संपादक "श्री उपेन्द्र कुमार मिश्र " जी पत्रिका के सम्पादकीय में अपने मनोभावों को जिस प्रकार पद्य रूप में प्रेषित करते हैं , वह न केवल उनकी सुस्पष्ट सोच और श्रृजन क्षमता प्रतिबिंबित करती अभिभूत करती है,अपितु वह महत आह्वान ह्रदय को झकझोर कर सचमुच ही चुप्पी तोड़ने को विवश कर देती है..
त्रैमासिक पत्रिका (जनवरी- मार्च २०११) के सम्पादकीय को इस मंच पर उन सब के साथ सांझा करना चाहूंगी,जिन्होंने इसे न पढ़ा हो...
निम्नलिखित रचना में भाव निकले अवश्य मिश्र जी के ह्रदय से हैं पर शायद ही कोई संवेदनशील पाठक होगा जिसे यह अपने मन की बात न लगेगी..
" चुप्पी तोड़ो "...............
आओ !!!
डूब मरें ....
जब कायर
नपुंसक
बेशर्म
और मुर्दादिल जैसे शब्द
हमें झकझोरने में
हो जाएँ बेअसर
घिघियाना
गिड़गिडाना
और लात जूते खाकर भी
तलवे चाटना
बन जाए हमारी आदत
अपने को मिटा देने की सीमा तक
हम हो जाएँ समझौतावादी
तो आओ !!!
डूब मरें....
जब खून में उबाल आना
हो जाए बंद
भीतर महसूस न हो
आग की तपिश
जब दिखाई न दे
जीने का कोई औचित्य
कीड़े- मकौडों का जीवन भी
लगने लगे हमसे बेहतर
हम बनकर रह जाएँ केवल
जनगणना के आंकड़े
राजनितिक जलसों में
किराए की भीड़ से ज्यादा
न हो हमारी अहमियत
तो आओ !!!
डूब मरें...
जब हमारी मुर्दानगी के परिणामस्वरूप
सत्ता हो जाए स्वेच्छाचारी
हमारी आत्मघाती सहनशीलता के कारण
व्यवस्था बन जाए आदमखोर
जब धर्म और राजनीति के बहुरूपिये
जाति और मज़हब की अफीम खिलाकर
हमें आपस में लड़ाकर
' बुल फाईट ' का लें मजा
ताली पीट - पीटकर हँसे
हमारी मूर्खता पर
और हम
उनकी स्वार्थ सिद्धि हेतु
मरने या मारने पर
हो जाएँ उतारू
तो आओ !!!
डूब मरें...
इससे पहले कि
इतिहास में दर्ज हो जाए
मुर्दा कौम के रूप में
हमारी पहचान
राष्ट्र बन जाए
बाज़ार का पर्याय
जहाँ हर चीज हो बिकाऊ
बड़ी- बड़ी शोहरतें
बिकने को हों तैयार
लोग कर रहे हों
अपनी बारी का इन्तजार
जहाँ बिक रही हो आस्था
बिक रहा ईमान
बिक रहे हों मंत्री
बिक रहे दरबान
धर्म और न्याय की
सजी हो दूकान
सौदेबाज़ों की नज़र में हों
संसद और संविधान
देश बेचने का
चल रहा हो खेल
और हम सो रहे हों
कान में डाले तेल
तो आओ !!!
डूब मरें.....
जब आजाद भारत का अंगरेजी तंत्र
हिन्दी को मारने का रचे षड़यंत्र
करे देवनागरी को तिरस्कृत
मातृभाषा को अपमानित
उडाये भारतीय संस्कृति का उपहास
पश्चिमी सभ्यता का क्रीतदास
लगाये भारत के मस्तक पर
अंगरेजी का चरणरज
तब इस तंत्र में शामिल
नमक हरमों को
देशद्रोही, गद्दारों को
कूड़ेदान में फेंकने के बदले
अगर हम बैठाएं सिर- आँखों पर
करें उनका जय-जयकार
गुलामी स्वीकार
तो आओ !!!
डूब मरें...
जब सरस्वती के आसन पर हो
उल्लुओं का कब्ज़ा
भ्रष्ट, मक्कार और अपराधी
उच्च पदों पर हों प्रतिष्ठित
मानवतावादियों को दी जाए
आजीवन कारावास की सजा
हिंसा को धर्म मानने वाले
रच रहें हों देश को तोड़ने की साज़िश
और हम तटस्थ हो
बन रहें हों बारूदी गंध के आदी
हथियारबंद जंगलों में
उग रही हो आतंक की पौध
हथियारों की फसल
लूट ,हत्या बलात्कार
बन गएँ हों दैनिक कर्म
तो गांधी से आँखें चुराते हुए
आओ !!!
डूब मरें...
जब सत्य बोलते समय
तालू से चिपक जाए जीभ
दूसरे को प्रताड़ित होता देख
हम इतरायें अपनी कुशलता पर
समृद्धि पाने के लिए
बेच दें अपनी आदमियत
जब भूख से दम तोड़ते लोग
कुत्तों द्वारा छोडी हड्डियाँ चूसकर
जान बचाने की कर रहे हों कोशिश
खतरनाक जगहों, घरों, ढाबों में
काम करते बच्चे
पूछ रहे हों प्रश्न -
पैदा क्यों किया?
बचपन क्यों छीना?
हमसे कोई प्यार क्यों नहीं करता?
तब आप चाहें हों
किसी भी दल के समर्थक
विकास के दावे पर थूकते हुए
होते हुए शर्मशार
आओ !!!
डूब मरें...
और जब
टूटती उमीदों के बीच
आकस्मात
कोई लेकर निकल पड़े मशाल
अँधेरे को ललकार
लगा दे जीवन को दांव पर
तो उस निष्पाप, पुण्यात्मा को
यदि हम दे न सकें
अपना समर्थन
मिला न सकें
उसकी आवाज़ में आवाज़
चल न सकें दो कदम उसके साथ
अन्धकार से डरकर
छिप जाएँ बिलों में
बंद कर लें कपाट
तो यह
अक्षम्य अपराध है
अँधेरे के पक्ष में खड़े होने का
षड़यंत्र है
उजाले को रोकने का
इसलिए लोकतंत्र को
अंधेरों के हवाले करने से पहले
आओ !!!
डूब मरें....
____________________________________
(पत्रिका प्राप्ति हेतु पता-
संपादक
समकालीन अभिव्यक्ति
फ्लैट नंबर 5, तृतीय तल,984,वार्ड नंबर- 7,
महरौली, नयी दिल्ली-30.)
*****************************************
67 comments:
बेहद धारदार कविता, साहित्य मरा नहीं है रंजना जी बस भौतिकवाद का शिकार है.आपके द्वारा उद्दृत कविता पत्रिका निस्संदेह मील का पत्थर साबित होगी , खोज के लिए बधाई
वाह....जितनी प्रशंसा की जाये कम है
'आओ डूब मरें'.............मन-मष्तिष्क को झकझोर देने में समर्थ रचना
रचना के माध्यम से .....देश,समाज,व्यक्ति के चिंतनीय हालात के साथ-साथ.. रीढ़ विहीन हो गए इंसान के ज़मीर को धिक्कारते हुए जागरण का जोरदार आह्वान किया गया है |
लेखनी यहीं धन्य हो जाती है ,,
कविता ने बेहद प्रभावित किया. अच्छी रचना से परिचय करने का आभार!
हमज़बान की नयी पोस्ट मेन इटर बन गया शिवभक्त फुर्सत हो तो पढें
आभार रंजू, एक बेहतरीन काव्य साझा करने के लिए.. एक ललकार है यह और छिपे आईना भी दिखाता है.. एक मुर्दा हो चुकी सभ्यता के कानों में शंखनाद करता हुआ.. क्या ये मुर्दा लोग जी उठेंगे!!
dhany hain aap aur patrika ke lekhak jinhone ye aawaz ham tak pahunchayi.
aabhar.
बहुत अच्छी हुंकार भरती कविता पेश की है आपने।
सार्थक पहल।
पत्रिका पढ़ने का मन हुआ।
एक सशक्त कविता पढवाने का आभार ...... हर पंक्ति सोचने को विवश करती है .... मन को उद्वेलित करती है....
आईना दिखाती कविता है.
सचमुच, अगर हम चुप्पी नहीं तोडते हैं, तो ये डूब मरने वाली ही बात है।
------
TOP HINDI BLOGS !
चुप ना भी रहे तो उखाड़ लोगे ...
एक आईना , एक तमाचा क्या कहूँ कविता को !
आज साहित्य में उद्वेलित करने वाली रचनाएं कहाँ होती हैं.... आज का साहित्य भी बाज़ार के हाथों में है... सामाजिक सरोकार हाशिये पर हैं.... ऐसे में आपकी रचा दिनकर की रचनाओं की तरह हुंकार भर रही हैं... बहुत सुन्दर कविता.... पत्रिका पढने को भी प्रेरित कर रही हैं आप....
साहित्यिक पत्रिकाओं के बारे में आपकी चिंता से सहमत हूँ।
खुद का विश्लेषण करने में सयोग देती धारदार कविता ...
चाहे कोई कितना भी झकझोरे, हम भारतीय हैं, हम नहीं जागेंगे, हम नहीं सुधरेंगे॥
चाहे कोई कितना भी झकझोरे, हम भारतीय हैं, हम नहीं जागेंगे, हम नहीं सुधरेंगे॥..........CMP
PRANAM.
Fantastically written.. Simply superb.
No one can dislike it.
बहुत सुन्दर कविता. आइना दिखाती.
बेहतरीन रचना ....बहुत कुछ कहती हुई
अंतर्मन को झकझोरती हुई कविता . शब्द नहीं है मेरे पास भावो को प्रकट करने के लिए .
मैंने भी इसके कई अंक पढ़े हैं, स्तरीय पत्रिका है।
इतनी सशक्त और सार्थक रचना पढ़वाने के लिए आभार। उद्वेलित कर गया।
सत्य वचन!
लेकिन कितने हैं जो ये नहीं जानते हैं, मानें तो बात बने।
ललकार के शब्दों की तुरही बजाती कविता।
इस रचना को कविता कहें या शब्दों की ज्वाला? कमाल की भावाभिव्यक्ति है - पूरे देश की हकीकत और आम जीवन में विकसित आम आदमी के निरंतर अधोपतन की ओर जाती प्रवृति को बयां करती एक सशक्त रचना - मैं जानता हूँ कि बहन रंजना आजकल काफी उलझनों में है तब भी इस अनमोल साहित्य को सबके बीच बांटना एक सत्कार्य है - शुभकामनायें.
सादर
श्यामल सुमन
09955373288
http://www.manoramsuman.blogspot.com
http://meraayeena.blogspot.com/
http://maithilbhooshan.blogspot.com/
एक दूसरे मूड में है आज आप...पहली टिप्पणी ने मेरे मन की बात कह दी है
सीधे-सादे ढंग से कहने पर लोग नहीं जागते। इस तथ्य को कवि अच्छी तरह जानते हैं, इसीलिए वे हुंकार भर कर तिर्यक वचनों का प्रयोग करने के लिए बाध्य हुए हैं।
इसके बाद भी लोग यदि न जागें तो सचमुच उन्हें डूब मरना चाहिए।
इस उत्कृष्ट कविता को प्रस्तुत करने के लिए आपका आभार, रंजना जी।
पत्रिका और सम्पादक के बारे में आपका कहा सच निकला ,पढ़ा और गुना महसूसा वैसा ही जैसा आपने समझा समझाया था .आभार इस अन्वेषण और परोसे के लिए . सहभावित कविता :आखिर हम चुन कर आये हैं .-डॉ .नन्द लाल मेहता वागीश ,वीरेंद्र शर्मा .
आओ अन्दर की बात कहें ,
कुछ तो दिल की बात सुनें .
माना एयर- पोर्ट पहुंचे थे ,हंस -हंस के पत्ते फेंटें थे ,
मंत्री ओहदे कितने ऊंचे ,ऐंठे साथ में कई अफसर थे ,
एक नहीं हम कई जने थे ,भीतर से सब चौकन्ने थे ,
बाबा को देना था झांसा ,झांसे में बाबा को फांसा ,
बाबा का कोई मान नहीं था ,हम को बस फरमान यही था .
एक हाथ समझौते का हो, दूजे हाथ में गुप्त छुरी,
रात में काँप उठी नगरी ,बाबा की सी सी निकली ,
तम्बू बम्बू सब उखड़े थे ,साड़ी पाजामे घायल थे ,
झटके में झटका कर डाला ,ऐसा शातिर दांव हमारा ,
क्या अब भी सरकार नहीं है ,क्या इसका इकबाल नहीं है ,
जाकर उस बाबा से पूछो ,क्या यही सलवार सही है ,
हमने परिधान बदल डाले ,नक़्शे तमाम बदल डाले ,
आखिर चुनकर आयें हैं ,नहीं -धूप में बाल पकाएं हैं ,
इसके पीछे अनुभव है ,खाकी का अपना बल है ,
सीमा पर अभ्यास करेंगें ,देश सुरक्षा ख़ास करंगें ,
सलवारें लेकर जायेंगें ,दुश्मन को पहना आयेंगें ,
तुम जनता हम मालिक हैं ,रिश्ता तो ये खालिस है ,
जय बोलो इंडिया माता की ,इंडिया के भाग्य विधाता की ,
जय कुर्ती और सलवार की ,इंडिया के पहरेदार की .
(२)
सोमवार, ११ जुलाई २०११
सहभावित कविता :खामोश अदालत ज़ारी है .-डॉ .नन्द लाल मेहता वागीश ,सहभाव :वीरुभाई .
(वागीश ,सहभाव :वीरुभाई) . सहभावित कविता :खामोश अदालत ज़ारी है .-डॉ .नन्द लाल मेहता वागीश ,सहभाव :वीरुभाई .
खामोश अदालत ज़ारी है ,दिल्ली का संकेत यही है ,
वाणी पर तो लगी है बंदिश ,अब साँसों की बारी है .
खामोश अदालत ज़ारी है .
हाथ में जिसके है सत्ता वह लोकतंत्र पर भारी है ,
गई सयानाप चूल्हे में .बस चूहा एक पंसारी है .
कैसा जनमत किसका अनशन ,हरकत में जब शासन ,
संधि पत्र है एक हाथ में दूजे हाथ कटारी है .
खामोश अदालत ज़ारी है .
दिल्ली नै पुरानी दिल्ली ,परकोटे की रानी दिल्ली ,
सदियों से है लुटती आई ,मुग़ल फिरंगी या अबदल्ली,
दिल्ली ने यह भी देखा है ,दूध की है रखवाली बिल्ली ,
चोर- चोर मौसेरे भाई ,अफरा तफरी भारी है ,
कुर्सी- कुर्सी होड़ मची है ,पांच साल में बारी है ,
खामोश अदालत ज़ारी है .
ये खाली सम्पादकीय नहीं ... एक लावा है जो धीरे धीरे शरीर में उतरता जा रहा है ... बहुत ही शशक्त हस्ताक्षर ... लाजवाब रचना है .. सामयिक ...
ये सच है की आजकल पत्रिकाएं अपने उतार पर हैं ... शायद नेट का प्रभाव या बदलाव का दौर है ... पर साहित्य जिन्दा रहेगा ...
हर पंक्ति सोचने को विवश करती है ..
ni:shabd kar diya ...lekhak ke sath aapka bhi shukria ..abhar
और जब
टूटती उमीदों के बीच
आकस्मात
कोई लेकर निकल पड़े मशाल
अँधेरे को ललकार
लगा दे जीवन को दांव पर
तो उस निष्पाप, पुण्यात्मा को
यदि हम दे न सकें
अपना समर्थन
मिला न सकें
उसकी आवाज़ में आवाज़
चल न सकें दो कदम उसके साथ
अन्धकार से डरकर
छिप जाएँ बिलों में
बंद कर लें कपाट
तो यह
अक्षम्य अपराध है
अँधेरे के पक्ष में खड़े होने का
षड़यंत्र है
उजाले को रोकने का
इसलिए लोकतंत्र को
अंधेरों के हवाले करने से पहले
आओ !!!
डूब मरें...
मन को उद्वेलित करने वाली जीवन्त रचना.... पढ़वाने के लिए हार्दिक धन्यवाद!
"Aao doob mareN" aaj kee stiththi par behad karaara vyang hai... aur aapke dwara kee gayi samiksha bhi bahut sateek hai..Sadar
यह कविता तो हमारे समाज का आइना है। चित्रलिखित सी है यह कविता।
आपने इसे यहाँ प्रस्तुत कर हमारे मन को भी संबल दिया है। आभार।
बहुत अच्छी हुंकार भरती कविता पेश की है आपने।
आदरणीय रंजना जी बहुत सुन्दर पोस्ट पढकर लगा जाने कहाँ गए वो दिन |सार्थक और सराहनीय |बधाई
dhardaar...sarthak vichar kavitaa...
पहले बहुत पत्रिकायें पढते थे , खरीदते भी थे ,अब तो हंस और पाखी मासिक आती है कभी कभी किसी किताबकी दुकान पर बयां या बसुधा मिलजाती है तो खरीद लाते है आपका कहना सत्य है कि पढने योग्य पत्रिकायें ढूढने निकलो तो हाथ मलते रह जाना पडता है। वैसे नया ज्ञानोदय भी एक अच्छी मासिक पत्रिका है, कथादेश और वर्तमान साहित्य में भी बहुत कुछ अच्छा पढने को मिल जाता है किन्तु ये सभी पत्रिकाऐं आमतौर पर किताबों की दुकानों पर विक्री के लिये उपलव्ध नहीं होती और लायब्रेरी सभी पत्रिकायें मंगवाती नहीं है।
महेंद्र जी ने मेरे मन की बात कह दी है| इस कविता को हमारे साथ साझा करने के लिए आभार|
जनमानस का वास्तविक चरित्र-चित्रण कर जो आईना दिखा दे वही साहित्य है. आपने यहाँ प्रस्तुत कर एक उत्तम कार्य किया है. पत्रिका के सम्पादक महोदय एवं ऐसे सभी साहित्यकर्मी को प्रणाम!
अब ये हमारे ऊपर है हम इसे किस रूप में लेते हैं. यहाँ थोथी टिप्पणियाँ करने से कोई फायदा नहीं है, जाहिर है कुछ अपना कीमती समय निकालने होंगे, अलख जगाये रखनी होगी, तभी अभीष्ट की प्राप्ती संभव है.
जब हमारी मुर्दानगी के परिणामस्वरूप
सत्ता हो जाए स्वेच्छाचारी
हमारी आत्मघाती सहनशीलता के कारण
व्यवस्था बन जाए आदमखोर
जब धर्म और राजनीति के बहुरूपिये
जाति और मज़हब की अफीम खिलाकर
हमें आपस में लड़ाकर
' बुल फाईट ' का लें मजा..
शर्मसार करती सामाजिक कुरीतियों एवं ब्यवस्थाओं को सहन करने वाली मनोवृत्ति पर चोट करती उत्तम रचना ..बहुत समय बाद आ सका इतने सुन्दर ब्लाग पर....आभार एवं अभिनन्दन !!!
सुन्दर सम्पादकीय. मन में बगावत घर कर गयी.
आदरणीय वृजमोहन श्रीवास्तव जी ने साहित्यिक पत्रिकाओं की उपलब्धता पर बड़ा वाजिब प्रश्न उठाया है। यह सत्य है कि गम्भीर साहित्य पढ़ने वालों की संख्या कम रह गई है परन्तु ऐसा भी नहीं है कि साहित्य पढ़ने वाले ही नहीं हैं। ऐसा होता तो पुस्तकों एवं पत्रिकाओं का प्रकाशन बन्द हो गया होता। दरअसल साहित्यिक पत्रिकाओं की अनुपलब्धता के पीछे भी एकाधिकार प्राप्त वितरकों का बड़ा हाथ है। वे वही पत्रिकाएं वितरित करतें हैं जिनका व्यापक विज्ञापन है और लाखों प्रतियाँ निकलती हैं; जिसपर बड़ा कमीषन मिलता है या जिस पर व्यावसायिक योजनाएं (प्रमोषनल स्कीम्स) होती हैं । देष के तमाम बुक स्टॉल्स, रेलवे स्टेषनों और बस स्टेषनों तक पत्रिकाएं पहुँचाने का काम ए0एच0 व्हीलर्स करते हैं। इनका अपना साम्राज्य है। साहित्यिक पत्रिकाएं ( खासकर जो किसी बड़े प्रकाषक घराने से सम्बद्ध नहीं हैं) इनके लिए अछूत हैं। इनसे सम्पर्क करने पर स्थिति बड़ी भयावह नजर आती है। एडवांस की तो बात छोड़िए , ये साहित्यिक पत्रिकाएं उधार लेने के लिए भी तैयार नहीं होते। इनकी षर्त होती है कि जितनी पत्रिका बिक जाएगी , उतने का भुगतान तो ये बाद में करेंगे ही ; पत्रिका उठाने एवं बितरित करने के लिए एकमुष्त मोटी रकम लेंगे। उठाई गई पत्रिकाओं में कितनी पत्रिकाएं बिकीं, इसका वास्तविक रिकार्ड इनकी जुबान ही है। अब एक साहित्यिक पत्रिका का संपादक न तो इतनी व्यावसायिक बुद्धि का होता और न आर्थिक दृश्टि से इतना मजबूत होता है, अतः उसे बेचारा बनकर ही रह जाता है और एक स्तरीय साहित्य पाठकों तक पहुंचाने का सपना एक सपना ही रह जाता है। हालांकि छोटे षहरों में अभी साहित्य के पाठक बड़ी संख्या में हैं और वे अच्छे साहित्य से वंचित रह जाते हैं। यहाँ के स्टालों पर जितनी कापियाँ हम अपने निजी सम्पर्कोें से भिजवा देते हैं , लगभग वे बिक जाती हैं। (कृपया तकनीकी कारणों से हुई वर्तनी की त्रुटियों की उपेक्षा करे दें)
हरिशंकर राढ़ी
सह सम्पादक - समकालीन अभिव्यक्ति
सशक्त कविता पढवाने का आभार ....
अंतर्मन को झझकोरने वाली एक सशक्त रचना साझा करने के लिए आभार.
सादर,
डोरोथी.
सर्वप्रथम मुझे पत्रिका की एक प्रति भिजवाने की कृपा करें। मैं इसका वार्षिक सदस्य बनना चाहता हूँ।
पोस्ट काफी रोचक लगा एवं मन को झकझोर कर रख दिया। इन बिषम परिस्थितियों में कोई बी मनुष्य विकल हो सकता है एवं यह महसूस करने के लिए बाद्य हो जाएगा कि वह पृथ्वी पर भार स्वरूप ही है। धन्यवाद।
जबरदस्त ललकार.
राष्ट्र बन जाए
बाज़ार का पर्याय...
सच बोलती कविता.मिश्र जी को इस बेहद प्रभावी कविता के लिए बधाई!
वाकई आज इस भौतिक युग में जी रहे हम सभी के मन की बात कही गयी है जैसे..
बेहद झकझोर देने वाली रचना है । कितनी गहरी भावभूमि से निकली होगी यह कविता ।
रंजना जी आपकी हर टिप्पणी मुझे उत्साहित करती है । शुक्रिया ।
इस पत्रिका के बारे में जानकारी देने का शुक्रिया रंजना जी और कविता तो आपने सच कहा हम सब के भावों को शब्द दे रही है ।
जहां की जनता के रगों में खून दौडता ही नही उसका जीना मरना क्या ?
एक मात्र सोच है या
कई सारे सवाल
समझ नहीं आता
सोचने पर विवश
करते हैं
ये सशक्त शब्द
अक्षय-मन "!!कुछ मुक्तक कुछ क्षणिकाएं!!" से
जब खून में उबाल आना
हो जाए बंद
भीतर महसूस न हो
आग की तपिश
जब दिखाई न दे
जीने का कोई औचित्य
कीड़े- मकौडों का जीवन भी
लगने लगे हमसे बेहतर
हम बनकर रह जाएँ केवल
जनगणना के आंकड़े
राजनितिक जलसों में
किराए की भीड़ से ज्यादा
न हो हमारी अहमियत
तो आओ !!!
डूब मरें...nihshabd ho padha hai
रंजन जी ,
इस पोस्ट के लिये मैं आपका आभार व्यक्त करता हूँ . इन्टरनेट के इस युग में एक अच्छी पत्रिका क्या होती है , वो इस सम्पादकीय ने साबित कर दिया है.. बहुत बरसो के बाद कोई कविता ने बहुत भीतर तक झकझोर दिया है .
आपको बधाई
आभार
विजय
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यदि मीडिया और ब्लॉग जगत में अन्ना हजारे के समाचारों की एकरसता से ऊब गए हों तो कृपया मन को झकझोरने वाले मौलिक, विचारोत्तेजक आलेख हेतु पढ़ें
अन्ना हजारे के बहाने ...... आत्म मंथन http://no-bharat-ratna-to-sachin.blogspot.com/
अब अन्ना हजारे जी के प्रयास से लगता है जनता के खून में कुछ हरकत तो आई है । आपके अगले पोस्ट की प्रतीक्षा में ।
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