4.10.08

बुल्कीवाली (भाग - २)

देखते देखते साढ़े चार महीना निकल गया. बुल्कीवाली ने काम में कोई ढिलाई नही की थी, पर हर दिन के साथ उसकी बेचैनी भी बढ़ती जा रही थी. मन प्रान तो उसका वहीँ अटका पड़ा था न..मालिक जब आए थे तो उन्होंने सब कुसल छेम ही बताया था पर कल बड़का की चिठ्ठी आई कि पारी (भैंस की बच्ची) ने न जाने क्या खा लिया था कि उसका पेट फूल गया और दस्त करते करते वह मर गई.इससे भैंसी बगद गई है,ठीक से दूध नही देती.उसका घर द्वार सब बिलट (बरबाद) रहा है उसके बिना,जल्दी वापस आ जाए..जार जार रोई बुल्कीवाली.पर इससे क्या होता.अनुराधा के जाकर गोड़ छान लिया.गिड़गिडाकर अरज किया कि अब तो सब ठीक ठाक निपट गया है,उसे गाँव भेज दिया जाए.पहले भी कई बार इस प्रस्ताव को ठुकरा चुकी अनुराधा ने जब देखा कि अब कोई उपाय नही इसे रोकने का तो फ़िर एक दूसरा दांव फेंका. छोटका को अब तक बच्चों ने हिन्दी में अ आ से ज्ञ तक और ऐ बी सी डी ज़ेड, तक सिखा दिया था.उसे पढने में इतना मन लगता था कि एक बार बता देने पर ही झट से सीख लेता था.तो अनुराधा ने इसी का चारा फेंका और समझाने लगी कि यहाँ रहकर उसका बेटा किस तरह आदमी बन रहा है. गाँव जाकर फ़िर से रार मुसहर जैसा रहेगा.यहाँ रह पढ़ लिख लेगा तो जिंदगी बन जायेगी..बच्चों से भी तो इतना घुल मिल गया है कि बच्चे उसके बिना अब कैसे रह पाएंगे.सो यदि बुलकीवाली जाना चाहती है तो जाए, पर छोटका को यहीं छोड़ जाए.उसने जो उसके लिए एक सगी माँ से भी बढ़कर करतब किया है तो उसका इतना तो फर्ज बनता ही है कि वह भी उसके बेटे को आदमी बनाने में उसकी मदद करे.

छोटका के सुनहरे भविष्य का इतना सुंदर नक्सा अनुराधा ने खींचकर बुल्कीवाली को दिखाया कि उसे भी लगने लगा सचमुच यहाँ रहने में छोटका का कितना बड़ा हित है.पर ममता और कर्तब्य में जंग छिड़ गई. ममता इतने छोटे बच्चे को अपने से अलग करने को प्रस्तुत नही थी तो कर्तब्य कहता था कि बच्चे के भविष्य से बढ़कर और कुछ भी नही.लेकिन जब छोटका भी बम्बई में ही रहने को मचल उठा तो हारकर बुल्कीवाली ने भारी मन से उसे यहाँ छोड़ने का फ़ैसला कर लिया.अनुराधा ने यह वचन दिया कि छः महीने के भीतर ही वह छोटका को लेकर गाँव आएगी और उसकी खैर ख़बर बराबर भेजती रहेगी .

जोश में छोटका ने यहाँ रहने की हाँ तो कर दी थी पर, माई के जाने के बाद से हर बात पर उसकी रोवाई छूटने लगी..आज तक कभी अपनी माई के बिना वह रहा न था.बिना माई की छाती में चिपटे उसे नींद ही नही आती थी.उसपर भी जब यहाँ बच्चों को अपनी माँ से चिपटे देखता तो उसका करेजा फटने लगता था..दो तीन दिन तक तो रोने धोने पर अनुराधा ने उसे पुचकारा ,पर बाद में यह डांट और फ़िर मार में तब्दील हो गया.


यूँ तो बुल्कीवाली के वापस जाने के पहले ही एक बाई काम पर रख ली गई थी जो सुबह सात से शाम सात बजे तक डेढ़ हजार की पगार पर रहने को राजी हुई थी.पर कहाँ बुल्कीवाली का काम और कहाँ उसका काम.कहीं कोई तुलना ही न थी. एक गोद की बच्ची, दो छोटे स्कूल जाने वाले बच्चे और समय पर दफ्तर जाने वाले पति, इन सब की जिम्मेदारियों ने अनुराधा का हाल बेहाल कर रखा था.उसपर से सप्ताह दस दिन में बिना बताये बाई का नागा मारना , इन सब ने अनुराधा का जो हाल किया सो किया , छोटका का बुरा हाल जरूर कर दिया था. बाइयों के नखरों से ऊब कर अनुराधा ने चार महीने बाद बाई रखना ही बंद कर दिया और उस छोटे से बालक पर जिम्मेवारियों का पहाड़ लाद दिया .सुबह अंधेरे जो धकिया कर उसे उठा दिया जाता सो रात के एक डेढ़ बजे तक खटते खटते उसका कचूमर निकल जाता. तिसपर हड़बड़ी में अगर कुछ गड़बड़ हो जाता, काम पूरा न होता या कुछ टूट फूट जाता तो उसके लिए एक से बढ़कर एक कठोर दंड विधान थे.जितना काम उस छोटे से बालक पर लादा गया था, बम्बई की दो बाई भी मिलकर नही निपटा सकती थी.पर इस बात का विचार कौन रखता. ईश्वर भी शायद जानबूझकर गरीब के बच्चों में वह शारीरिक और मानसिक क्षमता भरते हैं कि वह बित्ते भर का भी हो तो अमीर के सुख सुविधाओं में पल रहे बच्चे से हजार गुना अधिक जीवट होता है, तभी तो इतना सहकर भी जीता रहता है.


थके हारे महेस बाबू जैसे ही दफ्तर से आते कि अनुराधा छोटका के तथाकथित निकम्मेपन और गलतियों की कहानियो का पिटारा लेकर बैठ जाती और अक्सर ही यह होता कि लगे हाथ छोटका की तगडी धुनाई हो जाती। घर के हर सदस्य के लिए अपनी किसी भी तनाव का भडास निकलने के लिए चौबीस घंटे के लिए यह बालक उबलब्ध था. घर में हो रही हर गडबडी का जिम्मेवार वही ठहराया जाता था. सजा देकर उसे सुधारने के लिए नित नए दंड विधान बनते थे, जिसमे मार पीट के अलावे खाना पीना बंद करना से लेकर चिलचिलाती धूप में नंगे बदन नंगे पाँव खड़ा करना , देह पर गरम या बर्फ का पानी डाल देना इत्यादि इत्यादि भांति भांति के दंड निर्धारित किए जाते थे. पढ़ना लिखा, टी वी देखना या अन्य मनोरंजन तो सपना हो गया था .गाँव में तो कम से कम इतना था कि पिटने पर माई के आँचल में या भाई के गोदी में उसको जगह मिल जाती थी,यहाँ ममता नाम का कुछ भी नही बचा था. सूखकर हड्डियों का ढांचा भर रह गया था वह. पर तीन बच्चों की माता अनुराधा के मन में वह बालक रंचमात्र ममत्व नही उपजा पाता था. इन सबके बीच उसके मन की स्थिति का वर्णन शब्दों में कर पाना असंभव है.

इधर चौबीसों घंटे में से शायद ही कोई पहर होता जब छोटका की आँखें सूखी होती और उधर बुल्कीवाली का करेजा दरकता रहता. बेटे की खोज ख़बर जानने का मालिक के अलावे और कोई साधन नही था.. छः महीने में आने की बात को दो बरस हो गया था. जब मालिक मलिकाइन से पूछती तो वो अगले महीने अनुराधा बिटिया के आने की बात कहते . उसका बेटा वहां कितने ठाठ से रह रहा है, इसके किस्से सुनाते.. इधर तो ज्यादा पूछताछ करने पर अक्सर ही गालियों की सौगात भी मिलने लगी थी उसे. पर इस से वह अपने बेटे के बारे में पूछना थोड़े ही न छोड़ देती. बीतते दिनों के साथ उसका मन चिंता और आशंका की गहरी खाई में धंसता जा रहा था. .


एक बार अधीर होकर मालिक मलिकाइन के सामने जिद लगाकर बैठ गई कि उसे अनुराधा बिटिया का बम्बई का पता दे दें ,वह बड़का के साथ पूछते पाछते वहां चली जायेगी और एक नजर अपने लाल को देख आएगी. जब उन्होंने देखा यह टस से मस नही हो रही तो हजार रुपये और जल्दी आने की तसल्ली देकर यह कहकर उसे निपटा दिया इतने बड़े सहर में वह भुला जायेगी,जिनगी भर भटकती रहेगी तो भी उसके घर नही पहुँच पायेगी.और इसबार एकदम पक्का है अगले महीने बीस तरीक को अनुराधा का सपरिवार मय छोटका, यहाँ आना तय है. टिकट तक कट चुका है.कल ही तार से इस बात की ख़बर आई है. इस तरह एक बार फ़िर उन्होंने उसे टाल दिया. .


यह सब हुए बीस बाईस दिन भी नही हुआ था कि एक दिन अधरतिया में किसी ने केवाड़ी(दरवाजा) का जिंजिर खटखटाया....केवाड़ी खोला तो एकदम से भौंचक्क रह गई.सामने छोटका था,जो दरवाजा खुलते ही माँ से लिपटकर फूटकर रोने लगा.उसकी आवाज के दर्द ने बुल्कीवाली का करेजा फाड़ दिया. बेटे के बिना कुछ कहे बताये ही एक पल में उसने बेटे की पूरी पीड़ा गाथा सुन गुन ली. बुल्कीवाली बाबू रे बाबू कह दहाडें मारकर विलाप करने लगी.शोरगुल सुन बडका भी उठकर आ गया था और हतप्रभ सा सबकुछ समझने की कोशिश करने लगा.जल्दी से ढिबरी बार लाया.तभी उस आदमी ने बड़का को घर के अन्दर घसीटते हुए ताकीद की कि जल्दी से अपनी माई और छोटका को चुप कराओ नही तो अनर्थ हो जाएगा.किसीके कानोकान ख़बर हो गई तो हम सबलोग जान से जायेंगे....छोटका हमरे साथ बम्बई से भागकर आया है. बड़का सारा माजरा समझ गया और माँ के मुंह पर हाथ रखकर मुंह दबाये छोटका को भी चुप रहने की हिदायत देता हुआ उन्दोनो को घर में अन्दर खींच जल्दी से जिंजिर लगा लिया. बड़का को बड़ी मेहनत करनी पड़ी माई और छोटका को चुप कराने में. थोड़ा चेत हुआ तो बुल्कीवाली ने देखा बड़का उस आदमी के साथ बैठा बतिया रहा है.अभीतक बुल्कीवाली को होश नही था कि वह ध्यान करे कि छोटका के साथ दूसरा आदमी कौन है.ध्यान से देखा तो पहचान गई,वह मुसहरटोली का रामरतन था,जो पाँच बरस पहले बम्बई चला गया था और वहीँ रिक्सा चलाता था. और बखत होता तो मुसहर को घर में देख घर अपवित्तर होने का ध्यान आता,पर आज उसे वह मुसहर साक्षात भगवान् नजर आ रहा था. उसके पैरों पर वह गिर गई. रामरतन एकदम घबरा गया.....हड़बड़ाकर खड़ा हो गया....अरे भौजी ई का कर रही हो कहकर पीछे हट गया. रामरतन भी भावुक हो गया,बोला....अरे भौजी जैसे यह तुमरा बेटवा वैसे ही हमरा भी है न......उ त कहो कि संजोग से एक दिन बाजार में हमरा ई भेट गया और जब एकर दुःख हम देखा तो हमरा कलेजा दरक गया.हम बीच बीच में एकरा से भेंट करते रहते थे और जब लगा कि बचवा मर जाएगा तो हम चुप्पेचाप एकरा लेकर इहाँ भाग आए....अब धीरज धरो, मुदा मालिक को पता चले ई से पहले जल्दी से एकरा इहाँ से कहीं बाहर भेज दो.हम भी निकलते हैं,नही तो मालिक के पता लग जाएगा तो हमरा खाल खिंचवा देंगे. भावना का उद्वेग कुछ शांत हुआ तो आतंक का अन्धकार माथा सुन्न करने लगा. हाथ पाँव फूलने लगा .सूझ नही रहा था कि क्या किया जाए.


रामरतन ने ही रास्ता सुझाया कि बड़का छोटका को लेकर कहीं किसी दूर के रिश्तेदार के यहाँ रख आए साल छः महीने के लिए....बड़का ख़ुद भी कुछ दिनों के लिए गाँव से बाहर रहे और यहाँ छोटका के बम्बई से भाग जाने की बात खुले भी तो बुल्कीवाली उन्ही लोगों पर चढ़ बैठे कि उनके जिम्मे पर जब उसने बेटे को छोड़ा था तो अब वे ही उसका बच्चा लाकर उसे वापस दें.समय बीत जाएगा,सब शांत हो जाएगा तो फ़िर छोटका को यहाँ बुलाकर कह दिया जाएगा कि रास्ता भटक कर कहीं चला गया था और अब इतने दिन बाद भटकते हुए वापस गाँव पहुँचा है.अब इतने दिन तक तो अनुराधा बिटिया बिना किसी नौकर के रहेंगी नही अपना कुछ इंतजाम का ही लेगी तो फ़िर छोटका को फ़िर से जाने का बावेला नही रहेगा.ई सारा बखेडा इसलिए है कि बम्बई में सस्ता घरेलू नौकर मिलना बड़ा ही मुश्किल होता है सो एक बार कोई अगर इनलोगों के चक्कर में फंस गया तो उसकी जान नही छोड़ते हैं.
रामरतन उस समय उनके लिए भगवान् बनकर आया था.उसकी सलाह के मुताबिक तुंरत अमल हुआ.वैसे बुल्कीवाली का बस चलता तो छोटका को अपने कलेजे में ही छुपाकर रख लेती.पर समय की नजाकत वो जानती थी और बेटे को एक बार फ़िर अपने से दूर भेजने में ही भलाई थी. उस समय बुल्कीवाली के मन में जितनी व्यथा थी उतना ही रोष भी था.जिस मालिक की रक्षा में उसके पति ने अपनी जान गंवाई,उसका घर उजाड़ गया,आजतक ऐसा कोई समय नही आया था जबकि वह तन मन से मालिक की सेवा में जान लगाने से पीछे ती थी और उन्ही लोगों ने उसके साथ इतना बड़ा छल किया,उसके फूल से बच्चे की जान लेने में कोई कसर न छोड़ी....बस चलता तो जिसने उसके बच्चे की यह हालत की , आज फ़िर से गंडासा ले उन सबका वही हाल करती जो उसने उस डाकू का किया था.पर आज वह विवश थी.वह जानती थी कल जिसके लिए उसने हथियार उठाया था उनकी शक्ती भी उसके साथ थी पर आज तो वही शक्ति उसके सामने खड़ी थी.


घटना के आठवें दिन बम्बई से छोटका के फरारी की ख़बर के साथ अनुराधा और महेश बाबू सपरिवार पहुँच गए.छोटका की फरारी की ख़बर देने नही बल्कि दूसरे नौकर का इंतजाम करने. फरारी की बात अनुराधा के लिए भले केवल क्षोभ का विषय था ,पर चौधरी साहब सपरिवार जरूर चिंतित हुए कि बुल्कीवाली का सामना वो कैसे करेंगे.उसे क्या जवाब देंगे.दो दिन तक सब चुप चाप रहा.बुल्कीवाली को अनुराधा के आने की ख़बर नही दी गई.तीसरे दिन सबने यह निर्णय लिया कि बुल्कीवाली को ख़बर कर ही दी जाए. चौधरी साहब ने भीमा को बुल्कीवाली को बुला लाने भेजा.पर भीमा ने आकर बताया कि परसों से ही बुलकी वाली घर में नही है उसकी गोतनी ने बताया कि अनुराधा बिटिया के आने की ख़बर उसे पता है.जब बिटिया दरवाजे पर उतर रही थी तो उसने देखा था और जाकर बुल्कीवाली को बताया था इस बारे में, पर बुलकी वाली उसके बाद घर बंद करके बिना किसी को कुछ कहे पाता नही कहाँ चली गई..


अब तक जो चौधरी साहब के मन पर जवाबदेही का बोझ था ,वहां संदेह ने आकर कब्जा जमा लिया.यह तो सहज बात न थी. बेटे के लिए जो अबतक रोज आकर जान खाती थी,वह अनुराधा के आने की सुनकर भी बेटे के लिए पूछने न आए बल्कि बिना मिले गाँव से बाहर चली जाए,इसमे जरूर दाल में कुछ काला था. बात चली नही कि माहौल ही बदल गया.तुरत फुरत लोगों को पता लगाने के काम पर लगा दिया गया.अगले ही दिन बात निकल कर आई कि किसी ने दस दिन पहले भोरहरवे बड़का छोटका दोनों को एक साथ बस में बैठे देखा था.उस दिन के बाद से बड़का भी गाँव वापस नही आया है.बात खुलनी थी कि सभा लग गई घर में. कोई कुछ कहता कोई कुछ. सर्व सम्मति से यही राय निकली कि, हो न हो छोटका को बम्बई से भगाने में तीनो माँ बेटा का मिली भगत है.राय करके ही सब किया गया है. जिस बुल्कीवाली का रोम रोम मालिक के दिए से संचालित है,उसी बुल्कीवाली ने मालिक के साथ कितनी बड़ी दगाबाजी की है.जिनती मुंह उतनी बातें...चौधरी साहब की क्रोधाग्नि को भड़काने से कोई पीछे नही रहना चाहता था. शुभचिंतकों में कम्पीटीसन लगा था.अनुराधा अलग रोये जा रही थी कि जिस लड़के को उसने अपने बच्चे से भी बढ़कर रखा वह कितना बड़ा हरामखोर निकला,उसके सर इतना बड़ा कलंक लगाकर भाग निकला.अब भला कोई विस्वास करेगा कि उसे वहां कोई दुःख नही था.रार और साँप को कितना भी दूध पिलाओ, वह पोसियाँ नही मानता..यह चौधरी साहब के मान रुतबा को सीधे चुनौती थी,उनका खून खौल रहा था..उन्होंने अपने लोगों को आदेश दिया कि फौरन तीनो को खोजकर अगर पाताल में भी छुपे हैं तो निकालकर लाया जाए


खोज बीन शुरू हुई तो सबसे पहले बड़का पकड़ाया भठ्ठा पर से.बड़का को रासा से बांधकर जीप पर लाद कर ले जाया गया..इधर लोग निकले और उधर बड़का के एक संगी ने जाकर बुल्कीवाली को यह ख़बर पहुंचाई. बुल्कीवाली का तो परान ही सूख गया. अपने जीते जी मालिक के कोप का परहार अकेले अपने उस कोखजाये को कैसे सहने देती. पति पहले ही जान से हाथ धो बैठा था..एक फूल सा बेटा ऐसे ही जुलुम सहकर मरने मरने को था और अब अपने इस निरदोस बेटे को कैसे आग में झोंक देने दे अपना जान..सो जैसे थी वैसे ही बदहवास भागी गाँव की ओर..


बेसुध सी जब मालिक के खलिहान में पहुँची तो एक छन को उसकी साँस ही रुक गई. खलिहान के बीच में धूल धूसरित उसका बेटा खूनमखून बेहोस पड़ा था. . एक पल को तो बुलकी वाली के माथा पर वैसी ही काली मैया सवार हुई जैसी पति को गोली खाकर तड़पते देख हुई थी...उसे लगा अभी इसी बखत गंडासे से उन सब कसाइयों को खूनमखून कर दे जिसने उसके बेटे का यह हाल किया था.पर हाय रे किस्मत... उस दिन तो एक डाकू था मुदा आज तो पूरा गाँव ही डाकू कसाई बनकर इनको घेरे खड़ा था..बेटे से लिपट कर दहाडें मार विलाप करने लगी. उसके रुदन ने चौधरी साहब के गुस्से को और भड़का दिया.एक तो चोरी ,ऊपर से सीनाजोरी. गालियों की बौछाड़ के साथ ताबड़तोड़ उसपर लात और बेंत से प्रहार करना शुरू कर दिया.कुछ लोग निरघिन गालियों के साथ चौधरी साहब के हौसला अफजाई में लगे थे तो कुछ इस कृत से दुखी भी थे..पर उनको रोकने की औकात किसमे थी.पीड़ा से बिलबिलाते हुए बुलकी वाली ने भी एक दो गलियां दे दी.फ़िर क्या था लात घूसों के साथ झोंटा पकड़कर ऐसे घसीटा गया कि उसके देह पर एक भी वस्त्र नही बचा.भीड़ में से किसीको न लज्जा आई न हिम्मत हुई कि उसके उघड़े देह को ढांक दे. इधर बड़का को जो चेत हुआ और उसने यह हाल देखा तो जिसने अपने पिटते समय बिना जुबान खोले चुपचाप सारा मार खा लिया था,चिंघाडे मारते हुए मालिक के पैरों को छान कर गिड़गिडाने लगा.....माँ भाई को बक्सने की कीमत पर कसम खाते हुए वचन दिया कि इन दोनों को बक्स दिया जाए, वह चला जाएगा छोटका के बदले बम्बई और मालिक का हर हुकुम मानेगा..


अनुराधा और उसके पति जो इस पूरे क्रम में रणविजय बाबू के क्रोधाग्नि के मुख्य संवाहक और पोषक रहे थे,ने जैसे ही यह प्रस्ताव सुना,उनकी तो बांछें खिल गई. मामला तो बहुत ही फायदे का रहा था. कहाँ वह मरियल छोटा सा छोटका और कहाँ यह हृष्ट पुष्ट किशोर .एक पल में सारा हिसाब लगा लिया कि अपने पुष्ट शरीर के साथ एक साथ ड्राइवर ,रसोइया , माली और न जाने कितने ही तरह का काम यह कर सकता है..बस फ़िर क्या था, तुंरत ही वहां का परिदृश्य बदल गया. अनुराधा दोनों पति पत्नी, माँ बेटे की रक्षा को आगे बढे. .महेश बाबू ने ससुर का हाथ पकड़ अलग किया और अनुराधा बुल्कीवाली को सम्हालने में लग गई..इन दोनों को बचाव में लगे देख वो लोग जो अन्दर ही अन्दर बुल्कीवाली की दुर्दशा से अपार आहत थे, सहायता को आगे बढे..


मार पीट के इस क्रम में बुल्कीवाली की वह बुलकी, जो कि जिस दिन से उसके नाक में चढी थी कभी उतरी न थी और सोने के नाम पर उसका एकमात्र गहना थी,वह भी कहीं गिरकर हेरा गया था.पर क्या यह एक बुलकी भर था ? यह जेवर नही उसका अहम्,उसकी पहचान थी,जो आज धूल में गुम हो चुकी थी... आज वह उस दिन से भी जादा आहत थी,बिखर गई थी, जिस दिन पहरुआ मरा था...............



( कथा के दीर्घ कलेवर और दुखांत के लिए पाठकों से क्षमाप्रार्थी हूँ. यदि यह मात्र कल्पित कथा होती,तो यह कथा ही न होने देती.)

20 comments:

Unknown said...

रंजना जी आपकी कहानी हृदय तक छू गयी । वैसे बुल्कीवाली भाग-१ मैंने तो पढ़ा नहीं था पर दूसरा भाग बहत ही अच्छा लगा । कहानी कुछ बड़ी जरूर थी पर लेखन बहुत ही सुन्दर प्रशंसनीय । वैसे हो सकता है कि आप की इस कहानी को कम ही लोग पढ़े पर आपने जो देशी शब्द का प्रयोग किया । वह आज कम ही देखने को मिलता है । बहुत- बहुत बधाई आपको । वैसे भी आज बलोगर समूह में कहानियां कम ही दिखती है । आपकी कल्पनाशीलता लाजवाब है ।

राज भाटिय़ा said...

मेने दोनो भाग पढे हे, कहानी अगर चार भागो मे होती तो ओर भी अच्छा था.
कहानी बहुत ही मर्मिक ओर सत्य के करीब है, मेरा मानाना है ऎसा ही होता है ओर होता होगा, गलती हम सब की है, हम क्यो अपने से ज्यादा या फ़िर किसी भी पेसे वाले को भगवान समझते हे, उस की चम्मचा गिरी करते है, जिसे सव वफ़ा दारी का नाम देते हे,
ओर सब को मिल कर उस गरीव का साथ देना चाहिये , लेकिन सभी अब भी मेने देखा हे जिस के पास पेसा हे लोग उस के आगे दुम हिल्लते हे ??? पता नही.
पता नही कब लोगो को अकल आयेगी,
यह कहानी पढ कर गुस्से के साथ साथ आंसु भी आ रहे थे,
धन्यवाद एक सुन्दर कहानी के लिये

Gyan Dutt Pandey said...

मुझे मालूम था कि यह कथा अन्तत: दुखी ही कर जायेगी।
फ्यूडालिटी (सामन्तशाही) में संवेदनहीनता है। और बहुत खराब लगती है वह।
और आप बहुत सशक्त लिखती हैं।

रंजू भाटिया said...

रंजना कहानी थी या यह एक कटु सत्य .आँखे नम कर गया ..बहुत ही पसंद आई .पर यह सही में चार किश्तों में होती तो इसको अधिक से अधिक लोग पढ़ पाते ..आपके लेखन में जादू है एक जो अंत तक बांधे रहता है ...

सतीश पंचम said...

बेहद रोचक और मार्मिक कथा। यह सामन्तशाही अब भी देखने में आती है विभिन्न रूप लेकर।

डॉ .अनुराग said...

मै जानता था ऐसा ही कुछ होगा ,हकीक़त इतनी मीठी नही होती ..कम से कम असली जिंदगी में .....सच कहूँ रंजना जी औरत बहुत कुछ सहती है हमारे देश में .....वाकई .....कुछ दिन पहले हंस के इस माह के अंक में एक सच्ची आपबीती पढ़कर रोंगटे खड़े हो गये थे .....
काश जिंदगी आसान होती !

Udan Tashtari said...

सच कह रही हो-दुखांत तो है किन्तु कल्पित कथा तो कतई नहीं दिखती. दुख और रोष दोनों एक साथ मन में आ गया कथा के अंत तक आते.
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ईश्वर भी शायद जानबूझकर गरीब के बच्चों में वह शारीरिक और मानसिक क्षमता भरते हैं कि वह बित्ते भर का भी हो तो अमीर के सुख सुविधाओं में पल रहे बच्चे से हजार गुना अधिक जीवट होता है, तभी तो इतना सहकर भी जीता रहता है.
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कितनी सही बात कही है तुम्हारे संवेदनशील मन ने. कितने जान पाते हैं इस बात को.

बहुत सुन्दर लेखन है और लिखो!!! शाबाश!!

Smart Indian said...

रंजना जी,
बहुत अच्छा लिखा है आपने. कहाँ तो हम लोग कहानी के पात्र से भी इतनी सहानुभूति रखते हैं कि उसका अहित नहीं पढ़ना चाहते हैं और दूसरी तरफ़ हममे से ही कुछ अपने छोटे-मोटे सुभीते और स्वार्थ के लिए ताउम्र खलनायकी करते हैं. नहीं भी करते हैं तो उसके प्रति उदासीन तो रहते ही हैं. मैंने समृद्ध, सुशिक्षित और अन्यथा भले दिखने वाले परिवारों को अपने गाँव और सजातीय बंधुओं पर इसी तरह गुलामी थोपते देखा है. कुछ वर्ष पहले यूरोप में एक भारतीय राजनयिक परिवार से पीछा छुडाकर भागने वाली बुरी तरह प्रताडित बंधुआ घरेलू मजदूर महिला की गाथा सुर्खियों में थी. अभी अमेरिका-प्रवासी बड़ी उम्र के अति-समृद्ध भारतीय दंपत्ति द्वारा दो पूर्व-एशियन महिलायों को गुलामों से भी बदतर हालत में रखने के लिए कड़ी सज़ा हुई है.

ऐसा विषय उठाने और हमारी आँखें खोलने के लिए आपको साधुवाद!

Dr. Ashok Kumar Mishra said...

bahut achcha likha hai aapney.

http://www.ashokvichar.blogspot.com

लावण्यम्` ~ अन्तर्मन्` said...

Behad sachchee katha marm ko choo gayee Ranjana ji

Ishwar ye sare Kukarm dekh ker kyun chup rehte hain ?

:-((((((

Anonymous said...

achchi kahaani hai
dhanywad

योगेन्द्र मौदगिल said...

achhi kahani
आपको बधाई

श्यामल सुमन said...

रंजना जी,

लम्बी कहानी के बाद भी मैं कहानी से बँध गया और पढता ही चला गया। जीवंत कहानी है। खासकर मिथिलांचल के आंचलिक शब्दों ने इसमें जान डाल दिया है।

"ज़माने में अमीर का दुःख अमीर का सुख सब बड़ा होता है,गरीब का कुछ भी अपना नही.जब अपना जीवन ही अपना नही तो फ़िर और क्या कहे.हर साँस पर मालिक का कब्जा है."

"ममता और कर्तव्य में जंग छिड गई"

आपके ब्लाग का नाम संवेदना का संसार आज सचमुच संवेदनशील लग रहा है। अनेकानेक बधाई और शुभकामनाएँ।

सादर
श्यामल सुमन
09955373288
मुश्किलों से भागने की अपनी फितरत है नहीं।
कोशिशें गर दिल से हो तो जल उठेगी खुद शमां।।
www.manoramsuman.blogspot.com

Shiv said...

संवेदना तो वैसे भी कभी नहीं रही ऐसे लोगों के मन में...कम से कम नीची जाति वालों के लिए तो कभी नहीं रही.
बहुत बढ़िया लगी कहानी...ये दुखद ही है कि चाहकर भी ऐसी कहानियों का सुखद अंत करना मुश्किल हो जाता है.

अभिन्न said...

कहानी बहुत लम्बी लगी जैसे ज़िन्दगी भी कई बार बहुत लम्बी लगने लग जाती है.सामंतवादी व्यवस्था का शिकार आम आदमी से भी परे की ज़िन्दगी काटने को मजबूर ,बुलकी को पढ़ कर मुंशी प्रेमचंद की कथाओं व उपन्यासों के अनेको पात्र दिमाग में बुलकी के साथ साथ जीवंत हों उठे हैं. इस स्तरीय लेखन के लिए बधाई की पात्रा हों आप

अभिन्न said...
This comment has been removed by the author.
Dr. Ashok Kumar Mishra said...

आपने बहुत अच्छा िलखा है । मैने अपने ब्लाग पर- सुरक्षा ही नहीं होगी तो कैसे नौकरी करेंगी मिहलाएं - िलखा है । इस मुद्दे पर आप अपनी प्रितिक्र्या देकर बहस को आगे बढा सकते हैं-

http://www.ashokvichar.blogspot.com

art said...

bahut marmik...aisi ek pehle kahani padhi thi.....akeli, uske soma bhua ke patra se milti -julti hai....dono hi kahaniyan mujhe bahut hi achhi lagti hai....

Shuaib said...

आपके दोनों भाग पढे बहुत मन को भाए, बधाई आपको।
http://shuaib.in/chittha

Manuj Mehta said...

ranjana ji vakiyee mein mujhe nahi pata chala ki kab itni lambi aur rochak kahani main padh gaya. kya pakad hai aapke shabdon mein. hinghly impressive, bahut khoob ranjana ji.