सन्नाटों का कोलाहल,
नित चित को कर देता चंचल।
नित चित को कर देता चंचल।
एकांत है चिंतन का साथी,
भावों के पाँख उगा जाती ।
भावों के पाँख उगा जाती ।
शशि की शीतल कोमल किरणें
उर डूब उजास पाता जिसमें।
उर डूब उजास पाता जिसमें।
उस पल में कविता है किलके,
रस शब्द ओढ़ चल बह निकले।
रस शब्द ओढ़ चल बह निकले।
माना आँखों से सब दीखता,
दृग मूंदे ही पर जग दीखता।
दृग मूंदे ही पर जग दीखता।
नीरवता के कुछ पल खोजो,
दुनियाँ के संग संग मन बूझो।
दुनियाँ के संग संग मन बूझो।
अन्तरचिंतन बिन सृजन कहाँ,
गहरे उतरो मिले मोती वहाँ।
गहरे उतरो मिले मोती वहाँ।
7 comments:
सच कहा रंजना जी . बहुत दिनों बाद आपकी रचना पढ़ने मिली है . अच्छा लगा .
आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल बुधवार (11-02-2015) को चर्चा मंच 1886 पर भी होगी।
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सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ...
सादर...!
भावपूर्ण और प्रभावी प्रस्तुति..
बहुत ही अच्छी रचना।
सुन्दर रचना आदरणीय
सुंदर !
भावपूर्ण अभिव्यक्ति ...
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