7.9.11

गोस्वामी जी का युगबोध ...



कहते हैं एक बार अकबर ने सूरदास जी से पूछा कि वे और गोस्वामी जी दोनों ही तो एक ही विष्णु के भिन्न अवतारों को मानते हुए कविता रचते हैं, तो अपने मत से बताएं कि दोनों में से किसकी कविता अधिक सुन्दर और श्रेष्ठ है. सूरदास जी ने तपाके उत्तर दिया कि कविता की पूछें तो कविता तो मेरी ही श्रेष्ठ है..अकबर सूरदास जी से इस उत्तर अपेक्षा नहीं रखते थे,मन तिक्त हो गया उनका...मन ही मन सोचने लगे , कहने को तो ये इतने पहुंचे हुए संत हैं,पर आत्ममुग्धता के रोग ने इन्हें भी नहीं बख्शा..माना कि अपनी कृति या संतान सभी को संसार में सर्वाधिक प्रिय और उत्तम लगते हैं,पर संत की बड़ाई तो इसी में है कि वह सदा स्वयं को लघु और दूसरे को गुरु माने...

अकबर के मन में ये विचार घुमड़ ही रहे थे कि सूरदास जी ने आगे कहा..

महाशय आपने कविता की पूछी तो मैंने आपको कविता की बात बताई..मैंने जो लिखा है वह सचमुच उत्कृष्ट कविता है,पर गोस्वामी जी ने जो लिखा है,वह तो कविता नहीं साक्षात मंत्र हैं, उसे कविता कहने से बड़ा कोई और पाप हो ही नहीं सकता. समय के साथ जिस प्रकार देवभाषा (संस्कृत) का पराभव और लोप होता जा रहा है, वेद उपनिषद पुराणों आदि के निचोड़ को सरल एवं ग्रहणीय लोक भाषा में जन जन तक पहुँचाने के लिए स्वयं भगवान् शंकर ने गोस्वामी जी के हाथों यह लिखवाया है.

सचमुच यदि ध्यान से देखा जाय तो शायद ही कोई दोहा चौपाई ऐसी मिले जो कहीं न कहीं किसी श्लोक का लोकभाषा में सरलीकरण न हो...

गीता में कहा गया -

यदा यदा ही धर्मस्य ग्लानिः भवति भारत, अभ्युत्थानं अधर्मस्य....

रामचरित में देखिये-

जब जब होहिं धरम के हानी, बढ़हिं असुर अधम अभिमानी....

खैर ,मानने वाले यदि इस अलौकिकता के तर्क को न भी मानें ,तो भी यह तो मानना ही पड़ेगा कि जो विराट जीवन दर्शन इस महत ग्रन्थ में समाहित है, प्राणिमात्र यदि उसका शतांश भी ग्रहण कर ले, आचरण में उतार ले तो जीवन को सच्चे अर्थों में सुखी और सार्थक कर सकता है..केवल हिन्दुओं के लिए नहीं, जीवन और जगत को समझने, इसे सुखद सुन्दर बनाने की अभिलाषा रखने वाले किसी भी देश, भाषा और धर्म पंथ के अनुयायी को यहाँ से वह सबकुछ मिलेगा ,जिसका व्यवहारिक उपयोग वह जीवन के किसी भी क्षेत्र में कर सकता है..

केवल एक कथा भर नहीं लिखी है गोस्वामी जी ने, जिस प्रकार से वे प्रकृति से, समाज से, मानव चरित्र और व्यवहार से छोटी छोटी बातों को लेकर चित्र और दृष्टान्त गढ़ते हैं, मन मुग्ध और विस्मित होकर रह जाता है उनकी इस विराट चेतना और विस्तृत युगबोध पर..

किष्किन्धा में पर्वत शिखर पर गुह्य कन्दरा में बैठे राम लक्ष्मण के मध्य संवाद द्वारा गोस्वामी जी ने क्या विहंगम चित्र खींचा है देखिये-



घन घमंड नभ गरजत घोरा। प्रिया हीन डरपत मन मोरा।।

दामिनि दमक रही घन माहीं। खल कै प्रीति जथा थिर नाहीं।।

बरषहिं जलद भूमि निअराएँ। जथा नवहिं बुध बिद्या पाएँ।।

बूँद अघात सहहिं गिरि कैंसें । खल के बचन संत सह जैसें।।

छुद्र नदीं भरि चलीं तोराई। जस थोरेहुँ धन खल इतराई।।

भूमि परत भा ढाबर पानी। जनु जीवहि माया लपटानी।।

समिटि समिटि जल भरहिं तलावा। जिमि सदगुन सज्जन पहिं आवा।।

सरिता जल जलनिधि महुँ जाई। होई अचल जिमि जिव हरि पाई।।

दो0-

हरित भूमि तृन संकुल समुझि परहिं नहिं पंथ।

जिमि पाखंड बाद तें गुप्त होहिं सदग्रंथ।।14।।

–*–*–

दादुर धुनि चहु दिसा सुहाई। बेद पढ़हिं जनु बटु समुदाई।।

नव पल्लव भए बिटप अनेका। साधक मन जस मिलें बिबेका।।

अर्क जबास पात बिनु भयऊ। जस सुराज खल उद्यम गयऊ।।

खोजत कतहुँ मिलइ नहिं धूरी। करइ क्रोध जिमि धरमहि दूरी।।

ससि संपन्न सोह महि कैसी। उपकारी कै संपति जैसी।।

निसि तम घन खद्योत बिराजा। जनु दंभिन्ह कर मिला समाजा।।

महाबृष्टि चलि फूटि किआरीं । जिमि सुतंत्र भएँ बिगरहिं नारीं।।

कृषी निरावहिं चतुर किसाना। जिमि बुध तजहिं मोह मद माना।।

देखिअत चक्रबाक खग नाहीं। कलिहि पाइ जिमि धर्म पराहीं।।

ऊषर बरषइ तृन नहिं जामा। जिमि हरिजन हियँ उपज न कामा।।

बिबिध जंतु संकुल महि भ्राजा। प्रजा बाढ़ जिमि पाइ सुराजा।।

जहँ तहँ रहे पथिक थकि नाना। जिमि इंद्रिय गन उपजें ग्याना।।

दो0-

कबहुँ प्रबल बह मारुत जहँ तहँ मेघ बिलाहिं।

जिमि कपूत के उपजें कुल सद्धर्म नसाहिं।।15(क)।।

कबहुँ दिवस महँ निबिड़ तम कबहुँक प्रगट पतंग।

बिनसइ उपजइ ग्यान जिमि पाइ कुसंग सुसंग।।15(ख

इन प्राकृतिक बिम्बों के माध्यम से मनुष्य चरित्र के जिन लक्षणों को वे रेखांकित करते हैं, सुख और सद्गति के लिए जो दर्शन देते हैं,प्रकृति से सीखने का जिस प्रकार आह्वान करते हैं , क्या मनुष्यमात्र के लिए अनुकरणीय नहीं है? क्या विडंबना है, लोग सुखी तो होना चाहते हैं, पर इसके सिद्ध ,स्थायी सात्विक स्रोतों से जुड़ना नहीं चाहते.

बहुधा  लोगों को  कहते सुना है -

* तुलसीदास जी ने स्त्री और शूद्र के प्रति सम्मान का भाव नहीं रखा,इसलिए हम उनका विरोध करते हैं.फलतः ग्रन्थ पढने का प्रश्न ही कहाँ उठता है...?

*बड़े पक्षपाती थे तुलसीदास जी. केवल राम और सीता का गुणगान ही करते रह गए..या फिर जो कोई राम के टहल टिकोरे में थे उन्हें महानता का सर्टिफिकेट दिया ..लक्षमण और भरत की पत्नी जिसने चौदह वर्ष महल में रह कर भी वनवास काटा, उनके लिए खर्चने को तुलसीदास के पास एक शब्द नहीं था...

*क्या पढ़ें रामायण, बात बात पर तो देवताओं से फूल बरसवाने लगते हैं तुलसीदास..अझेल हो जाता है..

* नया क्या है कहानी में...सब तो जाना सुना है...इतने मोटे किताब में सर खपाने कौन जाए...

बिना किसी पूर्वाग्रह के मुक्त ह्रदय से आदि से अंत तक एक बार पढ़कर देखा जाय तो आशंकाओं जिज्ञासाओं के लिए कोई स्थान ही नहीं बचेगा..किसी अलौकिक ब्रह्म की कथा सुनने नहीं, अपने ही आस पास को तनिक और स्पष्टता से जानने, दिनों दिन भौतिक साधनों अविष्कारों की रेल पेल के बाद भी निस दिन दुरूह होते जीवन में शांति और सुख के मार्ग संधान के लिए, जीवन दर्शन को समझने के लिए, जीते जी एक बार अवश्य पढने का प्रयास कर लेना चाहिए..


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43 comments:

रश्मि प्रभा... said...

bahut hi badhiyaa aalekh

Arvind Mishra said...

वर्षा ऋतु के मध्य ये पंक्तियाँ और भी अर्थवान हो उठी हैं ...
तुलसी को पढना एक अनिर्वचनीय आनंन्द की भी अनुभूति है ..

चंद्रमौलेश्वर प्रसाद said...

पूर्वाग्रह ही तो राम कृष्ण, शैव-बैष्णव आदि को जन्म देते है और झगडे की जड बन जाते हैं॥

vijai Rajbali Mathur said...

पूर्वाग्रह रहित सोचे तो यह 'हिन्दू'=हिंसा देने वालों के लिए नहीं है। यह आर्ष=आर्य लोगों के लिए है। इसमे गोस्वामी तुलसी दास जी ने विदेशी शासन को उखाड़ फेंकने का आह्वान किया है। जिस प्रकार र्रम ने साम्राज्यवादी रावण का संहार किया था उसी प्रकार जनता को विदेशी शासन उखाड़ने हेतु उन्होने ललकारा था। धूर्तों ने उनके महान ग्रंथ का अनर्थ कर दिया है और उसे मात्र रोली-चावल की पूजा के लिए रिजर्व कर दिया है मोटे पेट वालों ने इसे अपनी कमाई का साधन बना लिया है और जनता को गुमराह करते रहते हैं जैसा की अभी-अभी अन्ना के राष्ट्रद्रोही आंदोलन मे हुआ है।

डॉ. मोनिका शर्मा said...

सारगर्भित चिंतन..... पढ़कर मन आनंदित हुआ ....

Unknown said...

बेहद सुन्दर आकलन , राम चरित मानस धर्मग्रन्थ है और उसे निर्विवाद ही रहने देना चाहिए ये हमारा कर्त्तव्य भी है और धर्म भी. आस्था की कोई तराजू नहीं होती . कोई वैज्ञानिक विश्लेषण भी नहीं. बहुर बहुत बधाई

प्रवीण पाण्डेय said...

रामचरितमानस जितनी बार पढ़ी है, डूब गया हूँ।

देवेन्द्र पाण्डेय said...

मन प्रसन्न कर देने वाली पोस्ट है। फिर दुबार पढ़ुंगा।

चला बिहारी ब्लॉगर बनने said...

बहुत ही सुन्दर पोस्ट!! देखूं शायद कभी फिर से पढ़ने का मौक़ा मिले..

वाणी गीत said...

रामचरितमानस को जितनी भी बार भावार्थ सहित पढो , आश्चर्यचकित रह जाते हैं ...
कैसी- कैसी उपमाएं ,कितने मानक , कोई इतना प्रतिभावान कैसे हो सकता है....
ऐसी ही अनुभूति मुझे कामायनी पढ़ते समय भी होती है !

सुरेन्द्र "मुल्हिद" said...

very nice composition...!!

Smart Indian said...

ठीक कहा आपने. एक दिन बैठकर पढता हूँ।

Abhishek Ojha said...

मैं तो अक्सर कहता हूँ कि एक धार्मिक किताब के रूप में नहीं बस एक महाकाव्य के रूप में ही पढ़ कर देखें तो रामचरितमानस को लेकर धार्मिक लोगों से कहीं अधिक श्रद्धा उत्पन्न होगी.

vandana gupta said...

आपने बिल्कुल सही आकलन किया है …………मानस तो है ही मन और जीवन को दिशा देने वाली उत्तम कृति …………सम्पूर्ण जीवन दर्शन समाया है जितनी बार पढो हर बार नया अर्थ देती है।

रंजू भाटिया said...

राम चरित मानस पढना ज़िन्दगी के मायने कई अर्थो में समझा जाता है ..बेहतरीन लेख लिखा है आपने

ashish said...

रामचरित मानस एक जीवन संहिता है . जितनी बार पढो हर बार मोती हाथ लगते है . सुँदर आलेख के लिए साधुवाद .

देवेन्द्र पाण्डेय said...

घन घिरे हैं, अंधकार है तो इसका सीधा अर्थ है कि बारिश की संभावना है,आसमान साफ होने की संभावना है,प्रकाश की संभावना है।

मौसम की पहेली को जितना सुंदर तुलसी दास ने इस पोस्ट में उद्धरित चौपाइयों..दोहों के माध्यम से समझाने का प्रयास किया है वह अद्भुत है। राम चरित मानस की सबसे बड़ी अच्छाई जो मुझे लगी वह यह कि इसे जिसने जितना समझा उसे उतना मजा आया। जिसके घट में जितना अटा, उतना अमृत भरा और अपना घट पूर्ण मान मस्त हो गया। फिर जब उसका ज्ञान रूपी घट कुछ बड़ा हुआ तो जाना कि अरे, अभी तो मैने कुछ समझा ही नहीं था!

आज भी लाखों की भूख मिटाने में सक्षम
इस इकलौते ग्रंथ का वर्णन आते ही मन श्रद्धा से झुक जाता है।

महेन्‍द्र वर्मा said...

श्रीरामचरितमानस केवल रामकथा ही नहीं है, उसमें तो व्यावहारिक जीवन के लिए उत्तम उपदेश भी हैं।
सूरदास जी ने बिल्कुल सत्य कहा कि मानस की प्रत्येक पंक्ति मंत्र है।
बढिया चिंतन।

rashmi ravija said...

.केवल हिन्दुओं के लिए नहीं, जीवन और जगत को समझने, इसे सुखद सुन्दर बनाने की अभिलाषा रखने वाले किसी भी देश, भाषा और धर्म पंथ के अनुयायी को यहाँ से वह सबकुछ मिलेगा ,जिसका व्यवहारिक उपयोग वह जीवन के किसी भी क्षेत्र में कर सकता है..

बिलकुल सही कहा...बिना किसी पूर्वाग्रह के एक महाकाव्य की तरह ही पढ़ा जाए तो बहुत सीख मिल सकती है.

Shiv said...

रामचरितमानस जीवन जीने का तरीका सिखाता है. महाकवि तो थे ही, दर्शनशास्त्रियों की लिस्ट में गोस्वामी जी नाम शायद सबसे ऊपर रहेगा.

बहुत बढ़िया पोस्ट.

दिगम्बर नासवा said...

वाह ... क्या गज़ब का विश्लेषण किया है आपने ... सच में तुल्दी दास जो लिख गए हैं वो आने वाले कई सदियों तक संभव नहीं है ... जीवन पद्धति निश्चित कर गए हैं .. एक आदर्श जीवन ... बहुत बहुत शुक्रिया अओका इस गहन चिंतन और विश्लेषण का ...

Avinash Chandra said...

आनंदम!
मैं कभी कहीं ग्रंथों पर लिख पाता/पाया तो वो राम चरित मानस ही होता/होगा।
धन्यवाद आपका जो इस विषय पर लिखा।

Manish Kumar said...

बेहतरीन विश्लेषण व आलेख ! आपने रामचरितनानस का जो भाग उद्धृत किया है वो मुझे भी बेहद पसंद है। इसमें से बहुत सारे पद पिताजी हमेशा दोहराते रहते हैं।

संगीता स्वरुप ( गीत ) said...

सही दिशा देने वाला लेख ... इतना श्रेष्ठ ग्रन्थ निर्विवाद ही रहना चाहिए ...

मनोज कुमार said...

कमाल का विश्लेषण है।

अब रामचरितमानस पर कुछ लिखना तो असंभव है, बहुत कुछ लिखता चला जाऊंगा।

Suresh kumar said...

लाजवाब बहुत सुन्दर प्रस्तुति ||
बधाई ||

Dr (Miss) Sharad Singh said...

बहुत ही सारगर्भित प्रस्तुति...

गिरिजा कुलश्रेष्ठ said...

यह तो एक उत्कृष्ट एवं पठनीय शोध-आलेख बन पडा है । मानस इतना सम्मान्य व सर्वप्रिय यों ही नही होगया है । धर्म-ग्रन्थ के रूप में तो यह सर्वमान्य है ही , साहित्य की दृष्टि से और भी अधिक महत्त्वपूर्ण है । आपकी दृष्टि और अभिव्यक्ति का अभिनन्दन

www.navincchaturvedi.blogspot.com said...

किसी दृष्टिकोण विशेष से जब हम किसी कृति को देखेंगे तो ऐसा ही होगा। तुलसी कृत राम चरित मानस तो एक समग्र दर्शन है। अभी तो बहुत से लोगों को यह भी नहीं पता होगा कि किष्किंधा काण्ड में उन्होने प्रकृति का कितना सुंदर वर्णन किया है। रस छंद अलंकार की विलक्षण संपदा सहेजे यह कृति बहुत सारे मानवीय मूल्यों पर विवेचन भी प्रस्तुत करती है, मसलन इस दोहे को ही देख लीजिएगा :-

सचिव, बैद, गुरु तीन जों, प्रिय बोलहिं भय आस।
राज-धर्म-तन तीन कर, होहि बेगि ही नास।।

आपने सही कहा है कि ज़रूरत है आँखों के साथ मन भी खोल कर पढ़ा जाये इसे। साधुवाद इस उत्तम प्रस्तुति के लिए।

Rakesh Kumar said...

रंजना जी, आपकी सुन्दर सुस्पष्ट प्रस्तुति मन को अभिभूत कर रही है.

मेरे ब्लॉग पर आईयेगा.तुलसीदास जी की श्रीरामचरितमानस और श्रीमद्भगवद्गीता के
वचनों में किस कदर मेल है,यह आप मेरे
लेखों में भी पढकर बताइयेगा.

लगता है मेरे ब्लॉग को आपके द्वारा फालो
करने का सुअवसर नहीं मिला है.

Rakesh Kumar said...

मेरी राम जन्म आध्यात्मिक चिंतन की चार पोस्टों में कहींकहीं टिप्पणियों में गोस्वामी तुलसीदास जी के
'ढोल गंवार शुद्र...' पर भी अच्छा वाद विवाद हुआ है,वह भी देखिएगा.प्लीज.(शायद राम जन्म आध्यात्मिक चिंतन-२ में)

Dr Varsha Singh said...

बहुत ही सार्थक और सारगर्भित पोस्ट...

pran sharma said...

AAPKE CHINTAN KE AAGE MAIN
NATMASTAK HOON .

जयकृष्ण राय तुषार said...

बहुत ही उम्दा पोस्ट आदरणीया रंजना जी बहुत बहुत बधाई

जयकृष्ण राय तुषार said...

बहुत ही उम्दा पोस्ट आदरणीया रंजना जी बहुत बहुत बधाई

कुमार राधारमण said...

कथाएं हमारे जीवन का हिस्सा हैं। मूल अर्थ की संप्रेषनीयता में कथाएं अचूक होती हैं। ओशो की बात इसलिए अच्छी लगती है कि वह मुल्ला नसीरुद्दीन को आधार बनाकर ऐसी कहानियां गढ़ते हैं कि मूल भाव सीधे भीतर उतर जाता है। तुलसीदास का जो बौद्धिक सामर्थ्य या उनकी जो संप्रेषनीयता थी,उसमें रामकथा बस सहायक रही होगी। अपनी बात वे अन्यथा भी कह सकते थे। और जो उन्होंने कहा,अगर वह महज कथा होती,तो उनके बाद के सारे लोग उनकी ही पंक्तियां न दुहरा रहे होते। रामचरितमानस एक अद्भुत नृत्य है,जो इसमें उतरेगा,वही आनंदित होगा।

P.N. Subramanian said...

गोस्वामी तुलसीदास जी की कृति ने ही तो साधारण जनता के मध्य रामायण को प्रचारित किया. बहुत सुन्दर लिखा है आपने.

Rakesh Kumar said...

आपने मेरे ब्लॉग पर आकर अपने सुवचनों
से मुझे निहाल कर दिया है,रंजना जी.

आपकी मंझे यह दुआ और आशीर्वाद कि 'प्रभु कृपा मुझ पर बनी रहे'मुझे सीता माता के हनुमान जी को दिए इस आशीर्वाद का स्मरण करता है

अजर अमर गुन निधि सूत होहू
करहू बहुत रघुनायक छोहू

आपका बहुत बहुत हृदय से आभार.

उपेन्द्र नाथ said...

बहुत ही गंभीर मनन आपने किया है. सच रामचरित मानस की हर पंक्ति अपने आप में एक अनूठी है......
पुरवईया : आपन देश के बयार

Anonymous said...

रामचरितमानस तो एक जीवन शैली है जो हर जन में बासनी चाहिए ...उत्कृष्ट चिंतन....

सुरेन्द्र सिंह " झंझट " said...

बहुत मनमोहक प्रस्तुति रंजना जी ....
वास्तव में 'राम चरित मानस ' जैसा ' जन हितकारी' ग्रन्थ दूसरा नहीं ..

Rakesh Singh - राकेश सिंह said...

अब तक जो (अल्प) भी रामचरित मानस को पढ़ा, पाठ किया या सुना है उससे मैं एक निष्कर्ष पे पहुंचता हूँ कि वेद-उपनिषद् में जो गूढ़ श्लोक हैं उसका सुन्दर ढंग से सरलीकरण गोस्वामी जी ने किया है.

कई ग्रंथों में कलि काल में इश्वर के मार्ग के लिए नाम जप को प्रमुखता दी गई है. भगवत गीता में भी भगवन कृष्ण ने कहा -
"सर्वधर्मान परित्यज मामेकं शरण व्रज , अहं त्वां सर्व पापेव्यो मोक्षयिस्हमी मा सुचः "

गोस्वामी जी ने कहा - "नहीं कलि कर्म ना धर्म विवेकू, राम नाम अवलंबन एकु"

जय शंकर said...

dekhkar man bada prasanna hua ki chaliye koi to hai jo tulsi das ji ko bhee apne blog par sthan deta hai. varna aaj ki duniya mein to jise dekhiye unhen gariyata phir raha hai ki tulsi naaree jati ke virodhee the, daliton ke virodhee the ityadi ityadi.