सर्वविदित है कि पठन- पाठन,मनन-चिंतन व्यक्ति को बौद्धिक स्तर पर समृद्ध बनाता है.पुस्तकें या ज्ञान चाहे धर्म अर्थ से सम्बंधित हो या किसी भी विषय विशेष से सम्बंधित,व्यक्ति को जहाँ एक ओर आनंदानुभूति कराते हैं, वहीँ ज्ञानवर्धन भी करते हैं. यूँ खेल कूद,बागवानी,भ्रमण,कला के विभिन्न मध्यम से जुड़ना, इत्यादि भी व्यक्ति के आनंद का श्रोत बन उसे संतोष और मानसिक शान्ति प्रदान करने,विषाद मुक्त रखने में बहुत प्रभावी होते हैं, पर इसमे ज्ञानवर्धन का तत्त्व उतनी मात्रा में नही होता जो पठन पाठन में होता है.
आनंद के इन अजश्र श्रोतों से जुड़ा एक संतुष्ट और परसन्नमना व्यक्ति अपने आस पास अपने से जुड़े लोगों में भी निरंतर उत्साह उर्जा और प्रसन्नता ही संचारित करता है,पर समय की बात है,मनुष्य का कोमल मन कितना भी धैर्य क्यों न पकड़े रहे, कभी न कभी ऐसे दुर्घटनाओं तथा प्रसंगों से गुजरता ही है जहाँ विषाद से घिरे बिना नही रह पाता और मानसिक कष्ट के क्षणों में वे सारे अवयव जो सामान्य अवस्था में आनन्द के श्रोत हुआ करते थे व्यक्ति के लिए अपने मायने खो चुके होते हैं या फ़िर यदि मन बहलाव के लिए जबरन अपने को खींच कर उनसे जुड़ शान्ति पाने का प्रयास किया भी जाए तो यह मन को पूरी तरह बाँध नही पाता.यदि इनमे लिप्त कर भी लिया जाए किसी तरह अपने आप को तो अधिकांशतः यह एक दैहिक क्रिया बनकर रह जाती है.कष्टों से गुजर रहा व्यक्ति यदि दीर्घ काल तक उस मानसिक अवसाद की स्थिति में रहता है तो पीड़ा घनी भूत हो मानसिक विकृति,पागलपन या आत्महत्या तक ले जाती है.मानसिक कष्ट की यह अवस्था व्यक्तिगत कष्ट के कारण या संवेदनशील मनुष्यों द्वारा अन्य के कष्ट के कारण भी हो सकती है.पर सामान्यतया जब दुख या सुख के अतिरेक को या भावनाओं के अतिरेक को अभिव्यक्ति नही मिलती तो मन मस्तिष्क पर आच्छादित मनोभाव घनीभूत हो कष्ट का कारण बन जाते हैं.
कहते हैं न कि दुःख बांटने पर सौ गुना घटते और सुख बांटने पर सौ गुना बढ़ते हैं.यह वस्तुतः मनोभावों को अभिव्यक्ति मिल जाने के कारण ही होता है.यूँ तो रोना भी स्वस्थ्य के लिए बड़ा ही उपयोगी माना गया है,क्योंकि रो लेने पर कुछ समय के लिए लगभग वैसी ही स्थिति होती है जैसे घनीभूत हो चुके बादलों के बरस जाने पर आसमान साफ़ हो जाता है.पर रोना मन को हल्का करने का कोई स्थायी उपाय नही है.कई कष्ट ऐसे होते हैं,जिनका न तो कोई समाधान होता है या जिन्हें व्यक्ति सहज ही सबके सामने अभिव्यक्त कर मन हल्का कर सकता है.सिर्फ़ कष्ट ही नही कई बार ऐसे विचार चिंतन भी मन मंथन का कारण बन जाते हैं और लंबे समय तक यदि इन्हे अभिव्यक्ति न मिले तो मन को बोझिल कर देते हैं.अब अभिव्यक्ति के लिए व्यक्ति रूप में मनोनुरूप पात्र का मिलना भी एक समस्या है.बहुत कम लोगों को यह सौभाग्य मिलता है कि मित्र रूप में उसके जीवन में कोई ऐसा उपलब्ध हो जो उसकी बातों भावनाओ को पूर्ण रूपेण समझे और जब वह चाहे व्यक्ति के आवश्यकतानुरूप समय से उपलब्ध भी हो.
ऐसे समय में लेखन अभिव्यक्ति का वह माध्यम है जिसमे निश्चित रूप से व्यक्ति को समाधान न सही पर शान्ति अवश्य ही मिल जाती है.गद्य ,पद्य,लेख ,संस्मरण,डायरी इत्यादि किसी भी विधा में संवेदनाओं को अभिव्यक्त कर व्यक्ति दुखों को घटा और सुख संतोष पा सकता है.आवश्यक नही कि ये सब प्रकाशन हेतु ही हो या जब तक किसी लेखन शैली या विधा में पारंगतता न हो लेखन कार्य न किया जाए.वस्तुतः जब व्यक्ति लेखन कार्य में संलग्न होता है,विषय वस्तु में इस प्रकार निमग्न हो उसमे स्थित हो एकाग्रचित्त जाता है और भाव में डूबने के साथ साथ शब्द चयन तथा वाक्य विन्यास के प्रति सजग हो इस तरह पूरे कार्य में तल्लीन हो जाता है कि यह अवस्था " ध्यान"(मेडिटेशन) की अवस्था होती है.देखा जाए तो किसी मंत्र का जाप या इष्ट का ध्यान,पूजा पाठ जो मन को एकाग्रचित्त कर ध्यान की अवस्था द्वारा चित्त वृत्ति को सुदृढ़ स्वस्थ करने की प्रक्रिया मानी जाती है, कई बार मन स्थिर रख पाने में उतनी कारगर नही होती पर लेखन चूँकि समग्र रूप से एक प्रयास है व्यक्ति को एक केन्द्र में अवस्थित रखने में सहायक होता है, तो यह ध्यान के बाकी अन्य उपायों की तुलना में अधिक कारगर ठहरता है..और यह तो सर्व विदित है की ध्यान किस प्रकार मानसिक स्वस्थ्य प्रदान करने में सहायक है.
इतना ही नही,लेखन के विभिन्न माध्यमो से कथ्य में काल्पनिक रंगों का समावेश कर मन मस्तिष्क को आघात पहुँचा रही उन स्मृति दंशो से जिन्हें कि प्रकट कर पाना कठिन होता है किन्ही अपरिहार्य कारणों से,नए कलेवर में ढाल व्यक्ति सहजता से प्रकट कर उनसे मुक्ति पा सकता है.
कई लोग डायरी को अपना आत्मीय और मित्र बना,उसके साथ अपने अनुभूतियों और घटनाओं को बाँट लेते हैं.मन भी हल्का हो जाता है और इसके साथ ही जब चाहें तब उन संगृहीत पन्नो में जाकर बीत चुके घटनाओं और मनोभावों की गलियों में विचर आनंदानुभूति कर आते हैं.कुछ लोगों में यह वृत्ति होती है कि जहाँ कहीं कोई अच्छी पंक्ति उधृत देखी,झट उसे संगृहीत कर रख लिया.देखते देखते कुछ समय में विचारों का एक विशाल संग्रह बन जाता है और जब चाहे व्यक्ति उनके बीच ऐसे घूम फ़िर आ सकता है जैसे भूले बिसरे किसी मित्र से मिल आए हों.
मनोचिकित्सकों द्वारा भी लेखन को कारगर उपाय रूप में चिकित्सा हेतु अपनाया जाता है.रोगी को हिप्नोटायिज कर अर्ध चेतना की अवस्था में ले जाकर मन में गहरे गुंथे पड़े पीडादायक क्षणों से गुजारकर रोग के तह तक पहुँचने का प्रयास किया जाता है.इसके साथ ही रोगी द्वारा लेखन कार्य भी कराया जाता है और रोगी को अपने सभी प्रकार के मनोभावों को लिख कर अभिव्यक्त करने को प्रोत्साहित किया जाता है.इससे एक साथ दोनों कार्य हो जाते हैं,एक तो अनजाने ही रोगी लेखन क्रम में ध्यानावस्था को पाकर मानसिक स्वास्थलाभ करता है,और दूसरे चिकित्सक को भी रोग के जड़ तक पहुँच उसके अनुरूप चिकित्सा विधि तय करने में सहूलियत मिलती है.
जो लेखन कला में प्रवीण हैं,उनके लिए निरंतर लेखन अति आवश्यक है।क्योंकि लेखन कार्य में संलिप्तता लगभग वैसा ही कार्य करती है जैसे जमे हुए पानी को यदि बहाव दे दिया जाए तो पानी सड़ता ख़राब नही होता है.निरंतन चिंतन और अभिव्यक्ति विचारों को सदैव नूतनता प्रदान कर व्यक्ति को समृद्धि बनाती है.इसके साथ ही यह वह संतोष और उर्जा देती है जो जिजीविषा को पालित पोषित रखते हुए व्यक्ति को सदैव रचनात्मकता प्रदान करती है,जिसके सहारे वह अपना ही नही कईयों का भला कर सकता है॥ कहते हैं न कि जो काम तलवार नही कर सकती वह कलम कर सकती है........
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14 comments:
bilkul sahi kaha aapne.likhne se hamare ander ka gubaar bahar aa jata hai,fir jo sukun milta hai use bayan nahi kiya ja sakta.
ALOK SINGH "SAHIL"
आपके कलम ने तो नही लेकिन कीबोर्ड ने अद्भुत लिखा..... बधाई
बहुत ही बढ़िया लिखा है. एक जरूरी विषय पर बहुत प्रभावी लेख है. भाषा पर आपकी पकड़ बहुत अच्छी है.
बहुत सही लिखा है आपने..लिखना भी एक नशा है दिल की बात कहने का एक अद्भुत तरीका ..आपने अच्छा लिखा है इस विषय पर ..
हर व्यक्ति के भीतर एक कलाकार होता है ,जरुरत है उसे सही दिशा में ले जाने की ,आजकल के भागते दौड़ते जीवन में तनाव इतना है की उसे कम करने के लिए हम कोई भी ऐसा साधन अपनाए जो हमें सूट करे ....ये ओर बात है हमें आपको लेखन सूट करता है
aapne Bahut sahi likha hai.
सटीक!!बहुत ही बढ़िया लिखा है.सहमत हूँ आपसे.
सही बात है लेकिन बाप जी गरियाने लगे है कहते है लिखता है
अब क्या कहे बस आपने मरहम लगा दिया
आपसे इस बारे में सवांद भी हुआ था. इतर लेखन में से यंभव है कि आप लेख न लिख कर डायरी लिख लें या स्त्री विमर्श पर न लिख कर बच्चों के लालन पालन पर लिख लें लेकिन कहानी लेखन में ये चाह कर भी नहीं हो पाता. आप छटपटाते रहते हैं और कहानी नहीं सूझती. ऐसा एक बार नहीं कर बार होता है. कभी लम्बे अरसे के लिए तो कभी कम अरसे के लिए. मैं पिछले 50 महीने से छटपटा रहा हूं और कहानी नहीं सूझती. कारण नहीं जानता. कई हो सकते हैं. ये भी कि जिस तरह की कहानी आज लिखी जा रही है मैं शायद वैसी न लिख पाऊं. पहले लिखे से खराब लिखना नहीं चाहता और बेहतर हो नहीं पा रहा. तो यही सही. बेशक लिखना मुक्ति है लेकिन हिस्से में मुक्ति न हो तो क्या कीजिये.
इंतजार. इंतजार और इंतजार. कभी तो फिर शुरु होगा.
सूरज
Apne man/vivek ke umadte gumdte bhav/chintan ko kishi bhi vidha (nirtye/sangeet/natye/chitrkarita...) ke madhyam se abhivakti se urja ka jo sanchar hota hai uske bare main kaya kahun????? ye bhi ek nasha hai dost aur iske surur...
Bahut hi umda lekh.
Apne man/vivek ke umadte gumdte bhav/chintan ko kishi bhi vidha (nirtye/sangeet/natye/chitrkarita...) ke madhyam se abhivakti se urja ka jo sanchar hota hai uske bare main kaya kahun????? ye bhi ek nasha hai dost aur iske surur...
Bahut hi umda lekh.
आप बहुत अच्छा लिखती हैं। इतने सुन्दर लेख के लिए बधाई।
बहुत सुन्दर लेख।
मेरा अपना अनुभव है कि लेखन और उसके परिमार्जन से अपने खुद में जो Clarity आती है, वह किसी अन्य विधा से नहीं आती।
बिल्कुल सही लिखा आपने.
में सहमत हूँ.
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