को मनुष्य समझना पड़ेगा..तभी किसी और से मैं अपेक्षा कर सकती हूँ कि वह मेरे विषय में इन सबसे ऊपर उठकर सोचे..मुझे स्त्री पुरुष के भेद से न देखे.. और इसके बाद इस स्त्री शरीर के साथ एक स्त्री के प्रकृतिजन्य जो भी स्वाभाविक गुण और कर्तब्य (जैसे कि लज्जा ,शील ,करुणा, कोमलता,ममत्व आदि आदि जैसे स्त्रियोचित गुण और सेवा, आदर सम्मान आदि जैसे कर्तब्य) हैं, उनके प्रति सतत सजग रहूँ...मुझे लगता है संस्कार संस्कृति जो कि एक समाज को सुसंगठित रखती है,उसके रक्षा का प्रथम दायित्व स्त्री का ही है,क्योंकि इनका संरक्षण शारीरिक बल से नहीं बल्कि मानसिक बल से ही संभव है और यह मनोबल संपन्न स्त्री ही कर सकती है.स्त्री यदि एक नया शरीर उत्पन्न कर सकती है तो श्रृष्टि का संरक्षण भी कर सकती है...
एक स्त्री होकर यदि हम सचमुच स्त्री उत्थान का सोचती हैं तो सबसे पहले तो अपने जीवन में जितना हो सके अपने आस पास स्त्रियों को शिक्षित करें, स्वयं किसी स्त्री को मानसिक प्रताड़ना न दें और दूसरों को भी इसके लिए प्रोत्साहित करें.अपने आचरण में दृढ़ता लायें,स्वयं को दोषमुक्त करें तो नारी उत्थान के मार्ग को कोई अवरुद्ध न कर पायेगा....
45 comments:
GOOD ARTICLE I APPRECIATE THE FOLLOWING LINES
एक स्त्री होकर यदि हम सचमुच स्त्री उत्थान का सोचती हैं तो सबसे पहले तो अपने जीवन में जितना हो सके अपने आस पास स्त्रियों को शिक्षित करें, स्वयं किसी स्त्री को मानसिक प्रताड़ना न दें और दूसरों को भी इसके लिए प्रोत्साहित करें.अपने आचरण में दृढ़ता लायें,स्वयं को दोषमुक्त करें तो नारी उत्थान के मार्ग को कोई अवरुद्ध न कर पायेगा....
AND
मुझे लगता है यदि मैं परिवार समाज में आदर की अपेक्षा करती हूँ, अधिकार और बराबरी की अपेक्षा करती हूँ,तो इसके लिए सबसे पहले मुझे अपने आप को ही स्त्री पुरुष के इन विभेदों से ऊपर उठाना पडेगा,स्वयं को मनुष्य समझना पड़ेगा..तभी किसी और से मैं अपेक्षा कर सकती हूँ कि वह मेरे विषय में इन सबसे ऊपर उठकर सोचे..मुझे स्त्री पुरुष के भेद से न देखे.
I WOULD SAY BRAVO WELL DOCUMENTED
यह एक बहुत अच्छा लेख है. बहुत ही अच्छा
बहुत सुंदर लिखा आपने .. सचमुच स्त्रियों में अपरिमित शक्ति है .. पर समाज में एक स्त्री को आगे बढने में एक स्त्री ही बाधक बनती है .. स्त्रियों के शोषण के बहुत मामलों में स्त्रियां ही बाधक बनती है .. इसलिए रचना जी की तरह ही आपकी ये पंक्तियों मुझे भी बहुत अच्छी लगी ...
एक स्त्री होकर यदि हम सचमुच स्त्री उत्थान का सोचती हैं तो सबसे पहले तो अपने जीवन में जितना हो सके अपने आस पास स्त्रियों को शिक्षित करें, स्वयं किसी स्त्री को मानसिक प्रताड़ना न दें और दूसरों को भी इसके लिए प्रोत्साहित करें.अपने आचरण में दृढ़ता लायें,स्वयं को दोषमुक्त करें तो नारी उत्थान के मार्ग को कोई अवरुद्ध न कर पायेगा....
बहुत सही लिखा है आपने ...आगे बढ़ने के लिए अपने अन्दर ही वह बात जगानी होगी साथ साथ सबको ले कर चलना होगा ..इस में वक़्त अभी भी लगेगा पर कोशिश जारी रहे ...
बहुत अच्छा आलेख है। समाज संरचना बहुत जटिल है स्त्री को अधीन बनाए रखने के लिए इस ने बहुत खूबसूरत जाल बुना हुआ है। स्त्रियों को सब से पहले अपनी कमजोरियों से मुक्त होना होगा।
sahi kaha aapane anjan bhay nazakat ko naritva ka prateekman kar pala posa jata hai.ye prakriya bachapan se hi shuru ho jaati hai.hum itana to kar hi sakate hai ki apani bachchiyon ko is odhi hui stritmakta se bacha kar use sudradh banaye.
आपकी बातों का सारांश है कि महिला को सशक्त बनना होगा और जो महिलाऍं सशक्त हैं उन्हें दूसरों को ऊपर उठाने की कोशिश करनी चाहिए ।
`पुरुषों से बराबरी का दंभ भरने वाली स्त्री पीढी जब इतने निराधार तुच्छ भय को पोषित किये रहेंगी तो हम क्या खाकर इनके उत्थान का दंभ भर पाएंगी...
यह स्त्री या पुरुष की बात नहीं है क्योंकि आपको ऐसे पुरुष भी मिल जाएंगे जो छिपकली या झिंगुर को देख कर चीख पडे और ऐसी स्त्री जो झाडू लेकर छिपकली को ऐसे मारेगी जैसे वो अपने पति को मार रही हो :)
सौ प्रतिशत सही विचार
बहुत ही विचारोत्तोजक लेख है....स्त्री-पुरुष की भूमिकाओं को रेखांकित करता हुआ...सही कहा,आपने..अपने अन्दर की स्त्री को जगाना होगा,अपनी सारी कमजोरियों से मुक्त होना होगा...और शिक्षा के प्रसार में एकजुट होकर काम करना होगा...तभी नारी का उत्थान संभव है...वरना बाकी सब खोखली बातें ही रह जाएँगी
स्वाभाविक गुण और कर्तब्य (जैसे कि लज्जा ,शील ,करुणा, कोमलता,ममत्व आदि आदि जैसे स्त्रियोचित गुण और सेवा, आदर सम्मान आदि जैसे कर्तब्य) हैं, उनके प्रति सतत सजग रहूँ...मुझे लगता है संस्कार संस्कृति जो कि एक समाज को सुसंगठित रखती है,उसके रक्षा का प्रथम दायित्व स्त्री का ही है,
hamesha ki tarah ..aapke lekh ke bare mein kuch likhan suraj ko diya dikhana hi hota hai.
आपका विचार और सलाह दोनो ही उचित हैं ........... पर देखने में यही आता है की स्त्री ही स्त्री की सबसे बड़ी दुशमन बनी नज़र आती है .......... अधिकतर घरों में स्त्री को प्रताड़ित करने वाली स्त्री ही होगी ...... सबसे पहले स्त्रियों में इक दूजी स्त्री के प्रति सम्मान का भाव आना बहुत ज़रूरी है तभी ये स्वालंबन आ पाएगा ...........स्त्री और पुरुष को भी प्रतिस्पर्धा के बजाए एक दूसरे का पूरक बनना पढ़ेगा ........
इस पूरे आलेख से शब्द- ब -शब्द शत प्रतिशत सहमत ...!!
इस आलेख की तारीफ करना वास्तव में सूरज को दीया दिखाना ही होगा...
यही सच है ....इसे मानना ही पड़ेगा...
रंजना...तुमने बस मन मोह लिया..
और जीवनाधार देख कर तो मन बहुत खुश हो गया ......
खुश रहो....
असहमति का कोई बिन्दु ही नहीं है। पूरा लेख बहुत सुलझा हुआ है। संग्रहणीय।
ये तो एक परम सत्य है कि स्त्री और पुरूष एक दूसरे के पूरक हैं । पुरूष के बिना स्त्री और स्त्री के बिना पुरूष का सामाजिक ही नहीं मानसिक तथा आध्यात्मिक जीवन भी अधूरा है । इसलिए जब तक इन दोनों के सामाजिक अधिकारों में जब तक सामंजस्य नहीं होगा, सामाजिक विधानों के भीतर दोनों के सम्मान की रक्षा की व्यवस्था नहीं रहेगी...तब तक दोनों में से किसी का भी जीवन सुखमय नहीं बन सकता । लेकिन प्रश्न आखिर ये है कि वर्तमान नारी-समस्या और समाज की हीनावस्था के लिए दोषी कौन है? यदि पक्षपाती न होकर सत्य का आश्रय लिया जाए तो कोई भी देख सकता है कि इसके लिए दोनों पक्ष समान रूप से दोषी हैं । दोष जितना पुरूष का है, उतना ही स्त्री का भी है... ओर दूसरी बात ये कि समस्या को पुरूष की नकल करके या अपने अधिकारों की माँग के नाम पर पारिवारिक जीवन को छिन्न-भिन्न करके नहीं सुलझाया जा सकता....समस्या को सुलझाया जा सकता है तो सिर्फ अपने अपने कर्तव्यों के भली भान्ती निर्वहण से ही....
नारी मुक्ति का ये प्रपन्च.."सशक्तिकरण"
पश्चिमी परिधान पहने और पुरुषों के दुर्गुणों को अंगीकार करने को उत्सुक , पुरुषों से बराबरी का दंभ भरने वाली स्त्री पीढी जब इतने निराधार तुच्छ भय को पोषित किये रहेंगी तो हम क्या खाकर इनके उत्थान का दंभ भर पाएंगी..
बहुत ही सार्गर्भित बात कही रंजना जी बहुत मेहनत की है इस आलेख पर । एल संतुलनात्मक ,रोचक सोच लो इंगित करता आलेख बधाई
आपकी चिंतन शक्ति से निकले आपके विचार बेहद तार्किक और संतुलित होते हैं। ये लेख भी उसी का बेहतरीन नमूना है।
पूरी तरह संतुलित और सटीक विश्लेषण करता लेख. भय तो स्त्री-पुरुष दोनों में होता है...मैंने तो पानी से डरनेवाले भी देखे हैं.
शिक्षा और संस्कार दोनों की महती भूमिका है. स्वतंत्रता के ६२ साल बाद आज भी ट्रेन के शौचालय का ठीक तरीके से उपयोग न कर पानेवाले स्त्री-पुरुष दोनों इसी भय के शिकार हैं. मॉल निकासी के छिद्र से खुद के गिरने का काल्पनिक भय ही उन्हें अन्यत्र गन्दगी करने को विवश करता है.
इस भय का निराकरण शिक्षा और अभ्यास ही है. अच्छे लेख हेतु साधुवाद.
आपका यह लेख पढ़ कर दिमाग में विचारों का मंथन होने लगा..... आपने इस जागरूक करने वाली पोस्ट को इतनी खूबसूरती से लिखा है कि इसकी तारीफ़ में शब्द भी कम पड़ रहे हैं..... एक पूरी रवानगी में इसको पढ़ता ही चला गया.....( सबसे पहले तो अपने जीवन में जितना हो सके अपने आस पास स्त्रियों को शिक्षित करें.) यह बात मुझे सबसे अच्छी लगी.... इतनी अच्छी पोस्ट लिखने के लिए बहुत बहुत बधाई...
आपका यह लेख पढ़ कर दिमाग में विचारों का मंथन होने लगा..... आपने इस जागरूक करने वाली पोस्ट को इतनी खूबसूरती से लिखा है कि इसकी तारीफ़ में शब्द भी कम पड़ रहे हैं..... एक पूरी रवानगी में इसको पढ़ता ही चला गया..... (सबसे पहले तो अपने जीवन में जितना हो सके अपने आस पास स्त्रियों को शिक्षित करें.) यह बात मुझे सबसे अच्छी लगी.... इतनी अच्छी पोस्ट लिखने के लिए बहुत बहुत बधाई...
पूरा समाज स्त्री पीडक नही होता है यह आपका नजरिया सही है । दूसरे पद मे वर्णित दौनो प्रकार की महिलाये समाज मे मौजूद थीं और हैं और दूसरे प्रकार की के लिये कहा गया होगा ’अवगुण आठ सदा उर रहहीं ’परन्तु यह लाइन ही विवादास्पद बन गई ।तीसरे पद मे भय वाली बात , अब या तो यह कहलो कि यह जन्मतात या स्वाभाविक है या उन्हे निडर वातावरण उपल्ब्ध नही हुआ।बौद्धिक क्षमता वाली बात बिल्कुल सत्य है राज सिंहासन पर भी आसीन हुई है और राजनैतिक और धार्मिक मंच पर भी वर्चस्व रहा है ।नितान्त सत्य बुद्धि महिला मे ताकत पुरुष मे ज्यादा होती है ।छ्ट्वें पद से थोडी असहमति है क्षमताओ को बाधित और कुंठित करने का कोई सामूहिक या सोची समझी रणनीति के तहत प्रयास नही किया गया है ,हो सकता है अशिक्षा की वजह या आवश्यक न समझे जाने के कारण पिछडा पन रहा हो । देर आयद दुरुस्त आयद की तरह अब पूर्ती होने लगी है । उन्हे जागरूक बनाया जाना चाहिये किन्तु ऐसे नही समझाया जाना चाहिये कि पुरुष समाज ने पूर्व मे आपके साथ बहुत अन्याय किया है इस कारण इस समाज को नीचा दिखाना है ,साहित्यिक पत्रिकाओं मे आजकल ऐसे लेखो की भरमार ,ऐसी कहानियों की अधिकता देखी जा सकती है
कोई टिपपणी नही करून्गा
सिर्फ़ यही कहूगा कि इस बिषय पर इससे बेहतर पोस्ट कभी नही पढी.
नमन
shukria.
aapke lekh aur unmein jo ghatnayen aap prastut karti hain wo kamal ki hoti hain.
आपके लेखन के बारे में नया कहने को कुछ भी नहीं. पहली पोस्ट से आजतक जो कहते आये हैं, वही इस पोस्ट के लिए भी. विचारों को शब्द दे देना कोई आपसे से सीखे.
Nice Post!! Nice Blog!!! Keep Blogging....
Plz follow my blog!!!
www.onlinekhaskhas.blogspot.com
आप के लेख से पूरी तरह सहमत हूँ.आप ने जिस तरह से दोनो पक्षों को समझा है वहप्रशंसनीय है.
स्त्री में मनोबलबढ़ानेकी आवश्यकता प्रथम है.
और दूसरे जो बात महत्वपूर्ण है वह यह की हम सब एक दूसरे को मनुष्य पहले समझे बाद में स्त्री या पुरुष .
जिस घटना का उल्लेख किया है वह भी यही समझाती है की पहले स्त्री को मनोबल को मजबूत करना होगा उसी के बाद वह खुद की स्थिति सुधार सकती हैं.
***[आप की तबीयत अब कैसी है?अपनी सेहत का पूरा ख्याल रखीये, जल्द स्वस्थ हो जाएँ मेरी शुभकामनाएँ हैं]
नारी उत्थान या नारी पे इतना बेबाक, सुन्दर सत्य, प्रेरणादायी आलेख .... | मन्त्रमुग्ध हूँ, भाषा शैली, भाव और प्रेरणा से |
आधुनिक काल मैं नारी उत्थान के ज्यादातर प्रयास नारियों का पुरुषीकरण का ही प्रयास लगता है | आपने नारी के समग्र विकाश की बात की है, जो की नारी के वास्तविक उत्थान का मार्ग है |
संतुलित और सटीक. बिन सोचे हल्ला करने वालो को आपकी पोस्ट फॉरवर्ड करनी चाहिए.
आपको हमेशा आराम से, निश्चिंत होकर पढ़ता हूँ।
सोचता हूँ, काश कि इस सश्क्त आलेख पर समय रहते अर्चना वर्मा जी की नजर पड़ गयी होती...
आपसे मैंने पहले भी आग्रह किया था कि अपनी लेखनी की पहुंच बढ़ायें। महज ब्लौग तक ही सीमित न रखें। वर्ना स्त्री-विमर्श के नाम पर परोसे जाने वाले तमाम ऊल-जलूल से तो उबकाई होने लगी है आजकल के प्रिंट-मिडिया से।
तुस्सी ग्रेट हो बहिन!
भेदों से उठे बिना मनोवैज्ञानिक विकास असंभव है।
Bahut sundar bhavon se saja aapka aalekh bahut achha laga. Such mein yadi hum apne aas paas ki striyon ko hi kisi bhi tarah se sahayata karte hain to bahut door na bhagkar nari uthan ka marg prasast ho sakta hai... bus nirantar prayas ki jaruti hai ...
Shubhkamna
@ स्त्री जाति को पूज्या और अनुकरणीय बना देती हैं तो दूसरी ओर दुष्टता के उच्चतम प्रतिमान स्थापित करती स्त्रियों की भी कोई कमी नहीं..
सही कह रहीं हैं आप ....कुछ तो ब्लॉग जगत में ही विद्दमान हैं.......!
@ एक स्त्री दूसरी स्त्री के लिए जितना कठोर हो सकती है,उस स्तर तक पुरुष कभी नहीं हो सकता....
इस बात को मैं नहीं मानूंगी ........
यह सर्वसिद्ध है कि स्त्री हो या पुरुष ,व्यक्ति नियोजन में जो जितना कुशल/चतुर होगा, चाहे परिवार में हो या समाज में, अपना स्थान और स्थिति सुदृढ़ करने में वह उतना ही सक्षम होगा. ...
यही तो गलत मानसिकता है.....पति पत्नी दोनों एक दुसरे के पूरक हैं .....अगर एक कमजोर है तो दुसरे को अपना स्थान सुदृढ़ करने के बजाये दुसरे को भी सम्मान जनक स्थिति तक लाने का प्रयास करना चाहिए ....न की अपना पौरुषत्व दिखा उसे और कमजोर बना देना चाहिए ....!!
@ आवश्यकता है कि स्त्री हो या पुरुष अपने चारित्रिक दुर्बलताओं का शमन करना अपना परम लक्ष्य बना ले, अपना नैतिक विकास करे और करुणा ,क्षमा,स्नेह , सद्भावना ,सौहाद्र के भाव का विकाश करे.ह्रदय विशाल होगा और पर पीड़ा से जैसे ही व्यक्ति व्यथित होने लगेगा फिर संसार में कोई प्रताड़क और प्रताड़ित न बचेगा.....
बिलकुल सही कहा आपने ....जहां करुणा ,क्षमा या स्नेह नहीं वो घर नरक समान है वहाँ लक्ष्मी का निवास कभी नहीं होता .....आभार इस सुंदर लेख के लिए .......!!
Aapke lekhan ko padhnaa bahut achchha lagtaa hai.Aapka yah lekh
bhee aapke anya lekhon kee tarah
sargarbhit saamagree samete hue hai..Badhaaee aur shub kamna .
बेहद सार्थक आलेख |
shubhkamnaye
Bada hi damdaar lekh Badhai!!!
आपके इस संतुलित आलेख को पढ़कर निःशब्द हूँ और आपकी इस रचना के सम्मान में अपनी एक कविता बतौर टिप्पणी भेज रहा हूँ जो मुझे लगता है कि आपके आलेख का ही काव्यात्मक रूप है-
नारी
रूप तेरे हजार, तू सृजन का आधार।
माँ की ममता है तुझमें, बहन का भी प्यार।।
बन के शक्ति - स्वरूपा, किया है जो काम।
फिर भी अबला जगत ने, दिया तुझको नाम।
तेरी करूणा अपार, तू है सबला साकार।
चेतना भी हृदय की, हो प्रियतम - श्रृंगार।।
रूप तेरे हजार, तू सृजन का आधार।
माँ की ममता है तुझमें, बहन का भी प्यार।।
कभी नाजों पली, बेवजह भी जली।
तू कदम से कदम तो, मिलाकर चली।
रूक कर तू विचार, न हो जीवन बाजार।
चंद सिक्कों की खातिर, न तन को उघार।।
रूप तेरे हजार, तू सृजन का आधार।
माँ की ममता है तुझमें, बहन का भी प्यार।।
त्याग-शांति की मूरत हो, धीरज की खान।
करे सम्मान नारी का, वो है महान।
नित कर तू सुधार, नहीं बनो लाचार।
बढे बगिया की खुशबू, सुमन का निखार।।
रूप तेरे हजार, तू सृजन का आधार।
माँ की ममता है तुझमें, बहन का भी प्यार।।
सादर
श्यामल सुमन
09955373288
www.manoramsuman.blogspot.com
बहुत सार्थक लेख है...स्त्रियों को स्वयं ही अपनी दुर्बलताओं पर नियंत्रण पाना होगा .
विचारोतेजक लेख है......बधाई
नारी उत्थान का विषय तो बहुत अच्छा है किन्तु इसके गहन अन्वेषण के बाद मैं इस नतीजे पर पहुंची हूँ कि हमें अपने लड़कों को भी उसी तरह संस्कारित करना पडेगा जैसे लड़कियों को करते हैं ,सिर्फ ५ साल तक माताएं अगर ये काम कर डालें तो दिखियेगा कि नारी उत्पीडन का ग्राफ कितना गिरा है
एक स्त्री होकर यदि हम सचमुच स्त्री उत्थान का सोचती हैं तो सबसे पहले तो अपने जीवन में जितना हो सके अपने आस पास स्त्रियों को शिक्षित करें, स्वयं किसी स्त्री को मानसिक प्रताड़ना न दें और दूसरों को भी इसके लिए प्रोत्साहित करें.अपने आचरण में दृढ़ता लायें,स्वयं को दोषमुक्त करें तो नारी उत्थान के मार्ग को कोई अवरुद्ध न कर पायेगा.... Bahut sargarbhit bat kahi apne, ise apnane ki jarurat hai.
एक सुलझी हुई सोच है यह आलेख।बहुत बढि़या।
एक स्त्री होकर यदि हम सचमुच स्त्री उत्थान का सोचती हैं तो सबसे पहले तो अपने जीवन में जितना हो सके अपने आस पास स्त्रियों को शिक्षित करें, स्वयं किसी स्त्री को मानसिक प्रताड़ना न दें और दूसरों को भी इसके लिए प्रोत्साहित करें.अपने आचरण में दृढ़ता लायें,स्वयं को दोषमुक्त करें तो नारी उत्थान के मार्ग को कोई अवरुद्ध न कर पायेगा....
सही बात है. किसी भी समस्या का हल ढूँढने के बजाय कई बार हम उसे धर्म, जाति या लिंग-भेद में बांटने लग जाते हैं. इससे मूल समस्या वहीं की वहीं रह जाती है, साथ ही एक नई विभाजनकारी समस्या और खडी हो जाती है.
बहुत बढिया, सार्थक लेखन.
kya baat hai...bahut badiya post...
well said ...I agree 100 %
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