बुल्कीवाली ,यह उसका वह नाम नही था जो उसे जन्म के बाद माँ बाप से मिला था,पर अपना असली नाम उसे ख़ुद भी कहाँ याद था ।छुटपन में ही माँ ने नाक कान छिदवाने के साथ साथ दोनों नाक के बीच भी बुलकी (नाक के दोनों छेद के बीच पहनी जाने वाली नथ) पहनने के लिए छेद करवाकर सोने की एक बुलकी पहना दी थी. ससुराल आने के बाद भी यही बुलकी उसकी पहचान बनी और लोग उसे बुल्कीवाली के ही नाम से पहचानने और पुकारने लगे थे .जहाँ गाँव में बड़े घर की बहुएं भी फलां गाँव वाली,फलाने की माँ या फलाने की कनिया(पत्नी) के नाम से जानी और पुकारी जातीं थीं, वहां बुल्कीवाली का बुलकी से ही सही अपनी एक विशिष्ठ नाम और पहचान थी यह कोई छोटी बात न थी...इतना ही नही पूरे गाँव में और ख़ास करके चौधरी रणवीर सिंह के यहाँ उसकी ख़ास इज्जत थी.जो कुछ उसने किया था,वह कितने लोग करने की हिम्मत रखते हैं भला.उसका पति पहरुआ मालिक का खासमखास था.भले जात का ग्वाला था पर बहादुर इतना था कि मालिक ने उसे अपना खासमखास बना लिया था जो एक अंगरक्षक की तरह मालिक के सोने भर के समय के अलावा हरवक्त मालिक के साथ बना रहता था.
मालिक के बेटी के ब्याह के दस दिन पहले एक दुर्घटना घट गई। शाम के वक्त डाकुओं ने हमला बोल दिया. उस वक्त बूढों और मालिक को छोड़ घर के सभी मर्द शहर खरीदारी को गए हुए थे.यूँ घर के दरवाजे तो अन्दर से बंद कर लिए गए थे पर उनका मुखिया घर के पिछवाडे से घर की छत पर चढ़ने में कामयाब हो गया था॥मालिक भी बन्दूक लिए छत पर पहुँच गए थे,पर उनकी गोली हवा में रह गई और डाकू की गोली मालिक के पैर में लगी.मालिक तड़पकर जमीनपर गिरे और डाकू ने ताबड़तोड़ फायरिंग शुरू कर दी.लेकिन मालिक की ढाल बनकर पहरुआ ने सारी गोलियां अपने देह पर खा ली.घर के सारे लोग जहाँ चीख पुकार और रोने धोने में लगे थे,बुलकी वाली चुपके से कुट्टीकट्टा गंडासा लेकर छत पर चली गई और पीछे से पूरा जोर लगाकर डाकू के सर पर ऐसा गंडासा मारा कि एक ही वार में डाकू धरासायी हो गया.बुल्कीवाली के इस करतब ने पूरा माहौल ही बदल दिया और फ़िर तो किसी ने मालिक की बन्दूक उठायी , किसी ने ईंटा पत्थर तो किसी ने लाठी भाला और सबलोग मिलकर डाकुओं पर ऐसे बरसे कि आठ डाकुओं में से दो जान से गए और बाकी घायल होकर भागने के उपक्रम में थे कि गांववालों ने चारों ओर से उन्हें घेरकर पकड़ लिया और सारे डाकू पुलिस के हवाले कर दिए गए. पहरुआ जान से गया था पर दोनों पति पत्नी नायक हो गए थे.पहरुआ ने मालिक के लिए प्राण उत्सर्ग किया और बुल्कीवाली ने मालिक की जान बचाते हुए अपने पति के मौत का भी बदला ले लिया था.पहरुआ का अन्तिम संस्कार मालिक ने एक शहीद की तरह ही पूरे शान से कराया था और बुलकी वाली को दो कट्ठा जमीन,एक भैंस तथा हजार रुपया नकद दिया था.
जिस समय की यह घटना थी,बुल्कीवाली का बड़ा बेटा बड़का आठ बरस का और छोटा बेटा छोटका दुधमुहाँ गोदी में था।परिवार में अपना कहनेवाला और कोई नही था.गोतिया लोग पहरुआ के जिंदगी में ही अलग हो गए थे.पर बुल्कीवाली भी कम हिमती न थी.पाँच छः साल के भीतर मालिक के दिए दो कट्ठे और अपने पास पहले से दो कट्ठे जमीन को ही उस कमासुत(मेहनती) औरत ने सोना बना लिया था और एक जून खाने लायक मडुआ मकई का बंदोबस्त कर ही लेती थी. स्वाभिमानी बुल्कीवाली ने अपने किसी जरूरत के लिए बेर कुबेर में मालिक को छोड़ कभी किसीके आगे हाथ नही पसारा था॥मालिक की दी हुई एक भैंस से आज तीन भैंस और हो गई थी उसके पास.एक भैंस का दूध मालिक के यहाँ सलामी में देने के बाद भी उसके पास इतना बच जाता था कि अपने बच्चों के लिए पाव भर दूध और छाछ मट्ठा बचा ही लेती थी और बाकी के दूध बेच उपरौला खर्चा का इंतजाम कर लेती थी.
दुपहरिया में बुल्कीवाली आँगन में गोइठा (गोबर के उपले) थाप रही थी तभी भीमा मालिक की ख़बर लेकर आया कि उन्होंने उसे फौरन बुलाया है।पास की बाल्टी में हाथ धोकर साड़ी से हाथ पोछते हुए बुल्कीवाली मालिक के घर की ओर तेज कदमो से चल दी.पीछे पीछे आठ बरस का छोटका जो हरदम अपनी माँ से चिपका सा रहता था और उस वक्त भी माँ का साथ देता हुआ गोबर गींज गींज कर छोटे छोटे गोइठे थापने में लीन था,माँ के पीछे हो लिया.समय समय की बात है,बुल्कीवाली भले आज भी अपने को विशिष्ठ माने हुए है,पर बाकी लोग उसकी करनी को लगभग भूल से गए हैं.हाँ दो बातें जो वे नही भूले हैं वो ये कि ,उन्होंने कितना कुछ बुल्कीवाली को दिया था और दूसरी ये कि बुल्कीवाली सी कमासुत उनकी तमाम आसामियों में एक भी आसामी(जिन्हें जमींदार अपनी जमीन पर झोंपडा डाल रहने की इजाजत देते हैं) नही. उन्होंने बुल्कीवाली को जो धन मान दिया था,उसके बदले उसपर अपना विशेष हक समझते हैं . इसलिए आज भी जब कभी बेगार का काम करने वालों की जरूरत पड़ती है तो सबसे पहले कमासुत( मेहनतकश) बुल्कीवाली को ही याद किया जाता है.ऐसा नही है कि बुल्कीवाली यह सब समझती नही, पर रणविजय मालिक आज भी जो इज्जत उसे देते हैं,उसके आगे वह इन बातों को नही लगाती. यह क्या कम फक्र की बात है कि पूरे गाँव में रारिन(छोटी जाति वाली) होते हुए भी वही एक ऐसी औरत है,जो सीधे सीधे मालिक के कमरे तक जाकर मुंह उठाकर मालिक से बात कर पाने की अधिकारिणी है.
मालिक के पास पहुंचकर दूर से ही धरती छूकर प्रणाम कर बुल्कीवाली खड़ी हो गई।रणविजय बाबू कुछ चिंतित से अपने विचारों में लीन थे,सो उनका ध्यान इस ओर नही गया.भीमा ने इंगित करते हुए मालिक को आगाह किया कि मालिक बुल्कीवाली आ गई है॥रणविजय बाबू ने औपचारिक हाल चाल पूछा और फ़िर गंभीर मुद्रा में भूमिका बांधते हुए उस से कहा कि .... " तनिक परेशानी में हैं,तुम्हारी जरूरत है.अनुराधा बिटिया को तीसरा संतान होने वाला है,तबियत ठीक नही रहती सो उसने ख़बर भेजाया है कि बुल्कीवाली अगर दो तीन महीना भी आ कर घर सम्हाल दे तो जिनगी भर गुन गाएगी. "
बुल्कीवाली अजीब पसोपेस में फंस गई.....अब क्या कहे........आजतक उसने इस घर के किसी भी काम के लिए ना नही कहा था।और उसमे भी जब मालिक ख़ुद कह रहे हों तब तो इनकार का सवाल ही नही उठता था.पर आज जो स्थिति है उसमे वह एकदम से किन्कर्तबविमूढ़ हो गई. हाँ करे भी तो कैसे...अब अनुराधा बिटिया कोई भीरू (नजदीक) तो रहती नही कि जाकर उनका भी काम कर दें और समय निकाल अपना भी सब सम्हाल ले.कहते हैं रेलगाडी से जाओ तो भी बम्बई जाने में चार दिन लग जाते हैं.एक बार जाने का मतलब है, पूरा घेरा जाना॥ ..हकलाती रिरियाती मालिक से बोली..."मालिक ई त बड़ा ही खुसी का बात है कि अनुराधा बिटिया की गोद हरी हो रही है,मुआ हम का करें,एकदम ससरफांस में फंसे हुए हैं,अभी दस दिन पाहिले एगो भैंस बियाई है और दूसरी भी बीस पच्चीस दिन में बियाने वाली है,खेत में तरकारी लगा हुआ है.इसी बार लगाये और बढ़िया लग गया.उसका देख रेख जतन तनिक जादा ही करना पड़ रहा है. कुछ काम था, सो बड़का को भी भठ्ठा (ईंट भठ्ठा) मालिक अपना घर बुला लिए हैं महीना भर के लिए. वह आ भी जाए तो इतना सब अकेले नही देख सम्हाल सकता.उसके बियाह के लिए बरतुहार भी आने लगे हैं,उस से तो बड़का बात नही करेगा, और सबसे बढ़कर यह छोटका छौंडा (लड़का) भी हमें छोड़ एक पल को नही रहता.इसको किसके आसरे छोड़ कर कहीं बहार निकलें....अब आप ही मालिक हैं,सोचकर जैसा आदेस करेंगे, हम करेंगे."
कहने को तो कह गई इतना कुछ पर भय से उसका पूरा देह हरहरा रहा था और अपनी बेबसी भी करेजा छीले जा रही थी॥चौधरी साहब के लिए भी पहली बार था कि बुल्कीवाली ने उनकी बात काटी थी।यूँ भी एक औरत और वो भी रारिन उनकी बात काटे,यह बहुत भारी बात थी.आस पास खड़े लोग भी दंग रह गए थे.मालिक बुरी तरह लहर उठे.पर न जाने कैसे उन्होंने धैर्य धर लिया .....पर चेहरा एकदम कठोर हो गया और कड़कती आवाज में उन्होंने फ़ैसला सुना दिया....उन्होंने कहा...."हम तुमसे तुम्हारा राय नही मांगे हैं, अनुराधा बिटिया को जरूरत है और तुझे वहां जाना है बस....बड़का को बुला कर सब जिम्मा कर दे ,उसको कोई जरूरत होगी तो हम यहाँ देख लेंगे.....हाँ,छोटका को तू अपने साथ ले जा सकती है.....ज्यादा बकथोथर(मुंह लगना) न कर ,तैयारी कर ले, चार दिन बाद भीमा तुझे लेकर निकल जाएगा.सब कुसल मंगल हो जाए तो लौट आना,कोई नही रोकेगा तुझे..जचगी नजदीक होगी तो मैं और मलिकाइन भी वहां आयेंगे."
अब कुछ कहने सुनने को कहाँ कुछ बचा था।मचल रहे आंसुओं को घोंटते हुए मालिक को प्रणाम कर चुपचाप घर की ओर चल दी.ज़माने में अमीर का दुःख अमीर का सुख सब बड़ा होता है,गरीब का कुछ भी अपना नही.जब अपना जीवन ही अपना नही तो फ़िर और क्या कहे.हर साँस पर मालिक का कब्जा है.किस के क्या कहे.कौन समझेगा कि दरिद्र है तो क्या हुआ, छोटी ही सही पर,उसकी भी तो अपनी गृहस्थी है.उसके खेत उसकी पूंजी जायदाद है॥इसबार कमर कसकर उसने पास के खेत में तरकारी लगायी..खाद ,पटवन और देख रेख में पौधे लहलहा उठे. फूल बतिया ( छोटे फल) से लद गए थे.उसे उम्मीद थी कि इसबार वह इतना कमा लेगी कि अपनी जार जार चूती फूस की छत को बदलवाते हुए अपनी पुतोहु (बहू) के किए एक कच्ची कोठरी और जरूर बना लेगी. नही तो सास पुतोहू बेटा सब एके कोठरी में सोयें ,यह थोड़े न अच्छा लगता है.किस्मत ने साथ दिया तो इतना कमा लेगी कि दो रोटी के लिए बड़का को घर से दूर भठ्ठा पर जाकर न मरना खपना पड़े.पर इस गरीब के सपनो की कौन फिकर करे..पर सबसे बड़ी दुःख की बात ये कि ये भैंसें उसकी अपनी सगी बेटी से भी बढ़कर हैं,हमेशा से.अपनी कोठरी की छत भले चूती रहे पर भैंसों का छप्पर चूने की हालत में कभी न पहुँचने देती थी वो. .वे जानवर नही उसका अपना परिवार थे.सारे बच्चे उसके हाथ ही जन्मे थे और उसके हाथ का स्पर्श पा वे भैंसे अपना जनने का दुःख भी भूल जाती थीं.आज उनको टूअर (बेसहारा)छोड़कर जाने की सोच उसका कलेजा फटा जा रहा था..उनका सुख दुःख छोटका बड़का के सुख दुःख से छोटा नही था उसके लिए.
बम्बई पहुंचकर अपनी आदत के मुताबिक बुल्कीवाली जुट गई अपने काम में।काम करने में तो भूत वह हमेशा से रही थी॥गाँव में ही जब तीन जनों का काम वह अकेले कर लेती थी तो फ़िर यह शहर का काम उसके लिए कुछ भी नही था.यूँ तो अनुराधा के पति महेश बाबू ऊँचे पद पर ऊँची तनखाह पाने वाले बड़े भारी अफसर थे, पर उस महानगर में मंहगाई और घरेलु नौकरों के अभाव के साथ साथ उनका जो रेट और उनके नखरे थे,बड़े बड़े अफसरों की अफसरी इसमे निकल जाती थी.किसीकी औकात नही थी कि गाँवों की तरह नौकरों की फौज रख सके. अनुराधा इस सब से हरदम ही क्षुब्ध रहती थी.एक साथ मेहनती ,इमानदार और सस्ता नौकर पाना यहाँ असंभव था.यहाँ तो घंटे और गिनती के हिसाब से कामवालियों का रेट था.एक एक दाइयां पाँच पाँच , छः छः घरों में काम करती थी और अगर दिन रात चौबीस घंटे के लिए काम पर रखना हो तो चार पाँच घरों का पैसा एकसाथ जोड़कर चुकाना पड़ता था.तिसपर भी पीछे लगे रहो तो काम करें नही तो फांकी मार दें. लेकिन बेगार में आई बुल्कीवाली ने अनुराधा को ऐसे निश्चिंत कर दिया था कि इस महानगर में भी अनुराधा महारानी बन गई थी.मुंह खोलने से पहले हर काम हो जाता और किसको किस समय क्या चाहिए इसके लिए दुबारा उसे बताना चरियाना नही पड़ता था.अनुराधा तो बिस्तर से उतरना ही भूलने लगी.चूल्हा चौका ,सफाई, बर्तन से लेकर बच्चों की देखभाल और अनुराधा तथा बच्चों का तेलकुर(मालिश),सब ऐसे निपट जाता कि लगता किसी जिन्न ने आकर सबकुछ निपटा दिया हो.
शुभ शुभ करके ,अनुराधा बेटी की जचगी हो गई।इस बार घर में लछमी आई थीं. परिवार पूरा हो गया था.दो बेटे पर से एक बेटी॥छठ्ठी का खूब बड़ा आयोजन हुआ.गाँव से मालिक लोग भी आए थे.बुल्कीवाली को एक जोड़ा नया झक झक सफ़ेद साड़ी मिला और छोटका को भी नया बुसट पैंट. वैसे यहाँ आते ही छोटका और बुल्कीवाली दोनों को अनुराधा ने अपने तथा बच्चों के उतरन (पुराने कपड़े) से मालामाल कर दिया था.
बुल्कीवाली का मन ध्यान भले अपने बेटे और गाँव में छोड़ आए गृहस्थी में अटका रहता था,पर छोटका का मन यहाँ खूब रम गया था। गाँव में जहाँ हर तरह का अभाव था,बड़े जात वालों के छोटे या बड़े सभी बच्चे उसे बिना बात मारना और राड़ (छोटी जाति वाला) कहकर गरियाना अपना जन्मसिद्ध अधिकार मानते थे तथा उसका रोना अपने मनोरंजन का साधन मानते थे,कभी अपने साथ खेलने नही देते थे,वहीँ यहाँ दोनों बच्चे स्कूल और पढ़ाई के बाद उसीके साथ तो खेलते थे.फ़िर जब वो घर पर न हों तो माँ के कहे कुछ टहल टिकोरा निपटा वह सारा समय उस अनोखे रेडियो को देखता रहता था,जिसमे गाने नाचने वाले साक्षात् दिखते भी थे.मालिक ने ठीक ही कहा था,यहाँ आकर उसका गदहा जनम छूट गया था.....वह हमेशा सोचा करता कि गाँव जाकर सबसे बताएगा कि यहाँ उसने क्या क्या देखा ,सब एक दम भौंचक रह जायेंगे.साफ़ सुथरा चम् चम् चमकता घर ,दिन भर भक भक जलता बिजली बत्ती,बस एक बार टीपा नही कि फट से लाईट जल जाए, पंखा चल जाए.पानी निकालने के लिए कुँआ या चापाकल की कोई कसरत नही,बस टोंटी घुमाई नही कि धार वाला पानी झमाझम गिरने लगे॥जो खाना बड़े बड़े भोज में कभी कभार मिलता था वह यहाँ रोज खाने को मिले.कितने सुंदर सुंदर खिलौने थे,सुंदर सुंदर चित्रों वाला किताब था.दोनों बच्चों ने उसे चित्रों वाली किताब देकर कहानियाँ भी बताई थीं.कितना आनंद था यहाँ. दोनों बच्चे भी छोटका का साथ पाकर बहुत ही खुश थे. उन्हें घर में ही साथी के साथ एक ऐसा टहलू मिल गया था,जिसे जब जो आदेश दो, खुशी खुशी फौरन पूरा कर देता था,चाहे खेलते समय या अपने किसी काम के लिए...
(शेष अगले अंक में...)
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15 comments:
आपकी कहानी पढ़कर बल्कि की एक छवि सी मन में बन गयी है ..पर मन में अंदेशा है आप इसका दुखद अंत करेगी...जारी रखिये
कहानी रोचक है ...आगे जानने का इन्तजार रहेगा ...कुछ अंशों में कर दे ...देखने में पोस्ट बहुत लम्बी लगती है .पढने में तो पढ़ी जाती है एक साथ ..:)
इस्टोरी टेलिंग अद्भुत है....:-)
भाषा और उस भाषा के शब्दों की वजह से पूरा परिवेश आंखों के आमने आ जाता है. अगली कड़ी का बेसब्री से इंतजार है.
ओह, मुझे यह नहीं मालुम था कि आपकी भाषा और देशज जिन्दगी पर आपकी इतनी जबरदस्त पकड़ है।
हां, बुल्कीवाली का अनिष्ट न हो - भाग दो में यह ध्यान रखने का अनुरोध है। वह आपकी ही पात्र है।
कहानी रोचक है ...आगे जानने का इन्तजार रहेगा
सच पाठको की भावनाओं का भी कुछ ख्याल रखियेगा शेष कहानी का इंतज़ार रहेगा
रोचक कहानी है, जो अनजाने में ही दिल में जगह बना लेती है। बधाई।
रंजना जी,
कहानी बहुत अच्छी चल रही है. भाषा और कथन का प्रवाह बहुत सही बन पडा है. बुल्कीवाली की कथा को आगे और जानने की प्रबल इच्छा है.
कहानी तो बहुत सुन्दर हे लेकिन .... कही बडे लडके का ...... या फ़िर बुल्कीवाली ... के साथ कुछ बुरा ना हो.
आप की कहानी बहुत रोचक लगी.
धन्यवाद
kahani to achchi hai lekin iska ant bura mat karana
achchi aur prabhavshali kahani. agli kisht ka intjaar rahega.
http://www.ashokvichar.blogspot.com
Nice story with differance between rural and urban culture. Awaiting for next part. I'll be happy to see you on my blog http://atmhanta.blogspot.com
बहुत रोचक बह रही है कहानी-आगे इन्तजार है!!
रँजना जी,
" बुल्कीवाली की कथा " से
"मधर इँडियावाली " नर्गिस जी की अमर छवि आँखोँ के सामने आ गई -आगे की कथा का इँतज़ार है .
.बेहद सुँदर कहानी रचने के लिये आपको अनेकोँ बधाई ..
स स्नेह,
- लावण्या
intzar rahega
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