22.9.09

सिंदूरदान (एक पौराणिक आख्यान) भाग-1

वैदिक युग के भी पूर्व सतयुग के आरंभिक काल की कथा है.उन दिनों माता जान्हवी धरा पर अवतरित न हुई थीं..सिन्धु तथा सरस्वती नदी के संगमस्थल पर दैवज्ञ आचार्य महर्षि खालित का गुरुकुल अवस्थित था. महर्षि की बाल विधवा भगिनी गांधारी आश्रम की संचालिका थी.महर्षि के अतुल ज्ञान तथा आर्या गांधारी के वात्सल्यमयी छत्रछाया में छः शिष्य - गौतम, कपिल, जैमिनी, पतंजलि, व्यास और कणाद ब्रह्मचर्य व्रत धारण किये शिक्षण प्राप्त कर रहे थे.



सात वर्षों की शिक्षावधि समाप्त हो चुकी थी,पांच वर्ष शेष रह गए थे. इस काल में कुशाग्रबुद्धि सुसंस्कारी शिष्यों ने कठोरतम साधना द्वारा अपनी कुल कुंडलिनी पर्याप्त जागृत कर ली थी. आत्मबोध तथा युगबोध ने उनके सम्मुख मोह माया को नगण्य कर दिया था.आचार्य खालित तथा आर्या गांधारी को अपने इन पुत्रवत शिष्यों से जितना स्नेह था उतना ही उनपर गर्व भी था.


इन्ही दिनों एक दिन मध्यरात्रि में आश्रम की नीरवता को एक अनिद्य सुन्दरी रमणी के करुण क्रंदन ने अभिशप्त कर दिया. आर्या गांधारी तथा आचार्य महर्षि के पाद पद्मों में भूलुंठित रमणी आश्रय हेतु गुहार लगा रही थी...वह परम सुन्दरी और कोई नहीं कोशल नरेश की अर्धांगिनी महारानी वेपुथमति थी. क्रोधोन्मत्त नृप ने पतिपरायना भार्या का परित्याग कर दिया था..भग्नहृदया महारानी को अपने मान शील की रक्षा की शरणस्थली आश्रय स्वरुप एकमात्र विकल्प यह पावन आश्रम ही दृष्टिगत हुआ था, सो निःशंक निस्पंद उस रात्रि में ऋषि आश्रम में वह आ उपस्थित हुई थी.


महारानी की करुण अवस्था ने भाई बहन के ह्रदय को दग्ध कर दिया.. उन्होंने महारानी को पुत्रीवत स्नेह और आश्रय का आश्वासन दे आश्वस्त किया. परन्तु महारानी के आलौकिक सौन्दर्य ने उन्हें चिंतित और दुविधाग्रस्त भी कर दिया .एक तो महारानी की मानरक्षा के लिए इस तथ्य की गोपनीयता सर्वथा अनिवार्य थी और इसके लिए उन्हें महारानी के लिए गोपनीय वास की व्यवस्था करनी थी और दूसरे अपरिपक्व वयि शिष्यों को उनके परिपक्व होने तथा शिक्षण समाप्ति पर्यंत स्त्री संपर्क से पूर्णतः वंचित रखना था. जिस वयः संधि पर उनके शिष्यगन अवस्थित थे,उनमे विवेक उतना प्रखर न हुआ था कि वे अपना करनीय भली भांति स्थिर कर पाते.आचार्यवर अपने शिष्यों के शिक्षण समाप्ति से पूर्व किसी भी भांति तपश्चर्या में विघ्न उपस्थित होने देना नहीं चाहते थे.


अंततः भाई बहनों ने गहन मंत्रणा कर आश्रम के विस्तृत प्रांगन के एक जनशून्य अलंघ्य दुकूल में महारानी के रहने की समुचित व्यवस्था कर दी तथा महारानी से वचन लिया कि अपनी गोपनीयता को संरक्षित रखते हुए वे कभी भी आश्रम के अवांछित भाग में आवागमन नहीं करेंगी. विछिन्न हृदया महारानी तो स्वयं ही एकांत की अभिलाषिनी थीं, अभीष्ट पूर्ण होते देख उनके संतप्त उदिग्न ह्रदय में नव आशा का संचार हुआ. समय के साथ आर्या गांधारी की देख रेख उनके वात्सल्यपूर्ण स्नेहिल व्यवहार तथा धर्मदेशना के संग आश्रम के उस पवित्र सात्विक परिवेश में शनैः शनैः महारानी का संताप भी घुलने लगा..


कुछ मास में जब सब व्यवस्थित और सुचारू रूप से चलने लगा, पूर्वनियोजित कार्यक्रमानुसार आचार्य ने अपने शिष्यगणों संग चातुर्मास हेतु तीर्थाटन का अनुष्ठान किया. सब व्यवस्था हो गयी किन्तु प्रस्थान से ठीक एक दिन पूर्व कनिष्ठ शिष्य कणाद भीषण ज्वर बाधा से पीड़ित हो गया. उसके स्वस्थ होने तक यात्रा स्थगित कर दी गयी. आचार्य सहित समस्त शिष्य समुदाय उसके उपचार और सेवा में जुट गए,परन्तु रोग दिनानुदिन असाध्य ही होता गया. ज्वर मुक्त होने में कणाद को मास भर लग गया.परन्तु इस दीर्घकालिक ज्वर ने उसे जीर्णकाय कर, उसकी शारीरिक अवस्था ऐसी न छोडी थी कि वह सहस्त्र कोसों की पद यात्रा में सक्षम हो पाता. अंतत महर्षि ने उसे स्वास्थ्य लाभ हेतु आश्रम में ही आर्या गांधारी की देख रेख में छोड़, अन्य शिष्यों संग तीर्थयात्रा को प्रस्थान किया...


स्वास्थ्य लाभ करते हुए कणाद देवी गांधारी के संग आश्रम में रह तो गया परन्तु अपने सहपाठियों का विछोह उसे कष्टकर लगने लगा. एकाकीपन ने उसके मन को अस्थिर और व्यथित कर रखा था...ऐसे ही एक दिन पूर्णमासी की रात्रि को तृतीय प्रहर में ही उसकी निद्रा विखण्डित हो गयी. विचलित मन आसन त्याग जब वह कक्ष से बाहर आया तो, शुभ्र ज्योत्स्ना की चहुँ ओर विस्तृत धवल आभा ने उसे विमुग्ध कर दिया. मन का एकाकीपन और अस्थिरता जैसे उस धवल उर्मी में धुल कर बह गया.आत्मविस्मृत मंत्रमुग्ध हो प्रकृति की उस मनोरम छटा का आनंद लेते हुए उस सौन्दर्य सुधा का रसपान करता भ्रमण को निकल पड़ा..आनंद और चिंतन में मग्न किशोर लक्ष्य ही न कर पाया कि कब उसने आश्रम के निषिद्ध प्रकोष्ठ की परिसीमा का उल्लंघन कर दिया था.....


संयोगवश दुश्चिंताओं में घिरी रानी भी असमय निद्रा भंग के बाद क्लांत मन को प्रकृति की सुरम्यता में रमा दुश्चिंताओं से मुक्ति हेतु सरोवर में स्नान करने चली आयीं थीं.चूँकि रानी आचार्य तथा शिष्यों के तीर्थाटन गमन तथ्य से अवगत थी ,सो निश्चित होकर उन्होंने सरोवर के दुकूल में अवस्थित वृक्ष की शाख पर अपने वस्त्र रख सरोवर के स्निग्ध जल में मुक्त भाव से संतरण करने लगीं.


सरोवर कूल में वृक्ष द्रुमो पर रखे वस्त्रों का मस्तक पर स्पर्श होते ही सहसा कणाद का ध्यान भंग हुआ और जैसे ही उसकी दृष्टि सद्यः स्नाता सर्वांग सुंदरी महारानी पर पडी अचंभित किशोर जड़वत वहां संज्ञासून्य सा ठिठका खडा अपलक उस दृश्य को निहारता रह गया..आकस्मात जब महारानी की दृष्टि इस ओर गयी तो संकोच लज्जा और भयवश वह भी पल भर को काष्ठवत स्थिर हो गयी.परन्तु शीघ्र ही अपनी सम्पूर्ण उर्जा लगा द्युत गति से सरोवर से बाहर निकल पलक मारते लता द्रुमो के मध्य लुप्त हो गयी..


कुछ क्षणों का यह सम्पूर्ण दृश्य विद्युत्पात सा बारम्बार कणाद के मनोमस्तिष्क पर कौंधने लगा...यह एक स्वप्न था अथवा सत्य , निर्णीत करने में वह सर्वथा असमर्थ हो रहा था. हतप्रभ सा किशोर चकित थकित उसी मुद्रा में एक प्रहर तक जड़वत ऐसे ही निर्मिमेष दृष्टि से सरोवर को निहारता सुध बुध बिसराए खडा रह गया.


प्रतिदिन की भांति चतुर्थ प्रहर में आकर जब कणाद ने आर्या गांधारी का अभिवादन और चरण स्पर्श नहीं किया तो चिंतातुर गांधारी ही संघाराम (छात्रावास) की ओर चल दी. वहां कणाद को अनुपस्थित देख अनिष्ट की आशंका से आतंकित गांधारी आश्रम में चहुँ ओर उसका संधान करने लगी. अनुमानित किसी भी स्थल पर उसे न पा सशंकित जब वह महारानी के प्रकोष्ठ की ओर बढ़ी और सरोवर के कूल में महारानी के वस्त्रों के निकट निश्चल कणाद को विस्मृत उस अवस्था में देखा तो सबकुछ समझने में उन्हें दो पल भी न लगा...


अंततः वही हुआ था, जिसका उन्हें भय था. महारानी के अतुलित सौन्दर्य ने बालक के बुद्धि विवेक को राहु सा ग्रस लिया था..आशंकित आर्या ने शिष्य को झकझोरा .. तंद्रा भंग होने पर स्वयं की स्थिति का उसे भान हुआ. वर्जित प्रदेश में प्रवेश कर आश्रम के अनुशाशन को तो उसने भंग किया ही था, वस्त्रहीना स्त्री के सम्मुख इस प्रकार निर्लज्जता से खड़े रह उसका घोर अपमान भी किया था. अनुशाशन तथा मर्यादा भंग कर उसने घोरतम अपराध किया था. विवेक जब पुनर्प्रतिष्ठित हुआ तो अपराधबोध से उसका ह्रदय दग्ध होने लगा..अपने ही मुख से अपने समस्त दोषों को स्वीकृत करते हुए माता गांधारी के पाद पद्मों में लोट कर वह अपने लिए कठोरतम दंड की याचना करने लगा.


बालक के निष्कलुष अश्रुबिंदुओं ने ममतामयी गांधारी का ह्रदय द्रवित कर दिया था..उसकी स्वीकारोक्ति ने उन्हें संशयहीन कर दिया..इस अप्रिय प्रसंग को स्वप्नवत विस्मृत करते हुए, उस निषिद्ध प्रदेश में पुनर्प्रवेश न करने के अनुशासन का प्रतिबद्धता पूर्वक पालन करने का निर्देश दे आर्या एक प्रकार से निश्चिंत सी हो गयी. कणाद ने भी शपथ लेते हुए माता को आश्वस्त किया कि इस प्रकार का अकरणीय भविष्य में कदापि घटित न होगा...

क्रमशः


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31 comments:

निर्झर'नीर said...

AISA LAGA JAISE KOI CHALCHITRA HO.

KITNI KHOOBSURTI SE AAPNE KATHA KO BANDHA HAI ..NI:SANDEH

RACHNATMAKTA KI DRISHTI SE BEJOD.

OR GYAN KA ATHAH SAGAR SAMETE HUE

KATHA KE LIYE BANDHAII

सुशीला पुरी said...

bilkul kisi fil ki tarah sare chitra tair gaye aankhon me........

Mishra Pankaj said...

रंजना जी बेहद जानकारी पूर्ण लेख बधाई और आभार आपका

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' said...

बहुत अच्छा आख्यान प्रस्तुत किया है।
बधाई!

Arshia Ali said...

रोचक आख्यान।
( Treasurer-S. T. )

रंजू भाटिया said...

रोचक जानकारी दी है आपने रंजना इस बारे में इस तरह का पहली बार पढ़ा है .शुक्रिया

Gyan Dutt Pandey said...

बेचारा कणाद! आगे भी खायेगा मर्यादाओं के कोड़े! देखें, क्या होता है!

Arvind Mishra said...

किसी को हिन्दी भाषा का नाद सौन्दर्य देखना हो तो डॉ रंजना सिंह के संवेदना संसार में आये !
मंत्रमुग्ध हूँ -आगे क्या हुआ ?
कृपा कर संपादित करें -
अनुशाशन ,शंशयहीन

M VERMA said...

मै तो आपकी वृत्तांत वर्णन की व्यवस्थित कला को देखकर (पढकर) मै चकित हूँ. कितना सुन्दर लिखती है आप.
एक एक घटना आँखो के सामने दृश्यवत आती गयी.
आगे के वृत्तांत का इंतजार है.

Abhishek Ojha said...

अरे वाह ! बहुत दिनों के बाद ऐसी शैली में कुछ पढने को मिला. क्या सच में यह कहानी किसी पौराणिक पुस्तक पर आधारित है या फिर आपके कल्पना की उपज है?

राज भाटिय़ा said...

बहुत सूंदर कथा लगी, पढ कर अच्छा लगा, लेकिन क्रमश ने थोडा विचलित किया, अगई कडी का बेचेनी से इंतजार है, ओर हां यह कणाद आगे जा कर कणाद मुनि के नाम से प्रसिद्ध हुये थे, क्या वो ही है?
धन्यवाद

रश्मि प्रभा... said...

itne spasht aalekhon ko padhna sukhad lagta hai

Mithilesh dubey said...

बेहद खूबसूरत रचना लिखा है आपने। जितनी तारीफ कि जाये कम होगी। ऐसा लग रहा था कि सजीव वर्णन हो रहा हो। लाजवाब, बहुत-बहुत बधाई आपको इस लाजवाब रचना के लिए।

Udan Tashtari said...

पौराणिक कथाओं को इस रोचक अंदाज में सुनना-अद्भुत. बहुत अच्छा लगा.

Pt. D.K. Sharma "Vatsa" said...

रंजना जी, आपकी शैली में ये आख्यान इतना सुन्दर लगा कि मंत्रमुग्ध हो पढते चले गये....प्रत्येक दृ्श्य मानो आखोँ के सामने सजीव हो उठा हो....प्रस्तुतिकरण इतना रोचक है कि आगे के वृ्तान्त की प्रतीक्षा करना थोडा मुश्किल लग रहा है!!!

Harshvardhan said...

pauranik katha achchi lagi.........

pran sharma said...

RANJANA JEE,
DHERON HEE JAANE-MAANE
KATHA VAACHKON SE PAURAANIK AAKHYAAN SUNE .SABKE KAHNE-
SUNAANE KE ANDAAZ ACHCHHE LAGE
LEKIN AAPKE KAHNE AUR SUNAANE KAA
ANDAZ KUCHH AUR HEE HAI GAALIB KEE
TARAH.

के सी said...

इस बार तो आपके यहाँ भी विलंबित रस निष्पत्ति हो रही है... अति सुंदर मैं अगली कड़ी की प्रतीक्षा में हूँ.

Smart Indian said...

अगली कड़ी की प्रतीक्षा में....

प्रेमलता पांडे said...

भाषा-सौंदर्य कहानी का प्राण बनकर निकला है। अति सुंदर प्रस्तुति!

Kusum Thakur said...

आपने तो मुझे मंत्र मुग्ध कर दिया रंजना जी ।
कब पढ़ना शुरू की कब ख़त्म हुआ पता ही नहीं चला ।
पौराणिक कथा का इतना सजीव वर्णन वाह ।
मैं तो आपके लेखन शैली को पढ़ दंग हूँ।
आपको बहुत बहुत बधाई !!

मुकेश कुमार तिवारी said...

रंजना जी,

आपके लेखन ने शिक्षु कणाद की भांति ही जड़वत कर दिया है। कल्पना में कथानक चित्रमय हो उभर आता है।

अगली कड़ी की प्रतीक्षा में....

सादर,


मुकेश कुमार तिवारी

Amit K Sagar said...

आपके कहने का साहित्य बहुत ही प्रसंसनीय है. जारी रहें.
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Till 30-09-09 लेखक / लेखिका के रूप में ज्वाइन [उल्टा तीर] - होने वाली एक क्रान्ति!

लता 'हया' said...

शिवानी के बाद अगर किसी और को हिंदी भाषा में इतने अधिकार पूर्वक लिखते देखा है तो वो आपको...भाषा का माधुर्य और सौन्दर्य छलकता है आपकी रचनाओं में...ऐसी सुसंस्कृत भाषा का अपमान हम अपने देश में कैसे कर पाते हैं समझना मुश्किल है...
आगे क्या हुआ जानने की प्यास बढ़ रही है...
लता

BrijmohanShrivastava said...

पौराणिक आख्यान पढ़ा |बाल मनोविज्ञान की ओर भी ध्यान गया | लेखन शैली की बात ही क्या ,कुछ शब्दों की ओर आकर्षित हुआ और उन्हें नोट किये मसलन "धवल उर्मी में धुल कर बह गया ""करुण क्रंदन ने अभिशप्त ""वात्सल्यमयी छत्रछाया,,""जनशून्य अलंघ्य दुकूल ""ह्रदय को दग्ध कर दिया""

Murari Pareek said...

मन को विचलित करती है अच्छी प्रस्तुति है!!

Shiv said...

अगले भाग की प्रतीक्षा है. लेखन के बारे में नया कहने के लिए कुछ नहीं है. ललित निबंध की विधा में क्या कुछ लिख देंगी, उसका अनुमान लगाया जा सकता हैं.

Rakesh Singh - राकेश सिंह said...

शब्दों का चुनाव और भाषा की लय ने इस आख्यान की सुन्दरता मैं चार चाँद लगा दिया |

अगले भाग की प्रतीक्षा कर रहा हूँ |

रंजीत/ Ranjit said...

aagen ka intzar. abhee to jigyasa-hee -jigyasa ...
lekin adhee kahanee me bhee pathya-ras kamee nahin hai. katha vachne kee apkee kala bahut umda hai...
ranjit

Alpana Verma said...

यह कथा और इस के कुछ चरित्र पहले कभी नहीं सुने.
रंजना जी आप की कहानी में सुन्दर शब्द मन्त्र मुग्ध कर रहे हैं..कणाद और गांधारी..की यह कथा यहाँ तक बहुत पसंद आई..देर से पढ़ पाने का एक फायदा हुआ की अगला भाग भी अभी साथ ही पढूंगी..निरंतरता बनेगी..रोचकता है..जिज्ञासा भी..कणाद क्या पश्चाताप कर पायेगा अगर हां तो कैसे?या किशोर मन लड़खडाने लगेगा..बाल विधवा गांधारी की हृदय पर भी क्या कोई प्रभाव पड़ेगा??अब पढ़ती हूँ आप इस कहानी का अगला भाग..

Satish Saxena said...

कुछ अलग सा... शुभकामनायें !