जब भी कभी हममे से कोई
जो दूर हुआ करते थे उससे
बात बेबात अक्सर
कैसे दलकती थी छाती
भरभराई रहती थी आँखें
माँ की...
पका देती भले वो हर रसोई
सब ही के रूचि की,
पर उस पल जो न वहां मौजूद होता
कहाँ वह चीज उसके
कंठ उतरा था
कभी भी...
हरेक आहट पर मन और कान पातें,
बेचैन फिरती
कि जब तक लौटकर हम
पास उसके आ न जाते.
हमारी गलतियों पर जो सदा
बनती थी चंडी
हमारे हित रही हर सांस
वह मन्नत मानती..
बिना मतलब की ठहरा कर
सदा उसके डरों को
थे कितना हम सभी
खिल्ली उड़ाते ..
जो पहरों कथा प्रवचनों में
रहती मन रमाये
सुना करती थी
दुःख के मूल कारण,
कहाँ थी क्षण को भी उस मोह से
वह मुक्ति पाती.
थी कच्ची बुद्धि मेरी और
किताबी समझ भी थी
तभी तो उसका जीवन
निरा विषादमय लगा था...
जहाँ बलिदान स्व का और
केवल दुःख ही दुःख था
जहाँ न लक्ष्य या
कोई दिशा थी..
लिया संकल्प न उस सा बनूंगी
जो कारण है दुखों का दुर्गति का
प्रबल माया से मैं निसदिन बचूंगी
सजग निर्लिप्त रह है कर्म करना
सिखाया ग्रंथों ने ज्यों यूँ जिउंगी..
पर क्षण में यह क्या हो गया.
वह जैसे ही मेरे वक्ष से लगा..
सोता जो फूटा वह अंतस
जाने कहाँ छुपा था अबतक
बहा अभीतक का सब संचित
सोच समझ सारा संकल्पित .
आलौकिक थी वह अनुभूति
हाथ लगे ज्यों सर्व विभूति.
उसने मुझको पूर्ण कर दिया
नव चिंतन युगबोध दे दिया..
उसकी सम्पूर्ण चेष्टाओं में
गुंथे प्राण ध्यान जग सिमटा
कहूँ क्या बाल चेष्टाओं की
मुझमे अलौकिक सुख जो भरा
उर जो उपजा भाव अनोखा
जड़ चेतन हित करुणा छलका .
मेरा जो भी ऋण है उसपर
तुच्छ बड़ा उसका जो मुझपर
ममता बरसी मेरी असंख्य पर
उसकी तो "माँ ", मैं थी केवल...
बुद्धि विवेक संकल्प या साहस
वह अपार मुझसे वृहत्तर
शंका नहीं तनिक भी यह कि
हारेगा वह जीवन पथ पर
मगर विलग जब भी होता है
मन क्यों ऐसे बिसुरा करता है ?
कलप कलप कर जी क्यों पूछे -
मेरा लाल, कुशल से तो है..?
खाया है न ठीक ठाक से ?
चिंता कोई तुझे तो न है ?
जब भी ध्यान चढ़े वह क्षण कि
कैसे वह है गोद दुबकता
जब भी रोग कोई है ग्रसता
दिए सहारा एक दूजे को
सदा ही काटा कठिन घड़ी को
आये ऐसा कोई क्षण जो
हम कैसे काटेंगे विलग हो .
लाख मनालूं ,लाख सम्हालूं
तर्कों से मन को बहलाऊं
फिर भी भर भर आयें आँखें ..
जैसे माँ की भर आती थी..
.............................
40 comments:
सुन्दर भाव संग्रह्।
लाख मनालूं ,लाख सम्हालूं
तर्कों से मन को बहलाऊं
भींग भींग आती हैं आँखें ..
जैसे माँ की भर आती थी..
बहुत सुन्दर रचना .
मान के मन के भाव तभी महसूस होते हैं जब स्वयं माँ बन एहसास होता है ... सुन्दर प्रस्तुति
माँ तुझे सलाम ...
गहन भावों की अभिव्यक्ति बधाई ....
माँ ---
माँ के भावों का गाढ़ापन आपकी कविता से समझने को मिला।
maa to bas maa hai..#
behad bhavpurn panktiyan.
रंजू बहिन!
एक फुल सर्किल है यह कविता माँ से माँ तक और एक अनवरत यात्रा.. माँ जब कहा करती थी कि जब तुम लोग माँ-बाप बनोगे तब समझोगे.. और सचमुच तभी समझ आया...
बहुत ही संवेदनशील कविता है!!
आशीष!!
माँ के बारे में जितना भी लिखो लगता है कुछ नहीं लिखा।
मां की आत्मा स्वरूपा है पुत्रियाँ
jab ham bacche the to aap jaisi soch hamari bhi thi aur tab maa kehti thi 'jb maa banogi tab samjhogi' aaj vahi sab samajh rahe hain....aapki post ne bahut kuchh yad dila diya...kuchh dil me utar gaya.
bhaavpoorn abhivyakti.
बहुत सुन्दर प्रस्तुति!
राम-राम!
इस कविता को वर्तुल कविता कहें तो सही ही होगा। यह नियति चक्र चलता रहता है। लोग मां की ममता में पलते हैं बढ़ते हैं और बड़े हो कर अपना ममत्व लुटाते हैं। कविता भावप्रधान है और अपनी आत्मीयता से बांध कर रखती है। लंबी होने पर भी इसमें निहित माधुर्य, यथार्थ और संवेदना पाठक को अपने से दूर नहीं होने देती, बिल्कुल मां के प्रेम-सा।
रंजना जी,
आपकी की कविता ममत्व से ओत-प्रोत है। मैं आपकी अनुभूतियों एवं अनुभवों को काव्यरूप में साकार होते देख रहा हूँ। मां का महत्त्व क्या होता है, यह सभी नहीं समझते हैं, जो समझते हैं वे ठीक से समझते हैं। फरवरी में मैंने भी माँ पर एक आत्मकथ्य पोस्ट किया था। एक और संयोग है कि आपने माँ पर केन्द्रित यह कविता ऐसे दिन पोस्ट की है जिस दिन मातृनवमी है। श्राद्धपक्ष की अष्टमी को माताएं जीवितपुत्रिका व्रत रखती हैं जो पूर्णतया पुत्र के कल्याण के निमित्त होता है। अगले दिन यानी नवमी को दिवंगत मातृपूर्वजाओं का ससम्मान श्राद्ध किया जाता है। यह पर्व उत्तरप्रदेश के मध्य एवं पूर्वी भाग से लेकर बिहार बंगाल तक में मनाया जाता है।
कविता में एक माँ का सनातनी वात्सल्य स्वतः निर्झरित होता सा लगता है।
बुद्धि विवेक संकल्प या साहस
आज अपार वह मुझसे वृहत्तर
शंका नहीं तनिक भी यह कि
हारेगा वह जीवन पथ पर
मगर विलग जब भी होता है
मन क्यों ऐसे बिसुरा करता है ?
कलप कलप कर जी क्यों पूछे -
मेरा लाल तू कुशल से तो है..?
बहुत सुन्दर रचना,
ममता से भरपूर , माँ को कई अर्थ देती कविता बधाई
बीच बीच में बदलती लय ने भावों का यथेष्ट आकार भी लिया। सुंदर।
पढ़कर अच्चा लगा। आभार!
बस पढा नहीं फील भी किया इसे !
dil ko chhoo liyaa aapki rachna ne
pure ehsaas prabhawshali lage ...
बहुत सुन्दर हृदयस्पर्शी भावाभिव्यक्ति....
बहुत सुन्दर कविता.
माँ के मन का एहसास दिलाती हर पंक्ति.
माँ की ममता का दस्तावेज़ है ये ... बहुत ही दिलार भरे .. छलकते हुवे शब्दों से लिखा है आपने इस रचना को ... माँ सच में ऐसी हो होती है ...
माँ का सुन्दर स्वरूप बेहद खूबसूरत तरीके से ब्यान हुआ है इस रचना में ..बेहतरीन अभिव्यक्ति
माँ की ममता ही उसे सर्वोच्च स्थान दिलाती है . ना जाने कितने कष्टों को झेलते हुए हमारे होठो को मुस्कान देती है .अप्रतिम भाव लिए सुँदर पंक्तियाँ .
मन को छूते शब्द ...निशब्द करती रचना .....
माँ याद आ गयी और अपने मातृत्व का बोध भी हो गया। बहुत बढिया।
बहुत ही सुन्दर कविता
एक-एक शब्द दिल को छू गया.
आपकी कविता अच्छी लगी । मां की ममता का सही विश्लेषण मन को आंदोलित कर गया । समय मिले तो मेरे पोस्ट पर भी आकर मेरा मनोबल बढ़ाएं । धन्यवाद ।
यह कविता अन्दर उतरती है, मन की सींचती है।
उसकी सम्पूर्ण चेष्टाओं में
गुंथे प्राण ध्यान जग सिमटा
कहूँ क्या बाल चेष्टाओं की
मुझमे अलौकिक सुख जो भरा
उर जो उपजा भाव अनोखा
जड़ चेतन हित करुणा छलका
वात्सल्य की कोमल भावनाओं की बहुत ही सुंदर अभिव्यक्ति ।
यह रचना बहुत अच्छी लगी।
फिर भी भर भर आयें आँखें ..
जैसे माँ की भर आती थी..
मन भावों को शब्द बनाकर बाहर निकलने का इससे बेहतर और कोई साधन नहीं है ..प्रभु सदा आशीर्वाद बनाये रखे
♥
आपको सपरिवार
नवरात्रि पर्व की बधाई और शुभकामनाएं-मंगलकामनाएं !
-राजेन्द्र स्वर्णकार
.
बहुत मन को छू लेने वाले भाव हैं आपकी रचना में …
आभार और बधाई !
भाषा, भावों और अनुभूतियों को जिन शब्दों में चित्रित किया है, यह शब्द-चयन ही सबसे कठिन कार्य होता है.आप सफल रहीं, बधाई.
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pranam.
सत्य वचन - माँ का मन कोई और कैसे समझ पायेगा!
बहुत सुन्दर अभिव्यक्ति| धन्यवाद|
माँ तो माँ होती है ....बहुत ही हृदयस्पर्शी प्रस्तुति
आप सब को विजयदशमी पर्व शुभ एवं मंगलमय हो।
विजया दशमी की हार्दिक शुभकामनाएं। बुराई पर अच्छाई की विजय का प्रतीक यह पर्व, सभी के जीवन में संपूर्णता लाये, यही प्रार्थना है परमपिता परमेश्वर से।
नवीन सी. चतुर्वेदी
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